चुनिंदा ग़ज़लें : मुनव्वर राना
Chuninda Ghazlein : Munnawar Rana
अच्छा हुआ कि मेरा नशा भी उतर गया
अच्छा हुआ कि मेरा नशा भी उतर गया
तेरी कलाई से ये कड़ा भी उतर गया
वो मुतमइन बहुत है मिरा साथ छोड़ कर
मैं भी हूँ ख़ुश कि क़र्ज़ मिरा भी उतर गया
रुख़्सत का वक़्त है यूँही चेहरा खिला रहे
मैं टूट जाऊँगा जो ज़रा भी उतर गया
बेकस की आरज़ू में परेशाँ है ज़िंदगी
अब तो फ़सील-ए-जाँ से दिया भी उतर गया
रो-धो के वो भी हो गया ख़ामोश एक रोज़
दो-चार दिन में रंग-ए-हिना भी उतर गया
पानी में वो कशिश है कि अल्लाह की पनाह
रस्सी का हाथ थामे घड़ा भी उतर गया
वो मुफ़्लिसी के दिन भी गुज़ारे हैं मैं ने जब
चूल्हे से ख़ाली हाथ तवा भी उतर गया
सच बोलने में नश्शा कई बोतलों का था
बस ये हुआ कि मेरा गला भी उतर गया
पहले भी बे-लिबास थे इतने मगर न थे
अब जिस्म से लिबास-ए-हया भी उतर गया
अच्छी से अच्छी आब-ओ-हवा के बग़ैर भी
अच्छी से अच्छी आब-ओ-हवा के बग़ैर भी
ज़िंदा हैं कितने लोग दवा के बग़ैर भी
साँसों का कारोबार बदन की ज़रूरतें
सब कुछ तो चल रहा है दुआ के बग़ैर भी
बरसों से इस मकान में रहते हैं चंद लोग
इक दूसरे के साथ वफ़ा के बग़ैर भी
अब ज़िंदगी का कोई भरोसा नहीं रहा
मरने लगे हैं लोग क़ज़ा के बग़ैर भी
हम बे-क़ुसूर लोग भी दिलचस्प लोग हैं
शर्मिंदा हो रहे हैं ख़ता के बग़ैर भी
चारागरी बताए अगर कुछ इलाज है
दिल टूटने लगे हैं सदा के बग़ैर भी
अना हवस की दुकानों में आ के बैठ गई
अना हवस की दुकानों में आ के बैठ गई
अजीब मैना है शिकरों में आ के बैठ गई
जगा रहा है ज़माना मगर नहीं खुलतीं
कहाँ की नींद इन आँखों में आ के बैठ गई
वो फ़ाख़्ता जो मुझे देखते ही उड़ती थी
बड़े सलीक़े से बच्चों में आ के बैठ गई
तमाम तल्ख़ियाँ साग़र में रक़्स करने लगीं
तमाम गर्द किताबों में आ के बैठ गई
तमाम शहर में मौज़ू-ए-गुफ़्तुगू है यही
कि शाहज़ादी ग़ुलामों में आ के बैठ गई
नहीं थी दूसरी कोई जगह भी छुपने की
हमारी उम्र खिलौनों में आ के बैठ गई
उठो कि ओस की बूँदें जगा रही हैं तुम्हें
चलो कि धूप दरीचों में आ के बैठ गई
चली थी देखने सूरज की बद-मिज़ाजी को
मगर ये ओस भी फूलों में आ के बैठ गई
तुझे मैं कैसे बताऊँ कि शाम होते ही
उदासी कमरे के ताक़ों में आ के बैठ गई
अलमारी से ख़त उस के पुराने निकल आए
अलमारी से ख़त उस के पुराने निकल आए
फिर से मिरे चेहरे पे ये दाने निकल आए
माँ बैठ के तकती थी जहाँ से मिरा रस्ता
मिट्टी के हटाते ही ख़ज़ाने निकल आए
मुमकिन है हमें गाँव भी पहचान न पाए
बचपन में ही हम घर से कमाने निकल आए
ऐ रेत के ज़र्रे तिरा एहसान बहुत है
आँखों को भिगोने के बहाने निकल आए
अब तेरे बुलाने से भी हम आ नहीं सकते
हम तुझ से बहुत आगे ज़माने निकल आए
एक ख़ौफ़ सा रहता है मिरे दिल में हमेशा
किस घर से तिरी याद न जाने निकल आए
आप को चेहरे से भी बीमार होना चाहिए
आप को चेहरे से भी बीमार होना चाहिए
