ग़ज़लें : इब्न-ए-इंशा

Ghazals in Hindi : Ibn-e-Insha



कल चौदहवीं की रात थी

कल चौदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तिरा कुछ ने कहा ये चाँद है कुछ ने कहा चेहरा तिरा हम भी वहीं मौजूद थे हम से भी सब पूछा किए हम हँस दिए हम चुप रहे मंज़ूर था पर्दा तिरा इस शहर में किस से मिलें हम से तो छूटीं महफ़िलें हर शख़्स तेरा नाम ले हर शख़्स दीवाना तिरा कूचे को तेरे छोड़ कर जोगी ही बन जाएँ मगर जंगल तिरे पर्बत तिरे बस्ती तिरी सहरा तिरा हम और रस्म-ए-बंदगी आशुफ़्तगी उफ़्तादगी एहसान है क्या क्या तिरा ऐ हुस्न-ए-बे-परवा तिरा दो अश्क जाने किस लिए पलकों पे आ कर टिक गए अल्ताफ़ की बारिश तिरी इकराम का दरिया तिरा ऐ बे-दरेग़ ओ बे-अमाँ हम ने कभी की है फ़ुग़ाँ हम को तिरी वहशत सही हम को सही सौदा तिरा हम पर ये सख़्ती की नज़र हम हैं फ़क़ीर-ए-रहगुज़र रस्ता कभी रोका तिरा दामन कभी थामा तिरा हाँ हाँ तिरी सूरत हसीं लेकिन तू ऐसा भी नहीं इक शख़्स के अशआ'र से शोहरा हुआ क्या क्या तिरा बेदर्द सुननी हो तो चल कहता है क्या अच्छी ग़ज़ल आशिक़ तिरा रुस्वा तिरा शाइर तिरा 'इंशा' तिरा

'इंशा'-जी उठो अब कूच करो

'इंशा'-जी उठो अब कूच करो इस शहर में जी को लगाना क्या वहशी को सुकूँ से क्या मतलब जोगी का नगर में ठिकाना क्या इस दिल के दरीदा दामन को देखो तो सही सोचो तो सही जिस झोली में सौ छेद हुए उस झोली का फैलाना क्या शब बीती चाँद भी डूब चला ज़ंजीर पड़ी दरवाज़े में क्यूँ देर गए घर आए हो सजनी से करोगे बहाना क्या फिर हिज्र की लम्बी रात मियाँ संजोग की तो यही एक घड़ी जो दिल में है लब पर आने दो शर्माना क्या घबराना क्या उस रोज़ जो उन को देखा है अब ख़्वाब का आलम लगता है उस रोज़ जो उन से बात हुई वो बात भी थी अफ़साना क्या उस हुस्न के सच्चे मोती को हम देख सकें पर छू न सकें जिसे देख सकें पर छू न सकें वो दौलत क्या वो ख़ज़ाना क्या उस को भी जला दुखते हुए मन इक शो'ला लाल भबूका बन यूँ आँसू बन बह जाना क्या यूँ माटी में मिल जाना क्या जब शहर के लोग न रस्ता दें क्यूँ बन में न जा बिसराम करे दीवानों की सी न बात करे तो और करे दीवाना क्या (1970 के आग़ाज़ में लिखी गई ये ग़ज़ल "इंशा जी उठो अब कूच करो" बहुत मशहूर हूई, अमानत अली ख़ान ने जब ये ग़ज़ल गाई तो उस के कुछ ही महीने बाद इंतिक़ाल कर गए, अमानत आली ख़ान के बेटे असद अमानत अली ने भी जब ये ग़ज़ल गाई तो ये उन की आख़री ग़ज़ल साबित हूई। इब्न-ए-इंशा ने ख़ुद अपनी मौत से एक दिन पहले एक दोस्त को ख़त में लिखा कि "ये मनहूस ग़ज़ल और कितनों की जान लेगी")

उस शाम वो रुख़्सत का समाँ याद रहेगा

उस शाम वो रुख़्सत का समाँ याद रहेगा वो शहर वो कूचा वो मकाँ याद रहेगा वो टीस कि उभरी थी इधर याद रहेगी वो दर्द कि उट्ठा था यहाँ याद रहेगा हम शौक़ के शोले की लपक भूल भी जाएँ वो शम-ए-फ़सुर्दा का धुआँ याद रहेगा हाँ बज़्म-ए-शबाना में हमा-शौक़ जो उस दिन हम थे तिरी जानिब निगराँ याद रहेगा कुछ 'मीर' के अबयात थे कुछ 'फ़ैज़' के मिसरे इक दर्द का था जिन में बयाँ याद रहेगा आँखों में सुलगती हुई वहशत के जिलौ में वो हैरत ओ हसरत का जहाँ याद रहेगा जाँ-बख़्श सी उस बर्ग-ए-गुल-ए-तर की तरावत वो लम्स-ए-अज़ीज़-ए-दो-जहाँ याद रहेगा हम भूल सके हैं न तुझे भूल सकेंगे तू याद रहेगा हमें हाँ याद रहेगा (बज़्म-ए-शबाना=रात की महफ़िल; हमा-शौक़= बड़े शौक से; निगराँ=देखने वाले; अबयात= शेर; मिसरे=शेर की पंक्तियाँ)

