फ़िलिस्तीनी कविताएँ हिंदी में : ताहा मुहम्मद अली (अनुवादक : यादवेन्द्र)

Palestinian Poetry in Hindi : Taha Muhammad Ali


चेतावनी

आखेट पर निकलने का शौक रखने वालो और शिकार पर झपट्टा मारने का श्री गणेश करने वालो- अपनी रायफ़ल का मुँह मत साधो मेरी ख़ुशी की ओर- यह इतना मूल्यवान नहीं कि जाया की जाए इस पर एक भी गोली- (बरबादी है यह ख़ालिस बरबादी) तुम्हें जो दिख रहा है हिरन के बच्चे की तरह फुर्तीला और मोहक कुलाँचें भरता हुआ या तीतर की तरह पंख फड़फड़ाता हुआ- यह मत समझ लेना कि बस, ख़ुशी यही है मेरा यक़ीन मानो मेरी ख़ुशी का कुछ भी लेना-देना नहीं है।

वही जगह

मैं आ तो गया फिर उसी जगह पर जगह के मायने केवल मिट्टी, पत्थर और मैदान होते हैं क्या? कहाँ है वह लाल दुम वाली चिड़िया और बादाम की हरियाली कहाँ है मिमियाते हुए मेमने और अनारों वाली शामें ? रोटियों की सुगंध और उनके लिए उठती कुनमुनाहटें कहाँ हैं? कहाँ गईं वे खिड़कियाँ और अमीरा की बिख़री हुई लटें? कहाँ ग़ुम हो गए सारे के सारे बटेर और सफ़ेद खुरों वाले हिनहिनाते हुए घोड़े जिनकी केवल दाईं टांग खुली छोड़ी गई थी? कहाँ गईं वे बारातें और उनकी लजीज़ दावतें ? वे रस्मो-रिवाज़ और जैतून वाले भोज कहाँ चले गए? गेहूँ की बालियों से भरे लहरदार खेत कहाँ गए और कहाँ चली गईं फूलवाले पौधों की रोंएदार बरौनियाँ? हम खेलते थे जहाँ लुका-छिपी का खेल देर-देर तक वो खेत कहाँ चले गए ? वो सुगंध से मदमस्त झाड़ियाँ कहाँ चली गईं ? जन्नत से चूजों पर सीधे उतर आने वाली पतंगे कहाँ गई जिन्हें देखते ही बुढ़िया के मुँह से निकलने लगती थीं गालियों की झड़ी : हमारी चित्तीदार मुर्गियाँ चुराने वालो सब के सब तुम, छिनाल हो- मुझे मालूम है तुम उन्हें हजम नहीं कर सकते- फूटो यहाँ से छिनालो तुम मेरी मुर्गियाँ कतई हजम नहीं कर पाओगे।

हमारा मरना

जब हम मरेंगे और थका हारा निढाल दिल मूंद लेगा अंतिम तौर पर अपनी पलकें उन सबसे बेख़बर कि हमने जीवन-भर किया क्या-क्या कि पल-पल हमने किसकी उत्कंठा में बिताए कि क्या-क्या देखते रहे स्वप्न कि किन-किन बातों की करते रहे लालसा और अनुभूति तो पहली चीज़ जो सड़-गल कर नष्ट होना शुरू होगी हमारे अंदर की दुनिया में वह होगी नफरत।

ढंग से विदाई भी नहीं

हम तो रोए नहीं बिल्कुल विदा होते हुए क्योंकि न तो थी हमारे पास फ़ुरसत और न ही थे आँसू- ढंग से हमारी विदाई भी नहीं हुई। दूर जा रहे थे हम पर हमें इल्म नहीं था कि हमारा यह बिछुड़ना है सदा के लिए- फिर कहाँ से बहती ऐसे में हमारे आँसुओं की धार ? बिछोह की वह पूरी रात थी और हम जगे नहीं रहे (और न बेहोशी में सो ही गए) जिस रात हम बिछुड़ रहे थे सदा-सदा के लिए। उस रात न तो अंधेरा था न थी रोशनी और न निखरा चांद ही। उस रात हमसे बिछुड़ गया हमारा सितारा- चिराग़ ने किया हमारे सामने स्वांग रतजगे का- ऐसे में सजाते कहाँ से अभियान जागरण का?

