खोया हुआ सा कुछ : निदा फ़ाज़ली

Khoya Hua Sa Kuchh : Nida Fazli

देर से

कहीं छत थी, दीवारो-दर थे कहीं
मिला मुझको घर का पता देर से
दिया तो बहुत ज़िन्दगी ने मुझे
मगर जो दिया वो दिया देर से

हुआ न कोई काम मामूल से
गुजारे शबों-रोज़ कुछ इस तरह
कभी चाँद चमका ग़लत वक़्त पर
कभी घर में सूरज उगा देर से

कभी रुक गये राह में बेसबब
कभी वक़्त से पहले घिर आयी शब
हुए बन्द दरवाज़े खुल-खुल के सब
जहाँ भी गया मैं गया देर से

ये सब इत्तिफ़ाक़ात का खेल है
यही है जुदाई, यही मेल है
मैं मुड़-मुड़ के देखा किया दूर तक
बनी वो ख़मोशी, सदा देर से

सजा दिन भी रौशन हुई रात भी
भरे जाम लगराई बरसात भी
रहे साथ कुछ ऐसे हालात भी
जो होना था जल्दी हुआ देर से

भटकती रही यूँ ही हर बन्दगी
मिली न कहीं से कोई रौशनी
छुपा था कहीं भीड़ में आदमी
हुआ मुझमें रौशन ख़ुदा देर से

हम्द

नील गगन पर बैठ
कब तक
चाँद सितारों से झाँकोगे

पर्वत की ऊँची चोटी से
कब तक
दुनिया को देखोगे

आदर्शों के बन्द ग्रन्थों में
कब तक
आराम करोगे

मेरा छप्पर टरक रहा है
बनकर सूरज
इसे सुखाओ

खाली है
प्रार्थना
आटे का कनस्तर
कबनकर गेहूँ
इसमें आओ

माँ का चश्मा
टूट गया है
बनकर शीशा
इसे बनाओ

चुप-चुप हैं आँगन में बच्चे
बनकर गेंद
इन्हें बहलाओ

शाम हुई है
चाँद उगाओ
पेड़ हिलाओ
हवा चलाओ

काम बहुत हैं
हाथ बटाओ अल्ला मियाँ
मेरे घर भी आ ही जाओ
अल्ला मियाँ...!

कहीं-कहीं से

कहीं-कहीं से हर चेहरा
तुम जैसा लगता है
तुमको भूल न पायेंगे हम
ऐसा लगता है

ऐसा भी इक रंग है जो
करता है बातें भी
जो भी इसको पहन ले वो
अपना-सा लगता है

तुम क्या बिछड़े भूल गये
रिश्तों की शराफ़त हम
जो भी मिलता है कुछ दिन ही
अच्छा लगता है

अब भी यूँ मिलते हैं हमसे
फूल चमेली के
जैसे इनसे अपना कोई
रिश्ता लगता है

और तो सब कुछ ठीक है लेकिन
कभी-कभी यूँ ही
चलता-फिरता शहर अचानक
तन्हा लगता है

गरज-बरस

गरज-बरस प्यासी धरती पर
फिर पानी दे मौला
चिड़ियों को दाने, बच्चों को
गुड़धानी दे मौला

दो और दो का जोड़ हमेशा
चार कहाँ होता है
सोच-समझवालों को थोड़ी
नादानी दे मौला

फिर रौशन कर ज़हर का प्याला
चमका नयी सलीबें
झूठों की दुनिया में सच को
ताबानी दे मौला

फिर मूरत से बाहर आकर
चारों ओर बिखर जा
फिर मन्दिर को को‌ई मीरा
दीवानी दे मौला

तेरे होते को‌ई किसी की
जान का दुश्मन क्यों हो
जीनेवालों को मरने की
आसानी दे मौला

रौशनी के फ़रिश्ते

हुआ सवेरा
ज़मीन पर फिर अदब से आकाश
अपने सर को झुका रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं...

नदी में स्नान करके सूरज
सुनहरी मलमल की पगड़ी बाँधे
सड़क किनारे
खड़ा हुआ मुस्कुरा रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं...

हवाएँ सर-सब्ज़ डालियों में
दुआओ के गीत गा रही हैं
महकते फूलों की लोरियाँ
सोते रास्ते को जगा रही हैं
घनेरा पीपल,
गली के कोने से हाथ अपने हिला रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं...!
फ़रिश्ते निकले हैं रौशनी के
हरेक रस्ता चमक रहा है
ये वक़्त वो है
ज़मीं का हर ज़र्रा
माँ के दिल-सा धड़क रहा है

पुरानी इक छत पे वक़्त बैठा
कबूतरों को उड़ा रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं
बच्चे स्कूल जा रहा हैं...!

