गुमाँ : जौन एलिया

Gumaan : Jaun Elia

बे-दिली क्या यूँही दिन गुज़र जाएँगे

बे-दिली क्या यूँही दिन गुज़र जाएँगे
सिर्फ़ ज़िंदा रहे हम तो मर जाएँगे

रक़्स है रंग पर रंग हम-रक़्स हैं
सब बिछड़ जाएँगे सब बिखर जाएँगे

ये ख़राबातियान-ए-ख़िरद-बाख़्ता
सुब्ह होते ही सब काम पर जाएँगे

कितनी दिलकश हो तुम कितना दिल-जू हूँ मैं
क्या सितम है कि हम लोग मर जाएँगे

है ग़नीमत कि असरार-ए-हस्ती से हम
बे-ख़बर आए हैं बे-ख़बर जाएँगे

आदमी वक़्त पर गया होगा

आदमी वक़्त पर गया होगा
वक़्त पहले गुज़र गया होगा

वो हमारी तरफ़ न देख के भी
कोई एहसान धर गया होगा

ख़ुद से मायूस हो के बैठा हूँ
आज हर शख़्स मर गया होगा

शाम तेरे दयार में आख़िर
कोई तो अपने घर गया होगा

मरहम-ए-हिज्र था अजब इक्सीर
अब तो हर ज़ख़्म भर गया होगा

एक ही मुज़्दा सुब्ह लाती है

एक ही मुज़्दा सुब्ह लाती है
धूप आँगन में फैल जाती है

रंग-ए-मौसम है और बाद-ए-सबा
शहर कूचों में ख़ाक उड़ाती है

फ़र्श पर काग़ज़ उड़ते फिरते हैं
मेज़ पर गर्द जमती जाती है

सोचता हूँ कि उस की याद आख़िर
अब किसे रात भर जगाती है

मैं भी इज़्न-ए-नवा-गरी चाहूँ
बे-दिली भी तो लब हिलाती है

सो गए पेड़ जाग उठी ख़ुश्बू
ज़िंदगी ख़्वाब क्यूँ दिखाती है

उस सरापा वफ़ा की फ़ुर्क़त में
ख़्वाहिश-ए-ग़ैर क्यूँ सताती है

आप अपने से हम-सुख़न रहना
हम-नशीं साँस फूल जाती है

क्या सितम है कि अब तिरी सूरत
ग़ौर करने पे याद आती है

कौन इस घर की देख-भाल करे
रोज़ इक चीज़ टूट जाती है

तुम्हारा हिज्र मना लूँ अगर इजाज़त हो

तुम्हारा हिज्र मना लूँ अगर इजाज़त हो
मैं दिल किसी से लगा लूँ अगर इजाज़त हो

तुम्हारे बा'द भला क्या हैं वअदा-ओ-पैमाँ
बस अपना वक़्त गँवा लूँ अगर इजाज़त हो

तुम्हारे हिज्र की शब-हा-ए-कार में जानाँ
कोई चराग़ जला लूँ अगर इजाज़त हो

जुनूँ वही है वही मैं मगर है शहर नया
यहाँ भी शोर मचा लूँ अगर इजाज़त हो

किसे है ख़्वाहिश-ए-मरहम-गरी मगर फिर भी
मैं अपने ज़ख़्म दिखा लूँ अगर इजाज़त हो

तुम्हारी याद में जीने की आरज़ू है अभी
कुछ अपना हाल सँभालूँ अगर इजाज़त हो

हर धड़कन हैजानी थी हर ख़ामोशी तूफ़ानी थी

हर धड़कन हैजानी थी हर ख़ामोशी तूफ़ानी थी
फिर भी मोहब्बत सिर्फ़ मुसलसल मिलने की आसानी थी

जिस दिन उस से बात हुई थी उस दिन भी बे-कैफ़ था मैं
जिस दिन उस का ख़त आया है उस दिन भी वीरानी थी

जब उस ने मुझ से ये कहा था इश्क़ रिफ़ाक़त ही तो नहीं
तब मैं ने हर शख़्स की सूरत मुश्किल से पहचानी थी

जिस दिन वो मिलने आई है उस दिन की रूदाद ये है
उस का बलाउज़ नारंजी था उस की सारी धानी थी

उलझन सी होने लगती थी मुझ को अक्सर और वो यूँ
मेरा मिज़ाज-ए-इश्क़ था शहरी उस की वफ़ा दहक़ानी थी

अब तो उस के बारे में तुम जो चाहो वो कह डालो
वो अंगड़ाई मेरे कमरे तक तो बड़ी रूहानी थी

नाम पे हम क़ुर्बान थे उस के लेकिन फिर ये तौर हुआ
उस को देख के रुक जाना भी सब से बड़ी क़ुर्बानी थी

मुझ से बिछड़ कर भी वो लड़की कितनी ख़ुश ख़ुश रहती है
उस लड़की ने मुझ से बिछड़ कर मर जाने की ठानी थी

इश्क़ की हालत कुछ भी नहीं थी बात बढ़ाने का फ़न था
लम्हे ला-फ़ानी ठहरे थे क़तरों की तुग़्यानी थी

जिस को ख़ुद मैं ने भी अपनी रूह का इरफ़ाँ समझा था
वो तो शायद मेरे प्यासे होंटों की शैतानी थी

था दरबार-ए-कलाँ भी उस का नौबत-ख़ाना उस का था
थी मेरे दिल की जो रानी अमरोहे की रानी थी

