फिर कबीर : मुनव्वर राना

Phir Kabir : Munnawar Rana

माँ

सुलाकर अपने बच्चों को यही माँएँ समझती हैं
कि इन की गोद में किलकारियाँ आराम करती हैं

बचपन

1.
कम से कम बच्चों के होंठों की हँसी की ख़ातिर
ऐसी मिट्टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊँ

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जो भी दौलत थी वो बच्चों के हवाले कर दी
जब तलक मैं नहीं बैठूँ ये खड़े रहते हैं

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जिस्म पर मेरे बहुत शफ़्फ़ाफ़ कपड़े थे मगर
धूल-मिट्टी में अटा बेटा बहुत अच्छा लगा

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भीख से तो भूख अच्छी गाँव को वापस चलो
शहर में रहने से ये बच्चा बुरा हो जाएगा

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अगर इस्कूल में बच्चे हों घर अच्छा नहीं लगता
परिंदों के न होने से शजर अच्छा नहीं लगता

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धुआँ बादल नहीं होता कि बचपन दौड़ पड़ता है
ख़ुशी से कौन बच्चा कारख़ाने तक पहुँचता है

2.
मेरा बचपन था मेरा घर था खिलौने थे मेरे
सर पे माँ-बाप का साया भी ग़ज़ल जैसा था

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हो चाहे जिस इलाक़े की ज़बाँ बच्चे समझते हैं
सगी है या सौतेली है ये माँ बच्चे समझते हैं

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ये बच्ची चाहती और कुछ दिन माँ को ख़ुश रखना
ये कपड़ों के मदद से अपनी लम्बाई छ्पाती है

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ये सोच के माँ -बाप की ख़िदमत में लगा हूँ
इस पेड़ का साया मेरे बच्चों को मिलेगा

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हँसते हुए माँ-बाप की गाली नहीं खाते
बच्चे हैं तो क्यों शौक़ से मिट्टी नहीं खाते

बच्चे भी ग़रीबी को समझने लगे शायद
अब जाग भी जाते हैं तो सहरी नहीं खाते

3.
मैं हूँ मेरा बच्चा है खिलौनों की दुकाँ है
अब कोई मेरे पास बहाना भी नहीं है

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ऐ ख़ुदा फूल-से बच्चों की हिफ़ाज़त करना
मुफ़लिसी चाह रही है मेरे घर में रहना

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ऐ ख़ुदा तू फ़ीस के पैसे अता कर दे मुझे
मेरे बच्चों को भी यूनिवर्सिटी अच्छी लगी

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मुफ़लिसी ! बच्चे को रोने नहीं देना वरना
एक आँसू भरे बाज़ार को खा जाएगा

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खिलौनों के लिए बच्चे अभी तक जागते होंगे
तुझे ऐ मुफ़लिसी कोई बहाना ढूँढ लेना है

4.
मैं वो मेले में भटकता हुआ इक बच्चा हूँ
जिसके माँ-बाप को रोते हुए मर जाना है

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कुछ खिलौने कभी आँगन में दिखाई देते
काश हम भी किसी बच्चे को मिठाई देते

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क़सम देता है बच्चों की, बहाने से बुलाता है
धुआँ चिमनी हमको कारख़ाने से बुलाता है

++
किताबों के वरक़ तक जल गए फ़िरक़ापरस्ती में
ये बच्चा अब नहीं बोलेगा बस्ता बोल सकता है

++
इन्हे फ़िरक़ापरस्ती मत सिखा देना कि ये बच्चे
ज़मीं से चूम कर तितली के टूटे पर उठाते हैं