इश्क़ है तो इश्क़ का इज़हार होना चाहिए
आप दरिया हैं तो फिर इस वक़्त हम ख़तरे में हैं
आप कश्ती हैं तो हम को पार होना चाहिए
ऐरे-ग़ैरे लोग भी पढ़ने लगे हैं इन दिनों
आप को औरत नहीं अख़बार होना चाहिए
ज़िंदगी तू कब तलक दर-दर फिराएगी हमें
टूटा-फूटा ही सही घर-बार होना चाहिए
अपनी यादों से कहो इक दिन की छुट्टी दे मुझे
इश्क़ के हिस्से में भी इतवार होना चाहिए
आँखों को इंतज़ार की भट्टी पे रख दिया
आँखों को इंतज़ार की भट्टी पे रख दिया
मैंने दिये को आँधी की मर्ज़ी पे रख दिया
आओ तुम्हें दिखाते हैं अंजामे-ज़िंदगी
सिक्का ये कह के रेल की पटरी पे रख दिया
फिर भी न दूर हो सकी आँखों से बेवगी
मेंहदी ने सारा ख़ून हथेली पे रख दिया
दुनिया क्या ख़बर इसे कहते हैं शायरी
मैंने शकर के दाने को चींटी पे रख दिया
अंदर की टूट -फूट छिपाने के वास्ते
जलते हुए चराग़ को खिड़की पे रख दिया
घर की ज़रूरतों के लिए अपनी उम्र को
बच्चे ने कारख़ाने की चिमनी पे रख दिया
पिछला निशान जलने का मौजूद था तो फिर
क्यों हमने हाथ जलते अँगीठी पे रख दिया
इतनी तवील उम्र को जल्दी से काटना
इतनी तवील उम्र को जल्दी से काटना
जैसे दवा की पन्नी को कैंची से काटना
छत्ते से छेड़छाड़ की आदत मुझे भी है
सीखा है मैंने शहद की मक्खी से काटना
इन्सान क़त्ल करने के जैसा तो ये भी है
अच्छे-भले शजरको कुल्हाड़ी से काटना
पानी का जाल बुनता है दरिया तो फिर बुने
तैराक जानता है हथेली से काटना
रहता है दिन में रात के होने का इंतज़ार
फिर रात को दवाओं की गोली से काटना
ये फ़न कोई फ़क़ीर सिखाएगा आपको
हीरे को एक फूल की पत्ती से काटना
मुमकिनहै मैं दिखाई पड़ूँ एक दिन तुम्हें
यादों का जाल ऊन की तीली से काटना
इक उम्र तक बज़ुर्गों के पैरों मे बैठकर
पत्थर को मैंने सीखा है पानी से काटना
इश्क है तो इश्क का इजहार होना चाहिये
इश्क है तो इश्क का इजहार होना चाहिये
आपको चेहरे से भी बीमार होना चाहिये
आप दरिया हैं तो फिर इस वक्त हम खतरे में हैं
आप कश्ती हैं तो हमको पार होना चाहिये
ऐरे गैरे लोग भी पढ़ने लगे हैं इन दिनों
आपको औरत नहीं अखबार होना चाहिये
जिंदगी कब तलक दर दर फिरायेगी हमें
टूटा फूटा ही सही घर बार होना चाहिये
अपनी यादों से कहो इक दिन की छुट्टी दें मुझे
इश्क के हिस्से में भी इतवार होना चाहिये
ऐसा लगता है कि कर देगा अब आज़ाद मुझे
ऐसा लगता है कि कर देगा अब आज़ाद मुझे
मेरी मर्ज़ी से उड़ाने लगा सय्याद मुझे
मैं हूँ सरहद पे बने एक मकाँ की सूरत
कब तलक देखिए रखता है वो आबाद मुझे
एक क़िस्से की तरह वो तो मुझे भूल गया
इक कहानी की तरह वो है मगर याद मुझे
कम से कम ये तो बता दे कि किधर जाएगी
कर के ऐ ख़ाना-ख़राबी मिरी बर्बाद मुझे
मैं समझ जाता हूँ इस में कोई कमज़ोरी है
मेरे जिस शे'र पे मिलती है बहुत दाद मुझे
कई घरों को निगलने के बाद आती है
कई घरों को निगलने के बाद आती है
मदद भी शहर के जलने के बाद आती है