आप अपना ग़ुबार थे हम तो

आप अपना ग़ुबार थे हम तो
याद थे यादगार थे हम तो

पर्दगी हम से क्यूँ रखा पर्दा
तेरे ही पर्दा-दार थे हम तो

वक़्त की धूप में तुम्हारे लिए
शजर-ए-साया-दार थे हम तो

उड़े जाते हैं धूल के मानिंद
आँधियों पर सवार थे हम तो

हम ने क्यूँ ख़ुद पे ए'तिबार किया
सख़्त बे-ए'तिबार थे हम तो

शर्म है अपनी बार बारी की
बे-सबब बार बार थे हम तो

क्यूँ हमें कर दिया गया मजबूर
ख़ुद ही बे-इख़्तियार थे हम तो

तुम ने कैसे भुला दिया हम को
तुम से ही मुस्तआ'र थे हम तो

ख़ुश न आया हमें जिए जाना
लम्हे लम्हे पे बार थे हम तो

सह भी लेते हमारे ता'नों को
जान-ए-मन जाँ-निसार थे हम तो

ख़ुद को दौरान-ए-हाल में अपने
बे-तरह नागवार थे हम तो

तुम ने हम को भी कर दिया बरबाद
नादिर-ए-रोज़गार थे हम तो

हम को यारों ने याद भी न रखा
'जौन' यारों के यार थे हम तो

सीना दहक रहा हो तो क्या चुप रहे कोई

सीना दहक रहा हो तो क्या चुप रहे कोई
क्यूँ चीख़ चीख़ कर न गला छील ले कोई

साबित हुआ सुकून-ए-दिल-ओ-जाँ कहीं नहीं
रिश्तों में ढूँढता है तो ढूँडा करे कोई

तर्क-ए-तअल्लुक़ात कोई मसअला नहीं
ये तो वो रास्ता है कि बस चल पड़े कोई

दीवार जानता था जिसे मैं वो धूल थी
अब मुझ को ए'तिमाद की दावत न दे कोई

मैं ख़ुद ये चाहता हूँ कि हालात हूँ ख़राब
मेरे ख़िलाफ़ ज़हर उगलता फिरे कोई

ऐ शख़्स अब तो मुझ को सभी कुछ क़ुबूल है
ये भी क़ुबूल है कि तुझे छीन ले कोई

हाँ ठीक है मैं अपनी अना का मरीज़ हूँ
आख़िर मिरे मिज़ाज में क्यूँ दख़्ल दे कोई

इक शख़्स कर रहा है अभी तक वफ़ा का ज़िक्र
काश उस ज़बाँ-दराज़ का मुँह नोच ले कोई

घर से हम घर तलक गए होंगे

घर से हम घर तलक गए होंगे
अपने ही आप तक गए होंगे

हम जो अब आदमी हैं पहले कभी
जाम होंगे छलक गए होंगे

वो भी अब हम से थक गया होगा
हम भी अब उस से थक गए होंगे

शब जो हम से हुआ मुआ'फ़ करो
नहीं पी थी बहक गए होंगे

कितने ही लोग हिर्स-ए-शोहरत में
दार पर ख़ुद लटक गए होंगे

शुक्र है इस निगाह-ए-कम का मियाँ
पहले ही हम खटक गए होंगे

हम तो अपनी तलाश में अक्सर
अज़ समा-ता-समक गए होंगे

उस का लश्कर जहाँ-तहाँ या'नी
हम भी बस बे-कुमक गए होंगे

'जौन' अल्लाह और ये आलम
बीच में हम अटक गए होंगे

बड़ा एहसान हम फ़रमा रहे हैं

बड़ा एहसान हम फ़रमा रहे हैं
कि उन के ख़त उन्हें लौटा रहे हैं

नहीं तर्क-ए-मोहब्बत पर वो राज़ी
क़यामत है कि हम समझा रहे हैं

यक़ीं का रास्ता तय करने वाले
बहुत तेज़ी से वापस आ रहे हैं

ये मत भूलो कि ये लम्हात हम को
बिछड़ने के लिए मिलवा रहे हैं

तअ'ज्जुब है कि इश्क़-ओ-आशिक़ी से
अभी कुछ लोग धोका खा रहे हैं

तुम्हें चाहेंगे जब छिन जाओगी तुम
अभी हम तुम को अर्ज़ां पा रहे हैं

किसी सूरत उन्हें नफ़रत हो हम से
हम अपने ऐब ख़ुद गिनवा रहे हैं

वो पागल मस्त है अपनी वफ़ा में
मिरी आँखों में आँसू आ रहे हैं

दलीलों से उसे क़ाइल किया था
दलीलें दे के अब पछता रहे हैं

तिरी बाँहों से हिजरत करने वाले
नए माहौल में घबरा रहे हैं

ये जज़्ब-ए-इश्क़ है या जज़्बा-ए-रहम
तिरे आँसू मुझे रुलवा रहे हैं

अजब कुछ रब्त है तुम से कि तुम को
हम अपना जान कर ठुकरा रहे हैं

वफ़ा की यादगारें तक न होंगी
मिरी जाँ बस कोई दिन जा रहे हैं

अब किसी से मिरा हिसाब नहीं

अब किसी से मिरा हिसाब नहीं
मेरी आँखों में कोई ख़्वाब नहीं

ख़ून के घूँट पी रहा हूँ मैं
ये मिरा ख़ून है शराब नहीं

मैं शराबी हूँ मेरी आस न छीन
तू मिरी आस है सराब नहीं

नोच फेंके लबों से मैं ने सवाल
ताक़त-ए-शोख़ी-ए-जवाब नहीं

अब तो पंजाब भी नहीं पंजाब
और ख़ुद जैसा अब दो-आब नहीं

ग़म अबद का नहीं है आन का है
और इस का कोई हिसाब नहीं

बूदश इक रू है एक रू या'नी
इस की फ़ितरत में इंक़लाब नहीं

दिल ने वफ़ा के नाम पर कार-ए-वफ़ा नहीं किया

दिल ने वफ़ा के नाम पर कार-ए-वफ़ा नहीं किया
ख़ुद को हलाक कर लिया ख़ुद को फ़िदा नहीं किया

ख़ीरा-सरान-ए-शौक़ का कोई नहीं है जुम्बा-दार
शहर में इस गिरोह ने किस को ख़फ़ा नहीं किया

जो भी हो तुम पे मो'तरिज़ उस को यही जवाब दो
आप बहुत शरीफ़ हैं आप ने क्या नहीं किया

निस्बत इल्म है बहुत हाकिम-ए-वक़त को अज़ीज़
उस ने तो कार-ए-जहल भी बे-उलमा नहीं किया

जिस को भी शैख़ ओ शाह ने हुक्म-ए-ख़ुदा दिया क़रार
हम ने नहीं क्या वो काम हाँ ब-ख़ुदा नहीं किया