सफ़र को जब भी

सफ़र को जब भी किसी
दास्तान में रखना
क़दम यकीन में, मंज़िल
गुमान में रखना

जो सात है वही घर का
नसीब है लेकिन
जो खो गया उसे भी
मकान में रखना

जो देखती हैं निगाहें
वही नहीं सब कुछ
ये एहतियात भी अपने
बयान में रखना

वो ख्वाब जो चेहरा
कभी नहीं बनता
बना के चाँद उसे
आसमान में रखना

चमकते चाँद-सितारों का
क्या भरोसा है
ज़मीं की धुल भी अपनी
उड़ान में रखना

सवाल तो बिना मेहनत के
हल नहीं होते
नसीब को भी मगर
इम्तहान में रखना

मैं जीवन हूँ

वो जो
फटे-पुराने जूते गाँठ रहा है
वो भी मैं हूँ

वो जो घर-घर
धूप की चाँदी बाँट रहा है
वो भी मैं हूँ

वो जो
उड़ते परों से अम्बर पात रहा है
वो भी मैं हूँ

वो जो
हरी-भरी आँखों को काट रहा है
वो भी मैं हूँ

सूरज-चाँद
निगाहें मेरी
साल-महीने राहें मेरी

कल भी मुझमे
आज भी मुझमे
चारों ओर दिशाएँ मेरी


अपने-अपने
आकारों में
जो भी चाहे भर ले मुझको

जिनमे जितना समा सकूँ मैं
उतना
अपना कर ले मुझको

हर चेहरा है मेरा चेहरा
बेचेहरा इक दर्पण हूँ मैं
मुट्ठी हूँ मैं
जीवन हूँ मैं

दिन सलीके से उगा

दिन सलीके से उगा
रात ठिकाने से रही
दोस्ती अपनी भी कुछ
रोज़ ज़माने से रही

चंद लम्हों को ही बनती हैं
मुसव्विर आँखें
ज़िन्दगी रोज़ तो
तसवीर बनाने से रही

इस अँधेरे में तो
ठोकर ही उजाला देगी
रात जंगल में कोई शमअ
जलाने से रही

फ़ासला, चाँद बना देता है
हर पत्थर को
दूर की रौशनी नज़दीक तो
आने से रही

शहर में सबको कहाँ मिलती है
रोने की जगह
अपनी इज्जत भी यहाँ
हँसने-हँसाने में रही

चरवाहा और भेड़ें

जिन चेहरों से रौशन हैं
इतिहास के दर्पण
चलती-फिरती धरती पर
वो कैसे होंगे

सूरत का मूरत बन जाना
बरसों बाद का है अफ़साना
पहले तो हम जैसे होंगे

मिटटी में दीवारें होंगी
लोहे में तलवारें होंगी
आग, हवा
पानी अम्बर में
जीतें होंगी
हारें होंगी

हर युग का इतिहास यही है-
अपनी-अपनी भेड़ें चुनकर
जो भी चरवाहा होता है
उसके सर पर नील गगन कि
रहमत का साया होता है

उठके कपड़े बदल

उठके कपड़े बदल, घर से बाहर निकल
जो हुआ सो हुआ
रात के बाद दिन, आज के बाद कल
जो हुआ सो हुआ

जब तलक साँस है, भूख है प्यास है
ये ही इतिहास है
रख के काँधे पे हल, खेत की ओर चल
जो हुआ सो हुआ

खून से तर-ब-तर, करके हर रहगुज़र
थक चुके जानवर
लकड़ियों की तरह, फिर से चूल्हे में जल
जो हुआ सो हुआ

जो मरा क्यों मरा, जो जला क्यों जला
जो लुटा क्यों लुटा
मुद्दतों से हैं गुम, इन सवालों के हल
जो हुआ सो हुआ

मन्दिरों में भजन मस्जिदों में अज़ाँ
आदमी है कहाँ?
आदमी के लिए एक ताज़ा ग़ज़ल
जो हुआ सो हुआ

यहाँ भी है वहाँ भी

इंसान में हैवान
यहाँ भी है वहाँ भी
अल्लाह निगहबान
यहाँ भी है वहाँ भी

खूंख्वार दरिंदों के
फक़त नाम अलग हैं
शहरों में बयाबान
यहाँ भी है वहाँ भी

रहमान की क़ुदरत हो
या भगवान की मूरत
हर खेल का मैदान
यहाँ भी है वहाँ भी

हिन्दी भी मज़े में है
मुसलमाँ भी मज़े में
इंसान परेशान
यहाँ भी वहाँ भी

उठता है दिलो जाँ से
धुआँ दोनों तरफ़ ही
ये मीर का दीवान
यहाँ भी वहाँ भी

छोटा आदमी

छोटा आदमी

तुम्हारे लिए
सब दुआगो हैं
तुम जो न होगे
तो कुछ भी न होगा
इसी तरह
मर-मर के जीते रहो तुम

तुम्ही हर जगह हो
तुम्ही मस्अला हो
तुम्ही हौसला हो

मुसव्वर के रंगों में
तस्वीर भी तुम
मुसन्निफ के लफ़्ज़ों में
तहरीर भी तुम
तुम्हारे लिए ही
खुदा बाप ने
अपने इकलौते बेटे को
कुर्बां किया है
सभी आसमानी किताबों ने
तुम पर!
तुम्हारे अज़ाबों को आसाँ किया है

खुदा की बनाई हुई इस ज़मीं पर
जो सच पूछो,
तुमसे मुहब्बत है सबको
तुम्हारे दुखों का मुदावा न होगा
तुम्हारे
दुखों ज़रूरत है सबको
तुम्हारे लिए सब दुआ गो हैं

ये ज़िंदगी

ये ज़िन्दगी
आज जो तुम्हारे
बदन कि छोटी-बड़ी नसों में
मचल रही है
तुम्हारे पैरों से
चल रही है
तुम्हारी आवाज़ में गले से
निकल रही है
तुम्हारे लफ़्ज़ों में
ढल रही है

ये ज़िन्दगी.....!
जाने कितनी सदियों से
यूँ ही शक्लें
बदल रही है

बदलती शक्लों
बदलते ज़िस्मों में
चलता फिरता ये इक शरारा
जो इस घडी
नाम है तुम्हारा!

