हिन्दी ग़ज़लें : अली सरदार जाफ़री

Ghazals in Hindi : Ali Sardar Jafri



अक़ीदे बुझ रहे हैं शम-ए-जाँ गुल होती जाती है

अक़ीदे बुझ रहे हैं शम-ए-जाँ गुल होती जाती है मगर ज़ौक़-ए-जुनूँ की शो'ला-सामानी नहीं जाती ख़ुदा मालूम किस किस के लहू की लाला-कारी है ज़मीन-ए-कू-ए-जानाँ आज पहचानी नहीं जाती अगर यूँ है तो क्यूँ है यूँ नहीं तो क्यूँ नहीं आख़िर यक़ीं मोहकम है लेकिन दिल की हैरानी नहीं जाती लहू जितना था सारा सर्फ़-ए-मक़्तल हो गया लेकिन शहीदान-ए-वफ़ा के रुख़ की ताबानी नहीं जाती परेशाँ-रोज़गार आशुफ़्ता-हालाँ का मुक़द्दर है कि उस ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ की परेशानी नहीं जाती हर इक शय और महँगी और महँगी होती जाती है बस इक ख़ून-ए-बशर है जिस की अर्ज़ानी नहीं जाती नए ख़्वाबों के दिल में शो'ला-ए-ख़ुर्शीद-ए-महशर है ज़मीर-ए-हज़रत-ए-इंसाँ की सुल्तानी नहीं जाती लगाते हैं लबों पर मोहर-ए-अर्बाब-ए-ज़बाँ-बंदी अली-'सरदार' की शान-ए-ग़ज़ल-ख़्वानी नहीं जाती

अब आ गया है जहाँ में तो मुस्कुराता जा

अब आ गया है जहाँ में तो मुस्कुराता जा चमन के फूल दिलों के कँवल खिलाता जा अदम हयात से पहले अदम हयात के बा'द ये एक पल है उसे जावेदाँ बनाता जा भटक रही है अँधेरे में ज़िंदगी की बरात कोई चराग़ सर-ए-रहगुज़र जलाता जा गुज़र चमन से मिसाल-ए-नसीम-ए-सुब्ह-ए-बहार गुलों को छेड़ के काँटों को गुदगुदाता जा रह-ए-दराज़ है और दूर शौक़ की मंज़िल गराँ है मरहला-ए-उम्र गीत गाता जा बला से बज़्म में गर ज़ौक़-ए-नग़्मगी कम है नवा-ए-तल्ख़ को कुछ तल्ख़-तर बनाता जा जो हो सके तो बदल ज़िंदगी को ख़ुद वर्ना नज़ाद-ए-नौ को तरीक़-ए-जुनूँ सिखाता जा दिखा के जलवा-ए-फ़र्दा बना दे दीवाना नए ज़माने के रुख़ से नक़ाब उठाता जा बहुत दिनों से दिल-ओ-जाँ की महफ़िलें हैं उदास कोई तराना कोई दास्ताँ सुनाता जा

अभी और तेज़ कर ले सर-ए-ख़ंजर-ए-अदा को

अभी और तेज़ कर ले सर-ए-ख़ंजर-ए-अदा को मिरे ख़ूँ की है ज़रूरत तिरी शोख़ी-ए-हिना को तुझे किस नज़र से देखे ये निगाह-ए-दर्द-आगीं जो दुआएँ दे रही है तिरी चश्म-ए-बेवफ़ा को कहीं रह गई हो शायद तिरे दिल की धड़कनों में कभी सुन सके तो सुन ले मिरी ख़ूँ-शुदा नवा को कोई बोलता नहीं है मैं पुकारता रहा हूँ कभी बुत-कदे में बुत को कभी का'बे में ख़ुदा को

आए हम 'ग़ालिब'-ओ-'इक़बाल' के नग़्मात के बा'द

आए हम 'ग़ालिब'-ओ-'इक़बाल' के नग़्मात के बा'द 'मुसहफ़'-ए-इश्क़-ओ-जुनूँ हुस्न की आयात के बा'द ऐ वतन ख़ाक-ए-वतन वो भी तुझे दे देंगे बच गया है जो लहू अब के फ़सादात के बा'द नार-ए-नमरूद यही और यही गुलज़ार-ए-ख़लील कोई आतिश नहीं आतिश-कदा-ए-ज़ात के बा'द राम-ओ-गौतम की ज़मीं हुर्मत-ए-इंसाँ की अमीं बाँझ हो जाएगी क्या ख़ून की बरसात के बा'द तिश्नगी है कि बुझाए नहीं बुझती 'सरदार' बढ़ गई कौसर-ओ-तसनीम की सौग़ात के बा'द

आँधियाँ चलती रहें अफ़्लाक थर्राते रहे

आँधियाँ चलती रहें अफ़्लाक थर्राते रहे अपना परचम हम भी तूफ़ानों में लहराते रहे काट कर रातों के पर्बत अस्र-ए-नौ के तेशा-ज़न जू-ए-शीर-ओ-चश्मा-ए-नूर-ए-सहर लाते रहे कारवान-ए-हिम्मत-ए-जम्हूर बढ़ता ही गया शहरयार-ओ-हुक्मराँ आते रहे जाते रहे रहबरों की भूल थी या रहबरी का मुद्दआ' क़ाफ़िलों को मंज़िलों के पास भटकाते रहे जिस क़दर बढ़ता गया ज़ालिम हवाओं का ख़रोश उस के काकुल और भी आरिज़ पे लहराते रहे फाँसियाँ उगती रहीं ज़िंदाँ उभरते ही रहे चंद दीवाने जुनूँ के ज़मज़मे गाते रहे

इक सुब्ह है जो हुई नहीं है

इक सुब्ह है जो हुई नहीं है इक रात है जो कटी नहीं है मक़्तूलों का क़हत पड़ न जाए क़ातिल की कहीं कमी नहीं है वीरानों से आ रही है आवाज़ तख़्लीक़-ए-जुनूँ रुकी नहीं है है और ही कारोबार-ए-मस्ती जी लेना तो ज़िंदगी नहीं है साक़ी से जो जाम ले न बढ़ कर वो तिश्नगी तिश्नगी नहीं है आशिक़-कुशी ओ फ़रेब-कारी ये शेवा-ए-दिलबरी नहीं है भूखों की निगाह में है बिजली ये बर्क़ अभी गिरी नहीं है दिल में जो जलाई थी किसी ने वो शम-ए-तरब बुझी नहीं है इक धूप सी है जो ज़ेर-ए-मिज़्गाँ वो आँख अभी उठी नहीं है हैं काम बहुत अभी कि दुनिया शाइस्ता-ए-आदमी नहीं है हर रंग के आ चुके हैं फ़िरऔन लेकिन ये जबीं झुकी नहीं है