++
इनमें बच्चों की जली लाशों की तस्वीरें हैं
देखना हाथ से अख़बार न गिरने पाए

कई घरों को निगलने के बाद आती है

कई घरों को निगलने के बाद आती है
मदद भी शहर के जलने के बाद आती है

न जाने कैसी महक आ रही है बस्ती में
वही जो दूध उबलने के बाद आती है

नदी पहाड़ों से मैदान में तो आती है
मगर ये बर्फ़ पिघलने के बाद आती है

वो नींद जो तेरी पलकों के ख़्वाब बुनती है
यहाँ तो धूप निकलने के बाद आती है

ये झुग्गियाँ तो ग़रीबों की ख़ानक़ाहें हैं
कलन्दरी यहाँ पलने के बाद आती है

गुलाब ऎसे ही थोड़े गुलाब होता है
ये बात काँटों पे चलने के बाद आती है

शिकायतें तो हमें मौसम-ए-बहार से है
खिज़ाँ तो फूलने-फलने के बाद आती है

मिट्टी में मिला दे कि जुदा हो नहीं सकता

मिट्टी में मिला दे कि जुदा हो नहीं सकता
अब इससे ज़ियादा मैं तिरा हो नहीं सकता

दहलीज़ पे रख दी हैं किसी शख़्स ने आँखें
रौशन कभी इतना तो दिया हो नहीं सकता

बस तू मिरी आवाज़ में आवाज़ मिला दे
फिर देख कि इस शहर में क्या हो नहीं सकता

ऎ मौत मुझे तूने मुसीबत से निकाला
सय्याद समझता था रिहा हो नहीं सकता

इस ख़ाकबदन को कभी पहुँचा दे वहाँ भी
क्या इतना करम बादे-सबा हो नहीं सकता

पेशानी को सजदे भी अता कर मिरे मौला
आँखों से तो यह क़र्ज़ अदा हो नहीं सकता

जब भी देखा मेरे किरदार पे धब्बा कोई

जब भी देखा मेरे किरदार पे धब्बा कोई
देर तक बैठ के तन्हाई में रोया कोई

लोग माज़ी का भी अन्दाज़ा लगा लेते हैं
मुझको तो याद नहीं कल का भी क़िस्सा कोई

बेसबब आँख में आँसू नहीं आया करते
आपसे होगा यक़ीनन मेरा रिश्ता कोई

याद आने लगा एक दोस्त का बर्ताव मुझे
टूट कर गिर पड़ा जब शाख़ से पत्ता कोई

बाद में साथ निभाने की क़सम खा लेना
देख लो जलता हुआ पहले पतंगा कोई

उसको कुछ देर सुना लेता हूँ रूदादे-सफ़र
राह में जब कभी मिल जाता है अपना कोई

कैसे समझेगा बिछड़ना वो किसी का ‘राना’
टूटते देखा नहीं जिसने सितारा कोई

अमीरे-शहर को तलवार करने वाला हूँ

अमीरे-शहर को तलवार करने वाला हूँ
मैं जी-हुज़ूरी से इन्कार करने वाला हूँ

कहो अँधेरे से दामन समेट ले अपना
मैं जुगनुओं को अलमदारकरने वाला हूँ

तुम अपने शहर के हालात जान सकते हो
मैं अपने-आपको अख़बार करने वाला हूँ

मैं चाहता था कि छूटे न साथ भाई का
मगर वो समझा कि मैं वार करने वाला हूँ

बदन का कोई भी हिस्सा ख़रीद सकते हो
मैं अपने जिस्म को बाज़ार करने वाला हूँ

तुम अपनी आँखों से सुनना मेरे कहानी को
लबे-ख़ामोशसे इज़्हार करने वाला हूँ

हमारी राह में हाएल कोई नहीं होगा
तू एक दरिया है मैं पार करने वाला हूँ

कभी ख़ुशी से ख़ुशी की तरफ़ नहीं देखा

कभी ख़ुशी से ख़ुशी की तरफ़ नहीं देखा
तुम्हारे बाद किसी की तरफ़ नहीं देखा

ये सोच कर कि तेरा इंतज़ार लाज़िम है
तमाम उम्र घड़ी की तरफ़ नहीं देखा

यहाँ तो जो भी है आबे-रवाँका आशिक़ है
किसी ने ख़ुश्क नदी की तरफ़ नहीं देखा

वो जिसके वास्ते परदेस जा रहा हूँ मैं
बिछड़ते वक़्त उसी की तरफ़ नहीं देखा

न रोक ले हमें रोता हुआ कोई चेहरा
चले तो मुड़ के गली की तरफ़ नहीं देखा

बिछड़ते वक़्त बहुत मुतमुइन थे हम दोनों
किसी ने मुड़ के किसी की तरफ़ नहीं देखा

रविश बुज़ुर्गों की शामिल है मेरी घुट्टी में
ज़रूरतन भी सख़ीकी तरफ़ नहीं देखा

समझौतों की भीड़ -भाड़ में सबसे रिश्ता टूट गया

समझौतों की भीड़ -भाड़ में सबसे रिश्ता टूट गया
इतने घुटने टेके हमने आख़िर घुटना टूट गया

देख शिकारी तेरे कारन एक परिंदा टूट गया
पत्थर का तो कुछ नहीं बिगड़ा लेलिन शीशा

घर का बोझ उठाने वाले ब्च्चे की तक़दीर न पूछ
बचपन घर से बाहर निकला और खिलौना टूट गया

किसको फ़ुर्सत इस महफ़िल में ग़म की कहानी पढ़ने की
सूनी कलाई देख के लेकिन चूड़ी वाला टूट गया

पेट की ख़ातिर फ़ुटपाथों पे बेच रहा हूँ तस्वीरें
मैं क्या जानूँ रोज़ा है या मेरा रोज़ा टूट गया

ये मंज़रभी देखे हमने इस दुनिया के मेले में
टूटा-फूटा नाच रहा है अच्छा-ख़ासा टूट गया

हम कभी जब दर्द के किस्से सुनाने लग गये

हम कभी जब दर्द के किस्से सुनाने लग गये
लफ़्ज़ फूलों की तरह ख़ुश्बू लुटाने लग गये

लौटने में कम पड़ेगी उम्र की पूँजी हमें
आप तक आने ही में हमको ज़माने लग गये

आपने आबाद वीराने किए होंगे बहुत
आपकी ख़ातिर मगर हम तो ठिकाने लग गये

दिल समन्दर के किनारे का वो हिस्सा है जहाँ
शाम होते ही बहुत-से शामियाने लग गये

बेबसी तेरी इनायत है कि हम भी आजकल
अपने आँसू अपने दामन पर बहाने लग गये

उँगलियाँ थामे हुए बच्चे चले इस्कूल को
सुबह होते ही परिन्दे चहचहाने लग गये

कर्फ़्यू में और क्या करते मदद एक लाश की
बस अगरबती की सूरत हम सिरहाने लग गये

तुझ में सैलाबे-बला थोड़ी जवानी कम है

तुझ में सैलाबे-बला थोड़ी जवानी कम है
ऐसा लगता है मेरी आँखों में पानी कम है

कुछ तो हम रोने के आदाब से नावाक़िफ़ हैं
और कुछ चोट भी शायद ये पुरानी कम है

इस सफ़र के लिए कुछ जादे-सफ़र और मिले
जब बिछड़ना है तो फिर एक निशानी कम है

शहर का शहर बहा जाता है तिनके की तरह
तुम तो कहते थे कि अश्कों में रवानी कम है

कैसा सैलाब था आँखें भी नहीं बह पाईं
ग़म के आगे ये मेरी मर्सिया-ख़्वानी कम है

मुन्तज़िर होंगी यहाँ पर भी किसी की आँखें
ये गुज़ारिश है मेरी याद-दहानी कम है

आँखों में कोई ख़्वाब सुनहरा नहीं आता

आँखों में कोई ख़्वाब सुनहरा नहीं आता
इस झील पे अब कोई परिन्दा नहीं आता

हालात ने चेहरे की चमक देख ली वरना
दो-चार बरस में तो बुढ़ापा नहीं आता

मुद्दत से तमन्नएँ सजी बैठी हैं दिल में
इस घर में बड़े लोगों का रिश्ता नहीं आता

इस दर्ज़ा मसायल के जहन्नुम में जला हूँ
अब कोई भी मौसम हो पसीना नहीं आता

मैं रेल में बैठा हुआ यह सोच रहा हूँ
इस दैर में आसानी से पैसा नहीं आता

अब क़ौम की तक़दीर बदलने को उठे हैं
जिन लोगों को बचपन ही कलमा नहीं आता

बस तेरी मुहब्बत में चला आया हूँ वर्ना
यूँ सब के बुला लेने से ‘राना’ नहीं आता

तू कभी देख तो रोते हुए आकर मुझको

तू कभी देख तो रोते हुए आकर मुझको
रोकना पड़ता है आँखों से समुन्दर मुझको

इसमे आवारा मिज़ाजी का कोई दख़्ल नहीं
दश्त-ओ-सहरा में फिराता है मुक़द्दर मुझको

एक टूटी हुई कश्ती का मुसाफ़िर हूँ मैं
हाँ निगल जाएगा एक रोज़ समुन्दर मुझको

इससे बढ़कर मेरी तौहीन -ए-अना क्या होगी
अब गदागर भी समझते हैं गदागर मुझको

ज़ख़्म चेहरे पे, लहू आँखों में, सीना छलनी,
ज़िन्दगी अब तो ओढ़ा दे कोई चादर मुझको

मेरी आँखों को वो बीनाई अता कर मौला
एक आँसू भी नज़र आए समुन्दर मुझको

कोई इस बात को माने कि न माने लेकिन
चाँद लगता है तेरे माथे का झूमर मुझको

दुख तो ये है मेरा दुश्मन ही नहीं है कोई
ये मेरी भाई हैं कहते हैं जो बाबर मुझको

मुझसे आँगन का अँधेरा भी नहीं मिट पाया
और दुनिया है कि कहती है ‘मुनव्वर’ मुझको

अगर दौलत से ही सब क़द का अंदाज़ा लगाते हैं

अगर दौलत से ही सब क़द का अंदाज़ा लगाते हैं
तो फिर ऐ मुफ़लिसी हम दाँव पर कासा लगाते हैं

उन्हीं को सर बुलन्दी भी अता होती है दुनिया में
जो अपने सर के नीचे हाथ का तकिया लगाते हैं

हमारा सानहा है ये कि इस दौरे हुकूमत में
शिकारी के लिए जंगल में हम हाँका लगाते हैं

वो शायर हों कि आलिम हों कि ताजिर या लुटेरे हों
सियासत वो जुआ है जिसमें सब पैसा लगाते हैं

उगा रक्खे हैं जंगल नफ़रतों के सारी बस्ती में
मगर गमले में मीठी नीम नीम का पौदा लगाते हैं

ज़्यादा देर तक मुर्दे कभी रक्खे नहीं जाते
शराफ़त के जनाज़े को चलो काँधा लगाते हैं

ग़ज़ल की सल्तनत पर आजतक क़ब्ज़ा हमारा है
हम अपने नाम के आगे अभी राना लगाते हैं

कुछ मेरी वफ़ादारी का इनआम दिया जाये

कुछ मेरी वफ़ादारी का इनआम दिया जाये
इल्ज़ाम ही देना है तो इल्ज़ाम दिया जाये

ये आपकी महफ़िल है तो फिर कुफ़्र है इनकार
ये आपकी ख़्वाहिश है तो फिर जाम दिया जाये