किस से इज़हार-ए-मुद्दआ कीजे

किस से इज़हार-ए-मुद्दआ कीजे
आप मिलते नहीं हैं क्या कीजे

हो न पाया ये फ़ैसला अब तक
आप कीजे तो क्या किया कीजे

आप थे जिस के चारा-गर वो जवाँ
सख़्त बीमार है दुआ कीजे

एक ही फ़न तो हम ने सीखा है
जिस से मिलिए उसे ख़फ़ा कीजे

है तक़ाज़ा मिरी तबीअ'त का
हर किसी को चराग़-पा कीजे

है तो बारे ये आलम-ए-असबाब
बे-सबब चीख़ने लगा कीजे

आज हम क्या गिला करें उस से
गिला-ए-तंगी-ए-क़बा कीजे

नुत्क़ हैवान पर गराँ है अभी
गुफ़्तुगू कम से कम किया कीजे

हज़रत-ए-ज़ुल्फ़-ए-ग़ालिया-अफ़्शाँ
नाम अपना सबा सबा कीजे

ज़िंदगी का अजब मोआ'मला है
एक लम्हे में फ़ैसला कीजे

मुझ को आदत है रूठ जाने की
आप मुझ को मना लिया कीजे

मिलते रहिए इसी तपाक के साथ
बेवफ़ाई की इंतिहा कीजे

कोहकन को है ख़ुद-कुशी ख़्वाहिश
शाह-बानो से इल्तिजा कीजे

मुझ से कहती थीं वो शराब आँखें
आप वो ज़हर मत पिया कीजे

रंग हर रंग में है दाद-तलब
ख़ून थूकूँ तो वाह-वा कीजे

चलो बाद-ए-बहारी जा रही है

चलो बाद-ए-बहारी जा रही है
पिया-जी की सवारी जा रही है

शुमाल-ए-जावेदान-ए-सब्ज़-ए-जाँ से
तमन्ना की अमारी जा रही है

फ़ुग़ाँ ऐ दुश्मन-ए-दार-ए-दिल-ओ-जाँ
मिरी हालत सुधारी जा रही है

जो इन रोज़ों मिरा ग़म है वो ये है
कि ग़म से बुर्दबारी जा रही है

है सीने में अजब इक हश्र बरपा
कि दिल से बे-क़रारी जा रही है

मैं पैहम हार कर ये सोचता हूँ
वो क्या शय है जो हारी जा रही है

दिल उस के रू-ब-रू है और गुम-सुम
कोई अर्ज़ी गुज़ारी जा रही है

वो सय्यद बच्चा हो और शैख़ के साथ
मियाँ इज़्ज़त हमारी जा रही है

है बरपा हर गली में शोर-ए-नग़्मा
मिरी फ़रियाद मारी जा रही है

वो याद अब हो रही है दिल से रुख़्सत
मियाँ प्यारों की प्यारी जा रही है

दरेग़ा तेरी नज़दीकी मियाँ-जान
तिरी दूरी पे वारी जा रही है

बहुत बद-हाल हैं बस्ती तिरे लोग
तो फिर तू क्यूँ सँवारी जा रही है

तिरी मरहम-निगाही ऐ मसीहा
ख़राश-ए-दिल पे वारी जा रही है

ख़राबे में अजब था शोर बरपा
दिलों से इंतिज़ारी जा रही है

ऐ कू-ए-यार तेरे ज़माने गुज़र गए

ऐ कू-ए-यार तेरे ज़माने गुज़र गए
जो अपने घर से आए थे वो अपने घर गए

अब कौन ज़ख़्म ओ ज़हर से रक्खेगा सिलसिला
जीने की अब हवस है हमें हम तो मर गए

अब क्या कहूँ कि सारा मोहल्ला है शर्मसार
मैं हूँ अज़ाब में कि मिरे ज़ख़्म भर गए

हम ने भी ज़िंदगी को तमाशा बना दिया
उस से गुज़र गए कभी ख़ुद से गुज़र गए

था रन भी ज़िंदगी का अजब तुर्फ़ा माजरा
या'नी उठे तो पाँव मगर 'जौन' सर गए

जुज़ गुमाँ और था ही क्या मेरा

जुज़ गुमाँ और था ही क्या मेरा
फ़क़त इक मेरा नाम था मेरा

निकहत-ए-पैरहन से उस गुल की
सिलसिला बे-सबा रहा मेरा

मुझ को ख़्वाहिश ही ढूँडने की न थी
मुझ में खोया रहा ख़ुदा मेरा

थूक दे ख़ून जान ले वो अगर
आलम-ए-तर्क-ए-मुद्दआ मेरा

जब तुझे मेरी चाह थी जानाँ
बस वही वक़्त था कड़ा मेरा

कोई मुझ तक पहुँच नहीं पाता
इतना आसान है पता मेरा

आ चुका पेश वो मुरव्वत से
अब चलूँ काम हो चुका मेरा

आज मैं ख़ुद से हो गया मायूस
आज इक यार मर गया मेरा

दिल जो है आग लगा दूँ उस को

दिल जो है आग लगा दूँ उस को
और फिर ख़ुद ही हवा दूँ उस को

जो भी है उस को गँवा बैठा है
मैं भला कैसे गँवा दूँ उस को

तुझ गुमाँ पर जो इमारत की थी
सोचता हूँ कि मैं ढा दूँ उस को

जिस्म में आग लगा दूँ उस के
और फिर ख़ुद ही बुझा दूँ उस को

हिज्र की नज़्र तो देनी है उसे
सोचता हूँ कि भुला दूँ उस को

जो नहीं है मिरे दिल की दुनिया
क्यूँ न मैं 'जौन' मिटा दूँ उस को

तंग आग़ोश में आबाद करूँगा तुझ को

तंग आग़ोश में आबाद करूँगा तुझ को
हूँ बहुत शाद कि नाशाद करूँगा तुझ को

फ़िक्र-ए-ईजाद में गुम हूँ मुझे ग़ाफ़िल न समझ
अपने अंदाज़ पर ईजाद करूँगा तुझ को

नश्शा है राह की दूरी का कि हमराह है तू
जाने किस शहर में आबाद करूँगा तुझ को

मेरी बाँहों में बहकने की सज़ा भी सुन ले
अब बहुत देर में आज़ाद करूँगा तुझ को

मैं कि रहता हूँ ब-सद-नाज़ गुरेज़ाँ तुझ से
तू न होगा तो बहुत याद करूँगा तुझ को

अपनी मंज़िल का रास्ता भेजो

अपनी मंज़िल का रास्ता भेजो
जान हम को वहाँ बुला भेजो

क्या हमारा नहीं रहा सावन
ज़ुल्फ़ याँ भी कोई घटा भेजो

नई कलियाँ जो अब खिली हैं वहाँ
उन की ख़ुश्बू को इक ज़रा भेजो

हम न जीते हैं और न मरते हैं
दर्द भेजो न तुम दवा भेजो

धूल उड़ती है जो उस आँगन में
उस को भेजो सबा सबा भेजो

ऐ फकीरो गली के उस गुल की
तुम हमें अपनी ख़ाक-ए-पा भेजो

शफ़क़-ए-शाम-ए-हिज्र के हाथों
अपनी उतरी हुई क़बा भेजो

कुछ तो रिश्ता है तुम से कम-बख़्तों
कुछ नहीं कोई बद-दुआ' भेजो

अजब हालत हमारी हो गई है

अजब हालत हमारी हो गई है
ये दुनिया अब तुम्हारी हो गई है

सुख़न मेरा उदासी है सर-ए-शाम
जो ख़ामोशी पे तारी हो गई है

बहुत ही ख़ुश है दिल अपने किए पर
ज़माने-भर में ख़्वारी हो गई है

वो नाज़ुक-लब है अब जाने ही वाला
मिरी आवाज़ भारी हो गई है

दिल अब दुनिया पे ला'नत कर कि इस की
बहुत ख़िदमत-गुज़ारी हो गई है

यक़ीं मा'ज़ूर है अब और गुमाँ भी
बड़ी बे-रोज़-गारी हो गई है

वो इक बाद-ए-शुमाली-रंग जो थी
शमीम उस की सवारी हो गई है

मिरे पास आ के ख़ंजर भोंक दे तू
बहुत नेज़ा-गुज़ारी हो गई है

काम की बात मैं ने की ही नहीं

काम की बात मैं ने की ही नहीं
ये मिरा तौर-ए-ज़िंदगी ही नहीं

ऐ उमीद ऐ उमीद-ए-नौ-मैदाँ
मुझ से मय्यत तिरी उठी ही नहीं

मैं जो था उस गली का मस्त-ए-ख़िराम
उस गली में मिरी चली ही नहीं

ये सुना है कि मेरे कूच के बा'द
उस की ख़ुश्बू कहीं बसी ही नहीं

थी जो इक फ़ाख़्ता उदास उदास
सुब्ह वो शाख़ से उड़ी ही नहीं

मुझ में अब मेरा जी नहीं लगता
और सितम ये कि मेरा जी ही नहीं

वो जो रहती थी दिल-मोहल्ले में
फिर वो लड़की मुझे मिली ही नहीं

जाइए और ख़ाक उड़ाइए आप
अब वो घर क्या कि वो गली ही नहीं

हाए वो शौक़ जो नहीं था कभी
हाए वो ज़िंदगी जो थी ही नहीं

दिल की तकलीफ़ कम नहीं करते

दिल की तकलीफ़ कम नहीं करते
अब कोई शिकवा हम नहीं करते

जान-ए-जाँ तुझ को अब तिरी ख़ातिर
याद हम कोई दम नहीं करते

दूसरी हार की हवस है सो हम
सर-ए-तस्लीम ख़म नहीं करते

वो भी पढ़ता नहीं है अब दिल से
हम भी नाले को नम नहीं करते

जुर्म में हम कमी करें भी तो क्यूँ
तुम सज़ा भी तो कम नहीं करते

ऐश-ए-उम्मीद ही से ख़तरा है

ऐश-ए-उम्मीद ही से ख़तरा है
दिल को अब दिल-दही से ख़तरा है

है कुछ ऐसा कि उस की जल्वत में
हमें अपनी कमी से ख़तरा है

जिस के आग़ोश का हूँ दीवाना
उस के आग़ोश ही से ख़तरा है

याद की धूप तो है रोज़ की बात
हाँ मुझे चाँदनी से ख़तरा है

है अजब कुछ मोआ'मला दरपेश
अक़्ल को आगही से ख़तरा है

शहर-ए-ग़द्दार जान ले कि तुझे
एक अमरोहवी से ख़तरा है

है अजब तौर हालत-ए-गिर्या
कि मिज़ा को नमी से ख़तरा है

हाल ख़ुश लखनऊ का दिल्ली का
बस उन्हें 'मुसहफ़ी' से ख़तरा है

आसमानों में है ख़ुदा तन्हा
और हर आदमी से ख़तरा है

मैं कहूँ किस तरह ये बात उस से
तुझ को जानम मुझी से ख़तरा है

आज भी ऐ कनार-ए-बान मुझे
तेरी इक साँवली से ख़तरा है

उन लबों का लहू न पी जाऊँ
अपनी तिश्ना-लबी से ख़तरा है

'जौन' ही तो है 'जौन' के दरपय
'मीर' को 'मीर' ही से ख़तरा है

अब नहीं कोई बात ख़तरे की
अब सभी को सभी से ख़तरा है

तुझ से गिले करूँ तुझे जानाँ मनाऊँ मैं

तुझ से गिले करूँ तुझे जानाँ मनाऊँ मैं
इक बार अपने-आप में आऊँ तो आऊँ मैं

दिल से सितम की बे-सर-ओ-कारी हवा को है
वो गर्द उड़ रही है कि ख़ुद को गँवाऊँ मैं

वो नाम हूँ कि जिस पे नदामत भी अब नहीं
वो काम हैं कि अपनी जुदाई कमाऊँ मैं

क्यूँकर हो अपने ख़्वाब की आँखों में वापसी
किस तौर अपने दिल के ज़मानों में जाऊँ मैं

