ग़ज़लें : सुग़रा सदफ़

Ghazals in Hindi : Dr. Sughra-Sadaf


अजनबी से चेहरों पर आश्ना सी आँखें हैं

अजनबी से चेहरों पर आश्ना सी आँखें हैं आश्ना से चेहरों पर कुछ ख़फ़ा सी आँखें हैं ज़र्द ज़र्द मौसम से तिश्नगी झलकती है फूल हैं ख़िज़ाओं के और प्यासी आँखें हैं पालकी बहारों की आने वाली है शायद नीम-वा दरीचों में आइना सी आँखें हैं फिर चला है दिल ले कर ख़्वाब-नाक राहों पर मेरे चार-सू अब वो रहनुमा सी आँखें हैं याद की हसीं किरनें जगमगाईं आँगन में दिल का इस्तिआ'रा तो वो दुआ सी आँखें हैं होंट ख़ुश्क हैं मेरे और क़दम 'सदफ़' ज़ख़्मी रात का सफ़र है और बे-ज़िया सी आँखें हैं

इस जहाँ पे हाल-ए-दिल आश्कार करना है

इस जहाँ पे हाल-ए-दिल आश्कार करना है आज एक हासिद को राज़दार करना है करने हैं गिले उस से रंजिशें भी रखनी हैं प्यार भी सितमगर को बे-शुमार करना है मौसम-ए-यक़ीं में जो बद-गुमान रहता है उस से प्यार का रिश्ता उस्तुवार करना है जाने वाले आख़िर को लौट कर भी आते हैं हम ने हश्र तक उस का इंतिज़ार करना है सामने रहो मेरे या निगाह से ओझल शाम-ए-ग़म तुझे मैं ने अश्क-बार करना है अस्ल में मोहब्बत की सूरतें यही दो हैं बे-क़रार होना है बे-क़रार करना है

इसे गुज़ार मगर इस पे ए'तिबार न कर

इसे गुज़ार मगर इस पे ए'तिबार न कर है उम्र फ़ानी इसे वज्ह-ए-इफ़्तिख़ार न कर मिरे सुख़न से परिंदे कलाम करते हैं तू ख़ामुशी को मिरी बेबसी शुमार न कर मैं अपनी खोज के लम्बे सफ़र पे निकली हूँ पलट के आऊँ न शायद तू इंतिज़ार न कर तुम्हारी याद से ये ज़िंदगी इबारत है रिदा-ए-शौक़ को ऐ दोस्त तार-तार न कर शुमार कर के ऐ दिल इंतिज़ार की घड़ियाँ ये बे-क़रारी अभी से तो इख़्तियार न कर ज़माना साथ न दे पाएगा 'सदफ़' तेरा तू अपने दिल के सभी राज़ आश्कार न कर

उस के चेहरे पर अजब सा रूप था अच्छा लगा

उस के चेहरे पर अजब सा रूप था अच्छा लगा उस की ख़ुशबू-ए-बदन से राब्ता अच्छा लगा लम्स उस के हाथ का फिर है रग-ओ-पै में रवाँ चंद लम्हों के मिलन को सोचना अच्छा लगा मैं ने फिर दिल से कहा उस शख़्स की बै'अत करो वो जो हर लम्हा मुझे अच्छा लगा सच्चा लगा अपनी तन्हाई से कैसी हो गई मानूस मैं आज अपना ख़ाली ख़ाली घर बड़ा अच्छा लगा उस ने अज़-राह-ए-तकल्लुफ़ मुझ से पूछा हाल-ए-दिल ये अचानक होने वाला वाक़िआ' अच्छा लगा ये जहाँ यक-लख़्त कितना ख़ूबसूरत हो गया तुम बहुत अच्छी हो जब उस ने कहा अच्छा लगा चुप की चादर तान कर अहल-ए-क़फ़स के वास्ते सूलियों पर बोलने का मशवरा अच्छा लगा जिस घड़ी उस ने मुझे देखा नज़र भर के कभी मुझ को अपना आप भी उस वक़्त क्या अच्छा लगा डरते डरते दोस्तों की बज़्म में 'सुग़रा' 'सदफ़' एक दूजे को मुसलसल देखना अच्छा लगा