तिरशूल कि तक्सीम अगर जुर्म नहीं है
तिरशूल बनाने का हमें काम दिया जाये

कुछ फ़िरक़ापरस्तों के गले बैठ रहे हैं
सरकार ! इन्हें रोग़ने-बादाम दिया जाये

न मैं कंघी बनाता हूँ न मैं चोटी बनाता हूँ

न मैं कंघी बनाता हूँ न मैं चोटी बनाता हूँ
ग़ज़ल में आपबीती को मैं जगबीती बनाता हूँ

ग़ज़ल वह सिन्फ़-ए-नाज़ुक़ है जिसे अपनी रफ़ाक़त से
वो महबूबा बना लेता है मैं बेटी बनाता हूँ

हुकूमत का हर एक इनआम है बंदूकसाज़ी पर
मुझे कैसे मिलेगा मैं तो बैसाखी बनाता हूँ

मेरे आँगन की कलियों को तमन्ना शाहज़ादों की
मगर मेरी मुसीबत है कि मैं बीड़ी बनाता हूँ

सज़ा कितनी बड़ी है गाँव से बाहर निकलने की
मैं मिट्टी गूँधता था अब डबल रोटी बनाता हूँ

वज़ारत चंद घंटों की महल मीनार से ऊँचा
मैं औरंगज़ेब हूँ अपने लिए खिचड़ी बनाता हूँ

बस इतनी इल्तिजा है तुम इसे गुजरात मत करना
तुम्हें इस मुल्क का मालिक मैं जीते-जी बनाता हूँ

मुझे इस शहर की सब लड़कियाँ आदाब करती हैं
मैं बच्चों की कलाई के लिए राखी बनाता हूँ

तुझे ऐ ज़िन्दगी अब क़ैदख़ाने से गुज़रना है
तुझे मैँ इस लिए दुख-दर्द का आदी बनाता हूँ

मैं अपने गाँव का मुखिया भी हूँ बच्चों का क़ातिल भी
जलाकर दूध कुछ लोगों की ख़ातिर घी बनाता हूँ

मेरे कमरे में अँधेरा नहीं रहने देता

मेरे कमरे में अँधेरा नहीं रहने देता
आपका ग़म मुझे तन्हा नहीं रहने देता

वो तो ये कहिये कि शमशीरज़नी आती थी
वर्ना दुश्मन हमें ज़िन्दा नहीं रहने देता

मुफ़लिसी घर में ठहरने नहीं देता हमको
और परदेस में बेटा नहीं रहने देता

तिश्नगी मेरा मुक़द्दर है इसी से शायद
मैं परिन्दों को भी प्यासा नहीं रहने देता

रेत पर खेलते बच्चों को अभी क्या मालूम
कोई सैलाब घरौंदा नहीं रहने देता

ग़म से लछमन के तरह भाई का रिश्ता है मेरा
मुझको जंगल में अकेला नहीं रहने देता

हाँ इजाज़त है अगर कोई कहानी और है

हाँ इजाज़त है अगर कोई कहानी और है
इन कटोरों में अभी थोड़ा सा पानी और है

मज़हबी मज़दूर सब बैठे हैं इनको काम दो
इक इमारत शहर में काफी पुरानी और है

ख़ामुशी कब चीख़ बन जाये किसे मालूम है
ज़ुल्म कर लो जब तलक ये बेज़बानी और है

ख़ुश्क पत्ते आँख में चुभते हैं काँटों की तरह
दश्त में फिरना अलग है बाग़बानी और है

फिर वही उकताहटें होंगी बदन चौपाल में
उम्र के क़िस्से में थोड़ी-सी जवानी और है

बस इसी अहसास की शिद्दत ने बूढ़ा कर दिया
टूटे-फूटे घर में इक लड़की सयानी और है

मेरी थकन के हवाले बदलती रहती है

मेरी थकन के हवाले बदलती रहती है
मुसाफ़िरत मेरे छाले बदलती रहती है

मैं ज़िंदगी! तुझे कब तक बचा के रक्खूँगा
ये मौत रोज़ निवाले बदलती रहती है

ख़ुदा बचाए हमें मज़हबी सियासत से
ये खेल खेल में पाले बदलती रहती है

उम्मीद रोज़ वफ़ादार ख़ादिमा की तरह
तसल्लियों के प्याले बदलती रहती है

तुझे ख़बर नहीं शायद कि तेरी रुस्वाई
हमारे होंठों के ताले बदलती रहती है

हमारी आरज़ू मासूम लड़कियों की तरह
सहेलियों से दुशाले बदलती रहती है

बड़ी अजीब है दुनिया तवायफ़ों की तरह
हमेशा चाहने वाले बदलती रहती है

नाकामियों के बाद भी हिम्मत वही रही

नाकामियों के बाद भी हिम्मत वही रही
ऊपर का दूध पी के भी ताक़त वही रही

शायद ये नेकियाँ हैं हमारी कि हर जगह
दस्तार के बग़ैर भी इज़्ज़त वही रही

मैं सर झुका के शहर में चलने लगा मगर
मेरे मुख़ालिफ़ीन में दहशत वही रही

जो कुछ मिला था माल-ए-ग़नीमत में लुट गया
मेहनत से जो कमाई थी दौलत वही रही

क़दमों में ला के डाल दीं सब नेमतें मगर
सौतेली माँ को बच्चों से नफ़रत वही रही

खाने की चीज़ें माँ ने जो भेजी हैं गाँव से
बासी भी हो गई हैं तो लज़्ज़त वही रही

जगमगाते हुए शहरों को तबाही देगा

जगमगाते हुए शहरों को तबाही देगा
और क्या मुल्क को मग़रूर सिपाही देगा

पेड़ उम्मीदों का ये सोच के न काटा कभी
फल न आ पाएँगे इसमें तो हवा ही देगा

तुमने ख़ुद ज़ुल्म को मेयारे-हुक़ुमत समझा
अब भला कौन तुम्हें मसनदे-शाही देगा

जिसमें सदियों से ग़रीबों का लहू जलता हो
वो दीया रौशनी क्या देगा सियाही देगा

मुंसिफ़े-वक़्त है तू और मैं मज़लूम मगर
तेरा क़ानून मुझे फिर भी सज़ा ही देगा

किस में हिम्मत है जो सच बात कहेगा ‘राना’
कौन है अब जो मेरे हक़ में गवाही देगा

हमारा तीर कुछ भी हो निशाने तक पहुँचता है

हमारा तीर कुछ भी हो निशाने तक पहुँचता है
परिन्दा कोई मौसम हो ठिकाने तक पहुँचता है

धुआँ बादल नहीं होता कि बादल दौड़ पड़ता है
ख़ुशी से कौन बच्चा कारख़ाने तक पहुँचता है

हमारी मुफ़लिसी पर आपको हँसना मुबारक हो
मगर यह तंज़ हर सैयद घराने तक पहुँचता है

मैं चाहूँ तो मिठाई की दुकानें खोल सकता हूँ
मगर बचपन हमेशा रामदाने तक पहुँचता है

अभी ऐ ज़िन्दगी तुमको हमारा साथ देना है
अभी बेटा हमारा सिर्फ़ शाने तक पहुँचता है

सफ़र का वक़्त आ जाये तो फिर कोई नहीं रुकता
मुसाफ़िर ख़ुद से चल कर आब-ओ-दाने तक पहुँचता है