हो सकता है

पिछली रात सपने में देखा मैंने खुद को मरते हुए। मौत खड़ी थी बिल्कुल सामने मेरे आँखों से आँखें मिलाए बड़ी शिद्दत से महसूस किया मैंने कि सपने के अंदर ही है यह मौत। सच तो यही है- मुझे मालूम नहीं था पहले कि मौत अपनी अनगिनत सीढ़ियों से बहकर उतर आएगी इतनी तरलता से: जैसे धवल, गुनगुनी प्रशस्त और मोहक काहिली या सुस्ती की उनींदी कर देने वाली अनुभूति। आम बोल-चाल में कहें तो इसमें क्लेश नहीं था न ही था कोई भय; हो सकता है मौत को लेकर हमारे भय के अतिरेक की जड़ें जीवन-लालसा के उद्वेग में धँसी हुई हों गहरी- हो सकता है कि हो ऐसा ही। पर मेरी मौत में एक अनसुलझा पेंच है जिसके बारे में विस्तार से अफसोस कि मैं बता नहीं पाऊंगा- कि सहसा उठती है सिहरन पूरे बदन में जब बोध होता है पक्का अपने मरने का- कि अब अगले ही पल अन्तर्धान हो जाएंगे हमारे प्रियजन कि हम नहीं देख पाएंगे उन्हें अब कभी भी या कि सोच भी न पाएंगे अब कभी उनके बारे में।

फ़िलिस्तीनी कविताएँ हिंदी में : ताहा मुहम्मद अली (अनुवादक : राजेश कुमार झा)


पलायन

सड़कें सुनसान, जैसे फकीर की स्मृति। धधक रहे चेहरे, जैसे जलते हैं बलूत के फल, मानो कहीं दूर क्षितिज पर, घरों की देहरी पर, इकट्ठा हो रही हो आत्माएं। रिस नहीं सकता खून इससे ज्यादा, जितना बह चुका है नसों से। नहीं हो सकती चीख इससे ऊंची, हो चुकी है जितनी अब तक। हम हटेंगे नहीं। बाहर कर रहे हैं सभी इंतजार, आने वाली हैं ट्रकें और कारें, बंधकों से लदे, शहद से भरे। हम हटेंगे नहीं। घिरने और कुचले जाने के पहले, टूटकर बिखर रहे हैं रोशनी के बख्तर, सभी जाना चाहते हैं बाहर, मगर, हम हटेंगे नहीं। नकाबों के पीछे दूधिया दुल्हनें, कर रही हैं इंतजार, गुलामी की चुंधियाती रोशनी में हो रही हैं दाखिल, आहिस्ता आहिस्ता और बाहर खड़ा हर इंसान चाहता है कि चले जाएं हम, मगर, हम हटेंगे नहीं। बेर के जंगलों पर बरस रही हैं बड़ी बड़ी बंदूकें हो रहे हैं चकनाचूर सपने पारिजात फूलों के, गायब हो रही हैं रोटियां, मारे जा रहे नमक, उमड़ रही है प्यास, सूख रही है कंठ और हमारी आत्मा भी। बाहर पूछ रहे हैं सभी, ‘किसका इंतजार कर रहे हैं हम? उष्णता से किए जा चुके हैं बेदखल, हवाओं पर भी हो चुका है कब्जा।’ फिर क्यों नहीं जा रहे हम? मुखौटों ने भर दिए हैं, धर्मोपदेशकों के ऊंचे सिंहासन और वेश्यालय, वजू की जगहें। विस्मय से मुखौटों की आंखें हो गयी हैं भैंगी, साफ दिख रही है चीजें मगर यकीन नहीं होता, अचंभित हो, छटपटाते गिर रहे हैं, जैसे कीड़े या हो इंसान की जीभ। हम हटेंगे नहीं। क्या हम अंदर हैं सिर्फ इसलिए, कि निकल सकें बाहर? निकलते हैं सिर्फ मुखौटे, सम्मेलनों या धर्म-सिंहासन के लिए। निकलना हो जरूरी तो निकलो, अंदर की फांस से, बद्दुओं के अंडकोशों की गिरफ्त से, बिरादरों के दागदार हो चुके पिंजड़ों से, कौओं की सड़ांध से, तलवार की धार से। हम हटेंगे नहीं। बंद कर रखे हैं उन्होंने निकलने के रास्ते, दे रहे हैं दुआएं बहुरूपियों को, भेज रहे हैं दरख्वास्त, कर रहे हैं प्रार्थनाएं, हमारी मौत के।

