हिन्दी ग़ज़लें : अख़लाक़ मुहम्मद ख़ान 'शहरयार'

Ghazals in Hindi : Akhlaq Mohammed Khan Shahryar



अक्स को क़ैद कि परछाईं को ज़ंजीर करें

अक्स को क़ैद कि परछाईं को ज़ंजीर करें साअत-ए-हिज्र तुझे कैसे जहाँगीर करें पाँव के नीचे कोई शय है ज़मीं की सूरत चंद दिन और इसी वहम की तश्हीर करें शहर-ए-उम्मीद हक़ीक़त में नहीं बन सकता तो चलो उस को तसव्वुर ही में ता'मीर करें अब तो ले दे के यही काम है इन आँखों का जिन को देखा नहीं उन ख़्वाबों की ता'बीर करें हम में जुरअत की कमी कल की तरह आज भी है तिश्नगी किस के लबों पर तुझे तहरीर करें उम्र का बाक़ी सफ़र करना है इस शर्त के साथ धूप देखें तो इसे साए से ता'बीर करें

अजीब सानेहा मुझ पर गुज़र गया यारो

अजीब सानेहा मुझ पर गुज़र गया यारो मैं अपने साए से कल रात डर गया यारो हर एक नक़्श तमन्ना का हो गया धुँदला हर एक ज़ख़्म मिरे दिल का भर गया यारो भटक रही थी जो कश्ती वो ग़र्क़-ए-आब हुई चढ़ा हुआ था जो दरिया उतर गया यारो वो कौन था वो कहाँ का था क्या हुआ था उसे सुना है आज कोई शख़्स मर गया यारो मैं जिस को लिखने के अरमान में जिया अब तक वरक़ वरक़ वो फ़साना बिखर गया यारो

आसमाँ कुछ भी नहीं अब तेरे करने के लिए

आसमाँ कुछ भी नहीं अब तेरे करने के लिए मैं ने सब तय्यारियाँ कर ली हैं मरने के लिए इस बुलंदी ख़ौफ़ से आज़ाद हो उस ने कहा चाँद से जब भी कहा नीचे उतरने के लिए अब ज़मीं क्यूँ तेरे नक़्शे से नहीं हटती नज़र रंग क्या कोई बचा है इस में भरने के लिए ये जगह हैरत-सराए है कहाँ थी ये ख़बर यूँही आ निकला था मैं तो सैर करने के लिए कितना आसाँ लग रहा है मुझ को आगे का सफ़र छोड़ आया पीछे परछाईं को डरने के लिए

आहट जो सुनाई दी है हिज्र की शब की है

आहट जो सुनाई दी है हिज्र की शब की है ये राय अकेली मेरी नहीं है सब की है सुनसान सड़क सन्नाटे और लम्बे साए ये सारी फ़ज़ा ऐ दिल तेरे मतलब की है तिरी दीद से आँखें जी भर के सैराब हुईं किस रोज़ हुआ था ऐसा बात ये कब की है तुझे भूल गया कभी याद नहीं करता तुझ को जो बात बहुत पहले करनी थी अब की है मिरे सूरज आ! मिरे जिस्म पे अपना साया कर बड़ी तेज़ हवा है सर्दी आज ग़ज़ब की है

आँख की ये एक हसरत थी कि बस पूरी हुई

आँख की ये एक हसरत थी कि बस पूरी हुई आँसुओं में भीग जाने की हवस पूरी हुई आ रही है जिस्म की दीवार गिरने की सदा इक अजब ख़्वाहिश थी जो अब के बरस पूरी हुई इस ख़िज़ाँ-आसार लम्हे की हिकायत है यही इक गुल-ना-आफ़्रीदा की हवस पूरी हुई आग के शो'लों से सारा शहर रौशन हो गया हो मुबारक आरज़ू-ए-ख़ार-ओ-ख़स पूरी हुई कैसी दस्तक थी कि दरवाज़े मुक़फ़्फ़ल हो गए और इस के साथ रूदाद-ए-क़फ़स पूरी हुई

आँधियाँ आती थीं लेकिन कभी ऐसा न हुआ

आँधियाँ आती थीं लेकिन कभी ऐसा न हुआ ख़ौफ़ के मारे जुदा शाख़ से पत्ता न हुआ रूह ने पैरहन-ए-जिस्म बदल भी डाला ये अलग बात किसी बज़्म में चर्चा न हुआ रात को दिन से मिलाने की हवस थी हम को काम अच्छा न था अंजाम भी अच्छा न हुआ वक़्त की डोर को थामे रहे मज़बूती से और जब छूटी तो अफ़्सोस भी इस का न हुआ ख़ूब दुनिया है कि सूरज से रक़ाबत थी जिन्हें उन को हासिल किसी दीवार का साया न हुआ

आँधी की ज़द में शम-ए-तमन्ना जलाई जाए

आँधी की ज़द में शम-ए-तमन्ना जलाई जाए जिस तरह भी हो लाज जुनूँ की बचाई जाए बे-आब ओ बे-गियाह है ये दिल का दश्त भी इक नहर आँसुओं की यहाँ भी बहाई जाए आजिज़ हैं अपने ताला-ए-बेदार से बहुत हर रात हम को कोई कहानी सुनाई जाए सब कुछ बदल गया है मगर लोग हैं ब-ज़िद महताब ही में सूरत-ए-जानाँ दिखाई जाए कुछ साग़रों में ज़हर है कुछ में शराब है ये मसअला है तिश्नगी किस से बुझाई जाए शहरों की सरहदों पे है सहराओं का हुजूम क्या माजरा है आओ ख़बर तो लगाई जाए नाज़िल हो जिस्म ओ रूह पे जब बे-हिसी का क़हर उस वक़्त दोस्तो ये ग़ज़ल गुनगुनाई जाए

इन आँखों की मस्ती के मस्ताने हज़ारों हैं

इन आँखों की मस्ती के मस्ताने हज़ारों हैं इन आँखों से वाबस्ता अफ़्साने हज़ारों हैं इक तुम ही नहीं तन्हा उल्फ़त में मिरी रुस्वा इस शहर में तुम जैसे दीवाने हज़ारों हैं इक सिर्फ़ हमीं मय को आँखों से पिलाते हैं कहने को तो दुनिया में मय-ख़ाने हज़ारों हैं इस शम-ए-फ़रोज़ाँ को आँधी से डराते हो इस शम-ए-फ़रोज़ाँ के परवाने हज़ारों हैं

उम्मीद से कम चश्म-ए-ख़रीदार में आए

उम्मीद से कम चश्म-ए-ख़रीदार में आए हम लोग ज़रा देर से बाज़ार में आए सच ख़ुद से भी ये लोग नहीं बोलने वाले ऐ अहल-ए-जुनूँ तुम यहाँ बेकार में आए ये आग हवस की है झुलस देगी इसे भी सूरज से कहो साया-ए-दीवार में आए बढ़ती ही चली जाती है तन्हाई हमारी क्या सोच के हम वादी-ए-इंकार में आए

उस को किसी के वास्ते बे-ताब देखते

उस को किसी के वास्ते बे-ताब देखते हम भी कभी ये मंज़र-ए-नायाब देखते साहिल की रेत ने हमें वापस बुला लिया वर्ना ज़रूर हल्क़ा-ए-गिर्दाब देखते बारिश का लुत्फ़ बंद मकानों में कुछ नहीं बाहर निकलते घर से तो सैलाब देखते आती किसी को रास शहादत 'हुसैन' की दुनिया में हम किसी को तो सैराब देखते रातों को जागने के सिवा और क्या किया आँखें अगर मिली थीं कोई ख़्वाब देखते

ऐसे हिज्र के मौसम कब कब आते हैं

ऐसे हिज्र के मौसम कब कब आते हैं तेरे अलावा याद हमें सब आते हैं जागती आँखों से भी देखो दुनिया को ख़्वाबों का क्या है वो हर शब आते हैं जज़्ब करे क्यूँ रेत हमारी अश्कों को तेरा दामन तर करने अब आते हैं अब वो सफ़र की ताब नहीं बाक़ी वर्ना हम को बुलावे दश्त से जब तब आते हैं काग़ज़ की कश्ती में दरिया पार किया देखो हम को क्या क्या करतब आते हैं