जब कभी धूप की शिद्दत ने सताया मुझको

जब कभी धूप की शिद्दत ने सताया मुझको
याद आया बहुत एक पेड़ का साया मुझको

अब भी रौशन है तेरी याद से घर के कमरे
रोशनी देता है अब तक तेरा साया मुझको

मेरी ख़्वाहिश थी कि मैं रौशनी बाँटूँ सबको
ज़िन्दगी तूने बहुत जल्द बुझाया मुझको

चाहने वालों ने कोशिश तो बहुत की लेकिन
खो गया मैं तो कोई ढूँढ न पाया मुझको

सख़्त हैरत में पड़ी मौत ये जुमला सुनकर
आ, अदा करना है साँसोंका किराया मुझको

शुक्रिया तेरा अदा करता हूँ जाते-जाते
ज़िन्दगी तूने बहुत रोज़ बचाया मुझको

उम्मीद भी किरदार पे पूरी नहीं उतरी

उम्मीद भी किरदार पे पूरी नहीं उतरी
ये शब दिले-बीमार पे पूरी नहीं उतरी

क्या ख़ौफ़ का मंज़रथा तेरे शहर में कल रात
सच्चाई भी अख़बार में पूरी नहीं उतरी

तस्वीर में एक रंग अभी छूट रहा है
शोख़ी अभी रुख़सारपे पूरी नहीं उतरी

पर उसके कहीं, जिस्म कहीं, ख़ुद वो कहीं है
चिड़िया कभी मीनार पे पूरी नहीं उतरी

एक तेरे न रहने से बदल जाता है सब कुछ
कल धूप भी दीवार पे पूरी नहीं उतरी

मैं दुनिया के मेयार पे पूरा नहीं उतरा
दुनिया मेरे मेयार पे पूरी नहीं उतरी

इतना रोए थे लिपटकर दरो-दीवार से हम

इतना रोए थे लिपटकर दरो-दीवार से हम
शहर में आ के बहुत दिन रहे बीमार-से हम

अपने बिकने का बहुत दुख है हमें भी लेकिन
मुस्कुराते हुए मिलते हैँ ख़रीदार से हम

सुलह भी इससे हुई जंग में भी साथ रही
मुख़तलिफ़ काम लिया करने हैं तलवार से हम

संग आते थे बहुत चारों तरफ़ से घर में
इसलिए डरते हैं अब शाख़े-समरदार से हम

सायबाँ हो तेरा आँचल हो कि छत हो लेकिन
बच नहीं सकते हैं रुस्वाई की बौछार से हम

हँसते हुए माँ-बाप की गाली नहीं खाते

हँसते हुए माँ-बाप की गाली नहीं खाते
बच्चे हैं तो क्यों शौक़ से मिट्टी नहीं खाते

तुमसे नहीं मिलने का इरादा तो है लेकिन
तुमसे न मिलेंगे ये क़सम भी नहीं खाते

सो जाते हैं फुटपाथ पे अख़बार बिछा कर
मज़दूर् कभी नींद की गोली नहीं खाते

बच्चे भी ग़रीबी को समझने लगे शायद
अब जाग भी जाते हैं तो सहरी नहीं खाते

दावत तो बड़ी चीज़ है हम जैसे क़लंदर
हर एक के पैसों की दवा भी नहीं खाते

अल्लाह ग़रीबों का मददगार है ‘राना’
हम लोगों के बच्चे कभी सर्दी नहीं खाते

ख़ूबसूरत झील में हँसता कँवल भी चाहिए

ख़ूबसूरत झील में हँसता कँवल भी चाहिए
है गला अच्छा तो फिर अच्छी ग़ज़ल भी चाहिए

उठ के इस हँसती हुई दुनिया से जा सकता हूँ मैं
अहले-महफ़िल को मगर मेरा बदल भी चाहिए

सिर्फ़ फूलों से सजावट पेड़ की मुम्किन नहीं
मेरी शाख़ों को नए मौसम में फल भी चाहिए

ऐ मेरी ख़ाके-वतन! तेरा सगा बेटा हूँ मैं
क्यों रहूँ फुटपाथ पर मुझको महल भी चाहिए

धूप वादों की बुरी लगने लगी है अब हमें
सिर्फ़ तारीफ़ें नहीं उर्दू का हल भी चाहिए

तूने सारी बाज़ियाँ जीती हैं मुझपर बैठ कर
अब मैं बूढ़ा हो रहा हूँ अस्तबल भी चाहिए

किसी भी ग़म के सहारे नहीं गुज़रती है

किसी भी ग़म के सहारे नहीं गुज़रती है
ये ज़िंदगी तो गुज़ारे नहीं गुज़रती है

कभी चराग़ तो देखो जुनूँ की हालत में
हवा तो ख़ौफ़ के मारे नहीं गुज़रती है

नहीं-नहीं ये तुम्हारी नज़र का धोखा है
अना तो हाथ पसारे नहीं गुज़रती है

मेरी गली से गुज़रती है जब भी रुस्वाई
वग़ैर मुझको पुकारे नहीं गुज़रती है

मैं ज़िंदगी तो कहीं भी गुज़ार सकता हूँ
मगर बग़ैर तुम्हारे नहीं गुज़रती है

हमें तो भेजा गया है समंदरों के लिए
हमारी उम्र किनारे नहीं गुज़रती है

कई घर हो गए बरबाद ख़ुद्दारी बचाने में

कई घर हो गए बरबाद ख़ुद्दारी बचाने में
ज़मीनें बिक गईं सारी ज़मींदारी बचाने में

कहाँ आसान है पहली महब्बत को भुला देना
बहुत मैं लहू थूका है घरदारी बचाने में

कली का ख़ून कर देते हैं क़ब्रों को बचाने में
मकानों को गिरा देते हैं फुलवारी बचाने में