इक रंग सी कमान हो ख़ुश्बू सा एक तीर
मरहम सी वारदात हो और ज़ख़्म खाऊँ मैं

शिकवा सा इक दरीचा हो नश्शा सा इक सुकूत
हो शाम इक शराब सी और लड़खड़ाऊँ मैं

फिर उस गली से अपना गुज़र चाहता है दिल
अब उस गली को कौन सी बस्ती से लाऊँ मैं

ज़ख़्म-ए-उम्मीद भर गया कब का

ज़ख़्म-ए-उम्मीद भर गया कब का
क़ैस तो अपने घर गया कब का

अब तो मुँह अपना मत दिखाओ मुझे
नासेहो मैं सुधर गया कब का

आप अब पूछने को आए हैं
दिल मिरी जान मर गया कब का

आप इक और नींद ले लीजे
क़ाफ़िला कूच कर गया कब का

मेरा फ़िहरिस्त से निकाल दो नाम
मैं तो ख़ुद से मुकर गया कब का

ज़िक्र भी उस से क्या भला मेरा

ज़िक्र भी उस से क्या भला मेरा
उस से रिश्ता ही क्या रहा मेरा

आज मुझ को बहुत बुरा कह कर
आप ने नाम तो लिया मेरा

आख़िरी बात तुम से कहना है
याद रखना न तुम कहा मेरा

अब तो कुछ भी नहीं हूँ मैं वैसे
कभी वो भी था मुब्तला मेरा

वो भी मंज़िल तलक पहुँच जाता
उस ने ढूँडा नहीं पता मेरा

तुझ से मुझ को नजात मिल जाए
तो दुआ कर कि हो भला मेरा

क्या बताऊँ बिछड़ गया याराँ
एक बिल्क़ीस से सबा मेरा

वो जो था वो कभी मिला ही नहीं

वो जो था वो कभी मिला ही नहीं
सो गरेबाँ कभी सिला ही नहीं

उस से हर दम मोआ'मला है मगर
दरमियाँ कोई सिलसिला ही नहीं

बे-मिले ही बिछड़ गए हम तो
सौ गिले हैं कोई गिला ही नहीं

चश्म-ए-मयगूँ से है मुग़ाँ ने कहा
मस्त कर दे मगर पिला ही नहीं

तू जो है जान तू जो है जानाँ
तू हमें आज तक मिला ही नहीं

मस्त हूँ मैं महक से उस गुल की
जो किसी बाग़ में खिला ही नहीं

हाए 'जौन' उस का वो पियाला-ए-नाफ़
जाम ऐसा कोई मिला ही नहीं

तू है इक उम्र से फ़ुग़ाँ-पेशा
अभी सीना तिरा छिला ही नहीं

हिज्र की आँखों से आँखें तो मिलाते जाइए

हिज्र की आँखों से आँखें तो मिलाते जाइए
हिज्र में करना है क्या ये तो बताते जाइए

बन के ख़ुश्बू की उदासी रहिए दिल के बाग़ में
दूर होते जाइए नज़दीक आते जाइए

जाते जाते आप इतना काम तो कीजे मिरा
याद का सारा सर-ओ-सामाँ जलाते जाइए

रह गई उम्मीद तो बरबाद हो जाऊँगा मैं
जाइए तो फिर मुझे सच-मुच भुलाते जाइए

ज़िंदगी की अंजुमन का बस यही दस्तूर है
बढ़ के मिलिए और मिल कर दूर जाते जाइए

आख़िरश रिश्ता तो हम में इक ख़ुशी इक ग़म का था
मुस्कुराते जाइए आँसू बहाते जाइए

वो गली है इक शराबी चश्म-ए-काफ़िर की गली
उस गली में जाइए तो लड़खड़ाते जाइए

आप को जब मुझ से शिकवा ही नहीं कोई तो फिर
आग ही दिल में लगानी है लगाते जाइए

कूच है ख़्वाबों से ताबीरों की सम्तों में तो फिर
जाइए पर दम-ब-दम बरबाद जाते जाइए

आप का मेहमान हूँ मैं आप मेरे मेज़बान
सो मुझे ज़हर-ए-मुरव्वत तो पिलाते जाइए

है सर-ए-शब और मिरे घर में नहीं कोई चराग़
आग तो इस घर में जानाना लगाते जाइए

है अजब हाल ये ज़माने का

है अजब हाल ये ज़माने का
याद भी तौर है भुलाने का

पसंद आया बहुत हमें पेशा
ख़ुद ही अपने घरों को ढाने का

काश हम को भी हो नसीब कभी
ऐश-ए-दफ़्तर में गुनगुनाने का

आसमाँ है ख़मोशी-ए-जावेद
मैं भी अब लब नहीं हिलाने का

जान क्या अब तिरा पियाला-ए-नाफ़
नश्शा मुझ को नहीं पिलाने का

शौक़ है इस दिल-ए-दरिंदा को
आप के होंट काट खाने का

इतना नादिम हुआ हूँ ख़ुद से कि मैं
अब नहीं ख़ुद को आज़माने का

क्या कहूँ जान को बचाने मैं
'जौन' ख़तरा है जान जाने का

ये जहाँ 'जौन' इक जहन्नुम है
याँ ख़ुदा भी नहीं है आने का

ज़िंदगी एक फ़न है लम्हों को
अपने अंदाज़ से गँवाने का

कभी कभी तो बहुत याद आने लगते हो

कभी कभी तो बहुत याद आने लगते हो
कि रूठते हो कभी और मनाने लगते हो

गिला तो ये है तुम आते नहीं कभी लेकिन
जब आते भी हो तो फ़ौरन ही जाने लगते हो

ये बात 'जौन' तुम्हारी मज़ाक़ है कि नहीं
कि जो भी हो उसे तुम आज़माने लगते हो

तुम्हारी शाइ'री क्या है बुरा भला क्या है
तुम अपने दिल की उदासी को गाने लगते हो

सुरूद-ए-आतिश-ए-ज़र्रीन-ए-सहन-ए-ख़ामोशी
वो दाग़ है जिसे हर शब जलाने लगते हो

सुना है काहकशानों में रोज़-ओ-शब ही नहीं
तो फिर तुम अपनी ज़बाँ क्यूँ जलाने लगते हो

अजब इक तौर है जो हम सितम ईजाद रखें

अजब इक तौर है जो हम सितम ईजाद रखें
कि न उस शख़्स को भूलें न उसे याद रखें

अहद इस कूचा-ए-दिल से है सो उस कूचे में
है कोई अपनी जगह हम जिसे बरबाद रखें

क्या कहें कितने ही नुक्ते हैं जो बरते न गए
ख़ुश-बदन इश्क़ करें और हमें उस्ताद रखें

