हिन्दी नज़्में : अख़लाक़ मुहम्मद ख़ान 'शहरयार'

Nazmein in Hindi : Akhlaq Mohammed Khan Shahryar



अजीब काम

रेत को निचोड़ कर पानी को निकालना बहुत अजीब काम है बड़े ही इंहिमाक से ये काम कर रहा हूँ मैं

अपनी याद में

मैं अपने घाव गिन रहा हूँ दूर तितलियों के रेशमी परों के नीले पीले रंग उड़ रहे हैं हर तरफ़ फ़रिश्ते आसमान से उतर रहे हैं सफ़-ब-सफ़ मैं अपने घाव गिन रहा हूँ आँसुओं की ओस में नहा के भूले-बिसरे ख़्वाब आ गए ख़ून का दबाव और कम हुआ नहीफ़ जिस्म पर किसी के नाख़ुनों के आड़े-तिरछे नक़्श जगमगा उठे लबों पे लुकनतों की बर्फ़ जम गई तवील हिचकियों का एक सिलसिला फ़ज़ा में है लहू की बू हवा में है

अब के बरस

हवा का तआक़ुब कभी चाँद की चाँदनी को पकड़ने की ख़्वाहिश कभी सुब्ह के होंट छूने की हसरत कभी रात की ज़ुल्फ़ को गूँधने की तमन्ना कभी जिस्म के क़हर की मद्‌ह-ख्वानी कभी रूह की बे-कसी की कहानी कभी जागने की हवस को जगाना कभी नींद के बंद दरवाज़े को खटखटाना कभी सिर्फ़ आँखें ही आँखें हैं और कुछ नहीं है कभी कान हैं हाथ हैं और ज़बाँ है कभी सिर्फ़ लब हैं दिलों के धड़कने के अंदाज़ अब के बरस कुछ अजब हैं

अहद-ए-हाज़िर की दिल-रुबा मख़्लूक़

ज़र्द बल्बों के बाज़ुओं में असीर सख़्त बे-जान लम्बी काली सड़क अपनी बे-नूर धुँदली आँखों से पढ़ रही है नविश्ता-ए-तक़दीर बंद कमरों के घुप अँधेरों में बिल्लियाँ पी रही हैं दूध के जाम होटलों सिनेमा-घरों के क़रीब चमचमाती हुई नई कारें और पनवाड़ियों की दूकानें और कुछ टोलियाँ फ़क़ीरों की पर्स वालों के इंतिज़ार में हैं अध-फटे पोस्टरों के पैराहन आहनी बिल्डिंगों के जिस्मों पर कितने दिलकश दिखाई देते हैं बस की बेहिस नाशिस्तों पर बैठी दिन के बाज़ार से ख़रीदी हुई आरज़ू ग़म उमीद महरूमी नींद की गोलियाँ गुलाब के फूल केले अमरूद संतरे चावल पैंट गुड़िया शमीज़ चूहे-दान एक इक शय का कर रही है हिसाब अहद-ए-हाज़िर की दिल-रुबा मख़्लूक़!

आख़िरी साँस

शम्अ की लौ ने जब आख़िरी साँस ली आख़िर-ए-शब निगाहों से गिरने लगी ओस पहलू बदलने लगी राह की जागती गर्द सोने लगी रात और ख़ामुशी गीत बुनने लगी नक़्श-ए-बे-ख़्वाब चलने लगे हाल ओ माज़ी कहीं आँख मलने लगे मंज़िलों के निशाँ चीख़ते रह गए

आरज़ू

सोते सोते चौंक उठी जब पलकों की झंकार आबादी पर वीराने का होने लगा गुमान वहशत ने पर खोल दिए और धुँदले हुए निशान हर लम्हे की आहट बन गई साँपों की फुन्कार ऐसे वक़्त में दिल को हमेशा सूझा एक उपाए काश कोई बे-ख़्वाब दरीचा चुपके से खुल जाए

इक़्तिदार से महरूम लोगों के नाम

तुम्हारी आँख में क्या है गुलाबों की महक ने जिस्म में रौज़न बनाए हैं पलट कर देख लो दूरी की हर चट्टान गिरती है सज़ाओं के लिए तैयार हो जाओ अधूरे दाएरों में रक़्स करने के लिए हुशियार हो जाओ तुम्हारी चीख़ के नन्हे परिंदों को उड़ानों का नया मौसम मुबारक हो पतंगों की सफ़ों में खलबली क्यों है चराग़ों को धुएँ की चादरों में मुँह छपाने की नई सूरत नज़र आए ये तुम को क्या हुआ तुम आसमानों से ज़मीं पर क्यों उतर आए नुकीले नाख़ुनों से अपनी क़ब्रें खोदने वालो थकन से चूर चेहरों पर अभी तक शर्म के आसार बाक़ी हैं अंधेरे के किसी पाताल में उतरे चले जाओ तुम्हारे रतजगों ने नींद को पामाल कर डाला सख़ी आँखों के अश्कों ने तुम्हें कंगाल कर डाला तुम्हारी बे-दिली का कर्ब अब देखा नहीं जाता चलो तुम को किसी इक घूमती कुर्सी पे बैठा दें