कोई मुश्किल नहीं है ताज उठाना पहन लेना
मगर जानें चली जाती हैं सरदारी बचाने में

बुलावा जब बड़े दरबार से आता है ऐ राना
तो फिर नाकाम हो जाते हैं दरबारी बचाने में

उड़के यूँ छत से कबूतर मेरे सब जाते हैं

उड़के यूँ छत से कबूतर मेरे सब जाते हैं
जैसे इस मुल्क से मज़दूर अरब जाते हैं

हमने बाज़ार में देखे हैं घरेलू चेहरे
मुफ़लिसी तुझसे बड़े लोग भी दब जाते हैं

कौन हँसते हुए हिजरत पे हुआ है राज़ी
लोग आसानी से घर छोड़ के कब जाते हैं

और कुछ रोज़ के मेहमान हैं हम लोग यहाँ
यार बेकार हमें छोड़ के अब जाते हैं

लोग मशकूक निगाहों से हमें देखते हैं
रात को देर से घर लौट के जब जाते हैं

मुझको गहराई में मिट्टी की उतर जाना है

मुझको गहराई में मिट्टी की उतर जाना है
ज़िंदगी बाँध ले सामाने-सफ़र जाना है

घर की दहलीज़ पे रौशन हैं वो बुझती आँखें
मुझको मत रोक मुझे लौट के घर जाना है

मैं वो मेले में भटकता हुआ इक बच्चा हूँ
जिसके माँ-बाप को रोते हुए मर जाना है

ज़िंदगी ताश के पत्तों की तरह है मेरी
और पत्तों को बहरहाल बिखर जाना है

एक बेनाम से रिश्ते की तमन्ना लेकर
इस कबूतर को किसी छत पे उतर जाना है

तुम्हारे जिस्म की ख़ुश्बू गुलों से आती है

तुम्हारे जिस्म की ख़ुश्बू गुलों से आती है
ख़बर तुम्हारी भी अब दूसरों से आती है

हमीं अकेले नहीं जागते हैं रातों में
उसे भी नींद बड़ी मुश्किलों से आती है

हमारी आँखों को मैला तो कर दिया है मगर
मोहब्बतों में चमक आँसुओं से आती है

इसी लिए तो अँधेरे हसीन लगते हैं
कि रात मिल के तेरे गेसुओं से आती है

ये किस मक़ाम पे पहुँचा दिया महब्बत ने
कि तेरी याद भी अब कोशिशों से आती है

वो मुझे जुर्रते-इज़्हार से पहचानता है

वो मुझे जुर्रते-इज़्हार से पहचानता है
मेरा दुश्मन भी मुझे वार से पहचानता है

शहर वाक़िफ़ है मेरे फ़न की बदौलत मुझसे
आपको जुब्बा-ओ-दस्तार से पहचानता है

फिर क़बूतर की वफ़ादारी पे शक मत करना
वो तो घर को इसी मीनार से पहचानता है

कोई दुख हो कभी कहना नहीं पड़ता उससे
वो ज़रूरत को तलबगार से पहचानता है

उसको ख़ुश्बू के परखने का सलीक़ा ही नहीं
फूल को क़ीमते-बाज़ार से पहचानता है

गौतम की तरह घर से निकल कर नहीं जाते

गौतम की तरह घर से निकल कर नहीं जाते
हम रात में छुपकर कहीं बाहर नहीं जाते

बचपन में किसी बात पर हम रूठ गए थे
उस दिन से इसी शहर में है घर नहीं जाते

एक उम्र यूँ ही काट दी फ़ुटपाथ पे रहकर
हम ऐसे परिन्दे हैं जो उड़कर नहीं जाते

उस वक़्त भी अक्सर तुझे हम ढूँढने निकले
जिस धूप में मज़दूर भी छत पर नहीं जाते

हम वार अकेले ही सहा करते हैं ‘राना’
हम साथ में लेकर कहीं लश्कर नहीं जाते

हमारी दोस्ती से दुश्मनी शरमाई रहती है

हमारी दोस्ती से दुश्मनी शरमाई रहती है
हम अकबर हैं हमारे दिल में जोधाबाई रहती है

किसी का पूछना कब तक हमारे राह देखोगे
हमारा फ़ैसला जब तक कि ये बीनाई रहती है

मेरी सोहबत में भेजो ताकि इसका डर निकल जाए
बहुत सहमी हुए दरबार में सच्चाई रहती है

गिले-शिकवे ज़रूरी हैं अगर सच्ची महब्बत है
जहाँ पानी बहुत गहरा हो थोड़ी काई रहती है

बस इक दिन फूट कर रोया था मैं तेरी महब्बत में
मगर आवाज़ मेरी आज तक भर्राई रहती है

ख़ुदा महफ़ूज़ रक्खे मुल्क को गन्दी सियासत से
शराबी देवरों के बीच में भौजाई रहती है

ऐन ख़्वाहिश के मुताबिक़सब उसी को मिल गया

ऐन ख़्वाहिश के मुताबिक़सब उसी को मिल गया
काम तो ‘ठाकुर’ ! तुम्हारे आदमी को मिल गया

फिर तेरी यादों की शबनम ने जगाया है मुझे
फिर ग़ज़ल कहने का मौसम शायरी

याद रखना भीख माँगेंगे अँधेरे रहम की
रास्ता जिस दिन कहीं से रौशनी को मिल गया

इसलिए बेताब हैं आँसू निकलने के लिए
पाट चौड़ा आज आँखों की नदी को मिल गया

आज अपनी हर ग़लतफ़हमी पे ख़ुद हँसता हूँ मैं
साथ में मौक़ा मुनाफ़िक़ की हँसी को मिल गया

बस इतनी बात पर उसने हमें बलवाई लिक्खा है

बस इतनी बात पर उसने हमें बलवाई लिक्खा है
हमारे घर के बरतन पे आई.एस.आई लिक्खा है

यह मुमकिन ही नहीं छेड़ूँ न तुझको रास्ता चलते
तुझे ऐ मौत मैंने उम्र भर भौजाई लिक्खा है

मियाँ मसनद नशीनी मुफ़्त में कब हाथ आती है
दही को दूध लिक्खा दूध को बालाई लिक्खा है

कई दिन हो गए सल्फ़ास खा कर मरने वाली को
मगर उसकी हथेली पर अभी शहनाई लिक्खा है

हमारे मुल्क में इन्सान अब घर में नहीं रहते
कहीं हिन्दू कहीं मुस्लिम कहीं ईसाई लिक्खा है

यह दुख शायद हमारी ज़िन्दगी के साथ जाएगा
कि जो दिल पर लगा है तीर उसपर भाई लिक्खा है

क़सम देता है बच्चों की बहाने से बुलाता है

क़सम देता है बच्चों की बहाने से बुलाता है
धुआँ चिमनी का हमको कारख़ाने से बुलाता है

किसी दिन आँसुओ! वीरान आँखों में भी आ जाओ
ये रेगिस्तान बादल को ज़माने से बुलाता है

मैं उस मौसम में भी तन्हा रहा हूँ जब सदा देकर
परिन्दे को परिन्दा आशियाने से बुलाता है

मैं उसकी चाहतों को नाम कोई दे नहीं सकता
कि जाने से बिगड़ता है न जाने से बुलाता है

धँसती हुई क़ब्रों की तरफ़ देख लिया था

धँसती हुई क़ब्रों की तरफ़ देख लिया था
माँ-बाप के चेहरों की तरफ़ देख लिया था

दौलत से मुहब्बत तो नहीं थी मुझे लेकिन
बच्चों ने खिलौनों की तरफ़ देख लिया था

उस दिन से बहुत तेज़ हवा चलने लगी है
बस मैंने चरागों की तरफ़ देख लिया था

अब तुमको बुलन्दी कभी अच्छी न लगेगी
क्यों ख़ाकनशीनों की तरफ़ देख लिया था

तलवार तो क्या मेरी नज़र तक नही उट्ठीं
उस शख़्स के बच्चों की तरफ़ देख लिया था

सरक़े का कोई दाग़ जबीं पर नहीं रखता

सरक़े का कोई दाग़ जबीं पर नहीं रखता
मैं पाँव भी ग़ैरों की ज़मीं पर नहीं रखता

दुनिया मेँ कोई उसके बराबर ही नहीं है
होता तो क़दम अर्शे बरीं पर नहीं रखता

कमज़ोर हूँ लेकिन मेरी आदत ही यही है
मैं बोझ उठा लूँ कहीं पर नहीं रखता

इंसाफ़ वो करता है गवाहों की मदद से
ईमान की बुनियाद यक़ीं पर नहीं रखता

इंसानों को जलवाएगी कल इस से ये दुनिया
जो बच्चा खिलौना भी ज़मीं पर नहीं रखता

यह एहतराम तो करना ज़रूर पड़ता है

यह एहतराम तो करना ज़रूर पड़ता है
जो तू ख़रीदे तो बिकना ज़रूर पड़ता है

बड़े सलीक़े से यह कह के ज़िन्दगी गुज़री
हर एक शख़्स को मरना ज़रूर पड़ता है

वो दोस्ती हो मुहब्बत हो चाहे सोना हो
कसौटियों पे परखना ज़रूर पड़ता है

कभी जवानी से पहले कभी बुढ़ापे में
ख़ुदा के सामने झुकना ज़रूर पड़ता है

हो चाहे जितनी पुरानी भी दुश्मनी लेकिन
कोई पुकारे तो रुकना ज़रूर पड़ता है

शराब पी के बहकने से कौन रोकेगा
शराब पी के बहकना ज़रूर पड़ता है

वफ़ा की राह पे चलिए मगर ये ध्यान रहे
कि दरमियान में सहरा ज़रूर पड़ता है

बुलन्दी देर तक किस शख़्स के हिस्से में रहती है

बुलन्दी देर तक किस शख़्स के हिस्से में रहती है
बहुत ऊँची इमारत हर घड़ी ख़तरे में रहती है