शाम-ए-ग़म की सहर नहीं होती

शाम-ए-ग़म की सहर नहीं होती या हमीं को ख़बर नहीं होती हम ने सब दुख जहाँ के देखे हैं बेकली इस क़दर नहीं होती नाला यूँ ना-रसा नहीं रहता आह यूँ बे-असर नहीं होती चाँद है कहकशाँ है तारे हैं कोई शय नामा-बर नहीं होती एक जाँ-सोज़ ओ ना-मुराद ख़लिश इस तरफ़ है उधर नहीं होती दोस्तो इश्क़ है ख़ता लेकिन क्या ख़ता दरगुज़र नहीं होती रात आ कर गुज़र भी जाती है इक हमारी सहर नहीं होती बे-क़रारी सही नहीं जाती ज़िंदगी मुख़्तसर नहीं होती एक दिन देखने को आ जाते ये हवस उम्र भर नहीं होती हुस्न सब को ख़ुदा नहीं देता हर किसी की नज़र नहीं होती दिल पियाला नहीं गदाई का आशिक़ी दर-ब-दर नहीं होती

दिल हिज्र के दर्द से बोझल है

दिल हिज्र के दर्द से बोझल है अब आन मिलो तो बेहतर हो इस बात से हम को क्या मतलब ये कैसे हो ये क्यूँकर हो इक भीक के दोनों कासे हैं इक प्यास के दोनो प्यासे हैं हम खेती हैं तुम बादल हो हम नदियाँ हैं तुम सागर हो ये दिल है कि जलते सीने में इक दर्द का फोड़ा अल्लहड़ सा ना गुप्त रहे ना फूट बहे कोई मरहम हो कोई निश्तर हो हम साँझ समय की छाया हैं तुम चढ़ती रात के चन्द्रमाँ हम जाते हैं तुम आते हो फिर मेल की सूरत क्यूँकर हो अब हुस्न का रुत्बा आली है अब हुस्न से सहरा ख़ाली है चल बस्ती में बंजारा बन चल नगरी में सौदागर हो जिस चीज़ से तुझ को निस्बत है जिस चीज़ की तुझ को चाहत है वो सोना है वो हीरा है वो माटी हो या कंकर हो अब 'इंशा'-जी को बुलाना क्या अब प्यार के दीप जलाना क्या जब धूप और छाया एक से हों जब दिन और रात बराबर हो वो रातें चाँद के साथ गईं वो बातें चाँद के साथ गईं अब सुख के सपने क्या देखें जब दुख का सूरज सर पर हो

कुछ कहने का वक़्त नहीं ये

कुछ कहने का वक़्त नहीं ये कुछ न कहो ख़ामोश रहो ऐ लोगो ख़ामोश रहो हाँ ऐ लोगो ख़ामोश रहो सच अच्छा पर उस के जिलौ में ज़हर का है इक प्याला भी पागल हो क्यूँ नाहक़ को सुक़रात बनो ख़ामोश रहो उन का ये कहना सूरज ही धरती के फेरे करता है सर-आँखों पर सूरज ही को घूमने दो ख़ामोश रहो महबस में कुछ हब्स है और ज़ंजीर का आहन चुभता है फिर सोचो हाँ फिर सोचो हाँ फिर सोचो ख़ामोश रहो गर्म आँसू और ठंडी आहें मन में क्या क्या मौसम हैं इस बगिया के भेद न खोलो सैर करो ख़ामोश रहो आँखें मूँद किनारे बैठो मन के रक्खो बंद किवाड़ 'इंशा'-जी लो धागा लो और लब सी लो ख़ामोश रहो

दिल इश्क़ में बे-पायाँ सौदा हो तो ऐसा हो

दिल इश्क़ में बे-पायाँ सौदा हो तो ऐसा हो दरिया हो तो ऐसा हो सहरा हो तो ऐसा हो इक ख़ाल-ए-सुवैदा में पहनाई-ए-दो-आलम फैला हो तो ऐसा हो सिमटा हो तो ऐसा हो ऐ क़ैस-ए-जुनूँ-पेशा 'इंशा' को कभी देखा वहशी हो तो ऐसा हो रुस्वा हो तो ऐसा हो दरिया ब-हुबाब-अंदर तूफ़ाँ ब-सहाब-अंदर महशर ब-हिजाब-अंदर होना हो तो ऐसा हो हम से नहीं रिश्ता भी हम से नहीं मिलता भी है पास वो बैठा भी धोका हो तो ऐसा हो वो भी रहा बेगाना हम ने भी न पहचाना हाँ ऐ दिल-ए-दीवाना अपना हो तो ऐसा हो इस दर्द में क्या क्या है रुस्वाई भी लज़्ज़त भी काँटा हो तो ऐसा हो चुभता हो तो ऐसा हो हम ने यही माँगा था उस ने यही बख़्शा है बंदा हो तो ऐसा हो दाता हो तो ऐसा हो

