हिन्दी नज़्में : अली सरदार जाफ़री

Hindi Nazmein : Ali Sardar Jafri



गुफ़्तुगू (हिन्द पाक दोस्ती के नाम)

गुफ़्तुगू बंद न हो बात से बात चले सुब्ह तक शाम-ए-मुलाक़ात चले हम पे हँसती हुई ये तारों भरी रात चले हों जो अल्फ़ाज़ के हाथों में हैं संग-ए-दुश्नाम तंज़ छलकाए तो छलकाया करे ज़हर के जाम तीखी नज़रें हों तुर्श अबरू-ए-ख़मदार रहें बन पड़े जैसे भी दिल सीनों में बेदार रहें बेबसी हर्फ़ को ज़ंजीर-ब-पा कर न सके कोई क़ातिल हो मगर क़त्ल-ए-नवा कर न सके सुब्ह तक ढल के कोई हर्फ़-ए-वफ़ा आएगा इश्क़ आएगा ब-सद लग़्ज़िश-ए-पा आएगा नज़रें झुक जाएँगी दिल धड़केंगे लब काँपेंगे ख़ामुशी बोसा-ए-लब बन के महक जाएगी सिर्फ़ ग़ुंचों के चटकने की सदा आएगी और फिर हर्फ़-ओ-नवा की न ज़रूरत होगी चश्म ओ अबरू के इशारों में मोहब्बत होगी नफ़रत उठ जाएगी मेहमान मुरव्वत होगी हाथ में हाथ लिए सारा जहाँ साथ लिए तोहफ़ा-ए-दर्द लिए प्यार की सौग़ात लिए रेगज़ारों से अदावत के गुज़र जाएँगे ख़ूँ के दरियाओं से हम पार उतर जाएँगे गुफ़्तुगू बंद न हो बात से बात चले सुब्ह तक शाम-ए-मुलाक़ात चले हम पे हँसती हुई ये तारों भरी रात चले

तुम नहीं आए थे जब

तुम नहीं आए थे जब तब भी तो मौजूद थे तुम आँख में नूर की और दिल में लहू की सूरत दर्द की लौ की तरह प्यार की ख़ुश्बू की तरह बेवफ़ा वादों की दिलदारी का अंदाज़ लिए तुम नहीं आए थे जब तब भी तो तुम आए थे रात के सीने में महताब के ख़ंजर की तरह सुब्ह के हाथ में ख़ुर्शीद के साग़र की तरह शाख़-ए-ख़ूँ-रंग-ए-तमन्ना में गुल-ए-तर की तरह तुम नहीं आओगे जब तब भी तो तुम आओगे याद की तरह धड़कते हुए दिल की सूरत ग़म के पैमाना-ए-सर-शार को छलकाते हुए बर्ग-हा-ए-लब-ओ-रुख़्सार को महकाते हुए दिल के बुझते हुए अँगारे को दहकाते हुए ज़ुल्फ़-दर-ज़ुल्फ़ बिखर जाएगा फिर रात का रंग शब-ए-तन्हाई में भी लुत्फ़-ए-मुलाक़ात का रंग रोज़ लाएगी सबा कू-ए-सबाहत से पयाम रोज़ गाएगी सहर तहनियत-ए-जश्न-ए-फ़िराक़ आओ आने की करें बातें कि तुम आए हो अब तुम आए हो तो मैं कौन सी शय नज़्र करो कि मिरे पास ब-जुज़ मेहर ओ वफ़ा कुछ भी नहीं एक ख़ूँ-गश्ता तमन्ना के सिवा कुछ भी नहीं

उठो

उठो हिन्द के बाग़बानो उठो उठो इंक़िलाबी जवानो उठो किसानों उठो काम-गारो उठो नई ज़िंदगी के शरारो उठो उठो खेलते अपनी ज़ंजीर से उठो ख़ाक-ए-बंगाल-ओ-कश्मीर से उठो वादी ओ दश्त ओ कोहसार से उठो सिंध ओ पंजाब ओ मल्बार से उठो मालवे और मेवात से महाराष्ट्र और गुजरात से अवध के चमन से चहकते उठो गुलों की तरह से महकते उठो उठो खुल गया परचम-ए-इंक़लाब निकलता है जिस तरह से आफ़्ताब उठो जैसे दरिया में उठती है मौज उठो जैसे आँधी की बढ़ती है फ़ौज उठो बर्क़ की तरह हँसते हुए कड़कते गरजते बरसते हुए ग़ुलामी की ज़ंजीर को तोड़ दो ज़माने की रफ़्तार को मोड़ दो

मेरा सफ़र

हम-चू सब्ज़ा बार-हा रोईदा-एम (रूमी) फिर इक दिन ऐसा आएगा आँखों के दिए बुझ जाएँगे हाथों के कँवल कुम्हलाएँगे और बर्ग-ए-ज़बाँ से नुत्क़ ओ सदा की हर तितली उड़ जाएगी इक काले समुंदर की तह में कलियों की तरह से खिलती हुई फूलों की तरह से हँसती हुई सारी शक्लें खो जाएँगी ख़ूँ की गर्दिश दिल की धड़कन सब रागनियाँ सो जाएँगी और नीली फ़ज़ा की मख़मल पर हँसती हुई हीरे की ये कनी ये मेरी जन्नत मेरी ज़मीं इस की सुब्हें इस की शामें बे-जाने हुए बे-समझे हुए इक मुश्त-ए-ग़ुबार-ए-इंसाँ पर शबनम की तरह रो जाएँगी हर चीज़ भुला दी जाएगी यादों के हसीं बुत-ख़ाने से हर चीज़ उठा दी जाएगी फिर कोई नहीं ये पूछेगा 'सरदार' कहाँ है महफ़िल में लेकिन मैं यहाँ फिर आऊँगा बच्चों के दहन से बोलूँगा चिड़ियों की ज़बाँ से गाऊँगा जब बीज हँसेंगे धरती में और कोंपलें अपनी उँगली से मिट्टी की तहों को छेड़ेंगी मैं पत्ती पत्ती कली कली अपनी आँखें फिर खोलूँगा सरसब्ज़ हथेली पर ले कर शबनम के क़तरे तौलूँगा मैं रंग-ए-हिना आहंग-ए-ग़ज़ल अंदाज़-ए-सुख़न बन जाऊँगा रुख़्सार-ए-उरूस-ए-नौ की तरह हर आँचल से छन जाऊँगा जाड़ों की हवाएँ दामन में जब फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ को लाएँगी रह-रौ के जवाँ क़दमों के तले सूखे हुए पत्तों से मेरे हँसने की सदाएँ आएँगी धरती की सुनहरी सब नदियाँ आकाश की नीली सब झीलें हस्ती से मिरी भर जाएँगी और सारा ज़माना देखेगा हर क़िस्सा मिरा अफ़्साना है हर आशिक़ है 'सरदार' यहाँ हर माशूक़ा 'सुल्ताना' है मैं एक गुरेज़ाँ लम्हा हूँ अय्याम के अफ़्सूँ-ख़ाने में मैं एक तड़पता क़तरा हूँ मसरूफ़-ए-सफ़र जो रहता है माज़ी की सुराही के दिल से मुस्तक़बिल के पैमाने में मैं सोता हूँ और जागता हूँ और जाग के फिर सो जाता हूँ सदियों का पुराना खेल हूँ मैं मैं मर के अमर हो जाता हूँ

उर्दू

हमारी प्यारी ज़बान उर्दू हमारी नग़्मों की जान उर्दू हसीन दिलकश जवान उर्दू ज़बान वो धुल के जिस को गंगा के जल से पाकीज़गी मिली है अवध की ठंडी हवा के झोंके से जिस के दिल की कली खिली है जो शेर-ओ-नग़्मा के ख़ुल्द-ज़ारों में आज कोयल सी कूकती है इसी ज़बाँ में हमारे बचपन ने माओं से लोरियाँ सुनी हैं जवान हो कर इसी ज़बाँ में कहानियाँ इश्क़ ने कही हैं इसी ज़बाँ को चमकते हीरों से इल्म की झोलियाँ भरी हैं इसी ज़बाँ से वतन के होंटों ने नारा-ए-इन्क़िलाब पाया इसी से अंग्रेज़ हुक्मरानों ने ख़ुद-सरी का जवाब पाया इसी से मेरी जवाँ तमन्ना ने शायरी का रबाब पाया ये अपने नग़्मात-ए-पुर-असर से दिलों को बेदार कर चुकी है ये अपने नारों की फ़ौज से दुश्मनों पे यलग़ार कर चुकी है सितमगरों की सितमगरी पर हज़ार-हा वार कर चुकी है कोई बताओ वो कौन सा मोड़ है जहाँ हम झिजक गए हैं वो कौन सी रज़्म-गाह है जिस में अहल-ए-उर्दू दुबक गए हैं वो हम नहीं हैं जो बढ़ के मैदाँ में आए हों और ठिठक गए हैं ये वो ज़बाँ है कि जिस ने ज़िंदाँ की तीरगी में दिए जलाए ये वो ज़बाँ है कि जिस के शो'लों से जल गए फाँसीयों के साए फ़राज़-ए-दार-ओ-रसन से भी हम ने सरफ़रोशी के गीत गाए कहा है किस ने हम अपने पियारे वतन में भी बे-वतन रहेंगे ज़बान छिन जाएगी हमारे दहन से हम बे-सुख़न रहेंगे हम आज भी कल की तरह दिल के सितार पर नग़्मा-ज़न रहेंगे ये कैसी बाद-ए-बहार है जिस में शाख़-ए-उर्दू न फल सकेगी वो कैसा रू-ए-निगार होगा न ज़ुल्फ़ जिस पर मचल सकेगी हमें वो आज़ादी चाहिए जिस में दिल की मीना उबल सकेगी हमें ये हक़ है हम अपनी ख़ाक-ए-वतन में अपना चमन सजाएँ हमारी है शाख़-ए-गुल तो फिर क्यूँ न उस पे हम आशियाँ बनाएँ हम अपने अंदाज़ और अपनी ज़बाँ में अपने गीत गाएँ कहाँ हो मतवालो आओ बज़्म-ए-वतन में है इम्तिहाँ हमारा ज़बान की ज़िंदगी से वाबस्ता आज सूद ओ ज़ियाँ हमारा हमारी उर्दू रहेगी बाक़ी अगर है हिन्दोस्ताँ हमारा चले हैं गंग-ओ-जमन की वादी में हम हवा-ए-बहार बन कर हिमालिया से उतर रहे हैं तराना-ए-आबशार बन कर रवाँ हैं हिन्दोस्ताँ की रग रग में ख़ून की सुर्ख़ धार बन कर हमारी प्यारी ज़बान उर्दू हमारी नग़्मों की जान उर्दू हसीन, दिलकश जवान उर्दू

निवाला

माँ है रेशम के कार-ख़ाने में बाप मसरूफ़ सूती मिल में है कोख से माँ की जब से निकला है बच्चा खोली के काले दिल में है जब यहाँ से निकल के जाएगा कार-ख़ानों के काम आएगा अपने मजबूर पेट की ख़ातिर भूक सरमाए की बढ़ाएगा हाथ सोने के फूल उगलेंगे जिस्म चाँदी का धन लुटाएगा खिड़कियाँ होंगी बैंक की रौशन ख़ून उस का दिए जलाएगा ये जो नन्हा है भोला-भाला है सिर्फ़ सरमाए का निवाला है पूछती है ये उस की ख़ामोशी कोई मुझ को बचाने वाला है