इश्क़ का नग़्मा जुनूँ के साज़ पर गाते हैं हम

इश्क़ का नग़्मा जुनूँ के साज़ पर गाते हैं हम अपने ग़म की आँच से पत्थर को पिघलाते हैं हम जाग उठते हैं तो सूली पर भी नींद आती नहीं वक़्त पड़ जाए तो अँगारों पे सो जाते हैं हम ज़िंदगी को हम से बढ़ कर कौन कर सकता है प्यार और अगर मरने पे आ जाएँ तो मर जाते हैं हम दफ़्न हो कर ख़ाक में भी दफ़्न रह सकते नहीं लाला-ओ-गुल बन के वीरानों पे छा जाते हैं हम हम कि करते हैं चमन में एहतिमाम-ए-रंग-ओ-बू रू-ए-गेती से नक़ाब-ए-हुस्न सरकाते हैं हम अक्स पड़ते ही सँवर जाते हैं चेहरे के नुक़ूश शाहिद-ए-हस्ती को यूँ आईना दिखलाते हैं हम मय-कशों को मुज़्दा सदियों के प्यासों को नवेद अपनी महफ़िल अपना साक़ी ले के अब आते हैं हम

इत्र-ए-फ़िरदौस-ए-जवाँ में ये बसाए हुए होंट

इत्र-ए-फ़िरदौस-ए-जवाँ में ये बसाए हुए होंट ख़ून-ए-गुल-रंग-ए-बहाराँ में नहाए हुए होंट ख़ुद-बख़ुद आह लरज़ते हुए बोसों की तरह मेरे होंटों की लताफ़त को जगाए हुए होंट दस्त-ए-फ़ितरत के तराशे हुए दो-बर्ग-ए-गुलाब दिल के टूटे हुए टुकड़ों को बनाए हुए होंट ज़ुल्म और जब्र के अहकाम से ख़ामोश मगर मोहर पैमान-ए-मोहब्बत की लगाए हुए होंट

उलझे काँटों से कि खेले गुल-ए-तर से पहले

उलझे काँटों से कि खेले गुल-ए-तर से पहले फ़िक्र ये है कि सबा आए किधर से पहले जाम-ओ-पैमाना-ओ-साक़ी का गुमाँ था लेकिन दीदा-ए-तर ही था याँ दीदा-ए-तर से पहले अब्र-ए-नैसाँ की न बरकत है न फ़ैज़ान-ए-बहार क़तरे गुम हो गए ता'मीर-ए-गुहर से पहले जम गया दिल में लहू सूख गए आँखों में अश्क थम गया दर्द-ए-जिगर रंग-ए-सहर से पहले क़ाफ़िले आए तो थे नारों के परचम ले कर सर-निगूँ हो गई हर आह असर से पहले ख़ून-ए-सर बह गया मौत आ गई दीवानों को बारिश-ए-संग से तूफ़ान-ए-शरर से पहले सुर्ख़ी-ए-ख़ून-ए-तमन्ना की महक आती है दिल कोई टूटा है शायद गुल-ए-तर से पहले मक़तल-ए-शौक़ के आदाब निराले हैं बहुत दिल भी क़ातिल को दिया करते हैं सर से पहले

कभी ख़ंदाँ कभी गिर्यां कभी रक़सा चलिए

कभी ख़ंदाँ कभी गिर्यां कभी रक़सा चलिए दूर तक साथ तिरे उम्र-ए-गुरेज़ाँ चलिए रस्म-ए-देरीना-ए-आलम को बदलने के लिए रस्म-ए-देरीना-ए-आलम से गुरेज़ाँ चलिए आसमानों से बरसता है अँधेरा कैसा अपनी पलकों पे लिए जश्न-ए-चराग़ाँ चलिए शोला-ए-जाँ को हवा देती है ख़ुद बाद-ए-सुमूम शोला-ए-जाँ की तरह चाक-गरेबाँ चलिए अक़्ल के नूर से दिल कीजिए अपना रौशन दिल की राहों से सू-ए-मंज़िल-ए-इंसाँ चलिए ग़म नई सुब्ह के तारे का बहुत है लेकिन ले के अब परचम-ए-ख़ुर्शीद-ए-दरख़्शाँ चलिए सर-ब-कफ़ चलने की आदत में न फ़र्क़ आ जाए कूचा-ए-दार में सर-मस्त-ओ-ग़ज़ल-ख़्वाँ चलिए

काम अब कोई न आएगा बस इक दिल के सिवा

काम अब कोई न आएगा बस इक दिल के सिवा रास्ते बंद हैं सब कूचा-ए-क़ातिल के सिवा बाइस-ए-रश्क है तन्हा-रवी-ए-रह-रव-ए-शौक़ हम-सफ़र कोई नहीं दूरी-ए-मंज़िल के सिवा हम ने दुनिया की हर इक शय से उठाया दिल को लेकिन एक शोख़ के हंगामा-ए-महफ़िल के सिवा तेग़ मुंसिफ़ हो जहाँ दार-ओ-रसन हों शाहिद बे-गुनह कौन है उस शहर में क़ातिल के सिवा जाने किस रंग से आई है गुलिस्ताँ में बहार कोई नग़्मा ही नहीं शोर-ए-सलासिल के सिवा

कितनी आशाओं की लाशें सूखें दिल के आँगन में

कितनी आशाओं की लाशें सूखें दिल के आँगन में कितने सूरज डूब गए हैं चेहरों के पीले-पन में बच्चों के मीठे होंटों पर प्यास की सूखी रेत जमी दूध की धारें गाए के थन से गिर गईं नागों के फन में रेगिस्तानों में जलते हैं पड़े हुए सौ नक़्श-ए-क़दम पर आज ख़िरामाँ कोई नहीं है उम्मीदों के गुलशन में चकना-चूर हुआ ख़्वाबों का दिलकश दिलचस्प आईना टेढ़ी तिरछी तस्वीरें हैं टूटे-फूटे दर्पन में पा-ए-जुनूँ में पड़ी हुई हैं हिर्स-ओ-हवा की ज़ंजीरें क़ैद है अब तक हाथ सहर का तारीकी के कंगन में आँखों की कुछ नौरस कलियाँ नीम-शगुफ़्ता ग़ुंचा-ए-लब कैसे कैसे फूल भरे हैं गुल्चीनों के दामन में दस्त-ए-ग़ैब की तरह छुपा है ज़ुल्म का हाथ सितम का वार ख़ुश्क लहू की बारिश देखी हम ने कूचा-ओ-बर्ज़न में