जाने तू क्या ढूँढ रहा है बस्ती में वीराने में

जाने तू क्या ढूँढ रहा है बस्ती में वीराने में लैला तो ऐ क़ैस मिलेगी दिल के दौलत-ख़ाने में जनम जनम के सातों दुख हैं उस के माथे पर तहरीर अपना आप मिटाना होगा ये तहरीर मिटाने में महफ़िल में उस शख़्स के होते कैफ़ कहाँ से आता है पैमाने से आँखों में या आँखों से पैमाने में किस का किस का हाल सुनाया तू ने ऐ अफ़्साना-गो हम ने एक तुझी को ढूँडा इस सारे अफ़्साने में इस बस्ती में इतने घर थे इतने चेहरे इतने लोग और किसी के दर पे न पहुँचा ऐसा होश दिवाने में

सुनते हैं फिर छुप छुप उन के

सुनते हैं फिर छुप छुप उन के घर में आते जाते हो 'इंशा' साहब नाहक़ जी को वहशत में उलझाते हो दिल की बात छुपानी मुश्किल लेकिन ख़ूब छुपाते हो बन में दाना शहर के अंदर दीवाने कहलाते हो बेकल बेकल रहते हो पर महफ़िल के आदाब के साथ आँख चुरा कर देख भी लेते भोले भी बन जाते हो पीत में ऐसे लाख जतन हैं लेकिन इक दिन सब नाकाम आप जहाँ में रुस्वा होगे वाज़ हमें फ़रमाते हो हम से नाम जुनूँ का क़ाइम हम से दश्त की आबादी हम से दर्द का शिकवा करते हम को ज़ख़्म दिखाते हो

सब को दिल के दाग़ दिखाए

सब को दिल के दाग़ दिखाए एक तुझी को दिखा न सके तेरा दामन दूर नहीं था हाथ हमीं फैला न सके तू ऐ दोस्त कहाँ ले आया चेहरा ये ख़ुर्शीद-मिसाल सीने में आबाद करेंगे आँखों में तो समा न सके ना तुझ से कुछ हम को निस्बत ना तुझ को कुछ हम से काम हम को ये मालूम था लेकिन दिल को ये समझा न सके अब तुझ से किस मुँह से कह दें सात समुंदर पार न जा बीच की इक दीवार भी हम तो फाँद न पाए ढा न सके मन पापी की उजड़ी खेती सूखी की सूखी ही रही उमडे बादल गरजे बादल बूँदें दो बरसा न सके

किस को पार उतारा तुम ने

किस को पार उतारा तुम ने किस को पार उतारोगे मल्लाहो तुम परदेसी को बीच भँवर में मारोगे मुँह देखे की मीठी बातें सुनते इतनी उम्र हुई आँख से ओझल होते होते जी से हमें बिसारोगे आज तो हम को पागल कह लो पत्थर फेंको तंज़ करो इश्क़ की बाज़ी खेल नहीं है खेलोगे तो हारोगे अहल-ए-वफ़ा से तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ कर लो पर इक बात कहें कल तुम इन को याद करोगे कल तुम इन्हें पुकारोगे उन से हम से प्यार का रिश्ता ऐ दिल छोड़ो भूल चुको वक़्त ने सब कुछ मेट दिया है अब क्या नक़्श उभारोगे 'इंशा' को किसी सोच में डूबे दर पर बैठे देर हुई कब तक उस के बख़्त के बदले अपने बाल सँवारोगे

और तो कोई बस न चलेगा

और तो कोई बस न चलेगा हिज्र के दर्द के मारों का सुब्ह का होना दूभर कर दें रस्ता रोक सितारों का झूटे सिक्कों में भी उठा देते हैं ये अक्सर सच्चा माल शक्लें देख के सौदे करना काम है इन बंजारों का अपनी ज़बाँ से कुछ न कहेंगे चुप ही रहेंगे आशिक़ लोग तुम से तो इतना हो सकता है पूछो हाल बेचारों का जिस जिप्सी का ज़िक्र है तुम से दिल को उसी की खोज रही यूँ तो हमारे शहर में अक्सर मेला लगा निगारों का एक ज़रा सी बात थी जिस का चर्चा पहुँचा गली गली हम गुमनामों ने फिर भी एहसान न माना यारों का दर्द का कहना चीख़ ही उठो दिल का कहना वज़्अ' निभाओ सब कुछ सहना चुप चुप रहना काम है इज़्ज़त-दारों का 'इंशा' जी अब अजनबियों में चैन से बाक़ी उम्र कटे जिन की ख़ातिर बस्ती छोड़ी नाम न लो उन प्यारों का