दोस्ती का हाथ

(चलो मैं हाथ बढ़ाता हूँ दोस्ती के लिए... अहमद फ़राज़) के जवाब में) तुम्हारा हाथ बढ़ा है जो दोस्ती के लिए मिरे लिए है वो इक यार-ए-ग़म-गुसार का हाथ वो हाथ शाख़-ए-गुल-ए-गुलशन-ए-तमन्ना है महक रहा है मिरे हाथ में बहार का हाथ ख़ुदा करे कि सलामत रहें ये हाथ अपने अता हुए हैं जो ज़ुल्फ़ें सँवारने के लिए ज़मीं से नक़्श मिटाने को ज़ुल्म ओ नफ़रत का फ़लक से चाँद सितारे उतारने के लिए ज़मीन-ए-पाक हमारे जिगर का टुकड़ा है हमें अज़ीज़ है देहली ओ लखनऊ की तरह तुम्हारे लहजे में मेरी नवा का लहजा है तुम्हारा दिल है हसीं मेरी आरज़ू की तरह करें ये अहद कि औज़ार-ए-जंग जितने हैं उन्हें मिटाना है और ख़ाक में मिलाना है करें ये अहद कि अर्बाब-ए-जंग हैं जितने उन्हें शराफ़त ओ इंसानियत सिखाना है जिएँ तमाम हसीनान-ए-ख़ैबर-ओ-लाहौर जिएँ तमाम जवानान-ए-जन्नत-ए-कश्मीर हो लब पे नग़मा-ए-महर-ओ-वफा की ताबानी किताब-ए-दिल पे फ़क़त हर्फ़-ए-इश्क़ हो तहरीर तुम आओ गुलशन-ए-लाहौर से चमन-बर्दोश हम आएँ सुबह-ए-बनारस की रौशनी ले कर हिमालया की हवाओं की ताज़गी ले कर फिर इस के ब'अद ये पूछें कि कौन दुश्मन है

तू मुझे इतने प्यार से मत देख

तू मुझे इतने प्यार से मत देख तेरी पलकों के नर्म साए में धूप भी चाँदनी सी लगती है और मुझे कितनी दूर जाना है रेत है गर्म पाँव के छाले यूँ दहकते हैं जैसे अंगारे प्यार की ये नज़र रहे न रहे कौन दश्त-ए-वफ़ा में जलता है तेरे दिल को ख़बर रहे न रहे तू मुझे इतने प्यार से मत देख

फ़रेब

(1) ना-गहाँ शोर हुआ लो शब-ए-तार-ए-ग़ुलामी की सहर आ पहुँची उँगलियाँ जाग उठीं बरबत ओ ताऊस ने अंगड़ाई ली और मुतरिब की हथेली से शुआएँ फूटीं खिल गए साज़ में नग़्मों के महकते हुए फूल लोग चिल्लाए कि फ़रियाद के दिन बीत गए राहज़न हार गए राह-रौ जीत गए क़ाफ़िले दूर थे मंज़िल से बहुत दूर मगर ख़ुद-फ़रेबी की घनी छाँव में दम लेने लगे चुन लिया राह के रेज़ों को ख़ज़फ़-रेज़ों को और समझ बैठे कि बस लाल-ओ-जवाहर हैं यही राहज़न हँसने लगे छुप के कमीं-गाहों में हम-नशीं ये था फ़रंगी की फ़िरासत का तिलिस्म रहबर-ए-क़ौम की नाकारा क़यादत का फ़रेब हम ने आज़ुर्दगी-ए-शौक़ को मंज़िल जाना अपनी ही गर्द-ए-सर-ए-राह को महमिल जाना गर्दिश-ए-हल्का-ए-गर्दाब को साहिल जाना अब जिधर देखो उधर मौत ही मंडलाती है दर-ओ-दीवार से रोने की सदा आती है ख़्वाब ज़ख़्मी हैं उमंगों के कलेजे छलनी मेरे दामन में हैं ज़ख़्मों के दहकते हुए फूल ख़ून में लुथड़े हुए फूल मैं जिन्हें कूचा-ओ-बाज़ार से चुन लाया हूँ क़ौम के राहबरो राहज़नो अपने ऐवान-ए-हुकूमत में सजा लो इन को अपने गुल्दान-ए-सियासत में लगा लो इन को अपनी सद-साला तमन्नाओं का हासिल है यही मौज-ए-पायाब का साहिल है यही तुम ने फ़िरदौस के बदले में जहन्नम ले कर कह दिया हम से गुलिस्ताँ में बहार आई है चंद सिक्कों के एवज़ चंद मिलों की ख़ातिर तुम ने नामूस-ए-शहीदान-ए-वतन बेच दिया बाग़बाँ बन के उठे और चमन बीच दिया (2) कौन आज़ाद हुआ? किस के माथे से सियाही छूटी मेरे सीने में अभी दर्द है महकूमी का मदर-ए-हिन्द के चेहरे पे उदासी है वही ख़ंजर आज़ाद हैं सीनों में उतरने के लिए मौत आज़ाद है लाशों पे गुज़रने के लिए चोर-बाज़ारों में बद-शक्ल चुड़ैलों की तरह क़ीमतें काली दुकानों पे खड़ी रहती हैं हर ख़रीदार की जेबों को कतरने के लिए कार-ख़ानों पे लगा रहता है साँस लेती हुई लाशों का हुजूम बीच में उन के फिरा करती है बेकारी भी अपना खूँ-ख़्वार दहन खोले हुए और सोने के चमकते सिक्के डंक उठाए हुए फन फैलाए रूह और दिल पे चला करते हैं मुल्क और क़ौम को दिन रात डसा करते हैं रोटियाँ चकलों की क़हबाएँ हैं जिन को सरमाया के दल्लालों ने नफ़अ-ख़ोरी के झरोकों में सजा रखा है बालियाँ धान की गेहूँ के सुनहरे ख़ोशे मिस्र ओ यूनान के मजबूर ग़ुलामों की तरह अजनबी देस के बाज़ारों में बिक जाते हैं और बद-बख़्त किसानों की बिलक्ती हुई रूह अपने अफ़्लास में मुँह ढाँप के सो जाती है हम कहाँ जाएँ कहें किस से कि नादार हैं हम किस को समझाएँ ग़ुलामी के गुनहगार हैं हम तौक़ ख़ुद हम ने पहना रक्खा है अरमानों को अपने सीने में जकड़ रक्खा तूफ़ानों को अब भी ज़िंदान-ए-ग़ुलामी से निकल सकते हैं अपनी तक़दीर को हम आप बदल सकते हैं (3) आज फिर होती हैं ज़ख़्मों से ज़बानें पैदा तीरा-ओ-तार फ़ज़ाओं से बरसाता है लहू राह की गर्द के नीचे से उभरते हैं क़दम तारे आकाश पे कमज़ोर हबाबों की तरह शब के सैलाब-ए-सियाही में बहे जाते हैं फूटने वाली है मज़दूर के माथे से किरन सुर्ख़ परचम उफ़ुक़-ए-सुब्ह पे लहराते हैं

मेरे ख़्वाब

ऐ मिरे हसीं-ख़्वाबो तुम कहाँ से आए हो किस उफ़ुक़ से उभरे हो किस शफ़क़ से निखरे हो किन गुलों की सोहबत में तुम ने तर्बियत पाई किस जहाँ से लाए हो ये जमाल-ओ-रानाई जेल तो भयानक है इस ज़लील दुनिया में हुस्न का गुज़र कैसा रंग है न निकहत है नूर है न जल्वा है जब्र की हुकूमत है तुम कहाँ से आए हो ऐ मिरे हसीं-ख़्वाबो मैं ने तुम को देखा है याद अब नहीं आता शायद एक लड़की की थरथराती पलकों में जगमगाती आँखों में या किसी तबस्सुम में जो नहा के निकला हो आँसुओं की शबनम से इक हुमकते बच्चे की मुट्ठियों के फूलों पर तितलियों की यूरिश सी और माँ की नज़रों में सैकड़ों उमीदों के शोख़ रंग गुल-दस्ते मैं ने तुम को देखा है नन्ही नन्ही गुड़ियों में नाचते खिलौनों में या रबर की गेंदों में मैं ने तुम को देखा है घुटनियों चले हो तुम तोतली ज़बानों से तुम ने दूध माँगा है ''एक शाहज़ादा था एक शाहज़ादी थी'' इस हसीं कहानी पर जाने कितने बच्चों ने अपने सर उठाए हैं जाने कितनी आँखों में फूल मुस्कुराए हैं और मैं समझता हूँ तुम इसी कहानी की सर-ज़मीं से आए हो कुछ किसान कन्याएं सब्ज़ ओ सुर्ख़ शीशों की चूड़ियाँ कलाई में और गलट की चाँदी की हंसुलियों से गर्दन में नीम चाँद के हल्क़े चोलियों पे लहंगों पर ज़र्द ज़र्द मिट्टी के ज़र्द बेल-बूटे से मैले मैले आँचल पर बालियों के बोसे हैं उन के हाथ में हंसिये गीत गाने लगते हैं झूम झूम कर पौदे अपना सर झुकाते हैं नौ-जवान लठयारे खेत की मुंडेरों पर प्रेम गीत गाते हैं ऐ मिरे हसीं-ख़्वाबो तुम इन्हें बहारों की कोंपलों से फूटे हो एक कार-ख़ाने में चंद नौ-जवानों ने अंजुमन बनाई है और इस में लेनिन की इक किताब पढ़ते हैं सुन रही हैं दीवारें हँस रही है तारीकी नौ-जवान बैठे हैं और किताब पढ़ते हैं एक एक जुमले पर चौंक चौंक पड़ते हैं एक एक फ़िक़रे पर अपना सर हिलाते हैं गाह आह भरते हैं गाह मुस्कुराते हैं मैं ने उन के सीनों में ऐ मिरे हसीं-ख़्वाबो तुम को नाचते देखा मैं ने तुम को देखा है जब सियाह मेहराबें आसमाँ पे बनती हैं जब सुकूत की परियाँ कहकशाँ पे चलती हैं गेसुओं की निकहत से जब हवा महकती हैं जब फ़ज़ा चहकती है मेरे गर्म होंटों पर प्यार थरथराते हैं और मेरी महबूबा अपने रंग-ए-आरिज़ से बिजलियाँ बनाती है और मेरी नज़रों में इक जहान मिटता है इक जहान बनता है इक ज़मीन हटती है इक ज़मीन आती है मैं असीर हूँ लेकिन तुम को कोई भी क़ानून क़ैद कर नहीं सकता सर-बुलंद और आज़ाद यूँ ही मुस्कुराए जाओ मेरे दिल की दुनिया में यूँ ही जगमगाए जाओ क़ैद-ओ-बंद के जल्लाद तुम को पा नहीं सकते लम्बे लम्बे ज़ालिम हाथ तुम को छू नहीं सकते ऐ मिरे हसीं-ख़्वाबो