इसी से साड़ी चहल-पहल है
इसी से
रौशन है हर नज़ारा

सितारे तोड़ो
या घर बसाओ
अलम उठाओ
या सर झुकाव

तुम्हारी आँखों कि रौशनी तक
है खेल सारा
ये खेल होगा नहीं दोबारा

मौसम आते जाते हैं

नयी-नयी पोशाक बदलकर, मौसम आते-जाते हैं,
फूल कहाँ जाते हैं जब भी जाते हैं लौट आते हैं।

शायद कुछ दिन और लगेंगे, ज़ख़्मे-दिल के भरने में,
जो अक्सर याद आते थे वो कभी-कभी याद आते हैं।

चलती-फिरती धूप-छाँव से, चहरा बाद में बनता है,
पहले-पहले सभी ख़यालों से तस्वीर बनाते हैं।

आंखों देखी कहने वाले, पहले भी कम-कम ही थे,
अब तो सब ही सुनी-सुनाई बातों को दोहराते हैं ।

इस धरती पर आकर सबका, अपना कुछ खो जाता है,
कुछ रोते हैं, कुछ इस ग़म से अपनी ग़ज़ल सजाते हैं।

दिल में न हो जुर्रत

दिल में न हो जुर्रत तो
मुहब्बत नहीं मिलती
खैरात में इतनी बड़ी
दौलत नहीं मिलती

कुछ लोग यूँ ही शहर में
हमसे भी खफ़ा हैं
हर एक से अपनी भी
तबीयत नहीं मिलती

देखा था जिसे मैंने
कोई और था शायद
वो कौन है जिससे तेरी
सूरत नहीं मिलती

हँसते हुए चेहरों से है
बाज़ार की ज़ीनत
रोने की यहाँ वैसे भी
फुर्सत नहीं मिलती

निकला करो ये शमा लिए
घर से भी बाहर
तन्हाई सजाने को
मुसीबत नहीं मिलती

अपनी मर्ज़ी से कहाँ

अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
रुख हवाओं का जिधर का है, उधर के हम हैं

पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है
अपने ही घर में, किसी दूसरे घर के हम हैं

वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से
किसको मालूम, कहाँ के हैं, किधर के हम हैं

जिस्म से रूह तलक अपने कई आलम हैं
कभी धरती के, कभी चाँद नगर के हम हैं

चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब
सोचते रहते हैं, किस राहगुज़र के हम हैं

गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम
हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं

धूप में निकलो

धूप में निकलो घटाओं में
नहाकर देखो
ज़िन्दगी क्या है, किताबों को
हटाकर देखो

सिर्फ़ आँखों से ही दुनिया
नहीं देखी जाती
दिल की धड़कन को भी बीनाई
बनाकर देखो

पत्थरों में भी ज़बाँ होती है
दिल होते हैं
अपने घर के दरो-दीवार
सजाकर देखो

वो सितारा है चमकने दो
यूँ ही आँखों में
क्या ज़रूरी है उसे जिस्म
बनाकर देखो

फ़ासला नज़रों का धोका भी
तो हो सकता है
चाँद जब चमके तो ज़रा हाथ
बढाकर देखो

(बीनाई=ज्योति)

देखा हुआ सा कुछ

देखा हुआ सा कुछ है
तो सोचा हुआ सा कुछ

हर वक़्त मेरे साथ है
उलझा हुआ सा कुछ

होता है यूँ भी, रास्ता
खुलता नहीं कहीं

जंगल-सा फैल जाता है
खोया हुआ सा कुछ

साहिल की गीली रेत पर
बच्चों के खेल-सा

हर लम्हा मुझ में बनता
बिखरता हुआ सा कुछ

फ़ुर्सत ने आज घर को सजाया
कुछ इस तरह

हर शय से मुस्कुराता है
रोता हुआ सा कुछ

धुँधली-सी एक याद किसी
क़ब्र का दिया

और! मेरे आस-पास
चमकता हुआ सा कुछ

बेसन की सोंधी रोटी

बेसन की सोंधी रोटी पर
खट्टी चटनी-जैसी माँ
याद आती है चौका-बासन
चिमटा, फुकनी जैसी माँ

बान की खुर्री खाट के ऊपर
हर आहट पर कान धरे
आधी सोयी आधी जागी
थकी दोपहरी-जैसी माँ

चिड़ियों की चहकार में गूँज़े
राधा-मोहन, अली-अली
मुर्ग़े की आवाज़ से खुलती
घर की कुण्डी-जैसी माँ

बीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन
थोड़ी-थोड़ी-सी सब में
दिनभर इक रस्सी के ऊपर
चलती नटनी-जैसी माँ

बाँट के अपना चेहरा, माथा
आखें जाने कहाँ गयी
फटे पुराने इक अलबम में
चंचल लड़की जैसी माँ

दो-चार गाम

दो-चार गाम राह को
हमवार देखना
फिर हर क़दम पे इक नयी
दीवार देखना

आँखों की रौशनी से है
हर संग आइना
हर आईने में खुद को
गुनाहगार देखना

हर आदमी में होते हैं
दस-बीस आदमी
जिसको भी देखना हो
कई बार देखना


मैदाँ की हार-जीत तो
क़िस्मत की बात है
टूटी है जिसके हाथ में
तलवार देखना

दरिया के उस किनारे
सितारे भी फूल भी
दरिया चढ़ा हुआ हो तो
उस पार देखना

अच्छी नहीं है शहर के
रस्तों की दोस्ती
आँगन में फैल जाए न
बाज़ार देखना.....!