इंतिशार से घबरा कर

समेटो इन बिखरती साअ'तों को बंद मुट्ठी खोल कर आज़ाद कर दो सारी सम्तों को निगाहों की हदों से सब मनाज़िर हटते जाते हैं सराबों के समुंदर के किनारे कटते जाते हैं सराबों के समुंदर के मुसाफ़िर छोटी छोटी टुकड़ियों में बटते जाते हैं हवा के होंट इन अल्फ़ाज़ को दोहराते जाते हैं समेटो इन बिखरती साअ'तों को बंद मुट्ठी खोल कर आज़ाद कर दो सारी सम्तों को

उम्मीद ओ बीम

मैंने अक्सर इन्हीं आँखों के दरीचे से तुझे झाँकते देखा है जब लग़्ज़िश-ए-अन्फ़ास बढ़ी तुंद-ओ-पुर-शोर सदाओं का हुजूम नूर-अफ़रोज़ ख़लाओं से हम-आग़ोश हुआ मैंने अक्सर इन्हीं आँखों के दरीचे में तुझे डूबते देखा है जब तल्ख़ी-ए-एहसास घटी ख़ामुशी रख़्त-ए-सफ़र बाँध चुकी तुंद-ओ-पुर-शोर सदाओं का हुजूम ज़ुल्मत-अंगेज़ ज़मीं-दोज़ गुफाओं का जिगर चीर के ऊँघती तन्हाई में तहलील हुआ मैंने तू ने इन्हीं आँखों के दरीचे के क़रीब रौशनी रोते हुए नूर के मीनारों को अश्क बनते हुए गिरते हुए देखा है तो क्यूँ आँधियाँ चलने लगीं ख़ौफ़ से काँप उठीं बाज़ दरीचों की लवें?

एक और मौत

कट गया दिन ढली शाम शब आ गई फिर ज़मीं अपने महवर से हटने लगी चाँदनी करवटें फिर बदलने लगी आहटों के सिसकते हुए शोर से फिर मकाँ भर गया ज़हर सपनों का पी कर कोई आज की रात फिर मर गया!

एक और साल गिरह

लो तीसवां साल भी बीत गया लो बाल रुपहली होने लगे लो कासा-ए-चश्म हुआ ख़ाली लो दिल में नहीं अब दर्द कोई ये तीस बरस कैसे काटे ये तीस बरस कैसे गुज़रे आसान सवाल है कितना ये! मालूम है मुझ को ये दुनिया किस तरह वजूद में आई है किस तरह फ़ना होगी इक दिन मालूम है मुझ को इंसाँ ने किस तरह से की तख़्लीक़-ए-ख़ुदा किस तरह बुतों को पैदा किया मालूम है मुझ को मैं क्या हूँ किस वास्ते अब तक ज़िंदा हूँ इक उस के जवाब का इल्म नहीं ये तीस बरस कैसे काटे हाँ याद है इतना में इक दिन टॉफ़ी के लिए रोया था बहुत अम्माँ ने मुझे पीटा था बहुत हाँ याद है इतना मैं इक दिन तितली का तआक़ुब करते हुए इक पेड़ से जा टकराया था हाँ इतना याद है मैं इक दिन नींदों के दयार में सपनों की परियों से लिपट कर सोया था हाँ इतना याद है मैं इक दिन घर वालों से अपने लड़-भिड़ के तोड़ आया था सब रिश्ते-नाते हाँ इतना याद है मैं इक दिन जब बहुत दुखी था तन्हा था इक जिस्म की आग में पिघला था हाँ ये भी याद है मैं इक दिन सच बोल के पछताया था बहुत अपने से भी शरमाया था बहुत हाँ ये भी याद है मुझ को कि मैं जब बहुत ही बे-कल होता था अशआर भी लिक्खा करता था हाँ ये भी याद है मुझ को कि मैं रोटी रोज़ी की तमन्ना में बड़ा ख़्वार हुआ इस दुनिया में हाँ और भी कुछ है याद मुझे मगर इस का जवाब कहाँ ये सब ये तीस बरस कैसे गुज़रे ये तीस बरस कैसे काटे अब इस के जवाब से क्या होगा चलो उठो कि सुब्ह हुई देखो चलो उठो कि अपना काम करें चलो उठो कि शहर-ए-तमन्ना में मरहम ढूँडें उन ज़ख़्मों का जो दिल ने अभी तक खाए नहीं ताबीर करें उन ख़्वाबों की जो आँखों ने दिखलाए नहीं उन लम्हों के हमराज़ बनें जो ज़ीस्त में अपनी आए नहीं चलो तीसवां साल भी बीत गया चलो मय छलकाएँ जश्न करें चलो सर को झुकाएँ सज्दे में इस उम्र-ए-फ़रोमाया का सफ़र आधे से ज़ियादा ख़त्म हुआ