कब तक भँवर के बीच सहारा मिले मुझे

कब तक भँवर के बीच सहारा मिले मुझे तूफ़ाँ के ब'अद कोई किनारा मिले मुझे जीवन में हादसों की ही तकरार क्यूँ रहे लम्हा कोई ख़ुशी का दोबारा मिले मुझे बिन चाहे मेरी राह में क्यूँ आ रहे हैं लोग जो चाहती हूँ मैं वो नज़ारा मिले मुझे सारे जहाँ की रौशनी कब माँगती हूँ मैं बस मेरी ज़िंदगी का सितारा मिले मुझे दुनिया में कौन है जो 'सदफ़' सुख समेट ले देखा जिसे भी दर्द का मारा मिले मुझे

कब जहाँ से है दुश्मनी मेरी

कब जहाँ से है दुश्मनी मेरी जंग कोई है दाख़ली मेरी इक मुकम्मल ग़ज़ल है मेरा वजूद हर सू फैली सुख़न-वरी मेरी तुझ से मिलने का कब ये मतलब था बात पहुँचे गली गली मेरी हाल अंदर का जानता है वो दिल ही करता है मुख़बिरी मेरी ख़ुद मुक़ाबिल हूँ अपनी हस्ती के यही ता'ज़ीर है बड़ी मेरी अपने दामन को भर लिया उस ने मुश्तहर कर के मुफ़लिसी मेरी तू ने सोचा तो आ गई हूँ मैं उम्र है किस क़दर बड़ी मेरी मेरी पलकों से बह रही है 'सदफ़' क़तरा-क़तरा ये ज़िंदगी मेरी

करती ही नहीं दिल से कभी नक़्ल-ए-मकानी

करती ही नहीं दिल से कभी नक़्ल-ए-मकानी चिपकी है मिरी याद से तितली सी कहानी इक अहद-ए-मोहब्बत की फ़ज़ा झाँक रही है देखो तो ज़रा ग़ौर से तस्वीर पुरानी इक आस-दरीचे में मिरे ख़्वाब पड़े हैं खुलती है जहाँ रात गए रात की रानी निकली हो जो तक़लीद-ए-मोहब्बत के सफ़र पर क्या याद नहीं तुम को वो दरिया की रवानी चुप-चाप किसी याद में खोई हुई आँखें और आँखों में ठहरा हुआ बे-ताब सा पानी होती हूँ 'सदफ़' जब भी उदासी की फ़ज़ा में धीरे से थपक देती है इक याद सुहानी

ख़्वाहिश के रास्ते में दीवार बन गया है

ख़्वाहिश के रास्ते में दीवार बन गया है इक ख़्वाब क़ाफ़िले का सालार बन गया है इक वहम तख़्त-आरा पहलू में है यक़ीं के ये दिल भी चाहतों का दरबार बन गया है इस इश्क़ की लगन में दुनिया को तज दिया था ये इश्क़ अब तो जाँ का आज़ार बन गया है ये कैसी गुफ़्तुगू है कैसा मुकालिमा है इंकार भी तुम्हारा इक़रार बन गया है जिस की मुशावरत से बिगड़ा निज़ाम-ए-हस्ती वो शख़्स अब हमारा ग़म-ख़्वार बन गया है ख़ुद से गुरेज़-पा थी लेकिन किसे के दम से मेरा वजूद कैसा दिलदार बन गया है चाहत से जो सनम था मैं ने 'सदफ़' तराशा मेरी इताअ'तों से सरकार बन गया है