कब समाँ देखेंगे हम ज़ख़्मों के भर जाने का

कब समाँ देखेंगे हम ज़ख़्मों के भर जाने का नाम लेता ही नहीं वक़्त गुज़र जाने का जाने वो कौन है जो दामन-ए-दिल खींचता है जब कभी हम ने इरादा किया मर जाने का दस्त-बरदार अभी तेरी तलब से हो जाएँ कोई रस्ता भी तो हो लौट के घर जाने का लाता हम तक भी कोई नींद से बोझल रातें आता हम को भी मज़ा ख़्वाब में डर जाने का सोचते ही रहे पूछेंगे तिरी आँखों से किस से सीखा है हुनर दिल में उतर जाने का

कहता नहीं हूँ लोगो मैं कर के दिखाऊँगा

कहता नहीं हूँ लोगो मैं कर के दिखाऊँगा फिर से जुनूँ चराग़ हवाएँ जलाऊँगा आँखों ने नींद-रुख़ न किया जानता था मैं तुझ ख़्वाब तक रसाई कभी मैं न पाऊँगा सूरज सितम-निशाना बना हूँ इसी लिए चाहा था धूप क़हर से तुझ को बचाउंगा तन्हा सफ़र पे मुझ को रवाना तो कर दिया सोचा नहीं कि तुझ को बहुत याद आऊँगा सच सुन नहीं सकेगा कोई वर्ना जी में था दुनिया को जैसा देखा है सब को बताऊँगा बीते दिनों के नन्हे परिंदों के साए में जीने का लुत्फ़ और भी कुछ दिन उठाऊँगा

कहने को तो हर बात कही तेरे मुक़ाबिल

कहने को तो हर बात कही तेरे मुक़ाबिल लेकिन वो फ़साना जो मिरे दिल पे रक़म है महरूमी का एहसास मुझे किस लिए होता हासिल है जो मुझ को कहाँ दुनिया को बहम है या तुझ से बिछड़ने का नहीं हौसला मुझ में या तेरे तग़ाफ़ुल में भी अंदाज़-ए-करम है थोड़ी सी जगह मुझ को भी मिल जाए कहीं पर वहशत तिरे कूचे में मिरे शहर से कम है ऐ हम-सफ़रो टूटे न साँसों का तसलसुल ये क़ाफ़िला-ए-शौक़ बहुत तेज़-क़दम है

कहाँ तक वक़्त के दरिया को हम ठहरा हुआ देखें

कहाँ तक वक़्त के दरिया को हम ठहरा हुआ देखें ये हसरत है कि इन आँखों से कुछ होता हुआ देखें बहुत मुद्दत हुई ये आरज़ू करते हुए हम को कभी मंज़र कहीं हम कोई अन-देखा हुआ देखें सुकूत-ए-शाम से पहले की मंज़िल सख़्त होती है कहो लोगों से सूरज को न यूँ ढलता हुआ देखें हवाएँ बादबाँ खोलीं लहू-आसार बारिश हो ज़मीन-ए-सख़्त तुझ को फूलता-फलता हुआ देखें धुएँ के बादलों में छुप गए उजले मकाँ सारे ये चाहा था कि मंज़र शहर का बदला हुआ देखें हमारी बे-हिसी पे रोने वाला भी नहीं कोई चलो जल्दी चलो फिर शहर को जलता हुआ देखें

कारोबार-ए-शौक़ में बस फ़ाएदा इतना हुआ

कारोबार-ए-शौक़ में बस फ़ाएदा इतना हुआ तुझ से मिलना था कि मैं कुछ और भी तन्हा हुआ कोई पलकों से उतरती रात को रोके ज़रा शाम की दहलीज़ पर इक साया है सहमा हुआ मुंजमिद होती चली जाती हैं आवाज़ें तमाम एक सन्नाटा है सारे शहर में फैला हुआ आसमानों पर लिखी तहरीर धुँदली हो गई अब कोई मसरफ़ नहीं आँखों का ये अच्छा हुआ इस हथेली में बहुत सी दस्तकें रू-पोश हैं उस गली के मोड़ पर इक घर था कल तक क्या हुआ

किस किस तरह से मुझ को न रुस्वा किया गया

किस किस तरह से मुझ को न रुस्वा किया गया ग़ैरों का नाम मेरे लहू से लिखा गया निकला था मैं सदा-ए-जरस की तलाश में धोके से इस सुकूत के सहरा में आ गया क्यूँ आज उस का ज़िक्र मुझे ख़ुश न कर सका क्यूँ आज उस का नाम मिरा दिल दुखा गया मैं जिस्म के हिसार में महसूर हूँ अभी वो रूह की हदों से भी आगे चला गया इस हादसे को सुन के करेगा यक़ीं कोई सूरज को एक झोंका हवा का बुझा गया

किस फ़िक्र किस ख़याल में खोया हुआ सा है

किस फ़िक्र किस ख़याल में खोया हुआ सा है दिल आज तेरी याद को भूला हुआ सा है गुलशन में इस तरह से कब आई थी फ़स्ल-ए-गुल हर फूल अपनी शाख़ से टूटा हुआ सा है चल चल के थक गया है कि मंज़िल नहीं कोई क्यूँ वक़्त एक मोड़ पे ठहरा हुआ सा है क्या हादिसा हुआ है जहाँ में कि आज फिर चेहरा हर एक शख़्स का उतरा हुआ सा है नज़राना तेरे हुस्न को क्या दें कि अपने पास ले दे के एक दिल है सो टूटा हुआ सा है पहले थे जो भी आज मगर कारोबार-ए-इश्क़ दुनिया के कारोबार से मिलता हुआ सा है लगता है उस की बातों से ये 'शहरयार' भी यारों के इल्तिफ़ात का मारा हुआ सा है

खुले जो आँख कभी दीदनी ये मंज़र हैं

खुले जो आँख कभी दीदनी ये मंज़र हैं समुंदरों के किनारों पे रेत के घर हैं न कोई खिड़की न दरवाज़ा वापसी के लिए मकान-ए-ख़्वाब में जाने के सैकड़ों दर हैं गुलाब टहनी से टूटा ज़मीन पर न गिरा करिश्मे तेज़ हवा के समझ से बाहर हैं कोई बड़ा है न छोटा सराब सब का है सभी हैं प्यास के मारे सभी बराबर हैं हुसैन-इब्न-ए-अली कर्बला को जाते हैं मगर ये लोग अभी तक घरों के अंदर हैं

गर्द को कुदूरतों की धो न पाए हम

गर्द को कुदूरतों की धो न पाए हम दिल बहुत उदास है कि रो न पाए हम वजूद के चहार सम्त रेगज़ार था कहीं भी ख़्वाहिशों के बीज बो न पाए हम रूह से तो पहले दिन ही हार मान ली बोझ अपने जिस्म का भी ढो न पाए हम दश्त में तो एक हम थे और कुछ न था शहर के हुजूम में भी खो न पाए हम एक ख़्वाब देखने की आरज़ू रही इसी लिए तमाम 'उम्र सो न पाए हम

गुज़रे थे हुसैन इब्न-ए-अली रात इधर से

गुज़रे थे हुसैन इब्न-ए-अली रात इधर से हम में से मगर कोई भी निकला नहीं घर से इस बात पे किस वास्ते हैरान हैं आँखें पतझड़ ही में होते हैं जुदा पत्ते शजर से तू यूँ ही पशेमाँ है सबब तू नहीं इस का नींद आती नहीं हम को किसी ख़्वाब के डर से सुनते हैं बहुत नाम कभी देखते हम भी ऐ मौज-ए-बला तुझ को गुज़रते हुए सर से थकना है ठहरना है बहर-हाल सभी को जी अपना भी भर जाएगा इक रोज़ सफ़र से

गुलाब जिस्म का यूँही नहीं खिला होगा

गुलाब जिस्म का यूँही नहीं खिला होगा हवा ने पहले तुझे फिर मुझे छुआ होगा शरीर शोख़ किरन मुझ को चूम लेती है ज़रूर इस में इशारा तिरा छुपा होगा मिरी पसंद पे तुझ को भी रश्क आयेगा कि आइने से जहाँ तेरा सामना होगा ये और बात कि मैं ख़ुद न पास आ पाई प मेरा साया तो हर शब तुझे मिला होगा ये सोच सोच के कटती नहीं है रात मिरी कि तुझ को सोते हुए चाँद देखता होगा मैं तेरे साथ रहूँगी वफ़ा की राहों में ये अहद है न मिरे दिल से तू जुदा होगा