न जाने कैसी महक आ रही है बस्ती में
वही जो दूध उबलने के बाद आती है
नदी पहाड़ों से मैदान में तो आती है
मगर ये बर्फ़ पिघलने के बाद आती है
वो नींद जो तेरी पलकों के ख़्वाब बुनती है
यहाँ तो धूप निकलने के बाद आती है
ये झुग्गियाँ तो ग़रीबों की ख़ानक़ाहें हैं
कलन्दरी यहाँ पलने के बाद आती है
गुलाब ऎसे ही थोड़े गुलाब होता है
ये बात काँटों पे चलने के बाद आती है
शिकायतें तो हमें मौसम-ए-बहार से है
खिज़ाँ तो फूलने-फलने के बाद आती है
कभी ख़ुशी से ख़ुशी की तरफ़ नहीं देखा
कभी ख़ुशी से ख़ुशी की तरफ़ नहीं देखा
तुम्हारे बा'द किसी की तरफ़ नहीं देखा
ये सोच कर कि तिरा इंतिज़ार लाज़िम है
तमाम-उम्र घड़ी की तरफ़ नहीं देखा
यहाँ तो जो भी है आब-ए-रवाँ का आशिक़ है
किसी ने ख़ुश्क नदी की तरफ़ नहीं देखा
वो जिस के वास्ते परदेस जा रहा हूँ मैं
बिछड़ते वक़्त उसी की तरफ़ नहीं देखा
न रोक ले हमें रोता हुआ कोई चेहरा
चले तो मुड़ के गली की तरफ़ नहीं देखा
बिछड़ते वक़्त बहुत मुतमइन थे हम दोनों
किसी ने मुड़ के किसी की तरफ़ नहीं देखा
रविश बुज़ुर्गों की शामिल है मेरी घुट्टी में
ज़रूरतन भी सखी की तरफ़ नहीं देखा
काले कपड़े नहीं पहने हैं तो इतना कर ले
काले कपड़े नहीं पहने हैं तो इतना कर ले
इक ज़रा देर को कमरे में अँधेरा कर ले
अब मुझे पार उतर जाने दे ऐसा कर ले
वर्ना जो आए समझ में तिरी दरिया कर ले
ख़ुद-ब-ख़ुद रास्ता दे देगा ये तूफ़ान मुझे
तुझ को पाने का अगर दिल ये इरादा कर ले
आज का काम तुझे आज ही करना होगा
कल जो करना है तो फिर आज तक़ाज़ा कर ले
अब बड़े लोगों से अच्छाई की उम्मीद न कर
कैसे मुमकिन है करैला कोई मीठा कर ले
गर कभी रोना ही पड़ जाए तो इतना रोना
आ के बरसात तिरे सामने तौबा कर ले
मुद्दतों बा'द वो आएगा हमारे घर में
फिर से ऐ दिल किसी उम्मीद को ज़िंदा कर ले
हम-सफ़र लैला भी होगी मैं तभी जाऊँगा
मुझ पे जितने भी सितम करने हों सहरा कर ले
किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आई
किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आई
मैं घर में सब से छोटा था मिरे हिस्से में माँ आई
यहाँ से जाने वाला लौट कर कोई नहीं आया
मैं रोता रह गया लेकिन न वापस जा के माँ आई
अधूरे रास्ते से लौटना अच्छा नहीं होता
बुलाने के लिए दुनिया भी आई तो कहाँ आई
किसी को गाँव से परदेस ले जाएगी फिर शायद
उड़ाती रेल-गाड़ी ढेर सारा फिर धुआँ आई
मिरे बच्चों में सारी आदतें मौजूद हैं मेरी
तो फिर इन बद-नसीबों को न क्यूँ उर्दू ज़बाँ आई
क़फ़स में मौसमों का कोई अंदाज़ा नहीं होता
ख़ुदा जाने बहार आई चमन में या ख़िज़ाँ आई
घरौंदे तो घरौंदे हैं चटानें टूट जाती हैं
उड़ाने के लिए आँधी अगर नाम-ओ-निशाँ आई
कभी ऐ ख़ुश-नसीबी मेरे घर का रुख़ भी कर लेती
इधर पहुँची उधर पहुँची यहाँ आई वहाँ आई
किसी ग़रीब की बरसों की आरज़ू हो जाऊँ
किसी ग़रीब की बरसों की आरज़ू हो जाऊँ
