मुनव्वरनामा : मुनव्वर राना

Munnawarnama : Munnawar Rana

ऐसे उड़ूँ कि जाल न आए ख़ुदा करे

ऐसे उड़ूँ कि जाल न आए ख़ुदा करे
रस्ते में अस्पताल न आए ख़ुदा करे

ये मादरे वतन है, मेरा मादरे वतन
इस पर कभी ज़वाल न आए ख़ुदा करे

अब उससे दोस्ती है तो फिर दोस्ती रहे
शीशे पे कोई बाल न आए ख़ुदा करे

गिड़गिड़ाए नहीं, हाँ हम्दो सना से माँगी

गिड़गिड़ाए नहीं, हाँ हम्दो सना से माँगी
भीख भी हमने जो माँगी तो ख़ुदा से माँगी

हाथ बाँधे रहे, पलकों को झुकाए रक्‍खा
दाद भी हमने जो माँगी तो हया से माँगी

ये भी उड़ जाये जो एक चिड़िया बची है घर में
इतनी मोहलत तो बहरहाल क़ज़ा से माँगी

हम तेरे एक इशारे पे लहू रंग देते
तूने ये क्या किया सुर्ख़ी भी हिना से माँगी

तुम भी साबित हुए कमज़ोर मुनव्वर राना
ज़िन्दगी माँगी भी तुमने तो दवा से माँगी

किसी के ज़ख्म पर चाहत से पट्टी कौन बाँधेगा

किसी के ज़ख्म पर चाहत से पट्टी कौन बाँधेगा
अगर बहनें नही होंगी तो राखी कौन बाँधेगा

जहाँ लड़की की इज़्ज़त लूटना इक खेल बन जाए
वहाँ पर ये कबूतर तेरे चिट्ठी कौन बाँधेगा

ये बाज़ारे सियासत है यहाँ ख़ुददारियाँ कैसी
सभी के हाथ में कासा है मुट्ठी कौन बाँधेगा

तुम्हारी महफ़िलों में हम बड़े बूढ़े ज़रूरी हैं
अगर हम ही नहीं होंगे तो पगड़ी कौन बाँधेगा

परेशाँ तो यहाँ पर सब हैं लेकिन तय नहीं होता
कि बिल्ली के गले में बढ़ के घंटी कौन बाँधेगा

मसनद नशीन हो के न कुर्सी पे बैठ कर

मसनद नशीन हो के न कुर्सी पे बैठ कर
गुज़रेंगे पुलसिरात से नेकी पे बैठ कर

इस अह्द में हज़ार के नोटों की कद्र है
गाँधी भी ख़ुश नहीं थे चवन्नी पे बैठकर

गेहूँ के साथ घुन को भी पिसते हुए जनाब
देखा है हमने गाँव की चक्की पे बैठ कर

बच्चे को अपने दाना भराती थी फ़ाख़्ता
माँ के समान पेड़ की टहनी पे बैठ कर

रिश्ता कबूतरों से मेरा बचपने का है
खाते थे मेरे साथ चटाई पे बैठ कर

यादों की रेल आज वहीं आ के रुक गई
खेले थे हम जहाँ कभी पटरी पे बैठकर

दरबार में जब ओहदे के लिए पैरों पे अना गिर जाती है

दरबार में जब ओहदे के लिए पैरों पे अना गिर जाती है
क़ौमों के सर झुक जाते हैं चकरा के हया गिर जाती है

अब तक तो हमारी आँखों ने बस दो ही तमाशे देखे हैं
या क़ौम के रहबर गिरते हैं या लोकसभा गिर जाती है

पहले भी हथेली छोटी थी अब भी ये हथेली छोटी है
कल इससे शकर गिर जाती थी अब इससे दवा गिर जाती है

चिड़ियों के ठिकाने गिरने लगे बच्चों की किताबें उड़ने लगीं
तितली को गिराने की ज़िद में तू कितनी हवा गिर जाती है

हम जैसे फ़क़ीरों की दुनिया, दुनिया से अलग इक दुनिया है
हम जैसे ही झुकने लगते हैं, शाने से रिदा गिर जाती है