बे-सुतूँ इक नवाही में है शहर-ए-दिल की
तेशा इनआ'म करें और कोई फ़रहाद रखें

आशियाना कोई अपना नहीं पर शौक़ ये है
इक क़फ़स लाएँ कहीं से कोई सय्याद रखें

हम को अन्फ़ास की अपने है इमारत करनी
इस इमारत की लबों पर तिरे बुनियाद रखें

ख़ून थूकेगी ज़िंदगी कब तक

ख़ून थूकेगी ज़िंदगी कब तक
याद आएगी अब तिरी कब तक

जाने वालों से पूछना ये सबा
रहे आबाद दिल-गली कब तक

हो कभी तो शराब-ए-वस्ल नसीब
पिए जाऊँ मैं ख़ून ही कब तक

दिल ने जो उम्र-भर कमाई है
वो दुखन दिल से जाएगी कब तक

जिस में था सोज़-ए-आरज़ू उस का
शब-ए-ग़म वो हवा चली कब तक

बनी-आदम की ज़िंदगी है अज़ाब
ये ख़ुदा को रुलाएगी कब तक

हादिसा ज़िंदगी है आदम की
साथ देगी भला ख़ुशी कब तक

है जहन्नुम जो याद अब उस की
वो बहिश्त-ए-वजूद थी कब तक

वो सबा उस के बिन जो आई थी
वो उसे पूछती रही कब तक

मीर-'जौनी' ज़रा बताएँ तो
ख़ुद में ठहरेंगे आप ही कब तक

हाल-ए-सहन-ए-वजूद ठहरेगा
तेरा हंगाम-ए-रुख़्सती कब तक

कब उस का विसाल चाहिए था

कब उस का विसाल चाहिए था
बस एक ख़याल चाहिए था

कब दिल को जवाब से ग़रज़ थी
होंटों को सवाल चाहिए था

शौक़ एक नफ़स था और वफ़ा को
पास-ए-मह-ओ-साल चाहिए था

इक चेहरा-ए-सादा था जो हम को
बे-मिस्ल-ओ-मिसाल चाहिए था

इक कर्ब में ज़ात-ओ-ज़िंदगी हैं
मुमकिन को मुहाल चाहिए था

मैं क्या हूँ बस इक मलाल-ए-माज़ी
इस शख़्स को हाल चाहिए था

हम तुम जो बिछड़ गए हैं हम को
कुछ दिन तो मलाल चाहिए था

वो जिस्म जमाल था सरापा
और मुझ को जमाल चाहिए था

वो शोख़ रमीदा मुझ को अपनी
बाँहों में निढाल चाहिए था

था वो जो कमाल-ए-शौक़-ए-वसलत
ख़्वाहिश को ज़वाल चाहिए था

जो लम्हा-ब-लम्हा मिल रहा है
वो साल-ब-साल चाहिए था

ख़ुद मैं ही गुज़र के थक गया हूँ

ख़ुद मैं ही गुज़र के थक गया हूँ
मैं काम न कर के थक गया हूँ

ऊपर से उतर के ताज़ा-दम था
नीचे से उतर के थक गया हूँ

अब तुम भी तो जी के थक रहे हो
अब मैं भी तो मर के थक गया हूँ

मैं या'नी अज़ल का आर्मीदा
लम्हों में बिखर के थक गया हूँ

अब जान का मेरी जिस्म शल है
मैं ख़ुद से ही डर के थक गया हूँ

गुज़राँ हैं गुज़रते रहते हैं

गुज़राँ हैं गुज़रते रहते हैं
हम मियाँ जान मरते रहते हैं

हाए जानाँ वो नाफ़-प्याला तिरा
दिल में बस घूँट उतरते रहते हैं

दिल का जल्सा बिखर गया तो क्या
सारे जलसे बिखरते रहते हैं

या'नी क्या कुछ भुला दिया हम ने
अब तो हम ख़ुद से डरते रहते हैं

हम से क्या क्या ख़ुदा मुकरता है
हम ख़ुदा से मुकरते रहते हैं

है अजब उस का हाल-ए-हिज्र कि हम
गाहे गाहे सँवरते रहते हैं

दिल के सब ज़ख़्म पेशा-वर हैं मियाँ
आन हा आन भरते रहते हैं

मुझ को तो गिर के मरना है

मुझ को तो गिर के मरना है
बाक़ी को क्या करना है

शहर है चेहरों की तमसील
सब का रंग उतरना है

वक़्त है वो नाटक जिस में
सब को डरा कर डरना है

मेरे नक़्श-ए-सानी को
मुझ में ही से उभरना है

कैसी तलाफ़ी क्या तदबीर
करना है और भरना है

जो नहीं गुज़रा है अब तक
वो लम्हा तो गुज़रना है

अपने गुमाँ का रंग था मैं
अब ये रंग बिखरना है

हम दो पाए हैं सो हमें
मेज़ पे जा कर चरना है

चाहे हम कुछ भी कर लें
हम ऐसों को सुधरना है

हम तुम हैं इक लम्हे के
फिर भी वा'दा करना है

तुम से भी अब तो जा चुका हूँ मैं

तुम से भी अब तो जा चुका हूँ मैं
दूर-हा-दूर आ चुका हूँ मैं

ये बहुत ग़म की बात हो शायद
अब तो ग़म भी गँवा चुका हूँ मैं

इस गुमान-ए-गुमाँ के आलम में
आख़िरश क्या भुला चुका हूँ मैं

अब बबर शेर इश्तिहा है मिरी
शाइ'रों को तो खा चुका हूँ मैं

मैं हूँ मे'मार पर ये बतला दूँ
शहर के शहर ढह चुका हूँ मैं

हाल है इक अजब फ़राग़त का
अपना हर ग़म मना चुका हूँ मैं

लोग कहते हैं मैं ने जोग लिया
और धूनी रमा चुका हूँ मैं

नहीं इमला दुरुस्त 'ग़ालिब' का
'शेफ़्ता' को बता चुका हूँ मैं

याद उसे इंतिहाई करते हैं

याद उसे इंतिहाई करते हैं
सो हम उस की बुराई करते हैं

पसंद आता है दिल से यूसुफ़ को
वो जो यूसुफ़ के भाई करते हैं

है बदन ख़्वाब-ए-वस्ल का दंगल
आओ ज़ोर-आज़माई करते हैं

उस को और ग़ैर को ख़बर ही नहीं
हम लगाई बुझाई करते हैं

हम अजब हैं कि उस की बाँहों में
शिकवा-ए-नारसाई करते हैं

हालत-ए-वस्ल में भी हम दोनों
लम्हा लम्हा जुदाई करते हैं

आप जो मेरी जाँ हैं मैं दिल हूँ
मुझ से कैसे जुदाई करते हैं

बा-वफ़ा एक दूसरे से मियाँ
हर-नफ़स बेवफ़ाई करते हैं

जो हैं सरहद के पार से आए
वो बहुत ख़ुद-सताई करते हैं

पल क़यामत के सूद-ख़्वार हैं 'जौन'
ये अबद की कमाई करते हैं

दिल गुमाँ था गुमानियाँ थे हम

दिल गुमाँ था गुमानियाँ थे हम
हाँ मियाँ दासतानियाँ थे हम

हम सुने और सुनाए जाते थे
रात भर की कहानियाँ थे हम

जाने हम किस की बूद का थे सुबूत
जाने किस की निशानियाँ थे हम

छोड़ते क्यूँ न हम ज़मीं अपनी
आख़िरश आसमानियाँ थे हम

ज़र्रा भर भी न थी नुमूद अपनी
और फिर भी जहानियाँ थे हम

हम न थे एक आन के भी मगर
जावेदाँ जाविदानियाँ थे हम

रोज़ इक रन था तीर-ओ-तरकश बिन
थे कमीं और कमानियाँ थे हम

अर्ग़वानी था वो पियाला-ए-नाफ़
हम जो थे अर्ग़वानियाँ थे हम

नार-ए-पिस्तान थी वो क़त्ताला
और हवस-दरमियानियाँ थे हम

ना-गहाँ थी इक आन आन कि थी
हम जो थे नागहानियाँ थे हम

वो क्या कुछ न करने वाले थे

वो क्या कुछ न करने वाले थे
बस कोई दम में मरने वाले थे

थे गिले और गर्द-ए-बाद की शाम
और हम सब बिखरने वाले थे

वो जो आता तो उस की ख़ुश्बू में
आज हम रंग भरने वाले थे

सिर्फ़ अफ़्सोस है ये तंज़ नहीं
तुम न सँवरे सँवरने वाले थे

यूँ तो मरना है एक बार मगर
हम कई बार मरने वाले थे

दिल से है बहुत गुरेज़-पा तू

दिल से है बहुत गुरेज़-पा तू
तू कौन है और है भी क्या तू

क्यूँ मुझ में गँवा रहा है ख़ुद को
मुझ ऐसे यहाँ हज़ार-हा तू

है तेरी जुदाई और मैं हूँ
मिलते ही कहीं बिछड़ गया तू

पूछे जो तुझे कोई ज़रा भी
जब मैं न रहूँ तो देखना तू

इक साँस ही बस लिया है मैं ने
तू साँस न था सो क्या हुआ तू

है कौन जो तेरा ध्यान रखे
बाहर मिरे बस कहीं न जा तू

दिल कितना आबाद हुआ जब दीद के घर बरबाद हुए

दिल कितना आबाद हुआ जब दीद के घर बरबाद हुए
वो बिछड़ा और ध्यान में उस के सौ मौसम ईजाद हुए

नामवरी की बात दिगर है वर्ना यारो सोचो तो
गुलगूँ अब तक कितने तेशे बे-ख़ून-ए-फ़रहाद हुए

लाएँगे कहाँ से बोल रसीले होंटों की नादारी में
समझो एक ज़माना गुज़रा बोसों की इमदाद हुए

तुम मेरी इक ख़ुद-मस्ती हो मैं हूँ तुम्हारी ख़ुद-बीनी
रिश्ते में इक इश्क़ के हम तुम दोनों बे-बुनियाद हुए

मेरा क्या इक मौज-ए-हवा हूँ पर यूँ है ऐ ग़ुंचा-दहन
तू ने दिल का बाग़ जो छोड़ा ग़ुंचे बे-उस्ताद हुए

इश्क़-मोहल्ले में अब यारो क्या कोई मा'शूक़ नहीं
कितने क़ातिल मौसम गुज़रे शोर हुए फ़रियाद हुए

हम ने दिल को मार रखा है और जताते फिरते हैं
हम दिल ज़ख़्मी मिज़्गाँ ख़ूनीं हम न हुए जल्लाद हुए

बर्क़ किया है अक्स-ए-बदन ने तेरे हमें इक तंग क़बा
तेरे बदन पर जितने तिल हैं सारे हम को याद हुए

तू ने कभी सोचा तो होगा सोचा भी ऐ मस्त-अदा
तेरी अदा की आबादी पर कितने घर बरबाद हुए

जो कुछ भी रूदाद-ए-सुख़न थी होंटों की दूरी से थी
जब होंटों से होंट मिले तो यक-दम बे-रूदाद हुए

ख़ाक-नशीनों से कूचे के क्या क्या नख़वत करते हैं
जानाँ जान तिरे दरबाँ तो फ़िरऔन-ओ-शद्दाद हुए

शहरों में ही ख़ाक उड़ा लो शोर मचा लो बे-जा लो
जिन दश्तों की सोच रहे हो वो कब के बरबाद हुए

सम्तों में बिखरी वो ख़ल्वत वो दिल की रंग-ए-आबादी
या'नी वो जो बाम-ओ-दर थे यकसर गर्द-ओ-बाद हुए

तू ने रिंदों का हक़ मारा मय-ख़ाने में रात गए
शैख़ खरे सय्यद हैं हम तो हम ने सुनाया शाद हुए

हम तिरा हिज्र मनाने के लिए निकले हैं

हम तिरा हिज्र मनाने के लिए निकले हैं
शहर में आग लगाने के लिए निकले हैं

शहर कूचों में करो हश्र बपा आज कि हम
उस के वा'दों को भुलाने के लिए निकले हैं

हम से जो रूठ गया है वो बहुत है मा'सूम
हम तो औरों को मनाने के लिए निकले हैं

शहर में शोर है वो यूँ कि गुमाँ के सफ़री
अपने ही आप में आने के लिए निकले हैं

वो जो थे शहर-ए-तहय्युर तिरे पुर-फ़न मे'मार
वही पुर-फ़न तुझे ढाने के लिए निकले हैं

