Hindi Poetry : Dr. Bipin Pandey

हिंदी कविताएँ : डा. बिपिन पाण्डेय


ग़ज़लें

(1) हर किसी को ज़िंदगी से प्रेम होना चाहिए। मान बोझा भूलकर हमको न ढोना चाहिए।। मुश्किलें आती रहेंगी जूझना इनसे सदा, हार के डर से नहीं बस बैठ रोना चाहिए। फूल सबको बाँटिए अपने यहाँ पर हैं सभी, नफरतों के खार भूले से न बोना चाहिए। पाकीजगी दिल में रखें और नेकी पर चलें, याद कर रब को हमेशा शब में सोना चाहिए । प्रेम को कहते खुदा सब बात इतनी मान लें, प्रेम का दिल में हमेशा एक कोना चाहिए। (2) खुशियों के मौसम में लगती, मायूसी सी छाई है। पेशानी पर बल हैं सबके ,क़मरतोड़ महँगाई है।। टँगी अलगनी पर कोने में, सिकुड़ रही है ठंडक से, सुधि लेने की रोज़ शिकायत,करती फटी रजाई है। हाथों में डिग्री की फाइल,लेकर दिखा रहे सबको, काम तलाशी करने में ही ,भटक रही तरुणाई है। बहा ले गई बाढ़ भले ही,खड़ी फ़सल सब खेतों की, सोच रहा है कृषक खेत में , करनी पुनः बुवाई है। सही ग़लत का फ़र्क़ बताना,उनको लगता लफ़्फ़ाज़ी, जिनको यश का साधन केवल,दुनिया में रुसवाई है। बाँट रहा वह खाना, पानी, कंबल, तंबू लोगों को, बस्ती में वोटों की ख़ातिर ,जिसने आग लगाई है। पूछे कौन हाल बेटे का ,बाहर से घर आने पर, नहीं रही माँ घर पर अब तो,करती राज लुगाई है। (3) रोक कब पाया ज़माना चल रही है लेखनी। पर बुराई को सदा से खल रही है लेखनी।। कब चला तलवार लेकर सत्य दुनिया में कहो, सत्य का तो सर्वदा संबल रही है लेखनी। घाव ये घातक करे शमशीर है कुछ भी नहीं, पर सभी की दृष्टि में कोमल रही है लेखनी। हो गए जज़्बात गायब फिक्र करता कौन अब, नित जरूरत के मुताबिक ढल रही है लेखनी। ताज छीने तख्त पलटें कह रही तारीख़ ये, याद करिए कौम की हलचल रही है लेखनी। नाज़ जिस पर हिंद को था वह अदब तो है नहीं, काश हो वैसी कि जैसी कल रही है लेखनी। आफताबी नूर अब तो दूर की कौड़ी हुआ, जुगनुओं- सी लौ समेटे जल रही है लेखनी।

मुक्तक

(1) समय पर काम जो करते वही सरनाम होते है। रहे जो भाग्य के वश में वही गुमनाम होते हैं। करो मत वक्त को जाया किसी के प्यार में पड़कर, मुहब्बत से जरूरी भी बहुत से काम होते हैं।। (2) सत्ता का गुणगान करे,ये कवि का काम नहीं होता। चाटुकारिता करने से, कोई सरनाम नहीं होता। इस धरती पर कर्मों से,हर प्राणी पूजा जाता है, बस रघुवंशी होने से ,कोई प्रभु राम नहीं होता।। (3) ज़रा नहीं अफसोस किसी को, अपना कुछ भी खोने में। नागफनी आँगन में फैली, सिकुड़ी तुलसी कोने में। सत्य, अहिंसा, प्रेम-भाव को, अमर बेल- सा फैलाओ, लाभ नहीं मिलता है कोई, बीज घृणा के बोने में।। (4) नदिया में हो जल प्रवाह तो,नाव चलाई जाती है। जो जिज्ञासा रखते उनको ,बात बताई जाती है। अनुपम भावों से उद्बोधन,कविता करती रही सदा, इसीलिए बंदूक छोड़कर, कलम उठाई जाती है। (5) महल- दुमहलों में बस ,छलछंद दिखाई देते हैं। देखो जिधर वहाँ पर बैठे , जयचंद दिखाई देते हैं। खुशियाँ नहीं भूल कर ठहरीं,आँखें खोल देख लो प्यारे, जिस घर में इज्ज़त रहती है ,पैबंद दिखाई देते हैं।।

