लेकिन : जौन एलिया

Lekin : Jaun Elia

आख़िरी बार आह कर ली है

आख़िरी बार आह कर ली है
मैं ने ख़ुद से निबाह कर ली है

अपने सर इक बला तो लेनी थी
मैं ने वो ज़ुल्फ़ अपने सर ली है

दिन भला किस तरह गुज़ारोगे
वस्ल की शब भी अब गुज़र ली है

जाँ-निसारों पे वार क्या करना
मैं ने बस हाथ में सिपर ली है

जो भी माँगो उधार दूँगा मैं
उस गली में दुकान कर ली है

मेरा कश्कोल कब से ख़ाली था
मैं ने इस में शराब भर ली है

और तो कुछ नहीं किया मैं ने
अपनी हालत तबाह कर ली है

शैख़ आया था मोहतसिब को लिए
मैं ने भी उन की वो ख़बर ली है

अभी इक शोर सा उठा है कहीं

अभी इक शोर सा उठा है कहीं
कोई ख़ामोश हो गया है कहीं

है कुछ ऐसा कि जैसे ये सब कुछ
इस से पहले भी हो चुका है कहीं

तुझ को क्या हो गया कि चीज़ों को
कहीं रखता है ढूँढता है कहीं

जो यहाँ से कहीं न जाता था
वो यहाँ से चला गया है कहीं

आज शमशान की सी बू है यहाँ
क्या कोई जिस्म जल रहा है कहीं

हम किसी के नहीं जहाँ के सिवा
ऐसी वो ख़ास बात क्या है कहीं

तू मुझे ढूँड मैं तुझे ढूँडूँ
कोई हम में से रह गया है कहीं

कितनी वहशत है दरमियान-ए-हुजूम
जिस को देखो गया हुआ है कहीं

मैं तो अब शहर में कहीं भी नहीं
क्या मिरा नाम भी लिखा है कहीं

इसी कमरे से कोई हो के विदाअ'
इसी कमरे में छुप गया है कहीं

मिल के हर शख़्स से हुआ महसूस
मुझ से ये शख़्स मिल चुका है कहीं

ज़ब्त कर के हँसी को भूल गया

ज़ब्त कर के हँसी को भूल गया
मैं तो उस ज़ख़्म ही को भूल गया

ज़ात-दर-ज़ात हम-सफ़र रह कर
अजनबी अजनबी को भूल गया

सुब्ह तक वज्ह-ए-जाँ-कनी थी जो बात
मैं उसे शाम ही को भूल गया

अहद-ए-वाबस्तगी गुज़ार के मैं
वज्ह-ए-वाबस्तगी को भूल गया

सब दलीलें तो मुझ को याद रहीं
बहस क्या थी उसी को भूल गया

क्यूँ न हो नाज़ इस ज़ेहानत पर
एक मैं हर किसी को भूल गया

सब से पुर-अम्न वाक़िआ ये है
आदमी आदमी को भूल गया

क़हक़हा मारते ही दीवाना
हर ग़म-ए-ज़िंदगी को भूल गया

ख़्वाब-हा-ख़्वाब जिस को चाहा था
रंग-हा-रंग उसी को भूल गया

क्या क़यामत हुई अगर इक शख़्स
अपनी ख़ुश-क़िस्मती को भूल गया

सोच कर उस की ख़ल्वत-अंजुमनी
वाँ मैं अपनी कमी को भूल गया

सब बुरे मुझ को याद रहते हैं
जो भला था उसी को भूल गया

उन से वा'दा तो कर लिया लेकिन
अपनी कम-फ़ुर्सती को भूल गया

बस्तियो अब तो रास्ता दे दो
अब तो मैं उस गली को भूल गया

उस ने गोया मुझी को याद रखा
मैं भी गोया उसी को भूल गया

या'नी तुम वो हो वाक़ई? हद है
मैं तो सच-मुच सभी को भूल गया

आख़िरी बुत ख़ुदा न क्यूँ ठहरे
बुत-शिकन बुत-गरी को भूल गया

अब तो हर बात याद रहती है
ग़ालिबन मैं किसी को भूल गया

उस की ख़ुशियों से जलने वाला 'जौन'
अपनी ईज़ा-दही को भूल गया

लम्हे लम्हे की ना-रसाई है

लम्हे लम्हे की ना-रसाई है
ज़िंदगी हालत-ए-जुदाई है

मर्द-ए-मैदाँ हूँ अपनी ज़ात का मैं
मैं ने सब से शिकस्त खाई है

इक अजब हाल है कि अब उस को
याद करना भी बेवफ़ाई है

अब ये सूरत है जान-ए-जाँ कि तुझे
भूलने में मिरी भलाई है

ख़ुद को भूला हूँ उस को भूला हूँ
उम्र भर की यही कमाई है

मैं हुनर-मंद-ए-रंग हूँ मैं ने
ख़ून थूका है दाद पाई है

जाने ये तेरे वस्ल के हंगाम
तेरी फ़ुर्क़त कहाँ से आई है

दौलत-ए-दहर सब लुटाई है
मैंने दिल की कमाई खाई है

एक लम्हे को तीर करने में