खुले हैं मश्रिक-ओ-मग़रिब की गोद में गुलज़ार

खुले हैं मश्रिक-ओ-मग़रिब की गोद में गुलज़ार मगर ख़िज़ाँ को मयस्सर नहीं यक़ीन-ए-बहार ख़बर नहीं है बमों के बनाने वालों को तमीज़ हो तो मह-ओ-मेहर-ओ-कहकशाँ हैं शिकार उसी से तेग़-ए-निगह आब-दार होती है तुझे बताऊँ बड़ी शय है जुरअत-ए-इंकार किए हैं शौक़ ने पैदा हज़ार वीराने इक आरज़ू ने बसाए हैं लाख शहर-ए-दयार नशात-ए-सुब्ह-ए-बहाराँ तुझे नसीब नहीं तिरे निगह में है बीती हुई शबों का ख़ुमार फ़रोख़्त होती है इंसानियत सी जिंस-ए-गिराँ जहाँ को फूँक न देगी ये गर्मी-ए-बाज़ार यही है ज़ीनत-ओ-आराइश उरूस-ए-सुख़न मगर फ़रेब भी देती है शोख़ी-ए-गुफ़्तार

ख़िरद वालो जुनूँ वालों के वीरानों में आ जाओ

ख़िरद वालो जुनूँ वालों के वीरानों में आ जाओ दिलों के बाग़ ज़ख़्मों के गुलिस्तानों में आ जाओ ये दामान ओ गरेबाँ अब सलामत रह नहीं सकते अभी तक कुछ नहीं बिगड़ा है दीवानों में आ जाओ सितम की तेग़ ख़ुद दस्त-ए-सितम को काट देती है सितम-रानो तुम अब अपने अज़ा-ख़ानों में आ जाओ ये कब तक सर्द लाशें बे-हिसी के बर्फ़-ख़ानों में चिराग़-ए-दर्द से रौशन शबिस्तानों में आ जाओ ये कब तक सीम-ओ-ज़र के जंगलों में मश्क़-ए-ख़ूँ-ख़्वारी ये इंसानों की बस्ती है अब इंसानों में आ जाओ कभी शबनम का क़तरा बन के चमको लाला-ओ-गुल पर कभी दरियाओं की सूरत बयाबानों में आ जाओ हवा है सख़्त अब अश्कों के परचम उड़ नहीं सकते लहू के सुर्ख़ परचम ले के मैदानों में आ जाओ जराहत-ख़ाना-ए-दिल है तलाश-ए-रंग-ओ-निकहत में कहाँ हो ऐ गुलिस्तानो गरेबानों में आ जाओ ज़माना कर रहा है एहतिमाम-ए-जश्न-ए-बेदारी गरेबाँ चाक कर के शोला-दामानों में आ जाओ

ख़ूगर-ए-रू-ए-ख़ुश-जमाल हैं हम

ख़ूगर-ए-रू-ए-ख़ुश-जमाल हैं हम नाज़-ए-परवर्दा-ए-विसाल हैं हम हम को यूँ राएगाँ न कर देना हासिल-ए-फ़स्ल-ए-माह-ओ-साल हैं हम रंग ही रंग ख़ुशबू ही ख़ुशबू गर्दिश-ए-साग़र-ए-ख़याल हैं हम रौनक़-ए-कारोबार-ए-हस्ती हैं हम ने माना शिकस्ता-हाल हैं हम माल-ओ-ज़र, माल-ओ-ज़र की क़ीमत क्या साहिब-ए-दौलत-ए-कमाल हैं हम किस की रानाई-ए-ख़याल है तू तेरी रानाई-ए-जमाल हैं हम ऐसे दीवाने फिर न आएँगे देख लो हम को बे-मिसाल हैं हम दौलत-ए-हुस्न-ए-ला-ज़वाल है तू दौलत-ए-इश्क़-ए-ला-ज़वाल हैं हम

चश्मा-ए-बद-मस्त को फिर शेवा-ए-दिल-दारी दे

चश्मा-ए-बद-मस्त को फिर शेवा-ए-दिल-दारी दे दिल-ए-आवारा को पैग़ाम-ए-गिरफ़्तारी दे इश्क़ है सादा-ओ-मासूम उसे अपनी तरह जौहर-ए-तेग़-ए-अदा ख़ंजर-ए-अय्यारी दे जो दुखे दिल हैं उन्हें दौलत-ए-दरमाँ हो अता दर्द के हाथ में मत कासा-ए-नादारी दे कितनी फ़र्सूदा है ये जुर्म-ओ-सज़ा की दुनिया सर-कशी दिल को नया ज़ौक़-ए-गुनहगारी दे शाख़-ए-गुल कब से है सीने में छुपाए हुए गुल देखें कब बाद-ए-सबा हुक्म-ए-चमन-कारी दे ऐ मिरे शो'ला-ए-दिल शो'ला-ए-शेर-ओ-दानिश रात आख़िर है उसे जश्न-ए-शरर-बारी दे चमन अफ़्सुर्दा है ऐ जान-ए-चमन रूह-ए-बहार गुल को भी अपने तबस्सुम की फ़ुसूँ-कारी दे

ज़ुल्म की कुछ मीआ'द नहीं है

ज़ुल्म की कुछ मीआ'द नहीं है दाद नहीं फ़रियाद नहीं है क़त्ल हुए हैं अब तक कितने कू-ए-सितम को याद नहीं है आख़िर रोएँ किस को किस को कौन है जो बर्बाद नहीं है क़ैद चमन भी बन जाता है मुर्ग़-ए-चमन आज़ाद नहीं है लुत्फ़ ही क्या गर अपने मुक़ाबिल सतवत-ए-बर्क़-ओ-बाद नहीं है सब हों शादाँ सब हों ख़ंदाँ तन्हा कोई शाद नहीं है दावत-ए-रंग-ओ-निकहत है ये ख़ंदा-ए-गुल बर्बाद नहीं है

तख़्लीक़ पे फ़ितरत की गुज़रता है गुमाँ और

तख़्लीक़ पे फ़ितरत की गुज़रता है गुमाँ और इस आदम-ए-ख़ाकी ने बनाया है जहाँ और ये सुब्ह है सूरज की सियाही से अँधेरी आएगी अभी एक सहर महर-चकाँ और बढ़नी है अभी और भी मज़लूम की ताक़त घटनी है अभी ज़ुल्म की कुछ ताब-ओ-तवाँ और तर होगी ज़मीं और अभी ख़ून-ए-बशर से रोएगा अभी दीदा-ए-ख़ूनाबा-फ़िशाँ और बढ़ने दो ज़रा और अभी कुछ दस्त-ए-तलब को बढ़ जाएगी दो चार शिकन-ए-ज़ुल्फ़-ए-बुताँ और करना है अभी ख़ून-ए-जिगर सर्फ़-ए-बहाराँ कुछ देर उठाना है अभी नाज़-ए-ख़िज़ाँ और हम हैं वो बला-कश कि मसाइब से जहाँ के हो जाते हैं शाइस्ता-ए-ग़म-हा-ए-जहाँ और