जब भी मिलती है मुझे अजनबी लगती क्यूँ है

जब भी मिलती है मुझे अजनबी लगती क्यूँ है ज़िंदगी रोज़ नए रंग बदलती क्यूँ है धूप के क़हर का डर है तो दयार-ए-शब से सर-बरहना कोई परछाईं निकलती क्यूँ है मुझ को अपना न कहा इस का गिला तुझ से नहीं इस का शिकवा है कि बेगाना समझती क्यूँ है तुझ से मिल कर भी न तन्हाई मिटेगी मेरी दिल में रह रह के यही बात खटकती क्यूँ है मुझ से क्या पूछ रहे हो मिरी वहशत का सबब बू-ए-आवारा से पूछो कि भटकती क्यूँ है

जहाँ पे तेरी कमी भी न हो सके महसूस

जहाँ पे तेरी कमी भी न हो सके महसूस तलाश ही रही आँखों को ऐसे मंज़र की हमें तो ख़ुद नहीं मालूम क्या किसी से कहें कि तुझ से मिलने की कोशिश न क्यूँ बिछड़ कर की मगर ये ज़ौक़-ए-परस्तिश कि अब भी तिश्ना है जबीं को चूम चुके एक एक पत्थर की कहाँ पे दफ़्न वो परछाइयाँ करें यारो जो ताब ला न सकीं रौशनी के ख़ंजर की हर एक गुल को है इश्क़-ए-सुमूम का सौदा हर एक शाख़ यहाँ मो'तक़िद है सरसर की जिधर अँधेरा है तन्हाई है उदासी है सफ़र की हम ने वही सम्त क्यूँ मुक़र्रर की

जहाँ में होने को ऐ दोस्त यूँ तो सब होगा

जहाँ में होने को ऐ दोस्त यूँ तो सब होगा तिरे लबों पे मिरे लब हों ऐसा कब होगा इसी उमीद पे कब से धड़क रहा है दिल तिरे हुज़ूर किसी रोज़ ये तलब होगा मकाँ तो होंगे मकीनों से सब मगर ख़ाली यहाँ भी देखूँ तमाशा ये एक शब होगा कोई नहीं है जो बतलाए मेरे लोगों को हवा के रुख़ के बदलने से क्या ग़ज़ब होगा न जाने क्यूँ मुझे लगता है ऐसा हाकिम-ए-शहर जो हादिसा नहीं पहले हुआ वो अब होगा

जागता हूँ मैं एक अकेला दुनिया सोती है

जागता हूँ मैं एक अकेला दुनिया सोती है कितनी वहशत हिज्र की लम्बी रात में होती है यादों के सैलाब में जिस दम मैं घिर जाता हूँ दिल-दीवार उधर जाने की ख़्वाहिश होती है ख़्वाब देखने की हसरत में तन्हाई मेरी आँखों की बंजर धरती में नींदें बोती है ख़ुद को तसल्ली देना कितना मुश्किल होता है कोई क़ीमती चीज़ अचानक जब भी खोती है उम्र-सफ़र जारी है बस ये खेल देखने को रूह बदन का बोझ कहाँ तक कब तक ढोती है

जुदा हुए वो लोग कि जिन को साथ में आना था

जुदा हुए वो लोग कि जिन को साथ में आना था इक ऐसा मोड़ भी हमारी रात में आना था तुझ से बिछड़ जाने का ग़म कुछ ख़ास नहीं हम को एक न इक दिन खोट हमारी ज़ात में आना था आँखों को ये कहते सुनते रहते हैं हर दम सूखे को आना था और बरसात में आना था इक लम्बी सुनसान सड़क पर तन्हा फिरते हैं वो आहट थी हम को न उस की बात में आना था ऐ यादो तुम ऐसे क्यूँ इस वक़्त कहाँ आईं किसी मुनासिब वक़्त नए हालात में आना था

जुस्तुजू जिस की थी उस को तो न पाया हम ने

जुस्तुजू जिस की थी उस को तो न पाया हम ने इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हम ने सब का अहवाल वही है जो हमारा है आज ये अलग बात कि शिकवा किया तन्हा हम ने ख़ुद पशीमान हुए ने उसे शर्मिंदा किया इश्क़ की वज़्अ को क्या ख़ूब निभाया हम ने कौन सा क़हर ये आँखों पे हुआ है नाज़िल एक मुद्दत से कोई ख़्वाब न देखा हम ने उम्र भर सच ही कहा सच के सिवा कुछ न कहा अज्र क्या इस का मिलेगा ये न सोचा हम ने

जो चाहती दुनिया है वो मुझ से नहीं होगा

जो चाहती दुनिया है वो मुझ से नहीं होगा समझौता कोई ख़्वाब के बदले नहीं होगा अब रात की दीवार को ढाना है ज़रूरी ये काम मगर मुझ से अकेले नहीं होगा ख़ुश-फ़हमी अभी तक थी यही कार-ए-जुनूँ में जो मैं नहीं कर पाया किसी से नहीं होगा तदबीर नई सोच कोई ऐ दिल-ए-सादा माइल-ब-करम तुझ पे वो ऐसे नहीं होगा बे-नाम से इक ख़ौफ़ से दिल क्यूँ है परेशाँ जब तय है कि कुछ वक़्त से पहले नहीं होगा

ज़ख़्मों को रफ़ू कर लें दिल शाद करें फिर से

ज़ख़्मों को रफ़ू कर लें दिल शाद करें फिर से ख़्वाबों की कोई दुनिया आबाद करें फिर से मुद्दत हुई जीने का एहसास नहीं होता दिल उन से तक़ाज़ा कर बेदाद करें फिर से मुजरिम के कटहरे में फिर हम को खड़ा कर दो हो रस्म-ए-कोहन ताज़ा फ़रियाद करें फिर से ऐ अहल-ए-जुनूँ देखो ज़ंजीर हुए साए हम कैसे उन्हें सोचो आज़ाद करें फिर से अब जी के बहलने की है एक यही सूरत बीती हुई कुछ बातें हम याद करें फिर से

ज़मीं से ता-ब-फ़लक धुँद की ख़ुदाई है

ज़मीं से ता-ब-फ़लक धुँद की ख़ुदाई है हवा-ए-शहर-ए-जुनूँ क्या पयाम लाई है पिया है ज़हर भी आब-ए-हयात भी लेकिन किसी ने तिश्नगी-ए-जिस्म-ओ-जाँ बुझाई है ये कोई ज़िद है कि है रस्म-ए-आशिक़ी ही यही हवा के रुख़ पे जो शम-ए-वफ़ा जलाई है ये कम नहीं कि तरफ़-दार हैं मिरे कुछ लोग हुनर की वर्ना यहाँ किस ने दाद पाई है मुसाफ़िरान-ए-रह-ए-शौक़ और तेज़ क़दम कि चंद गाम ही अब मंज़िल-ए-जुदाई है

ज़िंदगी जब भी तिरी बज़्म में लाती है हमें

ज़िंदगी जब भी तिरी बज़्म में लाती है हमें ये ज़मीं चाँद से बेहतर नज़र आती है हमें सुर्ख़ फूलों से महक उठती हैं दिल की राहें दिन ढले यूँ तिरी आवाज़ बुलाती है हमें याद तेरी कभी दस्तक कभी सरगोशी से रात के पिछले-पहर रोज़ जगाती है हमें हर मुलाक़ात का अंजाम जुदाई क्यूँ है अब तो हर वक़्त यही बात सताती है हमें

ज़िंदगी जैसी तवक़्क़ो' थी नहीं कुछ कम है

ज़िंदगी जैसी तवक़्क़ो' थी नहीं कुछ कम है हर घड़ी होता है एहसास कहीं कुछ कम है घर की ता'मीर तसव्वुर ही में हो सकती है अपने नक़्शे के मुताबिक़ ये ज़मीं कुछ कम है बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी दिल में उम्मीद तो काफ़ी है यक़ीं कुछ कम है अब जिधर देखिए लगता है कि इस दुनिया में कहीं कुछ चीज़ ज़ियादा है कहीं कुछ कम है आज भी है तिरी दूरी ही उदासी का सबब ये अलग बात कि पहली सी नहीं कुछ कम है