मैं इस सुरंग से निकलूँ तू आब-जू हो जाऊँ
बड़ा हसीन तक़द्दुस है उस के चेहरे पर
मैं उस की आँखों में झाँकूँ तो बा-वज़ू हो जाऊँ
मुझे पता तो चले मुझ में ऐब हैं क्या क्या
वो आइना है तो मैं उस के रू-ब-रू हो जाऊँ
किसी तरह भी ये वीरानियाँ हों ख़त्म मिरी
शराब-ख़ाने के अंदर की हाव-हू जाऊँ
मिरी हथेली पे होंटों से ऐसी मोहर लगा
कि उम्र-भर के लिए मैं भी सुर्ख़-रू हो जाऊँ
कमी ज़रा सी भी मुझ में न कोई रह जाए
अगर मैं ज़ख़्म की सूरत हूँ तो रफ़ू हो जाऊँ
नए मिज़ाज के शहरों में जी नहीं लगता
पुराने वक़्तों का फिर से मैं लखनऊ हो जाऊँ
ख़फ़ा होना ज़रा सी बात पर तलवार हो जाना
ख़फ़ा होना ज़रा सी बात पर तलवार हो जाना
मगर फिर ख़ुद-ब-ख़ुद वो आप का गुलनार हो जाना
किसी दिन मेरी रुस्वाई का ये कारन न बन जाए
तुम्हारा शहर से जाना मिरा बीमार हो जाना
वो अपना जिस्म सारा सौंप देना मेरी आँखों को
मिरी पढ़ने की कोशिश आप का अख़बार हो जाना
कभी जब आँधियाँ चलती हैं हम को याद आता है
हवा का तेज़ चलना आप का दीवार हो जाना
बहुत दुश्वार है मेरे लिए उस का तसव्वुर भी
बहुत आसान है उस के लिए दुश्वार हो जाना
किसी की याद आती है तो ये भी याद आता है
कहीं चलने की ज़िद करना मिरा तय्यार हो जाना
कहानी का ये हिस्सा अब भी कोई ख़्वाब लगता है
तिरा सर पर बिठा लेना मिरा दस्तार हो जाना
मोहब्बत इक न इक दिन ये हुनर तुम को सिखा देगी
बग़ावत पर उतरना और ख़ुद-मुख़्तार हो जाना
नज़र नीची किए उस का गुज़रना पास से मेरे
ज़रा सी देर रुकना फिर सबा-रफ़्तार हो जाना
ख़ुद अपने ही हाथों का लिखा काट रहा हूँ
ख़ुद अपने ही हाथों का लिखा काट रहा हूँ
ले देख ले दुनिया मैं पता काट रहा हूँ
ये बात मुझे देर से मा'लूम हुई है
ज़िंदाँ है ये दुनिया मैं सज़ा काट रहा हूँ
दुनिया मिरे सज्दे को इबादत न समझना
पेशानी पे क़िस्मत का लिखा काट रहा हूँ
अब आप की मर्ज़ी है इसे जो भी समझिए
लेकिन मैं इशारे से हवा काट रहा हूँ
तू ने जो सज़ा दी थी जवानी के दिनों में
मैं उम्र की चौखट पे खड़ा काट रहा हूँ
ख़ून रुलवाएगी ये जंगल-परस्ती एक दिन
ख़ून रुलवाएगी ये जंगल-परस्ती एक दिन
सब चले जाएँगे ख़ाली कर के बस्ती एक दिन
चूसता रहता है रस भौंरा अभी तक देख लो
फूल ने भूले से की थी सरपरस्ती एक दिन
देने वाले ने तबीअ'त क्या अजब दी है उसे
एक दिन ख़ाना-बदोशी घर-गृहस्ती एक दिन
कैसे कैसे लोग दस्तारों के मालिक हो गए
बिक रही थी शहर में थोड़ी सी सस्ती एक दिन
तुम को ऐ वीरानियों शायद नहीं मा'लूम है
हम बनाएँगे इसी सहरा को बस्ती एक दिन
रोज़-ओ-शब हम को भी समझाती है मिट्टी क़ब्र की
ख़ाक में मिल जाएगी तेरी भी हस्ती एक दिन
गले मिलने को आपस में दुआएँ रोज़ आती हैं
गले मिलने को आपस में दुआएँ रोज़ आती हैं
अभी मस्ज़िद के दरवाज़े पे माएँ रोज़ आती हैं
अभी रोशन हैं चाहत के दीये हम सबकी आँखों में
बुझाने के लिये पागल हवाएँ रोज़ आती हैं
