हिन्दी कविता : बिंदेश कुमार झा
Hindi Poetry : Bindesh Kumar Jha


थक गया हूं

अकेला हो गया हूं उदासी है घेरे, प्रकाश तो है पर हैं हर जगह अंधेरे । थक सा गया हूं मैं जीवन के इस प्रयोजन से, जहाँ होता नहीं काम बिना लगाए धन से । आज में मुझे आज तो कल में कल दिखाई नहीं देता, अब मुझे इंसान में तो इंसानियत दिखाई नहीं देता। एक नई आशा को लेकर निकल चुका हूं। थोड़ी देर सोकर फिर से भविष्य हेतु

आंसू

जो आंसू दिल से निकलते हैं देख उन्हें हम पिघलते हैं व्यथा करूणा जब मिल जाता है तब जल नेत्रजल बन जाता है जब हार मानव जाता है तब जल नेत्र जल बन जाता है दुखों का अत्यंत बाढ़ है क्या मनुष्य सहने को तैयार है देखो उसे व्यंग ना कभी करना इसी साधना को अपने हृदय में भरना

हे सखी सफलता का कपाट खोलो

जान लो मैं ना मानूंगा हार चाहे तुम कर लो तिरस्कार होगा नहीं ऐसे पीछे में हो जाऊं अपना कर्तव्य न निभाऊं सखी अब तो बोलो सफलता का कपाट खोलो मैंने तूफानों को पार किया अपने सपनों को संघर्ष को आकार दिया अग्नि पथ पर चला हूं मैं गरीब अंक में पला हूं मैं ऐसा कि मुझे भेदभाव के तराजू में ना तोलो ए सखी सफलता का कपाट खोलो

तुम्हारी करूणा का क्या फल होगा

मैं दुख के अंधकार में था तुम्हारे इंतजार में था पर तुम नहीं आए नहीं कोई करुणा दिखाएं क्या तुमने सोचा कि मेरी आंखों में नेत्रजल होगा तुम्हारी करूणा का क्या फल होगा हमेशा जीवन में मैंने तुम्हारा साथ दिया तुम्हारा चाहक बन सब कुछ किया पर तुम नहीं आए नहीं कोई करूणा दिखाएं क्या तुमने सोचा कि मेरा मित्र कहीं बेचैन होगा मैं कहार रहा था व्यथा में अपने तुम्हारे आने का सपना देख रहा था पर तुम नहीं आ सके संवेदना का एक शब्द ना कह सके मैं सोचा था मेरा मित्र मेरे व्यथा में अवल होगा अब तुम्हारे करूणा दिखाने का क्या फल होगा

स्वतंत्रता दिवस

शशय श्यामला भूमि पर स्वतंत्रता का शुभ पहर है एकता का समूह मानवता की धारा केवल प्रभु का यहां डर है भारत देश अमर है जहां पावन धरा को करती एकता हमारा शोभा भर्ती जहां दया का कोटि कर है भारत देश अमर है निवेदन भारतवासी से है सच्चाई का साथ न छोड़ो यहा राम का घर है भारत देश अमर है

बदलता दौर

कल जो भगा रहा था मुझे आज वह मुझे बुला रहा है कल जिस ने रुलाया था आज वही हंसा रहा है यह जिंदगी का बदलता दौर है जहां परिवर्तन की शिलाएं हैं कुछ रास्ते गम से भरे हैं जिसमें कई बाधाएं हैं पर यह बाधाएं उन कांटों की तरह है जो फूल को बचाए रखते हैं दुनिया की नजरों से उन्हें छिपाए रखते हैं

युवा

यह जो गोरा बदन था अब वह काला पड़ गया यह जो मुलायम पैर था आज उस में छाला पड़ गया माथे पर पसीना है जिसका कारण कभी बदलता मौसम था आज उसी पसीने का कारण मेहनत से भरा तन था कल जहां हर काम को न करने के लिए बहाना था आज उसी काम को करना है क्योंकि हमें पैसे कमाना था जो कल था वह आज नहीं है हम जहां कल थे आज हम और कहीं हैं