मैं ख़ुदा बनके

मन्दिरों-मस्ज़िदों की दुनिया में
मुझको पहचानते कहाँ हैं लोग.

रोज़ मैं चाँद बन के आता हूँ
दिन में सूरज सा जगमगाता हूँ.

खनखनाता हूँ माँ के गहनों में
हँसता रहता हूँ छुप के बहनों में

मैं ही मज़दूर के पसीने में...!
मैं ही बरसात के महीने में.

मेरी तस्वीर आँख का आँसू
मेरी तहरीर जिस्म का जादू.

मन्दिरों-मस्ज़िदों की दुनिया में
मुझको पहचानते नहीं,जब लोग.

मैं जमीनों को बेजिया करके
आसमानों में लौट जाता हूँ

मैं ख़ुदा बनके कहर ढाता हूँ.

(बेजिया=बिना रौशनी)

एक लुटी हुई बस्ती की कहानी

बजी घंटियाँ
ऊँचे मीनार गूँजे
सुनहरी सदाओं ने
उजली हवाओं की पेशानियों की

रहमत के
बरकत के
पैग़ाम लिक्खे—
वुजू करती तुम्हें
खुली कोहनियों तक
मुनव्वर हुईं—
झिलमिलाए अँधेरे
--भजन गाते आँचल ने
पूजा की थाली से
बाँटे सवेरे
खुले द्वार!
बच्चों ने बस्ता उठाया
बुजुर्गों ने—
पेड़ों को पानी पिलाया
--नये हादिसों की खबर ले के
बस्ती की गलियों में
अख़बार आया
खुदा की हिफाज़त की ख़ातिर
पुलिस ने
पुजारी के मन्दिर में
मुल्ला की मस्जिद में
पहरा लगाया।

खुद इन मकानों में लेकिन कहाँ था
सुलगते मुहल्लों के दीवारों दर में
वही जल रहा था जहाँ तक धुवाँ था

जो थे वही रहे

बदला न अपने-आपको
जो थे वही रहे
मिलते रहे सभी से
मगर अजनबी रहे

अपनी तरह सभी को
किसी की तलाश थी
हम जिसके भी करीब रहे
दूर ही रहे

दुनिया न जीत पाओ
तो हारो न आपको
थोड़ी-बहुत तो ज़हान में
नाराज़गी रहे

गुज़रो जो बाग़ से
तो दुआ माँगते चलो
जिसमें खिले हैं फूल
वो डाली हरी रहे

हर वक्त हर मुक़ाम पे
हँसना मुहाल है
रोने के वास्ते भी
कोई बेकली रहे

नयी-नयी आँखें

नयी-नयी आँखें हों तो हर मंज़र अच्छा लगता है
कुछ दिन शहर में घूमे लेकिन, अब घर अच्छा लगता है ।

मिलने-जुलनेवालों में तो सारे अपने जैसे हैं
जिससे अब तक मिले नहीं वो अक्सर अच्छा लगता है ।

मेरे आँगन में आये या तेरे सर पर चोट लगे
सन्नाटों में बोलनेवाला पत्थर अच्छा लगता है ।

चाहत हो या पूजा सबके अपने-अपने साँचे हैं
जो मूरत में ढल जाये वो पैकर अच्छा लगता है ।

हमने भी सोकर देखा है नये-पुराने शहरों में
जैसा भी है अपने घर का बिस्तर अच्छा लगता है ।

दोहे

जीवन भर भटका किए, खुली न मन की गाँठ
उसका रास्ता छोड़कर, देखी उसकी बाट

सातों दिन भगवान के, क्या मंगल क्या पीर
जिस दिन सोए देर तक, भूखा रहे फकीर

मुझ जैसा एक आदमी, मेरा ही हमनाम
उल्टा-सीधा वो चले, मुझे करे बदनाम

सीधा-सादा डाकिया, जादू करे महान
एक-ही थैले में भरे, आँसू और मुस्कान

पंछी मानव, फूल, जल, अलग-अलग आकार
माटी का घर एक ही, सारे रिश्तेदार

मैं भी तू भी यात्री, आती-जाती रेल
अपने-अपने गाँव तक, सबका सब से मेल

सपना झरना नींद का

सपना झरना नींद का, जागी आँखें प्यास
पाना, खोना, खोजना, साँसों का इतिहास

नदिया सींचे खेत को, तोता कुतरे आम
सूरज ठेकेदार सा, सबको बाँटे काम

अच्छी संगत बैठकर, संगी बदले रूप
जैसे मिलकर आम से, मीठी हो गई धूप

बरखा सबको दान दे, जिसकी जितनी प्यास
मोती-सी ये सीप में, माटी में ये घास

सातों दिन भगवान के, क्या मंगल क्या पीर

सातों दिन भगवान के, क्या मंगल क्या पीर
जिस दिन सोये देर तक, भूखा रहे फ़क़ीर

सीधा-सादा डाकिया, जादू करे महान
एक ही थैले में भरे, आँसू और मुस्कान

जीवन के दिन-रैन का, कैसे लगे हिसाब
दीमक के घर बैठकर, लेखक लिखे किताब

मुझ जैसा इक आदमी मेरा ही हमनाम
उल्टा-सीधा वो चले, मुझे करे बदनाम

दस्तकें

दरवाज़े पर हर दस्तक का
जाना-पहचाना
चेहरा है

रोज़ बदलती हैं तारीखें
वक़्त मगर
यूँ ही ठहरा है

हर दस्तक है 'उसकी' दस्तक
दिल यूँ ही धोका खता है
जब भी
दरवाज़ा खुलता है
कोई और नज़र आ जाता है