रात के ख़्वाब सुनाएँ किस को

रात के ख़्वाब सुनाएँ किस को रात के ख़्वाब सुहाने थे धुँदले धुँदले चेहरे थे पर सब जाने-पहचाने थे ज़िद्दी वहशी अल्लहड़ चंचल मीठे लोग रसीले लोग होंट उन के ग़ज़लों के मिसरे आँखों में अफ़्साने थे वहशत का उनवान हमारी उन में से जो नार बनी देखेंगे तो लोग कहेंगे 'इंशा'-जी दीवाने थे ये लड़की तो इन गलियों में रोज़ ही घूमा करती थी इस से उन को मिलना था तो इस के लाख बहाने थे हम को सारी रात जगाया जलते बुझते तारों ने हम क्यूँ उन के दर पर उतरे कितने और ठिकाने थे

देख हमारे माथे पर ये दश्त-ए-तलब

देख हमारे माथे पर ये दश्त-ए-तलब की धूल मियाँ हम से अजब तिरा दर्द का नाता देख हमें मत भूल मियाँ अहल-ए-वफ़ा से बात न करना होगा तिरा उसूल मियाँ हम क्यूँ छोड़ें उन गलियों के फेरों का मामूल मियाँ यूँही तो नहीं दश्त में पहुँचे यूँही तो नहीं जोग लिया बस्ती बस्ती काँटे देखे जंगल जंगल फूल मियाँ ये तो कहो कभी इश्क़ किया है जग में हुए हो रुस्वा भी? इस के सिवा हम कुछ भी न पूछें बाक़ी बात फ़ुज़ूल मियाँ नस्ब करें मेहराब-ए-तमन्ना दीदा ओ दिल को फ़र्श करें सुनते हैं वो कू-ए-वफ़ा में आज करेंगे नुज़ूल मियाँ सुन तो लिया किसी नार की ख़ातिर काटा कोह निकाली नहर एक ज़रा से क़िस्से को अब देते क्यूँ हो तूल मियाँ खेलने दें उन्हें इश्क़ की बाज़ी खेलेंगे तो सीखेंगे 'क़ैस' की या 'फ़रहाद' की ख़ातिर खोलें क्या स्कूल मियाँ अब तो हमें मंज़ूर है ये भी शहर से निकलीं रुस्वा हूँ तुझ को देखा बातें कर लीं मेहनत हुई वसूल मियाँ 'इंशा' जी क्या उज़्र है तुम को नक़्द-ए-दिल-ओ-जाँ नज़्र करो रूप-नगर के नाके पर ये लगता है महसूल मियाँ (दश्त-ए-तलब: इच्छा का जंगल, मामूल: दिनचर्या, नाका: चुंगी, महसूल: चुंगी पर वसूला जाने वाला टैक्स)

अपने हमराह जो आते हो इधर से पहले

अपने हमराह जो आते हो इधर से पहले दश्त पड़ता है मियाँ इश्क़ में घर से पहले चल दिए उठ के सू-ए-शहर-ए-वफ़ा कू-ए-हबीब पूछ लेना था किसी ख़ाक-बसर से पहले इश्क़ पहले भी किया हिज्र का ग़म भी देखा इतने तड़पे हैं न घबराए न तरसे पहले जी बहलता ही नहीं अब कोई साअ'त कोई पल रात ढलती ही नहीं चार पहर से पहले हम किसी दर पे न ठिटके न कहीं दस्तक दी सैकड़ों दर थे मिरी जाँ तिरे दर से पहले चाँद से आँख मिली जी का उजाला जागा हम को सौ बार हुई सुब्ह सहर से पहले

देख हमारी दीद के कारन

देख हमारी दीद के कारन कैसा क़ाबिल-ए-दीद हुआ एक सितारा बैठे बैठे ताबिश में ख़ुर्शीद हुआ आज तो जानी रस्ता तकते शाम का चाँद पदीद हुआ तू ने तो इंकार किया था दिल कब ना-उम्मीद हुआ आन के इस बीमार को देखे तुझ को भी तौफ़ीक़ हुई लब पर उस के नाम था तेरा जब भी दर्द शदीद हुआ हाँ उस ने झलकी दिखलाई एक ही पल को दरीचे में जानो इक बिजली लहराई आलम एक शहीद हुआ तू ने हम से कलाम भी छोड़ा अर्ज़-ए-वफ़ा के सुनते ही पहले कौन क़रीब था हम से अब तो और बईद हुआ दुनिया के सब कारज छोड़े नाम पे तेरे 'इंशा' ने और उसे क्या थोड़े ग़म थे तेरा इश्क़ मज़ीद हुआ

हम जंगल के जोगी हम को

हम जंगल के जोगी हम को एक जगह आराम कहाँ आज यहाँ कल और नगर में सुब्ह कहाँ और शाम कहाँ हम से भी पीत की बात करो कुछ हम से भी लोगो प्यार करो तुम तो परेशाँ हो भी सकोगे हम को यहाँ पे दवाम कहाँ साँझ-समय कुछ तारे निकले पल-भर चमके डूब गए अम्बर अम्बर ढूँढ रहा है अब उन्हें माह-ए-तमाम कहाँ दिल पे जो बीते सह लेते हैं अपनी ज़बाँ में कह लेते हैं 'इंशा'-जी हम लोग कहाँ और 'मीर' का रंग-ए-कलाम कहाँ