एक काली नज़्म

मैं कोरे काग़ज़ पर लिखूँ फिर एक काली नज़्म अलख जगाते सन्नाटों से फिर से सजाऊँ बज़्म गद्दर अमरूदों की ख़ुश्बू पागल कर जाए मेरी इन ख़ाली आँखों को जल-थल कर जाए दूर दरिंदों की आवाज़ें ख़ुद से लड़ती हों मेरे उस के बीच में लम्बी रातें पड़ती हों शिकनों से आरी इक बिस्तर मुझ को तकता हो जिस्म मिरा जब आधा सोता आधा जगता हो तब मैं करूँ ये अज़्म कि लिखूँ कोई काली नज़्म

एक ख़ुश-ख़बरी

हँसो कि सुर्ख़ ओ गर्म ख़ून फिर सफ़ेद हो गया हँसो कि नुक़्ता-ए-उमीद फिर ख़ला के दाएरे में आज क़ैद हो गया हँसो कि दश्त-ए-आरज़ू में थक थका के सब बगूले सो गए हँसो कि शहर ज़िंदगी का बे-फ़सील हो गया हँसो कि साया-ए-सलीब फिर तवील हो गया

एक नज़्म

माइल-ब-करम हैं रातें आँखों से कहो अब माँगें ख़्वाबों के सिवा जो चाहें

एक मंज़र

नींद की सोई हुई ख़ामोश गलियों को जगाते गुनगुनाते मिशअलें पलकों पे अश्कों की जलाए चंद साए फिर रहे थे रात जब हम ख़्वाब की दुनिया से वापस आ रहे थे

एक लम्हे से दूसरे लम्हे तक

एक आहट अभी दरवाज़े पे लहराई थी एक सरगोशी अभी कानों से टकराई थी एक ख़ुश्बू ने अभी जिस्म को सहलाया था एक साया अभी कमरे में मिरे आया था और फिर नींद की दीवार के गिरने की सदा और फिर चारों तरफ़ तेज़ हवा!!

एक सियासी नज़्म

मगर बे-ज़ाइक़ा होंटों से तुम ने सख़्त चट्टानों को चूमा था वो उन की खुर्दुराहट नोक निकली छातियाँ तेज़ाबियत नमकीन काई सब की लज़्ज़त से रहे ना-आश्ना बच्चे तुम्हारे इसी बाइस तो उन के जिस्म में ख़ूँ की जगह पानी की गर्दिश है इसी बाइस वो अपनी नफ़रतों के ख़ुद हदफ़ हैं और दुश्मन उन पे हँसते हैं

एतराफ़

वो दूर बुलंद पहाड़ों पर मल्बूस फ़रिश्तों का पहने ख़्वाबों के मुहीब दरख़्तों की शाख़ों पर झूला डाले हुए परछाइयाँ छोटी बड़ी लाखों मसरूफ़ हैं ज़ख़्म-शुमारी में मैं एक नहीफ़ से नुक़्ते की बाँहों में असीर तड़पता हूँ हमवार ज़मीं पर चलने की ख़्वाहिश के अज़ाब में जलता हूँ

कच्चे रस्तों से

जो कच्चे रस्तों से पक्की सड़कों का रुख़ किया था खड़ाऊँ अपनी उतार देते बदन को कपड़ों से ढाँप लेते तुम्हारी सैराब पिंडुलीयों पर निशान जितने हैं कह रहे हैं कि तुम ने रातों को रात समझा हर एक मौसम में उस की निस्बत से फल उगाए बदन ज़रूरत-ए-ग़िज़ा हमेशा तुम्हें मिली है न जाने उफ़्ताद क्या पड़ी है जो कच्चे रस्तों से पक्की सड़कों का रुख़ किया है

खेल का नतीजा

क्यूँ मलाल है इतना हार जीत में तुम को फ़र्क़ क्यूँ नज़र आया खेल का नतीजा तो खेलने की लज़्ज़त है जो तुम्हारे हिस्से में और लोगों की निस्बत कुछ ज़ियादा आई है फिर मलाल कैसा है

ख़लीलुर्रहमान आज़मी की याद में

(अपने उस्ताद एवं मार्गदर्शक खलीलुर्रहमान आज़मी की याद में) धूल में लिपटे चेहरे वाला मेरा साया किस मंज़िल किस मोड़ पे बिछड़ा ओस में भीगी ये पगडंडी आगे जा कर मुड़ जाती है कत्बों की ख़ुश्बू आती है घर वापस जाने की ख़्वाहिश दिल में पहले कब आती है उस लम्हे की रंग-बिरंगी सब तस्वीरें पहली बारिश में धुल जाएँ मेरी आँखों में लम्बी रातें घुल जाएँ