सफलता का आयाम

पर जाए दृष्टि अगर कहीं, सफलता का आयाम हो वहीं । संघर्ष का सिला हो, आत्मविश्वास से मिला हो। हो यदि कोई साथ हमारे हो यदि हम अकेले बेसहारे । रुक ना जाए कदम कभी, जीवन शुरू हुआ है। ह्रदय में स्वाभिमान हो, जीवन कीर्तिमान हो । हम लक्ष्य से आगे बढ़े, जीवन में नए सफलता गढ़े। रुक मत चलते रहो राही, यह समस्याएं नहीं स्थाई ।

जब विश्वास टूट जाता है

आंखों में आंसू होता है, मन दुख पर हाथ फिरोता होता है। इंसान रोम रोम से बिखर जाता है, जब विश्वास टूट जाता है। फूल फूल सा नहीं दिखता है, फिर विश्वास करने को इंसान घबराता है। हर एक में उसे छल देता है दिखाई , जब मुंह मोड़ती सच्चाई। फिर अच्छे - बुरे का भेद जान पाता नहीं, मान लेता सबको एक सा कहीं। ह्रदय कई टुकड़ों में बट जाता है, जब विश्वास टूट जाता है। इंसान आंसुओं में बिलख कर रह जाता है, हां! ,जब विश्वास टूट जाता है।

कुछ देर का आराम

जीवन में थोड़ा रुककर, काम से हटकर। चाय हाथ में लेकर मन को शांति दे कर उन पुराने दिनों को याद करता हूं मन ही मन खुद से उत्साहित होता हूं साथ में हो यदि कोई पुराना साथी जो याद दिला दे बीते दिन की बात बातों की लंबी कतार शुरू हो जाती है, जीवन के नए-नए पहलुओं सुलझ जाती है। चाय खत्म हो गई है वही, पर यह बातें खत्म होंगी नहीं। यह कि राहत भरा समय है जो अत्यंत सुखमय है

कहां था मैं

कहां था मैं और आज कहां आ गया हूं और अपने जीवन पथ से मैं कहीं खो सा गया हूं मालूम नहीं मुझे कुछ फिर भी सब जानता हूं मैं उन खुशहाल दिनों को छोड़कर अभिषेक उनकी स्मृति को जानता हूं मैं कभी निर्भय था मैं किंतु आज कहीं भयभीत हूं मैं कभी हर्ष उल्लास के वर्षा में था मैं आज चिंताओं के बादल तले नीचे हूं मैं किंतु एक चीज है जो अभी बदली नहीं है परिस्थिति के अलावा मेरे वह है साहस मुझे गिरे जीवन से फरियाद तो नहीं अब बस अब सबक है उन पुराने दिनों को वापस लाने का बस एक ललक है

आज का समय

गलियों में सन्नाटा है हृदय में लेकिन शोर है, चिंता से भरी रात है लेकिन राहत सी भोर है। आसमान साफ है और सड़के सुनसान हैं, घरों के चारदीवारी में बंद व्यक्ति की ऐसी हो गई पहचान है। कोई लूट रहा है तो कोई बचा रहा है, कोई दहशत में है कोई जीवन से दुआ मांग रहा है। शहरों का जीवन छोड़कर आज गांव सब जा रहे हैं, अपनी उन पुराने दिनों को फिर से पाने जा रहे हैं।

प्रेम ग्रंथ

मैं प्रेम ग्रंथ लिखने का आदि नहीं हूं बस प्रेम को नया आयाम देना चाहता हूं, इसकी पवित्र प्रेम धारा में बस मैं भी बह जाना चाहता हूं। मुझे नहीं इस जीवन में वैभव का प्रलोभन है, बस उठ जाना चाहता हूं जो यह विशाल प्रेम की गगन है यह ब्रह्मांड सा विशाल है और छोटा सा समान मन है, यह संपूर्ण सृष्टि को बांधने का डोर है और यही जीवन है

