हिन्दी कविताएँ : दुर्गेश कुमार मिश्रा

Hindi Poetry : Durgesh Kumar Mishra


प्रेम : कहीं स्थाई, कहीं स्मृति -1

प्रेम… सबके हिस्से आया ज़रूर, कभी एक मधुर राग बनकर, तो कभी एक अधूरी गूंज बनकर। कभी हृदय की गहराइयों में स्थाई बन बैठा, तो कभी एक धुंधली स्मृति की तरह, साँसों के कोनों में ठहर गया। प्रेम… जब आया तो जैसे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड सिहर उठा, वृक्षों की शाखाएँ फूलों से भर गईं, नदियाँ अपनी सीमाओं को भूलकर बह चलीं, और वायु में एक अदृश्य मिठास घुल गई। प्रेम के स्पर्श ने पत्थरों को मोम बनाया, वर्षों से सूखी धरती को भी अंकुरित कर दिया। परन्तु… हर प्रेम अपने पूर्ण स्वरूप में नहीं ठहरता, कुछ प्रेम पत्तों की तरह झड़ जाते हैं, तो कुछ वृक्ष की छाल बनकर सदियों तक जीवित रहते हैं। जब प्रेम स्थाई बना, तो वो प्राणों में लय हो गया, धड़कनों में समा गया, एक मौन संकल्प की तरह, जिसे शब्दों की आवश्यकता न थी। साथ में चलने वाला एक साया, जो दिन के उजालों में भी संग रहता, और रात के अंधेरों में भी थामे रखता। पर जब प्रेम स्मृति बना, तो वो एक अनकही पीड़ा बनकर उभरा, हर सन्नाटे में उसकी आहट सुनाई दी, हर भीड़ में उसकी अनुपस्थिति चुभी। वो एक रुकी हुई सांस की तरह, जिसे छोड़ा नहीं जा सकता, पर जिया भी नहीं जा सकता। कभी एक भूले हुए गीत की धुन सा, कभी एक नाम की खामोश प्रतिध्वनि सा। प्रेम… एक अधूरा पत्र, जो कभी पूरा नहीं हुआ, एक सपना, जो नींद टूटते ही बिखर गया। एक आँखों की कोर पर ठहरा हुआ आँसू, जो गिरना चाहता है, पर साहस नहीं जुटा पाता। प्रेम… जब स्थाई बना, तो आत्मा का संगीत बन गया। जब स्मृति बना, तो हृदय का शोकगीत बन गया। प्रेम… कभी मंदिर की घंटी सा पावन, तो कभी श्मशान की राख सा शांत। प्रेम… कभी संपूर्णता का उत्सव, तो कभी विछोह की चुप्पी। प्रेम… एक यात्रा, जो कभी समाप्त नहीं होती, एक अनुत्तरित प्रश्न, जो कभी हल नहीं होता। प्रेम सबके हिस्से आया ज़रूर… परन्तु… किसी के जीवन का संगीत बनकर, तो किसी के हृदय का मौन। किसी के अधरों पर मुस्कान बनकर, तो किसी की पलकों पर नमी। प्रेम… हर बार आता है, हर बार जाता है, पर उसकी छाया कहीं न कहीं, सदैव जीवित रहती है।

