फ़िलिस्तीनी कविताएँ हिंदी में : समीह अल-कासिम (अनुवादक : राधारमण अग्रवाल)

Palestinian Poetry in Hindi : Samih al-Qasim


मेरा वजूद

अगर तुम्हें पाने के बाद भी न झूम उठूँ ख़ुशी से मैं तो, इजाज़त दो कि ख़ुश रहूँ तुम्हारे दिये दर्द में तुम्हारी धुँधली होती तस्वीर और ख़ामोश पड़े ज़िस्म को चूमता हूँ और हो जाता हूँ तुम जैसा दीवानगी की हद तक तूफ़ान उठा है वहशत की तरह तूफ़ान में चक्कर खाता मैं कौन हूँ इस तरह का अहसास करने वाला? फिसलता है पैर मैं भी, बैंगनी अँधियारा ख़ुश हो, उड़ाता है हँसी तार तार हो गयी इन पागलपन भरी यादों के लिए इस सुबह से उस सुबह तक हम हैं अकेले तुम और फ़रिश्ते देते हैं सहारा मेरी हिम्मत को फिर भी, मैं बिल्कुल अकेला क्या यही है मुहब्बत? तुम्हारी गर्दन मेरी बाँहें गर्मी बदन की और सरकती रेशमी ज़ुल्फ़ें जगा देती हैं मुझे चमेली सी महकती साँस इबादत जैसी मैं गड़ा देता हूँ चेहरा तुम्हारे बदन में भर जाता हूँ आँसुओं से चिड़ियाँ और तितलियाँ हों गवाह हमारी ज़िन्दगी की दरवाज़े और खिड़कियाँ नीबू के दरख़्त और बाग़ जान जाये सारी दुनिया कि जी रहे हैं हम, बख़ुदा दिये हाथ में हाथ करिश्मा कर दिखाया हमने लोग मुस्कराते हैं मेरी बड़बड़ाहट और हँसी पे शायद हों परेशान इस तनहा इन्सान के लिए शायद हों ग़मज़दा जवानी के इस पागलपन पर हमें माफ़ कर देना चाहिए उन्हें देख नहीं पाते वे मेरा तुम्हारे पास होना माफ़ कर दो उन्हें, तुम भी एक शाम से दूसरी शाम तक रहती हैं हर वक़्त मेरे पास गोलियाँ नींद की हर तमाशा है मेरे अन्दर फिर भी हूँ एकदम तनहा रहती हो हर वक़्त तुम मेरे दिल में मेरी रूह में है तुम्हारी ही छाप है ऐसा ही जैसे हो तुम, हरदम जैसे हो तुम, कभी नहीं यही है इश्क़, यही है इश्क़

फ़िलिस्तीनी कविताएँ हिंदी में : समीह अल-कासिम (अनुवादक : अनिल जनविजय)


क़ैदी का ख़त

माँ ! मुझे दुख हुआ, माँ ! कि तुम फूट-फूट कर रोईं जब दोस्तों ने मेरे बारे में पूछा पर मुझे विश्वास है, माँ ! कि जीवन का गौरव मुझे जेल ने ही दिया और मुझे विश्वास है मेरा अन्तिम मुलाक़ाती नहीं होगा एक अन्धा चमगादड़ वह भोर होगी वह दिवालोक होगा

मैं प्रतिरोध करूंगा

मैं अपना जीवन खो दूँ चाहे या जो तुम चाहो भंगी का काम करूँ या कुली का या जो तुम चाहो खाने के लिए खोजूँ गोबर में अनाज या गँवा दूँ अपनी ज़मीन का आख़िरी टुकड़ा तुम मेरी जवानी से भर सकते हो जेलें जला सकते हो मेरी कविताएँ और किताबें मेरी बोटियाँ डाल सकते हो कुत्तों के सामने पर मैं समझौता नहीं कर सकता मैं प्रतिरोध करूँगा नब्ज़ की अन्तिम धड़कन तक बन्दरगाह पर जलते हुए दीये आने वाली रोशनी के अग्रदूत हैं दिगन्त में पाल की मूठ है मजबूत और विद्रोही, शक्तिशाली लौटेगा सूरज सूरज को लाने वाले निर्वासितों के साथ नहीं नहीं, मैं प्रतिरोध करूँगा नब्ज़ की अन्तिम धड़कन तक मैं प्रतिरोध करूँगा !