तुम्हारे ए'जाज़-ए-हुस्न की मेरे दिल पे लाखों इनायतें हैं

तुम्हारे ए'जाज़-ए-हुस्न की मेरे दिल पे लाखों इनायतें हैं तुम्हारी ही देन मेरे ज़ौक़-ए-नज़र की सारी लताफ़तें हैं जवाँ है सूरज जबीं पे जिस के तुम्हारे माथे की रौशनी है सहर हसीं है कि उस के रुख़ पर तुम्हारे रुख़ की सबाहतें हैं मैं जिन बहारों की परवरिश कर रहा हूँ ज़िंदान-ए-ग़म में हमदम किसी के गेसू-ओ-चश्म-ओ-रुख़सार-ओ-लब की रंगीं हिकायतें हैं न जाने छलकाए जाम कितने न जाने कितने सुबू उछाले मगर मिरी तिश्नगी कि अब भी तिरी नज़र से शिकायतें हैं मैं अपनी आँखों में सैल-ए-अश्क-ए-रवाँ नहीं बिजलियाँ लिए हूँ जो सर-बुलंद और ग़यूर हैं अहल-ए-ग़म ये उन की रिवायतें हैं मैं रात की गोद में सितारे नहीं शरारे बिखेरता हूँ सहर के दिल में जो अपने अश्कों से बो रहा हूँ बगावतें हैं ये शाइ'री-ए-नौ की पैग़म्बरी ज़माने की दावरी है लबों पे मेरे सहीफ़ा-ए-इन्क़िलाब की सुर्ख़ आयतें हैं

दिल की आग जवानी के रुख़्सारों को दहकाए है

दिल की आग जवानी के रुख़्सारों को दहकाए है बहे पसीना मुखड़े पर या सूरज पिघला जाए है मन इक नन्हा सा बालक है हुमक हुमक रह जाए है दूर से मुख का चाँद दिखा कर कौन उसे ललचाए है मय है तेरी आँखों में और मुझ पे नशा सा तारी है नींद है तेरी पलकों में और ख़्वाब मुझे दिखलाए है तेरे क़ामत की लर्ज़िश से मौज-ए-मय में लर्ज़िश है तेरी निगह की मस्ती ही पैमानों को छलकाए है तेरा दर्द सलामत है तो मरने की उम्मीद नहीं लाख दुखी हो ये दुनिया रहने की जगह बन जाए है

नग़्मा-ए-ज़ंजीर है और शहर-ए-याराँ इन दिनों

नग़्मा-ए-ज़ंजीर है और शहर-ए-याराँ इन दिनों है बहुत अहल-ए-जुनूँ शोर-ए-बहाराँ इन दिनों उस वफ़ा-दुश्मन से पैमान-ए-वफ़ा है उस्तुवार ज़ेर-ए-संग-ए-सख़्त है फिर दस्त-ए-याराँ इन दिनों मोहतसिब भी हल्क़ा-ए-रिंदाँ का है उम्मीद-वार कम न हो जाए वक़ार-ए-मय-गुसाराँ इन दिनों तेज़ी-ए-तेग़-ए-अदा की शोहरतें हैं दूर दूर है बहुत आबाद कू-ए-दिल-फ़िगाराँ इन दिनों दोस्तो पैराहन-ए-जाँ ख़ून-ए-दिल से सुर्ख़-तर बढ़ गया है इल्तिफ़ात-ए-गुल-एज़ाराँ इन दिनों अहल-ए-दिल पर बारिश-ए-लुत्फ़-ए-निगाह-ए-दिल-नवाज़ मेहरबाँ है इश्क़ पर चश्म-ए-निगाराँ इन दिनों है गदा-ए-मय-कदा के सर पे ताज-ए-ख़ुसरवी कूज़ा-गर की गिल है ख़ाक-ए-शहर-ए-याराँ इन दिनों क्या अजब इशरत-कदों पर बिजलियाँ गिरने लगीं है बहुत सरकश निगाह-ए-सोगवाराँ इन दिनों

फ़रोग़-ए-दीदा-ओ-दिल लाला-ए-सहर की तरह

फ़रोग़-ए-दीदा-ओ-दिल लाला-ए-सहर की तरह उजाला बिन के रहो शम-ए-रहगुज़र की तरह पयम्बरों की तरह से जियो ज़माने में पयाम-ए-शौक़ बनो दौलत-ए-हुनर की तरह ये ज़िंदगी भी कोई ज़िंदगी है हम-नफ़सो सितारा बन के जले बुझ गए शरर की तरह डरा सकी न मुझे तीरगी ज़माने की अँधेरी रात से गुज़रा हूँ मैं क़मर की तरह समुंदरों के तलातुम ने मुझ को पाला है चमक रहा हूँ इसी वास्ते गुहर की तरह तमाम कोह ओ तल ओ बहर ओ बर हैं ज़ेर-ए-नगीं खुला हुआ हूँ मैं शाहीं के बाल-ओ-पर की तरह तमाम दौलत-ए-कौनैन है ख़िराज उस का ये दिल नहीं किसी लूटे हुए नगर की तरह गुज़र के ख़ार से ग़ुंचे से गुल से शबनम से मैं शाख़-ए-वक़्त में आया हूँ इक समर की तरह मैं दिल में तल्ख़ी-ए-ज़हराब-ए-ग़म भी रखता हूँ न मिस्ल-ए-शहद हूँ शीरीं न मैं शकर की तरह ख़िज़ाँ के दस्त-ए-सितम ने मुझे छुआ है मगर तमाम शो'ला ओ शबनम हूँ काशमर की तरह मिरी नवा में है लुत्फ़-ओ-सुरूर-ए-सुब्ह-ए-नशात हर एक शेर है रिंदों की शाम-ए-तर की तरह ये फ़ातेहाना ग़ज़ल अस्र-ए-नौ का है आहंग बुलंद ओ पस्त को देखा है दीदा-वर की तरह

फ़स्ल-ए-गुल फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ जो भी हो ख़ुश-दिल रहिए

फ़स्ल-ए-गुल फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ जो भी हो ख़ुश-दिल रहिए कोई मौसम हो हर इक रंग में कामिल रहिए मौज ओ गिर्दाब ओ तलातुम का तक़ाज़ा है कुछ और रहिए मोहतात तो बस ता-लब-ए-साहिल रहिए देखते रहिए कि हो जाए न कम शान-ए-जुनूँ आइना बन के ख़ुद अपने ही मुक़ाबिल रहिए उन की नज़रों के सिवा सब की निगाहें उट्ठीं महफ़िल-ए-यार में भी ज़ीनत-ए-महफ़िल रहिए दिल पे हर हाल में है सोहबत-ए-ना-जिंस हराम हैफ़-सद-हैफ़ कि ना-जिंसों में शामिल रहिए दाग़ सीने का दहकता रहे जलता रहे दिल रात बाक़ी है जहाँ तक मह-ए-कामिल रहिए जानिए दौलत-ए-कौनैन को भी जिंस-ए-हक़ीर और दर-ए-यार पे इक बोसे के साइल रहिए आशिक़ी शेव-ए-रिंदान-ए-बला-कश है मियाँ वजह-ए-शाइस्तगी-ए-ख़ंजर-ए-क़ातिल रहिए

