हिन्दी कविताएँ : अनन्त मिश्र

Hindi Poetry : Anant Mishra


मैं कविता लिखता हूँ

बोलने और बात करने के लिए बहुत कुछ पर मौन होने के लिए कम है कुछ शायद कुछ नहीं हैं और शायद है भी तो असह्य है वह मौन से भाषा होने में एक जीवित आदमी लगभग निरर्थक हो जाता है। तुम किस अभिव्यक्ति के बारे में कह रहे हो, मैं समझ नहीं पाता कई बार, मेरी नासमझी पर तुम्हें हँसना नहीं चाहिए तुम तो हमेशा कहते हो इसमें रोना क्या है, रोना नासमझी है। मैं अपनी नासमझी सहेजना चाहता हूँ और तुम कहते हो मैं कविता लिखता हूँ ।

मेरा पता

मेरा पता आकस्मिक है पोस्टमैन जो जानता है वह मेरा पता नहीं है । मेरा मोबाइल नंबर आकस्मिक है जो लोग फोन करते हैं वे मेरा असली नंबर नहीं जानते, मेरा नाम आकस्मिक है जो लोग लेते हैं वे मेरा नाम नहीं जानते, मेरा घर, मेरा ठौर सब आकस्मिक है मैं स्वयं भी तो आकस्मिक हूँ मैं भी नहीं जानता अपना नाम-पता ठौर-ठिकाना अब, दूसरे कैसे जान सकते हैं मेरा पता ।

जीवन का गान

स्त्रियाँ रहेंगी मटकौरा होगा पितर-न्यौंती गाएँगी दुलहन सजायी जाएगी जवान सब सजेंगे जीवन का गान बना रहेगा पेड़ रहेंगे बेशक पत्ते झरेंगे जीवन का गान चलता रहेगा पक्षी सुबह गायेंगे भोर खूबसूरत होगी बूढ़े टहलेंगे और अधिक जीने की इच्छा रखेंगे जीवन का गान चलता रहेगा। युवक-युवतियाँ प्रेम करेंगे गाना गायेंगे आँख मारेंगे लड़कियाँ मुस्कराएँगी जीवन का गान चलता रहेगा । बच्चे सज-बज कर स्कूल जाएँगे माताएँ पहुँचाने जाएँगी जीवन का गान चलता रहेगा। मौत जिसकी होगी वह घाट जाएगा या मिट्टी में मिल जाएगा पर बच्चे जन्म लेंगे बधाइयाँ बजेंगी जीवन का गान चलता रहेगा। जीवन जैसा भी है है बहुत दिलकश चाहे कुत्तों का हो या आदमी का जीवन का गान चलता रहेगा। चलना ही चाहिए जीवन का गान रुदन जीवन नहीं जीवन है मुस्कान जीवन का गान चलता रहेगा।

पहले धीरे धीरे बाद में जल्दी-जल्दी

धीरे धीरे भूलते हैं नाम भूलते जाते हैं चेहरों और नाम के ऐक्य, चश्मा छूटता है यहाँ-वहाँ गायब भी होने लगते हैं जेब में रखे पैसे, पेनकार्ड का नंबर भूलने लगता है खाता संख्या भी भूलती है। आधार कार्ड का नंबर और बिल्कुल सगों को छोड़कर भूल जाते हैं मित्रों के मोबाइल नंबर धीरे-धीरे दाँत टूटते हैं कई बार गिर भी जाते हैं धीरे-धीरे आँखों की रोशनी गायब होती है चेहरे की कांति तो पहले से छूटने लगती है, पाँवों पर देर तक खड़े रहने की ताकत धीरे-धीरे कम हो जाती है धीरे-धीरे घर में उम्र बढ़ने के साथ जुबान कमजोर हो जाती है धीरे-धीरे देह में दर्द बढ़ता है धीरे-धीरे सिर्फ अतीत रह जाता है वर्तमान गायब हो जाता है धीरे-धीरे डर धीरे-धीरे कमजोरी धीरे-धीरे धैर्य खत्म हो जाता है धीरे-धीरे आता है वह पड़ाव, कि आप के नहीं आप के शव के पास एक अलाव सुलगता है और धीरे-धीरे लोग इकट्ठे होने लगते हैं कितने बच्चे हैं ? कोई पूछेगा उनमें से और होने पर आश्वस्त हो जाते हैं, अब धीरे धीरे जो हो रहा था वह जल्दी जल्दी होने लगता है क्या धीरे धीरे का जल्दी हो जाना परिणाम है ? और हिंदू होने के नाते क्या मैं कहूँ यह सत्य ही रामनाम है।