गीतिका

(1) गोदी में ले आँचल से ढक,हर पल छाया करती थी। दुनिया के कष्टों से मुझको, सदा बचाया करती थी।1 मुझे सुलाने आती थी जब,भूल थकावट रातों में, मधुर मधुर वाणी में प्यारी ,लोरी गाया करती थी।2 साँझ ढले जब देरी होती ,मुझको घर पर आने में, व्याकुल सी वह द्वारे पर से ,हाँक लगाया करती थी।3 डाँट लगाती जब गलती पर, ऐसा मैंने देखा है, उसके बाद बैठ कोने में,अश्रु बहाया करती थी।4 पास बैठती जब भी माँ तो,छलक पड़े उसकी ममता, हाथ फेर कर सिर पर मेरे, लाड़ जताया करती थी।5 भरी दुपहरी चूल्हा फूंके,सभी उँगलियाँ जल जातीं, बड़े प्रेम से बैठी भोजन ,नित्य बनाया करती थी।6 पल्लू सिर पर लेकर चलती,कर लेती थी वह घूँघट, देख बड़े बूढ़ों को हरदम, खूब लजाया करती थी।7 (2) कामनाएँ ही बची हैं इक सहारा क्या करें। साथ तन का है नहीं यों हम गुजारा क्या करें।।1 आज अपनी आँख नम है सब समय का फेर है, मैं अकेला घूमता जैसे अवारा क्या करें।2 गीत मधुरिम गा रही है कोकिला बैठी यहाँ, लोग तो समझे नहीं संदेश प्यारा क्या करें।3 छोड़ कर हमको गए जो एक छोटी बात पर, आ गए वे लौटकर देखो दुबारा क्या करें।4 हम खड़े सागर किनारे प्यास हमको है लगी, जल बहुत है पास मेरे पर है' खारा क्या करें।5 डूब जाते बीच धारा दुख मुझे होता नहीं, कूल ने ही कर लिया मुझसे किनारा क्या करें।6 (3) बुरी लगती यहाँ किसको अगर होती बड़ाई है। बड़प्पन की दिलों में आग लिप्सा ने लगाई है ।।1 जड़ें मजबूत हैं लेकिन हमारी हिल रहीं शाखा, युवाओं तुम इसे रोको हवा पश्चिम से' आई है।2 कभी सूखे नहीं तबसे पिता की आँख के आँसू, कलेजे का रही टुकड़ा हुई जबसे पराई है।3 मिटा आतंक दे आओ लगाकर जान की बाजी, लड़ो सब साथ में मिलकर छिड़ी जो भी लड़ाई है।4 हवाएँ दे नहीं सकतीं कभी भी साथ दीपक का, अँधेरा शौक है उनका सदा लौ ही बुझाई है।5 शपथ तो ली नहीं हमने नहीं दुश्मन को' मारेंगे अहिंसा का पुजारी हूँ नहीं गर्दन झुकाई है।6 कहा जब सत्य तो हमसे सभी नाराज़ हो बैठे, मगर हमने कभी डरकर,नहीं चुप्पी लगाई है।7