बैठे हैं जहाँ साक़ी पैमाना-ए-ज़र ले कर

बैठे हैं जहाँ साक़ी पैमाना-ए-ज़र ले कर उस बज़्म से उठ आए हम दीदा-ए-तर ले कर यादों से तिरी रौशन मेहराब-ए-शब-ए-हिज्राँ ढूँढेंगे तुझे कब तक क़िंदील-ए-क़मर ले कर क्या हुस्न है दुनिया में क्या लुत्फ़ है जीने में देखे तो कोई मेरा अंदाज़-ए-नज़र ले कर होती है ज़माने में किस तरह पज़ीराई निकलो तो ज़रा घर से इक ज़ौक़-ए-सफ़र ले कर राहें चमक उट्ठेंगी ख़ुर्शीद की मशअ'ल से हमराह सबा होगी ख़ुश्बू-ए-सहर ले कर मख़मल सी बिछा देंगे क़दमों के तले साहिल दरिया उबल आएँगे सद-मौज-ए-गुहर ले कर पहनाएँगे ताज अपना पेड़ों के घने साए निकलेंगे शजर अपने ख़ुश-रंग समर ले कर लपकेंगे गले मिलने सर्व और सनोबर सब उठेंगे गुलिस्ताँ भी शाख़-ए-गुल-ए-तर ले कर हँसते हुए शहरों की आवाज़ बुलाएगी लब जाम के चमकेंगे सौ शो'ला-ए-तर ले कर अफ़्लाक बजाएँगे साज़ अपने सितारों का गाएँगे बहुत लम्हे अन्फ़ास-ए-शरर ले कर ये आलम-ए-ख़ाकी इक सय्यारा-ए-रौशन है अफ़्लाक से टकरा दो तक़दीर-ए-बशर ले कर

मस्ती-ए-रिंदाना हम सैराबी-ए-मय-ख़ाना हम

मस्ती-ए-रिंदाना हम सैराबी-ए-मय-ख़ाना हम गर्दिश-ए-तक़दीर से हैं गर्दिश-ए-पैमाना हम ख़ून-ए-दिल से चश्म-ए-तर तक चश्म-ए-तर से ता-ब-ख़ाक कर गए आख़िर गुल-ओ-गुलज़ार हर वीराना हम क्या बला जब्र-ए-असीरी है कि आज़ादी में भी दोश पर अपने लिए फिरते हैं ज़िंदाँ-ख़ाना हम राह में फ़ौजों के पहरे सर पे तलवारों की छाँव आए हैं ज़िंदाँ में भी बा-शौकत-ए-शाहाना हम मिटते मिटते दे गए हम ज़िंदगी को रंग-ओ-नूर रफ़्ता रफ़्ता बन गए इस अहद का अफ़्साना हम या जगा देते हैं ज़र्रों के दिलों में मय-कदे या बना लेते हैं मेहर-ओ-माह को पैमाना हम क़ैद हो कर और भी ज़िंदाँ में उड़ता है ख़याल रक़्स ज़ंजीरों में भी करते हैं आज़ादाना हम

मैं जहाँ तुम को बुलाता हूँ वहाँ तक आओ

मैं जहाँ तुम को बुलाता हूँ वहाँ तक आओ मेरी नज़रों से गुज़र कर दिल-ओ-जाँ तक आओ फिर ये देखो कि ज़माने की हवा है कैसी साथ मेरे मिरे फ़िरदौस-ए-जवाँ तक आओ हौसला हो तो उड़ो मेरे तसव्वुर की तरह मेरी तख़्ईल के गुलज़ार-ए-जिनाँ तक आओ तेग़ की तरह चलो छोड़ के आग़ोश-ए-नियाम तीर की तरह से आग़ोश-ए-कमाँ तक आओ फूल के गिर्द फिरो बाग़ में मानिंद-ए-नसीम मिस्ल-ए-परवाना किसी शम-ए-तपाँ तक आओ लो वो सदियों के जहन्नम की हदें ख़त्म हुईं अब है फ़िरदौस ही फ़िरदौस जहाँ तक आओ छोड़ कर वहम-ओ-गुमाँ हुस्न-ए-यक़ीं तक पहुँचो पर यक़ीं से भी कभी वहम-ओ-गुमाँ तक आओ इसी दुनिया में दिखा दें तुम्हें जन्नत की बहार शैख़-जी तुम भी ज़रा कू-ए-बुताँ तक आओ

मौसम-ए-रंग भी है फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ भी तारी

मौसम-ए-रंग भी है फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ भी तारी देखना ख़ून के धब्बे हैं कि है गुल-कारी उस से हर तरह से तज़लील-ए-बशर होती है बाइस-ए-फ़ख़्र नहीं मुफ़लिसी-ओ-नादारी इंक़िलाबी हो तो है फ़क़्र भी तौक़ीर-ए-हयात वर्ना है आजिज़ी-ओ-बे-कसी-ओ-अय्यारी शो'ला-ए-गुल की बढ़ा देती है लौ-ए-बाद-ए-बहार तह-ए-शबनम भी दहक उठती है इक चिंगारी लम्हा लम्हा है कि है क़ाफ़िला-ए-मंज़िल-ए-नूर सरहद-ए-शब में भी फ़रमान-ए-सहर है जारी तेग़-ओ-ख़ंजर को अता करते हैं लफ़्ज़ों की नियाम ज़ुल्म की करते हैं जब अहल-ए-सितम तय्यारी हर्फ़-ए-'सरदार' में पोशीदा हैं असरार-ए-हयात शेर-ए-'सरदार' में है सरकशी-ओ-सरशारी शेर-ए-'सरदार' में है शो'ला-ए-बेबाक का रंग हर्फ़-ए-'सरदार' में हक़-गोई-ओ-ख़ुश-गुफ़्तारी

याद आए हैं अहद-ए-जुनूँ के खोए हुए दिलदार बहुत

याद आए हैं अहद-ए-जुनूँ के खोए हुए दिलदार बहुत उन से दूर बसाई बस्ती जिन से हमें था प्यार बहुत एक इक कर के खिली थीं कलियाँ एक इक कर के फूल गए एक इक कर के हम से बिछड़े बाग़-ए-जहाँ में यार बहुत हुस्न के जल्वे आम हैं लेकिन ज़ौक़-ए-नज़ारा आम नहीं इश्क़ बहुत मुश्किल है लेकिन इश्क़ के दा'वेदार बहुत ज़ख़्म कहो या खिलती कलियाँ हाथ मगर गुलदस्ता है बाग़-ए-वफ़ा से हम ने चुने हैं फूल बहुत और ख़ार बहुत जो भी मिला है ले आए हैं दाग़-ए-दिल या दाग़-ए-जिगर वादी वादी मंज़िल मंज़िल भटके हैं 'सरदार' बहुत