नींद

रात ख़ूब-सूरत है नींद क्यूँ नहीं आती दिन की ख़शम-गीं नज़रें खो गईं सियाही में आहनी कड़ों का शोर बेड़ियों की झंकारें क़ैदियों की साँसों की तुंद-ओ-तेज़ आवाज़ें जेलरों की बदकारी गालियों की बौछारें बेबसी की ख़ामोशी ख़ामुशी की फ़रियादें तह-नशीं अंधेरे में शब की शोख़ दोशीज़ा ख़ार-दार तारों को आहनी हिसारों को पार कर के आई है भर के अपने आँचल में जंगलों की ख़ुशबुएँ ठण्डकें पहाड़ों की मेरे पास लाई है नील-गूँ जवाँ सीना कहकशाँ की पेशानी नीम चाँद का जोड़ा मख़मलीं अंधेरे का पैरहन लरज़ता है वक़्त की सियह ज़ुल्फ़ें ख़ामुशी के शानों पर ख़म-ब-ख़म महकती हैं और ज़मीं के होंटों पर नर्म शबनमी बोसे मोतियों के दाँतों से खिलखिला के हँसते हैं रात ख़ूब-सूरत है नींद क्यूँ नहीं आती रात पेंग लेती है चाँदनी के झूले में आसमान पर तारे नन्हे नन्हे हाथों से बुन रहे हैं जादू सा झींगुरों की आवाज़ें कह रही हैं अफ़्साना दूर जेल के बाहर बज रही है शहनाई रेल अपने पहियों से लोरियाँ सुनाती है रात ख़ूब-सूरत है नींद क्यूँ नहीं आती रोज़ रात को यूँही नींद मेरी आँखों से बेवफ़ाई करती है मुझ को छोड़ कर तन्हा जेल से निकलती है बम्बई की बस्ती में मेरे घर का दरवाज़ा जा के खटखटाती है एक नन्हे बच्चे की अँखड़ियों के बचपन में मीठे मीठे ख़्वाबों का शहद घोल देती है इक हसीं परी बन कर लोरियाँ सुनाती है पालना हिलाती है

बहुत क़रीब हो तुम

बहुत क़रीब हो तुम फिर भी मुझ से कितनी दूर कि दिल कहीं है नज़र है कहीं कहीं तुम हो वो जिस को पी न सकी मेरी शोला-आशामी वो कूज़ा-ए-शकर ओ जाम-ए-अम्बगीं तुम हो मिरे मिज़ाज में आशुफ़्तगी सबा की है मिली कली की अदा गुल की तमकनत तुम को सबा की गोद में फिर भी सबा से बेगाना तमाम हुस्न ओ हक़ीक़त तमाम अफ़्साना वफ़ा भी जिस पे है नाज़ाँ वो बेवफ़ा तुम हो जो खो गई है मिरे दिल की वो सदा तुम हो बहुत क़रीब हो तुम फिर भी मुझ से कितनी दूर हिजाब-ए-जिस्म अभी है हिजाब-ए-रूह अभी अभी तो मंज़िल-ए-सद-मेहर-ओ-माह बाक़ी है हिजाब-ए-फ़ासला-हा-ए-निगाह बाक़ी है विसाल-ए-यार अभी तक है आरज़ू का फ़रेब

चाँद को रुख़्सत कर दो

मेरे दरवाज़े से अब चाँद को रुख़्सत कर दो साथ आया है तुम्हारे जो तुम्हारे घर से अपने माथे से हटा दो ये चमकता हुआ ताज फेंक दो जिस्म से किरनों का सुनहरा ज़ेवर तुम ही तन्हा मिरे ग़म-ख़ाने में आ सकती हो एक मुद्दत से तुम्हारे ही लिए रक्खा है मेरे जलते हुए सीने का दहकता हुआ चाँद दिल-ए-ख़ूँ-गश्ता का हँसता हुआ ख़ुश-रंग गुलाब

साल-ए-नौ

ये किस ने फ़ोन पे दी साल-ए-नौ की तहनियत मुझ को तमन्ना रक़्स करती है तख़य्युल गुनगुनाता है तसव्वुर इक नए एहसास की जन्नत में ले आया निगाहों में कोई रंगीन चेहरा मुस्कुराता है जबीं की छूट पड़ती है फ़लक के माह-पारों पर ज़िया फैली हुई है सारा आलम जगमगाता है शफ़क़ के नूर से रौशन हैं मेहराबें फ़ज़ाओं की सुरय्या की जबीं ज़ोहरा का आरिज़ तिम्तिमाता है पुराने साल की ठिठुरी हुई परछाइयाँ सिमटीं नए दिन का नया सूरज उफ़ुक़ पर उठता आता है ज़मीं ने फिर नए सर से नया रख़्त-ए-सफ़र बाँधा ख़ुशी में हर क़दम पर आफ़्ताब आँखें बिछाता है हज़ारों ख़्वाहिशें अंगड़ाइयाँ लेती हैं सीने में जहान-ए-आरज़ू का ज़र्रा ज़र्रा गुनगुनाता है उमीदें डाल कर आँखों में आँखें मुस्कुराती हैं ज़माना जुम्बिश-ए-मिज़्गाँ से अफ़्साने सुनाता है मसर्रत के जवाँ मल्लाह कश्ती ले के निकले हैं ग़मों के ना-ख़ुदाओं का सफ़ीना डगमगाता है ख़ुशी मुझ को भी है लेकिन मैं ये महसूस करता हूँ मसर्रत के इस आईने में ग़म भी झिलमिलाता है हमारे दौर-ए-महकूमी की मुद्दत घटती जाती है ग़ुलामी के ज़माने में इज़ाफ़ा होता जाता है यही अंदाज़ गर बाक़ी हैं अपनी सुस्त-गामी के न जाने और कितने साल आएँगे ग़ुलामी के

मिरे अज़ीज़ो, मिरे रफ़ीक़ो

मिरे अज़ीज़ो, मिरे रफ़ीक़ो मिरी कम्युनिज़म से हो ख़ाइफ़ मिरी तमन्ना से डर रहे हो मगर मुझे कुछ गिला नहीं है तुम्हारी रूहों की सादगी से तुम्हारे दिल की सनम-गरी से मुझे ये महसूस हो रहा है कि जैसे बेगाना हवा भी तक तुम अपने अंदाज़-ए-दिलबरी से कि जैसे वाक़िफ़ नहीं अभी तक सितमगरों की सितमगरी से फ़रेब ने जिन के आदमी को हक़ीर ओ बुज़दिल बना दिया है हक़ीक़तों के मुक़ाबले में फ़रार करना सिखा दया है तुम्हें ये जिस दिन पता चलेगा हयात रंग-ए-हिना नहीं है हयात हुस्न-ए-बुताँ नहीं है ये एक ख़ंजर-ब-कफ़ करिश्मा एक ज़हरीला जाम-ए-मय है हमारी पीरी हो या जवानी मलूल ओ अफ़्सुर्दा ज़िंदगानी शिकस्ता-ए-नग़्मा शिकस्ता-ए-नै है तुम्हें ये जिस दिन पता चलेगा तअस्सुबात-ए-कुहन के पर्दे तुम्हारी आँखों में जल-बुझेंगे ये तुम ने कैसे समझ लिया है कि दिल मिरा इश्क़ से है ख़ाली मिरी नज़र हुस्न से है आरी क़रीब आओ तुम्हें बताऊँ मुझे मोहब्बत है आदमी से मुझे मोहब्बत है ज़िंदगी से मुझे मोहब्बत है मह-जबीनों से, गुल-रुख़ों से समन-ए-बरों से किताबों से, रोटियों से, फूलों से पत्थरों से, समुंदरों से मिरी निगह में बसे हुए हैं हज़ार अंदाज़-ए-दिल-रुबाई मैं अपने सीने को चाक कर के अगर तुम्हें अपना दिल दिखाऊँ तो तुम को हर ज़ख़्म के चमन में हज़ार सर्व-ए-रवाँ मिलेंगे उदास मग़्मूम वादियों में हज़ार-हा नग़्मा-ख़्वाँ मिलेंगे हज़ार आरिज़, हज़ार शमएँ हज़ार क़ामत, हज़ार ग़ज़लें सुबुक-ख़रामाँ ग़ज़ाल जैसे हज़ार अरमाँ हज़ार उमीदें फ़लक पे तारों के जाल जैसे मगर कोई तोड़े दे रहा है लरज़ती मिज़्गाँ के नश्तरों को दिलों के अंदर उतारता है कोई सियासत के ख़ंजरों को किसी के ज़हरीले तेज़ नाख़ुन उक़ाब के पंजा-हा-ए-ख़ूनीं की तरह आँखों पे आ रहे हैं गुलाब से तन मिसाल-ए-बिस्मिल ज़मीन पर तिलमिला रहे हैं जो प्यास पानी की मुंतज़िर थी वो सूलियों पर टंगी हुई है वो भूक रोटी जो माँगती थी सलीब-ए-ज़र पर चढ़ी हुई है ये ज़ुल्म कैसा, सितम ये क्या है मैं सोचता हूँ ये क्या जुनूँ है जहाँ में नान-ए-जवीं की क़ीमत किसी की इस्मत, किसी का ख़ूँ है तुम्हीं बताओ मिरे अज़ीज़ो मिरे रफ़ीक़ो, तुम्हीं बताओ ये ज़िंदगी पारा पारा क्यूँ है हमारी प्यारी हसीं ज़मीं पर ये क़त्ल-गह का नज़ारा क्यूँ है मुझे बताओ कि आज कैसे सियाह बारूद की लकीरें कटीले काजल, सजीले सुरमे के बाँकपन से उलझ गई हैं ख़िज़ाँ के काँटों की उँगलियाँ क्यूँ हर इक चमन से उलझ गई हैं मुझे बताओ लहू ने कैसे हिना के जादू को धो दिया है हयात के पैरहन को इंसाँ के आँसुओं ने भिगो दिया है बता सको तो मुझे बताओ कि साज़ नग़्मों से क्यूँ हैं रूठे बता सको तो मुझे बताओ कि तार क्यूँ पड़ गए हैं झूटे मिरे अज़ीज़ो, मरे रफ़ीक़ो मिरी कम्युनिज़म कुछ नहीं है ये अहद-ए-हाज़िर की आबरू है मिरी कम्युनिज़म कुछ नहीं है ये अहद-ए-हाज़िर की आबरू है मिरी कम्युनिज़म ज़िंदगी को हसीं बनाने की आरज़ू है ये एक मासूम जुस्तुजू है तुम्हारे दिल में भी शायद ऐसी कोई जवाँ-साल आरज़ू हो कोई उबलती हुई सुराही कोई महकता हुआ सुबू हो ज़रा ये समझो मिरे अज़ीज़ो मिरे रफ़ीक़ो ज़रा ये सोचो तुम्हारे क़ब्ज़े में क्या नहीं है तुम्हारी ठोकर से जाग उठेगी तुम्हारे क़दमों में जो ज़मीं है बस एक इतनी कमी है यारो कि ज़ौक़ बेगाना-ए-यक़ीं है तुम्हारी आँखों ही में है सब कुछ तुम्हारी आँखों में सब जहाँ है तुम्हारी पलकों के नीचे धरती तुम्हारी पलकों पर आसमाँ है तुम्हारे हाथों की जुम्बिशों में है जू-ए-रंग-ए-बहार देखो न देखो इस बे-सुतून-ए-ग़म को तुम अपने तेशों की धार देखो तुम अपने तेशे उठा के लाओ मैं ले के अपनी कुदाल निकलूँ हज़ार-हा साल के मसाइब हज़ार-हा साल के मज़ालिम जो रूह ओ दिल पर पहाड़ बन कर हज़ार-हा साल से धरे हैं हम अपने तेशों की ज़र्ब-ए-कारी से उन के सीनों को छेद डालें ये है सिर्फ़ एक शब की मेहनत जो अहद कर लें तो हम सहर तक हयात-ए-नौ के नए अजंता नए एलोरा तराश डालें

