फ़िलिस्तीनी कविताएँ हिंदी में : हसन ज़कतान (अनुवादक : राधारमण अग्रवाल)

Palestinian Poetry in Hindi : Ghassan Zaqtan


उनकी ज़िन्दगी

पुराने अपने गाँव को पिता कहो उसे पुकारो अपने घर को पिता कहो उसे बताओ सब कुछ उन्हें जो देखते हैं अपनी मृत्यु को अपने सामने घटित होते वे कभी नहीं मरते

खेमाइस निम्र की मौत

कितनी बार तुम तड़ते होगे कितनी बार उठ गये होंगे तुम्हारे नन्हें हाथ आसमान की तरफ कितने तारे टूटे पड़े होंगे, शर्म से तुम्हारे चमकदार बालों के आगे कितने तारे टूटे पड़े होंगे, शर्म से तुम्हारे चमकदार बालों के आगे कितनी बार तुमने की होगी कोशिश कितनी बार थर्राये होंगे तुम्हारे हाथ ऊपर चढ़ने में कितनी बार तड़पे होंगे दर्द से जब जब उठाये होंगे हाथ कितनी बार अकड़ गया होगा तुम्हारा बदन दहशत से, एक डरे हुए फूल सा सीढ़ियों पर चढ़ते-आसमान की तरफ़ कितना ठंडा हो गया होगा तुम्हारा ज़िस्म घुटन भरी रात में घर से दूर, हवा में झूलते शाम, मग़रिब की नमाज़ के बाद करते हैं वज़ू जिससे पुराने तालाब का पानी भी है शर्मसार मौत की आहट से, तुम्हारी नन्हीं उँगलियों से शायद इसलिये भी कि पा लिये तुमने अपने आँसू सिसकियों के बीच

मौत उनके लिए नहीं

अल अरब जाने के रास्ते मुर्दे उठ खड़े होते हैं रात में उतरते हैं पहाड़ियों से सदियों पुरानी पगडंडियों से घरों के पीछे से अंगूर के बाग़ीचों से यादों में मासूम नींदों में अज़ान में धूल से अँटे, ओढ़े कफ़न मौत का एक के बाद एक बढ़ते हैं मुर्दे ढलानों से उतरते झाड़ झंखाड़ पार करते उठाते वह सब कुछ छोड़ गये जो दरिन्दे माँ के आँसू, और, जो उँगलियाँ नहीं पोंछ पाईं चन्द ओस की बूँदें उठेंगे मुर्दे बार बार चलेंगे आहिस्ता, धीरे-धीरे धरती के बोझ से बोझिल तालाबों और पुराने रास्ते से सही रास्ते पर तालाब की ख़मोशी के बीच मेहराबों के नीचे, खंडहर में, बैठेंगे मुर्दे याद नहीं आयेगा कुछ भी ज़मीन के नीचे बहता दरिया सुनाई पड़ती है घोड़ों की हिनहिनाहट मुर्दे देंगे पहरा रात भर उनके लिए भला रात क्या निगाहें टिकी हैं उनकी मकानों पर

दादी माँ

दादी माँ का घर सजा है चाँद तारे और आयतों से देहलीज़ पर खड़े हैं तीन शख़्स बिना हिले डुले करते इन्तज़ार न अन्दर आते हैं न बाहर जाते हैं कौन है सबसे ख़ूबसूरत तीनों में? तुम्हीं बताओ न दादी माँ, एक लम्बी ज़िन्दगी के बाद आयी मौत के बाद, अब, कौन है सबसे ख़ूबसूरत तीनों में? गुज़र गये सत्तर साल अकेलापन और शांति छा गये हैं दादी माँ की आत्मा पर अगर दिख न रहा हो कुछ भी तो भी, क्यों बंद कर ली जायें आँखें चमक रही है आले पर सुरमे की चमकदार शीशी रक्खा है वहीं कहीं एक रंग बिरंगा रूमाल हिलता, करता है सलाम जब कि तीनों मुर्दे पसर गये हैं चौखट के पास नींद में उखड़ रही है रात की साँस खुदापरस्त बंदे कर रहे हैं जल्दी ख़त्म हो चुकी अज़ान रात बदल जाती है ठिठुरन में फिर खड़े हैं वे तीनों दरवाज़े पर न आते हैं न जाते हैं पकड़े हैं कफ़न का पल्लू रोशनी की एक लकीर में