कोई मरता नहीं है, हाँ मगर सब टूट जाते हैं
हमारे शहर में ऎसी वबाएँरोज़ आती हैं
अभी दुनिया की चाहत ने मिरा पीछा नहीं छोड़ा
अभी मुझको बुलाने दाश्ताएँरोज़ आती हैं
ये सच है नफ़रतों की आग ने सब कुछ जला डाला
मगर उम्मीद की ठंडी हवाएँ रोज़ आती हैं
घर में रहते हुए ग़ैरों की तरह होती हैं
घर में रहते हुए ग़ैरों की तरह होती हैं
लड़कियाँ धान के पौदों की तरह होती हैं
उड़ के इक रोज़ बहुत दूर चली जाती हैं
घर की शाख़ों पे ये चिड़ियों की तरह होती हैं
सहमी सहमी हुई रहती हैं मकान-ए-दिल में
आरज़ूएँ भी ग़रीबों की तरह होती हैं
टूट कर ये भी बिखर जाती हैं इक लम्हे में
कुछ उमीदें भी घरोंदों की तरह होती हैं
आप को देख के जिस वक़्त पलटती है नज़र
मेरी आँखें मिरी आँखों की तरह होती हैं
चले मक़्तल की जानिब और छाती खोल दी हम ने
चले मक़्तल की जानिब और छाती खोल दी हम ने
बढ़ाने पर पतंग आए तो चर्ख़ी खोल दी हम ने
पड़ा रहने दो अपने बोरिए पर हम फ़क़ीरों को
फटी रह जाएँगी आँखें जो मुट्ठी खोल दी हम ने
कहाँ तक बोझ बैसाखी का सारी ज़िंदगी ढोते
उतरते ही कुएँ में आज रस्सी खोल दी हम ने
फ़रिश्तो तुम कहाँ तक नामा-ए-आमाल देखोगे
चलो ये नेकियाँ गिन लो कि गठरी खोल दी हम ने
तुम्हारा नाम आया और हम तकने लगे रस्ता
तुम्हारी याद आई और खिड़की खोल दी हम ने
पुराने हो चले थे ज़ख़्म सारे आरज़ूओं के
कहो चारागरों से आज पट्टी खोल दी हम ने
तुम्हारे दुख उठाए इस लिए फिरते हैं मुद्दत से
तुम्हारे नाम आई थी जो चिट्ठी खोल दी हम ने
छाँव मिल जाए तो कम दाम में बिक जाती है
छाँव मिल जाए तो कम दाम में बिक जाती है
अब थकन थोड़े से आराम में बिक जाती है
आप क्या मुझ को नवाज़ेंगे जनाब-ए-आली
सल्तनत तक मिरे इनआ'म में बिक जाती है
शे'र जैसा भी हो इस शहर में पढ़ सकते हो
चाय जैसी भी हो आसाम में बिक जाती है
वो सियासत का इलाक़ा है उधर मत जाना
आबरू कूचा-ए-बद-नाम में बिक जाती है
जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
माँ दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है
रोज़ मैं अपने लहू से उसे ख़त लिखता हूँ
रोज़ उंगली मेरी तेज़ाब में आ जाती है
दिल की गलियों से तेरी याद निकलती ही नहीं
सोहनी फिर इसी पंजाब में आ जाती है
रात भर जागते रहने का सिला है शायद
तेरी तस्वीर-सी महताब में आ जाती है
एक कमरे में बसर करता है सारा कुनबा
सारी दुनिया दिले- बेताब में आ जाती है
ज़िन्दगी तू भी भिखारिन की रिदा ओढ़े हुए
कूचा - ए - रेशमो -किमख़्वाब में आ जाती है
दुख किसी का हो छलक उठती हैं मेरी आँखें
सारी मिट्टी मिरे तालाब में आ जाती है
जहां तक हो सका हमने तुम्हें परदा कराया है
जहां तक हो सका हमने तुम्हें परदा कराया है
मगर ऐ आंसुओं! तुमने बहुत रुसवा कराया है
चमक यूं ही नहीं आती है खुद्दारी के चेहरे पर
अना को हमने दो दो वक्त का फाका कराया है
बड़ी मुद्दत पे खायी हैं खुशी से गालियाँ हमने