ख़्वाब

नग़्मगी आरज़ू की बिखरी है रात शर्मा रही है अपने से होंट उम्मीद के फड़कते हैं पाँव हसरत के लड़खड़ाते हैं दूर पलकों से आँसुओं के क़रीब नींद दामन समेटे बैठी है ख़्वाब ताबीर के शिकस्ता दिल आज फिर जोड़ने को आए हैं

ख़्वाब का दर बंद है

मेरे लिए रात ने आज फ़राहम किया एक नया मरहला नींदों से ख़ाली किया अश्कों से फिर भर दिया कासा मिरी आँख का और कहा कान में मैं ने हर इक जुर्म से तुम को बरी कर दिया मैं ने सदा के लिए तुम को रिहा कर दिया जाओ जिधर चाहो तुम जागो कि सो जाओ तुम ख़्वाब का दर बंद है

गुनाह-ए-आदम

तुम ने तो शायद देखा होगा तुम ने तो शायद चक्खा होगा चाहत के उस पेड़ का मेवा मीठा मीठा कड़वा कड़वा फिर देखोगे फिर चक्खोगे चाहत के इस पेड़ का मेवा

गुम-शुदा

खुरदुरे जिस्म के नशेब-ओ-फ़राज़ जानने की हवस में जिस की ज़बाँ और सब ज़ाइक़े भुला बैठी वो निहत्ता अकेला रात के वक़्त एक दिल-दोज़ चीख़ के हम-राह जंगलों की तरफ़ गया था कभी और फिर लौट कर नहीं आया अब वो शायद कभी न आएगा उस के साए की दोनों आँखें मगर मौत से उस की बे-ख़बर हैं अभी इस की आमद की मुंतज़िर हैं अभी

चलो तुम को....

नुकीले नाख़ुनों से अपनी क़ब्रें खोदते जाओ थकन से चूर चेहरों पर अभी तक शर्म के आसार बाक़ी हैं अँधेरों के किसी पाताल में उतरे चले जाओ तुम्हारे रतजगों ने नींद को पामाल कर डाला सख़ी आँखों के अश्कों ने तुम्हें कंगाल कर डाला तुम्हारी बे-दिली का कर्ब अब देखा नहीं जाता चलो तुम को किसी इक घूमती कुर्सी पे बिठला दें

चुपके से इधर आ जाओ

दरवाज़ा-ए-जाँ से हो कर चुपके से इधर आ जाओ इस बर्फ़ भरी बोरी को पीछे की तरफ़ सरकाओ हर घाव पे बोसे छिड़को हर ज़ख़्म को तुम सहलाओ मैं तारों की इस शब को तक़्सीम करूँ यूँ सब को जागीर हो जैसे मेरी ये अर्ज़ न तुम ठुकराओ चुपके से इधर आ जाओ

जिस्म की कश्ती में आ

हवा के पाँव इस ज़ीने तलक आए थे लगता है दिए की लौ पे ये बोसा उसी का है मिरी गर्दन से सीने तक ख़राशों की लकीरों का ये गुल-दस्ता तिलिस्मी क़ुफ़्ल खुलने की इसी साअत की ख़ातिर हिज्र के मौसम गुज़ारे हैं हवा ने मुद्दतों में पाँव पानी में उतारे हैं मिरी पिसली से पैदा हो वही गंदुम की बू ले कर ज़मीं और आसमाँ की वुसअतें मुझ में सिमट आएँ उलूही लज़्ज़त-ए-नायाब से सरशार कर मुझ को मैं इक प्यासा समुंदर हूँ तू अपनी जिस्म की कश्ती में आ और पार कर मुझ को

ज़वाल की हद

बोतल के अंदर का जिन निकले तो उस से पूछें जीने का क्या ढंग करें किन सपनों से जंग करें खोलो सोडा लाओ गिलास दो आने के सीख़-कबाब सिगरेट भी लेते आना पार्क में क्या वो आई थी आज भी क्या शरमाई थी कैसे कपड़े पहने थी क्या अंदाज़ था जूड़े का तुम ने उस से पूछा था रात जो तुम ने सोचा था 'फ़ैज़' की ताज़ा नज़्म पढ़ी और 'बेदी' का अफ़्साना लूप से क्या हासिल होगा दरिया क्या साहिल होगा भूक से जनता मरती है पंजाबी सूबे के बाद चीन नई धमकी देगा इंदरा जी के भाषण में पंडित जी की बात कहाँ शास्त्री उर्दू बोलते थे जन-संघी क्यूँ सुनते थे आज किसी की बरसी थी वेस्ट-इंडीज ही जीतेगा थोड़ा सोडा और मिलाओ किधर लॉटरी है बतलाओ तुम इतने ख़ामोश हो क्यूँ नज़्म कोई कह डाली क्या तो फिर क्या है हो जाए लेकिन शर्त तरन्नुम है पंखे की स्पीड बढ़ाओ काठमांडो नेपाल में है सारतर की बीवी कैसी है हम बंदर के पोते हैं मेरठ से क़ैंची भी लाए ला-यानी हैं मर्ग ओ ज़ीस्त बे-मअ'नी हैं सब अल्फ़ाज़ बे-हिस है मख़्लूक़-ए-ख़ुदा हर इंसाँ इक साया है शादी ग़म इक धोका है दिल आँखें लब हाथ दिमाग़ एक वबा की ज़द में हैं अपने ज़वाल की हद में हैं