ख़्वाहिश जो दिल में थी उसे मरने नहीं दिया

ख़्वाहिश जो दिल में थी उसे मरने नहीं दिया पलकों पे आँसुओं को बिखरने नहीं दिया ले आई हूँ मैं आँख में इक शब समेट कर पैग़ाम कोई मुझ को सहर ने नहीं दिया सब धूप का लिबास पहन कर खड़े रहे साया यहाँ किसी भी शजर ने नहीं दिया वो मेरा कुछ नहीं था मगर इस के बावजूद दिल में उसे किसी के उतरने नहीं दिया हर-सू दिखाई देता था मुझ को जमाल-ए-यार सो दिल में नक़्श-ए-ग़ैर उभरने नहीं दिया देखो तुम्हारे हिज्र से हारी नहीं हूँ मैं दिल को कभी वफ़ा से मुकरने नहीं दिया दीवार-ओ-दर से अपने ही खटका लगा रहा मुझ को सुकून मेरे ही घर ने नहीं दिया कैसे कहूँ 'सदफ़' कि मिरे रहनुमाओं ने मंज़िल पे पाँव तक मुझे धरने नहीं दिया

चारों ओर हिसार बनाओ

चारों ओर हिसार बनाओ हर दर पर दीवार बनाओ ख़ाक-नशीं होने की ख़ातिर सोचों में घर-बार बनाओ दिल की दिल में कब तक रक्खें कोई शरीक-ए-कार बनाओ वक़्त है पानी जिस्म है कश्ती बाज़ू तुम पतवार बनाओ दर्द में हद से गुज़रो 'सदफ़' तुम दोस्त भी दुश्मन-दार बनाओ

जज़्बों पे जमी बर्फ़ पिघल जाएगी इक दिन

जज़्बों पे जमी बर्फ़ पिघल जाएगी इक दिन ख़ुशबू कोई गलियों में मचल जाएगी इक दिन आँखों में नई सुब्ह बिखेरेगी उजाले फिर ज़ेहन से चिमटी हुई कल जाएगी इक दिन कब तक वो डराएगा मुझे तीरगियों से वो रात है और रात तो ढल जाएगी इक दिन मैं भी तुम्हें अब भूल ही जाऊँगी किसी शाम दिल बहला तो ये ज़ीस्त सँभल जाएगी इक दिन ये रतजगे जो तू ने 'सदफ़' ओढ़ लिए हैं आख़िर को ये आदत भी बदल जाएगी इक दिन

जब तक अब्र-ए-इश्क़ न बरसा

जब तक अब्र-ए-इश्क़ न बरसा हुस्न शुऊर-ए-ज़ात को तरसा नींद में भी जारी रहता है पाँव में है जो एक सफ़र सा मेरे साथ रहा है हर पल उस के खो जाने का डर सा सारी दुनिया घूम आई हूँ चैन न पाया मैं ने घर सा दिल की वहशत सहरा जैसी दरिया मेरी चश्म-ए-तर सा उग आया है सहन में मेरे दर्द का इक छितनार शजर सा वक़्त की चुप में ढूँड रही हूँ कोई पल इक अच्छी ख़बर सा चश्म-ए-'सदफ़' में तैर रहा है तेरी याद का एक गुहर सा

जिस दिन से ज़िंदगी में तिरा ग़म नहीं रहा

जिस दिन से ज़िंदगी में तिरा ग़म नहीं रहा उस दिन से मेरा ग़म भी कोई कम नहीं रहा जब हम सफ़र पे निकले तो रस्ते उलझ गए रस्ते सुलझ गए हैं तो अब दम नहीं रहा आँसू नहीं लहू था जो इस हिज्र में बहा फिर इस के बा'द आँख में वो नम नहीं रहा सोचा था अपने आप को हम जानते कभी लेकिन शुऊर-ए-ज़ात का मौसम नहीं रहा जीवन की इक डगर से फिसलते रहे हैं लोग इस रहगुज़र पे कोई कभी जम नहीं रहा यूँ तो बहुत से लोग मिले हम को ऐ 'सदफ़' मिल के चले तो कोई भी हमदम नहीं रहा