तमाम ख़ल्क़-ए-ख़ुदा देख के ये हैराँ है

तमाम ख़ल्क़-ए-ख़ुदा देख के ये हैराँ है कि सारा शहर मिरे ख़्वाब से परेशाँ है मैं इस सफ़र में किसी मोड़ पर नहीं ठहरा रहा ख़याल कि वो वादी-ए-ग़ज़ालाँ है ये एक मैं कि तिरी आरज़ू ही सब कुछ है वो एक तू कि मिरे साए से गुरेज़ाँ है तो हाफ़िज़े से तिरा नाम क्यूँ नहीं मिटता जो याद रखना है मुश्किल भुलाना आसाँ है मैं उस किताब के किस बाब को पढ़ूँ पहले विसाल जिस का है मज़मूँ फ़िराक़ उनवाँ है

तिरे क़रीब जो चुपके खड़ा हुआ था मैं

तिरे क़रीब जो चुपके खड़ा हुआ था मैं बताऊँ कैसे कि ख़ुद से डरा हुआ था मैं जहाँ से आगे कहीं हम बिछड़ने वाले थे पलट के देखा वहीं पर रुका हुआ था मैं उजाड़ शहर हूँ और देखने के क़ाबिल हूँ सुना गया है कि इक दिन बसा हुआ था मैं बुला रही थी बहुत एक लम्बी नींद मुझे नहीं ये याद कि कितना जगा हुआ था मैं फ़ना से गुज़रूँ तो कुछ आश्कार हो शायद कि ज़िंदगी में मुअम्मा बना हुआ था मैं

तिलिस्म ख़त्म चलो आह-ए-बे-असर का हुआ

तिलिस्म ख़त्म चलो आह-ए-बे-असर का हुआ वो देखो जिस्म बरहना हर इक शजर का हुआ सुनाऊँ कैसे कि सूरज की ज़द में हैं सब लोग जो हाल रात को परछाइयों के घर का हुआ सदा के साए में सन्नाटों को पनाह मिली अजब कि शहर में चर्चा न इस ख़बर का हुआ ख़ला की धुंद ही आँखों पे मेहरबान रही हरीफ़ कोई उफ़ुक़ कब मिरी नज़र का हुआ मैं सोचता हूँ मगर याद कुछ नहीं आता कि इख़्तिताम कहाँ ख़्वाब के सफ़र का हुआ

तुझ से बिछड़े हैं तो अब किस से मिलाती है हमें

तुझ से बिछड़े हैं तो अब किस से मिलाती है हमें ज़िंदगी देखिए क्या रंग दिखाती है हमें मरकज़-ए-दीदा-ओ-दिल तेरा तसव्वुर था कभी आज इस बात पे कितनी हँसी आती है हमें फिर कहीं ख़्वाब ओ हक़ीक़त का तसादुम होगा फिर कोई मंज़िल-ए-बे-नाम बुलाती है हमें दिल में वो दर्द न आँखों में वो तुग़्यानी है जाने किस सम्त ये दुनिया लिए जाती है हमें गर्दिश-ए-वक़्त का कितना बड़ा एहसाँ है कि आज ये ज़मीं चाँद से बेहतर नज़र आती है हमें

तू कहाँ है तुझ से इक निस्बत थी मेरी ज़ात को

तू कहाँ है तुझ से इक निस्बत थी मेरी ज़ात को कब से पलकों पर उठाए फिर रहा हूँ रात को मेरे हिस्से की ज़मीं बंजर थी मैं वाक़िफ़ न था बे-सबब इल्ज़ाम मैं देता रहा बरसात को कैसी बस्ती थी जहाँ पर कोई भी ऐसा न था मुन्कशिफ़ मैं जिस पे करता अपने दिल की बात को सारी दुनिया के मसाइल यूँ मुझे दरपेश हैं तेरा ग़म काफ़ी न हो जैसे गुज़र-औक़ात को

तेरी साँसें मुझ तक आते बादल हो जाएँ

तेरी साँसें मुझ तक आते बादल हो जाएँ मेरे जिस्म के सारे इलाक़े जल-थल हो जाएँ होंट-नदी सैलाब का मुझ पे दरवाज़ा खोले हम को मयस्सर ऐसे भी इक दो पल हो जाएँ दुश्मन धुँद है कब से मेरी आँखों के दरपय हिज्र की लम्बी काली रातें काजल हो जाएँ उम्र का लम्बा हिस्सा कर के दानाई के नाम हम भी अब ये सोच रहे हैं पागल हो जाएँ

तेरे वा'दे को कभी झूट नहीं समझूँगा

तेरे वा'दे को कभी झूट नहीं समझूँगा आज की रात भी दरवाज़ा खुला रक्खूँगा देखने के लिए इक चेहरा बहुत होता है आँख जब तक है तुझे सिर्फ़ तुझे देखूँगा मेरी तन्हाई की रुस्वाई की मंज़िल आई वस्ल के लम्हे से मैं हिज्र की शब बदलूँगा शाम होते ही खुली सड़कों की याद आती है सोचता रोज़ हूँ मैं घर से नहीं निकलूँगा ता-कि महफ़ूज़ रहे मेरे क़लम की हुरमत सच मुझे लिखना है मैं हुस्न को सच लिक्खूंगा

तेरे सिवा भी कोई मुझे याद आने वाला था

तेरे सिवा भी कोई मुझे याद आने वाला था मैं वर्ना यूँ हिज्र से कब घबराने वाला था जान-बूझ कर समझ कर मैं ने भुला दिया हर वो क़िस्सा जो दिल को बहलाने वाला था मुझ को नदामत बस इस पर है लोग बहुत ख़ुश हैं इस लम्हे को खो कर जो पछताने वाला था ये तो ख़ैर हुई दरिया ने रुख़ तब्दील किया मेरा शहर भी उस की ज़द में आने वाला था इक इक कर के सब रस्ते कितने सुनसान हुए याद आया मैं लम्बे सफ़र पर जाने वाला था

दयार-ए-दिल न रहा बज़्म-ए-दोस्ताँ न रही

दयार-ए-दिल न रहा बज़्म-ए-दोस्ताँ न रही अमाँ की कोई जगह ज़ेर-ए-आसमाँ न रही रवाँ हैं आज भी रग रग में ख़ून की मौजें मगर वो एक ख़लिश वो मता-ए-जाँ न रही लड़ें ग़मों के अँधेरों से किस की ख़ातिर हम कोई किरन भी तो इस दिल में ज़ौ-फ़िशाँ न रही मैं उस को देख के आँखों का नूर खो बैठा ये ज़िंदगी मिरी आँखों से क्यूँ निहाँ न रही ज़बाँ मिली भी तो किस वक़्त बे-ज़बानों को सुनाने के लिए जब कोई दास्ताँ न रही

दाम-ए-उल्फ़त से छूटती ही नहीं

दाम-ए-उल्फ़त से छूटती ही नहीं ज़िंदगी तुझ को भूलती ही नहीं कितने तूफ़ाँ उठाए आँखों ने नाव यादों की डूबती ही नहीं तुझ से मिलने की तुझ को पाने की कोई तदबीर सूझती ही नहीं एक मंज़िल पे रुक गई है हयात ये ज़मीं जैसे घूमती ही नहीं लोग सर फोड़ कर भी देख चुके ग़म की दीवार टूटती ही नहीं

दिल चीज़ क्या है आप मिरी जान लीजिए

दिल चीज़ क्या है आप मिरी जान लीजिए बस एक बार मेरा कहा मान लीजिए इस अंजुमन में आप को आना है बार बार दीवार-ओ-दर को ग़ौर से पहचान लीजिए माना कि दोस्तों को नहीं दोस्ती का पास लेकिन ये क्या कि ग़ैर का एहसान लीजिए कहिए तो आसमाँ को ज़मीं पर उतार लाएँ मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिए

दिल परेशाँ हो मगर आँख में हैरानी न हो

दिल परेशाँ हो मगर आँख में हैरानी न हो ख़्वाब देखो कि हक़ीक़त से पशेमानी न हो क्या हुआ अहल-ए-जुनूँ को कि दुआ माँगते हैं शहर में शोर न हो दश्त में वीरानी न हो ढूँडते ढूँडते सब थक गए लेकिन न मिला इक उफ़ुक़ ऐसा कि जो धुँद का ज़िंदानी न हो ग़म की दौलत बड़ी मुश्किल से मिला करती है सौंप दो हम को अगर तुम से निगहबानी न हो नफ़रतों का वही मल्बूस पहन लो फिर से ऐन मुमकिन है ये दुनिया तुम्हें पहचानी न हो

दिल में उतरेगी तो पूछेगी जुनूँ कितना है

दिल में उतरेगी तो पूछेगी जुनूँ कितना है नोक-ए-ख़ंजर ही बताएगी कि ख़ूँ कितना है आँधियाँ आईं तो सब लोगों को मा'लूम हुआ परचम-ए-ख़्वाब ज़माने में निगूँ कितना है जम्अ करते रहे जो अपने को ज़र्रा ज़र्रा वो ये क्या जानें बिखरने में सुकूँ कितना है वो जो प्यासे थे समुंदर से भी प्यासे लौटे उन से पूछो कि सराबों में फ़ुसूँ कितना है एक ही मिट्टी से हम दोनों बने हैं लेकिन तुझ में और मुझ में मगर फ़ासला यूँ कितना है

दिल में रखता है न पलकों पे बिठाता है मुझे

दिल में रखता है न पलकों पे बिठाता है मुझे फिर भी इक शख़्स में क्या क्या नज़र आता है मुझे रात का वक़्त है सूरज है मिरा राह-नुमा देर से दूर से ये कौन बुलाता है मुझे मेरी इन आँखों को ख़्वाबों से पशेमानी है नींद के नाम से जो हौल सा आता है मुझे तेरा मुंकिर नहीं ऐ वक़्त मगर देखना है बिछड़े लोगों से कहाँ कैसे मिलाता है मुझे क़िस्सा-ए-दर्द में ये बात कहाँ से आई मैं बहुत हँसता हूँ जब कोई सुनाता है मुझे

देख दरिया को कि तुग़्यानी में है

देख दरिया को कि तुग़्यानी में है तू भी मेरे साथ अब पानी में है नूर ये उस आख़िरी बोसे का है चाँद सा क्या तेरी पेशानी में है मैं भी जल्दी में हूँ कैसे बात हो तू भी लगता है परेशानी में है मुद्दई सूरज का सारा शहर है रात ये किस की निगहबानी में है सारे मंज़र एक से लगने लगे कौन शामिल मेरी हैरानी में है

धूप के दश्त में बे-साया शजर में हम थे

धूप के दश्त में बे-साया शजर में हम थे मुंहमिक फिर भी सराबों के सफ़र में हम थे मुंतशिर कर चुकी आँधी तो ये मा'लूम हुआ इक बगूले की तरह रेत के घर में हम थे तेरी आवाज़ के जादू ने ख़बर-दार किया ना-समझ थे कि बलाओं के असर में हम थे ता न शाकी रहे दरिया-ए-हवस की कोई मौज बादबाँ जिस्म के खोले कि भँवर में हम थे ये तिरे क़ुर्ब का ए'जाज़ है वर्ना पहले ताक़ इतने कहाँ जीने के हुनर में हम थे

नज़र जो कोई भी तुझ सा हसीं नहीं आता

नज़र जो कोई भी तुझ सा हसीं नहीं आता किसी को क्या मुझे ख़ुद भी यक़ीं नहीं आता तिरा ख़याल भी तेरी तरह सितमगर है जहाँ पे चाहिए आना वहीं नहीं आता जो होने वाला है अब उस की फ़िक्र क्या कीजे जो हो चुका है उसी पर यक़ीं नहीं आता ये मेरा दिल है कि मंज़र उजाड़ बस्ती का खुले हुए हैं सभी दर मकीं नहीं आता बिछड़ना है तो बिछड़ जा इसी दो-राहे पर कि मोड़ आगे सफ़र में कहीं नहीं आता

नशात-ए-ग़म भी मिला रंज-ए-शाद-मानी भी

नशात-ए-ग़म भी मिला रंज-ए-शाद-मानी भी मगर वो लम्हे बहुत मुख़्तसर थे फ़ानी भी खुली है आँख कहाँ कौन मोड़ है यारो दयार-ए-ख़्वाब की बाक़ी नहीं निशानी भी रगों में रेत की इक और तह जमी देखो कि पहले जैसी नहीं ख़ून में रवानी भी भटक रहे हैं तआ'क़ुब में अब सराबों के मिला न जिन को समुंदर से बूँद पानी भी ज़मीं भी हम से बहुत दूर होती जाती है डरा रही है ख़लाओं की बे-करानी भी तवील होने लगी हैं इसी लिए रातें कि लोग सुनते सुनाते नहीं कहानी भी

नहीं रोक सकोगे जिस्म की इन परवाजों को

नहीं रोक सकोगे जिस्म की इन परवाजों को बड़ी भूल हुई जो छेड़ दिया कई साज़ों को कोई नया मकीन नहीं आया तो हैरत क्या कभी तुम ने खुला छोड़ा ही नहीं दरवाज़ों को कभी पार भी कर पाएँगी सुकूत के सहरा को दरपेश है कितना और सफ़र आवाज़ों को मुझे कुछ लोगों की रुस्वाई मंज़ूर नहीं नहीं आम किया जो मैं ने अपने राज़ों को कहीं हो न गई हो ज़मीन परिंदों से ख़ाली खुले आसमान पर देखता हूँ फिर बाज़ों को

निकला है चाँद शब की पज़ीराई के लिए

निकला है चाँद शब की पज़ीराई के लिए ये उज़्र कम है अंजुमन-आराई के लिए था बोलना तो हो गए ख़ामोश हम सभी क्या कुछ किया है शोहरत ओ रुस्वाई के लिए पल भर में कैसे लोग बदल जाते हैं यहाँ देखो कि ये मुफ़ीद है बीनाई के लिए सरसब्ज़ मेरी शाख़-ए-हुनर क्यूँ नहीं हुई ये मसअला है तेरे तमन्नाई के लिए है आज ये गिला कि अकेला है 'शहरयार' तरसोगे कल हुजूम में तन्हाई के लिए

निस्बत रहे तुम से सदा हज़रत निज़ामुद्दीन-जी

निस्बत रहे तुम से सदा हज़रत निज़ामुद्दीन-जी माँगूँ मैं क्या इस के सिवा हज़रत निज़ामुद्दीन-जी आँखों पे यूँ छाए हो तुम हर जा नज़र आए हो तुम कैसा जुनूँ मुझ को हुआ हज़रत निज़ामुद्दीन-जी हाथों से तुम ने जो किया रौशन वफ़ा का इक दिया आँधी की ज़द में वो जला हज़रत निज़ामुद्दीन-जी लेते थे अल्लाह नाम जो जपते थे दिल में राम जो तुम ने किया सब का भला हज़रत निज़ामुद्दीन-जी 'ख़ुसरव' की आँखों से कभी देखे अगर तुम को कोई अहवाल होगा उस का क्या हज़रत निज़ामुद्दीन-जी

पहले नहाई ओस में फिर आँसुओं में रात

पहले नहाई ओस में फिर आँसुओं में रात यूँ बूँद बूँद उतरी हमारे घरों में रात कुछ भी दिखाई देता नहीं दूर दूर तक चुभती है सूइयों की तरह जब रगों में रात वो खुरदुरी चटानें वो दरिया वो आबशार सब कुछ समेट ले गई अपने परों में रात आँखों को सब की नींद भी दी ख़्वाब भी दिए हम को शुमार करती रही दुश्मनों में रात बे-सम्त मंज़िलों ने बुलाया है फिर हमें सन्नाटे फिर बिछाने लगी रास्तों में रात

