मराठी कविता हिंदी में : भालचंद्र नेमाडे

Marathi Poetry in Hindi : Bhalchandra Nemade



कवि लोग

मधुमक्खियों की तरह इकट्ठा हुए हम खदेड़ी गईं मधुमक्खियों की तरह डालकर मक्खी खेप छत्ते पर बैठते ही गिर गए हम धुआँ धधकती आग में करने लगे जौहर शोले के शोले तो हम बनकर पिंड शहद के टूट गए बचे हुए फिर जमा होते गए दौड़ पड़े एक दूसरे के आक्रोश की ओर दूसरी ओर फिर लावारिस लटके उलटे धरन पर ज़बरदस्ती बार-बार फेंके गए पीछे छोड़ते गए पुराना और जोश में बनाते रहे नया छत्ता पेट से नया मोम प्रसूत कर रचते गए षट्कोण भीतरी ही तो था सबकुछ भिनभिनाते आए बेचैनी में सोए ज़बरदस्ती सहते नपुंसक अंधा प्यार अदृश्य समाज की दुहाई सँभाले हुए सीने में मधुर सवेरा पाले हुए लटकना इतनी बड़ी व्यवस्था में किसकी क़िस्मत में सुस्त नर और किसकी क़िस्मत में मादा बनना? पहले सूर्यकिरण में सहस्रमुखी गुनगुनाना प्राण पंखों पर लेकर कण-कण ले आना रंजन या बोध कलावाद जीवनवाद गिनती में नहीं थे कोई भी देशी-विदेशी वाद क्रांति की महिमा की रसीदें झूठी थीं। असल था वह फुलाहारी उन्माद किस रानी मादा की ख़ातिर पता नहीं था यह भी जैविक व्यापार से प्राप्त रोज़ का जिहाद।

सांत्वना

पीछे है दीवार तुम्हारी, दीवार पर चिड़ियों का घोंसला, सखि खाली है कंधा तब तक लो दीवार पर पातारा, आँखें सूनी दुबारा घनी नहीं हों न आए आँसू दुबारा। गया सुख रेंगता हुआ, घर में अभी तक यूँ ही छलकती है झूला भर लय है गौरैया गौरैया पीछे, चुनेगी दुपहर में दहलीज़ में मौन खम्भों का यह उनका हुआ, खड़ी दीवार का हुआ। आँखों का भार न हो पल्लू को, सखी बुनाई तुम्हारे पल्लू की सलामत रहे। अनुवाद : गौरख थोरात

लबालब साँय-साँय

लबालब साँय-साँय उसकी घनी आँखों में सघोष आलिंगन हवा का उसकी सभी घास-दर्रे की रंग-बिरंगी फूटी बन-झाँकी नागफनी की तृप्ति कँटीली नंगई बादलों से घिरे हरे घन शिखरों का प्यारा-सा एहसास उसका सागबन फुनगियों, तनों से गुण गूँथकर किनारी-किनारी बुनने वाली चू रही झर-झर आँखों पर लबालब दह आलिंगन सीने पर सभी पखेरू-पंछियों की बातें। अनुवाद : गौरख थोरात

भूरे बियाबान को मिट्ठू छोड़ चले

भूरे बियाबान को मिट्ठू छोड़ चले उड़ना चाहती हैं पहाड़ों की भी कतारें तलहटी उठाए रोप दी हैं डालियों ने बरोहें* मेरी आँखों की थाह तक डंठल... डंठल का स्पर्श है अभी पत्ते... पत्तों की टुनगियाँ कह रही हैं ज़मीन से दूर हटो दूर हटो और कहती हैं नीचे बना दो खोखल, सहा नहीं जाता। उड़ जाने दो सारे पत्ते... भूरे सारे बनाकर खत्ता दसों दिशाओं का एक, उसकी ओर बनकर ओठों की सीटी निढालपने की, एक ही छप जाने दो सारे अस्फुट इन डंठलों-डंठलों में एक ही पेड़ के इस पतझड़ से भर जाने दो सारा फ़ासला होने और है के बीच का तेरे और मेरे पत्ते नहीं होंगे और लगेंगे ढेर टूटकर झरने वाले इन पत्तों के भूरे। आँखें जन्मांध की संचित कर रखती हैं घेरे पृथ्वी को तौलनेवाले अँधेरे के उतने ढेर करूँगा जमा, आँखों की गहराई में लेते हुए बरोहों को पिलाऊँगा अपनी अंजुरी से तुम्हें वह बेला, तब तक तो रुको। बैठो भींचकर अपनी हवाएँ, अपनी प्यास। रहने दो पेड़ को यों आँखों की थाह में मेरी सिसकते हुए, दूर हटो दूर हटो ज़मीन से कह रहे पत्ते सँभालते हुए तैरते-डोलते मिट्टुओं के झुंड। *बरोह : बरगद की जटाएँ अनुवाद : गौरख थोरात

हम तमाम

बेंच पर कहीं चूतड़ भर जगह मिल जाए तो हम तमाम सब कुछ सीधा गाड़ी सीधी पटरी सीधी हमने लाइब्ररी में पढ़ा सबकुछ सीधा-सीधा पंक्तियाँ कितनी सीधी एक के नीचे एक पन्ने कितने सीधे एक के पीछे एक राजमार्ग का यातायात भी कतार में थूकने के लिए ज़रा-सी जगह मिल जाए तो हम तमाम। छाई है गंदगी मगज़ पर उतरेगी अब मगज़ ही में पर सड़क पर इतनी लड़कियाँ कसक देखते हैं सब लेकिन हाथ कोई नहीं लगाता। दबाकर दीयों के बटन शाम को विज्ञापनों की तड़क-भड़क चाहे जारी रहे रात भर लेकिन दीये रात में चाहिए ही। यानी होता है सूरज दिन भर उससे किसी का नहीं कोई वास्ता। दीयों की माला रात के सीने पर बस फबती है। सुंदर। अब दो चैनल गुज़रते ही हम तमाम। अनुवाद : गौरख थोरात

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