जिसने भी इस ख़बर को सुना सर पकड़ लिया

जिसने भी इस ख़बर को सुना सर पकड़ लिया
कल इक दिये ने आँधी का कालर पकड़ लिया

उसकी रगों में दौड़ रहा था मेरा लहू
बेटे ने बढ़ के दस्ते सितमगर पकड़ लिया

जिसकी बहादुरी के क़सीदे लिखे गए
निकला शिकार पर तो कबूतर पकड़ लिया

इक उम्र तक तो मुझको रहा तेरा इन्तिज़ार
फिर मेरी आरज़ूओं ने बिस्तर पकड़ लिया

तितली ने एहतिजाज की क़िस्मत संवार दी
भौरे ने जब कभी उसे छत पर पकड़ लिया

अपने बाजू पे मुक़द्दस सी इक आयत बाँधे

अपने बाजू पे मुक़द्दस सी इक आयत बाँधे
घर से निकला हूँ इमामों की ज़मानत बाँधे

कितना मुश्किल है विरासत को बचाए रखना
दर ब दर फिरता हूँ गठरी में शराफ़त बाँधे

रात के ख़्वाब की ताबीर से डर लगता है
कुछ ज़िना ज़ादे थे दस्तारे फ़ज़ीलत बाँधे

ज़िन्दगी रोज़ मुझे ले के निकल पड़ती है
अपनी मुट्ठी में कई लोगों की क़िस्मत बाँधे

हम गुनहगार सही, उनसे बहुत अच्छे हैं
जो खड़े रहते हैं दरबारों में नीयत बाँधे

हम तो उठ आए हैं उस कूचए दिलदारी से
चाहे अब जैसे भी घुंघरू ये सियासत बाँधे

माँ को इक बार नहीं आधी सदी देखा है
अपने आँचल में बुजर्गों की नसीहत बाँधे

पठान ही नहीं यूसुफ़ ज़ई निकलता है

पठान ही नहीं यूसुफ़ ज़ई निकलता है
जिसे बखील समझिए सख़ी निकलता है

वसीला ये भी है अल्लाह तक पहुँचने का
मदद के वक़्त लबों से अली निकलता है

न जाने कितने ही पर्दे उलट के देख लिए
हर एक पर्दे के पीछे वही निकलता है

लिखा है जब मेरी क़िस्मत में लखनवी होना
तो इस्तिख़ारे में क्यों देहलवी निकलता है

अपने चेहरों को तबस्सुम से सजाए हुए लोग

अपने चेहरों को तबस्सुम से सजाए हुए लोग
कैसे होते हैं मुहब्बत में सताए हुए लोग

किसी महफ़िल, किसी दरबार के लायक़ न रहे
तेरे कूचे से हिक़ारत से उठाए हुए लोग

कैसे आपस में ज़मीनों के लिए लड़ते हैं
तेरी बस्ती में ये सहराओं से आए हुए लोग

शाम के वक़्त परिन्दों का पलटना घर को
अच्छे लगते हैं ये परदेश से आए हुए लोग

मेरे हालात बिगड़ने की दुआ करते हैं
ये वही सब हैं, वही मेरे बनाए हुए लोग

आ कहीं मिलते हैं हम ताकि बहारें आ जायें

आ कहीं मिलते हैं हम ताकि बहारें आ जायें
इससे पहले कि तअल्लुक़ में दरारें आ जायें

ये जो ख़ुददारी का मैला सा अँगोछा है मेरा
मैं अगर बेच दूँ इसको कई कारें आ जायें

दुश्मनी हो तो फिर ऐसी कि कोई एक रहे
या तअल्लुक़ हो तो ऐसा ही पुकारें आ जायें

ज़िन्दगी दी है तो फिर इतनी सी मोहलत दे दे
एक कम ज़र्फ़ का एहसान उतारें आ जायें

ये भी मुमकिन है उन्हीं में कहीं हम लेटे हों
तुम ठहर जाना जो रस्ते में मज़ारें आ जायें