जाने वो कब तक आएगा ?
जिसको बरसों से आना है
या बस यूँ ही रस्ता तकना
हर जीवन का जुर्माना है

मुँह की बात

मुँह की बात सुने हर कोई
दिल के दर्द को जाने कौन
आवाज़ों के बाज़ारों में
ख़ामोशी पहचाने कौन।

सदियों-सदियों वही तमाशा
रस्ता-रस्ता लम्बी खोज
लेकिन जब हम मिल जाते हैं
खो जाता है जाने कौन।

जाने क्या-क्या बोल रहा था
सरहद, प्यार, किताबें, ख़ून
कल मेरी नींदों में छुपकर
जाग रहा था जाने कौन।

मैं उसकी परछाई हूँ या
वो मेरा आईना है
मेरे ही घर में रहता है
मेरे जैसा जाने कौन।

किरन-किरन अलसाता सूरज
पलक-पलक खुलती नींदें
धीमे-धीमे बिखर रहा है
ज़र्रा-ज़र्रा जाने कौन।

जाने वालों से

जानेवालों से राब्ता रखना
दोस्तो, रस्मे-फातहा रखना

जब किसी से कोई गिला रखना
सामने अपने आइना रखना

घर की तामीर चाहे जैसी हो
इसमें रोने की कुछ जगह रखना

जिस्म में फैलने लगा है शहर
अपनी तन्हाईयाँ बचा रखना

मस्जिदें हैं नमाज़ियों के लिए
अपने दिल में कहीं खुदा रखना

मिलना-जुलना जहाँ ज़रूरी हो
मिलने-जुलने का हौसला रखना

उम्र करने को है पचास पार
कौन है किस जगह पता रखना

छोटी-सी हंसी

सूनी सूनी थी फ़ज़ा
मैंने यूँही
उस के बालों में गुँधी
ख़ामोशियों को छू लिया
वो मुड़ी
थोड़ा हँसी
मैं भी हँसा
फिर हमारे साथ
नदियाँ वादियाँ
कोहसार बादल
फूल कोंपल
शहर जंगल
सब के सब हँसने लगे

इक मोहल्ले में
किसी घर के
किसी कोने की
छोटी सी हँसी ने
दूर तक फैली हुई दुनिया को
रौशन कर दिया है

ज़िंदगी में
ज़िंदगी का रंग फिर से भर दिया है !

सपना ज़िंदा है

धरती और आकाश का रिश्ता
जुड़ा हुआ है
इसीलिए चिड़िया उड़ती है
इसीलिए नदिया बहती है
इसीलिए है
चाय की प्याली में
कड़वाहट
इसीलिए तो
चेहरा बनती है हर आहट
धरती और आकाश का रिश्ता
जुड़ा हुआ है
इसीलिए तो
कहीं - कहीं से कुछ अच्छा है
कुछ खोटा है
कुछ सच्चा है
सामनेवाली खिड़की
जूड़ा बांध रही है
धीमे - धीमे
सोया रस्ता जाग रहा है
उछल रही है तंग गली में
गेंद रबड़ की
उसके पीछे - पीछे
बच्चा भाग रहा है
रात और दिन के बीच
कहीं सपना ज़िंदा है
मरी नहीं है
जब तक ये दुनिया ज़िंदा है
धरती और आकाश का रिश्ता जुड़ा हुआ है

समझौता

यही ज़मीं
जो कहीं जो धूप है
कहीं साया
यही ज़मीन हो तुम भी
यही ज़मीं मैं भी
यही ज़मीन हक़ीक़त है
इस ज़मीं के सिवा
कहीं भी कुछ नहीं
बीनाइयों का धोका है
वो आसमान
जो हर दस्तरस से बाहर है
तुम्हारी
आँखों में हो
या मेरी निगाहों में
दिखाई देता है
लेकिन कभी नहीं मिलता
यही ज़मीन सफ़र है
यही ज़मीं मंज़िल
न मैं तलाश करूँ
तुममें
जो नहीं हो तुम
न तुम
तलाश करो मुझमें
जो नहीं हूँ मैं

कोई अकेला कहाँ है

शुक्रिया ऐ दरख़्त तेरा
तेरी घनी छाँव
मेरे रस्ते की दिलकशी है
शुक्रिया ऐ चमकते सूरज
तेरी शुआओं से
मेरे आँगन में रौशनी है
शुक्रिया ऐ चहकती चिड़िया
तेरे सुरों से मेरी ख़ामोशी में नग़मगी है
पहाड़ मेरे लिए ही
मौसम सजा रहा है
नदी का पानी
हवा से बादल बना रहा है
किसी की सुई से
मेरा कुरता तुरप रहा है
मेरे लिए गुलाब
धूपों में तप रहा है
कोई अकेला कहाँ है
ज़मीं के ज़र्रे से आसमाँ तक
हरेक वज़ूद एक कारवाँ है
ज़मीन माँ है
हरेक सर पर
हज़ार रिश्तों का आसमाँ है
बंटी हुई सरहदों में
सब कुछ जुड़ा हुआ है
अकेलापन
आदमी की फ़ुरसत का फलसफा है