कुंडलिया छंद

लीपा-पोती मत करो,दे दो टूक जवाब। खुशियों का ये मंत्र है,रखना याद जनाब।। रखना याद जनाब,कबीरा यही सिखाए। जो कहता है सत्य,गीत जग उसके गाए। शोषण करते लोग,हमेशा क्षति है होती। यदि बचने की चाह,छोड़ दो लीपा-पोती।। आदत से मजबूर कुछ ,होते ऐसे लोग। नुक्ताचीनी जो करें ,पाले अद्भुत रोग।। पाले अद्भुत रोग, स्वयं को श्रेष्ठ दिखाते। देख अन्य का काम,सदा कमियाँ गिनवाते। मिले सवाया सेर, सेर की आती शामत। छिद्रान्वेषण छोड़ ,बुरी होती ये आदत।। मारो नहीं गरीब के ,कभी पेट पर लात। लगती उसकी हाय ये,भूल न जाना बात।। भूल न जाना बात,समय आता है सबका। बदलेंगे हालात,करम जब होगा रब का। करो सदा सद्कर्म ,राम का नाम उचारो। सबके आओ काम,किसी का हक़ मत मारो।। मजबूरी इंसान से, करवाती वह कार्य। प्रायः जीवन में नहीं,जो होता व्यवहार्य।। जो होता व्यवहार्य,सरलता उसमें होती। छोटा एक प्रयास,दिलाए सुख के मोती। करते श्रमिक प्रयास,पूर्ण हो चाह अधूरी। रहे आग से खेल,देख सम्मुख मजबूरी।। जीवन भर करते रहे,अनथक रोज प्रयास। परिवर्तन हालात में,हुआ नहीं कुछ खास।। हुआ नहीं कुछ खास,नियति के बैठ सहारे। जो करता है कर्म, करे वह वारे-न्यारे। उसके आँगन रोज,खुशी आ करती नर्तन। जो श्रम को आराध्य,मानकर जीता जीवन।।

कहमुकरी

दबा पैर के नीचे रखती। मज़ा गुदगुदा उसका चखती। सँग में उसको रखती हरपल। क्या सखि साजन? नहिं सखि चप्पल।। चाह यही उसको पा जाऊँ। लाख जतन कर उसे रिझाऊँ। हमको नाच नचाए कैसा? क्या सखि साजन? नहिं सखि पैसा।। देख उसे दिल मेरा काँपे। डरकर दुश्मन नैना झाँपे। ऐसी है उसकी कद काठी। क्या सखि साजन? नहिं सखि लाठी।। लंबी चिकनी उसकी काया। देख बदन मेरा थर्राया। तन से सटे जोश हो ठंडा। क्या सखि साजन? नहिं सखि डंडा।। सबसे पहले कपड़ा खोले। इंच इंच फिर बदन टटोले। पूछे वह क्या मेरी मर्जी। क्या सखि साजन? नहिं सखि दर्जी।। जाड़ा उससे लिपट भगाऊँ। उसको अपने अंग लगाऊँ। वही एक सर्दी में संबल। क्या सखि साजन?नहिं सखि कंबल।। चाल ढाल है उसकी न्यारी। बातें अल्हड़ प्यारी- प्यारी। करे रोज़ अपनी मनमानी। क्या सखि साजन?नहीं जवानी।। बच्चों सी वह करता हरकत। उसके शब्दों में है बरकत। घेरे रहता उसको आपा। क्या सखि साजन? नहीं बुढ़ापा।।