ज़िंदा रहने का ये एहसास

रेत मुट्ठी में कभी ठहरी है प्यास से उस को इलाक़ा क्या है उम्र का कितना बड़ा हिस्सा गँवा बैठा मैं जानते बूझते किरदार ड्रामे का बना और इस रोल को सब कहते हैं होशियारी से निभाया मैं ने हँसने के जितने मक़ाम आए हँसा बस मुझे रोने की साअत पे ख़जिल होना पड़ा जाने क्यूँ रोने के हर लम्हे को टाल देता हूँ किसी अगली घड़ी पर दिल में ख़ौफ़ ओ नफ़रत को सजा लेता हूँ मुझ को ये दुनिया भली लगती है भीड़ में अजनबी लगने में मज़ा आता है आश्ना चेहरों के बदले हुए तेवर मुझ को हाल से माज़ी में ले जाते हैं कुहनियाँ ज़ख़्मी हैं और घुटनों पर कुछ ख़राशों के निशाँ सोंधी मिट्टी की महक खींचे लिए जाती है तितलियाँ फूल हवा चाँदनी कंकर पत्थर सब मिरे साथ में हैं साँस बे-ख़ौफ़ी से लेता हूँ मैं

तन्हाई

अँधेरी रात की इस रहगुज़र पर हमारे साथ कोई और भी था उफ़ुक़ की सम्त वो भी तक रहा था उसे भी कुछ दिखाई दे रहा था उसे भी कुछ सुनाई दे रहा था मगर ये रात ढलने पर हुआ क्या हमारे साथ अब कोई नहीं है

तम्बीह

वो जो आसमाँ पे सितारा है उसे अपनी आँखों से देख लो उसे अपने होंटों से चूम लो उसे अपने हाथों से तोड़ लो कि उसी पे हमला है रात का

दरिया-ए-ख़ूँ

पानी की लय पे गाता इक कश्ती-ए-हवा में आया था रात कोई सारे बदन पे उस के लिपटे हुए थे शोले होंटों से ओस बूँदें पैहम गिरा रहा था सरगोशियों के बादल छाए हुए थे हर-सू दरिया-ए-ख़ूँ रगों में बे-ताब हो रहा था मैं हो रहा था पागल!

नए अहद का नया सवाल

ये बात रोज़-ए-अज़ल से तय है ज़मीन जिस्मों का बोझ उठाएगी आसमाँ पर रहेंगी रूहें मगर कोई है जो ये बताए हमारी परछाइयों की क़ब्रें कहाँ बनेंगी?

'नजमा' के लिए एक नज़्म

क्या सोचती हो दीवार-ए-फ़रामोशी से उधर क्या देखती हो आईना-ए-ख़्वाब में आने वाले लम्हों के मंज़र देखो आँगन में पुराने नीम के पेड़ के साए में भय्यू के जहाज़ में बैठी हुई नन्ही चिड़िया क्यूँ उड़ती नहीं जंगल की तरफ़ जाने वाली वो एक अकेली पगडंडी क्यूँ मुड़ती नहीं टूटी ज़ंजीर सदाओं की क्यूँ जुड़ती नहीं इक सुर्ख़ गुलाब लगा लो अपने जूड़े में और फिर सोचो

नज़्म

अनजाने में कोई बिचारा अगर ठोकर खा जाए दामन काँटों से उलझाए पछतावा हो उस को तो कुछ बात समझ में आए लेकिन वो जो जान-बूझ कर ख़ुद ही ठोकर खाए दामन काँटों से उलझाए

नफ़ी से इसबात तक

रात का ये समुंदर तुम्हारे लिए तुम समुंदर की ख़ातिर बने हो दिलों में कभी ख़ुश्कियों की सहर का तसव्वुर न आए इसी वास्ते तुम को बे-बादबाँ कश्तियाँ दी गई हैं सफ़र रात के उस समुंदर की गहराइयों का सफ़र-ए-बे-कराँ है अकेले हो तुम और अकेले रहोगे मगर आसमाँ की जगह आसमाँ और ज़मीं की जगह ये ज़मीं तुम से क़ाएम है दाइम है ये रात और रात के तुम अमीं हो अगर आँख में नूर का कोई मंज़र है उस की हिफ़ाज़त करो

नया अमृत

दवाओं की अलमारियों से सजी इक दुकाँ में मरीज़ों के अम्बोह में मुज़्महिल सा इक इंसाँ खड़ा है जो इक नीली कुबड़ी सी शीशी के सीने पे लिक्खे हुए एक इक हर्फ़ को ग़ौर से पढ़ रहा है मगर उस पे तो ''ज़हर'' लिख्खा हुआ है उस इंसान को क्या मरज़ है ये कैसी दवा है?