बहुत जी चाहता है क़ैद-ए-जाँ से हम निकल जाएँ
तुम्हारी याद भी लेकिन इसी मलबे में रहती है

यह ऐसा क़र्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता
मैं जब तक घर न लौटूँ मेरी माँ सजदे में रहती है

अमीरी रेशम-ओ-कमख़्वाब में नंगी नज़र आई
ग़रीबी शान से इक टाट के पर्दे में रहती है

मैं इन्साँ हूँ बहक जाना मेरी फ़ितरत में शामिल है
हवा भी उसको छू कर देर तक नश्शे में रहती है

मुहब्बत में परखने जाँचने से फ़ायदा क्या है
कमी थोड़ी-बहुत हर एक के शजरे में रहती है

ये अपने आप को तक़्सीम कर लेता है सूबों में
ख़राबी बस यही हर मुल्क के नक़्शे में रहती है

मियाँ मैं शेर हूँ शेरों की गुर्राहट नहीं जाती

मियाँ मैं शेर हूँ शेरों की गुर्राहट नहीं जाती
मैं लहजा नर्म भी कर लूँ तो झुँझलाहट नहीं जाती

मैं इक दिन बेख़याली में कहीं सच बोल बैठा था
मैं कोशिश कर चुका हूँ मुँह की कड़ुवाहट नहीं जाती

जहाँ मैं हूँ वहीं आवाज़ देना जुर्म ठहरा है
जहाँ वो है वहाँ तक पाँव की आहट नहीं जाती

मोहब्बत का ये जज़बा जब ख़ुदा क्जी देन है भाई
तो मेरे रास्ते से क्यों ये दुनिया हट नहीं जाती

वो मुझसे बेतकल्लुफ़ हो के मिलता है मगर ‘राना’
न जाने क्यों मेरे चेहरे से घबराहट नहीं जाती

अना की मोहनी सूरत बिगाड़ देती है

अना की मोहनी सूरत बिगाड़ देती है
बड़े-बड़ों को ज़रूरत बिगाड़ देती है

किसी भी शहर के क़ातिल बुरे नहीं होते
दुलार कर के हुक़ूमत बिगाड़ देती है

इसीलिए तो मैं शोहरत से बच के चलता हूँ
शरीफ़ लोगों को औरत बिगाड़ देती है

मेरी मज़लूमियत पर ख़ून पत्थर से निकलता है

मेरी मज़लूमियत पर ख़ून पत्थर से निकलता है
मगर दुनिया समझती है मेरे सर से निकलता है

ये सच है चारपाई साँप से महफ़ूज़र खती है
मगर जब वक़्त आ जाए तो छप्पर से निकलता है

हमें बच्चों का मुस्तक़बिल लिए फिरता है सड़कों पर
नहीं तो गर्मियों में कब कोई घर से निकलता है

हम दोनों में आँखें कोई गीली नहीं करता

हम दोनों में आँखें कोई गीली नहीं करता
ग़म वो नहीं करता है तो मैं भी नहीं करता

मौक़ा तो कई बार मिला है मुझे लेकिन
मैं उससे मुलाक़ात में जल्दी नहीं करता

वो मुझसे बिछड़ते हुए रोया नहीं वरना
दो चार बरस और मैं शादी नहीं करता

वो मुझसे बिछड़ने को भी तैयार नहीं है
लेकिन वो बुज़ुर्गों को ख़फ़ाभी नहीं करता

ख़ुश रहता है वो अपनी ग़रीबी में हमेशा
‘राना’ कभी शाहों की ग़ुलामी नहीं करता

तेरे चेहरे पे कोई ग़म नहीं देखा जाता

तेरे चेहरे पे कोई ग़म नहीं देखा जाता
हमसे उतरा हुआ परचम नहीं देखा जाता

वो हमें जब भी बुलाएगा चले आएँगे
उससे मिलना हो तो मौसम नहीं देखा जाता

उदास रहता है बैठा शराब पीता है

उदास रहता है बैठा शराब पीता है
वो जब भी होता है तन्हा शराब पीता है

तुम्हारी आँखों की तौहीन है ज़रा सोचो
तुम्हारा चाहने वाला शराब पीता है

वो मेरे होंठों पे रखता है फूल-सी आँखें
ख़बर उड़ाओ कि ‘राना’ शराब पीता है

जो हुक़्म देता है वो इल्तिजा भी करता है

जो हुक़्म देता है वो इल्तिजा भी करता है
ये आसमान कहीं पर झुका भी करता है

मैं अपनी हार पे नादिम हूँ इस यक़ीन के साथ
कि अपने घर की हिफ़ाज़त ख़ुदा भी करता है

तू बेवफ़ा है तो इक बुरी ख़बर सुन ले
कि इंतज़ार मेरा दूसरा भी करता है

हसीन लोगों से मिलने पे एतराज़ न कर
ये जुर्म वो है जो शादीशुदा भी करता है

हमेशा ग़ुस्से में नुक़सान ही नहीं होता
कहीं-कहीं ये बहुत फ़ायदा भी करता है

हालाँकि हमें लौट के जाना भी नहीं है

हालाँकि हमें लौट के जाना भी नहीं है
कश्ती मगर इस बार जलाना भी नहीं है

तलवार न छूने की कसम खाई है लेकिन
दुश्मन को कलेजे से लगाना भी नहीं है

यह देख के मक़तल में हँसी आती है मुझको
सच्चा मेरे दुश्मन का निशाना भी नहीं है

मैं हूँ मेरी बच्चा है, खिलौनों की दुकाँ है
अब कोई मेरे पास बहाना भी नहीं है

पहले की तरह आज भी हैं तीन ही शायर
यह राज़ मगर सब को बताना भी नहीं है

सफ़र में जो भी हो रख़्ते-सफ़र उठाता है

सफ़र में जो भी हो रख़्ते-सफ़र उठाता है
फलों का बोझ तो हर इक शजर उठाता है

हमारे दिल में कोई दूसरी शबीह नहीं
कहीं किराए पे कोई ये घर उठाता है

बिछड़ के तुझ से बहुत मुज़महिलहै दिल लेकिन
कभी कभी तो ये बीमार सर उठाता है

वो अपने काँधों पे कुन्बे का बोझ रखता है
इसीलिए तो क़दम सोचकर उठाता है

मैं नर्म मिट्टी हूँ तुम रौंद कर गुज़र जाओ
कि मेरे नाज़ तो बस क़ूज़ागर उठाता है

फ़रिश्ते आकर उनके जिस्म पर ख़ुश्बू लगाते हैं

फ़रिश्ते आकर उनके जिस्म पर ख़ुश्बू लगाते हैं
वो बच्चे रेल के डिब्बों में जो झाड़ू लगाते हैं