दिल किस के तसव्वुर में जाने रातों को

दिल किस के तसव्वुर में जाने रातों को परेशाँ होता है ये हुस्न-ए-तलब की बात नहीं होता है मिरी जाँ होता है हम तेरी सिखाई मंतिक़ से अपने को तो समझा लेते हैं इक ख़ार खटकता रहता है सीने में जो पिन्हाँ होता है फिर उन की गली में पहुँचेगा फिर सहव का सज्दा कर लेगा इस दिल पे भरोसा कौन करे हर रोज़ मुसलमाँ होता है वो दर्द कि उस ने छीन लिया वो दर्द कि उस की बख़्शिश था तन्हाई की रातों में 'इंशा' अब भी मिरा मेहमाँ होता है

जब दहर के ग़म से अमाँ न मिली

जब दहर के ग़म से अमाँ न मिली हम लोगों ने इश्क़ ईजाद किया कभी शहर-ए-बुताँ में ख़राब फिरे कभी दश्त-ए-जुनूँ आबाद किया कभी बस्तियाँ बन कभी कोह-ओ-दमन रहा कितने दिनों यही जी का चलन जहाँ हुस्न मिला वहाँ बैठ रहे जहाँ प्यार मिला वहाँ साद किया शब-ए-माह में जब भी ये दर्द उठा कभी बैत कहे लिखी चाँद-नगर कभी कोह से जा सर फोड़ मरे कभी क़ैस को जा उस्ताद किया यही इश्क़ बिल-आख़िर रोग बना कि है चाह के साथ बजोग बना जिसे बनना था ऐश वो सोग बना बड़ा मन के नगर में फ़साद किया अब क़ुर्बत-ओ-सोहबत-ए-यार कहाँ लब ओ आरिज़ ओ ज़ुल्फ़ ओ कनार कहाँ अब अपना भी 'मीर' सा आलम है टुक देख लिया जी शाद किया

जल्वा-नुमाई बे-परवाई हाँ यही रीत जहाँ की है

जल्वा-नुमाई बे-परवाई हाँ यही रीत जहाँ की है कब कोई लड़की मन का दरीचा खोल के बाहर झाँकी है आज मगर इक नार को देखा जाने ये नार कहाँ की है मिस्र की मूरत चीन की गुड़िया देवी हिन्दोस्ताँ की है मुख पर रूप से धूप का आलम बाल अँधेरी शब की मिसाल आँख नशीली बात रसीली चाल बला की बाँकी है 'इंशा'-जी उसे रोक के पूछें तुम को तो मुफ़्त मिला है हुस्न किस लिए फिर बाज़ार-ए-वफ़ा में तुम ने ये जिंस गिराँ की है एक ज़रा सा गोशा दे दो अपने पास जहाँ से दूर इस बस्ती में हम लोगों को हाजत एक मकाँ की है अहल-ए-ख़िरद तादीब की ख़ातिर पाथर ले ले आ पहुँचे जब कभी हम ने शहर-ए-ग़ज़ल में दिल की बात बयाँ की है मुल्कों मुल्कों शहरों शहरों जोगी बन कर घूमा कौन क़र्या-ब-क़र्या सहरा-ब-सहरा ख़ाक ये किस ने फाँकी है हम से जिस के तौर हों बाबा देखोगे दो एक ही और कहने को तो शहर-ए-कराची बस्ती दिल-ज़दगाँ की है

हम उन से अगर मिल बैठे हैं

हम उन से अगर मिल बैठे हैं क्या दोश हमारा होता है कुछ अपनी जसारत होती है कुछ उन का इशारा होता है कटने लगीं रातें आँखों में देखा नहीं पलकों पर अक्सर या शाम-ए-ग़रीबाँ का जुगनू या सुब्ह का तारा होता है हम दिल को लिए हर देस फिरे इस जिंस के गाहक मिल न सके ऐ बंजारो हम लोग चले हम को तो ख़सारा होता है दफ़्तर से उठे कैफ़े में गए कुछ शेर कहे कुछ कॉफ़ी पी पूछो जो मआश का 'इंशा'-जी यूँ अपना गुज़ारा होता है (जसारत= दिलेरी; ख़सारा=नुक़सान; मआश=आजीविका)

राज़ कहाँ तक राज़ रहेगा

राज़ कहाँ तक राज़ रहेगा मंज़र-ए-आम पे आएगा जी का दाग़ उजागर हो कर सूरज को शरमाएगा शहरों को वीरान करेगा अपनी आँच की तेज़ी से वीरानों में मस्त अलबेले वहशी फूल खिलाएगा हाँ यही शख़्स गुदाज़ और नाज़ुक होंटों पर मुस्कान लिए ऐ दिल अपने हाथ लगाते पत्थर का बन जाएगा दीदा ओ दिल ने दर्द की अपने बात भी की तो किस से की वो तो दर्द का बानी ठहरा वो क्या दर्द बटाएगा तेरा नूर ज़ुहूर सलामत इक दिन तुझ पर माह-ए-तमाम चाँद-नगर का रहने वाला चाँद-नगर लिख जाएगा