बड़ी मुद्दत पे उसने आज मुंह मीठा कराया है
बिछड़ना उसकी ख्वाहिश थी न मेरी आरजू लेकिन
जरा सी जिद ने इस आंगन का बंटवारा कराया है
कहीं परदेस की रंगीनियों में खो नहीं जाना
किसी ने घर से चलते वक्त ये वादा कराया है
खुदा महफूज रखे मेरे बच्चों को सियासत से
ये वो औरत है जिसने उम्र भर पेशा कराया है
जुदा रहता हूँ मैं तुझ से तो दिल बे-ताब रहता है
जुदा रहता हूँ मैं तुझ से तो दिल बे-ताब रहता है
चमन से दूर रह के फूल कब शादाब रहता है
अँधेरे और उजाले की कहानी सिर्फ़ इतनी है
जहाँ महबूब रहता है वहीं महताब रहता है
मुक़द्दर में लिखा कर लाए हैं हम बोरिया लेकिन
तसव्वुर में हमेशा रेशम-ओ-कम-ख़्वाब रहता है
हज़ारों बस्तियाँ आ जाएँगी तूफ़ान की ज़द में
मिरी आँखों में अब आँसू नहीं सैलाब रहता है
भले लगते हैं स्कूलों की यूनिफार्म में बच्चे
कँवल के फूल से जैसे भरा तालाब रहता है
ये बाज़ार-ए-हवस है तुम यहाँ कैसे चले आए
ये सोने की दुकानें हैं यहाँ तेज़ाब रहता है
हमारी हर परेशानी इन्ही लोगों के दम से है
हमारे साथ ये जो हल्क़ा-ए-अहबाब रहता है
बड़ी मुश्किल से आते हैं समझ में लखनऊ वाले
दिलों में फ़ासले लब पर मगर आदाब रहता है
तुम्हारे जिस्म की ख़ुश्बू गुलों से आती है
तुम्हारे जिस्म की ख़ुश्बू गुलों से आती है
ख़बर तुम्हारी भी अब दूसरों से आती है
हमीं अकेले नहीं जागते हैं रातों में
उसे भी नींद बड़ी मुश्किलों से आती है
हमारी आँखों को मैला तो कर दिया है मगर
मोहब्बतों में चमक आँसुओं से आती है
इसी लिए तो अँधेरे हसीन लगते हैं
कि रात मिल के तिरे गेसुओं से आती है
ये किस मक़ाम पे पहुँचा दिया मोहब्बत ने
कि तेरी याद भी अब कोशिशों से आती है
थकन को ओढ़ के बिस्तर में जा के लेट गए
थकन को ओढ़ के बिस्तर में जा के लेट गए
हम अपनी क़ब्र-ए-मुक़र्रर में जा के लेट गए
तमाम उम्र हम इक दूसरे से लड़ते रहे
मगर मरे तो बराबर में जा के लेट गए
हमारी तिश्ना-नसीबी का हाल मत पूछो
वो प्यास थी कि समुंदर में जा के लेट गए
न जाने कैसी थकन थी कभी नहीं उतरी
चले जो घर से तो दफ़्तर में जा के लेट गए
ये बेवक़ूफ़ उन्हें मौत से डराते हैं
जो ख़ुद ही साया-ए-ख़ंजर में जा के लेट गए
तमाम उम्र जो निकले न थे हवेली से
वो एक गुम्बद-ए-बे-दर में जा के लेट गए
सजाए फिरते थे झूटी अना जो चेहरों पर
वो लोग क़स्र-ए-सिकंदर में जा के लेट गए
सज़ा हमारी भी काटी है बाल-बच्चों ने
कि हम उदास हुए घर में जा के लेट गए
थकी-मांदी हुई बेचारियाँ आराम करती हैं
थकी-मांदी हुई बेचारियाँ आराम करती हैं
न छेड़ो ज़ख़्म को बीमारियाँ आराम करती हैं
सुलाकर अपने बच्चे को यही हर माँ समझती है
कि उसकी गोद में किलकारियाँ आराम करती हैं
किसी दिन ऎ समुन्दर झांक मेरे दिल के सहरा में
न जाने कितनी ही तहदारियाँ आराम करती हैं
अभी तक दिल में रोशन हैं तुम्हारी याद के जुगनू
अभी इस राख में चिन्गारियाँ आराम करती हैं