अँधेरी रात में अक्सर सुनहरी मिशअलें ले कर
परिंदों की मुसीबत का पता जुगनू लगाते हैं

दिलों का हाल आसनी से कब मालूम होता है
कि पेशानी पे चंदन तो सभी साधू लगाते हैं

ते माना आपको शोले बुझाने में महारत है
मगर वो आग जो मज़लूम के आँसू लगाते हैं

किसी के पाँव की आहट पे दिल ऐसे उछलता है
छलाँगे जंगलों में जिस तरह आहू लगाते हैं

बहुत मुमकिन है अब मेरा चमन वीरान हो जाए
सियासत के शजर पर घोंसले उल्लू लगाते हैं

किसी भी मोड़ पर तुमसे वफ़ादारी नहीं होगी

किसी भी मोड़ पर तुमसे वफ़ादारी नहीं होगी
हमें मालूम है तुमको ये बीमारी नहीं होगी

तआल्लुक़ की सभी शमएँ बुझा दीं इसलिए मैंने
तुम्हें मुझसे बिछड़ जाने में दुश्वारी नहीं होगी

मेरे भाई वहाँ पानी से रोज़ा खोलते होंगे
हटा लो सामने से मुझसे इफ़्तारी नहीं होगी

ज़माने से बचा लाए तो उसको मौत ने छीना
महब्बत इस लिए पहले कभी हारी नहीं होगी

उदास रहने को अच्छा नहीं बताता है

उदास रहने को अच्छा नहीं बताता है
कोई भी ज़ह्रको मीठा नहीं बताता है

कल अपने आपको देखा था माँ की आँखों में
ये आईना हमें बूढ़ा नहीं बताता है

चमन में सुबह का मंज़र बड़ा दिलचस्प होता है

चमन में सुबह का मंज़र बड़ा दिलचस्प होता है
कली जब सो के उठती है तो तितली मुस्कुराती है

हमें ऐ ज़िंदगी तुझपर हमेशा रश्क़ आता है
मसायल में घिरी रहती है फिर भी मुस्कुराती है

बड़ा गहरा तआल्लुक़ है सियासत का तबाही से
कोई भी शहर जलता है तो दिल्ली मुस्कुराती है

मुहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है

मुहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है
सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है

तवायफ़ की तरह अपने ग़लत कामों के चेहरे पर
हुकूमत मंदिरों-मस्जिद का पर्दा डाल देती है

हुकूमत मुँह-भराई के हुनर से ख़ूब वाक़िफ़ है
ये हर कुत्ते आगे शाही टुकड़ा डाल देती है

कहाँ की हिजरतें कैसा सफ़र कैसा जुदा होना
किसी की चाह पैरों में दुपट्टा डाल देती है

ये चिड़िया भी मेरी बेटी से कितनी मिलती-जुलती है
कहीं भी शाख़े-गुल देखे तो झूला डाल देती है

भटकती है हवस दिन-रात सोने की दुकानों में
ग़रीबी कान छिदवाती है तिनका डाल देती है

हसद की आग में जलती है सारी रात वह औरत
मगर सौतन के आगे अपना जूठा डाल देती है

तुम उचटती-सी एक नज़र डालो

तुम उचटती-सी एक नज़र डालो
जाम ख़ाली इसको भर डालो

दोस्ती का यही तक़ाज़ा है
अपना इल्ज़ाम मेरे सर डालो

फ़ैसला बाद में भी कर लेना
पहले हालात पर नज़र डालो

ज़िंदगी जब बहुत उदास लगे
कोई छोटा गुनाह कर डालो

मैं फ़क़ीरी में भी सिकंदर हूँ
मुझपे दौलत का मत असर डालो

हमारी ज़िन्दगी का इस तरह हर साल कटता है

हमारी ज़िन्दगी का इस तरह हर साल कटता है
कभी गाड़ी पलटती है कभी तिरपाल कटता है

दिखाते हैं पड़ोसी मुल्क आँखें तो दिखाने दो
कहीं बच्चों के बोसे से भी माँ का गाल कटता है

इसी उलझन में अकसर रात आँखों में गुज़रती है
बरेली को बचाते हैं तो नैनीताल कटता है

कभी रातों के सन्नाटे में भी निकला करो घर से
कभी देखा करो गाड़ी से कैसे माल कटता है

सियासी वार भी तलवार से कुछ कम नहीं होता
कभी कश्मीर जाता है कभी बंगाल कटता है

तुम्हारे पास ही रहते न छोड़कर जाते

तुम्हारे पास ही रहते न छोड़कर जाते
तुम्हीं नवाज़ते तो क्यों इधर उधर जाते

किसी के नाम से मंसूब यह इमारत थी
बदन सराय नहीं था कि सब ठहर जाते

सरक़े का कोई शेर ग़ज़ल में नहीं रक्खा

सरक़े का कोई शेर ग़ज़ल में नहीं रक्खा
हमने किसी लौंडी को महल में नहीं रक्खा

मिट्टी का बदन कर दिया मिट्टी के हवाले
मिट्टी को किसी ताजमहल में नहीं रक्खा

कभी थकन के असर का पता नहीं चलता

कभी थकन के असर का पता नहीं चलता
वो साथ हो तो सफर का पता नहीं चलता

वही हुआ कि मैं आँखों में उसकी डूब गया
वो कह रहा था भँवर का पता नहीं चलता

मेरी चाहत का फ़क़ीरी से सिरा मिलता है

मेरी चाहत का फ़क़ीरी से सिरा मिलता है
कोई नंबर भी मिलाता हूँ तेरा मिलता है

तुमने इन आँखों के बरसने से परेशाँ क्यों हो
ऐसे मौसम में तो हर पेड़ हरा मिलता है

एक दीया गाँव में हर रोज़ बुझाती है हवा
रोज़ फुटपाथ पर एक शख़्स मरा मिलता है

ऐ महब्बत तुझे किस ख़ाने में रक्खा जाए
शहर का शहर तो नफ़रत से भरा मिलता है

आपसे मिलके ये अहसास है बाक़ी कि अभी
इस सियासत में भी इंसान खरा मिलता है

ये सियासत है तो फिर मुझको इजाज़त दी जाए
जो भी मिलता है यहाँ ख़्वाजा-सरा मिलता है

मैं खुल के हँस तो रहा हूँ फ़क़ीर होते हुए

मैं खुल के हँस तो रहा हूँ फ़क़ीर होते हुए
वो मुस्कुरा भी न पाया अमीर होते हुए

यहाँ पे इज़्ज़तें मरने के बाद मिलती हैं
मैं सीढ़ियों पे पड़ा हूँ कबीर होते हुए

अजीब खेल है दुनिया तेरी सियासत का
मैं पैदलों से पिटा हूँ वज़ीर होते हुए

ये एहतेज़ाज़ की धुन का ख़याल रखते हैं
परिंदे चुप नहीं रहते असीर होते हुए

नये तरीक़े से मैंने ये ये जंग जीती है
कमान फेंक दी तरकश में तीर होते हुए

जिसे भी चाहिए मुझसे दुआएँ ले जाए
लुटा रहा हूँ मैं दौलत फ़क़ीर होते हुए

तमाम चाहने वालों को भूल जाते हैं
बहुत-से लोग तरक़्क़ी-पज़ीर होते हुए

फ़क़ीरों में उठे बैठे हैं शाहाना गुज़ारी है

फ़क़ीरों में उठे बैठे हैं शाहाना गुज़ारी है
अभी तक जितनी गुज़री है फ़क़ीराना गुज़ारी है