तुम चले ग‌ए

हम क्यों हो निराश यदि हमारा कोई साथ छोड़ जाए, अनंत संसार में लोग अनंत आएंगे किन्हें अपना प्रिय बताएं। जो डाली प्रेम की भावना से पत्तियों को सहारा देती है, जब वह उन्हें छोड़कर जाती है वह डाली भी तब जीवन से मुख मूडती है। कोई जाए हमें छलकर हम क्यों उदास हो, अंधकार में साया भी साथ छोड़ जाती है हम क्यों निराश हूं। बसंत आता है फिर तो उसके जाने का दुख क्यों, मित्रता अमर होती है फिर जाने का शोक क्यों।

वीरता

समस्याओं के जटिल शिखर को अब पार करना है यह बाग बगिया के फूल नहीं समीर में प्रसर धूल नहीं यह अग्निपथ है पर इसे करना है यह नदियों की प्रवाह धारा नहीं यहां कोई जीता सर्वदा कोई हरा नहीं पथ तो जटिल है पर इसे पार करना है यह बाल्यकाल के मधुबन के नहीं काटे हरे जो हम चोट खाकर क्षोभ भरे पर अब दुख करने का समय नहीं इनका सामना करना है

जब से वह चले गए

अगर मैं अपने हृदय की वेदना तुम्हें सुना दूं तो तुम रो तो ना दोगे प्रिय अगर यह पीड़ा तुम्हें बता दूं तो विभिन्न दुख के जंजाल है इस मधुर जीवन में कई आशाएं संजोए हैं इस प्रेमयुक्त मन में सन्नाटा छाया हुआ है परंतु हृदय में अत्यंत शोर है तुम्हारे आने की आशा में यह हृदय भावविभोर है इस करुणामई जीवन को सुखद कर दो अपने आगमन से यह तुम्हारी परीक्षा में हैं

ऐसा बन तू

हो पथ पर यदि अंधकार जलाओ तुम मशाल, हो जाओ धीर समीर बनकर ववशाल ढाल। कण को रौंदना छोड़कर रौंद विशाल चट्टानों को, संकट सामान समीर से लड़ जाए ऐसा ले बना अपनी बाहों को। संकट को अवसर रूप में देख जीवन में ऐसी कल्पना कर, विश्व कुचल ना दे बन जा तू निडर। मेहंदी की लाली क्या बनना जो पल में रंग छोड़ दे ठोक संकट के गगरी को तू जो तुझ पर छाप छोड़ दे

वृक्ष के प्रति

मेरे राष्ट्र का धरोहर , सुंदर तथा मनोहर । विलुप्त हो रहा, मनुष्य के करनी काली से, रहा खो महत्वपूर्ण अंग प्रकृति के डाली से। यहां हरे भरे चमकते तरु , जहां से जीवन है शुरू । काट रहा मनुष्य इन्हें , मानव जाती हो गई मतवाली, एक दिन भूमि विजन हो जाएगा हो जाएगा सूखा और खाली। नीले अंबर के जगदीश, दो हमें अमर आशीष। फिर प्रेम की शाखा अमर हो जाए बन जाए हम वृक्षों के आली, परिणाम स्वरूप होंगे खुश सब जिएंगे जीवन सुखो वाली।

चंद्रमा और मानव जीवन

चंद्रमा होकर आशावादी कहता है यह रात से कि हमारा अस्तित्व ही मिट जाता है प्रभात से हम खुशी से व्यंग कर रहे हैं सवेरा यह सब मिटा देगा फिर एक शाम आएगी जो हमें यह सब लौटा देगा रात आत्मविश्वास से कहने लगता हम कहीं मानव से अलग नहीं हमारा जीवन भी मित्र मानव से अलग नहीं आज यदि हम दुख में है तो फिर अवश्य सुख देखेंगे फिर यह समय आएगा जब हम अपनी सुंदरता भी बिखेरेंगे

कौन बैठा है इन आंधी तूफानों में

कौन बैठा है इन आंधी तूफानों में जहां विशाल चट्टान पंख हुए देख उसे मानव दंग हुए भीषण चट्टान टुकड़ों में बट गया नर अपने सदन में छिप गए क्या शक्ति आ गई इंसानों में जहां शेर छुपा है गुफाओं में काल छा गया है सभी दिशाओं में विनाश की छाया छाई है मानव ने अपनी प्रबलता दिखाई है हम कहेंगे - है कोई शक्ति इन चट्टानों में ? हां हम बैठे इन आंधी तूफानों में

