माहिये : निदा फ़ाज़ली

Mahiye : Nida Fazli

अल्लाह कहाँ है तू?
फिर भी जहाँ तू है
क्या सच है वहाँ है तू?

क्या ख़ूब ज़माना है
जितनी हकीकत है
उतना ही फ़साना है

छज्जे पर कबूतर है
थूप में है क़ासिद
हुजरे में क़लंदर है

डाली पे परिन्दा है
आँखों में भर लीजे
मंज़र अभी ज़िन्दा है

तन्दूर में रोटी है
भूख अधरमी है
दाढ़ी है न चोटी है

ताले में लगी चाबी
भय्या की थाली में
गुड़ रखने लगी भाभी

पागल है मिराक़ी है
मुर्दा है न ज़िन्दा
ये बच्चा इराक़ी है

बेनाम सा मरक़द है
मिट्टी हुई मिट्टी
अब जंग न सरहद है

सतरंगी दोपट्टा है
देखे जो न मुड़ के
वो उल्लू का पट्ठा है

सुर हँसी का लहराया
राधा की गागर में
फिर चाँद उतर आया

हक़गोई का हामी है
नालाँ हैं सब इससे
आईना हरामी है

हर द्वार पे मेला है
द्वार के पीछे तो
हर कोई अकेला है

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