हिंदी कविता अनुपमा श्रीवास्तव 'अनुश्री'
Hindi Poetry Anupama Shrivastava Anushri

1. परिमार्जक प्रकृति

चलायमान सृष्टि को
गौर से देखो कभी
मंद मंद सुरभित बयार
सभी को प्राण वायु से भरती
दिनकर की प्रखर रश्मियां
सृष्टि को जीवंतता प्रदान करती ।

चढ़ते, उतरते चांद से
शीतलता, मृदुलता की शुभ वृष्टि
हरी भरी वसुंधरा जो
सभी का पोषण है करती ।
रंग-बिरंगे पांखी मधुर तान सी छेड़ जाते
धरा में सृजन के बीच बिखरा के
अपना कर्तव्य हैं निभाते ।

धरा से तपन खींच, आर्द्र कणों में समेट
घने- घने मतवाले बादल
निरंतर जलचक्र बना, जग पर छाते
प्यासी विकल धरा, जीवन को
झर-झर झरती बूंदों से तृप्त कर जाते ।

प्रकृति को जब भी गौर से देखा
उससे सिर्फ देना और देना ही सीखा
प्रकृति से जाना निरंतर दाता भाव से
सृष्टि निर्माण, पालन और
संचालन का नित्य अद्भुत तरीका ।

जीवन जब-जब हर्षाया
सिर्फ यही समझ में आया
देने में जो सुख है, पाने में कब पाया
आज का सुविधाभोगी मानव
यह राज कहां समझ पाया ।

प्रकृति पर कहर ढाकर
अपनी सुविधाओं को सजाया
पेड़, जंगल काटे, कंक्रीट बढ़ाया
पक्षियों के घोसलों पर कहर बरपाया
जल, वायु, धरा, आकाश सभी जगह
रसायनों विषैले पदार्थों को मिलाया ।

कचरा तो साफ हुआ नहीं
अब मोबाइल, नए गैजेट्स
इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों ने
ई-वेस्ट का खतरा भी बढ़ाया
प्रकृति से खिलवाड़ कर के जनजीवन
नैसर्गिक से असमान्य बनाया
जिस प्रकृति से सब कुछ मिलता है
उसकी तरफ हमारा बड़ा फर्ज बनता है ।

जिन नदियों ने धरा, तन- मन में
प्रवाहित हो, जीवन संचालित किया
व्यवसायीकरण एवं गंदगी
के पुजारी, स्वार्थी मानव ने
उन्हें भी डुबाने का काम कर दिया ।

सृष्टि पर जो सुंदर रुप है
इसी जीवनदायनी प्रकृति का स्वरुप है
सिर्फ पाने का इच्छुक मानव
करता उसे विद्रूप है
कब मानव पर्यावरण के प्रति जागरूक होगा
फिर से वातावरण, सुरम्य, शुद्ध
नैसर्गिक, प्रदूषण मुक्त होगा ।

2. देवनागरी हिंदी

देश का गौरव गान है जो
भारतीयता की पहचान है जो
मां की लोरी सी हिंदी
प्यार भरी थपकी सी हिंदी।

क्यों रहे अपने ही घर में उपेक्षित
क्यों बने हम ऐसे शिक्षित
मान ना करें स्वयं की भाषा, संस्कृति पर
दूसरों से चाहे उसका सम्मान मगर
हिंदी है हमारी अस्मिता हमारी बुनियाद
क्यों कर रही अपने घर में फरियाद।

शुद्ध लिखें, पढ़ें, बोले हम
हिंदी को दे यथोचित मान
विश्व का हर छठा व्यक्ति
हिंदी समझता और जानता
यह है हिंदी की व्यापकता डिजिटल वर्ल्ड में छाई है हिंदी
सबसे अधिक हिंदी साहित्य पढ़ा जाता।

कितनी सुंदर लिखावट
है इसकी देवनागरी
क्यों अपनाते हैं हम रोमनागरी
हिंदी जोड़े देश-विदेश
जहां हिंदी, वहीं हिंदुस्तान
अंग्रेजों ने कहा जिसे
बेस्ट फोनेटिक लैंग्वेज
जिसका उच्चारण और लेखन है समान
भ्रम का जिसमें नहीं कोई स्थान।