उलझन में

हैं हम खड़े जहां लाखों के भीड़ में हैं हम तब भी एकांत इस तरकस के तीर में। युग तो कोलाहल कर रहा हम यदि मौन हैं स्वयं को श्रेष्ठ मानते थे जबकि हम गौण थे। हम तो भ्रम में है पक्ष -विपक्ष में व्यस्त हैं अपनी धुन में मानव स्वयं ही मस्त है। ठोकर यदि जाता है लग पल भर के लिए वही रहती है फिर मानव चलता उसी पथ पर जहॉ स्वार्थी दुनिया उसे कहती है। कौन हमारा है हम तो इसी में उलझे हैं जीवन समाप्त होने पर अंत में हम जगदीश कहते हैं।

टूटा हुआ इंसान जीवन में

खाई चोट अनेक इस शील ने फिर भी स्वयं को बनाया है डोलता नहीं एक पग भी इतना समर्थ इसने पाया है। मानव तो क्षोभ भरता है एक ही चोट में , बैठ जाता है ,कहीं पतझड़ के साँझ इसी व्यथा अफसोस में। आशा के हार बनता है सपनों का वस्त्र बुनता है और मात्र एक ही चोट में व्यथा का तरु बनता है। नर हो क्यों खेद किसी के छल से , टूटते ह्रदय जोड़ लो फिर आत्मविश्वास के बल से। कोटी भवरे आए हैं चले जाते फूल को छोड़कर फूल कब दुखी हुआ? कोटि राही जाते हुए उसे तोड़कर।

मित्र

मुख पर प्रसन्नता है चल रहा हूं मैं अपनी करुणा छुपाए एक ही आशा है कोई कुछ संवेदना दिखाएं। कई पथ पर चलने का आदी हूं कई राही से मिलता हूं कई बार कई मित्र बनाया फिर अंधेरे में हाथ मलता हूं। मेरी आशा के दीपक की बाती बुझने लगी है रोम - रोम में विद्रोह की ज्वाला भीषण जलने लगी है। लगता है अपने आप को संवेदना दिखाना होगा स्वयं से बड़ा इस संसार में मेरा मित्र रहना होगा।

सुनो प्रिय

यह जो तुम्हारा मेरा प्रेम है यह कागजों तक सीमित नहीं पुष्पों के सुगंध से भी परिभाषित नहीं यह जो तुम्हारा समर्पण है प्रशंसा इसके तुल्य नहीं इसमें ना तो हार इसमें जीत नहीं मैं तुमसे भौतिक रूप से ही दूर हूं पर हृदय से करीब कहीं पा लेना प्रतिक्षण मुझे खो ना जाऊं कहीं

बसंत का त्यौहार

शीत के प्रताप प्रभाव हो रहा व्याकुल संसार, प्रसन्नता का आयाम लेकर आया बसंत का त्यौहार। सो रही कलियां उठ रही है अंगड़ाई लेते हैं वायु संजोए रहा है प्रकृति में कोटि-कोटि बधाई देते हृदय का शीतकाल तो अनंत अवधि का लग रहा है, हो प्रकाश और खुशबू विस्तार हृदय में इच्छा सुलग रहा है । समाप्त हो मानसिक ग्रीष्म और हृदय का शीतकाल, बसंत मने समस्त जग में संगीत में रहे जीवन का ताल

अंतरआत्मा की आवाज

अब बहुत हुआ, दो कदम तुम भी चलो , खुद को दुनिया के सामने खुद को बराबरी पर रखो। मैं नहीं सुनना चाहता आज तुम्हारे सौ बहाने, लगी चोट खंभों से या पत्थर आया हूं पैर पर तुझे तुझे नचाने । रुठ जा, रो ले या हस ले लेकिन रफ्तार रुकने ना दे, समंदर से पहले खुद को नदी बन बहने तो दे। इधर उधर ना देख तेरी अंतरआत्मा हूं, तुझे नींद से जगाने मैं आज यहां आया हूं।

