हिन्दी रचनाएँ : हीरालाल मिश्र 'मधुकर'

Hindi Poetry : Hiralal Mishra Madhukar


मुक्तक

हमसफर साथ तो आसान सफर लगता है। न मिले मान तो अमृत भी जहर लगता है । ये सुना जब से परीक्षित को डसा तक्षक ने, हमें काँटों से नहीं फूल से डर लगता है । गरजते बादलों को देख डर जाना नहीं आता। दिया वह हूँ जिसे आँधी में बुझ जाना नहीं आता। धरा की खोद के जड़ हम नया रस्ता बनाते हैं, हमें जल करके लाक्षागृह में मर जाना नहीं आता। सिर्फ सूरत ही नहीं सीरत भी अच्छी चाहिए । घर मिले, घर-बार की जीनत भी अच्छी चाहिए। छल, कपट, बाजीगरी से घर कभी चलता नहीं, घर चलाने के लिए नीयत भी अच्छी चाहिए । मेरी माँ साँझ को जब आरती आँगन में करती है। इलाची नीम से, झर झर लँवग तुलसी से झरती है । हवा की करधनी में प्रेम के घुँघरू खनक उठाते, कहीं होता कवच-कीलक, कहीं कजरी सँवरती है। कच्चे घर के साथ हृदय के सच्चे रिश्ते चले गए। बदी-कबड्डी मान-मनौअल, खेल खिलौने चले गए। हमने जिसको पीठ दिया उस याचक ने पाताल दिया, हम जिसको भगवान समझते थे उससे ही छले गए।

दोहे

चंद्रोदय -सी क्षीण कटि, सूर्योदय का भाल। कातिक-सी उज्ज्वल हँसी, चित गाये चौताल । अंग-अंग फागुन लगे, कातिक - सी मुस्कान । अगहन- सी कटि करधनी, चितवन चैत समान। माँ समान संसार में, देव न कोई अन्य । माँ की जो सेवा करें, उसका जीवन धन्य । शील, स्नेह, सद्भावना, जैसे गूलर - फूल । तुलसी आँगन से गई, उगने लगे बाबूल । जीवन बिन जीवन नहीं, जीवन जग की आन । जीवन बिना न ऊबरै, जीव- जगत का प्रान ।

मैं केले के पत्ते को फौलाद बनाने आया हूँ

मैं केले के पत्ते को फौलाद बनाने आया हूँ। अलसाये सोए मुर्दों का शौर्य जगाने आया हूँ। जो संघर्ष देखकर डरते उनका यह संसार नहीं कर्म हीन नर को दुनिया में जीने का अधिकार नहीं रहते हैं जो अभय मृत्यु मिलकर उनसे डरती है ललकारो तो यहाँ राख भी चिंगारी बनती है अमिय चंद्रमा से निचोड़ घर-घर छलकाने आया हूँ। मैं केले के पत्ते को फौलाद बनाने आया हूँ। बाधाओं से डरने वाले कायर कुचले जाते हैं जल बरसाने वाले बादल जल से वज्र बनाते हैं हठी सिंधु के लिए राम का बाण उठाना पाप नहीं ताज उसी को मिला जगत में जो बैठा चुपचाप नहीं फिर से सागर की छाती पर सेतु बनाने आया हूँ। मैं केले के पत्ते को फौलाद बनाने आया हूँ। वैर-विषमता का विष पीकर राग भैरवी गाते हैं घर में नित बाँसुरी बजाते रण में चक्र चलाते हैं उम्मीदों के दिए बुझा दे आँधी की औकात नहीं सूरज को उगने से रोके ऐसी कोई रात नहीं दंभ, द्वेष, दीनता मिटाकर प्यार लुटाने आया हूँ। मैं केले के पत्ते को फौलाद बनाने आया हूँ। शोषित पीड़ित वंचित होरी पर अब अत्याचार न हो धनिया की गर्दन पर लटकी सामंती तलवार न हो आँगन में हो हँसी ठिठोली दिल में पड़ी दरार न हो चंदन के पेड़ों पर केवल साँपों का अधिकार न हो भूख, भेद, भय, भ्रांति मिटाकर जग महकाने आया हूँ मैं केले के पत्ते को फौलाद बनाने आया हूँ।

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