बच्चा बोले जो प्रथमाक्षर
मीठा सा शब्द 'मां'
महका जाती है हिंदी घर अंगना
माटी की छुअन, अमराइयों की थिरकन
झूलों की प्रीत, सप्त स्वरों का गीत
क्या वासी, क्या प्रवासी
हिंदी हम सबका अभिमान
स्नेह की यह डोर अप्रतिम
समृद्धि, साहित्य का गुणगान ।

गूंजी जो बन स्वतंत्रता संग्राम में
एकजुटता की धमक
उसके लिए शर्म क्यों,
हो आंखों में गर्व की चमक।
बने न्याय, शिक्षा, रोजगार की भाषा
समन्वित विकास की गढ़े नई परिभाषा।

बने हम अधुनातन पर
अपनी जड़ें ना भूलें हमवतन
न रहे राष्ट्र अब और गूंगा
हिंदी को मिले स्थान सबसे ऊंचा
जन जन की अभिलाषा
हिंदी बने अब राष्ट्रभाषा।

3. पता तो था ही

पता तो था ही
कुछ विद्वानों को
पढ़ कर फिर
सच में लगा यही
आदमियों का प्रतिनिधित्व
करता यह वक्तव्य
कि औरतों की बुद्धिमता
आदमियों को गवारा नहीं
जबकि तुम भी उसी मिट्टी के
हम भी बने उसी से ही।

सारे विवादों की
जड़ है बस यही
क्यों सारी चालाकियों,
शोषण का दारोमदार
अधिकार तुम्हारे
तंग दिमाग को दे दें
क्यों तुम शासक और
हम शाषित
हमें भी ये बात
सिरे से पसंद नहीं
क्यों न इनमें भी
हमारे भी दिमाग़ का
हिस्सा हो कहीं।

हमारी मिस्ट्री है
तभी तो यह सृष्टि है
तुम घबराओ
या कि आंख दिखाओ
हक़ीक़त से खुद को
बेज़ार पाओ
हम परतत्व की
वह दृष्टि हैं
जो तुम्हारे वजूद को
भी भेद सकती हैं।

बातों, विवादों की
लाग लपेट बहुत करते हो
तत्व से परे होकर
तत्व को समझने की
कोशिश करते हो
उसे आजमाने
में नहीं चूकते
नए -नए करतब
दिखाना नहीं भूलते
भय है, डरे हुए हो,
भागते हो
फिर भी नारी को
कम आंकते हो।

कितनी अद्भुत
विषय है नारी
जिस पर चिंतन, विमर्श
कभी थकता नहीं
कितना लिख चुके
कितना और लिखोगे अभी
बैल की तरह शारीरिक बल
अंतरात्मा में कपट -छल।

किसी ने सच कहा है
पोथी पढ़िए, पढ़िए गीता
किसी मूर्ख की, हो परिणीता
पुरुष पर भी, शोध हो कभी
धोखा और फरेब के
बीजांकुर मिलेंगे
अध्धयन करने को
कुछ रखा ही नहीं।

नारी का पूर्णत्व है
पुरुषत्त्व को चुनौती
काश उसे, देखने
विमर्श, से अधिक
उसे समझ पाने की
विद्या पुरुषों में होती
इस असफलता को
जीत में देखना चाहता है
पुरुष अहम् तरह-तरह से
नारी को पीड़ा देकर
कमतर दिखा
वर्जनाएं, मर्यादाएं तय कर
सामंती पुरुष
विजयश्री का मिथ्या
ख़िताब पाना चाहता है
इंसानियत के दर्जे से
गिर जाना चाहता है।

4. अस्तित्व

मेरी ही ज़मी, मेरा आकाश
हर दिन सूर्य, मुझ में उगता है,
सुनहरी किरण बिखेर,
मुझ में डूबता है
पंछियों के करतब- कलरव,
मुझ में ही बसते हैं,
कोलाहल करते हैं।

यह हिमशिखर अटल,
कभी मुझ में जमे,
कभी पिघले रहते हैं,
अक़्सर कहते हैं,
वह पल भी नहीं ठहरा,
नहीं ठहरेगा यह भी पल।

प्रकृतिस्थ होती हूं,
जब प्रकृति के बीच,
यह मुझ में गुनगुनाती,
गीत गाती है
मुझ में ही सकल,
खिल जाती है,
नव सृजन की,
गाथाएं रच जाती है।