जुगनू तिरी यादों के उड़े दिल के नगर से

जुगनू तिरी यादों के उड़े दिल के नगर से अब शाम से है मेरा त'अल्लुक़ न सहर से मेरी तरह ख़ुशबू से न बिछड़े कोई हमदम मेरी तरह मंज़र को कोई आँख न तरसे ऐ काश चमन हब्स के चंगुल से निकल आए क्या फ़ाएदा उस अब्र का जो खुल के न बरसे तहज़ीब की क्या शक्ल निकल आई कि इंसाँ आज़ाद नज़र आता है अब ऐब-ओ-हुनर से इक ख़ौफ़ तआ'क़ुब में लगा रहता है हर-गाम क्या भूल हुई अब के ख़ुदा जाने बशर से रहती हूँ मैं तन्हाई की बे-नाम गली में बाहर नहीं जाती कभी इंसान के डर से तूफ़ान 'सदफ़' राह में हाइल नहीं होते मज़बूत है रिश्ता मिरा मौजों से भँवर से

जो कह दिया वो कर के दिखाना पड़ा मुझे

जो कह दिया वो कर के दिखाना पड़ा मुझे इस दिल-लगी में जान से जाना पड़ा मुझे जिस के बग़ैर साँस भी लेना मुहाल था हाए वो एक शख़्स भुलाना पड़ा मुझे जीवन में कोई और था दिल में था कोई और दोनों से हाल दिल का छुपाना पड़ा मुझे फिर जिस के बा'द मिलने का इम्कान ही न था आख़िर वो फ़ैसला भी सुनाना पड़ा मुझे इस बार हौसले से जो ग़म उस के सह गई एहसान ज़िंदगी का उठाना पड़ा मुझे चाहत में एक मोड़ जुदाई का था मगर दिल ने कहा तो लौट के आना पड़ा मुझे नाराज़ थी मैं उस से मगर इस के बावजूद कॉलर में उस के फूल सजाना पड़ा मुझे वो चाहता नहीं था मिरी ज़ात की नुमू हस्ती को इस लिए भी मिटाना पड़ा मुझे मैं जिस को देखने की रवा-दार तक न थी सर उस के सामने भी झुकाना पड़ा मुझे अपने लहू से दीप जला कर तमाम रात ऐ इश्क़ तेरा जश्न मनाना पड़ा मुझे वो रास्ता न भटके 'सदफ़' इस के वास्ते दरिया में इक चराग़ बहाना पड़ा मुझे

तुग़्यानियों से अपनी निकाला न कर मुझे

तुग़्यानियों से अपनी निकाला न कर मुझे गरचे सदफ़ हूँ यूँ तो उछाला न कर मुझे वीरानियों के ख़ौफ़ से घबरा के मेरा दिल जो डूबने लगे तो सँभाला न कर मुझे ये रौशनी कहीं मेरी क़ातिल न हो 'सदफ़' परवानों के जिलौ में उजाला न कर मुझे

तेरे एहसास के हिसार में हूँ

तेरे एहसास के हिसार में हूँ कुछ दिनों से अजब ख़ुमार में हूँ दिल में इक रौशनी सी फूटी है मैं किसी चश्म-ए-इख़्तियार में हूँ काश चमके नसीब का तारा बड़ी मुद्दत से इंतिज़ार में हूँ ढूँढना ख़ुद को हो गया मुश्किल गुम किसी बहर-ए-बे-कनार में हूँ बीता कल भी है मेरा सरमाया गो नए अह्द की पुकार में हूँ अब तो आ जाओ मेरे शहज़ादे क़ैद रस्मों के ख़ार-ज़ार में हूँ क़र्या-ए-दर्द में भटकती हूँ साया-ए-नख़्ल-ए-इंतिशार में हूँ यही काफ़ी है बज़्म-ए-हस्ती में ऐ 'सदफ़' मैं किसी शुमार में हूँ