आज़ादी

पूछता है तो कि कब और किस तरह आती हूँ मैं गोद में नाकामियों के परवरिश पाती हूँ मैं सिर्फ़ वो मख़्सूस सीने हैं मिरी आराम-गाह आरज़ू की तरह रह जाती है जिन में घुट के आह अहल-ए-ग़म के साथ उन का दर्द-ओ-ग़म सहती हूँ मैं काँपते होंटों पे बन कर बद-दुआ' रहती हूँ मैं रक़्स करती हैं इशारों पर मिरे मौत-ओ-हयात देखती रहती हूँ मैं हर-वक़्त नब्ज़-ए-काएनात ख़ुद-फ़रेबी बढ़ के जब बनती है एहसास-ए-शुऊ'र जब जवाँ होता है अहल-ए-ज़र के तेवर में ग़ुरूर मुफ़्लिसी से करते हैं जब आदमियत को जुदा जब लहू पीते हैं तहज़ीब-ओ-तमद्दुन के ख़ुदा भूत बन कर नाचता है सर पे जब क़ौमी वक़ार ले के मज़हब की सिपर आता है जब सरमाया-दार रास्ते जब बंद होते हैं दुआओं के लिए आदमी लड़ता है जब झूटे ख़ुदाओं के लिए ज़िंदगी इंसाँ की कर देता है जब इंसाँ हराम जब उसे क़ानून-ए-फ़ितरत का अता होता है नाम अहरमन फिरता है जब अपना दहन खोले हुए आसमाँ से मौत जब आती है पर तोले हुए जब किसानों की निगाहों से टपकता है हिरास फूटने लगती है जब मज़दूर के ज़ख़्मों से यास सब्र-ए-अय्यूबी का जब लबरेज़ होता है सुबू सोज़-ए-ग़म से खौलता है जब ग़ुलामों का लहु ग़ासिबों से बढ़ के जब करता है हक़ अपना सवाल जब नज़र आता है मज़लूमों के चेहरों पर जलाल तफ़रक़ा पड़ता है जब दुनिया में नस्ल-ओ-रंग का ले के मैं आती हूँ परचम इन्क़िलाब-ओ-जंग का हाँ मगर जब टूट जाती है हवादिस की कमंद जब कुचल देता है हर शय को बग़ावत का समंद जब निगल लेता है तूफ़ाँ बढ़ के कश्ती नूह की घुट के जब इंसान में रह जाती है अज़्मत रूह की दूर हो जाती है जब मज़दूरों के दिल की जलन जब तबस्सुम बन के होंटों पर सिमटती है थकन जब उभरता है उफ़ुक़ से ज़िंदगी का आफ़्ताब जब निखरता है लहू की आग में तप कर शबाब नस्ल क़ौमिय्यत कलीसा सल्तनत तहज़ीब-ओ-रंग रौंद चुकती है जब इन सब को जवानी की उमंग सुब्ह के ज़र्रीं तबस्सुम में अयाँ होती हूँ मैं रिफ़अत-ए-अर्श-ए-बरीं से पर-फ़िशाँ होती हूँ मैं

तीन शराबी

ज़िक्र नहीं ये फ़र्ज़ानों का क़िस्सा है इक दीवानों का मास्को, पैरिस और लंदन में देखे मैं ने तीन शराबी सुर्ख़ थीं आँखें रूह गुलाबी नश्शा-ए-मय का ताज जबीं पर फ़िक्र फ़लक पर पाँव ज़मीं पर बे-ख़बर अपनी लग़्ज़िश-ए-पा से बा-ख़बर अपने अहद-ए-वफ़ा से दुख़्तर-ए-रज़ के दर के भिकारी अपने क़ल्ब ओ नज़र के शिकारी पी लेने के बाद भी प्यासे जाम की सूरत छलके छलके अब्र की सूरत हल्के हल्के मस्ती की तलवार उठाए फ़स्ल-ए-गुल चेहरों पे खिलाए क़दम क़दम पर बहक रहे थे महक रहे थे चहक रहे थे एक ने शायद व्हिस्की पी थी दूसरे ने शैम्पेन की बोतल तीसरे ने वो पिघली चाँदी वोदका की सय्याल हसीना वो शय जिस की ताबिश-ए-रुख़ से शीशे को आ जाए पसीना मैं ने उन नाज़ुक लम्हों में रूह-ए-बशर को उर्यां देखा अहद-ए-ख़िज़ाँ का रंग-ए-परीदा रंग-ए-अहद-ए-बहाराँ देखा ज़ाहिर देखा पिन्हाँ देखा ज़िक्र नहीं ये फ़र्ज़ानों का क़िस्सा है इक दीवानों का रात ने अपनी काली ज़बाँ से ख़ून शफ़क़ के दिल का चाटा चार तरफ़ ख़ामोशी छाई फैल गया हर-सू सन्नाटा जन्नत-ए-पैरिस के पहलू में सेन की मौजों को नींद आई डसने लगी मुझ को तन्हाई मय-ख़ाने में जा कर मैं ने आग से दिल की प्यास बुझाई रिंद बहुत थे लेकिन वो सब अपने नशे में खोए हुए थे जाग रही थीं आँखें लेकिन दिल तो सब के सोए हुए थे कोई नहीं था उन में मेरा में ये बैठा सोच रहा था कब ये ज़ालिम रात कटेगी कब वापस आएगा सवेरा इतने में इक क़ामत-ए-राना क़दम क़दम पर फूल खिलाता होंटों से मासूम तबस्सुम आँखों से बिजली बरसाता मय-ख़ाने में झूम के आया नाज़ ओ अदा के दाम बिछाता ऐश ओ तरब की महबूबाएँ नश्शा-ए-मय की दोशीज़ाएँ रह गईं अपनी आँखें मल कर आई क़यामत चाल में ढल कर सिक्कों की झंकार पे गाती सोने की तलवार नचाती अपने लहू में आप नहाती इस नाज़ुक लम्हे में मैं ने हिर्स-ओ-हवस को रक़्साँ देखा ज़द में निज़ाम-ए-ज़रदारी की रूह-ए-बशर को लर्ज़ां देखा मजबूरी को उर्यां देखा ज़िक्र नहीं ये फ़र्ज़ानों का क़िस्सा है इक दीवानों का गहरे कोहरे की लहरों में सारा लंदन डूब गया था लम्हों की रौशन आँखों में शाम का काजल फैल चुका था रात की नीली देवी जागी दिन के देवता को नींद आई डसने लगी मुझ को तन्हाई मय-ख़ाने में जा कर मैं ने आग से दिल की प्यास बुझाई उस महफ़िल में सब ही कुछ था साक़ी भी और पीर-ए-मुग़ाँ भी सहबा की आग़ोश के पाले तिफ़्लक-ए-मस्ती, रिन्द-ए-जवाँ भी ग़ाज़ा ओ रंग की माशूक़ाएँ जिन की लताफ़त शब भर की थी इत्र और रेशम की मीनाएँ जिन की सहबा लब भर की थी आज का सुख था, कल का दुख था आज की आशा, कल की निराशा हँस हँस कर ग़म देख रहे थे इन झूटी ख़ुशियों का तमाशा ना-उम्मीदी के काँधों पर रक्खा था उम्मीद का लाशा आज वो ले लें, जो मिल जाए कल क्या होगा कौन बताए आज दिलों की शम्अ जलाएँ कल शायद ये रात न आए आज तो मय की कश्ती खे लें कल ये सफ़ीना डूब न जाए आज लबों का बोसा ले लें मौत का बोसा कल लेना है आज दिलों का क़र्ज़ चुका लें कल तो सब कुछ दे देना है इस नाज़ुक लम्हे में मैं ने रूह-ए-बशर को वीराँ देखा एटम-बम के ख़ौफ़ के आगे अक़्ल ओ ख़िरद को हैराँ देखा सारे जहाँ को लर्ज़ां देखा ज़िक्र नहीं ये फ़र्ज़ानों का क़िस्सा है इक दीवानों का दोश-ए-हवा पर तारीकी ने ज़ुल्फ़ों के ख़म खोल दिए थे मास्को की ख़ामोश फ़ज़ा में रात की आँखों के काजल ने कितने जादू घोल दिए थे सुर्ख़ ओ सियह मख़मल के ऊपर शाम के सायों को नींद आई डसने लगी मुझ को तन्हाई मय-ख़ाने में जा कर मैं ने आग से दिल की प्यास बुझाई ख़ुश-फ़िक्रों का अब्र-ए-बहाराँ झूम पड़ा था मय-ख़ानों पर बादा-कशों का रंगीं झुरमुट टूट पड़ा था पैमानों पर साज़ की लय में तेज़ी आई नश्शा-ए-मय की अंगड़ाई ने अपना हसीं परचम लहराया चप्पा चप्पा ज़र्रा ज़र्रा क़तरा क़तरा रक़्स में आया नग़्मों के बे-ताब भँवर को लब के टुकड़े चूम रहे थे रक़्स के बेकल गिर्दाबों में जिस्म के तूफ़ाँ घूम रहे थे चेहरों की रौशन क़िंदीलें बाँहों की दिल-कश मेहराबें राग नज़र की ख़ामोशी के जुम्बिश-ए-मिज़्गाँ की मिज़्राबें इस गर्दिश में दरहम-बरहम सारा निज़ाम-ए-शमस-ओ-क़मर था पिघल गए थे चाँद और सूरज महफ़िल-ए-गुल में रक़्स-ए-शरर था रात की पेशानी से जैसे तारों का झूमर टूट गया हो पीर-ए-फ़लक के हाथ से जैसे तश्त-ए-ज़मर्रुद छूट गया हो हीरे, नीलम, लाल और मोती ख़ाक पे जैसे बिखर रहे हैं जैसे किसी के बरहम गेसू बिखर बिखर कर सँवर रहे हों नश्शा-ए-मय के सर पर लेकिन अक़्ल ओ ख़िरद का ताज धरा था दूर से बैठा बैठा मुझ को एक शराबी देख रहा था उस ने हवा में हाथ से अपने नन्हा सा इक बोसा फेंका इक तितली सी उड़ती आई मेरे दिल के फूल के ऊपर कुछ काँपी और कुछ मंडलाई बैठ गई पर जोड़ के दोनों प्यार के रस को चूस के उट्ठी और मिरी जानिब से हवा में बोसा बन कर फिर लहराई कुछ शर्माई, कुछ इतराई और शराबी मेज़ से उठ कर रक़्स के हल्क़ों से टकराता कश्ती की सूरत चकराता हाथ में अपना जाम उठाए मेरी जानिब झूमता आया ख़ंदाँ ख़ंदाँ, नाज़ाँ नाज़ाँ रक़्साँ रक़्साँ, पेचाँ पेचाँ मौज-ए-हवा को चूमता आया मेरी ज़बाँ थी उर्दू, हिन्दी उस की ज़बाँ थी रूसी लेकिन एक ज़बाँ थी ऐसी भी जो दोनों ज़बानों से प्यारी थी दोनों जिस को बोल रहे थे चंद इशारे चंद तबस्सुम नज़रों का ख़ामोश तकल्लुम हर्फ़ यही थे, लफ़्ज़ यही थे शहद जो दिल में घोल रहे थे हिन्द की मस्ती, रूस का नक़्शा दोनों ने इक जाम बनाया और हवा में उस को नचाया साथ हमारे सब रिंदों ने अपने दिलों को हाथ में ले कर मेरे वतन का जाम उठाया अब जो मैं ने मुड़ कर देखा जश्न न था ये दीवानों का गिर्द हमारे अम्न की देवी गीत की हूरें साज़ की परियाँ नग़्मे और आवाज़ की लड़ियाँ पैरिस की बद-बख़्त हसीना मग़रूर अमरीका का सिपाही लंदन का बदमस्त शराबी ऐश ओ तरब की महबूबाएँ नश्शा-ए-मय की दोशीज़ाएँ ग़ाज़ा ओ रंग की माशूक़ाएँ इत्र और रेशम की मीनाएँ 'हाफ़िज़' और 'ग़ालिब' की ग़ज़लें 'पुश्किन' और 'टैगोर' की नज़्में कितने नाज़ और कितनी अदाएँ कितनी शीरीं और लैलाएँ कितने राँझे, कितनी हीरें कितने बुत, कितनी तस्वीरें अम्न की कोशिश और तदबीरें मशरिक़ ओ मग़रिब की तक़दीरें हल्क़ा बाँधे नाच रही थीं मैं ने इस नाज़ुक लम्हे में रूह-ए-बशर को नाज़ाँ देखा नश्शा ओ रक़्स के पेच ओ ख़म में प्यार का जज़्बा रक़्साँ देखा सारे जहाँ को ख़ंदाँ देखा ज़िक्र नहीं ये फ़र्ज़ानों का क़िस्सा है इक दीवानों का