समुद्री कस्तूरी

मिटा दिए गए हैं हमारे निशान, छिपा दी गयी है हमारी पहचान, अवशेष कर दिए गए हैं गायब, रास्ता दिखाने के लिए, बचा नहीं है कोई रहनुमा। अब उम्र ढल चुकी है, लंबे होने लगे हैं दिन। दुनिया से जुड़े होने का अहसास भी न होता मुझे- अगर न होतीं तुम्हारी जुल्फें, बड़सीम की फलियों जैसी भूरी-सुनहरी, कपूर की खुशबू से भरी, दूध की महक से सराबोर, अलसाती जैसे अरबी चमेली,जो होती थी कभी यहां, सितारों की तरह धड़कती। धोखेबाज है यह धरती, नहीं कर सकते इस पर भरोसा, भुला देती है मुहब्बत को। वेश्या है यह धरती, बंदरगाह की गोदी पर, बीते वक्त के सामने पसारे अपने हाथ, लगाती है नृत्यशालाएं, मुस्कुराती है हर जुबान में, पोसती है अपने पिछवाड़े से सभी आगंतुकों को धीरे धीरे। यह धरती करती है बेदखल, देती है धोखा, करती है फरेब, इसकी रेत में नहीं है जगह हमारे लिए, भुनभुनाती है, करती है हमें नापसंद। जहाजी और हमलावर हैं इस धरती के नवागंतुक, जो घर के पिछवाड़े में उखाड़ देते हैं फुलबाड़ी, दफन कर देते हैं पेड़। रोकते है हमें निहारने से कुमुदिनी के फूल और पवनपुष्प, छूने नहीं देते पौधों, झाड़ियों, चुकंदर और चिकोरी की फली। जहाजियों के साथ हमारी धरती मनाती है रंगरेलियां, नवागंतुकों के सामने उतार देती है अपने वस्त्र, रख देती है उनकी जांघों के बीच अपना सर, बोलकर अनजानी जुबान हो जाती है बदनाम, अपवित्र, शायद कुछ भी नहीं जोड़ती इसे हमसे। और मैं, अगर होती न तुम्हारी भूरी सुनहरी जुल्फें, जैसे बड़सीम की फलियों का दूध, रेशम की खुशबू की तरह नर्म, न होती अगर कपूर की खुशबू, तुलसी के पत्ते, अगर न होती समुद्री कस्तूरी मैं न जान पाता इसे, न करता प्यार, न जाता करीब, इस वेश्या के। तुम्हारी जुल्फों ने ही बांध रखा है मुझे, फांसी के फंदे की तरह।

टहनी

न संगीत, न शोहरत, न दौलत, यहां तक कि कविता भी नहीं दे सकती दिलासा, क्योंकि, जिंदगी है इतनी छोटी, किंग लीयर खत्म हो जाता है बस अस्सी सफों में, जिंदगी हो सकती है तबाह अगर बच्चे हो जाएं बाग़ी। तुम्हारे लिए मेरी मोहब्बत है शानदार, लेकिन मैं, तुम और शायद दूसरे भी हैं मामूली इंसान। मेरी कविता है कहीं कविताओं से आगे, क्योंकि तुम हो औरतों से कही अलहिदा औरत, और इसलिए मुझे लग गए साठ बरस, यह समझते समझते कि पीने की चीजों में सबसे बेहतरीन है पानी, खाने में रोटी से लजीज कुछ भी नहीं। हर फन है बेकार, गर पैदा न कर सके इंसान के दिल में थोड़ा, हैरत का अहसास। हमारे कर्मों की थाती, हसरतों के खजाने, ख्वाबों, अहसासों पर, हमारी मौत के बाद, थकामांदा दिल जब मूंदेगा अपनी पलकें आखिरी बार, तो सबसे पहले मिट्टी में दफन होगी, हमारे दिलों में पैबस्त नफरत।

बदला

सोचता हूं, जिसने मेरे पिता का कत्ल किया, जमींदोज कर डाला मेरा घर, निष्कासित कर दिया हमें एक संकरे से मुल्क में। अगर मार डालता मुझे तो आखिर मिल जाता सुकून मुझे। और अगर तैयार होता मैं, जरूर बदला लेता। *** मगर दुश्मन सामने आता और मुझे पता चलता कि उसकी मां है, जो कर रही है उसका इंतजार, बाप उसका सांस रोके, कांपते दिल से बाट जोहता है बेटे की आने में हुई है जिसे बस पंद्रह मिनट की देरी। तो फिर मैं उसकी जान नहीं लेता भले ही मुमकिन था मेरे लिए कत्ल करना। *** मैं उसका कत्ल नहीं करूंगा अगर किसी ने बता दिया मुझे कि, उसके भाई हैं, बहनें भी, जो करते हैं उससे प्यार और बीबी करती है दरवाजे पर उसका इस्तकबाल, बच्चे सह नहीं सकते उसकी जुदाई, चहक उठते हैं उससे पाकर तोहफा। या हैं उसके संगी साथी, पड़ोसी जो जानते हैं उसे, कैदखाने में मिला कोई सहयोगी, या अस्पताल में बने दोस्त, स्कूल के दिनों के सहपाठी, जो पूछते हैं उसका हालचाल, करते हैं उससे दुआ-सलाम। *** लेकिन अगर वह होगा केवल वही, पेड़ से कटी टहनी की तरह अलग थलग, न होगी उसकी कोई मां, न होगा बाप, न भाई, न बहन, बीबी भी नहीं और न ही बच्चे, न कोई सगा संबंधी, न पड़ोसी, दोस्त भी नहीं, सहयोगी-सहकर्मी नदारद, तो फिर मैं उसके अकेलेपन के ग़म को, बढाऊंगा नहीं मौत के खौफ से, बल्कि खुश होऊंगा मैं, उसे सड़क पर गुजरते नजरअंदाज कर, क्योंकि मुझे यकीन हो चुका है कि उसे नजरअंदाज कर देना ही है, उससे बदला लेना।

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