प्रेम : कहीं स्थाई, कहीं स्मृति -2

प्रेम… सबके हिस्से आया ज़रूर, कभी श्वासों की थिरकन बनकर, तो कभी मौन की पीड़ा बनकर। कभी पलकों की कोरों से टपका, तो कभी हृदय की गहराइयों में ठहर गया। जब आया तो ऐसा लगा, जैसे समय ने थमकर उसकी आहट सुनी हो, जैसे धड़कनों ने उसकी छुअन में एक नया अर्थ पाया हो। प्रेम… जब स्थाई बना, तो आत्मा की गहराइयों तक उतर गया, शब्दों की सीमा से परे, एक मौन अनुभूति की तरह, जो सांसों के साथ बहती रही, जो धड़कनों के साथ सिहरती रही। वो सुबह की पहली किरण बनकर आया, जो अंधेरों को भेदती चली गई, वो साँझ की अंतिम लालिमा बना, जो क्षितिज के पार खो गई। पर जब प्रेम स्मृति बना, तो वो एक अधूरी पुकार की तरह काँपा, एक बुझते दीप की अंतिम लौ की तरह थरथराया। हर सन्नाटा उसकी चीख बन गया, हर भीड़ उसकी अनुपस्थिति की गवाही देने लगी। वो नाम जो कभी अधरों पर मुस्कुराया था, अब आँखों से टपकते अश्रु में बदल गया। एक मौन… जो दिल के किसी कोने में अनसुना सा पड़ा रहा, एक घुटन… जो कभी आह में बदलकर रह गई। प्रेम… जब स्थाई बना, तो आत्मा का संगीत बन गया, जो हर सांस के साथ गूँजता रहा, हर धड़कन के साथ बहता रहा। प्रेम… जब स्मृति बना, तो हृदय का शोकगीत बन गया, जो हर रात की खामोशी में सिसकता रहा, हर भोर की नमी में काँपता रहा। प्रेम… कभी पूर्णता की अनुभूति, तो कभी विछोह की रिक्तता। कभी प्राणों का स्पंदन, तो कभी आत्मा की चुप्पी। कभी एक संकल्प, जो युगों तक साथ चले, तो कभी एक प्रश्न, जो सदियों तक अनुत्तरित रहे। प्रेम… जब आया तो अस्तित्व में समा गया, जब गया तो शून्य में बदल गया। जब मिला तो पूर्णता बन गया, जब बिछड़ा तो अधूरापन दे गया। प्रेम… सबके हिस्से आया ज़रूर… किसी की सांसों में बसा, तो किसी की आँखों से टपका। किसी की राहों का दीप बना, तो किसी की मंज़िल का अंधकार। प्रेम… जो स्थाई बना, वो अनंत का अमृत हो गया। जो स्मृति बना, वो काल का विष बन गया। प्रेम… एक अधूरी कविता की तरह, जो शब्दों में कभी पूरी नहीं हुई, एक अनकही कहानी की तरह, जो हर बार अधूरी रह गई। प्रेम… सबके हिस्से आया ज़रूर… पर किसी के जीवन का संगीत बनकर, तो किसी की आत्मा का मौन बनकर। किसी के अधरों पर हँसी बनकर, तो किसी की पलकों पर अश्रु बनकर। प्रेम… अनंत भी… अधूरा भी… शाश्वत भी… क्षणिक भी…

"बड़े बाबू और एक भिखारिन"

सड़क के किनारे, धूल में सनी, वो भिखारिन बैठी थी – एक टूटी हुई काया, चेहरे पर झुर्रियाँ नहीं, समाज के तमाचे की दरारें थीं, आँखों में आँसू नहीं, जैसे सदियों का संचित सूखा था। और उधर, बड़े बाबू – सफेद कुर्ते की चमक में लिपटे, कलाई पर सोने की घड़ी टंगी, कार के शीशे से झाँकते हुए, जैसे पूरी दुनिया उनके पैरों तले हो। भिखारिन ने काँपते हाथों से हाथ फैलाया, एक रोटी की नहीं – बस एक सम्मान की भीख मांगी थी, बड़े बाबू ने नजर उठाई, एक सिक्का उछाल दिया – मानो उसने अपनी दया बेच दी हो। सिक्का उस धूल भरी जमीन पर गिरा, भिखारिन ने थरथराते हाथों से उसे उठाया, पर तभी बड़े बाबू की आवाज गूंजी – "सारा शहर गंदा करती हो, हटो यहां से!" वो आवाज नहीं थी, समाज के सड़े हुए जमीर की गूंज थी। भिखारिन ने सिक्के को हाथ में लिया, फिर उसे ठोकर मार दी – क्योंकि भूख सह ली जाती है, पर अपमान का घूंट – आत्मा को तोड़ देता है। रात गहरी थी, सड़कें सुनसान थीं, भिखारिन के फटे आँचल में ठंडी हवा घुस रही थी, पर बड़े बाबू के बंगले की खिड़कियों से रोशनी छलक रही थी, जहाँ गरीबों के उत्थान पर योजनाएँ बन रही थीं। सुबह बड़े बाबू मंच पर खड़े हुए – महिला सशक्तिकरण पर भाषण दिया, गरीबी उन्मूलन के सपनों को बेच दिया, तालियाँ बजीं, कैमरे चमके, सम्मान के हार गले में पड़े, पर भिखारिन अब भी उसी सड़क पर थी – जहाँ समाज का असली चेहरा बिखरा पड़ा था। भिखारिन ने आँचल को कसकर बाँधा, अब वो भीख नहीं मांगेगी, वो भूखी रहेगी, मगर आत्मसम्मान की मौत से इंकार करेगी। अब उसकी आँखों में आँसू नहीं – एक आग थी – जलाने के लिए, इस सड़े हुए समाज की खोखली दीवारों को। बड़े बाबू की गाड़ी फिर गुजरी, भिखारिन ने उसे देखा – इस बार हाथ फैलाए नहीं, बल्कि अपनी मुठ्ठी भींच ली, क्योंकि भूख से बड़ी, अब उसके भीतर क्रांति जाग चुकी थी। अब वो न रोटी मांगेगी, न सिक्का – अब वो अपना अधिकार मांगेगी। उसकी सूखी आँखों में अब विद्रोह की लपट थी, और बड़े बाबू के महल की नींव, उसकी उस मूक क्रांति के नीचे थरथरा रही थी। समाज की खाई अब सिक्कों से नहीं पटेगी, इंसानियत को सम्मान चाहिए, दया नहीं, हक चाहिए, भूख से बड़ी आग – अब जल चुकी है, भिखारिन अब इतिहास रचेगी, बड़े बाबू के सिक्कों पर नहीं, अपने आत्मसम्मान की राख पर।