मानवता के दुख,
मुझ में रिसते हैं
ख़ुशियाँ भी यहीं,
रक़्स करती हैं,
अनुभूतियों की,
कलम थामे
मेरी नित् नव्य रचना,
सुख- दुख को यहीं,
परिभाषित करती है।

पूर्णत्व से प्रगट,
पूर्णत्व में समाहित,
सृष्टि के पुरातन,
नव रूपों से झांकता,
मेरा अभिन्न अस्तित्व,
कहीं भी अधूरा- अपूर्ण नहीं।

5. नव अर्श के पांखी

पाना है नव अर्श
नया इंसान चाहिए
बेबसी, लाचारी की सांझ ढले
नूतन विहान चाहिए।

विकास की ऊंची अट्टालिकाएं
भी हों अगर ग़म नहीं
ह्रदय को ईट गारा न समझे
संवेदनाओं भरा नया जहान चाहिए।

मैं आत्मा किसी बंधन में नहीं
दूर आसमां है मेरी परवाज़
अपनी गति से गतिमान
सबसे जुदा अपना अंदाज़
अंतर्मन में बस यही एहसास चाहिए।

6. बारिश

पत्तों पर ठहरी, कभी फिसलती हुई बूंदे, बड़ी सुहानी सी हैं,
इस खुशनुमा मौसम में दिल में छुपी, कोई कहानी सी है।

शीशे के बाहर के तूफान से, भीतर के तूफान की कुछ रवानी सी है,
बूँदों की रुनझुन के साथ, धड़कनों की धुन कुछ जानी पहचानी सी है ।

बारिश के साथ गुम हो जाना, अपनी आदत पुरानी सी है,
एक लम्हे में कई लम्हें जी लेना, मौसम की मेहरबानी सी है ।

पिघलती बारिशों में दिल की ज़मी, धुली-धुली सी है,
धुआं -धुआं से मौसम में दिल की कली खिली खिली सी है ।

धरती पर बिखरती शबनम से, कई आरजुएं मचली सी हैं,
सर्द हवाओं की दस्तक और फिजाओं में, कई खुशबुएं मिली सी हैं।

गुनगुनाती वादियो ने छेड़ी, एक ग़ज़ल नई सी है,
प्रकृति को लेने अपनी पनाहों में, बारिश की लड़ियां घिरी सी हैँ।

7. सामां किराए का

जब खु़द के साथ नहीं होते,
कितने अजूबे होते हो,
भ्रम में भूले हुए,
कोई शगूफे़ होते हो।
जैसे नटबाज़ी करता
हुआ कोई नट
परायी ताल पर
थिरकते जमूरे होते हो।

किस अजनबीयत से
छूती हैं मेरी नज़रें तुम्हें
जब गुज़रती हैं
नज़दीक से
देखकर तुम्हारे
तमाशे अजीब से
जब खु़द ही खु़द को
भूले हुए होते हो।

यह सामां किराए का
है या उधार का
लग रहा जो प्यारा
उठा लाए हो समेट
लौटा दो वापस
कहां ले जाओगे
यह बोझ सारा
पाकर इन्हें भी
अन्जाने ख़ालीपन में
डूबे हुए होते हो ।

8. युवा शक्ति

युवाओं अगर बनना है शक्तिपुंज तो
विवेकानंद जी के जोशीले सिद्धांतों को अपनाओ
अपने समाज और देश के लिए कुछ कर जाओ,
शराब पीकर, विदेशी धुन पर नाच कर
अपना और अपनी संस्कृति का मज़ाक ना बनाओ ।

यह ठीक नहीं, वह ठीक नहीं,
क्या हम ठीक हैं, सोच कर देखो ज़रा
क्या है वह जज़्बा, जोश ओ जुनूं
जो बदल दे रंग, हर तस्वीर का।

कब तक रहोगेअपनी कमज़ोरियों के शिकार,
पड़े रहेंगे यूं ही तमाशबीन की तरह,
बीमार रंगरेलियों मौज - मस्ती के अलावा
कुछ नहीं सोचा तो ज़िंदगी है बेकार।

ईमानदारी से कर्तव्य पथ पर
चलने वालों की कभी नहीं होती हार
देश का नमक कुछ तो है उधार
सच को सच कहना, अन्याय न करना
न ही सहना, कर लो स्वीकार
वरना ज़मीर चैन से नहीं रहने देगा, ख़बरदार!