कहां रंगों की आमेज़िश की ज़हमत आप करते हैं
लहू से खेलिये पिचकारियाँ आराम करती हैं
दरिया-दिली से अब्र-ए-करम भी नहीं मिला
दरिया-दिली से अब्र-ए-करम भी नहीं मिला
लेकिन मुझे नसीब से कम भी नहीं मिला
फिर उँगलियों को ख़ूँ में डुबोना पड़ा हमें
जब हम को माँगने पे क़लम भी नहीं मिला
सच बोलने की राह में तन्हा हमीं मिले
इस रास्ते में शैख़-ए-हरम भी नहीं मिला
मैं ने तो सारी उम्र निभाई है दोस्ती
वो मुझ से खा के मेरी क़सम भी नहीं मिला
दिल को ख़ुशी भी हद से ज़ियादा नहीं मिली
कासे के ए'तिबार से ग़म भी नहीं मिला
दुनिया तिरी रौनक़ से मैं अब ऊब रहा हूँ
दुनिया तिरी रौनक़ से मैं अब ऊब रहा हूँ
तू चाँद मुझे कहती थी मैं डूब रहा हूँ
अब कोई शनासा भी दिखाई नहीं देता
बरसों मैं इसी शहर का महबूब रहा हूँ
मैं ख़्वाब नहीं आप की आँखों की तरह था
मैं आप का लहजा नहीं उस्लूब रहा हूँ
रुस्वाई मिरे नाम से मंसूब रही है
मैं ख़ुद कहाँ रुस्वाई से मंसूब रहा हूँ
सच्चाई तो ये है कि तिरे क़र्या-ए-दिल में
इक वो भी ज़माना था कि मैं ख़ूब रहा हूँ
उस शहर के पत्थर भी गवाही मिरी देंगे
सहरा भी बता देगा कि मज्ज़ूब रहा हूँ
दुनिया मुझे साहिल से खड़ी देख रही है
मैं एक जज़ीरे की तरह डूब रहा हूँ
शोहरत मुझे मिलती है तो चुप-चाप खड़ी रह
रुस्वाई मैं तुझ से भी तो मंसूब रहा हूँ
फेंक आए थे मुझ को भी मिरे भाई कुएँ में
मैं सब्र में भी हज़रत-ए-अय्यूब रहा हूँ
दोहरा रहा हूँ बात पुरानी कही हुई
दोहरा रहा हूँ बात पुरानी कही हुई
तस्वीर तेरे घर में थी मेरी लगी हुई
इन बद-नसीब आँखों ने देखी है बार बार
दीवार में ग़रीब की ख़्वाहिश चुनी हुई
ताज़ा ग़ज़ल ज़रूरी है महफ़िल के वास्ते
सुनता नहीं है कोई दोबारा सुनी हुई
मुद्दत से कोई दूसरा रहता है हम नहीं
दरवाज़े पर हमारी है तख़्ती लगी हुई
जब तक है डोर हाथ में तब तक का खेल है
देखी तो होंगी तुम ने पतंगें कटी हुई
जिस की जुदाई ने मुझे शाइर बना दिया
पढ़ता हूँ मैं ग़ज़ल भी उसी की लिखी हुई
लगता है जैसे घर में नहीं हूँ मैं क़ैद हूँ
मिलती हैं रोटियाँ भी जहाँ पर गिनी हुई
साँसों के आने जाने पे चलता है कारोबार
छूता नहीं है कोई भी हाँडी जली हुई
ये ज़ख़्म का निशान है जाएगा देर से
छुटती नहीं है जल्दी से मेहंदी लगी हुई
नुमाइश के लिए गुलकारियाँ दोनों तरफ़ से हैं
नुमाइश के लिए गुलकारियाँ दोनों तरफ़ से हैं
लड़ाई की मगर तैयारियाँ दोनों तरफ़ से हैं
मुलाक़ातों पे हँसते, बोलते हैं, मुस्कराते हैं
तबीयत में मगर बेज़ारियाँ दोनों तरफ़ से हैं
खुले रखते हैं दरवाज़े दिलों के रात-दिन दोनों
मगर सरहद पे पहरेदारियाँ दोनों तरफ़ से हैं
उसे हालात ने रोका मुझे मेरे मसायल ने
वफ़ा की राह में दुश्वारियाँ दोनों तरफ़ से हैं
मेरा दुश्मन मुझे तकता है, मैं दुश्मन को तकता हूँ
कि हायल राह में किलकारियाँ दोनों तरफ़ से हैं
मुझे घर भी बचाना है वतन को भी बचाना है
