विविध नज़्में : जौन एलिया

Misc. Poems : Jaun Elia

लौ-ए-दिल जला दूँ क्या

फारेहा निगारिना, तुमने मुझको लिखा है
"मेरे ख़त जला दीजे !
मुझको फ़िक्र रहती है !
आप उन्हें गँवा दीजे !
आपका कोई साथी, देख ले तो क्या होगा !
देखिये! मैं कहती हूँ ! ये बहुत बुरा होगा !"

मैं भी कुछ कहूँ तुमसे,
फारेहा निगारिना
ए बनाजुकी मीना
इत्र बेज नसरीना
रश्क-ए-सर्ब-ए-सिरमीना

मैं तुम्हारे हर ख़त को लौह-ए-दिल समझता हूँ !
लौह-ए-दिल जला दूं क्या ?
जो भी सत्र है इनकी, कहकशां है रिश्तों की
कहकशां लुटा दूँ क्या ?
जो भी हर्फ़ है इनका, नक्श-ए-जान है जनानां
नक्श-ए-जान मिटा दूँ क्या ?
है सवाद-ए-बीनाई, इनका जो भी नुक्ता है
मैं उसे गंवा दूँ क्या ?
लौह-ए-दिल जला दूँ क्या ?
कहकशां लुटा दूँ क्या ?
नक्श-ए-जान मिटा दूँ क्या ?

मुझको लिख के ख़त जानम
अपने ध्यान में शायद
ख्वाब ख्वाब ज़ज्बों के
ख्वाब ख्वाब लम्हों में
यूँ ही बेख्यालाना
जुर्म कर गयी हो तुम
और ख्याल आने पर
उस से डर गयी हो तुम

जुर्म के तसव्वुर में
गर ये ख़त लिखे तुमने
फिर तो मेरी राय में
जुर्म ही किये तुमने

जुर्म क्यूँ किये जाएँ ?
ख़त ही क्यूँ लिखे जाएँ ?

रम्ज़

तुम जब आओगी तो खोया हुआ पाओगी मुझे
मेरी तन्हाई में ख़्वाबों के सिवा कुछ भी नहीं
मेरे कमरे को सजाने की तमन्ना है तुम्हें
मेरे कमरे में किताबों के सिवा कुछ भी नहीं

इन किताबों ने बड़ा ज़ुल्म किया है मुझ पर
इन में इक रम्ज़ है जिस रम्ज़ का मारा हुआ ज़ेहन
मुज़्दा-ए-इशरत-ए-अंजाम नहीं पा सकता
ज़िंदगी में कभी आराम नहीं पा सकता

नाकारा

कौन आया है
कोई नहीं आया है पागल

तेज़ हवा के झोंके से दरवाज़ा खुला है
अच्छा यूँ है

बेकारी में ज़ात के ज़ख़्मों की सोज़िश को और बढ़ाने
तेज़-रवी की राहगुज़र से

मेहनत-कोश और काम के दिन की
धूल आई है धूप आई है

जाने ये किस ध्यान में था मैं
आता तो अच्छा कौन आता

किस को आना था कौन आता

फ़न पारा

ये किताबों की सफ़-ब-सफ़ जिल्दें
काग़ज़ों का फ़ुज़ूल इस्ती'माल

रौशनाई का शानदार इसराफ़
सीधे सीधे से कुछ सियह धब्बे

जिन की तौजीह आज तक न हुई
चंद ख़ुश-ज़ौक़ कम-नसीबों ने

बसर औक़ात के लिए शायद
ये लकीरें बिखेर डाली हैं

कितनी ही बे-क़ुसूर नस्लों ने
इन को पढ़ने के जुर्म में ता-उम्र

ले के कश्कूल-ए-इल्म-ओ-हिक्मत-ओ-फ़न
कू-ब-कू जाँ की भीक माँगी है

आह ये वक़्त का अज़ाब-ए-अलीम
वक़्त ख़ल्लाक़ बे-शुऊर क़दीम

सारी तारीफ़ें उन अँधेरों की
जिन में परतव न कोई परछाईं

आह ये ज़िंदगी की तन्हाई
सोचना और सोचते रहना

चंद मासूम पागलों की सज़ा
आज मैं ने भी सोच रक्खा है

वक़्त से इंतिक़ाम लेने को
यूँही ता-शाम सादे काग़ज़ पर

टेढ़े टेढ़े ख़ुतूत खींचे जाएँ

वो

वो किताब-ए-हुस्न वो इल्म ओ अदब की तालीबा
वो मोहज़्ज़ब वो मुअद्दब वो मुक़द्दस राहिबा