ये बेकस-ओ-बेक़रार चेहरे

ये बेकस-ओ-बेक़रार चेहरे सदियों के ये सोगवार चेहरे मिट्टी में पड़े दमक रहे हैं हीरों की तरह हज़ार चेहरे ले जा के इन्हें कहाँ सजाएँ ये भूक के शिकार चेहरे अफ़्रीक़ा-ओ-एशिया की ज़ीनत ये नादिर-ए-रोज़गार चेहरे खोई हुई अज़्मतों के वारिस कल रात के यादगार चेहरे ग़ाज़े से सफ़ेद मय से रंगीं इस दौर के दाग़दार चेहरे गुज़रे हैं निगाह-ओ-दिल से हो कर हर तरह के बे-शुमार चेहरे मग़रूर अना के घोंसले में बैठे हुए कम-अयार चेहरे काबिल-ए-इल्तिफ़ात आँखें ना-क़ाबिल-ए-ए'तिबार चेहरे इन सब से हसीन-तर हैं लेकिन रिंदों के गुनाहगार चेहरे

लग़्ज़िश-ए-गाम लिए लग़्ज़िश-ए-मस्ताना लिए

लग़्ज़िश-ए-गाम लिए लग़्ज़िश-ए-मस्ताना लिए आए हम बज़्म में फिर जुरअत-ए-रिंदाना लिए इश्क़ पहलू में है फिर जल्वा-ए-जानाना लिए ज़ुल्फ़ इक हाथ में इक हाथ में पैमाना लिए याद करता था हमें साक़ी-ओ-मीना का हुजूम उठ गए थे जो कभी रौनक़-ए-मय-ख़ाना लिए वस्ल की सुब्ह शब-ए-हिज्र के बा'द आई है आफ़्ताब-ए-रुख़-ए-महबूब का नज़राना लिए अस्र-ए-हाज़िर को मुबारक हो नया दौर-ए-अवाम अपनी ठोकर में सर-ए-शौकत-ए-शाहाना लिए

लू के मौसम में बहारों की हवा माँगते हैं

लू के मौसम में बहारों की हवा माँगते हैं हम कफ़-ए-दस्त-ए-ख़िज़ाँ पर भी हिना माँगते हैं हम-नशीं सादा-दिली-हा-ए-तमन्ना मत पूछ बे-वफ़ाओं से वफ़ाओं का सिला माँगते हैं काश कर लेते कभी का'बा-ए-दिल का भी तवाफ़ वो जो पत्थर के मकानों से ख़ुदा माँगते हैं जिस में हो सतवत-ए-शाहीन की परवाज़ का रंग लब-ए-शाइ'र से वो बुलबुल की नवा माँगते हैं ताकि दुनिया पे खुले उन का फ़रेब-ए-इंसाफ़ बे-ख़ता हो के ख़ताओं की सज़ा माँगते हैं तीरगी जितनी बढ़े हुस्न हो अफ़्ज़ूँ तेरा कहकशाँ माँग में माथे पे ज़िया माँगते हैं ये है वारफ़्तगी-ए-शौक़ का आलम 'सरदार' बारिश-ए-संग है और बाद-ए-सबा माँगते हैं

वतन से दूर यारान-ए-वतन की याद आती है

वतन से दूर यारान-ए-वतन की याद आती है क़फ़स में हम-नवायान-ए-चमन की याद आती है ये कैसा ज़ुल्म है फिर साया-ए-दीवार-ए-ज़िन्दाँ में वतन के साया-ए-सर्व-ओ-समन की याद आती है तसव्वुर जिस से रंगीं है तख़य्युल जिस से रक़्साँ है ग़ज़ाल-ए-हिंद-ओ-आहू-ए-ख़ुतन की याद आती है कभी लैला-ओ-शीरीं गाह हीर-ओ-सोहनी बन कर निराले यार की बाँके सजन की याद आती है कहाँ का ख़ौफ़-ए-ज़िन्दाँ दहशत-ए-दार-ओ-रसन कैसी क़द-ए-माशूक-ओ-ज़ुल्फ़-ए-पुर-शिकन की याद आती है

वही हुस्न-ए-यार में है वही लाला-ज़ार में है

वही हुस्न-ए-यार में है वही लाला-ज़ार में है वो जो कैफ़ियत नशे की मय-ए-ख़ुश-गवार में है ये चमन की आरज़ू है कोई लूट ले चमन को ये तमाम रंग-ओ-निकहत तिरे इख़्तियार में है तिरे हाथ की बुलंदी में फ़रोग़-ए-कहकशाँ है ये हुजूम-ए-माह-ओ-अंजुम तिरे इंतिज़ार में है बस उसी को तोड़ना है ये जुनून-ए-नफ़अ'-ख़ोरी यही एक सर्द ख़ंजर दिल-ए-रोज़गार में है अभी ज़िंदगी हसीं है अभी ज़िक्र-ए-मौत कैसा अभी फूल खिल रहे हैं अभी तो कनार में है अभी मय-कदा जवाँ है अभी मौज में है साक़ी अभी जाम रक़्स में है अभी मय बहार में है यही मेरा शेर-ओ-नग़्मा यही मेरी फिक्र-ओ-हिकमत जो सुरूर-ओ-दर्द-मंदी दिल-ए-बे-क़रार में है

वही है वहशत वही है नफ़रत आख़िर इस का क्या है सबब

वही है वहशत वही है नफ़रत आख़िर इस का क्या है सबब इंसाँ इंसाँ बहुत रटा है इंसाँ इंसाँ बनेगा कब वेद उपनिषद पुर्ज़े पुर्ज़े गीता क़ुरआँ वरक़ वरक़ राम-ओ-कृष्न-ओ-गौतम-ओ-यज़्दाँ ज़ख़्म-रसीदा सब के सब अब तक ऐसा मिला न कोई दिल की प्यास बुझाता जो यूँ मय-ख़ाना-चश्म बहुत हैं बहुत हैं यूँ तो साक़ी-लब जिस की तेग़ है दुनिया उस की जिस की लाठी उस की भैंस सब क़ातिल हैं सब मक़्तूल हैं सब मज़लूम हैं ज़ालिम सब ख़ंजर ख़ंजर क़ातिल अबरू दिलबर हाथ मसीहा होंट लहू लहू है शाम-ए-तमन्ना आँसू आँसू सुब्ह-ए-तरब देखें दिन फिरते हैं कब तक देखें फिर कब मिलते हैं दिल से दिल आँखों से आँखें हाथ से हाथ और लब से लब ज़ख़्मी सरहद ज़ख़्मी क़ौमें ज़ख़्मी इंसाँ ज़ख़्मी मुल्क हर्फ़-ए-हक़ की सलीब उठाए कोई मसीह तो आए अब