जो खो जाता है मिलकर ज़िन्दगी में

जो खो जाता है मिलकर ज़िन्दगी में
ग़ज़ल है नाम उसका, शायरी में

निकल आते हैं आँसू हँसते-हँसते
ये किस ग़म की कसक है, हर ख़ुशी में

कहीं आँखें, कहीं चेहरा, कहीं लब
हमेशा एक मिलता है, कई में

चमकती है अँधेरों में खामोशी
सितारे टूटते हैं रात ही में

गुजर जाती है यूँ ही उम्र सारी
किसी को ढूँढ़ते हैं हम किसी में

सुलगती रेत में पानी कहाँ था
कोई बादल छुपा था तश्नगी में

बहुत मुश्किल है बंजारामिजाजी
सलीका चाहिए आवारगी में

(तश्नगी=प्यास, बंजारामिजाजी=
घुम्मकड़ स्वभाव)

जब भी किसी ने ख़ुद को सदा दी

जब भी किसी ने ख़ुद को सदा दी
सन्नाटों में आग लगा दी

मिट्टी उस की पानी उस का
जैसी चाही शक्ल बना दी

छोटा लगता था अफ़साना
मैं ने तेरी बात बढ़ा दी

जब भी सोचा उस का चेहरा
अपनी ही तस्वीर बना दी

तुझ को तुझ में ढूँड के हम ने
दुनिया तेरी शान बढ़ा दी

मिलजुल के बैठने की

मिलजुल के बैठने की रवायत नहीं रही
रावी के पास कोई हलावत नहीं रही

हर ज़िन्दगी है हाथ में कश्कोल की तरह
महरूमियों के पास बगावत नहीं रही

मिस्मार हो रही है दिलों की इमारतें
अल्लाह के घरों की हिफाजत नहीं रही

मुल्क-ए-खुदा में सारी जमीनें हैं एक-सी
इस दौर के नसीब में हिज़रत नहीं रही

सब अपनी-अपनी मौत से मरते हैं इन दिनों
अब दश्त-ए-कर्बला में शहादत नहीं रही

(रावी=श्रुति परम्परा का निर्वाह करने वाला,
हलावत=माधुर्य, कशकोल=भिक्षापात्र,
महरूमियों=अभावों, मिस्मार=ध्वस्त,
हिजरत=प्रवास, दश्त-ए-कर्बला=कर्बला का
उजाड़,जंगल)

एक जवान याद

वक्त ने
मेरे बालों में चांदी भर दी
इधर-उधर जाने की आदत कम कर दी

आईना जो कहता है
सच कहता है
एक-सा चेहरा-मोहरा किसका रहता है

इसी बदलते वक़्त सहरा में लेकिन
कहीं किसी घर में
इक लड़की ऐसी है
बरसों पहले जैसी थी वो
अब भी बिलकुल
वैसी है

हम हैं कुछ अपने लिए

हम हैं कुछ अपने लिए कुछ हैं ज़माने के लिए
घर से बाहर की फ़ज़ा हँसने-हँसाने के लिए

यूँ लुटाते न फिरो मोतियों वाले मौसम
ये नगीने तो हैं रातों को सजाने के लिए

अब जहाँ भी हैं वहीं तक लिखो रूदाद-ए-सफ़र
हम तो निकले थे कहीं और ही जाने के लिए

मेज़ पर ताश के पत्तों-सी सजी है दुनिया
कोई खोने के लिए है कोई पाने के लिए

तुमसे छुट कर भी तुम्हें भूलना आसान न था
तुमको ही याद किया तुमको भुलाने के लिए

चांद से फूल से

चांद से फूल से या मेरी ज़ुबाँ से सुनिए
हर तरफ आपका क़िस्सा हैं जहाँ से सुनिए

सबको आता नहीं दुनिया को सता कर जीना
ज़िन्दगी क्या है मुहब्बत की ज़बां से सुनिए

क्या ज़रूरी है कि हर पर्दा उठाया जाए
मेरे हालात भी अपने ही मकाँ से सुनिए

मेरी आवाज़ ही पर्दा है मेरे चेहरे का
मैं हूँ ख़ामोश जहाँ, मुझको वहाँ से सुनिए

कौन पढ़ सकता हैं पानी पे लिखी तहरीरें
किसने क्या लिक्ख़ा हैं ये आब-ए-रवाँ से सुनिए

चांद में कैसे हुई क़ैद किसी घर की ख़ुशी
ये कहानी किसी मस्ज़िद की अज़ाँ से सुनिए

ख़ुदा ही जिम्मेदार है

हर एक जुर्म नाम है
जो नाम
संगसार है
वो नाम बेकुसूर है

कुसूरवार भूल है
जो मुद्दतों से
रायफिल है
चीख है
पुकार है
यही गुनहगार है

नहीं ये भूख तो
किसी महल की पहरेदार है
ग़रीब ताबेदार है

गुनहगार है महल
मगर महल तो ख़ुद
सियासतों का इश्तहार है
सियासतों के इर्द गिर्द भी
कोई हिसार है