दोहे

कोशिश सब करते यही,मिल जाए घर काश। ख़ुशनसीब ही कर सके ,अपनी पूर्ण तलाश।। बुरी न होती जिंदगी, बुरा सदा हो दौर। धुंधला मंजर छोड़ दे,कर मंजिल पर गौर।। श्रम सीकर से ही खुलें,बंद भाग्य के द्वार। इसीलिए तो कर्म को ,पूज रहा संसार।। ओस बिंदु तृण पत्र से ,जब करता अभिसार। निरखि सलोनी प्रकृति को,उपजे मन में प्यार।। कदली में कर्पूर है , मुख भुजंग विष रूप। स्वाति बूँद पड़ सीप में,मौक्तिक बने अनूप।। निकल आँख से पलक पर,ठिठक न पाए नीर। एक बूँद में हो छुपी , सागर जैसी पीर।। हर बाधा को दूर कर,करे लक्ष्य संधान। जग केवल है मानता,अलग वही इंसान।। करते धरते कुछ नहीं,बस बातों के वीर। सोच रहे वे लोग भी,बदलेंगी तकदीर।। बनें भगीरथ श्रम करें,, यदि गंगा की चाह। कठिन लक्ष्य की प्राप्ति हो,चलकर मुश्किल राह।। पाई है जिसने खुशी, गम को सदा तराश। वह रखता है हौसला,होता नहीं निराश।। शेष बची है पास में, बस यादों की छाँव। चलना मुश्किल हो रहा,जलते रहते पाँव।। हवा चली आँधी बनी,हो करके पथभ्रष्ट। कहती छप्पर से सुनो,तुम्हे न करना नष्ट।। नागफनी मन में उगी,हुए कँटीले भाव। अनायास ही शब्द हर,कर देता है घाव।। किया नहीं जिसने कभी,जीवन से परिवाद। केवल वह ही जगत में, रहता है आबाद।। होता रहता झूठ का,नित स्वागत सत्कार। सच्चाई बन बावली ,बैठी है लाचार।। किससे बोलें बैठकर,अब वे दिल की बात। जिन पर लोगों ने किया,बन अपना आघात।। खुद को ही इस जगत का,मत समझें सरताज। कल होगा आगे वही ,जो है पीछे आज।। गुणी जनों की दृष्टि से,छुपें नहीं हालात। पेट देखकर भाँप ले, दाई सारी बात।। बैठे - बैठे काम का, जो करते हैं जिक्र। उनका है उद्देश्य यह,जग जाहिर हो फिक्र।। जागा पीड़ित देखकर,जिसका नहीं ज़मीर। उसको कैसे मान लें, सबसे बड़ा अमीर।। हर प्राणी की प्रार्थना,सुनते हैं जगदीश। पर देते वे कर्म से,खुशियों की बख्शीश।। बदले एक निमेष में,जो अपना किरदार। रंच मात्र भी लोग वे ,मुझे नहीं स्वीकार।। मुंह में जिनके राम हैं,पर है बगल कटार। ऐसे दुहरे लोग तो ,मुझे नहीं स्वीकार।। नहीं रोक पाता उन्हें,कोई भी तूफान। जाते दरिया पार वे ,जो लेते हैं ठान।। कोई देखे पुष्प तो , कोई देखे खार। पौधा तो है एक पर,सबके अलग विचार।। चाहे वह गीता पढ़े ,या फिर पढ़े कुरान। कौआ बोलो कब बना,गुणी और विद्वान।। धन से चाहे रंक पर ,मन से राजकुमार। लगती सभी मुसीबतें,मस्ती का हथियार।। चले गए जो रूठकर,दे करके आघात। हम उनकी तस्वीर से,कर लेते हैं बात।। तेल जले बाती जले,कुछ भी बचे न पास। दीप सतत तम से लड़े,लिए जीत की आस।। विचलित जो होता नहीं,रहता बनकर दीप। अंधकार उसके कभी,आता नहीं समीप।। जला वर्तिका नेह से ,तम को हरे चिराग। बना हुआ दृष्टांत है,जग में उसका त्याग।। बात एक सच्ची खरी,मित्र सुनो दो टूक। ईश्वर से होती नहीं, किसी काम में चूक।। जीवन में जिस व्यक्ति के,होते नहीं उसूल। उससे करना बहस तो,होता सदा फिजूल।। जब हो दिल में प्यार का,सच्चा सा अहसास। अपने रहते दूर जो ,लगते बिल्कुल पास।। लोगों की तस्वीर पर ,जब चढ़ जाता हार। तब दुनिया को खूबियाँ,आतीं नज़र हज़ार।। जो वारिधि को तैर कर,हो जाता है पार। वह नयनों की झील में,खोजे खेवनहार।। जो थकान को भूलकर,करते रहे प्रयत्न। उनके हिस्से में सदा ,आये मोती रत्न।। रखकर साधन पूत जब,प्राप्त करेंगे साध्य। सुयश मिलेगा जगत में,खुश होंगे आराध्य।। हो जाती हैं गलतियाँ,हुई ज़रा यदि चूक। सावधान हर-पल रहो,बात सुनो दो टूक।। छोटी - छोटी बात को ,देते वे ही तूल। पाले रहते जो अहम,मन में सदा फिजूल।।