नया उफ़क़

क्या तुम को ये पता है ऐ ना-समझ रफ़ीक़ो रोज़-ए-अज़ल से जिस पर तुम गामज़न रहे हो वो रास्ता ख़ला की सरहद से जा मिला है मशअल जलाओ देखो बिफरी हुई हवा में आईना-ए-सदा में चेहरा किसी उफ़ुक़ का फिर से उभर रहा है

नया खेल

ऐ अहल-ए-शहर आओ चलो उस तरफ़ चलो कहानियों की धुँद से आगे ज़रा उधर वो सामने खुला हुआ मैदान है जहाँ इक ऐसा खेल पेश किया जाएगा वहाँ जो आज तक किसी ने भी देखा नहीं कभी यानी तुम्हारी जागती आँखों के सामने आवाज़ों के नुजूम सदाओं के माहताब सन्नाटों की सलीब पे लटकाए जाएँगे

पहले सफ़्हे की पहली सुर्ख़ी

हिमालिया की बुलंद चोटी पे बर्फ़ के एक सुबुक मकाँ में बुझी हुई मिश्अलों का जल्सा अज़ीम और आलमी मसाइल पे एक हफ़्ते से हो रहा है सिफ़्र तलक दर्जा-ए-हरारत पहुँच चुका है मज़ीद तफ़्सील राज़ में है

पैग़ाम

कश्मकश से मुफ़िर कब हुआ है जो हो जुंबिश-ए-चश्म-ए-साक़ी को पहचान लो दिल के हँसते लहू की दुआएँ सुनो गर्दिश-ए-चर्ख़ को मय के इक जाम में देख लो मय-कशो तिश्नगी ज़िंदगी की 'अलामत है पीते रहो

फिर सफ़र बे-सम्त बे-मंज़िल हुआ

बर्फ़ बे-मौसम गिरी चट्टान से मैदान तक बे-दरख़्तों की ज़मीं बे-ऊन भेड़ों के लिए ज़िंदा रहना और मरना दोनों मुश्किल हो गए आँख बे-मंज़र ख़ला को तकते तकते थक गई वक़्त की रफ़्तार को बतलाने वाली सूइयाँ हिंदिसों की बे-सिला बेकार गर्दिश करते करते रुक गईं आड़े तिरछे ऊँचे नीचे रास्ते बर्फ़ की मोटी तहों में छुप गए फिर सफ़र बे-सम्त बे-मंज़िल हुआ बर्फ़ के उजले बदन की मुनहनी नीली रगों में कौन सूरज बन के दौड़े किस तरह ये बर्फ़ पिघले आग ब-शोला हुई फिर सफ़र बे-सम्त बे-मंज़िल हुआ बे-ऊन भेड़ों के लिए ज़िंदा रहना और मरना दोनों मुश्किल हो गए

फ़रार

रात का बीतना दिन का आना कौन सी ऐसी नई बात है जिस पर हम सब इतने अफ़्सुर्दा हैं खिड़की खोलो उस तरफ़ सामने देखो वो खड़ी है छत पर

फ़रेब-दर-फ़रेब

दिन के सहरा से जब बनी जाँ पर एक मुबहम सा आसरा पा कर हम चले आए इस तरफ़ और अब रात के इस अथाह दरिया में ख़्वाब की कश्तियों को खेते हैं!

फ़ैसले की घड़ी

बारिशें फिर ज़मीनों से नाराज़ हैं और समुंदर सभी ख़ुश्क हैं खुरदुरी सख़्त बंजर ज़मीनों में क्या बोइए और क्या काटिए आँख की ओस के चंद क़तरों से क्या इन ज़मीनों को सैराब कर पाओगे गंदुम ओ जौ के ख़ोशों की ख़ुश्बू तुम्हारा मुक़द्दर नहीं आसमानों से तुम को रक़ाबत रही और ज़मीनों से तुम बे-तअल्लुक़ रहे रीढ़ की एक हड्डी पे तुम को बहुत नाज़ था ये गुमाँ भी न था एक दिन बे-लहू ये भी हो जाएगी फ़ैसले की घड़ी आ गई कुछ करो तितलियों के सुनहरे हरे सुर्ख़ नीले परों के लिए आँख की ओस के चंद क़तरों से बंजर ज़मीं के किसी गोशे में फूल फिर से उगाने की कोशिश करो

बाज़-पुर्स

दामन तो ख़ाली है अब तक घर से कब तक दूर रहेंगे ख़ाली हाथ अगर हम पहोंचे अपने वतन तो लोग कहेंगे ख़ाली हाथ चले आए हो क्या करने परदेस गए थे वापस लौट के क्यों आए हो अपना मुँह काला कर जाओ जाओ जाओ वापस जाओ