लोग हिलाल-ए-शाम से बढ़ कर

लोग हिलाल-ए-शाम से बढ़ कर पल में माह-ए-तमाम हुए हम हर बुर्ज में घटते घटते सुब्ह तलक गुमनाम हुए उन लोगों की बात करो जो इश्क़ में ख़ुश-अंजाम हुए नज्द में क़ैस यहाँ पर 'इंशा' ख़ार हुए नाकाम हुए किस का चमकता चेहरा लाएँ किस सूरज से माँगें धूप घूर अँधेरा छा जाता है ख़ल्वत-ए-दिल में शाम हुए एक से एक जुनूँ का मारा इस बस्ती में रहता है एक हमीं हुशियार थे यारो एक हमीं बद-नाम हुए शौक़ की आग नफ़स की गर्मी घटते घटते सर्द न हो चाह की राह दिखा कर तुम तो वक़्फ़-ए-दरीचा-ओ-बाम हुए उन से बहार ओ बाग़ की बातें कर के जी को दुखाना क्या जिन को एक ज़माना गुज़रा कुंज-ए-क़फ़स में राम हुए 'इंशा'-साहिब पौ फटती है तारे डूबे सुब्ह हुई बात तुम्हारी मान के हम तो शब भर बे-आराम हुए

ऐ दिल वालो घर से निकलो

ऐ दिल वालो घर से निकलो देता दावत-ए-आम है चाँद शहरों शहरों क़रियों क़रियों वहशत का पैग़ाम है चाँद तू भी हरे दरीचे वाली आ जा बर-सर-ए-बाम है चाँद हर कोई जग में ख़ुद सा ढूँडे तुझ बिन बसे आराम है चाँद सखियों से कब सखियाँ अपने जी के भेद छुपाती हैं हम से नहीं तो उस से कह दे करता कहाँ कलाम है चाँद जिस जिस से उसे रब्त रहा है और भी लोग हज़ारों हैं एक तुझी को बे-मेहरी का देता क्यूँ इल्ज़ाम है चाँद वो जो तेरा दाग़ ग़ुलामी माथे पर लिए फिरता है उस का नाम तो 'इंशा' ठहरा नाहक़ को बदनाम है चाँद हम से भी दो बातें कर ले कैसी भीगी शाम है चाँद सब कुछ सुन ले आप न बोले तेरा ख़ूब निज़ाम है चाँद हम इस लम्बे-चौड़े घर में शब को तन्हा होते हैं देख किसी दिन आ मिल हम से हम को तुझ से काम है चाँद अपने दिल के मश्रिक-ओ-मग़रिब उस के रुख़ से मुनव्वर हैं बे-शक तेरा रूप भी कामिल बे-शक तू भी तमाम है चाँद तुझ को तो हर शाम फ़लक पर घटता-बढ़ता देखते हैं उस को देख के ईद करेंगे अपना और इस्लाम है चाँद

जंगल जंगल शौक़ से घूमो

जंगल जंगल शौक़ से घूमो दश्त की सैर मुदाम करो 'इंशा'-जी हम पास भी लेकिन रात की रात क़याम करो अश्कों से अपने दिल को हिकायत दामन पर इरक़ाम करो इश्क़ में जब यही काम है यार वले के ख़ुदा का नाम करो कब से खड़े हैं बर में ख़िराज-ए-इश्क़ के लिए सर-ए-राहगुज़ार एक नज़र से सादा-रुख़ो हम सादा-दिलों को ग़ुलाम करो दिल की मताअ' तो लूट रहे हो हुस्न की दी है ज़कात कभी रोज़-ए-हिसाब क़रीब है लोगो कुछ तो सवाब का काम करो 'मीर' से बैअ'त की है तो 'इंशा' मीर की बैअ'त भी है ज़रूर शाम को रो रो सुब्ह करो अब सुब्ह को रो रो शाम करो

दिल सी चीज़ के गाहक होंगे दो या एक

दिल सी चीज़ के गाहक होंगे दो या एक हज़ार के बीच 'इंशा' जी क्या माल लिए बैठे हो तुम बाज़ार के बीच पीना-पिलाना ऐन गुनह है जी का लगाना ऐन हवस आप की बातें सब सच्ची हैं लेकिन भरी बहार के बीच ऐ सख़ियो ऐ ख़ुश-नज़रो यक गूना करम ख़ैरात करो नारा-ज़नाँ कुछ लोग फिरें हैं सुब्ह से शहर-ए-निगार के बीच ख़ार-ओ-ख़स-ओ-ख़ाशाक तो जानें एक तुझी को ख़बर न मिले ऐ गुल-ए-ख़ूबी हम तो अबस बदनाम हुए गुलज़ार के बीच मिन्नत-ए-क़ासिद कौन उठाए शिकवा-ए-दरबाँ कौन करे नामा-ए-शौक़ ग़ज़ल की सूरत छपने को दो अख़बार के बीच