वुफ़ूर-ए-शौक़ की रंगीं हिकायतें मत पूछ

वुफ़ूर-ए-शौक़ की रंगीं हिकायतें मत पूछ लबों का प्यार निगह की शिकायतें मत पूछ किसी निगाह की नस नस में तैरते निश्तर वो इब्तिदा-ए-मोहब्बत की राहतें मत पूछ वो नीम-शब वो जवाँ हुस्न वो वुफ़ूर-ए-नियाज़ निगाह ओ दिल ने जो की हैं इबादतें मत पूछ हुजूम-ए-ग़म में भी जीना सिखा दिया हम को ग़म-ए-जहाँ की हैं क्या क्या इनायतें मत पूछ ये सिर्फ़ एक क़यामत है चैन की करवट दबी हैं दिल में हज़ारों क़यामतें मत पूछ बस एक हर्फ़-ए-बग़ावत ज़बाँ से निकला था शहीद हो गईं कितनी रिवायतें मत पूछ अब आज क़िस्सा-ए-दारा-ओ-जम का क्या होगा हमारे पास हैं अपनी हिकायतें मत पूछ निशान-ए-हिटलरी-ओ-क़ैसरी नहीं मिलता जो इब्रतों ने लिखी हैं इबारतें मत पूछ नशात-ए-ज़ीस्त फ़क़त अहल-ए-ग़म की है मीरास मिलेंगी और अभी कितनी दौलतें मत पूछ

वो मिरी दोस्त वो हमदर्द वो ग़म-ख़्वार आँखें

वो मिरी दोस्त वो हमदर्द वो ग़म-ख़्वार आँखें एक मासूम मोहब्बत की गुनहगार आँखें शोख़-ओ-शादाब-ओ-हसीं सादा-ओ-पुरकार आँखें मस्त-ओ-सरशार-ओ-जवाँ बे-ख़ुद-ओ-होशियार आँखें तिरछी नज़रों में वो उलझी हुई सूरज की किरन अपने दुज़्दीदा इशारों में गिरफ़्तार आँखें जुम्बिश-ए-अबरू-ओ-मिज़्गाँ कै ख़ुनुक साए में आतिश-अफ़रोज़ जुनूँ-ख़ेज़ शरर-बार आँखें कैफ़ियत दिल की सुनाती हुई एक एक निगाह बे-ज़बाँ हो के भी वो माइल-ए-गुफ़्तार आँखें मौसम-ए-गुल में वो उड़ते हुए भौँरों की तरह ग़ुंचा-ए-दिल पे वो करती हुई यलग़ार आँखें कभी छलकी हुई शर्बत के कटोरों की तरह और कभी ज़हर में डूबी हुई तलवार आँखें कभी ठहरी हुई यख़-बस्ता ग़मों की झीलें कभी सहमा हुआ सिमटा हुआ इक प्यार आँखें कभी झुकते हुए बादल कभी गिरती बिजली कभी उठती हुई आमादा-ए-पैकार आँखें नोक-ए-अबरू में कभी तलख़ी-ए-इंकार लिए कभी घोले हुए शीरीनी-ए-इक़रार आँखें आँच में अपनी जवानी की सुलगती चितवन शबनम-ए-अश्क में धोई हुई गुलनार आँखें हुस्न के चाँद से मुखड़े पे चमकते तारे हाए आँखें वो हरीफ़-ए-लब-ओ-रुख़सार आँखें इशवा-ओ-ग़मज़ा-ओ-अंदाज़-ओ-अदा पर नाज़ाँ अपने पिंदार-ए-जवानी की परस्तार आँखें रूह को रोग मोहब्बत का लगा देती हैं सेहत-ए-दिल जो अता करती हैं बीमार आँखें सेहन-ए-ज़िंदाँ में है फिर रात के तारों का हुजूम शम्अ' की तरह फ़रोज़ाँ सर-ए-दीवार आँखें

शबों की ज़ुल्फ़ की रू-ए-सहर की ख़ैर मनाओ

शबों की ज़ुल्फ़ की रू-ए-सहर की ख़ैर मनाओ निगार-ए-शम्स उरूस-ए-क़मर की ख़ैर मनाओ सिपाह-ए-दुश्मन-ए-इंसानियत क़रीब आई दयार-ए-हुस्न सर-ए-रहगुज़र की ख़ैर मनाओ अभी तो औरों के दीवार-ओ-दर पे यूरिश थी अब अपने साया-ए-दीवार-ओ-दर की ख़ैर मनाओ चली है आतिश-ओ-आहन के दिल से बाद-ए-सुमूम चमन के जल्वा-ए-गुलहा-ए-तर की ख़ैर मनाओ गुज़र न जाए कहीं बहर-ओ-बर से ख़ून की धार फ़रोग़-ए-शबनम-ओ-आब-ओ-गुहर की ख़ैर मनाओ ये नफ़अ'-ख़ोरों की दानिश-फ़रोश दुनिया है मता-ए-इल्म की जिंस-ए-हुनर की ख़ैर मनाओ मिरे लिए है मिरी मुफ़लिसी-व-नापाकी तुम अपनी पाकी-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र की ख़ैर मनाओ

शम्अ' का मय का शफ़क़-ज़ार का गुलज़ार का रंग

शम्अ' का मय का शफ़क़-ज़ार का गुलज़ार का रंग सब हैं और सब से जुदा है लब-ए-दीदार का रंग अक्स-ए-साक़ी से चमक उट्ठी है साग़र की जबीं और कुछ तेज़ हुआ बादा-ए-गुलनार का रंग शैख़ में हिम्मत-ए-रिन्दान-ए-क़दह-ख़्वार कहाँ एक ही जाम में आशुफ़्ता है दस्तार का रंग उन के आने को छुपाऊँ तो छुपाऊँ क्यूँ कर बदला बदला सा है मेरे दर-ओ-दीवार का रंग शफ़क़-ए-सुब्ह-ए-शहादत से है ताबिंदा जबीं वर्ना आलूदा-ए-ख़ूँ था उफ़ुक़-ए-दार का रंग आफ़्ताबों की तरह जागी है इंसान की जोत जगमगाता है सिरा पर्दा-ए-असरार का रंग वक़्त की रूह मुनव्वर है नवा से मेरी अस्र-ए-नौ में है मिरी शोख़ी-ए-अफ़्कार का रंग

शाख़-ए-गुल है कि ये तलवार खिंची है यारो

शाख़-ए-गुल है कि ये तलवार खिंची है यारो बाग़ में कैसी हवा आज चली है यारो कौन है ख़ौफ़-ज़दा जश्न-ए-सहर से पूछो रात की नब्ज़ तो अब छूट चली है यारो ताक के दिल से दिल-ए-शीशा-ओ-पैमाना तक एक इक बूँद में सौ शम्अ जली है यारो चूम लेना लब-ए-लालीं का है रिंदों को रवा रस्म ये बादा-ए-गुल-गूँ से चली है यारो सिर्फ़ इक ग़ुंचा से शर्मिंदा है आलम की बहार दिल-ए-ख़ूँ-गश्ता के होंटों पे हँसी है यारो वो जो अंगूर के ख़ोशों में थी मानिंद-ए-नुजूम ढल के अब जाम में ख़ुर्शीद बनी है यारो बू-ए-ख़ूँ आती है मिलता है बहारों का सुराग़ जाने किस शोख़ सितमगर की गली है यारो ये ज़मीं जिस से है हम ख़ाक-नशीनों का उरूज ये ज़मीं चाँद सितारों में घिरी है यारो ज़ुरअ-ए-तल्ख़ भी है जाम-गवारा भी है ज़िंदगी जश्न-गह-ए-बादा-कशी है यारो