मुझ को मिलना है 'वहीद-अख़्तर' से

ज़िंदगी ये तिरा एहसान बहुत है मुझ पर 'आज़मी' ज़ीस्त है हर मोड़ पे जो साथ मिरे उस की यादों में बसर होते हैं दिन रात मिरे एक एहसान नया कर मुझ पर ज़िंदगी, मौत से तू मेरी सिफ़ारिश कर दे मुझ को मिलना है 'वहीद-अख़्तर' से

मुनज़्ज़म मनाज़िर से आगे

बहार और ख़िज़ाँ मौत और ज़िंदगी के मुनज़्ज़म मनाज़िर से आगे भी कुछ ऐसे मंज़र हैं आँखों की जिन तक रसाई नहीं है शजर जिस की सारी जड़ें आसमानों में फैली हैं और टहनियाँ खुरदुरी सख़्त लावा उगलती ज़मीं के बदन में मुसलसल उतरती चली जा रही हैं हवा के समुंदर में बे-बादबाँ कश्तियों पर दरिंदे लहू-रंग ख़ुशबू की दीवार का गहरा साया हरी सुर्ख़ नीली सियह रौशनी रौशनी की लकीरें लकीरों की आवाज़ आवाज़ का दायरा दाएरे और नुक़्ते में बढ़ता हुआ फ़ासला फ़ासला और सफ़र बहार और ख़िज़ाँ मौत और ज़िंदगी के मुनज़्ज़म मनाज़िर से आगे भी कुछ ऐसे मंज़र हैं आँखों की जिन तक रसाई नहीं है

मेरी ज़मीं

ज़ंजीरों में जकड़े हुए क़ैदी की सूरत रेग के सैल में एक बगूला हाँप रहा है अपने वजूद से ख़ौफ़-ज़दा है गर्द-ओ-ग़ुबार-ए-ख़्वाब से धुँद का नन्हा नुक़्ता फैल रहा है और उफ़ुक़ उस की ज़द में है मेरी आँखें दश्त-ए-ख़ला में नूर की एक लकीर को बनता देख रही हैं लेकिन मैं ये सोच रहा हूँ मेरी ज़मीं किस की हद में है

मौत

अभी नहीं अभी ज़ंजीर-ए-ख़्वाब बरहम है अभी नहीं अभी दामन के चाक का ग़म है अभी नहीं अभी दर बाज़ है उमीदों का अभी नहीं अभी सीने का दाग़ जलता है अभी नहीं अभी पलकों पे ख़ूँ मचलता है अभी नहीं अभी कम-बख़्त दिल धड़कता है

रतजगों का ज़वाल

वो अँधेरी रात की चाप थी जो गुज़र गई कभी खिड़कियों पे न झुक सकी किसी रास्ते में न रुक सकी उसे जाने किस की तलाश थी मिरी आँख ओस से तर रही है मुझे ख़्वाब बनने की लत रही कभी एक सूनी सी रहगुज़र पे खड़ा था मैं कभी दूर रेल की पटरियों पे पड़ा था मैं वो किसी के जिस्म की चाप थी जो गुज़र गई उसे जाने किस की तलाश थी मिरे दिल के दश्त की रेत ही में खिली थी वो मुझे इक गली में मिली थी वो उसे मुझ से शौक़-ए-विसाल था मिरे ख़्वाब मुझ से ख़फ़ा हुए मुझे नींद आई मैं सो गया यही रतजगों का ज़वाल था

रात जुदाई की रात

कटती नहीं सर्द रात ढलती नहीं ज़र्द रात रात जुदाई की रात ख़ाली गिलासों की सम्त तकती हुई आँख में क़तरा-ए-शबनम नहीं कौन लहू में बहे मेरी रगों में चले तेज़ हो साँसों का शोर जलने लगे पोर पोर आए समुंदर में जोश गिर पड़े दीवार-ए-होश सूखी हुई शाख़ पर बर्ग ओ समर खिल उठीं आओ मिरी नींद की बिखरी हुई पत्तियाँ आज समेटो ज़रा कब से खुला है बदन इस को लपेटो ज़रा एक शिकन दो शिकन बिस्तर-ए-तन्हाई पर फिर से बढ़ा दो ज़रा मुझ को रुला दो ज़रा एक पहर रात है रात जुदाई की रात

ला-ज़वाल सुकूत

मुहीब लम्बे घने पेड़ों की हरी शाख़ें कभी कभी कोई अश्लोक गुनगुनाती थीं कभी कभी किसी पत्ते का दिल धड़कता था कभी कभी कोई कोंपल दरूद पढ़ती थी कभी कभी कोई जुगनू अलख जगाता था कभी कभी कोई ताइर हवा से लड़ता था कभी कभी कोई परछाईं चीख़ पड़ती थी और इस के ब'अद मिरी आँख खुल गई मैं ने सिरहाने रक्खे हुए ताज़ा रोज़-नामे की हर एक सत्र बड़े ग़ौर से पढ़ी लेकिन ख़बर कहीं भी किसी ऐसे हादसे की न थी और इस के ब'अद मैं दीवाना-वार हँसने लगा और इस के ब'अद हर इक सम्त ला-ज़वाल सुकूत और इस के ब'अद हर इक सम्त ला-ज़वाल सुकूत