नवगीत

(1) काट रही है भूख चिकोटी दूध नहीं है छाती में पर चिपकी मुनिया छोटी। देख रही है दुनिया सारी केवल अल्हड़ यौवन, कामी बनकर घूरें नजरें बना ज़माना दुश्मन। हमने गैंडे जैसी अपनी चमड़ी कर ली मोटी। जीवन में बस सबसे ज्यादा जिससे रही करीबी, और नहीं वह कोई अपनी प्यारी सखी गरीबी बोझे जैसा जीवन लगता मुँह बिचकाती रोटी। अन्नपूरणा के जीवन में सिसकी और कराहें। ठंडा चूल्हा देख देख कर चौका भरता आहें, हर बर्तन को लगता जैसे किस्मत उसकी खोटी। (2) करवट लेती यादें रोम रोम में पड़ी सलवटें, करवट लेती यादें। जब तक आग चिलम में बाकी, हुक्का पीना होगा। यादों का परजीवी बनकर, हमको जीना होगा। उर से लिपटी रोतीं रातें, कैसे उन्हें भगा दें? पाट नहीं सकते हम दूरी, बीच दिलों के आई। नौ दिन चले मगर पहुँचे हैं, केवल कोस अढ़ाई। अहम् सुलाने की खातिर, लोरी पुनः सुना दें। सूनी-सूनी लगती है अब, संबंधों की मंडी। राजमार्ग पर सभी दौड़ते, छोड़-छाड़ पगडंडी। आँगन में भावों की आओ, तुलसी एक लगा दें।। (3) गाँवों की पगडंडी राजमार्ग से प्रश्न कर रही, गाँवों की पगडंडी। कब पहुँचेगा मेरे द्वारे, यह विकास पाखंडी। बूढ़े गाँवों में दिखता है, सुविधाओं का टोटा। बच्चे मार रहे तख्ती पर, अब तक बैठे घोटा। गुमसुम देख रहे दादा जी, पहने मैली बंडी।। किंशुक जैसे प्यारे वादे, मन को हैं बहलाते। घनी अँधेरी बस्ती में पर, नहीं उजाले लाते। सुलग रही है अरमानों की, धीरे-धीरे कंडी।। चौपालों की आँखों से है, गायब सारी शोखी। बिना आग के हुक्का बैठा, करे न बातें चोखी। राजनीति का दल-दल गाड़े, द्वारे- द्वारे झंडी।। (4) दिल में पीड़ा अँखुआई है दिल में पीड़ा, सन्नाटे को पढ़कर। ग्रहण लगाती है खुशियों को, गर्द गमों की चढ़कर।। जान बचाने के लोगों को, पड़े हुए हैं लाले। छोड़ सुरक्षा कवच अनोखा, बैठे हैं भ्रम पाले। मार्ग दिखाना होगा सबको, इनको आगे बढ़कर।। काम सदा मढ़ने के आतीं मरी हुई ही खालें। त्याज्य मानकर इन्हें न छोड़ें मिलकर सभी सँभालें। थाप खुशी की रहें लगाते, फटे ढोल को मढ़कर।। मन का बच्चा सदा खोजता, सुख का एक खिलौना। दुख के सघन अँधेरे को वह, करना चाहे बौना। हमें सबेरा लाना होगा, नूतन सूरज गढ़कर।। (5) लेकर हाथ तिरंगा लेकर हाथ तिरंगा। रैली,धरना,हड़तालों में होता है अब दंगा। नहीं बोलने की आज़ादी, लोग लगाते नारे। रोक सड़क की आवाजाही, बैठें पैर पसारे। लोकतंत्र की देखो खूबी, करे झूठ को नंगा। सारे मंचों से जो पढ़ते , जनता का चालीसा। झूठे वादों की चक्की में, सबने उसको पीसा। कोई रोता बदहाली पर, कोई कहता चंगा। व्याख्या में जब संविधान की, घटतौली-सी होती। पीट-पीटकर माथा अपनी, भारत माता रोती। हमको पावन करनी होगी, मैली मन की गंगा। लेकर हाथ तिरंगा।।

  • मुख्य पृष्ठ : काव्य रचनाएँ : डा. बिपिन पाण्डेय
  • मुख्य पृष्ठ : हिन्दी कविता वेबसाइट (hindi-kavita.com)