दिन रहा याद तो शब याद नहीं

दिन रहा याद तो शब याद नहीं कुछ तो भूला है जो अब याद नहीं तुम से नाराज़ हुए थे कैसे अब तो इस का भी सबब याद नहीं शोख़-ओ-चंचल सभी साथी अपने खो गए राह में सब याद नहीं साल-हा-साल तुझे याद किया क्यों किया ऐसा ग़ज़ब याद नहीं तेरे अतवार मुझे क्या मालूम हम को जीने का भी ढब याद नहीं ग़ैर को क्या भला चाहेगी 'सदफ़' उस को तो अपना भी रब याद नहीं

दिल जिस वक़्त अकेला होगा

दिल जिस वक़्त अकेला होगा तेरी याद में डूबा होगा पहले-पहल ये कब सोचा था तू मुझे इतना प्यारा होगा हर-सू ख़्वाब-नगर में इक दिन तेरी याद का पहरा होगा चाँदनी रात में चुपके चुपके कोई झील में उतरा होगा यादों के सहरा में कल फिर बादल टूट के बरसा होगा दिल का क्या है दिल दीवाना तेरे ध्यान में खोया होगा दरवाज़े पर दस्तक सुन कर मेरा सोच के दौड़ा होगा मैं भी रात को सो नहीं पाई सखियो वो भी जागा होगा अपने दिल का हर इक जज़्बा ख़त में उस ने लिक्खा होगा सोच रही हूँ किन आँखों में मुस्तक़बिल का सपना होगा उस पर होगा तेरा जादू जिस ने तुझ को देखा होगा आज 'सदफ़' मैं बेहद ख़ुश हूँ आज उस से फिर मिलना होगा

दुख अपना छुपाने में ज़रा वक़्त लगेगा

दुख अपना छुपाने में ज़रा वक़्त लगेगा अब उस को भुलाने में ज़रा वक़्त लगेगा तू ने जो पुकारा तो पलट आऊँगी वापस हाँ लौट के आने में ज़रा वक़्त लगेगा लिक्खा था बड़े चाव से जिस नाम को दिल पर वो नाम मिटाने में ज़रा वक़्त लगेगा देता है किसी और को तरजीह वो मुझ पर उस को ये जताने में ज़रा वक़्त लगेगा जिस शाख़ पे फल-फूल नहीं आए हैं अब तक वो शाख़ झुकाने में ज़रा वक़्त लगेगा सब रंज-ओ-अलम मिलने चले आए हैं मुझ से महफ़िल को सजाने में ज़रा वक़्त लगेगा मैं देख भी सकती हूँ किसी और को तुझ संग ये दर्द कमाने में ज़रा वक़्त लगेगा जो आग 'सदफ़' हिज्र ने है दिल में लगाई वो आग बुझाने में ज़रा वक़्त लगेगा

नतीजा सुनने का अब हौसला तो करना है

नतीजा सुनने का अब हौसला तो करना है वो मेरा है कि नहीं फ़ैसला तो करना है मैं उस के प्यार में साँसें भी हार सकती हूँ इस इंतिहा से उसे आश्ना तो करना है फिर इस के बा'द कोई दरमियाँ न आ पाए ख़याल-ए-यार को यूँ हम-नवा तो करना है सबा ने दी है ख़बर आज उस के आने की दयार-ए-दिल को अब आरास्ता तो करना है मैं उस को देख सकूँ आँख बंद कर के भी ऐ मेरे इश्क़ तुझे मो'जिज़ा तो करना है अगरचे इन दिनों रहती हूँ मैं ख़फ़ा उस से मगर कभी न कभी सामना तो करना है बिछड़ के जीना अगरचे 'सदफ़' नहीं आसाँ कहीं पे ख़त्म मगर सिलसिला तो करना है