शिकस्त-ए-शौक़ को तकमील-ए-आरज़ू कहिए

शिकस्त-ए-शौक़ को तकमील-ए-आरज़ू कहिए जो तिश्नगी हो तो पैमाना-ओ-सुबू कहिए ख़याल-ए-यार को दीजिए विसाल-ए-यार का नाम शब-ए-फ़िराक़ को गैसू-ए-मुश्क-बू कहिए चराग़-ए-अंजुमन-ए-हैरत-ए-नज़ारा थे वो लाला-रू जिन्हें अब दाग़-ए-आरज़ू कहिए महक रही है ग़ज़ल ज़िक्र-ए-ज़ुल्फ़-ए-ख़ूबाँ से नसीम-ए-सुब्ह की मानिंद कू-ब-कू कहिए शिकायतें भी बहुत हैं हिकायतें भी बहुत मज़ा तो जब है कि यारों के रू-ब-रू कहिए ब-हुक्म कीजिए फिर ख़ंजरों की दिलदारी दहान-ए-ज़ख़्म से अफ़्साना-ए-गुलू कहिए

सर्द हैं दिल आतिश-ए-रू-ए-निगाराँ चाहिए

सर्द हैं दिल आतिश-ए-रू-ए-निगाराँ चाहिए शो'ला-रंग-ए-बहार-ए-गुल-एज़ाराँ चाहिए मंज़िल-ए-इश्क़-ओ-जुनूँ के फ़ासले हैं सर-ब-कफ़ इन कठिन राहों में लुत्फ़-ए-दस्त-ए-याराँ चाहिए कट रही है और कट चुकती नहीं फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ तेज़-तर इक और तेग़-ए-नौ-बहाराँ चाहिए आज मय-ख़ाने में सेहर-ए-चश्म-ए-साक़ी के लिए इल्तिफ़ात-ए-चश्म मस्त-ए-मय-गुसाराँ चाहिए इस दिल-ए-वहशी की आज़ादी का क्या कीजे इलाज इक कमंद-ए-गेसू-ए-यज़्दाँ-शिकाराँ चाहिए नग़्मा बन जाता है नाला उन की बज़्म-ए-नाज़ में उन को ख़ुश रखने को शोर-ए-सोगवाराँ चाहिए आसमानों से बरसते हैं ज़मीं पर रेगज़ार आज फिर 'सरदार' रक़्स-ए-बर्क़-ओ-बाराँ चाहिए

सितारों के पयाम आए बहारों के सलाम आए

सितारों के पयाम आए बहारों के सलाम आए हज़ारों नामा-हा-ए-शौक़ अहल-ए-दिल के काम आए न जाने कितनी नज़रें उस दिल-ए-वहशी पे पड़ती हैं हर इक को फ़िक्र है उस की ये शाहीं ज़ेर-ए-दाम आए इसी उम्मीद में बेताबी-ए-जाँ बढ़ती जाती है सुकून-ए-दिल जहाँ मुमकिन हो शायद वो मक़ाम आए हमारी तिश्नगी बुझती नहीं शबनम के क़तरों से जिसे साक़ी-गरी की शर्म हो आतिश-ब-जाम आए कोई शायद हमारे दाग़-ए-दिल की तरह रौशन हो हज़ारों आफ़्ताब इस शौक़ में बाला-ए-बाम आए इन्हें राहों में शैख़-ओ-मुहतसिब हाइल रहे अक्सर इन्हें राहों में हूरान-ए-बहिश्ती के ख़ियाम आए निगाहें मुंतज़िर हैं एक ख़ुर्शीद-ए-तमन्ना की अभी तक जितने मेहर-ओ-माह आए ना-तमाम आए ये आलम लज़्ज़त-ए-तख़्लीक़ का है रक़्स-ए-लाफ़ानी तसव्वुर-ख़ाना-ए-हैरत में लाखों सुब्ह-ओ-शाम आए कोई 'सरदार' कब था इस से पहले तेरी महफ़िल में बहुत अहल-ए-सुख़न उट्ठे बहुत अहल-ए-कलाम आए

सुब्ह हर उजाले पे रात का गुमाँ क्यूँ है

सुब्ह हर उजाले पे रात का गुमाँ क्यूँ है जल रही है क्या धरती अर्श पे धुआँ क्यूँ है ख़ंजरों की साज़िश पर कब तलक ये ख़ामोशी रूह क्यूँ है यख़-बस्ता नग़्मा बे-ज़बाँ क्यूँ है रास्ता नहीं चलते सिर्फ़ ख़ाक उड़ाते हैं कारवाँ से भी आगे गर्द-ए-कारवाँ क्यूँ है कुछ कमी नहीं लेकिन कोई कुछ तो बतलाओ इश्क़ इस सितमगर का शौक़ का ज़ियाँ क्यूँ है हम तो घर से निकले थे जीतने को दिल सब का तेग़ हाथ में क्यूँ है दोश पर कमाँ क्यूँ है ये है बज़्म-ए-मय-नोशी इस में सब बराबर हैं फिर हिसाब-ए-साक़ी में सूद क्यूँ ज़ियाँ क्यूँ है देन किस निगह की है किन लबों की बरकत है तुम में 'जाफ़री' इतनी शोख़ी-ए-बयाँ क्यूँ है

हम जो महफ़िल में तिरी सीना-फ़िगार आते हैं

हम जो महफ़िल में तिरी सीना-फ़िगार आते हैं रंग-बर-दोश गुलिस्ताँ-ब-कनार आते हैं चाक-दिल चाक-जिगर चाक-गरेबाँ वाले मिस्ल-ए-गुल आते हैं मानिंद-ए-बहार आते हैं कोई माशूक़ सज़ावार-ए-ग़ज़ल है शायद हम ग़ज़ल ले के सू-ए-शहर-ए-निगार आते हैं क्या वहाँ कोई दिल-ओ-जाँ का तलबगार नहीं जा के हम कूचा-ए-क़ातिल में पुकार आते हैं क़ाफ़िले शौक़ के रुकते नहीं दीवारों से सैंकड़ों महबस-ओ-ज़िन्दाँ के दयार आते हैं मंज़िलें दौड़ के रहरव के क़दम लेती हैं बोसा-ए-पा के लिए राहगुज़ार आते हैं ख़ुद कभी मौज-ओ-तलातुम से न निकले बाहर पार जो सारे ज़माने को उतार आते हैं कम हो क्यूँ अबरू-ए-क़ातिल की कमानों का खिंचाओ जब सर-ए-तीर-ए-सितम आप शिकार आते हैं

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