फ़ज़ा-ए-मय-कदा बे-रंग लग रही है मुझे

फ़ज़ा-ए-मय-कदा बे-रंग लग रही है मुझे रग-ए-गुलाब रग-ए-संग लग रही है मुझे ये चंद दिन में क़यामत गुज़र गई कैसी कि आज सुल्ह तिरी जंग लग रही है मुझे मिरे मकान से दो-गाम पर है तेरी गली ये आज सैकड़ों फ़रसंग लग रही है मुझे नवा-ए-नग़मा भी हैं सोज़-ओ-साज़ से ख़ाली फ़ुग़ाँ भी ख़ारिज-अज़-आहंग लग रही है मुझे ज़रूर फिर कोई उफ़्ताद पड़ने वाली है कि ये ज़मीन बहुत तंग लग रही है मुझे

बहते दरियाओं में पानी की कमी देखना है

बहते दरियाओं में पानी की कमी देखना है उम्र भर मुझ को यही तिश्ना-लबी देखना है रंज दिल को है कि जी भर के नहीं देखा तुझे ख़ौफ़ इस का था जो आइंदा कभी देखना है शब की तारीकी दर-ए-ख़्वाब हमेशा को बंद चंद दिन बा'द तो दुनिया में यही देखना है ख़ून के क़तरों ने तूफ़ान उठा रक्खा है अब रग-ओ-पय में मुझे बर्फ़ जमी देखना है किस तरह रेंगने लगते हैं ये चलते हुए लोग यारो कल देखोगे या आज अभी देखना है

बुनियाद-ए-जहाँ में कजी क्यूँ है

बुनियाद-ए-जहाँ में कजी क्यूँ है हर शय में किसी की कमी क्यूँ है क्यूँ चेहरा-ए-ख़ार शगुफ़्ता है और शाख़-ए-गुलाब झुकी क्यूँ है वो वस्ल का दिन क्यूँ छोटा था ये हिज्र की रात बड़ी क्यूँ है जिस बात से दिल में हलचल है वो बात लबों पे रुकी क्यूँ है मत देख कि कौन है परवाना ये सोच कि शम्अ जली क्यूँ है न थे ख़्वाब तो आँसू ही होते मिरा कासा-ए-चश्म तही क्यूँ है

बे-ताब हैं और इश्क़ का दावा नहीं हम को

बे-ताब हैं और इश्क़ का दावा नहीं हम को आवारा हैं और दश्त का सौदा नहीं हम को ग़ैरों की मोहब्बत पे यक़ीं आने लगा है यारों से अगरचे कोई शिकवा नहीं हम को नैरंगी-ए-दिल है कि तग़ाफ़ुल का करिश्मा क्या बात है जो तेरी तमन्ना नहीं हम को या तेरे अलावा भी किसी शय की तलब है या अपनी मोहब्बत पे भरोसा नहीं हम को या तुम भी मुदावा-ए-अलम कर नहीं सकते या चारागरो फ़िक्र-ए-मुदावा नहीं हम को यूँ बरहमी-ए-काकुल-ए-इमरोज़ से ख़ुश हैं जैसे कि ख़याल-ए-रुख़-ए-फ़र्दा नहीं हम को

भटक गया कि मंज़िलों का वो सुराग़ पा गया

भटक गया कि मंज़िलों का वो सुराग़ पा गया हमारे वास्ते ख़ला में रास्ता बना गया सुराही दिल की आँसुओं की ओस से भरी रही इसी लिए अज़ाब-ए-हिज्र उस को रास आ गया सराब का तिलिस्म टूटना बहुत बुरा हुआ कि आज तिश्नगी का ए'तिबार भी चला गया तमाम उम्र ख़्वाब देखने में मुंहमिक रहा और इस तरह हक़ीक़तों को वाहिमा बना गया

भूली-बिसरी यादों की बारात नहीं आई

भूली-बिसरी यादों की बारात नहीं आई इक मुद्दत से हिज्र की लम्बी रात नहीं आई आती थी जो रोज़ गली के सूने नुक्कड़ तक आज हुआ क्या वो परछाईं सात नहीं आई मुझ को तआ'क़ुब में ले आई इक अंजान जगह ख़ुश्बू तो ख़ुश्बू थी मेरे हात नहीं आई इस दुनिया से उन का रिश्ता आधा-अधूरा है जिन लोगों तक ख़्वाबों की सौग़ात नहीं आई ऊपर वाले की मन-मानी खलने लगी है अब मेंह बरसा दो-चार दफ़ा बरसात नहीं आई

मंज़र गुज़िश्ता शब के दामन में भर रहा है

मंज़र गुज़िश्ता शब के दामन में भर रहा है दिल फिर किसी सफ़र का सामान कर रहा है या रत-जगों में शामिल कुछ ख़्वाब हो गए हैं चेहरा किसी उफ़ुक़ का या फिर उभर रहा है या यूँही मेरी आँखें हैरान हो गई हैं या मेरे सामने से फिर तू गुज़र रहा है दरिया के पास देखो कब से खड़ा हुआ है ये कौन तिश्ना-लब है पानी से डर रहा है है कोई जो बताए शब के मुसाफ़िरों को कितना सफ़र हुआ है कितना सफ़र रहा है

मा'बद-ए-ज़ीस्त में बुत की मिसाल जड़े होंगे

मा'बद-ए-ज़ीस्त में बुत की मिसाल जड़े होंगे ये नन्हे बच्चे जिस रोज़ बड़े होंगे इतने दुखी इस दर्जा उदास जो साए हैं रात के दश्त में तेज़ हवा से लड़े होंगे धूप के क़हर की लज़्ज़त के शैदाई हैं ये अश्जार भी ख़्वाब से चौंक पड़े होंगे हम को ख़ला की वुसअ'त से फ़ुर्सत न मिली लाख ख़ज़ाने इस धरती में गड़े होंगे वो दिन होगा आख़िरी दिन हम सब के लिए आईना देखने जब हम लोग खड़े होंगे

मिशअल-ए-दर्द फिर एक बार जला ली जाए

मिशअल-ए-दर्द फिर एक बार जला ली जाए जश्न हो जाए ज़रा धूम मचा ली जाए ख़ून में जोश नहीं आया ज़माना गुज़रा दोस्तो आओ कोई बात निकाली जाए जान भी मेरी चली जाए तो कुछ बात नहीं वार तेरा न मगर एक भी ख़ाली जाए जो भी मिलना है तिरे दर ही से मिलना है उसे दर तिरा छोड़ के कैसे ये सवाली जाए वस्ल की सुब्ह के होने में है कुछ देर अभी दास्ताँ हिज्र की कुछ और बढ़ा ली जाए

मोम के जिस्मों वाली इस मख़्लूक़ को रुस्वा मत करना

मोम के जिस्मों वाली इस मख़्लूक़ को रुस्वा मत करना मिशअल-ए-जाँ को रौशन करना लेकिन इतना मत करना हक़-गोई और वो भी इतनी जीना दूभर हो जाए जैसा कुछ हम करते रहे हैं तुम सब वैसा मत करना पिछले सफ़र में जो कुछ बीता बीत गया यारो लेकिन अगला सफ़र जब भी तुम करना देखो तन्हा मत करना भूक से रिश्ता टूट गया तो हम बेहिस हो जाएँगे अब के जब भी क़हत पड़े तो फ़सलें पैदा मत करना ऐ यादो जीने दो हम को बस इतना एहसान करो धूप के दश्त में जब हम निकलें हम पर साया मत करना

ये इक शजर कि जिस पे न काँटा न फूल है

ये इक शजर कि जिस पे न काँटा न फूल है साए में उस के बैठ के रोना फ़ुज़ूल है रातों से रौशनी की तलब हाए सादगी ख़्वाबों में उस की दीद की ख़ू कैसी भूल है है उन के दम-क़दम ही से कुछ आबरू-ए-ज़ीस्त दामन में जिन के दश्त-ए-तमन्ना की धूल है सूरज का क़हर सिर्फ़ बरहना सरों पे है पूछो हवस-परस्त से वो क्यूँ मलूल है आओ हवा के हाथ की तलवार चूम लें अब बुज़दिलों की फ़ौज से लड़ना फ़ुज़ूल है

ये क्या जगह है दोस्तो ये कौन सा दयार है

ये क्या जगह है दोस्तो ये कौन सा दयार है हद-ए-निगाह तक जहाँ ग़ुबार ही ग़ुबार है हर एक जिस्म रूह के अज़ाब से निढाल है हर एक आँख शबनमी हर एक दिल फ़िगार है हमें तो अपने दिल की धड़कनों पे भी यक़ीं नहीं ख़ोशा वो लोग जिन को दूसरों पे ए'तिबार है न जिस का नाम है कोई न जिस की शक्ल है कोई इक ऐसी शय का क्यूँ हमें अज़ल से इंतिज़ार है