पापा की परी

इंस्टा की दुनिया में उड़ती हैं, फिल्टर के पर लगाकर फिरती हैं। नाम रखा है – "पापा की परी," पर रील में अदाएं किसी अप्सरा से कम नहीं। कैप्शन में लिखती हैं – "Daddy’s little girl" और तस्वीर में होंठो पर लाल लिपस्टिक, पीछे बजता गाना – “मैं तो बेस्ट हूँ गर्ल!” पापा की परी जब घूमने जाती है, कैप्शन डालती है – "Papa ki princess in Paris!" पर असली खर्चा किसका है, ये बताना शायद स्टेटस के खिलाफ है। कॉलेज में बैग में बुक कम, मेकअप किट ज्यादा मिलती है। लाइक्स और कमेंट्स की भूख ऐसी – कि ब्रेकअप के आंसू भी लाइव मिलते हैं। "पापा की परी हूँ, मुझे कोई छू ना सके!" और DM में – "Hi baby, coffee chale?" स्टोरी में मोर पंख वाली मासूमियत, चैट में स्नैप भेजती अदाएं कातिलाना। पापा की परी को संस्कार की फिक्र नहीं, बस इंस्टा स्टोरी अपडेट होनी चाहिए। "गुड नाइट डैड" का मैसेज घर में, और रातभर कॉल पे "गुड नाइट बेब!" पापा के पैसों से पार्टी चलती है, और कैप्शन में लिखा होता है – "Self-made Queen!" क्रेडिट कार्ड से बिल भरते वक्त खुद को "Independent" कहती है। जब असली ज़िंदगी सवाल पूछती है, तो जवाब होता है – "Mind your own business!" पर पापा की परी को ये कौन समझाए – ज़िंदगी इंस्टा की रील नहीं, जहाँ हर बार फिल्टर से चेहरा चमक जाए। कभी हकीकत का आईना देखना, पापा की परी को शायद यकीन न आए – क्योंकि रील की दुनिया में तो हर परी 'स्वतंत्र' और 'परिपक्व' दिखाई देती है। मगर असल में? वो आज भी पापा के क्रेडिट कार्ड से ही अपनी पहचान खरीद रही होती है।