पीत करना तो हम से निभाना सजन

पीत करना तो हम से निभाना सजन हम ने पहले ही दिन था कहा ना सजन तुम ही मजबूर हो हम ही मुख़्तार हैं ख़ैर माना सजन ये भी माना सजन अब जो होने के क़िस्से सभी हो चुके तुम हमें खो चुके हम तुम्हें खो चुके आगे दिल की न बातों में आना सजन कि ये दिल है सदा का दिवाना सजन ये भी सच है न कुछ बात जी की बनी सूनी रातों में देखा किए चाँदनी पर ये सौदा है हम को पुराना सजन और जीने का अपने बहाना सजन शहर के लोग अच्छे हैं हमदर्द हैं पर हमारी सुनो हम जहाँ-गर्द हैं दाग़-ए-दिल मत किसी को दिखाना सजन ये ज़माना नहीं वो ज़माना सजन उस को मुद्दत हुई सब्र करते हुए आज कू-ए-वफ़ा से गुज़रते हुए पूछ कर उस गदा का ठिकाना सजन अपने 'इंशा' को भी देख आना सजन

हमें तुम पे गुमान-ए-वहशत था

हमें तुम पे गुमान-ए-वहशत था हम लोगों को रुस्वा किया तुम ने अभी फ़स्ल गुलों की नहीं गुज़री क्यूँ दामन-ए-चाक सिया तुम ने इस शहर के लोग बड़े ही सख़ी बड़ा मान करें दरवेशों का पर तुम से तो इतने बरहम हैं क्या आन के माँग लिया तुम ने किन राहों से हो कर आई हो किस गुल का संदेसा लाई हो हम बाग़ में ख़ुश ख़ुश बैठे थे क्या कर दिया आ के सबा तुम ने वो जो क़ैस ग़रीब थे उन का जुनूँ सभी कहते हैं हम से रहा है फ़ुज़ूँ हमें देख के हँस तो दिया तुम ने कभी देखे हैं अहल-ए-वफ़ा तुम ने ग़म-ए-इश्क़ में कारी दवा न दुआ ये है रोग कठिन ये है दर्द बुरा हम करते जो अपने से हो सकता कभी हम से भी कुछ न कहा तुम ने अब रह-रव-ए-माँदा से कुछ न कहो हाँ शाद रहो आबाद रहो बड़ी देर से याद किया तुम ने बड़ी दर्द से दी है सदा तुम ने इक बात कहेंगे 'इंशा'-जी तुम्हें रेख़्ता कहते उम्र हुई तुम एक जहाँ का इल्म पढ़े कोई 'मीर' सा शेर कहा तुम ने

इस शहर के लोगों पे ख़त्म सही

इस शहर के लोगों पे ख़त्म सही ख़ु-तलअ'ती-ओ-गुल-पैरहनी मिरे दिल की तो प्यास कभी न बुझी मिरे जी की तो बात कभी न बनी अभी कल ही की बात है जान-ए-जहाँ यहाँ फ़ील के फ़ील थे शोर-कुनाँ अब नारा-ए-इश्क़ न ज़र्ब-ए-फ़ुग़ाँ गए कौन नगर वो वफ़ा के धनी कोई और भी मोरिद-ए-लुत्फ़ हुआ मिली अहल-ए-हवस को हवस की सज़ा तिरे शहर में थे हमीं अहल-ए-वफ़ा मिली एक हमीं को जला-वतनी ये तो सच है कि हम तुझे पा न सके तिरी याद भी जी से भुला न सके तिरा दाग़ है दिल में चराग़-ए-सिफ़त तिरे नाम की ज़ेब-ए-गुलू-कफ़नी तुम सख़्ती-ए-राह का ग़म न करो हर दौर की राह में हम-सफ़रो जहाँ दश्त-ए-ख़िज़ाँ वहीं वादी-ए-गुल जहाँ धूप कड़ी वहाँ छाँव घनी इस इश्क़ के दर्द की कौन दवा मगर एक वज़ीफ़ा है एक दुआ पढ़ो 'मीर'-ओ-'कबीर' के बैत कबित सुनो शे'र-ए-'नज़ीर' फ़क़ीर-ओ-ग़नी

सावन-भादों साठ ही दिन हैं

सावन-भादों साठ ही दिन हैं फिर वो रुत की बात कहाँ अपने अश्क मुसलसल बरसें अपनी-सी बरसात कहाँ चाँद ने क्या-क्या मंज़िल कर ली निकला, चमका, डूब गया हम जो आँख झपक लें सो लें ऎ दिल हमको रात कहाँ पीत का कारोबार बहुत है अब तो और भी फैल चला और जो काम जहाँ को देखें, फुरसत दे हालात कहाँ क़ैस का नाम सुना ही होगा हमसे भी मुलाक़ात करो इश्क़ो-जुनूँ की मंज़िल मुश्किल सबकी ये औक़ात कहाँ