ये क्या हुआ कि तबीअ'त सँभलती जाती है

ये क्या हुआ कि तबीअ'त सँभलती जाती है तिरे बग़ैर भी ये रात ढलती जाती है उस इक उफ़ुक़ पे अभी तक है ए'तिबार मुझे मगर निगाह-ए-मनाज़िर बदलती जाती है चहार सम्त से घेरा है तेज़ आँधी ने किसी चराग़ की लौ फिर भी जलती जाती है मैं अपने जिस्म की सरगोशियों को सुनता हूँ तिरे विसाल की साअ'त निकलती जाती है ये देखो आ गई मेरे ज़वाल की मंज़िल मैं रुक गया मिरी परछाईं चलती जाती है

ये क्या है मोहब्बत में तो ऐसा नहीं होता

ये क्या है मोहब्बत में तो ऐसा नहीं होता मैं तुझ से जुदा हो के भी तन्हा नहीं होता इस मोड़ से आगे भी कोई मोड़ है वर्ना यूँ मेरे लिए तू कभी ठहरा नहीं होता क्यूँ मेरा मुक़द्दर है उजालों की सियाही क्यूँ रात के ढलने पे सवेरा नहीं होता या इतनी न तब्दील हुई होती ये दुनिया या मैं ने इसे ख़्वाब में देखा नहीं होता सुनते हैं सभी ग़ौर से आवाज़-ए-जरस को मंज़िल की तरफ़ कोई रवाना नहीं होता दिल तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ पे भी आमादा नहीं है और हक़ भी अदा इस से वफ़ा का नहीं होता

ये क़ाफ़िले यादों के कहीं खो गए होते

ये क़ाफ़िले यादों के कहीं खो गए होते इक पल भी अगर भूल से हम सो गए होते ऐ शहर तिरा नाम-ओ-निशाँ भी नहीं होता जो हादसे होने थे अगर हो गए होते हर बार पलटते हुए घर को यही सोचा ऐ काश किसी लम्बे सफ़र को गए होते हम ख़ुश हैं हमें धूप विरासत में मिली है अज्दाद कहीं पेड़ भी कुछ बो गए होते किस मुँह से कहें तुझ से समुंदर के हैं हक़दार सैराब सराबों से भी हम हो गए होते

ये जगह अहल-ए-जुनूँ अब नहीं रहने वाली

ये जगह अहल-ए-जुनूँ अब नहीं रहने वाली फ़ुर्सत-ए-इश्क़ मयस्सर कहाँ पहले वाली कोई दरिया हो कहीं जो मुझे सैराब करे एक हसरत है जो पूरी नहीं होने वाली वक़्त कोशिश करे मैं चाहूँ मगर याद तिरी धुँदली हो सकती है दिल से नहीं मिटने वाली अब मिरे ख़्वाबों की बारी है यही लगता है नींद तो छिन चुकी कब की मिरे हिस्से वाली इन दिनों मैं भी हूँ कुछ कार-ए-जहाँ में मसरूफ़ बात तुझ में भी नहीं रह गई पहले वाली

ये जब है कि इक ख़्वाब से रिश्ता है हमारा

ये जब है कि इक ख़्वाब से रिश्ता है हमारा दिन ढलते ही दिल डूबने लगता है हमारा चेहरों के समुंदर से गुज़रते रहे फिर भी इक अक्स को आईना तरसता है हमारा उन लोगों से क्या कहिए कि क्या बीत रही है अहवाल मगर तू तो समझता है हमारा हर मोड़ पे पड़ता है हमें वास्ता इस से दुनिया से अलग कहने को रस्ता है हमारा

लाख ख़ुर्शेद सर-ए-बाम अगर हैं तो रहें

लाख ख़ुर्शेद सर-ए-बाम अगर हैं तो रहें हम कोई मोम नहीं हैं कि पिघल जाएँगे हर गली-कूचे में रुस्वा हुए जिन की ख़ातिर क्या ख़बर थी कि वही लोग बदल जाएँगे उन के पीछे न चलो उन की तमन्ना न करो साए फिर साए हैं कुछ देर में ढल जाएँगे क़ाफ़िले नींदों के आए हैं उन्हें ठहरा लो वर्ना ये दूर बहुत दूर निकल जाएँगे

वो बेवफ़ा है हमेशा ही दिल दुखाता है

वो बेवफ़ा है हमेशा ही दिल दुखाता है मगर हमें तो वही एक शख़्स भाता है न ख़ुश-गुमान हो इस पर तू ऐ दिल-ए-सादा सभी को देख के वो शोख़ मुस्कुराता है जगह जो दिल में नहीं है मिरे लिए न सही मगर ये क्या कि भरी बज़्म से उठाता है तिरे करम की यही यादगार बाक़ी है ये एक दाग़ जो इस दिल में जगमगाता है अजीब चीज़ है ये वक़्त जिस को कहते हैं कि आने पाता नहीं और बीत जाता है

शदीद प्यास थी फिर भी छुआ न पानी को

शदीद प्यास थी फिर भी छुआ न पानी को मैं देखता रहा दरिया तिरी रवानी को सियाह रात ने बेहाल कर दिया मुझ को कि तूल दे नहीं पाया किसी कहानी को बजाए मेरे किसी और का तक़र्रुर हो क़ुबूल जो करे ख़्वाबों की पासबानी को अमाँ की जा मुझे ऐ शहर तू ने दी तो है भुला न पाऊँगा सहरा की बे-करानी को जो चाहता है कि इक़बाल हो सिवा तेरा तो सब में बाँट बराबर से शादमानी को

शम-ए-दिल शम-ए-तमन्ना न जला मान भी जा

शम-ए-दिल शम-ए-तमन्ना न जला मान भी जा तेज़ आँधी है मुख़ालिफ़ है हवा मान भी जा ऐसी दुनिया में जुनूँ ऐसे ज़माने में वफ़ा इस तरह ख़ुद को तमाशा न बना मान भी जा कब तलक साथ तिरा देंगे ये धुँदले साए देख नादान न बन होश में आ मान भी जा ज़िंदगी में अभी ख़ुशियाँ भी हैं रानाई भी ज़िंदगी से अभी दामन न छुड़ा मान भी जा शहर फिर शहर है याँ जी तो बहल जाता है शहर को छोड़ के सहरा को न जा मान भी जा

शहर-ए-जुनूँ में कल तलक जो भी था सब बदल गया

शहर-ए-जुनूँ में कल तलक जो भी था सब बदल गया मरने की ख़ू नहीं रही जीने का ढब बदल गया पल में हवा मिटा गई सारे नुक़ूश नूर के देखा ज़रा सी देर में मंज़र-ए-शब बदल गया मेरी पुरानी अर्ज़ पर ग़ौर किया न जाएगा यूँ है कि उस की बज़्म में तर्ज़-ए-तलब बदल गया साअत-ए-ख़ूब वस्ल की आनी थी आ नहीं सकी वो भी तो वो नहीं रहा मैं भी तो अब बदल गया दूरी की दास्तान में ये भी कहीं पे दर्ज हो तिश्ना-लबी तो है वही चश्मा-ए-लब बदल गया मेरे सिवा हर एक से दुनिया ये पूछती रही मुझ सा जो एक शख़्स था पत्थर में कब बदल गया

शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं है

शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं है रिश्ता ही मिरी प्यास का पानी से नहीं है कल यूँ था कि ये क़ैद-ए-ज़मानी से थे बेज़ार फ़ुर्सत जिन्हें अब सैर-ए-मकानी से नहीं है चाहा तो यक़ीं आए न सच्चाई पे उस की ख़ाइफ़ कोई गुल अहद-ए-खिज़ानी से नहीं है दोहराता नहीं मैं भी गए लोगों की बातें इस दौर को निस्बत भी कहानी से नहीं है कहते हैं मिरे हक़ में सुख़न-फ़हम बस इतना शेरों में जो ख़ूबी है मुआ'नी से नहीं है