कलयुग में जीवन

हृदय में स्वाभिमान हो भ्रमित अभिमान नहीं, गुमनाम जीवन ही हो भले दाग़ दामन पहचान नहीं । हो भले दो ही रोटी किसे कि आंसू से न सिकी खूब भले छोटी ही झोपड़ी किसी के एहसान पर ना टिकी की हो यदि तन पर मेंले वस्त्र पर किसी के न खून से रंगी चिथरे भी कोट से बेहतर होंगे जब आत्माएं परमात्मा से मिलेंगी कलयुग तो बाहर है जीवन तो अंतर्मन में है बनो आधुनिक आधा नहीं प्रेम जन जन में है

राम आएंगे तो क्या होगा

शुष्क धरा नम हो जाएगी जीवन के नए फूल खिलेंगे, जो शीतल वर्ण के होंगे जो स्वतंत्र निडर होकर रहेंगे। हीन भावना की जड़ें शुष्क हो बिखर जाएगी, वो निष्क्रिय हो इस धरा पे कहीं खो जाएगी। इस नभ के सभी नभचर में अस्तित्व में कभी भेद न होगा, असमान भी समान हो जाएंगे जब हृदय में कोई खेद न होगा। पर यह होगा तो तब ही जब प्यास बुझा लोगे एक जल से, प्रेम ,सम्मान ,शांति का विस्तार होगा इस नवीन प्रवीण पहल से।

बचपन

रह रह कर का जीवन में बचपन की याद आ जाती है जब थक जाते हैं पांव कभी वह टूटी चारपाई याद आ जाती है वह खुला आसमान तारों से भरा जो ढकी थी बादलों से कभी अब इमारत ने उनकी जगह ले ली यूं ही जो कुछ सोचा नहीं कभी। एक रूपए का सिक्का भी उस दिन बड़ा मोल था इस बाजार में चौराहे पर भीड़ थी खरीदार कम थे, ईमानदारी भी थी उनके व्यापार में। आज फिर परेशान हो गया था कहीं इसीलिए याद आ गई उन दिनों की वरना मैं भी इस स्पर्धा में लगा हूं गुलाम बन गया हूं इन मशीनों की

प्रेम

यह जो तुम्हारा मेरा प्रेम है, यह काग़ज़ों तक सीमित नहीं। पुष्पों के सुगंध से भी परिभाषित नहीं॥ यह जो तुम्हारा समर्पण है, प्रशंसा इसके तुल्य नहीं। इसमें ना तो हार इसमें जीत नहीं॥ मैं तुमसे भौतिक रूप से ही दूर हूँ, पर हृदय से क़रीब कहीं। पा लेना प्रतिक्षण मुझे खो ना जाऊँ कहीं॥

शहिद की कहानी

सीना कठोर है पत्थर सा दिल फूल से भी हल्का है, जो दिखाई नहीं दे रहा वह आंसू आंख से छलका है। ठिठुरता रहा शरीर है इसका लेकिन जज्बा लिए खड़ा है, कर्तव्य की मिट्टी से बना होगा इसलिए तो अभी तक अड़ा है। पत्नी बगीचे सजा रही है यह जंगल में घूम रहा है, मां इसकी खीर बना रही है यह दुश्मनों को सूंघ रहा है। बेटी इसके द्वारा पर खड़ी है यह औरों का द्वारा बचा रहा है, बेटा इसका गुणगान कर रहा है यह देश की गान बचा रहा है। ट्रैफिक में फंस गया होगा दिल ठंडा करने को सोच रही है पिता गुस्से में घर में घूम रहा है बेटी इंतजार के आंसू पोंछ रही है आ गया क्या? कहां रह गया? पड़ोसी भी पूछे जा रहे हैं, आ ही रहा है, तंग मत करना सब यही सोच जा रहे हैं। चीख उठी मोहल्ले में जोर की पता नहीं क्या बोले जा रहे हैं, पत्नी बेहोश हो पड़ी है समाचार टीवी पर खोले जा रहे हैं।