पहले और अब

पहले माँ के हाथ की महकते घी में चुपड़ी रोटी थी गुड़ था, पहले पीठ पर बस्ता था साथ में भेली-भूजा लड़कों का साथ था पैदल स्कूल जाते हुए मंजिल के लिए बड़े-बड़े पेड़ों के निशान थे, पहले कुआँ था पोखरा भी दोपहरी में तैरना था लौटकर आने पर पिता की डाँट थी, शाम को ठंडई थी रात में दाल-भात था घी की कटोरी थी चोखे का कटोरा था साथ में अचार था घर भर का प्यार था। पहले नहीं था टेलीफोन चिट्ठी थी आने पर पढ़ने की उत्सुकता थी स्त्रियों की ठिठोली थी भौजाइयों का नेह था घर था और बाहर अच्छा नहीं लगता था अब अंदर कुछ नहीं है सब बाहर है अब सड़क है हाट-बाजार है। माल है मनसूबे हैं नकली मुस्कान है न कहीं चिड़ियों का खूबसूरत शोर है न कहीं भोर है। न दिया है न अँधेरे में भूत अब सब पका पकाया जीवन है पहले वह कमाया हुआ था । अब घर से बाहर समाज और आदमी अंदर से खोखला पैसा है, चोंचला है पर कोई नहीं घोंसला है कि आत्मा का पक्षी आनंद का अनुभव करे बिसूरने से कविता नहीं बनती, न बने पर मन को मिलती है शांति जो अब नहीं है और जीते रहने की विवशता में केवल राजनीति है तिकड़म है, स्वार्थ है दया नहीं, माया नहीं कोई भगवान नहीं, मंदिर तो बहुत हैं पर पूजा का आसमान नहीं, यही सब कहानी है वर्षों से पुरानी है जिंदगी की नानी है आँखों में किसी के अब रहता नहीं पानी है।

अखबारी आदमी

वह चीखता ऐसे है जैसे छप रहा हो और जब हँसता है तो उसे मशीन से अखबार की तरह लद-लद गिरते देखा जा सकता है, वह इकट्ठा होता है अपने वजूद में बंडल का बंडल सबसे आँख लड़ाती बेहया औरत की तरह वह इतना प्रसिद्ध होता है कि दिन भर में ही पूरा-पूरा फैल जाता है आबादी पर, अगले दिन वह फिर हँसेगा, चीखेगा, गाएगा फर्ज करेगा और दोहराएगा, घोषणा करेगा आदमी अखबारी है अखबार में छपा रहना चाहिए उसका प्यार।

असफलता

लो फिर मैं छटपटाने लगा और हुआ मैं कहने को उतावला वह मैं कैसे कहूँ जो मैं कहना चाहता हूँ खोजता हूँ शब्द मैं अपनी त्वचा से आँखों से, नाक से पेट से, दिल से नब्ज में आए शब्द मिलते नहीं कहीं से। खोजता हूँ धीरे-धीरे अपने को जैसे कोई खोल रहा हूँ जकड़ा हुआ दरवाजा बहुत दिनों से बंद जोर लगाता हूँ जितना उतना ही वह नहीं खुलता। शब्द के अलावा कोई विकल्प न होने में उन्हीं-उन्हीं शब्दों में लौटता हूँ पर वे सभी मेरे मतलब के शब्द नहीं होते हैरान हो कर निढाल पड़ जाता हूँ आत्मा मुस्कुराती है मेरी असफलता पर मैं उसके सामने हाथ जोड़ लेता हूँ।

आदमी और बाकी सब

झुकी हुई औरत गर्दन पर बाल खोलती है दिख गए मर्द को देखती है और अंदर भाग जाती है, औरत जब मर्द देखती है तो अंग छुपाती है मर्द जब औरत को देखता है तो सीना फुलाता है, चिड़िया जब चिड़िया को देखती है चहचहाती है, मैंने पेड़ से पूछा आप क्या करते हैं श्रीमान आदमी को देख कर ? मैं देखता हूँ कुल्हाड़ी नहीं है न उसके पास और आश्वस्त हो जाता हूँ।

उपदेश बरक्स चुप्पी

वे जो उपदेश दिया करते हैं उनके ऊपर दिखता तो नहीं पर गँजा रहता है बोरे का बोरा शास्त्र, किताबों का कचरा जिसे हजम कर वे उसका सब प्रतिफल बाँट दिया करते हैं। मैं चुप रहता हूँ मुझे सूझता नहीं किनारा, लौट कर आता हूँ और धीरे-धीरे फिर से जीवन की आग जलाने की कोशिश में लग जाता हूँ।