9. किसने मुझे कहा, पतंग हूं मैं

किसने मुझे कहा, पतंग हूं मैं !
अपनी ही मस्ती में, मलंग हूं मैं।

करती हूं कभी सात समंदर पार
तो कभी एवरेस्ट चढ़ती
अब तो अंतरिक्ष पर भी
ध्वजा फहरा दी है अपने नाम की
सचमुच हौंसलों में बुलंद हूं मैं
किसने मुझे कहा, पतंग हूं मैं !

अष्ट भुजाएं हैं मेरी
करती हूं संभाल- देखभाल
अपनों की, ज़िम्मेदारियों की
जब बाहर निकलती हूं अच्छी
ख़बर लेती हूँ दुश्वारियों की
प्रतिभा, प्रेम, धैर्य, साहस का
खिला इंद्रधनुषी रंग हूं मैं
किसने मुझे कहा, पतंग हूं मैं !

हां, पतंग पसंद बहुत हैं मुझे
रंग बिरंगी प्यारी प्यारी
भर जाती है मुझ में भी
जोश ए जुनूं, सपनों को
सच करने की तैयारी
क़ायनात का मधुर मृदंग हूं मैं
किसने मुझे कहा, पतंग हूं मैं !

ग़र मान भी लो पतंग मुझको
तो भी यह पक्का कर लो
अपनी डोर कभी दी नहीं तुमको
डोर भी मेरी और उड़ान भी मेरी
अपने फ़ैसले खु़द करती, दबंग हूं मैं
किसने मुझे कहा, पतंग हूं मैं !

10. व्यंगिका

चलते हैं सोसायटी के उन अंधेरों,
उन सड़कों, गलियों, घर,
चौराहों, बाज़ारों की ओर
जहां दहशत ग्रस्त हैं लोग
अपराध पलता है ।

ये मर्यादा हीन, संस्कार विहीन, कमजोर,
पौरुषहीन, मान वेतर, जानवरों से बदतर,
घूमते हैं छाती चौड़ी कर,
जैसे जानते हैं भारत भूमि है,
यहां कौन डरता है,
यहां के हम सिकंदर,
कोई है जो कर सके हमें अंदर !
यहां तो अहा! सब चलता है!!

बेखौफ, बेधड़क, खुली आबोहवा में ये
निर्लज्ज, हैवान झूम रहे और
इन्हें दंड देने वाली फाइलें
न्यायालयों में घूम रही हैं ।
निर्भया जैसे बीभत्स कांड करने वाले,
अपराधियों को कोई भय नहीं,
क्योंकि सात साल बाद भी
उन्हें मिली सजा-ए-मौत नहीं।

अपराधियों के मानवाधिकारों की चिंता है,
इन नन्ही-मुन्नियों का तो सांस लेने का भी हक,
किस हक से इन पापियों ने छीन लिया है!
ढेरों सवाल जिनके जवाब नहीं पाओगे,
यहां तो न्याय बस ढूंढते रह जाओगे,
बहरा -अंधा कानून कहां देखता है,
दुर्भाग्य !भारत में सब चलता है!
इन नराधमों का अंग भंग कर
नपुसंक कर देने से कम,
कोई उपाय नहीं बचता है।
क्योंकि सच तो यह है कि
"सब कुछ नहीं चलता है"

11. हाइकु

बड़ी राहतें
सावन की आहटें
सब मगन।

झरती बूंदें
चारु शिवाभिषेक
मनभावन

काले बादल
हवाओं की लय पे
शुभ आग़ाज।

किसने बुने
हमारे ताने बाने
हम न जाने।

हर समय
कसौटी ज़िंदगी की
एक परीक्षा।

ये मोहब्बत
न पहले सी सदा
नकली अदा।

सब कीमती
पर मेरा ये दिल
बेशकीमती।

उड़ते पंछी
छूने चले अंबर
गुनगुनाते।

देश प्रेमियों
बहे न यूं बेकार
देश का रक्त।

जान लें सभी
अच्छाई ये हमारी
बने ताक़त।

तुम आज़ाद
न अब हम क़ैद
स्वयं का छंद।

है गुलिस्तान
हमारा ये वतन
हमवतन।

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