दादाजी

चांदी से भी सफेद बाल असमतल मिट्टी से गाल मुस्कान बता रही है, थकी हुई गाथा सुन रही है फीके पड़े दुनिया भर के इत्र दादाजी जो हैं मेरे मित्र स्नातक पास होते है नर्सरी में मेरे साथ बैठा हे बातों में तर्क नहीं है यह बात मुझे मालूम नहीं है अब तर्क समझ आ रहा है लेकिन दादाजी नहीं है कॉलेज में बैठा रोने लगता हूं आंसू पूछने दादाजी को खोजने लगता हूं। त्तर्कहीन बातें ही सुना दो कोई दादरी से ही मिला दो

फेरीवाला

यह थका हुआ आदमी लड़खरते हुए कदम से जिम्मेदारी का बैग लटकाए खाएगा आज जमके दूसरे पराठे तक आते-आते दिल की सारी थकान बताता है कभी-कभी गली आंखों से उसे किसी की याद सताता है मेरी पूरी महीने की पगार चार पूरी आते-आते पूछ लेता है बदले में अपने ऑफिस की आठ बातें बता जाता है। यह लड़का रोज आता है यहां कुछ पूंड़िया खाकर टिफिन बॉक्स में दोपहर का खाना भरवा कर चले जाता है बड़े दिन हो गए अब यह दिखाई नहीं दिया, शहर बदल लिया होगा कहीं कम दर पर पूडि लिया होगा। महीने भर के बाद यह लड़का आज मुस्कान लिए आ रहा है कहां चला गया था तू? आजकल खुद खाना बना रहा है काका, मेरी मां आ गई है

क्या तुम्हें मालूम है

क्या तुम्हें मालूम है रोटी का होना गोल असमंजस धरती का भूगोल नहीं मालूम, मसाला नहीं अभी इन बातों में तर्क नहीं क्या तुम्हें मालूम है मुस्कान के पीछे की सच्चाई कोई देता क्यों है मिठाई कोई बढ़ाना चाहता है स्वाद कोई खत्म करना चाहता है विवाद यह नहीं मालूम अगर तू जाओगे तुम भी बिखर उम्र तुम्हारी छोटी भले हो बात की पहचान खड़ी हो

क्या तुमने देखा है

क्या तुमने देखा है भंवरों को फूलों से बैर करते यह फूलों को भंवरों से डरते हैं पानी और प्यास कि अनबन दोनों के बीच के बिछडन क्या तुमने नहीं देखा कमल और नदी का प्यार मां के आंचल बच्चों से दुलार आसमान और पंछी के नोक-झोंक प्रकृति और धरती का स्वर्ग लोक चलो मैं दिखाता हूं यह दोनों प्रेमियों को देखो कौन भवरा कौन फूल सोचो देखो जल में खेलती मछली भागती देखकर है मचली देखो कमल की मां को प्यार करते उम्र भर गोद में हैं सवारते मां के आंचल में छुपा कर बैठा है शायद मिठाई खातिर पिता से रूठा है बंजर जमीन पर भी कुछ घास उगी है देखो प्रकृति की ममता जाग उठी है

वह बच्चा है एक छोटा

आगे के दो दांत सफेद और चमकीले मोटे मोटे गाल जैसे आम रसीले आंखों से जो मुस्कुराता हो हंसकर जो खेल खिलखिलाता हो क्या फर्क पड़ता है वह बच्चा है एक छोटा शर्ट में कितने छोटे बड़े छेद हैं सामने वाले की मन में कितने भेद हैं। सिक्का 2 का है या पांच का खिलौना प्लास्टिक का है यह कांच का क्या फर्क पड़ता है वह बच्चा है एक छोटा तुमने किस नाम से बुलाया , वह तो बोली कि मीठा सुनकर आया । शब्दों का अर्थ नहीं जानता होगा , शब्दों में छिपे शहद को पहचानता होगा। क्या फर्क पड़ता है वह बच्चा है एक छोटा