पहाड़ की तरह अतराफ़ में खड़ी है शब

पहाड़ की तरह अतराफ़ में खड़ी है शब ऐ मेरी सोच के सूरज बहुत बड़ी है शब सफ़ेद-पोश बदन पर गिरी नहीं कालक ख़िज़ाँ-रसीदा शजर की तरह झड़ी है शब खुला नहीं मिरी दस्तक पे कोई दरवाज़ा अजीब ख़ौफ़-नगर में ये आ पड़ी है शब मैं सोचता हूँ कि सूरज किधर से निकलेगा जो सूलियों की तरह हर जगह गड़ी है शब डरा रहे हैं 'सदफ़' रतजगों के सन्नाटे मिरे क़रीब रहो तुम बहुत कड़ी है शब

पुर-ख़ार रहगुज़र पे ही चलना नहीं सदा

पुर-ख़ार रहगुज़र पे ही चलना नहीं सदा ख़ुशियों को पाँव पाँव मसलना नहीं सदा वो दिन कभी तो आएँगे जो मेरे नाम हों तेरे ही रोज़-ओ-शब को बदलना नहीं सदा मिलना है उम्र भर के लिए हम को एक दिन जाती रुतों के तौर बिछड़ना नहीं सदा तर्क-ए-तअल्लुक़ात से पहले ये सोच ले दिल को तिरे ही दम से मचलना नहीं सदा क़िस्मत तिरी भी रूठ तो सकती है एक दिन तक़दीर को मिरी ही बिगड़ना नहीं सदा

फ़ज़ा में परिंदों की चहकार क्या थी

फ़ज़ा में परिंदों की चहकार क्या थी कहानी सी दरिया के उस पार क्या थी अचानक निकल आया बस्ती में सूरज मिरी आरज़ूओं की रफ़्तार क्या थी जो इक़रार की सब हदें मिट गईं थीं शब-ए-वस्ल वो तर्ज़-ए-इंकार क्या थी मनाना पड़ा फ़त्ह का जश्न मुझ को मिरी जीत क्या थी मिरी हार क्या थी हमेशा मुझे हिज्र में उस ने रक्खा न जाने मोहब्बत की महकार क्या थी भरे शहर में रह गया वो अकेला वो लड़की किसी की तरफ़-दार क्या थी कभी तेरे सपने मयस्सर न आए मिरे साथ शब-हा-ए-बेदार क्या थी कोई दर्द था या सँदेसा था कोई उन आँखों में अश्कों भरी धार क्या था कभी मुझ पे खुल जा ऐ सुब्ह-ए-गुरेज़ाँ बता रत-जगों की वो तकरार क्या थी 'सदफ़' मैं कभी ख़ुद से मिलने न पाई मिरे दरमियाँ कोई दीवार क्या थी रक़ीब आए मेरी अयादत की ख़ातिर ये 'सुग़रा-सदफ़' तेरी बीमार क्या थी

बना दिया है मुझे बेवफ़ा वफ़ा कर के

बना दिया है मुझे बेवफ़ा वफ़ा कर के ये क्या किया है मिरे दर्द की दवा कर के मैं आप अपनी मुख़ालिफ़ थी अपनी दुश्मन थी मुझे ही मुझ से ये अच्छा किया जुदा कर के मिरे जमाल को सँवला दिया भला किस ने मिरी तरफ़ मिरे सूरज का आइना कर के सफ़र के ख़्वाब भरे-दिन चुरा लिए उस ने कुछ और कम मिरी मंज़िल का रास्ता कर के ये लोग क्या मिरे बारे में सोचते होंगे मैं सोचती हूँ हर इक से तिरा पता कर के बयान कर न सकी हाल-ए-दिल 'सदफ़' वर्ना चली गई थी गली तक तो हौसला कर के

बीते हुए ज़माने की तस्वीर खींच कर

बीते हुए ज़माने की तस्वीर खींच कर लाई दयार-ए-यार में तक़दीर खींच कर पहचान की तलाश में फिरते हैं दर-ब-दर लाई है सब को ख़्वाहिश-ए-तश्हीर खींच कर कल रात ख़्वाब टूटा तो मैं सोचती रही आँखों से कौन ले गया ता'बीर खींच कर इस आलम-ए-बक़ा से यूँ आती न मैं कभी लाई तिरे जमाल की तनवीर खींच कर इक बार भी वो मुड़ के अगर देखता 'सदफ़' मैं रोक लेती वक़्त को ज़ंजीर खींच कर