मैंने इक ज़िंदगी गँवाई है

वो जो सरमाया-ए-दिल-ओ-जाँ थी
अब वही आरज़ू पराई है

तू है आख़िर कहाँ कि आज मुझे
बे-तरह अपनी याद आई है

जान-ए-जाँ तुझ से दू-बदू हो कर
मैंने ख़ुद से शिकस्त खाई है

इश्क़ मेरे गुमान में याराँ
दिल की इक ज़ोर आज़माई है

उस में रह कर भी मैं नहीं उस में
जानिए दिल में क्या समाई है

मौज-ए-बाद-ए-सबा पे हो के सवार
वो शमीम-ए-ख़याल आई है

शर्म कर तू कि दश्त-ए-हालत में
तेरी लैला ने ख़ाक उड़ाई है

बिक नहीं पा रहा था सो मैं ने
अपनी क़ीमत बहुत बढ़ाई है

वो जो था 'जौन' वो कहीं भी न था
हुस्न इक ख़्वाब की जुदाई है

दिल परेशाँ है क्या किया जाए

दिल परेशाँ है क्या किया जाए
अक़्ल हैराँ है क्या किया जाए

शौक़-ए-मुश्किल-पसंद उन का हुसूल
सख़्त आसाँ है क्या किया जाए

इश्क़-ए-ख़ूबाँ के साथ ही हम में
नाज़-ए-ख़ूबाँ है क्या किया जाए

बे-सबब ही मिरी तबीअत-ए-ग़म
सब से नालाँ है क्या किया जाए

बावजूद उन की दिल-नवाज़ी के
दिल गुरेज़ाँ है क्या किया जाए

मैं तो नक़्द-ए-हयात लाया था
जिंस-ए-अर्ज़ां है क्या किया जाए

हम समझते थे इश्क़ को दुश्वार
ये भी आसाँ है क्या किया जाए

वो बहारों की नाज़-पर्वर्दा
हम पे नाज़ाँ है क्या किया जाए

मिस्र-ए-लुत्फ़-ओ-करम में भी ऐ 'जौन'
याद-ए-कनआँ है क्या किया जाए

इक साया मिरा मसीहा था

इक साया मिरा मसीहा था
कौन जाने वो कौन था क्या था

वो फ़क़त सहन तक ही आती थी
मैं भी हुजरे से कम निकलता था

तुझ को भूला नहीं वो शख़्स कि जो
तेरी बाँहों में भी अकेला था

जान-लेवा थीं ख़्वाहिशें वर्ना
वस्ल से इंतिज़ार अच्छा था

बात तो दिल-शिकन है पर यारो
अक़्ल सच्ची थी इश्क़ झूटा था

अपने मेआ'र तक न पहुँचा मैं
मुझ को ख़ुद पर बड़ा भरोसा था

जिस्म की साफ़-गोई के बा-वस्फ़
रूह ने कितना झूट बोला था

रूठा था तुझ से या'नी ख़ुद अपनी ख़ुशी से मैं

रूठा था तुझ से या'नी ख़ुद अपनी ख़ुशी से मैं
फिर उस के बा'द जान न रूठा किसी से मैं

बाँहों से मेरी वो अभी रुख़्सत नहीं हुआ
पर गुम हूँ इंतिज़ार में उस के अभी से मैं

दम-भर तिरी हवस से नहीं है मुझे क़रार
हलकान हो गया हूँ तिरी दिलकशी से मैं

इस तौर से हुआ था जुदा अपनी जान से
जैसे भुला सकूँगा उसे आज ही से मैं

ऐ तराह-दार-ए-इश्वा-तराज़-ए-दयार-ए-नाज़
रुख़्सत हुआ हूँ तेरे लिए दिल-गली से मैं

तू ही हरीम-ए-जल्वा है हंगाम-ए-रंग है
जानाँ बहुत उदास हूँ अपनी कमी से मैं

कुछ तो हिसाब चाहिए आईने से तुझे
लूँगा तिरा हिसाब मिरी जाँ तुझी से मैं

न तो दिल का न जाँ का दफ़्तर है

न तो दिल का न जाँ का दफ़्तर है
ज़िंदगी इक ज़ियाँ का दफ़्तर है

पढ़ रहा हूँ मैं काग़ज़ात-ए-वजूद
और नहीं और हाँ का दफ़्तर है

कोई सोचे तो सोज़-ए-कर्ब-ए-जाँ
सारा दफ़्तर गुमाँ का दफ़्तर है

हम में से कोई तो करे इसरार
कि ज़मीं आसमाँ का दफ़्तर है

हिज्र ता'तील-ए-जिस्म-ओ-जाँ है मियाँ
वस्ल जिस्म और जाँ का दफ़्तर है

वो जो दफ़्तर है आसमानी-तर
वो मियाँ जी यहाँ का दफ़्तर है

है जो बूद-ओ-नबूद का दफ़्तर
आख़िरश ये कहाँ का दफ़्तर है

जो हक़ीक़त है दम-ब-दम की याद
वो तो इक दास्ताँ का दफ़्तर है

हो रहा है गुज़िश्तगाँ का हिसाब
और आइंदगाँ का दफ़्तर है

  • मुख्य पृष्ठ : काव्य रचनाएँ : जौन एलिया
  • मुख्य पृष्ठ : हिन्दी कविता वेबसाइट (hindi-kavita.com)