हमारी तरह मिलते तो ज़मीं तुमसे भी खुल जाती
मगर तुमने न जाने कैसे मौलाना गुज़ारी है

न हम दुनिया से उलझे हैं न दुनिया हमसे उलझी है
कि इक घर में रहे हैं और जुदा-गाना गुज़ारी है

नज़र नीची किये गुज़रा हूँ मैं दुनिया के मेले में
ख़ुदा का शुक्र है अब तक हिजाबाना गुज़ारी है

चलो कुछ दिन की ख़ातिर फिर तुम्हें हम भूल जाते हैं
कि हमने तो हमेशा सू-ए-वीराना गुज़ारी है

घर में रहते हुए ग़ैरों की तरह होती हैं

घर में रहते हुए ग़ैरों की तरह होती हैं
बेटियाँ धान के पौधों की तरह होती हैं

उड़के एक रोज़ बड़ी दूर चली जाती हैं
घर की शाख़ों पे ये चिड़ियों की तरह होती हैं

सहमी-सहमी हुई रहती हैं मकाने-दिल में
आरज़ूएँ भी ग़रीबों की तरह होती हैं

टूटकर ये भी बिखर जाती हैं एक लम्हे में
कुछ उम्मीदें भी घरौंदों की तरह होती हैं

आपको देखकर जिस वक़्त पलटती है नज़र
मेरी आँखें , मेरी आँखों की तरह होती हैं

बाप का रुत्बा भी कुछ कम नहीं होता लेकिन
जितनी माँएँ हैं फ़रिश्तों की तरह होती हैं

खण्डहर-से दिल में फिर कोई तमन्ना घर बनाती है

खण्डहर-से दिल में फिर कोई तमन्ना घर बनाती है
मेरे कमरे में इक नन्ही-सी चिड़िया घर बनाती है

मुक़द्दर के लिखे को लड़कियाँ बिल्कुल नहीं पढ़तीं
वो देखो रेत पर बैठी वि गुड़िया घर बनाती है

किसी की बेघरी मंज़ूर होती तो महक होता
उधर देखो मेरे छप्पर में चिड़िया घर बनाती है

निगल लेती है लड़कों को बड़े शहरों की रंगीनी
न जाने किस तमना में ये बुढ़िया घर बनाती है

जला कर राख कर देती है एक लम्हे में शहरों को
सियासत बस्तियों को रोज़ कूड़ाघर बनाती है

चलो इम्दाद करना सीख लें हम भी हुकूमत से
ये पक्का घर गिरा देती है कच्चा घर बनाते है

नहीं सुनता है मेरी तो मेरे बच्चों की ही सुन ले
ये वो मौसम है जब चिड़िया भी अपना घर बनाती है

कहीं पर छुप के रो लेने को तहख़ाना भी होता था

कहीं पर छुप के रो लेने को तहख़ाना भी होता था
हर एक आबाद घर में एक वीराना भी होता था

तयम्मुम के लिए लिए मिट्टी का टुकड़ा तक नहीं मिलता
अभी कल तक घरों में एक वुज़ूख़ाना भी होता था

ये आँखें जिनमें एक मुद्दतसे आँसू तक नहीं आए
उन्हीं आँखों में पहले एक मयख़ाना भी होता था

अभी इस बात को शायद ज़ियादा दिन नहीं गुज़रे
तसव्वुरमें हमारे एक परीख़ाना भी होता था

मुहब्ब्त इतनी सस्ती भी नहीं थी उस ज़माने तक
मुहब्बत करने वाला पहले दीवाना भी होता था

सभी कड़ियाँ सलामत थीं हमारे बीच रिश्तों की
हमें गाहे-ब-गाहे अपने घर जाना भी होता था

मियाँ पंजाब में लाहौर ही शामिल न था पहले
इसी के खेत खलिहानों में हरियाना भी होता था

अलमारी से ख़त उसके पुराने निकल आए

अलमारी से ख़त उसके पुराने निकल आए
फिर से मेरे चेहरे पे ये दाने निकल आए

माँ बैठ के तकती थी जहाँ से मेरा रस्ता
मिट्टी के हटाते ही ख़ज़ाने निकल आए

मुमकिन है हमें गाँव भी पहचान न पाए
बचपन में ही हम घर से कमाने निकल आए

बोसीदा किताबों के वरक़ जैसे हैं हम लोग
जब हुक्म दिया हमको कमाने निकल आए

ऐ रेत के ज़र्रे तेरा एहसान बहुत है
आँखों को भिगोने के बहाने निकल आए

अब तेरे बुलाने से भी आ नहीं सकते
हम तुझसे बहुत आगे ज़माने निकल आए

एक ख़ौफ़-सा रहता है मेरे दिल में हमेशा
किस घर से तेरी याद न जाने निकल आए

न कमरा जान पाता है, न अँगनाई समझती है

न कमरा जान पाता है, न अँगनाई समझती है
कहाँ देवर का दिल अटका है भौजाई समझती है

हमारे और उसके बीच एक धागे का रिश्ता है
हमें लेकिन हमेशा वो सगा भाई समझती है

तमाशा बन के रह जाओगे तुम भी सबकी नज़रों में
ये दुनिया दिल के टाँकों को भी तुरपाई समझती है

नहीं तो रास्ता तकने आँखें बह गईं होतीं
कहाँ तक साथ देना है ये बीनाई समझती है

मैं हर ऐज़ाज़ को अपने हुनर से कम समझता हूँ
हुक़ुमत भीख देने को भी भरपाई समझती है

हमारी बेबसी पर ये दरो-दीवार रोते हैं
हमारी छटपटाहट क़ैद-ए-तन्हाई समझती है

अगर तू ख़ुद नहीं आता तो तेरी याद ही आए
बहुत तन्हा हमें कुछ दिन से तन्हाई समझती है

घरों में यू सयानी लड़कियाँ बेचैन रहती हैं

घरों में यू सयानी लड़कियाँ बेचैन रहती हैं
कि जैसे साहिलोंपर कश्तियाँबेचैन रहती हैं

मौला ये तमन्ना है कि जब जान से जाऊँ

मौला ये तमन्ना है कि जब जान से जाऊँ
जिस शान से आया हूँ उसी शान से जाऊँ

बच्चों की तरह पेड़ों की शाख़ों से मैं कूदूँ
चिड़ियों की तरह उड़के मैं खलिहान से जाऊँ

हर लफ़्ज़ महकने लगे लिक्खा हुआ मेरा
मैं लिपटा हुआ यादों के लोबान से जाऊँ

मुझमें कोई वीराना भी आबाद है शायद
साँसों ने भी पूछा था बियाबान से जाऊँ

ज़िंदा मुझे देखेगी तो माँ चीख उठेगी
क्या ज़ख़्म लिए पीठ पे मैदान से जाऊँ

क्या सूखे हुए फूल की क़िस्मत का भरोसा
मालूम नहीं कब तेरे गुलदान से जाऊँ

अश्आर

अभी मौजूद है इस गाँव की मिट्टी में ख़ुद्दारी
अभी बेवाकी ग़ैरतसे महाजन हार जाता है

++
मेरा ख़ुलूसतो पूरबके गाँव जैसा है
सुलूकदुनिया का सौतेली माँओं जैसा है

++
मालूम नहीं कैसी ज़रूरत निकल आई
सर खोले हुए घर से शराफ़त निकल आई

++
वो जा रहा है घर से जनाज़ा बुज़ुर्ग का
आँगन में इक दरख़्तपुराना नहीं रहा

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