एक इस्राइली यहूदी और एक अरब के बीच बातचीत

— मेरे पितामह जले थे ऑशविज में — मेरी सहानुभूति उनके साथ है, पर मेरे शरीर से अलग करो ये ज़ंजीरें — तुम्हारे हाथ में क्या है? — एक मुट्ठी बीज — तुम्हारे चेहरे पर गुस्से का रंग है — धरती का रंग है यह — अपनी तलवार को बदल डालो फाल में — तुमने ज़रा भी तो ज़मीन नहीं छोड़ी — तुम एक अपराधी हो ! — मैंने किसी को मारा नहीं, हत्या नहीं की कभी, प्रताड़ित नहीं किया किसी को ! — तुम एक अरब हो, कुत्ते हो ! — ख़ुदा तुम्हारी रक्षा करे, लोगों से प्रेम करो, सूर्य के लिए बनाओ रास्ता !

फ़िलिस्तीनी कविताएँ हिंदी में : समीह अल-कासिम (अनुवादक : समर खान)


शलोम

(हिब्रू शब्द शलोम का मतलब अमन होता है ।) किसी और को गाने दो अमन के गीत दोस्ती और भाईचारे और मेल-मिलाप के गीत किसी और को गाने दो कौवों के बारे में कोई ऐसा जो मेरे गीतों में बरबादी का सोग मना सके जो गा सके कबूतरख़ानों के मलबे पर मँडराते उस काले उल्लू के बारे में किसी और को गाने दो अमन के गीत जबकि खेतों से पुकारता है अनाज कटाई करने वालों के गीतों की गूँज के लिए तरसता हुआ किसी और को गाने दो अमन के गीत जबकि उधर, कँटीले तारों की बाड़ के पीछे अन्धेरे के सीने में तम्बुओं के शहर दर्द से बोझिल हैं उनके बाशिन्दे यादों का मर्ज़ दिल में छुपाए हुए ग़म और गुस्से की बस्ती में गुज़ारते हैं दिन जबकि उधर, हमारे लोगों में मासूमों में, जिन्होंने किसी की ज़िन्दगी को कभी खरोंच तक नहीं लगाई फूँक कर बुझाए जा रहे हैं ज़िन्दगी के चिराग़ और इसी बीच, यहाँ कितने सारे आ जुटे हैं...इतने सारे लोग ! उनके बाप-दादाओं ने कितना बोया था उनके लिए और अफ़सोस कि दूसरों के लिए भी । बरसों का यह दर्द, यह विरासत अब उनकी हुई ! इसलिए भरने दो भूखों को अपना पेट और यतीमों को अदावत की दावत की जूठन पर पलने दो किसी और को गाने दो अमन के गीत क्योंकि मेरे वतन में, इसकी पहाड़ियों और इसकी वादी में अमन का क़त्ल हुआ है ।

दोपहर का कबूलनामा

मैंने बोया एक दरख़्त मैंने नफ़रत की उसके फलों से मैंने चूल्हे में जलाईं उसकी डालियाँ मैंने बनाई एक सारंगी मैंने बजाई एक धुन मैंने तोड़ दी सारंगी मैंने खो दिए फल भूल गया मैं धुन मैंने...मातम मनाया उस पेड़ का ।