बम्बई

सब्ज़-ओ-शादाब साहिल रेत के और पानी के गीत मुस्कुराते समुंदर का सय्याल चेहरा चाँद सूरज के टुकड़े लाखों आईने मौजों में बिखरे हुए कश्तियाँ बादबानों के आँचल में अपने सरों को छुपाए हुए जाल नीले समुंदर में डूबे हुए ख़ाक पर सूखती मछलियाँ घाटनें पत्थरों की वो तरशी हुई मूरतें एलीफैंटा के ग़ारों से जो रक़्स करती निकल आई हैं रातें आँखों में जादू का काजल लगाए हुए शामें नीली हवा की नमी में नहाई हुई सुब्हें शबनम के बारीक मल्बूस पहने हुए ख़्वाब-आलूद कोहसार के सिलसिले जंगलों के घने साए मिट्टी की ख़ुश्बू महकती हुई कोंपलें पत्थरों की चट्टानें अपनी बाँहों को बहर-ए-अरब में समेटे हुए वो चटानों पे रक्खे हुए ऊँचे ऊँचे महल चिकनी दीवारों पर क़त्ल, ग़ारत-गरी, बुज़दिली, नफ़अ'-ख़ोरी की परछाइयाँ रेशमी सारियाँ मख़मलीं जिस्म, ज़हरीले नाख़ूनों की बिल्लियाँ ख़ून की प्यास खादी के पैराहनों में जगमगाते हुए क़ुमक़ुमे, पार्क, बाग़ात और म्यूजियम संग-ए-मरमर के बुत, धात के आदमी सर्द ओ संगीन अज़्मत के पैकर आँखें बे-नूर, लब बे-सदा, हाथ बे-जान हिन्द की बेबसी और महकूमी की यादगारें सैकड़ों साल के गर्म आतिश-कदे ज़र ओ संदल की आग ऊद-ओ-अम्बर के शोले ''चालें'' इफ़्लास की गर्द, तारीकियाँ गंदगी और उफ़ूनत घूरे सड़ते हुए रहगुज़ारों पे सोते हुए आदमी टाट पर, और काग़ज़ के टुकड़ों पे फैले हुए जिस्म, सूखे हुए हाथ ज़ख़्म की आस्तीनों से निकली हुई हड्डियाँ कोढ़ियों के हुजूम ''खोलीयाँ'' जैसे अंधे कुएँ गर्म सीनों, मोहब्बत की गोदों से महरूम बच्चे बकरियों की तरह रस्सियों से बंधे उन की माएँ अभी कार-ख़ानों से वापस नहीं आई हैं चिमनियाँ भुतनियों की तरह बाल खोले हुए कार-ख़ाने गरजते हुए ख़ून की और पसीने की बू में शराबोर ख़ून सरमाया-दारी के नालों में बहता हुआ भट्टियों में उबलता हुआ सर्द सिक्कों की सूरत में जमता हुआ सोने चाँदी में तब्दील होता हुआ बंक की खिड़कियों में चराग़ाँ सड़कें दिन रात चलती हुई साँस लेती हुई आदमी ख़्वाहिशों के अँधेरे नशेबों में सैलाब की तरह बहते हुए चोर-बाज़ार, सट्टा, जुआरी रेस के घोड़े, सरकार के मंत्री सिनेमा, लड़कियाँ, ऐक्टर, मस्ख़रे एक इक चीज़ बिकती हुई गाजरें, मूलियाँ, ककड़ियाँ जिस्म और ज़ेहन और शायरी इल्म, हिकमत, सियासत अँखड़ियों और होंटों के नीलाम-घर आरिज़ों की दुकानें बाज़ुओं और सीनों के बाज़ार पिंडुलियों और रानों के गोदाम देश-भगती के दलाल खादी के ब्योपारी अक़्ल, इंसाफ़, पाकीज़गी, और सदाक़त के ताजिर ये है हिन्दोस्ताँ की उरूसुल-बिलाद सर-ज़मीन-ए-दकन की दुल्हन बम्बई एक जन्नत जहन्नम की आग़ोश में या इसे यूँ कहूँ एक दोज़ख़ है फ़िरदौस की गोद में ये मिरा शहर है गो मिरा जिस्म इस ख़ाक-दाँ से नहीं मेरी मिट्टी यहाँ से बहुत दूर गंगा के पानी से गूंधी गई है मेरे दिल में हिमाला के फूलों की ख़ुशबू बसी है फिर भी ऐ बम्बई तू मिरा शहर है तेरे बाग़ात में मेरी यादों के कितने ही रम-ख़ूर्दा आहू मैं ने तेरे पहाड़ों की ठंडी हवा खाई है तेरी शफ़्फ़ाफ़ झीलों का पानी पिया है तेरे साहिल की हँसती हुई सीपियाँ मुझ को पहचानती हैं नारियल के दरख़्तों की लम्बी क़तारें तेरे नीले समुंदर के तूफ़ान और क़हक़हे तेरे दिलकश मज़ाफ़ात के सब्ज़ा-ज़ारों की ख़ामोशियाँ रंगतें, निकहतें, सब मुझे जानती हैं इस जगह मेरे ख़्वाबों को आँखें मिलीं और मेरी मोहब्बत के बोसों ने अपने हसीन होंट हासिल किए बम्बई तेरे सीने में सरमाए का ज़हर भी इंक़लाब और बग़ावत का तिरयाक़ भी तेरे पहलू में फ़ौलाद का क़ल्ब है तेरी नब्ज़ों में मज़दूर ओ मल्लाह का ख़ून है तेरी आग़ोश में कार-ख़ानों की दुनिया बसी है सेवरी, लाल-बाग़ और परेल और यहाँ तेरे बेटे तिरी बेटियाँ इन की दिखती हुई उँगलियाँ सूत के एक इक तार से मुल्क के क़ातिलों का कफ़न बुन रही हैं

तुम्हारा शहर

तुम्हारा शहर तुम्हारे बदन की ख़ुश्बू से महक रहा था, हर इक बाम तुम से रौशन था हवा तुम्हारी तरह हर रविश पे चलती थी तुम्हारे होंटों से हँसती थीं नर्म-लब कलियाँ अता हुई थी सहर को तुम्हारी सीम-तनी मिली थी शाम ओ शफ़क़ को तुम्हारी गुल-बदनी तुम्हारा नाम तसव्वुर भी था, तख़य्युल भी यक़ीं भी, शौक़ भी, उम्मीद भी, तमन्ना भी सजी थी ज़ुल्फ़-ए-जवाँ आरज़ू के फूलों से उमीद-वार थे हर सम्त आशिक़ों के गिरोह मगर ये क्या है कि हर कूचा आज वीराँ है गली गली में हैं फ़ौलाद-पा सियह इफ़रीत चमन चमन में सड़ी लाश का तअफ़्फ़ुन है हवाएँ गर्म हैं बारूद का अंधेरा है ख़बर नहीं कि यहाँ से किधर को जाना है तुम्हारा शहर, तुम्हारे बदन की ख़ुश्बू को तरस रहा है, हर इक बाम तीरा-सामाँ है न रौशनी है, न निकहत, न नग़्मा है, न नवा हर इक रविश पे हवा चल रही है नौहा-कुनाँ सहर की गुल-बदनी है लहू का पैराहन न शाम है न सहर सिर्फ़ इक सियाह कफ़न तुम्हारे शहर की उर्यानियों को ढाँपता है ख़बर नहीं कि यहाँ से किधर को जाना है वो इक जुलूस सा इक मोड़ पर नज़र आया कोई अज़ीम जनाज़ा गुज़रने वाला है हवा में नाला-ओ-फ़रियाद की है कैफ़ियत हर एक आँख में आँसू, हर एक होंट पे आह दिलों का नौहा-ए-ग़म सिसकियों में ढलता है वो दर्द है कि कोई खुल के रो नहीं सकता मगर जनाज़ा कहीं भी नज़र नहीं आता कफ़न-फ़रोश भी हैं, गोरकन भी हैं लेकिन कोई बता नहीं सकता कि किस की मय्यत है कोई बता नहीं सकता किधर गया ताबूत कोई बता नहीं सकता कहाँ है क़ब्रिस्तान चलो क़रीब से देखें ये बद-नसीब हैं कौन क्लर्क हैं जो अभी दफ़्तरों से निकले हैं तमाम एक सी शक्लें हैं हिंदिसों की तरह किसान हैं जो अभी खेतियों से पलटे हैं निकल के आए हैं मज़दूर कार-ख़ानों से और उन की पुश्त पे अफ़्सुर्दा खोलीयों की क़तार सुरों पे उड़ते धुएँ के सियाह-रंग अलम बरहना बच्चों के रोने की दर्दनाक सदा जुलूस-ए-ग़म है जनाज़ा ब-दोश चलता है मगर जनाज़ा किधर है नज़र नहीं आता ख़बर नहीं कि यहाँ से किधर को जाना है