किस क़दर पैराया परवर और कितनी सादा-कार
किस क़दर संजीदा ओ ख़ामोश कितनी बा-वक़ार

गेसू-ए-पुर-ख़म सवाद-ए-दोश तक पहुँचे हुए
और कुछ बिखरे हुए उलझे हुए सिमटे हुए

रंग में उस के अज़ाब-ए-ख़ीरगी शामिल नहीं
कैफ़-ए-एहसासात की अफ़्सुर्दगी शामिल नहीं

वो मिरे आते ही उस की नुक्ता-परवर ख़ामुशी
जैसे कोई हूर बन जाए यकायक फ़लसफ़ी

मुझ पे क्या ख़ुद अपनी फ़ितरत पर भी वो खुलती नहीं
ऐसी पुर-असरार लड़की मैं ने देखी ही नहीं

दुख़तरान-ए-शहर की होती है जब महफ़िल कहीं
वो तआ'रुफ़ के लिए आगे कभी बढ़ती नहीं

हमेशा क़त्ल हो जाता हूँ मैं

बिसात-ए-ज़िंदगी तो हर घड़ी बिछती है उठती है
यहाँ पर जितने ख़ाने जितने घर हैं
सारे
ख़ुशियाँ और ग़म इनआ'म करते हैं
यहाँ पर सारे मोहरे
अपनी अपनी चाल चलते हैं
कभी महसूर होते हैं कभी आगे निकलते हैं
यहाँ पर शह भी पड़ती है
यहाँ पर मात होती है
कभी इक चाल टलती है
कभी बाज़ी पलटती है
यहाँ पर सारे मोहरे अपनी अपनी चाल चलते हैं
मगर मैं वो पियादा हूँ
जो हर घर में
कभी इस शह से पहले और कभी उस मात से पहले
कभी इक बुर्द से पहले कभी आफ़ात से पहले
हमेशा क़त्ल हो जाता है

रातें सच्ची हैं दिन झूटे हैं

चाहे तुम मेरी बीनाई खुरच डालो फिर भी अपने ख़्वाब नहीं छोड़ूँगा
उन की लज़्ज़त और अज़िय्यत से मैं अपना कोई अहद नहीं तोडूँगा

तेज़ नज़र ना-बीनाओं की आबादी में
क्या मैं अपने ध्यान की ये पूँजी भी गिनवा दूँ

हाँ मेरे ख़्वाबों को तुम्हारी सुब्हों की सर्द और साया-गूँ ताबीरों से नफ़रत है
इन सुब्हों ने शाम के हाथों अब तक जितने सूरज बेचे

वो सब इक बर्फ़ानी भाप की चमकीली और चक्कर खाती गोलाई थे
सो मेरे ख़्वाबों की रातें जलती और दहकती रातें

ऐसी यख़-बस्ता ताबीरों के हर दिन से अच्छी हैं और सच्ची भी हैं
जिस में धुँदला चक्कर खाता चमकीला-पन छे अतराफ़ का रोग बना है

मेरे अंधेरे भी सच्चे हैं
और तुम्हारे ''रोग उजाले'' भी झूटे हैं

रातें सच्ची हैं दिन झूटे
जब तक दिन झूटे हैं जब तक

रातें सहना और अपने ख़्वाबों में रहना
ख़्वाबों को बहकाने वाले दिन के उजालों से अच्छा है

हाँ मैं बहकावों की धुँद नहीं ओढूँगा
चाहे तुम मेरी बीनाई खुरच डालो मैं फिर भी अपने ख़्वाब नहीं छोड़ूँगा

अपना अहद नहीं तोडूँगा
यही तो बस मेरा सब कुछ है

माह ओ साल के ग़ारत-गर से मेरी ठनी है
मेरी जान पर आन बनी है

चाहे कुछ हो मेरे आख़िरी साँस तलक अब चाहे कुछ हो

क़ातिल

सुना है तुम ने अपने आख़िरी लम्हों में समझा था
कि तुम मेरी हिफ़ाज़त में हो मेरे बाज़ुओं में हो

सुना है बुझते बुझते भी तुम्हारे सर्द ओ मुर्दा लब से
एक शो'ला शोला-ए-याक़ूत-फ़ाम ओ रंग ओ उम्मीद-ए-फ़रोग़-ए-ज़िंदगी-आहंग लपका था