रहगुज़र में तिरी क़ालीन बिछाने वाले
ख़ून का फ़र्श बिछाने के लिए निकले हैं

हमें करना है ख़ुदावंद की इमदाद सो हम
दैर-ओ-का'बा को लड़ाने के लिए निकले हैं

सर-ए-शब इक नई तमसील बपा होनी है
और हम पर्दा उठाने के लिए निकले हैं

हमें सैराब नई नस्ल को करना है सो हम
ख़ून में अपने नहाने के लिए निकले हैं

हम कहीं के भी नहीं पर ये है रूदाद अपनी
हम कहीं से भी न जाने के लिए निकले हैं

उस ने हम को गुमान में रक्खा

उस ने हम को गुमान में रक्खा
और फिर कम ही ध्यान में रक्खा

क्या क़यामत-नुमू थी वो जिस ने
हश्र उस की उठान में रक्खा

जोशिश-ए-ख़ूँ ने अपने फ़न का हिसाब
एक चुप इक चटान में रक्खा

लम्हे लम्हे की अपनी थी इक शान
तू ने ही एक शान में रक्खा

हम ने पैहम क़ुबूल-ओ-रद कर के
उस को एक इम्तिहान में रक्खा

तुम तो उस याद की अमान में हो
उस को किस की अमान में रक्खा

अपना रिश्ता ज़मीं से ही रक्खो
कुछ नहीं आसमान में रक्खा

किसी से कोई ख़फ़ा भी नहीं रहा अब तो

किसी से कोई ख़फ़ा भी नहीं रहा अब तो
गिला करो कि गिला भी नहीं रहा अब तो

वो काहिशें हैं कि ऐश-ए-जुनूँ तो क्या या'नी
ग़ुरूर-ए-ज़ेहन-ए-रसा भी नहीं रहा अब तो

शिकस्त-ए-ज़ात का इक़रार और क्या होगा
कि इद्दा-ए-वफ़ा भी नहीं रहा अब तो
चुने हुए हैं लबों पर तिरे हज़ार जवाब
शिकायतों का मज़ा भी नहीं रहा अब तो

हूँ मुब्तला-ए-यक़ीं मेरी मुश्किलें मत पूछ
गुमान-ए-उक़्दा-कुशा भी नहीं रहा अब तो

मिरे वजूद का अब क्या सवाल है या'नी
मैं अपने हक़ में बुरा भी नहीं रहा अब तो

यही अतिय्या-ए-सुब्ह-ए-शब-ए-विसाल है क्या
कि सेहर-ए-नाज़-ओ-अदा भी नहीं रहा अब तो

यक़ीन कर जो तिरी आरज़ू में था पहले
वो लुत्फ़ तेरे सिवा भी नहीं रहा अब तो

वो सुख वहाँ कि ख़ुदा की हैं बख़्शिशें क्या क्या
यहाँ ये दुख कि ख़ुदा भी नहीं रहा अब तो

दिल जो इक जाए थी दुनिया हुई आबाद उस में

दिल जो इक जाए थी दुनिया हुई आबाद उस में
पहले सुनते हैं कि रहती थी कोई याद उस में

वो जो था अपना गुमान आज बहुत याद आया
थी अजब राहत-ए-आज़ादी-ए-ईजाद उस में

एक ही तो वो मुहिम थी जिसे सर करना था
मुझे हासिल न किसी की हुई इमदाद उस में

एक ख़ुश्बू में रही मुझ को तलाश-ए-ख़द-ओ-ख़ाल
रंग फ़सलें मिरी यारो हुईं बरबाद उस में

बाग़-ए-जाँ से तू कभी रात गए गुज़रा है
कहते हैं रात में खेलें हैं परी-ज़ाद उस में

दिल-मोहल्ले में अजब एक क़फ़स था यारो
सैद को छोड़ के रहने लगा सय्याद उस में

तिश्नगी ने सराब ही लिक्खा

तिश्नगी ने सराब ही लिक्खा
ख़्वाब देखा था ख़्वाब ही लिक्खा

हम ने लिक्खा निसाब-ए-तीरा-शबी
और ब-सद आब-ओ-ताब ही लिक्खा

मुंशियान-ए-शुहूद ने ता-हाल
ज़िक्र-ए-ग़ैब-ओ-हिजाब ही लिक्खा

न रखा हम ने बेश-ओ-कम का ख़याल
शौक़ को बे-हिसाब ही लिक्खा

दोस्तो हम ने अपना हाल उसे
जब भी लिक्खा ख़राब ही लिक्खा

न लिखा उस ने कोई भी मक्तूब
फिर भी हम ने जवाब ही लिक्खा

हम ने इस शहर-ए-दीन-ओ-दौलत में
मस्ख़रों को जनाब ही लिक्खा

एक गुमाँ का हाल है और फ़क़त गुमाँ में है

एक गुमाँ का हाल है और फ़क़त गुमाँ में है
किस ने अज़ाब-ए-जाँ सहा कौन अज़ाब-ए-जाँ में है

लम्हा-ब-लम्हा दम-ब-दम आन-ब-आन रम-ब-रम
मैं भी गुज़िश्तगाँ में हूँ तू भी गुज़िश्तगाँ में है

आदम-ओ-ज़ात-ए-किब्रिया कर्ब में हैं जुदा जुदा
क्या कहूँ उन का माजरा जो भी है इम्तिहाँ में है

शाख़ से उड़ गया परिंद है दिल-ए-शाम-ए-दर्द-मंद
सहन में है मलाल सा हुज़्न सा आसमाँ में है

ख़ुद में भी बे-अमाँ हूँ मैं तुझ में भी बे-अमाँ हूँ मैं
कौन सहेगा उस का ग़म वो जो मिरी अमाँ में है

कैसा हिसाब क्या हिसाब हालत-ए-हाल है अज़ाब
ज़ख़्म नफ़स नफ़स में है ज़हर ज़माँ ज़माँ में है

उस का फ़िराक़ भी ज़ियाँ उस का विसाल भी ज़ियाँ
एक अजीब कश्मकश हल्क़ा-ए-बे-दिलाँ में है