खूबसूरत चेहरा

तुम्हें देखकर जो सूखी थी कलियां जो , आज बिन बरसात के भी डालियों पर सजी है वो। तुम्हें देखकर जो बंजर थी धरा जहां आज हरियाली बरस रही है उन कण-कण में वहां तुम्हें देख कर जो रूठे थे मेघ के घन आज वह भी दावत दे रहे अतिथि है बाग बगीचे उपवन एक बच्चा कोने में खड़ा है तुम्हें यूं ही निहार रहा है शायद रोटी मांग रहा होगा भूख से कहार रहा है तुम्हें देखकर जो चेहरे पर मुस्कान आई नहीं तू यह लालिमा सब व्यर्थ है मुस्कान अगर छाई नहीं

गंगा उपहार हो तुम

मृत मृदा, असमतल जीवन के लिए उपहार हो तुम, सौंदर्य से परिपूर्ण प्रकृति का अमर श्रृंगार हो तुम। निस्वार्थ वर्षों से खड़े वृक्ष की यशोदा जननी हो तुम, प्यास बुझती लंबा सफर तय करो उनके लिए वंदनिय हो तुम। मनुष्य के लिए श्रद्धा का मार्ग उनकी आस्था की पंचामृत हो तुम औषधीय का संचार करती तो किसान के लिए अमृत हो तुम गर्व हो रहा होगा उसे पर्वत को जिसकी प्रिय बेटी हो तुम, जो भेज दिए तुम्हें एक संघर्ष पर यमुना की सहेली हो तुम।

दिल दिमाग

बारीक नसों का तार होगा जो दिल को आंखों से जोड़ता है होगा कोई ऐसा रक्त मांस से जो दिल दिमाग का तार तोड़ता है हृदय रक्त संचार करता है विज्ञान की प्रतिष्ठित किताबों में लेकिन यह तो पानी के वेग को संचित करता है दुखों के सेलाबो में हृदय ऑक्सीजन को भेजता है शरीर के हर कोण तक लेकिन इसमें जल संसार है हास्य विनोद से मौन तक

हे जननी शारदे

जीवन का आयाम दें नेत्र नहीं दृष्टि दे शब्द नहीं स्वर दें ज्ञान की सृष्टि दे मिलन नहीं उपस्थिति दें पीड़क पीड़ा सुनाई दे, ऐसी श्रवण शक्ति दे जीवन अंतरात्मा को दिखाई दे। अंधकार हो अगर जग में हृदय में तब प्रकाश दे, झोपड़ी भले छोटी हो धर्म से भरपूर आकाश दे

मेरी पहली होली

भेदभाव का काला रंग मिटेगा, विश्व शांति के गुलाबी गुलाल में सिमटेगा। आज कोई खूबसूरत चेहरा ना होगा, ना ही किसी के चेहरे पर बदसूरती का पहरा होगा। मिठास मिठाई तक सीमित न होकर, लोगों के हृदय में स्थित रहेगा। थका हुआ शरीर आज आराम नहीं दिखेगा, हर स्तर के मिष्ठान का स्वाद चकेगा। आज वह छिपा हुआ तारा भी देगा दिखाई , जिसने साल भर अंधकार में दिन है बिताई। आज पूरा भारत एक साथ चलेगा, आज पूरा भारत एक साथ होली खेलेगा। कंधे की ऊंचाई और कद में फर्क हो सकता है, पर रफ्तार सभी जनों का एक समान होगा।

विदेशी शहर

इमरती ऊंची है, पर उतनी नहीं है, जितनी मेरी पतंग ने देखी है, गेंद जितनी ऊंची फेंकी है। रफ्तार तेज है गाड़ियों की, घंटे का सफर मिनट में, मैंने दिनों का सफर किया तय, अपनों के साथ वो गुजरता समय। लोगों की भीड़ है, आसमान भी साफ नहीं, फिर भी अकेला हूं यहां, अकेले हो भी अकेला ना था वहां। कीमतें तय है, मशीन दुकान का मालिक है, मूल भाव किस्से करूं, बचे पैसे का क्या मिठाई लूं। फूल तो बहुत है, सुगंध नहीं है कहीं भी, जड़ें कैद है गमले की दीवारों में , और हम कल्पना और विचारों में।