वही है सब कुछ मेरे लिये

रेगिस्तान में तलाशते कहीं नख़लिस्तान उतरती है एक फुसफुसाहट कविता बन, दिल में देवदूतों की नींद की ख़ातिर घासों और पत्थर के मेहराबों की ख़ातिर लहराती, बल खाती घास करती है प्रार्थना मेरा वतन की ख़ातिर मेरा वतन, जो नहीं मारता किसी को यूँ ही वह ज़मीन बाँध रक्खा है जिसने मुझे करती है इशारा करूँगा देरी अगर, जरा भी मैं खो जायेगा इशारा जो बतायेगा रास्ता और ले जायेगा मुझे अपने घर तक अपनी माँ तक अपने वतन तक

1988 का बसंत

एकदम साफ़ दिन दिख रहा है खिड़कियों के शीशों के पार और दिख रहा है अंगूरों का बाग़ सरहद पार दूर दराज़ की पहाड़ियों का बदन सहला रहा है सूरज कबूतर के नर्म पंखों से खिड़की के शीशों और सरहद के बीच फैली है ज़मीन, इस पार से उस पार पगडंडियाँ, फूल और आईने की तरह साफ चमकदार पानी लगता है सब कुछ हल्का चिड़ियों की तरह उड़ता ऐसी सुबह ऐसी धूप में मक्के की बालियाँ हों हमारी गवाह

सलाम-1

तुम नहीं बदले हो बिल्कुल जैसे के तैसे हुए नहीं चालीस के भी उम्र की मार खड़ी है बेबस देहलीज़ पर एक बाल सफ़ेद नहीं वर्दी पर ज़रा सी धूल घावों पर ज़रा सा कालापन पिघल रहा है सूरज तुम्हारे बाजुओं पर शाम के ठीक चार बजे हैं तुम नहीं बदले ज़रा भी पुकारते हैं नौजवान तुम्हें आसरा है, सिर्फ तुम्हारा आराम नहीं बदा उसी दम, उसी कपड़े में निकल आते हो रख देते हो अपना दिल चौखट पर ताकि हम आ जा सकें बेख़ौफ़ चुन लेते हैं तुम्हारे ज़ख़्मों से फूल पिघलता हुआ सूरज महसूस कर सकते हैं हम अपने अन्दर पचास बरस तुम जी रहे हो क्या खूब हर दिल में हर घर में हर निकाह में ...हर ज़ख़्म में सुनाई पड़ती है तुम्हारी आवाज़ गलियों में सरहद की निगरानी चौकियों तक माँयें बताती हैं यह सब अपने बच्चों को हर रात हम छुपा लेते हैं तुम्हारा घोड़ा तमाशबीनों से कस देते हैं चमकदार काठी सुबह, फिर से तुम हो बिल्कुल वैसे के वैसे हम सबसे हसीन बड़े भाई जैसे हम पहुँचते हैं तुम्हारे पास बड़े भाई जैसे हम पहुँचते हैं तुम्हारे पास बड़ी आस लिए तुम थाम लेते हो हाथ सिर्फ थोड़ी सी धूल लगी है वर्दी पर पचास साल! हम हैं यहीं के यहीं तुम पहुँच गए कहाँ!

सलाम-2

दुआ है धरती हो उतनी ही पाक जितना तुम्हारा दिल उतनी ही दुआओं से लबरेज़ उतनी ही नर्म मची है हलचल चारों तरफ़ तुम डटे हो अब भी पूरे फ़ौज-फाटे के साथ बढ़ चले एल कोड की पहाड़ियों की तरफ़ ऐलान कर दिया तुम्हीं हो बादशाह ताज नहीं है, तो क्या हुआ तुम्हारे घुँघराले बाल क्या कम हैं किसी ताज से

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