रफ़ाह के बच्चे

उसके लिए, जो लाखों के ज़ख़्मों से होकर गुज़रता है उसके लिए, जिसकी तोपों ने बाग़ीचे के सारे गुलाब रौंद डाले हैं जो रात में तोड़ता है खिड़कियों के शीशे जिसने जला डाले हैं बाग़ीचे और अजायबघर और जो गाता है आज़ादी के नग़मे जिसने पीस डाला है चौराहों पर गा रही बुलबुलों को जिसके जहाज़ बच्चों के ख़्वाबों पर बम गिराते हैं जो आसमान के इन्द्रधनुषों को कुचल डालता है आज की रात, नामुमकिन जड़ों से उभरे बच्चे तुमसे यह ऐलान करते हैं आज की रात, रफ़ाह के बच्चे कहते हैं : ‘बिस्तर की चादरों में नहीं गूँथी हैं हमने कभी चोटियाँ नहीं थूका है कभी हमने लाशों पर, न ही कभी उखाड़े हैं उनके सोने के दाँत फिर क्यों छीनते हो तुम हमारा सोना और गिराते हो हम पर बारूद ॽ क्यों बनाते हो अरबी बच्चों को यतीम ॽ शुक्रिया, हज़ार बार शुक्रिया ! कि हमारी उदासी ने जवानी में क़दम रखे हैं और अब हम लड़ेंगे ।’

फ़िलिस्तीनी कविताएँ हिंदी में : समीह अल-कासिम (अनुवादक : रामकृष्ण पाण्डेय)


एक दिवालिए की रिपोर्ट

अगर मुझे अपनी रोटी छोड़नी पड़े अगर मुझे अपनी कमीज़ और अपना बिछौना बेचना पड़े अगर मुझे पत्थर तोड़ने का काम करना पड़े या कुली का या मेहतर का अगर मुझे तुम्हारा गोदाम साफ़ करना पड़े या गोबर में से खाना ढूँढ़ना पड़े या भूखे रहना पड़े और ख़ामोश इन्सानियत के दुश्मन मैं समझौता नहीं करूँगा आख़िर तक मैं लड़ूँगा जाओ मेरी ज़मीन का आख़िरी टुकड़ा भी चुरा लो जेल की कोठरी में मेरी जवानी झोंक दो मेरी विरासत लूट लो मेरी क़िताबें जला दो मेरी थाली में अपने कुत्तों को खिलाओ जाओ मेरे गाँव की छतों पर अपने आतंक का जाल फैला दो इन्सानियत के दुश्मन मैं समझौता नहीं करूंगा और मैं आख़िर तक लड़ूँगा अगर तुम मेरी आँखों में सारी मोमबत्तियाँ पिघला दो अगर तुम मेरे होंठों के हर बोसे को जमा दो अगर तुम मेरे माहौल को ग़ालियों से भर दो या मेरे दुखों को दबा दो मेरे साथ जालसाज़ी करो मेरे बच्चों को चेहरे से हँसी उड़ा दो और मेरी आंखों में अपमान की पीड़ा भर दो इन्सानियत के दुश्मन मैं समझौता नहीं करूँगा और मैं आख़िर तक लड़ूँगा मैं लड़ूँगा इन्सानियत के दुश्मन बंजरग़ाहों पर सिग्नल उठा दिए गए हैं वातावरण में संकेत ही संकेत हैं मैं उन्हें हर जगह देख रहा हूँ क्षितिज पर नौकाओं के पाल नज़र आ रहे हैं वे आ रहे हैं विरोध करते हुए यूलिसिस की नौकाएँ लौट रही हैं खोए हुए लोगों के समुद्र से सूर्योदय हो रहा है आदमी आगे बढ़ रहा है और इसके लिए मैं कसम खाता हूँ मैं समझौता नहीं करूँगा और मैं आख़िर तक लड़ूँगा मैं लड़ूँगा ।