हाथों का तराना

इन हाथों की ताज़ीम करो इन हाथों की तकरीम करो दुनिया के चलाने वाले हैं इन हाथों को तस्लीम करो तारीख़ के और मशीनों के पहियों की रवानी इन से है तहज़ीब की और तमद्दुन की भरपूर जवानी इन से है दुनिया का फ़साना इन से है, इंसाँ की कहानी इन से है इन हाथों की ताज़ीम करो सदियों से गुज़र कर आए हैं, ये नेक और बद को जानते हैं ये दोस्त हैं सारे आलम के, पर दुश्मन को पहचानते हैं ख़ुद शक्ति का अवतार हैं, ये कब ग़ैर की शक्ति मानते हैं इन हाथों को ताज़ीम करो एक ज़ख़्म हमारे हाथों के, ये फूल जो हैं गुल-दानों में सूखे हुए प्यासे चुल्लू थे, जो जाम हैं अब मय-ख़ानों में टूटी हुई सौ अंगड़ाइयों की मेहराबें हैं ऐवानों में इन हाथों की ताज़ीम करो राहों की सुनहरी रौशनियाँ, बिजली के जो फैले दामन में फ़ानूस हसीं ऐवानों के, जो रंग-ओ-नूर के ख़िर्मन में ये हाथ हमारे जलते हैं, ये हाथ हमारे रौशन हैं इन हाथों की ताज़ीम करो ख़ामोश हैं ये ख़ामोशी से, सो बरबत-ओ-चंग बनाते हैं तारों में राग सुलाते हैं, तब्लों में बोल छुपाते हैं जब साज़ में जुम्बिश होती है, तब हाथ हमारे गाते हैं इन हाथों की ताज़ीम करो ए'जाज़ है ये इन हाथों का, रेशम को छुएँ तो आँचल है पत्थर को छुएँ तो बुत कर दें, कालख को छुएँ तो काजल है मिट्टी को छुएँ तो सोना है, चाँदी को छुएँ तो पायल है इन हाथों की ताज़ीम करो बहती हुई बिजली की लहरें, सिमटे हुए गंगा के धारे धरती के मुक़द्दर के मालिक, मेहनत के उफ़ुक़ के सय्यारे ये चारागरान-ए-दर्द-ए-जहाँ, सदियों से मगर ख़ुद बेचारे इन हाथों की ताज़ीम करो तख़्लीक़ ये सोज़-ए-मेहनत की, और फ़ितरत के शहकार भी हैं मैदान-ए-अमल में लेकिन ख़ुद, ये ख़ालिक़ भी मे'मार भी हैं फूलों से भरी ये शाख़ भी हैं और चलती हुई तलवार भी हैं इन हाथों की ताज़ीम करो ये हाथ न हूँ तो मोहमल सब, तहरीरें और तक़रीरें हैं ये हाथ न हों तो बे-मा'नी इंसानों की तक़रीरें हैं सब हिकमत-ओ-दानिश इल्म-ओ-हुनर इन हाथों की तफ़्सीरें हैं इन हाथों की तअ'ज़ीम करो ये कितने सुबुक और नाज़ुक हैं, ये कितने सिडौल और अच्छे हैं चालाकी में उस्ताद हैं ये और भोले-पन में बच्चे हैं इस झूट की गंदी दुनिया में बस हाथ हमारे सच्चे हैं इन हाथों की ताज़ीम करो ये सरहद सरहद जुड़ते हैं और मुल्कों मुल्कों जाते हैं बाँहों में बाँहें डालते हैं और दिल से दिल को मिलाते हैं फिर ज़ुल्म-ओ-सितम के पैरों की ज़ंजीर-ए-गिराँ बन जाते हैं इन हाथों की तअ'ज़ीम करो ता'मीर तो इन की फ़ितरत है, इक और नई ता'मीर सही इक और नई तदबीर सही, इक और नई तक़दीर सही इक शोख़ ओ हसीं ख़्वाब और सही इक शोख़ ओ हसीं ता'बीर सही इन हाथों की तअ'ज़ीम करो इन हाथों की तकरीम करो दुनिया को चलाने वाले हैं इन हाथों को तस्लीम करो

तिरे प्यार का नाम

दिल पे जब होती है यादों की सुनहरी बारिश सारे बीते हुए लम्हों के कँवल खिलते हैं फैल जाती है तिरे हर्फ़-ए-वफ़ा की ख़ुश्बू कोई कहता है मगर रूह की गहराई से शिद्दत-ए-तिश्ना-लबी भी है तिरे प्यार का नाम

लहू पुकारता है

लहू पुकारता है हर तरफ़ पुकारता है सहर हो, शाम हो, ख़ामोशी हो कि हंगामा जुलूस-ए-ग़म हो कि बज़्म-ए-नशात-आराई लहू पुकारता है लहू पुकारता है जैसे ख़ुश्क सहरा में पुकारा करते थे पैग़म्बरान-ए-इसराईल ज़मीं के सीने से और आस्तीन-ए-क़ातिल से गुलू-ए-कुश्ता से बेहिस ज़बान-ए-ख़ंजर से सदा लपकती है हर सम्त हर्फ़-ए-हक़ की तरह मगर वो कान जो बहरे हैं सुन नहीं सकते मगर वो क़ल्ब जो संगीं हैं हिल नहीं सकते कि उन में अहल-ए-हवस की सदा का सीसा है वो झुकते रहते हैं लब-हा-ए-इक़तिदार की सम्त वो सुनते रहते हैं बस हुक्म-ए-हाकिमान-ए-जहाँ तवाफ़ करते हैं अर्बाब-ए-गी-ओ-दार के गिर्द मगर लहू तो है बे-बाक ओ सरकश ओ चालाक ये शोला मय के प्याले में जाग उठता है लिबास-ए-अत्लस-ओ-दीबा में सरसराता है ये दामनों को पकड़ता है शाह-राहों में खड़ा हुआ नज़र आता है दाद-गाहों में ज़मीं समेट न पाएगी उस की बाँहों में छलक रहे हैं समुंदर सरक रहे हैं पहाड़ लहू पुकार रहा है लहू पुकारेगा ये वो सदा है जिसे क़त्ल कर नहीं सकते

एक ख़्वाब और

ख़्वाब अब हुस्न-ए-तसव्वुर के उफ़ुक़ से हैं परे दिल के इक जज़्बा-ए-मासूम ने देखे थे जो ख़्वाब और ताबीरों के तपते हुए सहराओं में तिश्नगी आबला-पा शोला-ब-कफ़ मौज-ए-सराब ये तो मुमकिन नहीं बचपन का कोई दिन मिल जाए या पलट आए कोई साअत-ए-नायाब-ए-शबाब फूट निकले किसी अफ़्सुर्दा तबस्सुम से किरन या दमक उट्ठे किसी दस्त-ए-बुरीदा में गुलाब आह पत्थर की लकीरें हैं कि यादों के नुक़ूश कौन लिख सकता है फिर उम्र-ए-गुज़िश्ता की किताब बीते लम्हात के सोए हुए तूफ़ानों में तैरते फिरते हैं फूटी हुई आँखों के हुबाब ताबिश-ए-रंग-ए-शफ़क़ आतिश-ए-रू-ए-ख़ुर्शीद मिल के चेहरे पे सहर आई है ख़ून-ए-अहबाब जाने किस मोड़ पे किस राह में क्या बीती है किस से मुमकिन है तमन्नाओं के ज़ख़्मों का हिसाब आस्तीनों को पुकारेंगे कहाँ तक आँसू अब तो दामन को पकड़ते हैं लहू के गिर्दाब देखती फिरती है एक एक मुँह ख़ामोशी जाने क्या बात है शर्मिंदा है अंदाज़-ए-ख़िताब दर-ब-दर ठोकरें खाते हुए फिरते हैं सवाल और मुजरिम की तरह उन से गुरेज़ाँ है जवाब सरकशी फिर मैं तुझे आज सदा देता हूँ मैं तिरा शाइर-ए-आवरा ओ बे-बाक-ओ-ख़राब फेंक फिर जज़्बा-ए-बे-ताब की आलम पे कमंद एक ख़्वाब और भी ऐ हिम्मत-ए-दुश्वार-पसंद

परवीन-शाकिर

बहार-ए-हुस्न जवाँ-मर्ग सूरत-ए-गुल-ए-तर मिसाल-ए-ख़ार मगर उम्र-ए-दर्द-ए-इश्क़ दराज़ वो विद्यापति की शाइ'री की मासूम-ओ-हसीन-ओ-शोख़ राधा वो अपने ख़याल का कनहैया इन शहरों में ढूँडने गई थी दस्तूर था जिन का संग-बारी वो 'फ़ैज़'-ओ-'फ़िराक़' ज़ियादा तक़्दीस-ए-बदन की नग़्मा-ख़्वाँ थी तहज़ीब-ए-बदन की राज़-दाँ थी गुलनार बदन की तहनियत में गुलनार लबों से गुल-फ़िशाँ थी लब-आश्ना लब ग़ज़ल के मिसरे जिस्म-आश्ना जिस्म नज़्म-पैकर लफ़्ज़ों की हथेलियाँ हिनाई तश्बीहों की उँगलियाँ गुलाबी सरसब्ज़ ख़याल का गुलिस्ताँ मुबहम से कुछ आँसुओं के चश्मे आहों की वो हल्की सी हवाएँ सद-बर्ग हवा में मुंतशिर थे तितली थी कि रक़्स कर रही थी और दर्द के बादलों से छन कर नग़्मों की फुवारे पड़ रही थी पुर-शोर मुनाफ़िक़त के बाज़ार अफ़्वाहें फ़रोख़्त कर रहे थे वो अपनी शिकस्ता शख़्सियत को अशआ'र की चादरों के अंदर इस तरह समेटने लगी थी एहसास में आ रही थी वुसअ'त नज़रों का उफ़ुक़ बदल रहा था और दर्द-ए-जहान-ए-आदमियत टूटे हुए दिल में ढल रहा था इस आलम-ए-कैफ़-ओ-कम में इक दिन इक हादसे का शिकार हो कर जब ख़ूँ का कफ़न पहन लिया तो उड़तीं सलीबें नौहा-ख़्वाँ थीं ख़ामोश था कर्ब-ए-ख़ुद-कलामी अब कुछ नहीं रह गया है बाक़ी बाक़ी है सुख़न की दिल-नवाज़ी 2 जन्नत में है जश्न-ए-नौ का सामाँ महफ़िल में 'मजाज़'-ओ-'बाइरन' हैं मौजूद हैं 'कीट्स' और 'शैली' ये मर्ग-ए-जवाँ के सारे आशिक़ ख़ुश हैं कि ज़मीन-ए-पाक से इक नौ-मर्ग-ए-बहार आ गई है लिपटी हुई ख़ाक की है ख़ुश्बू और साया-फ़गन सहाब-ए-रहमत

हसीन-तर

कल एक तू होगी और इक मैं कोई रक़ीब-ए-रफ़ीक़-सूरत कोई रफ़ीक़-ए-रक़ीब-सामाँ मिरे तिरे दरमियाँ न होगा हमारी उम्र-ए-रवाँ की शबनम तिरी सियह काकुलों की रातों में तार चाँदी के गूँध देगी तिरे हसीं आरिज़ों के रंगीं गुलाब बेले के फूल होंगे शफ़क़ का हर रंग ग़र्क़ होगा लतीफ़ ओ पुर-कैफ़ चाँदनी में तिरी किताब-ए-रुख़-ए-जवाँ पर कि जो ग़ज़ल की किताब है अब ज़माना लिक्खेगा इक कहानी और अन-गिनत झुर्रियों के अंदर मिरी मोहब्बत के सारे बोसे हज़ार लब बन के हँस पड़ेंगे हम अपनी बीती हुई शबों की सलोनी परछाइयों को ले कर हम अपने अहद-ए-तरब की शाम ओ सहर की रानाइयों को ले कर पुरानी यादों के जिस्म-ए-उर्यां के वास्ते पैरहन बुनेंगे फिर एक तू होगी और इक मैं कोई रक़ीब-ए-रफ़ीक़-सूरत को रफ़ीक़-ए-रक़ीब-सामाँ मिरे तिरे दरमियाँ न होगा हवस की नज़रों को तेरे रुख़ पर जमाल-ए-नौ का गुमाँ न होगा फ़क़त मिरी हुस्न-ए-आज़मूदा नज़र ये तुझ को बता सकेगी कि तेरी पीरी का हुस्न तेरे शबाब से भी हसीन-तर है