बूद-ओ-नबूद का हिसाब मैं नहीं जानता मगर
सारे वजूद की नहीं मेरे अदम की हाँ में है

कौन से शौक़ किस हवस का नहीं

कौन से शौक़ किस हवस का नहीं
दिल मिरी जान तेरे बस का नहीं

राह तुम कारवाँ की लो कि मुझे
शौक़ कुछ नग़्मा-ए-जरस का नहीं

हाँ मिरा वो मोआ'मला है कि अब
काम यारान-ए-नुक्ता-रस का नहीं

हम कहाँ से चले हैं और कहाँ
कोई अंदाज़ा पेश-ओ-पस का नहीं

हो गई उस गले में उम्र तमाम
पास शो'ले को ख़ार-ओ-ख़स का नहीं

मुझ को ख़ुद से जुदा न होने दो
बात ये है मैं अपने बस का नहीं

क्या लड़ाई भला कि हम में से
कोई भी सैंकड़ों बरस का नहीं

क्या यक़ीं और क्या गुमाँ चुप रह

क्या यक़ीं और क्या गुमाँ चुप रह
शाम का वक़्त है मियाँ चुप रह

हो गया क़िस्सा-ए-वजूद तमाम
है अब आग़ाज़-ए-दास्ताँ चुप रह

मैं तो पहले ही जा चुका हूँ कहीं
तू भी जानाँ नहीं यहाँ चुप रह

तू अब आया है हाल में अपने
जब ज़मीं है न आसमाँ चुप रह

तू जहाँ था जहाँ जहाँ था कभी
तू भी अब तो नहीं वहाँ चुप रह

ज़िक्र छेड़ा ख़ुदा का फिर तू ने
याँ है इंसाँ भी राएगाँ चुप रह

सारा सौदा निकाल दे सर से
अब नहीं कोई आस्ताँ चुप रह

अहरमन हो ख़ुदा हो या आदम
हो चुका सब का इम्तिहाँ चुप रह

दरमियानी ही अब सभी कुछ है
तू नहीं अपने दरमियाँ चुप रह

अब कोई बात तेरी बात नहीं
नहीं तेरी तिरी ज़बाँ चुप रह

है यहाँ ज़िक्र-ए-हाल-ए-मौजूदाँ
तू है अब अज़-गुज़िश्तगाँ चुप रह

हिज्र की जाँ-कनी तमाम हुई
दिल हुआ 'जौन' बे-अमाँ चुप रह

सब चले जाओ मुझ में ताब नहीं

सब चले जाओ मुझ में ताब नहीं
नाम को भी अब इज़्तिराब नहीं

ख़ून कर दूँ तिरे शबाब का मैं
मुझ सा क़ातिल तिरा शबाब नहीं

इक किताब-ए-वजूद है तो सही
शायद इस में दुआ का बाब नहीं

तू जो पढ़ता है बू-अली की किताब
क्या ये आलिम कोई किताब नहीं

अपनी मंज़िल नहीं कोई फ़रियाद
रख़्श भी अपना बद-रिकाब नहीं

हम किताबी सदा के हैं लेकिन
हस्ब-ए-मंशा कोई किताब नहीं

भूल जाना नहीं गुनाह उसे
याद करना उसे सवाब नहीं

पढ़ लिया उस की याद का नुस्ख़ा
उस में शोहरत का कोई बाब नहीं

ग़म है बे-माजरा कई दिन से

ग़म है बे-माजरा कई दिन से
जी नहीं लग रहा कई दिन से

बे-शमीम-ओ-मलाल-ओ-हैराँ है
ख़ेमा-गाह-ए-सबा कई दिन से

दिल-मोहल्ले की उस गली में भला
क्यूँ नहीं गुल मचा कई दिन से

वो जो ख़ुश्बू है उस के क़ासिद को
मैं नहीं मिल सका कई दिन से

उस से भी और अपने आप से भी
हम हैं बे-वासता कई दिन से

शाम तक मेरी बेकली है शराब

शाम तक मेरी बेकली है शराब
शाम को मेरी सरख़ुशी है शराब

जहल-ए-वाइ'ज़ का इस को रास आए
साहिबो मेरी आगही है शराब

रंग-रस है मेरी रगों में रवाँ
ब-ख़ुदा मेरी ज़िंदगी है शराब

नाज़ है अपनी दिलबरी पे मुझे
मेरा दिल मेरी दिलबरी है शराब

है ग़नीमत जो होश में नहीं मैं
शैख़ तुझ को बचा रही है शराब

हिस जो होती तो जाने क्या करता
मुफ़्तियों मेरी बे-हिसी है शराब

न हम रहे न वो ख़्वाबों की ज़िंदगी ही रही

न हम रहे न वो ख़्वाबों की ज़िंदगी ही रही
गुमाँ गुमाँ सी महक ख़ुद को ढूँढती ही रही

अजब तरह रुख़-ए-आइन्दगी का रंग उड़ा
दयार-ए-ज़ात में अज़-ख़ुद गुज़श्तगी ही रही

हरीम-ए-शौक़ का आलम बताएँ क्या तुम को
हरीम-ए-शौक़ में बस शौक़ की कमी ही रही

पस-ए-निगाह-ए-तग़ाफ़ुल थी इक निगाह कि थी
जो दिल के चेहरा-ए-हसरत की ताज़गी ही रही

अजीब आईना-ए-परतव-ए-तमन्ना था
थी उस में एक उदासी कि जो सजी ही रही

बदल गया सभी कुछ उस दयार-ए-बूदश में
गली थी जो तिरी जाँ वो तिरी गली ही रही

तमाम दिल के मोहल्ले उजड़ चुके थे मगर
बहुत दिनों तो हँसी ही रही ख़ुशी ही रही

वो दास्तान तुम्हें अब भी याद है कि नहीं
जो ख़ून थूकने वालों की बे-हिसी ही रही

सुनाऊँ मैं किसे अफ़साना-ए-ख़याल-ए-मलाल
तिरी कमी ही रही और मिरी कमी ही रही

क्या ये आफ़त नहीं अज़ाब नहीं

क्या ये आफ़त नहीं अज़ाब नहीं
दिल की हालत बहुत ख़राब नहीं

बूद पल पल की बे-हिसाबी है
कि मुहासिब नहीं हिसाब नहीं

ख़ूब गाव बजाओ और पियो
इन दिनों शहर में जनाब नहीं

सब भटकते हैं अपनी गलियों में
ता-ब-ख़ुद कोई बारयाब नहीं

तू ही मेरा सवाल अज़ल से है
और साजन तिरा जवाब नहीं

हिफ़्ज़ है शम्स-ए-बाज़ग़ा मुझ को
पर मयस्सर वो माहताब नहीं

तुझ को दिल-दर्द का नहीं एहसास
सो मिरी पिंडलियों को दाब नहीं

नहीं जुड़ता ख़याल को भी ख़याल
ख़्वाब में भी तो कोई ख़्वाब नहीं

सतर-ए-मू उस की ज़ेर-ए-नाफ़ की हाए
जिस की चाक़ू-ज़नों को ताब नहीं

सर-ए-सहरा हबाब बेचे हैं

सर-ए-सहरा हबाब बेचे हैं
लब-ए-दरिया सराब बेचे हैं

और तो क्या था बेचने के लिए
अपनी आँखों के ख़्वाब बेचे हैं

ख़ुद सवाल उन लबों से कर के मियाँ
ख़ुद ही उन के जवाब बेचे हैं

ज़ुल्फ़-कूचों में शाना-कुश ने तिरे
कितने ही पेच-ओ-ताब बेचे हैं

शहर में हम ख़राब हालों ने
हाल अपने ख़राब बेचे हैं

जान-ए-मन तेरी बे-नक़ाबी ने
आज कितने नक़ाब बेचे हैं

मेरी फ़रियाद ने सुकूत के साथ
अपने लब के अज़ाब बेचे हैं

मैं न ठहरूँ न जान तू ठहरे

मैं न ठहरूँ न जान तू ठहरे
कौन लम्हों के रू-ब-रू ठहरे

न गुज़रने पे ज़िंदगी गुज़री
न ठहरने पे चार-सू ठहरे

है मिरी बज़्म-ए-बे-दिली भी अजीब
दिल पे रक्खूँ जहाँ सुबू ठहरे

मैं यहाँ मुद्दतों में आया हूँ
एक हंगामा कू-ब-कू ठहरे

महफ़िल-ए-रुख़्सत-ए-हमेशा है
आओ इक हश्र-ए-हा-ओ-हू ठहरे

इक तवज्जोह अजब है सम्तों में
कि न बोलूँ तो गुफ़्तुगू ठहरे

कज-अदा थी बहुत उमीद मगर
हम भी 'जौन' एक हीला-जू ठहरे

एक चाक-ए-बरहंगी है वजूद
पैरहन हो तो बे-रफ़ू ठहरे

मैं जो हूँ क्या नहीं हूँ मैं ख़ुद भी
ख़ुद से बात आज दू-बदू ठहरे

बाग़-ए-जाँ से मिला न कोई समर
'जौन' हम तो नुमू नुमू ठहरे

ख़्वाब के रंग दिल-ओ-जाँ में सजाए भी गए

ख़्वाब के रंग दिल-ओ-जाँ में सजाए भी गए
फिर वही रंग ब-सद तौर जलाए भी गए

उन्हीं शहरों को शिताबी से लपेटा भी गया
जो अजब शौक़-ए-फ़राख़ी से बिछाए भी गए

बज़्म शोख़ी का किसी की कहें क्या हाल-ए-जहाँ
दिल जलाए भी गए और बुझाए भी गए

पुश्त मिट्टी से लगी जिस में हमारी लोगो
उसी दंगल में हमें दाव सिखाए भी गए

याद-ए-अय्याम कि इक महफ़िल-ए-जाँ थी कि जहाँ
हाथ खींचे भी गए और मिलाए भी गए

हम कि जिस शहर में थे सोग-नशीन-ए-अहवाल
रोज़ इस शहर में हम धूम मचाए भी गए

याद मत रखियो ये रूदाद हमारी हरगिज़
हम थे वो ताज-महल 'जौन' जो ढाए भी गए

वो ख़याल-ए-मुहाल किस का था

वो ख़याल-ए-मुहाल किस का था
आइना बे-मिसाल किस का था

सफ़री अपने आप से था मैं
हिज्र किस का विसाल किस का था

मैं तो ख़ुद में कहीं न था मौजूद
मेरे लब पर सवाल किस का था

थी मिरी ज़ात इक ख़याल-आशोब
जाने मैं हम-ख़याल किस का था

जब कि मैं हर-नफ़स था बे-अहवाल
वो जो था मेरा हाल किस का था

दोपहर बाद-ए-तुंद कूचा-ए-यार
वो ग़ुबार-ए-मलाल किस का था

हवास में तो न थे फिर भी क्या न कर आए

हवास में तो न थे फिर भी क्या न कर आए
कि दार पर गए हम और फिर उतर आए

अजीब हाल के मजनूँ थे जो ब-इश्वा-ओ-नाज़
ब-सू-ए-बाद ये महमिल में बैठ कर आए

कभी गए थे मियाँ जो ख़बर के सहरा की
वो आए भी तो बगूलों के साथ घर आए

कोई जुनूँ नहीं सौदाइयान-ए-सहरा को
कि जो अज़ाब भी आए वो शहर पर आए

बताओ दाम गुरु चाहिए तुम्हें अब क्या
परिंदगान-ए-हवा ख़ाक पर उतर आए

अजब ख़ुलूस से रुख़्सत किया गया हम को
ख़याल-ए-ख़ाम का तावान था सो भर आए

तिफ़्लान-ए-कूचा-गर्द के पत्थर भी कुछ नहीं

तिफ़्लान-ए-कूचा-गर्द के पत्थर भी कुछ नहीं
सौदा भी एक वहम है और सर भी कुछ नहीं

मैं और ख़ुद को तुझ से छुपाऊँगा या'नी मैं
ले देख ले मियाँ मिरे अंदर भी कुछ नहीं

बस इक गुबार-ए-वहम है इक कूचा-गर्द का
दीवार-ए-बूद कुछ नहीं और दर भी कुछ नहीं

ये शहर-दार-ओ-मुहतसिब-ओ-मौलवी ही क्या
पीर-ए-मुग़ान-ओ-रिन्द-ओ-क़लंदर भी कुछ नहीं

शैख़-ए-हराम-लुक़्मा की पर्वा है क्यूँ तुम्हें
मस्जिद भी उस की कुछ नहीं मिम्बर भी कुछ नहीं