रफ़ा के बच्चे

एक उनके लिए — जो अपना रास्ता लाखों लोगों के ज़ख़्मों से होकर बनाते हैं और उनके टैंक बाग़ों के ग़ुलाबों को कुचल देते हैं उनके लिए — जो रातों को घरों की खिड़कियाँ तोड़ते हैं खेत और संग्रहालय जला देते हैं और फिर इसकी ख़ुशी में गीत गाते हैं उनके लिए — जो अपने क़दमों की आहट से दुखी माताओं के केश काट देते हैं अंगूर के खेतों को तहस-नहस कर देते हैं जो शहर के चौराहों पर ख़ुशियों की बुलबुल को गोली मार देते हैं और जिनके हवाई जहाज़ बचपन के सपनों को बमों से उड़ा देते हैं उनके लिए — जो इन्द्रधनुष तोड़ देते हैं आज की रात रफ़ा के बच्चे यह घोषणा करते हैं — हमने नहीं बुनी थी चादरें सिर के बालों से हमने नहीं थूका था मारी गई औरतों के चेहरे पर उनके मुँह से नहीं उखाड़े थे सोने के दाँत तुम हमारी टॉफ़ी छीनकर बमों के खोखे क्यों देते हो क्यों तुम अरब के बच्चों को यतीम बनाते हो और हम तुम्हें धन्यवाद देते हैं कि दुखों ने हमें बड़ा बना दिया है हम लड़ेंगे। दो विजेता की संगीन पर सूर्य की किरणें एक तिरस्कृत नंगी लाश थी रक्ताक्त मौन ख़ून से सने चेहरों के बीच विद्वेष प्रार्थना की माला मिथकीय डीलडौल का एक आक्रमणकारी चिल्लाता है — तुम नहीं बोलोगे? ठीक है तुम्हारे ऊपर कर्फ्यू लगाया जाता है अल्लादीन की आवाज़ बिखर जाती है शिकार की चिड़ियों का जन्म होता है मैंने सेना के वाहन पर पत्थर फेंके पर्चे बाँटे इशारा किया मैंने ब्रश और पड़ोस से कुर्सी लेकर नारे लिखे मैंने बच्चों को भी इकट्ठा किया और हम लोगों ने क़सम खाई शरणार्थियों के निर्वासन से हम लड़ेंगे जब तक विजेताओं की संगीनें हमारी गली में चमकती रहेंगी अल्लादीन दस साल से ज़्यादा नहीं था। तीन अकासिया के पेड़ उजाड़ दिए गए और रफ़ा के दरवाज़े दुखों से सील कर दिए गए या लाख से या कर्फ्यू से (उस लड़की को रोटी और एक घायल आदमी के लिए पट्टी लेनी थी जो आधी रात के बाद लौट रही थी, उस लड़की को एक गली पार करनी थी जिस पर नज़र रख रही थीं अजनबियों की आँखें, तेज़ हवा और बन्दूक की नलियाँ) अकासिया के पेड़ उजाड़ दिए गए और एक घाव की तरह रफ़ा में एक घर का दरवाज़ा किसी ने खोला वह उछली और जासमीन की झाड़ी की गोद में जा गिरी एक बार आतंक के बीच जा रही थी सावधानी से कि खजूर के एक पेड़ ने उसे बचाया था हर क़दम पर, बस उछलो— एक गश्ती दल तेज़ रोशनी खाँसी कौन हो तुम? रुको पाँच बन्दूकें उस पर तन गई थीं पाँच बन्दूकें सुबह हमलावरों की अदालत बैठी उन्होंने उसे पेश किया अमीना ‘अपराधी’ आठ साल की बच्ची

सँयुक्त राष्ट्र के सभी संभ्रान्त लोगों से

ओ जगह-जगह से आए, सज्जनो इस भरी दुपहरी में आपकी ख़ूबसूरत टाइयाँ और आपकी उत्तेजनापूर्ण बहसें हमारे समय में क्या भला कर सकती हैं ओ जगह-जगह से आए, सज्जनो हमारे दिल में काई जम गई है और इसने शीशे की सारी दीवारों को ढँक लिया है इतनी सारी बैठकें तरह-तरह के भाषण इतने जासूस वेश्याओं जैसी बातें इतनी गप्पबाज़ियाँ हमारे समय में क्या भला कर सकती हैं सज्जनो जो होना है सो होने दें मैं दुनिया तक पहुँचने के रास्ते खोज रहा हूँ मेरा ख़ून पीला पड़ गया है और मेरा दिल वायदों के कीचड़ में फँस गया है ओ जगह-जगह से आए, सज्जनो मेरी शर्म एक पर्दा बन जाए, मेरा दुख एक साँप ओ जगह-जगह से आए काले चमकते जूतो मेरा ग़ुस्सा इतना बड़ा है कि कह नहीं सकता और समय इतना कायरतापूर्ण और जहाँ तक मेरा सवाल है— मेरे हाथ नहीं हैं