क़त्ल-ए-आफ़्ताब

शफ़क़ के रंग में है क़त्ल-ए-आफ़्ताब का रंग उफ़ुक़ के दिल में है ख़ंजर लहू-लुहान है शाम सफ़ेद शीशा-ए-नूर और सियाह बारिश-ए-संग ज़मीं से ता-ब-फ़लक है बुलंद रात का नाम यक़ीं का ज़िक्र ही क्या है कि अब गुमाँ भी नहीं मक़ाम-ए-दर्द नहीं मंज़िल-ए-फ़ुग़ाँ भी नहीं वो बे-हिसी है कि जो क़ाबिल-ए-बयाँ भी नहीं कोई तरंग ही बाक़ी रही न कोई उमंग जबीन-ए-शौक़ नहीं संग-ए-आस्ताँ भी नहीं रक़ीब जीत गए ख़त्म हो चुकी है जंग दिलों में शोला-ए-ग़म बुझ गया है क्या कीजे कोई हसीन नहीं किस से अब वफ़ा कीजे सिवाए इस के कि क़ातिल ही को दुआ दीजे मगर ये जंग नहीं वो जो ख़त्म हो जाए इक इंतिहा है फ़क़त हुस्न-ए-इब्तिदा के लिए बिछे हैं ख़ार कि गुज़़रेंगे क़ाफ़िले गुल के ख़मोशी मोहर-ब-लब है किसी सदा के लिए उदासियाँ हैं ये सब नग़्मा-ओ-नवा के लिए वो पहना शम्अ ने फिर ख़ून-ए-आफ़्ताब का ताज सितारे ले के उठे नूर-ए-आफ़्ताब के जाम पलक पलक पे फ़िरोज़ाँ हैं आँसुओं के चराग़ लवें लचकती हैं या बिजलियाँ चमकती हैं तमाम पैरहन-ए-शब में भर गए हैं शरार हज़ार लब से ज़मीं कह रही है क़िस्सा-ए-दर्द हज़ार गोश-ए-जुनूँ सुन रहे हैं अफ़्साना चटक रही हैं कहीं तीरगी की दीवारें लचक रही हैं कहीं शाख़-ए-गुल की तलवारें सनक रही है कहीं दश्त-ए-सर-कशी में हवा चहक रही है कहीं बुलबुल-ए-बहार-नवा महक रहा है वफ़ा के चमन में दिल का गुलाब छलक रही है लब ओ आरिज़ ओ नज़र की शराब जवान ख़्वाबों के जंगल से आ रही है नसीम नफ़स में निकहत-ए-पैग़ाम-ए-इंक़लाब लिए ख़बर है क़ाफ़िला-ए-रंग-ओ-नूर निकलेगा सहर के दोश पे इक ताज़ा आफ़्ताब लिए

हर्फ़-ए-आख़िर

ये आदमी की गुज़रगाह-ए-शाहराह-ए-हयात हज़ारों साल का बार-ए-गराँ उठाए हुए जबीं पे कातिब-ए-तक़दीर की जली तहरीर गले से सैकड़ों नक़्श-ए-क़दम लगाए हुए गुज़रते वक़्त के गर्द-ओ-ग़ुबार के नीचे हसीन जिस्म की ताबिंदगी छुपाए हुए गुज़िश्ता दौर की तहज़ीब की मनाज़िल को जवान माँ की तरह गोद में सुलाये हुए ये आदमी की गुज़रगाह-ए-शाहराह-ए-हयात हज़ारों साल का बार-ए-गराँ उठाए हुए इधर से गुज़रे हैं चंग़ेज़-ओ-नादिर-ओ-तैमूर लहू में भीगी हुई मिशअलें जलाए हुए ग़ुलामों और कनीज़ों के कारवाँ आए ख़ुद अपने ख़ून में डूबे हुए नहाए हुए शिकस्ता दोश पे दीवार-ए-चीन को लादे सरों पे मिस्र के एहराम को उठाए हुए जलाल-ए-शैख़-ओ-शिकोह-ए-बरहमनी के जुलूस हवस के सीनों में आतिश-कदे छुपाए हुए जहालतों की तवील-ओ-अरीज़ परछाईं तवहहुमात की तारीकियाँ जगाए हुए सफ़ेद क़ौम के अय्यार ताजिरों के गिरोह फ़रेब-ओ-मक्र से अपनी दुकाँ सजाए हुए शिकस्त-ख़ुर्दा सियासी गदागरों के हुजूम अदब से टूटी हुई गर्दनें झुकाए हुए ग़मों से चूर मुसाफ़िर थके हुए राही चराग़-ए-रूह के दिल के कँवल बुझाए हुए ये आदमी की गुज़रगाह-ए-शाहराह-ए-हयात हज़ारों साल का बार-ए-गराँ उठाए हुए नए उफ़ुक़ से नए क़ाफ़िलों की आमद है चराग़-ए-वक़्त की रंगीन लौ बढ़ाए हुए बग़ावतों की सिपह इंक़लाब के लश्कर ज़मीं पे पाँव फ़लक पे नज़र जमाए हुए ग़ुरूर-ए-फ़त्ह के परचम हवा में लहराते सबात-ओ-अज़्म के ऊँचे अलम उठाए हुए हथेलियों पे लिए आफ़्ताब और महताब बग़ल में कुर्रा-ए-अर्ज़-ए-हसीं दबाए हुए उठो और उठ के इन्हें क़ाफ़िलों में मिल जाओ जो मंज़िलों को हैं गर्द-ए-सफ़र बनाए हुए क़दम बढ़ाए हुए हैं मुजाहिदान-ए-वतन मुजाहिदान-ए-वतन हैं क़दम बढ़ाए हुए

एक बात

इस पे भूले हो कि हर दिल को कुचल डाला है इस पे भूले हो कि हर गुल को मसल डाला है और हर गोशा-ए-गुलज़ार में सन्नाटा है किसी सीने में मगर एक फ़ुग़ाँ तो होगी आज वो कुछ न सही कल को जवाँ तो होगी वो जवाँ हो के अगर शोला-ए-जव्वाला बनी वो जवाँ हो के अगर आतिश-ए-सद-साला बनी ख़ुद ही सोचो कि सितम-गारों पे क्या गुज़रेगी

प्यास भी एक समंदर है

प्यास भी एक समुंदर है समुंदर की तरह जिस में हर दर्द की धार जिस में हर ग़म की नदी मिलती है और हर मौज लपकती है किसी चाँद से चेहरे की तरफ़

एक सवाल

मा'लूम नहीं ज़ेहन की पर्वाज़ की ज़द में सरसब्ज़ उमीदों का चमन है कि नहीं है लेकिन ये बता वक़्त का बहता हुआ धारा तूफ़ान-गर ओ कोह-शिकन है कि नहीं है सरमाए के सिमटे हुए होंटों का तबस्सुम मज़दूर के चेहरे की थकन है कि नहीं वो ज़ेर-ए-उफ़ुक़ सुब्ह की हल्की सी सपेदी ढलते हुए तारों का कफ़न है कि नहीं है पेशानी-ए-अफ़्लास से जो फूट रही है उठते हुए सूरज की किरन है कि नहीं है

शुऊर

मिरी रगों में चहकते हुए लहू को सुनो हज़ारों लाखों सितारों ने साज़ छेड़ा है हर एक बूँद में आफ़ाक़ गुनगुनाते हैं ये शर्क़ ओ ग़र्ब शुमाल ओ जुनूब पस्त ओ बुलंद लहू में ग़र्क़ हैं और शश-जहात का आहंग ज़मीं की पेंग तुलू-ए-नुजूम-ओ-शम्स-ओ-क़मर ग़ुरूब-ए-शाम ज़वाल-ए-शब ओ नुमूद-ए-सहर तमाम आलम-ए-रानाई बज़्म-ए-बरनाई कँवल की तरह खिले हैं लहू की झीलों में है काएनात मिरे दिल की धड़कनों में असीर मैं एक ज़र्रा बिसात-ए-निज़ाम-ए-शम्सी पर मैं एक नुक़्ता सर-ए-काएनात-ए-वहम-ओ-शुऊर एक क़तरा अनल-बहर है सदा मेरी मैं काएनात में तन्हा हूँ आफ़्ताब की तरह मिरे लहू में रवाँ वेद भी हैं क़ुरआँ भी शजर हजर भी हैं सहरा भी हैं गुलिस्ताँ भी कि मैं हूँ वारिस-ए-तारीख़-ए-अस्र-ए-इंसानी क़दम क़दम पे जहन्नम क़दम क़दम पे बहिश्त

सर-ए-तूर

दिल को बे-ताब रखती है इक आरज़ू कम है ये वुसअत-ए-आलम-ए-रंग-ओ-बू ले चली है किधर फिर नई जुस्तुजू ता-ब हद्द-ए-नज़र उड़ के जाते हैं हम वो जो हाइल थे राहों में शम्स ओ क़मर हम-सफ़र उन को अपना बनाते हैं हम है ज़मीं पर्दा-ए-लाला-ओ-नस्तरन आसमाँ पर्दा-ए-कहकशाँ है अभी राज़-ए-फ़ितरत हुआ लाख हम पर अयाँ राज़-ए-फ़ितरत निहाँ का निहाँ है अभी जिस की सदियों उधर हम ने की इब्तिदा ना-तमाम अपनी वो दास्ताँ है अभी मंज़िलें उड़ गईं बन के गर्द-ए-सफ़र रहगुज़ारों ही में कारवाँ है अभी पी के नाकामियों की शराब-ए-कुहन अपना ज़ौक़-ए-तजस्सुस जवाँ है अभी हाथ काटे गए जुरअत-ए-शौक़ पर ख़ूँ-चकाँ हो के वो गुल-फ़िशाँ हो गए हैरतों ने लगाई जो मोहर-ए-सुकूत लब ख़मोशी में जादू बयाँ हो गए रास्ते में जो कोहसार आए तो हम ऐसे तड़पे कि सैल-ए-रवाँ हो गए हैं अज़ल से ज़मीं के कुरे पर अमीर हो के महदूद हम बे-कराँ हो गए ज़ौक़-ए-परवाज़ भी दिल की इक जस्त है ख़ाक से ज़ीनत-ए-आसमाँ हो गए अक़्ल-ए-चालाक ने दी है आ कर ख़बर इक शबिस्ताँ है ऐवान-ए-महताब में मुंतज़िर हैं निगारान-ए-आतिश-बदन जगमगाती फ़ज़ाओं की मेहराब में कितने दिलकश हसीं ख़्वाब बेदार हैं माह ओ मिर्रीख़ की चश्म-ए-बे-ख़्वाब में खींच फिर ज़ुल्फ़-ए-माशूक़ा-ए-नीलगूँ ले ले शोले को फिर दस्त-ए-बेताब में मुज़्दा हो मह-जबीनान--ए-अफ़्लाक को बज़्म-ए-गीती का साहब नज़र आ गया तहनियत हुस्न को बे-नक़ाबी की दो दीदा-वर आ गया पर्दा-दार आ गया आसमाँ से गिरा था जो कल टूट कर वो सितारा ब-दोश-ए-क़मर आ गया ले के पैमाना-ए-दर्द-ए-दिल हाथ में मल के चेहरे पे ख़ून-ए-जिगर आ गया बज़्म-ए-सय्यार्गान-ए-फ़लक-सैर में इक हुनर-मंद सैय्यारा-गर आ गया शौक़ की हद मगर चाँद तक तो नहीं है अभी रिफ़अत-ए-आसमाँ और भी है सुरय्या के पीछे सुरय्या रवाँ कहकशाँ से परे कहकशाँ और भी झाँकती हैं फ़ज़ाओं के पेचाक से रंग और नूर की वादियाँ और भी और भी मंज़िलें, और भी मुश्किलें हैं अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी आज दस्त-ए-जुनूँ पर है शम-ए-ख़िरद दो जहाँ जिस के शोले से मामूर हैं ले के आएँ पयाम-ए-तुलू-ए-सहर जितने सूरज ख़लाओं में मस्तूर हैं कह दो बर्क़-ए-तजल्ली से हो जल्वा-गर आज मूसा नहीं हम सर-ए-तूर हैं