मिलना एक बहाना होगा

मिलना एक बहाना होगा फिर कोई ज़ख़्म लगाना होगा सोच रही हूँ सीधा रस्ता किस किस को दिखलाना होगा इस में आँसू भी हैं शामिल बादल को जतलाना होगा जिस में थोड़ी हिम्मत होगी उस के साथ ज़माना होगा तेरी संगत में जो गुज़रा लम्हा वही सुहाना होगा 'सदफ़' जहाँ भी किरनें होंगी अपना वहीं ठिकाना होगा

मुद्दतों जिस से मुलाक़ात न थी

मुद्दतों जिस से मुलाक़ात न थी जब वो आया तो कोई बात न थी दिल भी कुछ सर्द हुआ जाता है मुझ में भी शिद्दत-ए-जज़्बात न थी वो कि समझा ही नहीं नज़रों को मेरी आँखों में कोई रात न थी कैसे मुमकिन था कि होती मुझ को मेरी क़िस्मत में अगर मात न थी मैं कि खोई रही अपने मन में मेरे रस्ते में मिरी ज़ात न थी

मैं जागी हुई कि सोई हुई हूँ

मैं जागी हुई कि सोई हुई हूँ ख़यालों के सहरा में खोई हुई हूँ लबों पर हँसी रुख़ पे शबनम के क़तरे मैं खुल कर हँसी हूँ कि रोई हुई हूँ नुमू किस तरह हो मिरी ख़्वाहिशों की कि बंजर ज़मीनों में बोई हुई हूँ वो कैसे निकालेगा यादों से मुझ को मैं हर्फ़-ए-दुआ में समोई हुई हूँ 'सदफ़' से गुहर कर दिया उस ने मुझ को मैं उस की लड़ी में पिरोई हुई हूँ

रह-ए-जानाँ पे बढ़ती जा रही हूँ

रह-ए-जानाँ पे बढ़ती जा रही हूँ मगर ख़ुद से बिछड़ती जा रही हूँ अनोखे शहर मुझ पर वा हुए हैं किताब-ए-ज़ात पढ़ती जा रही हूँ मिरे मौला उसे आबाद रखना मिरा क्या है उजड़ती जा रही हूँ मिरी नश्व-ओ-नुमा जिस से हुई है उसी जड़ से उखड़ती जा रही हूँ हुआ मा'लूम मुझ को आख़िर-ए-शब कि मैं बे-सम्त बढ़ती जा रही हूँ बुरा है वो मगर इतना नहीं है यूँही उस से बिगड़ती जा रही हूँ कहाँ ले जा रहा है मुझ को 'सुग़रा' मुक़द्दर से झगड़ती जा रही हूँ

साथ अपने लोग कुछ ऐसे चले

साथ अपने लोग कुछ ऐसे चले दिल को अपने लग रहे थे सब भले नूर आँखों में ज़हानत का लिए कोई अब शफ़्फ़ाफ़ सोचों में ढले अब कि लब पर है दुआ उस के लिए मेरे दिल में जिस का इक इक ग़म पले जब भी गुज़रूँ ज़िंदगी के कर्ब से शम्अ' मेरे ज़ेहन में तेरी जले रौशनी ही ज़िंदगी है ऐ 'सदफ़' देखना मत सोच का सूरज ढले

हिज्र की दुहाई दे

हिज्र की दुहाई दे हर मिलन जुदाई दे रू-ब-रू खड़ा है तू चाँद क्या दिखाई दे इस क़दर है शोर जब शोर क्या सुनाई दे याद में हूँ क़ैद मैं दोस्त अब रिहाई दे मैं 'सदफ़' में हूँ अगर आब तक रसाई दे

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