कृपया धीरे चलिए

मुझे किसी महाकवि ने नहीं लिखा सड़कों के किनारे मटमैले बोर्ड पर लाल-लाल अक्षरों में बल्कि किसी मामूली पेंटर कर्मचारी ने मजदूरी के बदले यहाँ वहाँ लिख दिया जहाँ-जहाँ पुल कमजोर थे जहाँ-जहाँ जिंदगी की भागती सड़कों पर अंधा मोड़ था त्वरित घुमाव था घनी आबादी को चीर कर सनसनाती आगे निकल जाने की कोशिश थी बस्ता लिए छोटे बच्चों का मदरसा था वहाँ-वहाँ लोकतांत्रिक बैरियर की तरह मुझे लिखा गया 'कृपया धीरे चलिए' आप अपनी इंपाला में रुपहले बालोंवाली कंचनलता के साथ सैर पर निकले हों या ट्रक पर तरबूजों की तरह एक-दुसरे से टकराते बँधुआ मजदूर हों आसाम, पंजाब, बंगाल भेजे जा रहे हों मैं अक्सर दिखना चाहता हूँ आप को 'कृपया धीरे चलिए' मेरा नाम ही यही है साहब मैं रोकता नहीं आपको मैं महज मामूली हस्तक्षेप करता हूँ, प्रधानमंत्री की कुर्सी पर अविलंब पहुँचना चाहते हैं तो भी प्रेमिका आप की प्रतीक्षा कर रही है तो भी आई.ए.एस. होना चाहते हों तो भी रुपयों से गोदाम भरना चाहते हों तो भी अपने नेता को सबसे पहले माला पहनाना चाहते हों तो भी जिंदगी में हवा से बातें करना चाहते हों तो भी आत्महत्या की जल्दी है तो भी लपककर सबकुछ ले लेना चाहते हों तो भी हर जगह मैं लिखा रहता हूँ 'कृपया धीरे चलिए' मैं हूँ तो मामूली इबारत आम आदमी की तरह पर मैं तीन शब्दों का महाकाव्य हूँ मुझे आसानी से पढ़िए कृपया धीरे चलिए।

चुप रहने दो मुझे

समाधि के स्वाद की तरह मौन के आस-पास शब्द छोटे-छोटे बच्चों की भाँति उधम मचाते हैं उन्हें देखने की चेष्टा में मैं असहजता का अनुभव करता हूँ , क्या कर सकता हूँ मंदिर के सामने मंगलवार के दिन पंक्तिबद्ध दरिद्रों, अपंगों, कोढ़ियों के लिए मैं कुछ भी तो नहीं कर सकता ये शब्द किस काम के हैं और कविता भी किस काम की आने वाला है जन्मदिन एक समाजवादी का मुझे वहाँ जाना है वह भी तो कुछ नहीं कर सकते इन दरिद्रों के लिए परमाणु डील तो होगा पर बिजली भी तो नहीं मिटा सकती भूख के विराट अंधकार को जो तीसरी दुनिया के तमाम लोगों की पेट और छाती पर फैला है चुप रहने दो मुझे बोलने दो दुनिया को।

बूढ़ा देश

बच कर निकल गई हाथ आई जिंदगी मछली जैसे पकड़ में आई-आई फिसल गई। चुप चाप मृत्यु की प्रतीक्षा में बैठा बूढ़ा आदमी कब तक नाती-पोतों का मुँह देखता रहेगा दवाई और रोग पेट की कमजोरी हड्डियों का कड़कड़ापन और अतीत का बोझ वर्तमान में रहने नहीं देता। मेरा देश एक पुराना देश है जिसकी आँखों में चमक कभी-कभी आती है।

मकान

आदमी के ऊपर छत होनी ही चाहिए वह घरेलू महिला हमेशा मिलने पर कहती है उसका बंगला नया है उसके नौकर उसके लान की सोहबत ठीक करते हैं और वह अपने ड्राइंगरूम को हमेशा सजाती रहती है। मैंने नीले आसमान के नीचे खड़े हो कर अनुभव किया कि छत मेरे सिर से शुरू होगी या मेरे सिर के कुछ ऊपर से जब मैं मकान बनाऊँगा, अब मैं मकान हो गया था और मेरी इंद्रियाँ जँगलों की तरह प्रतीक्षा करने लगी थीं मैंने सोचा यह रहे मेरे नौकर-चाकर मेरे हाथ और पाँव यह रहा मेरा दरवाजा मेरा चेहरा यह रहा मेरा डायनिंग रूम मेरा पेट यह रहा मेरा खुला हुआ बरामदा मेरी छाती यह रहे कैक्टस कँटीले मेरी दाढ़ी-मूँछ और यह रहा मेरा दिल मेरा ड्राइंगरूम मैंने पूरा मकान मिनटों में खड़ा कर लिया था, और अब मैं आराम से सैर पर जा सकता था जेब में मूँगफली भरे हुए और चिड़ियों से मुलाकात करते हुए।