तख़्लीक़ का कर्ब

अभी अभी मिरी बे-ख़्वाबियों ने देखी है फ़ज़ा-ए-शब में सितारों की आख़िरी परवाज़ ख़बर नहीं कि अंधेरे के दिल की धड़कन है कि आ रही है उजालों के पाँव की आवाज़ बताऊँ क्या तुझे नग़्मों के कर्ब का आलम लहू-लुहान हुआ जा रहा है सीना-ए-साज़

प्यास की आग

मैं कि हूँ प्यास के दरिया की तड़पती हुई मौज पी चुका हूँ मैं समुंदर का समुंदर फिर भी एक इक क़तरा-ए-शबनम को तरस जाता हूँ क़तरा-ए-शबनम-ए-अश्क क़तरा-ए-शबनम-ए-दिल ख़ून-ए-जिगर क़तरा-ए-नीम-नज़र या मुलाक़ात के लम्हों के सुनहरी क़तरे जो निगाहों की हरारत से टपक पड़ते हैं और फिर लम्स के नूर और फिर बात की ख़ुश्बू में बदल जाते हैं मुझ को ये क़तरा-ए-शादाब भी चख लेने दो दिल में ये गौहर-ए-नायाब भी रख लेने दो ख़ुश्क हैं होंट मिरे ख़ुश्क ज़बाँ है मेरी ख़ुश्क है दर्द का, नग़्मे का गुलू मैं अगर पी न सका वक़्त का ये आब-ए-हयात प्यास की आग में डरता हूँ कि जल जाऊंगा

ताशक़ंद की शाम

मनाओ जश्न-ए-मोहब्बत कि ख़ूँ की बू न रही बरस के खुल गए बारूद के सियह बादल बुझी बुझी सी है जंगों की आख़िरी बिजली महक रही है गुलाबों से ताशक़ंद की शाम जगाओ गेसू-ए-जानाँ की अम्बरीं रातें जलाओ साअद-ए-सीमीं की शम-ए-काफ़ूरी तवील बोसों के गुल-रंग जाम छलकाओ ये सुर्ख़ जाम है ख़ूबान-ए-ताशक़ंद के नाम ये सब्ज़ जाम है लाहौर के हसीनों का सफ़ेद जाम है दिल्ली के दिलबरों के लिए घुला है जिस में मोहब्बत के आफ़्ताब का रंग खुली हुई है उफ़ुक़ पर शफ़क़ तबस्सुम की नसीम-ए-शौक़ चली मेहरबाँ तकल्लुम की लबों की शोला-फ़िशानी है शबनम-अफ़्शानी इसी में सुब्ह-ए-तमन्ना नहा के निखरेगी किसी की ज़ुल्फ़ न अब शाम-ए-ग़म में बिखरेगी जवान ख़ौफ़ की वादी से अब न गुज़़रेंगे जियाले मौत के साहिल पे अब न उतरेंगे भरी न जाएगी अब ख़ाक-ओ-ख़ूँ से माँग कभी मिलेगी माँ को न मर्ग-ए-पिसर की ख़ुश-ख़बरी कोई न देगा यतीमों को अब मुबारकबाद खिलेंगे फूल बहुत सरहद-ए-तमन्ना पर ख़बर न होगी ये नर्गिस है किस की आँखों की ये गुल है किस की जबीं किस का लब है ये लाला ये शाख़ किस के जवाँ बाज़ुओं की अंगड़ाई बस इतना होगा ये धरती है शहसवारों की जहान-ए-हुस्न के गुमनाम ताजदारों की ये सरज़मीं है मोहब्बत के ख़्वास्तगारों की जो गुल पे मरते थे शबनम से प्यार करते थे ख़ुदा करे कि ये शबनम यूँ ही बरसती रहे ज़मीं हमेशा लहू के लिए तरसती रहे

अब भी रौशन हैं

अब भी रौशन हैं वही दस्त हिना-आलूदा रेग-ए-सहरा है न क़दमों के निशाँ बाक़ी हैं ख़ुश्क अश्कों की नदी ख़ून की ठहरी हुई धार भूले-बिसरे हुए लम्हात के सूखे हुए ख़ार हाथ उठाए हुए अफ़्लाक की जानिब अश्जार कामरानी ही की गिनती न हज़ीमत का शुमार सिर्फ़ इक दर्द का जंगल है फ़क़त हू का दयार जब गुज़रती है मगर ख़्वाबों के वीराने से अश्क-आलूदा तबस्सुम के चराग़ों की क़तार जगमगा उठते हैं गेसू-ए-सबा-आलूदा टोलियाँ आती हैं नौ-उम्र तमन्नाओं की दश्त-ए-बे-रंग-ए-ख़मोशी में मचाती हुई शोर फूल माथे से बरसते हैं नज़र से तारे एक इक गाम पे जादू के महल बनते हैं नद्दियाँ बहती हैं आँचल से हवा चलती है पत्तियाँ हँसती हैं उड़ता है किरन का सोना ऐसा लगता है कि बे-रहम नहीं है दुनिया ऐसा लगता है कि बे-ज़ुल्म ज़माने के हैं हाथ बेवफ़ाई भी हो जिस तरह वफ़ा-आलूदा और फिर शाख़ों से तलवारें बरस पड़ती हैं जब्र जाग उठता है सफ़्फ़ाकी जवाँ होती है साए जो सब्ज़ थे पड़ जाते हैं पल भर में सियाह और हर मोड़ पे इफ़्रीतों का होता है गुमाँ कोई भी राह हो मक़्तल की तरफ़ मुड़ती है दिल में ख़ंजर के उतरने की सदा आती है तीरगी ख़ूँ के उजाले में नहा जाती है शाम-ए-ग़म होती है नमनाक ओ ज़िया-आलूदा यही मज़लूमों की जीत और यही ज़ालिम की शिकस्त कि तमन्नाएँ सलीबों से उतर आती हैं अपनी क़ब्रों से निकलती हैं मसीहा बन कर क़त्ल-गाहों से वो उठती हैं दुआओं की तरह दश्त ओ दरिया से गुज़रती हैं हवाओं की तरह मोहर जब लगती है होंटों पे ज़बाँ पर ताले क़ैद जब होती है सीने में दिलों की धड़कन रूह चीख़ उठती है हिलते हैं शजर और हजर ख़ामुशी होती है कुछ और नवा-आलूदा सर-कशी ढूँढती है ज़ौक़-ए-गुनहगारी को ख़ुद से शर्मिंदा नहीं औरों से शर्मिंदा नहीं ये मिरा दिल कि है मासूम ओ ख़ता-आलूद

पैराहन-ए-शरर

खड़ा है कौन ये पैराहन-ए-शरर पहने बदन है चूर तो माथे से ख़ून जारी है ज़माना गुज़रा कि फ़रहाद ओ क़ैस ख़त्म हुए ये किस पे अहल-ए-जहाँ हुक्म-ए-संग-बारी है यहाँ तो कोई भी शीरीं अदा-निगार नहीं यहाँ तो कोई भी लैला बदन-बहार नहीं ये किस के नाम पे ज़ख़्मों की लाला-कारी है कोई दिवाना है लेता है सच का नाम अब तक फ़रेब-ओ-मक्र को करता नहीं सलाम अब तक है बात साफ़ सज़ा इस की संग-सारी है

इन्फ़िरादियत

आ रहा है इक सितारा आसमाँ से टूट कर दौड़ता अपने जुनूँ की राह पर दीवाना-वार अपने दिल के शोला-ए-सोज़ाँ में ख़ुद जलता हुआ मुंतशिर करता हुआ दामान-ए-ज़ुल्मत में शरार अपनी तन्हाई पे ख़ुद ही नाज़ फ़रमाता हुआ शौक़ पर करता हुआ आईन-ए-फ़ितरत को निसार किस क़दर बेबाक कितना तेज़ कितना गर्म-रौ जिस से सय्यारों की आसूदा-ख़िरामी शर्मसार मौजा-ए-दरिया इशारों से बुलाती है क़रीब अपनी संगीन गोद फैलाए हुए है कोहसार है हवा बेचैन आँचल में छुपाने के लिए बढ़ रहा है कुर्रा-ए-गीती का शौक़-ए-इंतिज़ार लेकिन ऐसा अंजुम-ए-रौशन-जबीन ओ ताबनाक ख़ुद ही हो जाता है अपनी ताबनाकी का शिकार

दो चराग़

तीरगी के सियाह-ग़ारों से शहपरों की सदाएँ आती हैं ले के झोंकों की तेज़ तलवारें ठंडी ठंडी हवाएँ आती हैं बर्फ़ ने जिन पे धार रक्खी है एक मैली दुकान तीरा ओ तार इक चराग़ और एक दोशीज़ा ये बुझी सी है वो उदास सा है दोनों जाड़ों की लम्बी रातों में तीरगी और हवा से लड़ते हैं तीरगी उठ रही है मैदाँ से फ़ौज-दर-फ़ौज बादलों की तरह और हवाओं के हाथ हैं गुस्ताख़ तोड़े लेते हैं नन्हे शोले को नोचे लेते हैं मैले आँचल को लड़की रह रह के जिस्म ढाँपती है शोला रह रह के थर थराता है नंगी बूढ़ी ज़मीन काँपती है तीरगी अब सियह-समुंदर है और हवा हो गई है दीवानी या तो दोनों चराग़ गुल होंगे या करेंगे वो शोला-अफ़्शानी फूँक डालेंगे तीरगी की मता पर मुझे ए'तिमाद है इन पर गो ग़रीब और बे-ज़बान से हैं दोनों हैं आग दोनों हैं शोला दोनों बिजली के ख़ानदान से हैं

मॉडर्न खिलौना

खेल खिलौने पहले क्या थे नाम सुनो तुम बच्चो कुछ के छिल्लम-छू और आँख-मिचोली गिल्ली डंडा कंचा गोली अंधा भैंसा चिड़िया काँटा पीछे देखा कोड़ा खाया लट्टू चकई और तार पहिया गीड़ी कौड़ी धूल धमाका कुश्ती कब्बडी गेंद और बल्ला चार तरफ़ था ये बल्लू बल्ला गुड़िया रबड़ की पहने साड़ी चाबी से वो चलती गाड़ी नाचता भालू कूदता बंदर बीन की लय पर झूमता अजगर खेल खिलौने ये थे पुराने कोई बच्चा इन को न जाने सब आउट ऑफ़ डेट हुए हैं इन के सब कम रेट हुए हैं इन का ज़माना ख़त्म हुआ अब दौर पुराना ख़त्म हुआ अब वीडियो गेम अब छाया घर घर खेल यही है इक ताज़ा-तर इस पे फ़िदा हैं बच्चे सारे लग गए खेल अब सारे किनारे

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