ला-ज़वाल होने का

रात की खुली खिड़की बंद होने वाली है चाँद के कटोरे में ओस भरने वाली है ये अजब सफ़र इस का अब तमाम होता है ला-ज़वाल होने का देखो क्या बहाना है कल भी इक हक़ीक़त था आज भी फ़साना है आसमान की जानिब सब के हाथ उठते हैं उस के ख़ून की सुर्ख़ी बर्ग-ओ-बार लाएगी बे-नमाज़ बंदों पर यानी उन दरिंदों पर हर क़दम मसाइब का इंतिज़ार लाएगा

वापसी

यहाँ क्या है बरहना तीरगी है ख़ला है आहटें हैं तिश्नगी है यहाँ जिस के लिए आए थे वो शय किसी क़ीमत पे भी मिलती नहीं है जो अपने साथ हम लाए थे वो भी यहीं खो जाएगा गर की न जल्दी चलो जल्दी चलो अपने मकाँ के किवाड़ों की जबीं पर सब्त होगी कोई दस्तक अभी बीते दिनों की

वामांदगी-ए-शौक़

खड़ी रहो इसी जगह इसी तरह खड़ी रहो सफ़ेद बर्फ़ की चटान क़तरा क़तरा गल रही है गलने दो सियाह और तवील रात धीरे धरे ढल रही है ढलने दो मिरी निगाह के हिसार में यूँही खड़ी रहो मैं तुम से और दूर हो रहा हूँ मुझ से मत डरो इन उँगलियों पे ओस के निशान थे जो मिट गए लबों पे एक अजनबी का नाम था जो बुझ गया हिरन की आँख ख़ौफ़ की चमक से भी तही हुई दरिंदे जंगलों को छोड़ कर कहीं चले गए खड़ी रहो इसी जगह इसी तरह खड़ी रहो

वो कौन था

वो कौन था वो कौन था तिलिस्म-ए-शहर-ए-आरज़ू जो तोड़ कर चला गया हर एक तार रूह का झिंझोड़ कर चला गया मुझे ख़ला के बाज़ुओं में छोड़ कर चला गया सितम-शिआर आसमाँ तो था नहीं उदासियों का राज़-दाँ तो था नहीं वो मेरा जिस्म-ए-ना-तावाँ तो था नहीं तो कौन था वो कौन था?

वो मोड़

फिर तिरी तितली-नुमा सूरत मुझे याद आ गई मुझ को वो लम्हा अभी भूला नहीं एक कोने में कई लोगों के साथ गुफ़्तुगू में मुंहमिक खोया हुआ मेरी आँखों ने कभी तुझ सा कोई देखा न था मैं तुझे तकने लगा देर तक तकता रहा आँख से कानों से होंटों से तुझे तकता रहा क्या अजब दीवानगी थी रश्क आया बख़्त पे अपने मुझे लफ़्ज़ के असरार मुझ पे वा हुए घंटियाँ सी मेरे कानों में बजीं नूर के सैलाब में डूबी हुई इस शाम की एक इक साअत तिरे हम-राह है रुक गया है वक़्त इस इक मोड़ पर मैं जुदाई के लिए मजबूर था तू जुदाई पर जहाँ मसरूर था

साए

उदास शहर की गलियों में रक़्स करते हैं बलाएँ लेते हैं आवारा-गर्द ख़्वाबों की दुआएँ देते हैं बिछड़े हुओं को मिलने की सँवारते हैं ख़म-ए-गैसू-ए-तमन्ना को पुकारते हैं किसी अजनबी मसीहा को समेट लेता है जब चाँद अपनी किरनों को तो दिन के गहरे समुंदर में डूब जाते हैं यूँही हमेशा तुलू'अ ओ ग़ुरूब होते हैं

सैगंधी

बदी भरी ये बोरियाँ न जाने कौन मोड़ तक हमारे साथ जाएँगी सफ़ेद चादरों में किस ने रात को छुपा लिया हमारी ज़िल्लतों से किस ने अपने उज़्व उज़्व को सजा लिया कि आज नाफ़ के क़रीब ख़्वाहिशों की भीड़ है उधर वो गुम्बदों की गूँज जंगलों को जाने वाले रास्ते पलट पड़े तिरी गली में हर तरफ़ से आ रहे हैं भेड़िये किवाड़ खोल देख कैसा जश्न है हवा भरा वो चाँद सात इंच नीचे आ गया ग़िज़ा मिलेगी चियूँटियों को तेरा काम हो गया हमारे नाख़ुनों के मैल से तेरे बदन के घाव भर गए ये हादसा भी हो गया मगर कहाँ से बीच में ये आसमान आ गया

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