हाय, क्या लोग थे हर शाम दुआ करते थे
लौट कर सारे परिन्दों की क़तारें आ जायें

हम फ़सीलों को सजा देंगे सरों से अपने

हम फ़सीलों को सजा देंगे सरों से अपने
आप शर्मिन्दा न हों नौहागरों से अपने

जिस घड़ी बाग़ में कलियों पे शबाब आता है
तितलियाँ ताली बजाती हैं परों से अपने

शेर के पेट से बकरी नहीं वापस आती
पूछिए जा के कभी जादूगरों से अपने

मज़हबी लोग सियासत में जब आ जाते हैं
फिर निकलते नहीं बच्चे भी घरों से अपने

कैफ़ियत एक सी अब दोनों तरफ़ है शायद
हम भी उकताने लगे चारागरों से अपने

लौट कर जैसे भी हो जाने पिदर! आ जाना

लौट कर जैसे भी हो जाने पिदर! आ जाना
ऐसी वैसी जो ख़बर सुनना तो घर आ जाना

वक़्ते रुख्सत मुझे इज्ज़त से सलामी देने
जब डुबोने लगे दरिया तो नज़र आ जाना

यह अना होती ही ऐसी है इसे क्या कीजै
आम सी बात है बेटे में असर आ जाना

मौत ख़ुद अपने ठिकाने पे बुला लेती है
हमने देखा है मियाँ च्यूँटि के पर आ जाना

आज भी उसके तसव्वुर से सुकूँ मिलता है
जैसे सहरा में कोई पेड़ नज़र आ जाना

तेरी महफ़िल से अगर हम न निकाले जाते

तेरी महफ़िल से अगर हम न निकाले जाते
हम तो मर जाते मगर तुझको बचा ले जाते

दबदबा बाक़ी है दुनिया में अभी तक वर्ना
लोग मिंबर से इमामों को उठा ले जाते

बेवफ़ाई ने हमें तोड़ दिया है वर्ना
गिरते पड़ते ही सही ख़ुद को संभाले जाते

हर घड़ी मौत तक़ाज़े को खड़ी रहती है
कब तलक हम उसे वादे पे टाले जाते

ग़ज़ल हर अह्द में हम से सलीक़ा पूछने आई

ग़ज़ल हर अह्द में हम से सलीक़ा पूछने आई
बरेली में कहाँ मिलता है सुर्मा पूछने आई

मिला है ये सिला शायद हमें काँटों पे चलने का
कि हर ख़ुशबू हमीं से अपना शिजरा पूछने आई

मेरे लहजे की सफ़्फ़ाकी के चर्चे आम हैं इतने
कई दिन तक तो इक तलवार नुस्ख़ा पूछने आई

सुना है एक मृग नयनी ने आँखें फोड़ लीं अपनी
जब उससे मयकदे की राह दुनिया पूछने आई

मैं जब दुनिया में था तो हाल तक पूछा नहीं मेरा
मैं जब चलने लगा तो सारी दुनिया पूछने आई

इस रेत के घरौंदे को बेटे, महल समझ

इस रेत के घरौंदे को बेटे, महल समझ
मैं जो भी लिख रहा हूँ उसी को ग़ज़ल समझ

बीमारियों को अपने गुनाहों में कर शुमार
ज़िन्दा है तू तो इसको दुआओं का फल समझ

उसकी तरफ़ से फूल भी आयेंगे एक रोज़
पत्थर उठा के चूम ले इसको पहल समझ

बड़े सलीक़े से इक आशना के लहजे में

बड़े सलीक़े से इक आशना के लहजे में
मरज़ पुकार रहा था दवा के लहजे में

किसे ख़बर थी कि ये दिन भी देखना होगा
चराग़ बोल रहे हैं हवा के लहजे में

मैं अपने बारे में कहना ही उससे भूल गया
अजीब दर्द था उस फ़ाख़्ता के लहजे में

बस एक बार किसी से लिपट के रोई थी
लहू टपकता है अब तक हिना के लहजे में

मैं ज़िन्दगी यूँ ही चौखट पे छोड़ जाऊँगा
तुम एक बार तो बोलो वफ़ा के लहजे में

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