अजीब इन्तिशार है
न कोई चोर
चोर है
न कोई साहूकार है
ये कैसा कारोबार है
ख़ुदा की कायनात का
ख़ुदा ही जिम्मेदार है

आख़री सच

वही है ज़िन्दा
गरजते बादल
सुलगते सूरज
छलकती नदियों के साथ है जो
ख़ुद अपने पैरों की धूप है जो
ख़ुद अपनी पलकों की रात है जो
बुज़ुर्ग सच्चाइयों की राहों में
तज्रबों का अज़ाब है जो
सुकूं नहीं इज़तिराब है जो

वही है ज़िन्दा
जो चल रहा है
वही है ज़िन्दा
जो गिर रहा है, सँभल रहा है
वही है ज़िन्दा
जो लम्हा-लम्हा बदल रहा है

दुआ करो, आसमाँ से उस पर कोई सहीफ़ा
उतर न आये
खली फ़ज़ाओं में
आख़री सच का ज़हर फिर से बिखर न जाये
जो आप अपनी तलाश में है
वोह देवता बनके मर न जाये।

एक ख़त

तुम आईने की आराइश में जब
खोयी हुई-सी थीं
खुली आँखों की गहरी नींद में
सोयी हुई-सी थीं
तुम्हें जब अपनी चाहत थी
मुझे तुमसे मोहब्बत थी

तुम्हारे नाम की ख़ुशबू से जब
मौसम सँवरते थे
फ़रिश्ते जब तुम्हारे रात-दिन
लेकर उतरते थे
तुम्हें पाने की हसरत थी
मुझे तुमसे मोहब्बत थी

तुम्हारे ख़्वाब जब आकाश के
तारों में रोशन थे
गुलाबी अँखड़ियों में धूप थी
आँचल में सावन थे
बहुत सौं से रक़ाबत थी
मुझे तुमसे मोहब्बत थी

तुम्हारा ख़त मिला
मैं याद हूँ तुमको इनायत है
बदलते वक़्त की लेकिन
हरेक दिल पर हुकूमत है
वो पहले की हक़ीक़त थी
मुझे तुमसे मुहब्बत थी
मुझे तुमसे मुहब्बत थी

एक राजनेता के नाम

मुझे मालूम है!
तुम्हारे नाम से
मन्सूब हैं

टूटे हुए सूरज-
शिकस्ता चाँद
काला आस्मां
कर्फ़्यू भरी राहें
सुलगते खेल के मैदान
रोती चीख़ती माँएँ

मुझे मालुम है
चारों तरफ़
जो ये तबाही है
हुकूमत में
सियासत के
तमाशे की गवाही है

तुम्हें
हिन्दू की चाहत है
न मुस्लिम से अदावत है
तुम्हारा धर्म
सदियों से
तिज़ारत था, तिज़ारत है

मुझे मालूम है लेकिन
तुम्हें मुजरिम कहूँ कैसे
अदालत में
तुम्हारे जुर्म को साबित करूँ कैसे

तुप्हारी जेब में ख़ंजर
न हाथों में कोई बम था
तुम्हारे साथ तो
मर्यादा पुरूषोत्तम का परचम था

जो एक दर्द है सांसों में

लिखो कि
चील के पंजों में
साँप का सर है
लिखो कि
सांप का फन
छिपकली के ऊपर है

लिखो कि
मुँह में उसी छिपकली के
झींगुर है

लिखो कि
चिंउटा झींगुर की
दस्तरस में है

लिखो कि
जो भी यहाँ है किसी
क़फ़स में है

लिखो कि
कोई बुरा है
न कोई अच्छा है

लिखो कि
रंग है जो भी नज़र में
कच्चा है

जो एक दर्द है साँसों में
वो ही सच्चा है

ये एक दर्द ही
संघर्ष भी है, ख़्वाब भी है
लिखो कि
ये ही अन्धेरों का
माहताब भी है!

शिकायत

तुम्हारी शिकायत बज़ा है
मगर तुमसे पहले भी
दुनिया यही थी
यही आज भी है
यही कल भी होगी...।

तुम्हें भी
इसी ईंट-पत्थर की दुनिया में
पल-पल बिखरना है
जीना है
मरना है

बदलते हुए मौसमों की ये दुनिया
कभी गर्म होगी
कभी सर्द होगी
कभी बादलों में नहाएगी धरती
कभी दूर तक
गर्द ही गर्द होगी

फ़क़त एक तुम ही नहीं हो
यहाँ
जो भी अपनी तरह सोचता
ज़माने की बेरंगियों से ख़फ़ा है
हरेक ज़िन्दगी
इक नया तजुर्बा है

मगर जब तलक
ये शिकायत है ज़िन्दा
ये समझो ज़मीं मुहब्बत है ज़िन्दा।

मुझी में ख़ुदा था

मुझे याद है
मेरी बस्ती के सब पेड़
पर्वत
हवाएँ
परिन्दे
मेरे साथ रोते थे
हँसते थे

मेरे ही दुख में
दरिया किनारों पे सर को पटकते थे

मेरी ही खुशियों में
फूलों पे
शबनम के मोती चमकते थे
यहीं
सात तारों के झुरमुट में
लाशक्ल-सी
जो खुनक रोशनी थी
वहीं जुगनुओं की
चिराग़ों की
बिल्ली की आँखों की ताबिन्दगी थी

नदी मेरे अन्दर से होके गुज़रती थी
आकाश...!
आँखों का धोखा नहीं था

ये बात उन दिनों की है
जब इस ज़मीं पर
इबादतघरों की ज़रूरत नहीं थी
मुझी में
ख़ुदा था...!