जोग बिजोग की बातें झूठी

जोग बिजोग की बातें झूठी सब जी का बहलाना हो फिर भी हम से जाते जाते एक ग़ज़ल सुन जाना हो सारी दुनिया अक्ल की बैरी कौन यहां पर सयाना हो, नाहक़ नाम धरें सब हम को दीवाना दीवाना हो तुम ने तो इक रीत बना ली सुन लेना शर्माना हो, सब का एक न एक ठिकाना अपना कौन ठिकाना हो नगरी नगरी लाखों द्वारे हर द्वारे पर लाख सुखी, लेकिन जब हम भूल चुके हैं दामन का फैलाना हो तेरे ये क्या जी में आई खींच लिये शर्मा कर होंठ, हम को ज़हर पिलाने वाली अमृत भी पिलवाना हो हम भी झूठे तुम भी झूठे एक इसी का सच्चा नाम, जिस से दीपक जलना सीखा परवाना मर जाना हो सीधे मन को आन दबोचे मीठी बातें सुन्दर लोग, 'मीर', 'नज़ीर', 'कबीर', और 'इन्शा' सब का एक घराना हो

ऐ मुँह मोड़ के जाने वाली

ऐ मुँह मोड़ के जाने वाली, जाते में मुसकाती जा मन नगरी की उजड़ी गलियाँ सूने धाम बसाती जा दीवानों का रूप न धारें या धारें बतलाती जा मारें हमें या ईंट न मारें लोगों से फ़रमाती जा और बहुत से रिश्ते तेरे और बहुत से तेरे नाम आज तो एक हमारे रिश्ते मेहबूबा कहलाती जा पूरे चाँद की रात वो सागर जिस सागर का ओर न छोर या हम आज डुबो दें तुझको या तू हमें बचाती जा हम लोगों की आँखें पलकें राहों में कुछ और नहीं शरमाती घबराती गोरी इतराती इठलाती जा दिलवालों की दूर पहुँच है ज़ाहिर की औक़ात न देख एक नज़र बख़शिश में दे के लाख सवाब कमाती जा और तो फ़ैज़ नहीं कुछ तुझसे ऐ बेहासिल ऐ बेमेहर इंशाजी से नज़में ग़ज़लें गीत कबत लिखवाती जा

अच्छा जो ख़फ़ा हम से हो

अच्छा जो ख़फ़ा हम से हो तुम ऐ सनम अच्छा, लो हम भी न बोलेंगे ख़ुदा की क़सम अच्छा मश्ग़ूल क्या चाहिए इस दिल को किसी तौर, ले लेंगे ढूँढ और कोई यार हम अच्छा गर्मी ने कुछ आग और ही सीने में लगा दी, हर तौर घरज़ आप से मिलना है कम अच्छा अग़ियार से करते हो मेरे सामने बातें, मुझ पर ये लगे करने नया तुम सितम अच्छा कह कर गए आता हूँ, कोई दम में मैं तुम पास, फिर दे चले कल की सी तरह मुझको दम अच्छा इस हस्ती-ए-मौहूम से मैं तंग हूँ "इंशा" वल्लाह के उस से दम अच्छा

ख़याल कीजिये क्या काम आज मैं ने किया

ख़याल कीजिये क्या काम आज मैं ने किया जब उन्ने दी मुझे गाली सलाम मैं ने किया कहा ये सब्र ने दिल से के लो ख़ुदाहाफ़ीज़, के हक़-ए-बंदगी अपना तमाम मैं ने किया झिड़क के कहने लगे लब चले बहुत अब तुम, कभी जो भूल के उनसे कलाम मैं ने किया हवस ये रह गई साहिब ने पर कभी न कहा, के आज से तुझे "इंशा" ग़ुलाम मैंने किया

फ़क़ीर बन कर तुम उनके दर पर

फ़क़ीर बन कर तुम उनके दर पर हज़ार धुनि रमा के बैठो जबीं के लिक्खे को क्या करोगे जबीं का लिक्खा मिटा के देखो ऐ उनकी महफ़िल में आने वालों ऐ सूदो सौदा बताने वालों जो उनकी महफ़िल में आ के बैठो तो, सारी दुनिया भुला के बैठो बहुत जताते हो चाह हमसे, मगर करोगे निबाह हमसे ज़रा मिलाओ निगाह हमसे, हमारे पहलू में आके बैठो जुनूं पुराना है आशिक़ों का जो यह बहाना है आशिक़ों का वो इक ठिकाना है आशिक़ों का हुज़ूर जंगल में जा के बैठो हमें दिखाओ न जर्द चेहरा लिए यह वहशत की गर्द चेहरा रहेगा तस्वीर-ए-दर्द चेहरा जो रोग ऐसे लगा के बैठो जनाब-ए-इंशा ये आशिक़ी है जनाब-ए-इंशा ये ज़िंदगी है जनाब-ए-इंशा जो है यही है न इससे दामन छुड़ा के बैठो

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