हमें ख़ुद में छुपा लीजे
ये मेरा वो अज़ाब-ए-जाँ है जो मुझ को

मिरे अपने ख़ुद अपने ही जहन्नम में जलाता है
तुम्हारा सीना-ए-सीमीं

तुम्हारे बाज़ूवान-ए-मर-मरीं
मेरे लिए

मुझ इक हवसनाक-ए-फ़रोमाया की ख़ातिर
साज़ ओ सामान-ए-नशात ओ नश्शा-ए-इशरत-फ़ुज़ूनी थे

मिरे अय्याश लम्हों की फ़ुसूँ-गर पुर-जुनूनी के लिए
सद-लज़्ज़त आगीं सद-करिश्मा पुर-ज़बानी थे

तुम्हें मेरी हवस-पेशा
मिरी सफ़्फ़ाक क़ातिल बेवफ़ाई का गुमाँ तक

इस गुमाँ का एक वहम-ए-ख़ुद गुरेज़ाँ तक नहीं था
क्यूँ नहीं था क्यूँ नहीं था क्यूँ

कोई होता कोई तो होता
जो मुझ से मिरी सफ़्फ़ाक क़ातिल बेवफ़ाई की सज़ा में

ख़ून थुकवाता
मुझे हर लम्हे की सूली पे लटकाता

मगर फ़रियाद कोई भी नहीं कोई
दरेग़ उफ़्ताद कोई भी

मुझे मफ़रूर होना चाहिए था
और मैं सफ़्फ़ाक-क़ातिल बेवफ़ा ख़ूँ-रेज़-तर मैं

शहर में ख़ुद-वारदाती
शहर में ख़ुद-मस्त आज़ादाना फिरता हूँ

निगार-ए-ख़ाक-आसूदा
बहार-ए-ख़ाक-आसूदा

चारा-गर भी जो यूँ गुज़र जाएँ

चारा-गर भी जो यूँ गुज़र जाएँ
चारा-गर भी जो यूँ गुज़र जाएँ
फिर ये बीमार किस के घर जाएँ

आज का ग़म बड़ी क़यामत है
आज सब नक़्श-ए-ग़म उभर जाएँ

है बहारों की रूह सोग-नशीं
सारे औराक़-ए-गुल बिखर जाएँ

नाज़-पर्वर्दा बे-नवा मजबूर
जाने वाले ये सब किधर जाएँ

कल का दिन हाए कल का दिन ऐ 'जौन'
काश इस रात हम भी मर जाएँ

है शब-ए-मातम-ए-मसीहाई
अश्क दामन में ता-सहर जाएँ

मरने वाले तिरे जनाज़े में
क्या फ़क़त हम ब-चश्म-तर जाएँ

काश दिल ख़ून हो के बह जाए
काश आँखें लहू में भर जाएँ

तमन्ना कई थे

तमन्ना कई थे, आज दिल में उनके लिए
लेकिन वो आज न आये मुझे मिलने के लिए

काम करने का जोश न रहा
उनके बिना कोई होश न रहा

कैसे समझाऊ उन्हें की वो मेरी ज़िन्दगी है
मेरी ज़िन्दगी को कैसे समझाऊ के मोहब्बत मेरी बंदगी है

लेकिन आज मैं काम ज़रूर करूँगा
उनके बिना मैं नहीं मरूँगा

कमबख्त यह दिल है कि मानता नहीं
यह क्या मजबूरी हैं उनके बिना काम बनता नहीं

काश उनको भी मेरी याद सताये
यह मोहब्बत का रोग उन्हें जलाये

फ़ैसला

चार सू मेहरबाँ है चौराहा
अजनबी शहर अजनबी बाज़ार
मेरी तहवील में हैं समेटे चार
कोई रास्ता कहीं तो जाता है
चार सू मेहरबाँ है चौराहा

हमारे शौक के आंसू दो, खुशहाल होने तक

हमारे शौक के आंसू दो, खुशहाल होने तक
तुम्हारे आरज़ू केसो का सौदा हो चुका होगा

अब ये शोर-ए-हाव हूँ सुना है सारबानो ने
वो पागल काफिले की ज़िद में पीछे रह गया होगा

है निस-ए-शब वो दिवाना अभी तक घर नहीं आया
किसी से चन्दनी रातों का किस्सा छिड़ गया होगा

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