मेरा घर

जिस घर में अब मैं रहता हूँ
वो मेरा है

इसके कमरों की
आराइश
इसके आँगन की
ज़ेबाइश
अब मेरी है

मुझसे पहले
मुझसे पहले से भी पहले

ये घर
किस-किस का अपना था
किन-किन आँखों का
सपना था
कब-कब
इसका क्या नक़्शा था?

ये सब तो
कल का क़िस्सा है,
इसका आज
मेरा हिस्सा है

आज के, कल बन जाने तक ही
मेरा भी
इससे रिश्ता है

जिस घर में
अब मैं रहता हूँ
वो मेरा है

ये ख़ून मेरा नहीं है

तुम्हारी आँखों में
आज किसके लहू की लाली
चमक रही है
ये आग कैसी दहक रही है
पता नहीं
तुमने मेरे धोके में किस पे ख़ंजर चला दिया है
वो कौन था
किसके रास्ते का चराग़ तुमने बुझा दिया है
ये ख़ून मेरा नहीं है
लेकिन तुम्हें भी शायद ख़बर नहीं थी
जहाँ निशाना लगाये बैठे थे
वो मेरी रहगुज़र नहीं थी

मैं कल भी ज़िन्दा था...
आज भी हूँ
मैं कोई चेहरा
कोई इमारत
कोई इलाका नहीं हूँ
सूरज की रौशनी हूँ
मैं ज़िन्दगी हूँ।

तुम्हारे हथियार बेनज़र हैं
तबील सदियों का फ़ासला
वक़्त बन चुका है

तलाश तुमको है जिसकी
वो अब
तुम्हारे अन्दर समा चुका है

तुम्हारी-मेरी ये दुश्मनी भी है
इक मुअम्मा
ख़ुद अपने घर को न आग जब तक
लगाओगे तुम
मुझे नहीं मार पाओगे तुम।

याद आता है सुना था पहले

याद आता है सुना था पहले
कोई अपना भी ख़ुदा था पहले

मैं वो मक़तूल जो क़ातिल न बना
हाथ मेरा भी उठा था पहले

जिस्म बनने में उसे देर लगी
इक उजाला-सा हुआ था पहले

फूल जो बाग़ की ज़ीनत ठहरा
मेरी आँखों में खिला था पहले

आसमाँ, खेत, समन्दर सब लाल
खून काग़ज़ पे उगा था पहले

शहर तो बाद में वीरान हुआ
मेरा घर ख़ाक हुआ था पहले

अब किसी से भी शिकायत न रही
जाने किस-किस से गिला था पहले

एक मुस्कुराहट

चमकते बत्तीस मोतियोंवाली मुस्कुराहट
खुला हुआ बादबान जैसे
धुला हुआ आसमान जैसे
सहर की पहली अज़ान जैसे

पता नहीं
नाम क्‍या है उसका
ख़बर नहीं काम क्‍या है उसका

वो ठीक छे बज के बीस की
एक जगमगाहट
उतर के होठों से
यूँ मेरे साथ चल रही है
न छाँव कुछ कम है
रास्तों में
न धूप ज़्यादा निकल रही है

मैं जिस तरह
सोचता था
बस्ती उसी तरह से बदल रही है

ये इक सितारा
जो मेरी आँखों में
देर से झिलमिला रहा है
उसे...
समुन्दर बुला रहा है

जानता नहीं कोई

शायरी वहाँ है
जहाँ शायरी नहीं होती

रौशनी वहाँ है
जहाँ रौशनी नहीं होती

आदमी वहाँ है
जहाँ आदमी नहीं होता

शायरी-के लफ़्ज़ों में
रौशनी की शम्‌ओं में
आदमी के चेहरों में
जुस्तजू है
बेमानी

अब जहाँ भी जो शय है
वो...!
वहाँ नहीं होती
आग को
समन्दर में
नग़मग़ी को
पत्थर में
जंग को
कबूतर में
ढूँढ़ने का जोखम ही
आज का मुकद्दर है
जानता नहीं कोई
किसका किस जगह घर है !

हमेशा यूँ ही होता है

हमेशा यूँ ही होता है
घनी ख़ामोशियों के चुप अँधेरों में
कोई मिसरा
कोई पैकर
अचानक बेइरादा
उड़ते जुगनू-सा चमकता है
उसी की झिलमिलाहट में
कभी धुँधला
कभी रौशन
बिना लफ़्ज़ों की पूरी नज़्म का चेहरा झलकता है
वो मिसरा या कोई पैकर
छुपा रहता है जो अकसर
गुज़रते रास्तों में
गीत गाते ख़ाली प्यालों में
गली-कूचों में बिखरे
चाय ख़ानों के सवालों में
सुलगती बस्तियों
जलते मकानों के उजालों में
कभी बेमानी बहसों में
कभी छोटे रिसालों में
चिराग़ों में
नमक में
तेल में, आटे में, दालों में

वो जब भी तीरगी में
रौशनी बनकर निकलता है
खुला काग़ज
नयी तख़लीक के साँचे में ढलता है
यूँ ही मंजर बदलता है
हमेशा यूँ ही होता है

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