अहंकार

गगन के हृदय में अंकित सितारा अपनी यश-गाथा का विस्तार कर रहा, इतराकर सूरज से बैर किया है सूर्य की लालिमा मात्र से कहार रहा। अपनी सुंदर यौवन से पुष्प भूमि का जो तिरस्कार किया, एक पवन के झोंके ने उसे सौ टुकड़ों का आकार दिया। अपनी तेज धार से जल भय का जो संचार किया, बांध बनाकर मनुष्य ने वहां जल का उसका अधिकार लिया। अपने ऊंचे कद का पर्वत गगन को जो ललकार रहा, धारा ने अपनी करवट से ही उस पर तीव्र प्रहार किया। अपनी गौरव हो या योग्यता का जिसने अहंकार किया, प्रकृति ने अपने समय में उसका सदा तिरस्कार किया।

टूटी दीवारें

यह जो टूटी दीवारें हैं, यह प्रतीक है संघर्ष का, दशकों के भूकंप के प्रभाव का या मौसमी बदलाव पूरे वर्ष का। आज के बूढ़े, जो लाठी के यह प्रतीक है पहले कदम का, जो उन्होंने रखा था इसके सहारे अज्ञान थे वो दुनिया के भ्रम का। छठी के ढोल, विवाह की शहनाई करुण स्वर की गाथा हैं यह दीवारें, बेजान और कमजोर मत कहना अब सदियों की इसमें यादें हैं हमारे।

जन्मदिन का तोहफा

कल जन्मदिन पर आए थे, सुंदर सा तोहफा लेकर, रायसियत का सुंदर प्रतीक था जो गए थे तुम देकर। मैंने भी अलमारी के एक कोने में, जिसे सबसे सुरक्षित माना था, रख दिया उसे सबसे बचा के, तोहफा कभी जो पैमाना था। गली के बाहर एक छोटा बच्चा, एक कागज लिए खड़ा था, कच्ची पेंसिल से लिखे कागज पर, शुभकामनाओं का शब्द बड़ा था। हां, टूटी हुई हिंदी थी, और शब्द साफ नहीं थे, उसके पास भावनाएं थीं, मेरे पास शब्द भी नहीं थे। अलमारी के उस कोने से, तोहफा को वहां से हटा दिया, इस छोटे से कागज के टुकड़े को, वहां मैं लगा दिया। आज साल बीत गए हैं, वह बच्चा तो नहीं है, लेकिन इस कागज में, रायसियत बस नहीं है।

कौन जीता है, कौन मरता है

अनंत नभ के नीचे, अपनी गति से चलता है, निरंतर असफल प्रयास से जो नहीं ठहरता है। जो अश्रु नहीं, लहु पीता है, वही जीता है। जो नभ को कण समझता है, ग्रीष्म में जो ठिठुरते हैं, एक चोट में राह बदलता, भूमि पर बिखरता है। अगले कदम से डरता है, वही मरता है।

तुम कौन हो ?

मुझे याद नहीं क्षेत्रफल का सूत्र अब, उंगलियों पर याद थे जो तब। न्यूटन के वह तीन नियम, आवर्त सारणी के क्रम । संतुलित रासायनिक समीकरण, परमाण्विक कण का विसरण। अब तुम ही मेरे परमाणु हो, समाय मेरे भीतर जैसे जीवाणु हो।

सुदामा के चने

यह जानते थे तुम सुदामा श्रापित जो गुरु मां के चने थे, जिसे तुमने खाकर उस दिन जीवन में तब दरिद्र बने थे। तीनों लोगों के स्वामी को ठंड से ठिठुराता बता कर , सौभाग्य का त्याग कर सोए हुए दुर्भाग्य को जगा कर। यह प्रेम तुम्हारा जो कृष्ण से विफल नहीं गया था, तभी तो कृष्णा के अश्रु में प्रेम और पवित्र दया था।

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