सभी को ग़म है समुंदर के ख़ुश्क होने का

सभी को ग़म है समुंदर के ख़ुश्क होने का कि खेल ख़त्म हुआ कश्तियाँ डुबोने का बरहना-जिस्म बगूलों का क़त्ल होता रहा ख़याल भी नहीं आया किसी को रोने का सिला कोई नहीं परछाइयों की पूजा का मआ'ल कुछ नहीं ख़्वाबों की फ़स्ल बोने का बिछड़ के तुझ से मुझे ये गुमान होता है कि मेरी आँखें हैं पत्थर की जिस्म सोने का हुजूम देखता हूँ जब तो काँप उठता हूँ अगरचे ख़ौफ़ नहीं अब किसी के खोने का गए थे लोग तो दीवार-ए-क़हक़हा की तरफ़ मगर ये शोर मुसलसल है कैसा रोने का मिरे वजूद पे नफ़रत की गर्द जमती रही मिला न वक़्त उसे आँसुओं से धोने का

सियाह रात नहीं लेती नाम ढलने का

सियाह रात नहीं लेती नाम ढलने का यही तो वक़्त है सूरज तिरे निकलने का यहाँ से गुज़रे हैं गुज़़रेंगे हम से अहल-ए-वफ़ा ये रास्ता नहीं परछाइयों के चलने का कहीं न सब को समुंदर बहा के ले जाए ये खेल ख़त्म करो कश्तियाँ बदलने का बिगड़ गया जो ये नक़्शा हवस के हाथों से तो फिर किसी के सँभाले नहीं सँभलने का ज़मीं ने कर लिया क्या तीरगी से समझौता ख़याल छोड़ चुके क्या चराग़ जलने का

सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है

सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूँडे पत्थर की तरह बे-हिस ओ बे-जान सा क्यूँ है तन्हाई की ये कौन सी मंज़िल है रफ़ीक़ो ता-हद्द-ए-नज़र एक बयाबान सा क्यूँ है हम ने तो कोई बात निकाली नहीं ग़म की वो ज़ूद-पशेमान पशेमान सा क्यूँ है क्या कोई नई बात नज़र आती है हम में आईना हमें देख के हैरान सा क्यूँ है

हज़ार बार मिटी और पाएमाल हुई है

हज़ार बार मिटी और पाएमाल हुई है हमारी ज़िंदगी तब जा के बे-मिसाल हुई है इसी सबब से तो परछाईं अपने साथ नहीं है सऊबत-ए-सफ़र-ए-शौक़ से निढाल हुई है सुकून फिर भी तो वहशत-सरा-ए-दिल में नहीं है निगाह-ए-यार अगरचे शरीक-ए-हाल हुई है ख़ुशी के लम्हे तो जूँ-तूँ गुज़र गए हैं यहाँ पर बस एक साअत-ए-ग़म काटनी मुहाल हुई है लकीर नूर की जो आसमान-ए-दिल पे बनी है अँधेरी रात का हमला हुआ तो ढाल हुई है

हम पढ़ रहे थे ख़्वाब के पुर्ज़ों को जोड़ के

हम पढ़ रहे थे ख़्वाब के पुर्ज़ों को जोड़ के आँधी ने ये तिलिस्म भी रख डाला तोड़ के आग़ाज़ क्यूँ किया था सफ़र इन ख़लाओं का पछता रहे हो सब्ज़ ज़मीनों को छोड़ के इक बूँद ज़हर के लिए फैला रहे हो हाथ देखो कभी ख़ुद अपने बदन को निचोड़ के कुछ भी नहीं जो ख़्वाब की सूरत दिखाई दे कोई नहीं जो हम को जगाए झिंझोड़ के इन पानियों से कोई सलामत नहीं गया है वक़्त अब भी कश्तियाँ ले जाओ मोड़ के

हमारी आँख में नक़्शा ये किस मकान का है

हमारी आँख में नक़्शा ये किस मकान का है यहाँ का सारा इलाक़ा तो आसमान का है हमें निकलना पड़ा रात के जज़ीरे से ख़तर अगरचे इस इक फ़ैसले में जान का है ख़बर नहीं है कि दरिया में कश्ती-ए-जाँ है मुआहिदा जो हवाओं से बादबान का है तमाम शहर पर ख़ामोशियाँ मुसल्लत हैं लबों को खोलो कि ये वक़्त इम्तिहान का है कहा है उस ने तो गुज़रेगा जिस्म से हो कर यक़ीन यूँ है वो पक्का बहुत ज़बान का है

हवा का ज़ोर ही काफ़ी बहाना होता है

हवा का ज़ोर ही काफ़ी बहाना होता है अगर चराग़ किसी को जलाना होता है ज़बानी दा'वे बहुत लोग करते रहते हैं जुनूँ के काम को कर के दिखाना होता है हमारे शहर में ये कौन अजनबी आया कि रोज़ ख़्वाब सफ़र पे रवाना होता है कि तू भी याद नहीं आता ये तो होना था गए दिनों को सभी को भुलाना होता है इसी उमीद पे हम आज तक भटकते हैं हर एक शख़्स का कोई ठिकाना होता है हमें इक और भरी बज़्म याद आती है किसी की बज़्म में जब मुस्कुराना होता है

हवा चले वरक़-ए-आरज़ू पलट जाए

हवा चले वरक़-ए-आरज़ू पलट जाए तुलूअ' हो कोई चेहरा तो धुँद छट जाए यही है वक़्त कि ख़्वाबों के बादबाँ खोलो कहीं न फिर से नदी आँसुओं की घट जाए बुलंदियों की हवस ही ज़मीन पर लाई कहो फ़लक से कि अब रास्ते से हट जाए गिरफ़्त ढीली करो वक़्त को गुज़रने दो कि डोर फिर न कहीं साअ'तों की कट जाए इसी लिए नहीं सोते हैं हम कि दुनिया में शब-ए-फ़िराक़ की सौग़ात सब में बट जाए

हर ख़्वाब के मकाँ को मिस्मार कर दिया है

हर ख़्वाब के मकाँ को मिस्मार कर दिया है बेहतर दिनों का आना दुश्वार कर दिया है वो दश्त हो कि बस्ती साया सुकूत का है जादू-असर सुख़न को बेकार कर दिया है गिर्द-ओ-नवाह-ए-दिल में ख़ौफ़-ओ-हिरास इतना पहले कभी नहीं था इस बार कर दिया है कल और साथ सब के इस पार हम खड़े थे इक पल में हम को किस ने उस पार कर दिया है पा-ए-जुनूँ पे कैसी उफ़्ताद आ पड़ी है अगली मसाफ़तों से इंकार कर दिया है

हँस रहा था मैं बहुत गो वक़्त वो रोने का था

हँस रहा था मैं बहुत गो वक़्त वो रोने का था सख़्त कितना मरहला तुझ से जुदा होने का था रत-जगे तक़्सीम करती फिर रही हैं शहर में शौक़ जिन आँखों को कल तक रात में सोने का था इस सफ़र में बस मिरी तन्हाई मेरे साथ थी हर क़दम क्यूँ ख़ौफ़ मुझ को भीड़ में खोने का था हर बुन-ए-मू से दरिंदों की सदा आने लगी काम ही ऐसा बदन में ख़्वाहिशें बोने का था मैं ने जब से ये सुना है ख़ुद से भी नादिम हूँ मैं ज़िक्र तुझ होंटों पे मेरे दर-ब-दर होने का था

हुजूम-ए-दर्द मिला ज़िंदगी अज़ाब हुई

हुजूम-ए-दर्द मिला ज़िंदगी अज़ाब हुई दिल ओ निगाह की साज़िश थी कामयाब हुई तुम्हारी हिज्र-नवाज़ी पे हर्फ़ आएगा हमारी मूनिस ओ हमदम अगर शराब हुई यहाँ तो ज़ख़्म के पहरे बिठाए थे हम ने शमीम-ए-ज़ुल्फ़ यहाँ कैसे बारयाब हुई हमारे नाम पे गर उँगलियाँ उठीं तो क्या तुम्हारी मदह-ओ-सताइश तो बे-हिसाब हुई हज़ार पुर्सिश-ए-ग़म की मगर न अश्क बहे सबा ने ज़ब्त ये देखा तो ला-जवाब हुई

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