हमारे समय में

हमारे समय में क्रांति भी एक फैशन है सत्य, अहिंसा, करुणा और दलितोद्धार स्त्री-विमर्श और गाँव के प्रति जिम्मेदारी। हमारे समय में भक्ति भी एक फैशन है सत्संग, ईश्वर और सहविचार। प्रेम और मोह सभी फैशन की तरह यहाँ तक कि गांधीवाद यथार्थवाद अंतिम व्यक्ति की चिंता और लाचारी। हमारा समय कुछ मुहावरों में जिंदा है सबको प्रोडक्ट की तरह बेच रहा है हर तरह के शुभ के लिए एक दिन है मदर डे फादर डे प्रेम दिवस हिंदी दिवस और जाने कितने 'डे' और जाने कितने दिवस। शांति सद्भावना और मैत्री सब मुहावरों में तब्दील हो गए हैं। सब कुछ छपे हुए जीवन की तरह है। आदमी कुछ शब्दों में शब्द कुछ अंकों में अंक कुछ वेबसाइट में सूचनाओं में बदल गए हैं। हमारे समय का आदमी आदमी नहीं है वह केवल संसाधन है किसके लिए हमारा समय इसे जानता है हम जो आदमी हैं वे ही नहीं जानते। हम अपने समय में हैं यह एक अनुभव नहीं एक खबर है जो छप जाता है और हम जान जाते हैं कि हम हैं। हम अपने समय की कोई व्याख्या नहीं कर सकते। सिर्फ उसमें हो सकते हैं हमारी छोटी-बड़ी एक कीमत है जिसे देकर कोई भी हमें खरीद सकता है। हम अपने समय के ब्रह्मांड में एक कोड हैं एक बटन हैं जिस पर उँगली पड़ते ही हम जीने लगते हैं और खेलने लगते हैं और एक बटन से हमारा जीवन बंद हो जाता है।

होली बीत गई

जैसे सब बीतता है वैसे बीत गई एक शब्द उठा रंगीन फव्वारों पर रखे बैलून की तरह रात आते-आते मशीन बंद हो गई न रंग है, न फव्वारा न वह बैलून होली मिठाइयाँ और गुझियों के पच गए अवसाद के स्वाद की तरह खत्म हो गई। मिल आए लोग जिनसे मिलना था मिल लिए लोग जो मिलने आए थे। समय के माथे पर लगा अबीर झर गया होली बीत गई। एस.एम.एस. पद लिखे गए हार्दिक शुभकामनाएँ बासी हो गई उन्हें लोगों ने अपने मोबाइल से डिलीट कर दिया अब अगले साल आएगी होली एहसास, सुदूर समंदर में चला गया... लगा चुप है शहर उजाड़ लग रहा है गाँव कल अखबार भी नहीं आएगा कि तुरंत याद दिला दे होली का अगले दिन आएगा तब तक दिलचस्पी कम हो जाएगी। बच्चे और जवान दिन भर होली खेलकर गाकर, बजाकर, नाचकर बेहद थककर सो गए होली बीत गई होली की तरह जिंदगी बीत जाएगी एक दिन न मन का फव्वारा रहेगा न तन का बैलून मशीन बंद हो जाएगी पानी खत्म हो जाएगा। बचे हुए लोग बचे रह जाएँगे और कुछ लोग होली की तरह बीत जाएँगे चुप एक शब्द है हर त्योहार में जो उनके अवसान के समय आता है और कहता है मुझे देखो और पहचानो और बीत जाने की प्रतीक्षा करो।

साइकिल

धूप में खड़ी है साइकिल धूप में खड़ी रहेगी साइकिल धूप से बच नहीं सकती साइकिल । साइकिल खुद से चल कर छाँव में नहीं आ सकती गो, वह ज्यादा चलती है चलकर ही आ खड़ी है पर धूप में पड़ी है साइकिल । सड़क पर देखो कितनी तेजी से भाग रही है साइकिल और वह एक बेचारी धूप में मुतवारित खड़ी है धूप उसे बेहद परेशान कर रही है उसकी पीठ रही हैं पर जब खुद से नहीं चल सकती साइकिल तो अपनी रफ्तार के बावजूद वह पड़ी रहेगी दुनिया का कितना बड़ा आश्चर्य है कि धूप से भाग नहीं सकती साइकिल किसी पेड़ के निचे सुस्ता नहीं सकती साइकिल खुद से वह पहिया घुमा नहीं सकती घंटी बजाकर अपने मालिक तक को बुला नहीं सकती साइकिल, गो वह सैर करा सकती है वक्त पर काम आने में उसका कोई जबाब नहीं फिर भी धूप में कितनी असहाय खड़ी है साइकिल ।

  • मुख्य पृष्ठ : अनन्त मिश्र - हिंदी कविताएँ
  • मुख्य पृष्ठ : हिन्दी कविता वेबसाइट (hindi-kavita.com)