पहली रात प्रेम की, दूसरी रात अलविदा

पहली रात— साँझ ने अपने जलते हुए रंग धीरे-धीरे आँखों में घोल दिए थे। साँसों में कोई अपरिचित गंध थी, जो परिचय से भी गहरी लगती थी। हम शब्दों से बचते रहे, चुप्पी में कोई प्रार्थना थी, जिसे सिर्फ़ धड़कनों ने सुना। उसने मेरी हथेलियों को अपनी हथेलियों में लिया और कहा— "प्रेम, रौशनी की तरह होता है। हम इसे पकड़ नहीं सकते, सिर्फ़ महसूस कर सकते हैं।" मैंने विश्वास किया, क्योंकि उन पलों में प्रेम ही ईश्वर था। दूसरी रात— वही समय, वही स्थान, पर वह मौन, जो प्रेम का संगीत था, अब एक अनसुना शोर बन चुका था। आँखों में जलते हुए दीप थे, जो बुझने के लिए काँप रहे थे। उसने मुझे देखा, और मैं उसके भीतर के अंधकार को पढ़ गया। "हमें चलना होगा," उसने कहा। स्वर में कोई झंकार नहीं थी, बस एक निर्विकार पीड़ा थी। "क्यों?"— मैंने पूछना चाहा, पर शब्द मेरे गले में किसी जड़ होती बेल की तरह उलझ गए। उसने मेरी हथेलियाँ छोड़ दीं, जैसे कोई सूखी नदी किनारों से मुँह मोड़ ले। मैंने उसे रोकना चाहा, पर प्रेम, जिसे मैंने ईश्वर माना था, अब शोक की तरह मेरे सामने खड़ा था। वह चली गई। मैं वहीं खड़ा रहा। रात के अंतिम पहर में, जब अंधकार गाढ़ा हो चुका था, तब मुझे एहसास हुआ— "कुछ अलविदा हमेशा के लिए होते हैं।"

वह स्त्री -1

वह स्त्री देवी की तरह थी— सहज, शांत, अपरिवर्तनीय, जैसे सृष्टि की कोई प्राचीन प्रार्थना, जो युगों से गूँज रही हो, बिना किसी स्वर, बिना किसी आग्रह। उसका चरित्र गंगा-सा निर्मल था, जिसमें छल नहीं था, ना कोई मिलावट, ना कोई संदेह। जो भी उसके पास आया, वह शुद्ध होकर लौटा, पर कोई भी उसे पूरी तरह समझ नहीं पाया। वह प्रेम करती, तो समर्पण की पराकाष्ठा तक जाती, वह त्याग करती, तो स्वयं को भी भूल जाती। किंतु, जैसे गंगा अपनी ही लहरों में भटकती रहती है, वैसे ही वह भी भटकती रही— कभी समाज की सीमाओं में, कभी अपने ही विचारों में। वह स्नेह लुटाती रही, परंतु स्वयं स्नेह की प्यासी रही। वह शक्ति थी, सहनशीलता थी, पर उसकी आँखों में एक अदृश्य पीड़ा भी थी, जो गंगा के प्रवाह की तरह अंतहीन थी, अथाह थी। कभी-कभी, देवी होना भी एक श्राप होता है।

वह स्त्री -2

वह स्त्री देवी की तरह थी— न कोई गर्व, न कोई आग्रह, बस एक अथाह गहराई, जिसमें प्रेम, धैर्य और करुणा का संगम था। उसका स्पर्श शीतल छाँव की तरह था, जो थके हुए मन को विश्राम देता, उसकी वाणी ऐसी, जैसे मंदिर की संध्या आरती— कोमल, पर गूंजती हुई। उसका चरित्र गंगा की धारा था— निर्मल, निःस्वार्थ, प्रवाहमान। वह सबको शुद्ध कर सकती थी, पर स्वयं कितनी पीड़ाओं से गुज़री, यह कोई नहीं जान पाया। उसने हर अपमान को सहनशीलता की रेत में समाहित कर लिया, हर तिरस्कार को अपने भीतर मौन की वेदी पर समर्पित कर दिया। उसने प्रेम किया— बिना किसी शर्त के, बिना किसी अधिकार के, जैसे गंगा अपना जल हर प्यासे को अर्पित कर देती है, बिना यह देखे कि कौन उसे पूज रहा है और कौन उसे दूषित कर रहा है। उसकी आँखों में एक अथाह संसार था, जहाँ त्याग की कहानियाँ लिखी थीं। वह माँ थी, प्रेमिका थी, बेटी थी, पर सबसे अधिक वह स्वयं थी— एक स्त्री, जो समय के प्रवाह में अपनी पहचान खोजती रही। वह देवी थी, पर देवी होने की पीड़ा भी थी उसमें। वह गंगा थी, पर गंगा की तरह अकेली भी थी। बहती रही, सहती रही, और अंततः समर्पण बनकर विलीन हो गई।

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