मक़्दूर अपना कुछ भी नहीं इस दयार में
शायद वो जब्र है कि मुक़द्दर भी कुछ नहीं

जानी मैं तेरे नाफ़-पियाले पे हूँ फ़िदा
ये और बात है तिरा पैकर भी कुछ नहीं

ये शब का रक़्स-ओ-रंग तो क्या सुन मिरी कुहन
सुब्ह-ए-शिताब-कोश को दफ़्तर भी कुछ नहीं

बस इक ग़ुबार तूर-ए-गुमाँ का है तह-ब-तह
या'नी नज़र भी कुछ नहीं मंज़र भी कुछ नहीं

है अब तो एक जाल सुकून-ए-हमेशगी
पर्वाज़ का तो ज़िक्र ही क्या पर भी कुछ नहीं

कितना डरावना है ये शहर-ए-नबूद-ओ-बूद
ऐसा डरावना कि यहाँ डर भी कुछ नहीं

पहलू में है जो मेरे कहीं और है वो शख़्स
या'नी वफ़ा-ए-अहद का बिस्तर भी कुछ नहीं

निस्बत में उन की जो है अज़िय्यत वो है मगर
शह-रग भी कोई शय नहीं और सर भी कुछ नहीं

याराँ तुम्हें जो मुझ से गिला है तो किस लिए
मुझ को तो ए'तिराज़ ख़ुदा पर भी कुछ नहीं

गुज़रेगी 'जौन' शहर में रिश्तों के किस तरह
दिल में भी कुछ नहीं है ज़बाँ पर भी कुछ नहीं

शाम थी और बर्ग-ओ-गुल शल थे मगर सबा भी थी

शाम थी और बर्ग-ओ-गुल शल थे मगर सबा भी थी
एक अजीब सुकूत था एक अजब सदा भी थी

एक मलाल का सा हाल महव था अपने हाल में
रक़्स-ओ-नवा थे बे-तरफ़ महफ़िल-ए-शब बपा भी थी

सामेआ-ए-सदा-ए-जाँ बे-सरोकार था कि था
एक गुमाँ की दास्ताँ बर-लब नीम-वा भी थी

क्या मह-ओ-साल माजरा एक पलक थी जो मियाँ
बात की इब्तिदा भी थी बात की इंतिहा भी थी

एक सुरूद-ए-रौशनी नीमा-ए-शब का ख़्वाब था
एक ख़मोश तीरगी सानेहा-आश्ना भी थी

दिल तिरा पेशा-ए-गिला-ए-काम ख़राब कर गया
वर्ना तो एक रंज की हालत-ए-बे-गिला भी थी

दिल के मुआ'मले जो थे उन में से एक ये भी है
इक हवस थी दिल में जो दिल से गुरेज़-पा भी थी

बाल-ओ-पर-ए-ख़याल को अब नहीं सम्त-ओ-सू नसीब
पहले थी इक अजब फ़ज़ा और जो पुर-फ़ज़ा भी थी

ख़ुश्क है चश्मा-सार-ए-जाँ ज़र्द है सब्ज़ा-ज़ार-ए-दिल
अब तो ये सोचिए कि याँ पहले कभी हवा भी थी

नहीं निबाही ख़ुशी से ग़मी को छोड़ दिया

नहीं निबाही ख़ुशी से ग़मी को छोड़ दिया
तुम्हारे बा'द भी मैं ने कई को छोड़ दिया

हों जो भी जान की जाँ वो गुमान होते हैं
सभी थे जान की जाँ और सभी को छोड़ दिया

शुऊ'र एक शुऊ'र-ए-फ़रेब है सो तो है
ग़रज़ कि आगही ना-आगही को छोड़ दिया

ख़याल-ओ-ख़्वाब की अंदेशगी के सुख झेले
ख़याल-ओ-ख़्वाब की अंदेशगी को छोड़ दिया

ख़ुद से रिश्ते रहे कहाँ उन के

ख़ुद से रिश्ते रहे कहाँ उन के
ग़म तो जाने थे राएगाँ उन के

मस्त उन को गुमाँ में रहने दे
ख़ाना-बर्बाद हैं गुमाँ उन के

यार सुख नींद हो नसीब उन को
दुख ये है दुख हैं बे-अमाँ उन के

कितनी सरसब्ज़ थी ज़मीं उन की
कितने नीले थे आसमाँ उन के

नौहा-ख़्वानी है क्या ज़रूर उन्हें
उन के नग़्मे हैं नौहा-ख़्वाँ उन के

कू-ए-जानाँ में और क्या माँगो

कू-ए-जानाँ में और क्या माँगो
हालत-ए-हाल यक सदा माँगो

हर-नफ़स तुम यक़ीन-ए-मुनइम से
रिज़्क़ अपने गुमान का माँगो

है अगर वो बहुत ही दिल नज़दीक
उस से दूरी का सिलसिला माँगो

दर-ए-मतलब है क्या तलब-अंगेज़
कुछ नहीं वाँ सो कुछ भी जा माँगो

गोशा-गीर-ए-ग़ुबार-ए-ज़ात हूँ में
मुझ में हो कर मिरा पता माँगो

मुनकिरान-ए-ख़ुदा-ए-बख़शिंदा
उस से तो और इक ख़ुदा माँगो

उस शिकम-रक़्स-गर के साइल हो
नाफ़-प्याले की तुम अता माँगो

लाख जंजाल माँगने में हैं
कुछ न माँगो फ़क़त दुआ माँगो

फ़ुर्क़त में वसलत बरपा है अल्लाह-हू के बाड़े में

फ़ुर्क़त में वसलत बरपा है अल्लाह-हू के बाड़े में
आशोब-ए-वहदत बरपा है अल्लाह-हू के बाड़े में

रूह-ए-कुल से सब रूहों पर वस्ल की हसरत तारी है
इक सर-ए-हिकमत बरपा है अल्लाह-हू के बाड़े में

बे-अहवाली की हालत है शायद या शायद कि नहीं
पर अहवालिय्यत बरपा है अल्लाह-हू के बाड़े में

मुख़्तारी के लब सिलवाना जब्र अजब-तर ठहरा है
हैजान-ए-ग़ैरत बरपा है अल्लाह-हू के बाड़े में

बाबा अलिफ़ इरशाद-कुनाँ हैं पेश-ए-अदम के बारे में
हैरत बे-हैरत बरपा है अल्लाह-हू के बाड़े में

मा'नी हैं लफ़्ज़ों से बरहम क़हर-ए-ख़मोशी आलम है
एक अजब हुज्जत बरपा है अल्लाह-हू के बाड़े में

मौजूदी से इंकारी है अपनी ज़िद में नाज़-ए-वजूद
हालत सी हालत बरपा है अल्लाह-हू के बाड़े में

शहर-ब-शहर कर सफ़र ज़ाद-ए-सफ़र लिए बग़ैर

शहर-ब-शहर कर सफ़र ज़ाद-ए-सफ़र लिए बग़ैर
कोई असर किए बग़ैर कोई असर लिए बग़ैर

कोह-ओ-कमर में हम-सफ़ीर कुछ नहीं अब ब-जुज़ हवा
देखियो पलटियो न आज शहर से पर लिए बग़ैर

वक़्त के मा'रके में थीं मुझ को रिआयतें हवस
मैं सर-ए-मा'रका गया अपनी सिपर लिए बग़ैर

कुछ भी हो क़त्ल-गाह में हुस्न-ए-बदन का है ज़रर
हम न कहीं से आएँगे दोश पे सर लिए बग़ैर

करया-ए-गिरया में मिरा गिर्या हुनर-वराना है
याँ से कहीं टलूँगा मैं दाद-ए-हुनर लिए बग़ैर

उस के भी कुछ गिले हैं दिल उन का हिसाब तुम रखो
दीद ने उस में की बसर उस की ख़बर लिए बग़ैर

उस का सुख़न भी जा से है और वो ये कि 'जौन' तुम
शोहरा-ए-शहर हो तो क्या शहर में घर लिए बग़ैर

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