मिरे कांधे पे ज़िम्मेदारियाँ दोनों तरफ़ से हैं
पैरों को मिरे दीदा-ए-तर बाँधे हुए है
पैरों को मिरे दीदा-ए-तर बाँधे हुए है
ज़ंजीर की सूरत मुझे घर बाँधे हुए है
हर चेहरे में आता है नज़र एक ही चेहरा
लगता है कोई मेरी नज़र बाँधे हुए है
बिछड़ेंगे तो मर जाएँगे हम दोनों बिछड़ कर
इक डोर में हम को यही डर बाँधे हुए है
पर्वाज़ की ताक़त भी नहीं बाक़ी है लेकिन
सय्याद अभी तक मिरे पर बाँधे हुए है
हम हैं कि कभी ज़ब्त का दामन नहीं छोड़ा
दिल है कि धड़कने पे कमर बाँधे हुए है
आँखें तो उसे घर से निकलने नहीं देतीं
आँसू है कि सामान-ए-सफ़र बाँधे हुए है
फेंकी न 'मुनव्वर' ने बुज़ुर्गों की निशानी
दस्तार पुरानी है मगर बाँधे हुए है
फिर से बदल के मिट्टी की सूरत करो मुझे
फिर से बदल के मिट्टी की सूरत करो मुझे
इज़्ज़त के साथ दुनिया से रुख़्सत करो मुझे
मैं ने तो तुम से की ही नहीं कोई आरज़ू
पानी ने कब कहा था कि शर्बत करो मुझे
कुछ भी हो मुझ को एक नई शक्ल चाहिए
दीवार पर बिछाओ मुझे छत करो मुझे
जन्नत पुकारती है कि मैं हूँ तिरे लिए
दुनिया ब-ज़िद है मुझ से कि जन्नत करो मुझे
बहुत पानी बरसता है तो मिट्टी बैठ जाती है
बहुत पानी बरसता है तो मिट्टी बैठ जाती है
न रोया कर बहुत रोने से छाती बैठ जाती है
यही मौसम था जब नंगे बदन छत पर टहलते थे
यही मौसम है अब सीने में सर्दी बैठ जाती है
चलो माना कि शहनाई मोहब्बत की निशानी है
मगर वो शख़्स जिसकी आ के बेटी बैठ जाती है
बढ़े बूढ़े कुएँ में नेकियाँ क्यों फेंक आते हैं ?
कुएँ में छुप के क्यों आख़िर ये नेकी बैठ जाती है ?
नक़ाब उलटे हुए गुलशन से वो जब भी गुज़रता है
समझ के फूल उसके लब पे तितली बैठ जाती है
सियासत नफ़रतों का ज़ख्म भरने ही नहीं देती
जहाँ भरने पे आता है तो मक्खी बैठ जाती है
वो दुश्मन ही सही आवाज़ दे उसको मोहब्बत से
सलीक़े से बिठा कर देख हड्डी बैठ जाती है
बादशाहों को सिखाया है क़लंदर होना
बादशाहों को सिखाया है क़लंदर होना
आप आसान समझते हैं मुनव्वर होना
एक आँसू भी हुकूमत के लिए ख़तरा है
तुम ने देखा नहीं आँखों का समुंदर होना
सिर्फ़ बच्चों की मोहब्बत ने क़दम रोक लिए
वर्ना आसान था मेरे लिए बे-घर होना
हम को मा'लूम है शोहरत की बुलंदी हम ने
क़ब्र की मिट्टी का देखा है बराबर होना
इस को क़िस्मत की ख़राबी ही कहा जाएगा
आप का शहर में आना मिरा बाहर होना
सोचता हूँ तो कहानी की तरह लगता है
रास्ते से मिरा तकना तिरा छत पर होना
मुझ को क़िस्मत ही पहुँचने नहीं देती वर्ना
एक ए'ज़ाज़ है उस दर का गदागर होना
सिर्फ़ तारीख़ बताने के लिए ज़िंदा हूँ
अब मिरा घर में भी होना है कैलेंडर होना
भुला पाना बहुत मुश्किल है सब कुछ याद रहता है
भुला पाना बहुत मुश्किल है सब कुछ याद रहता है
मोहब्बत करने वाला इस लिए बरबाद रहता है
अगर सोने के पिंजड़े में भी रहता है तो क़ैदी है
परिंदा तो वही होता है जो आज़ाद रहता है
चमन में घूमने फिरने के कुछ आदाब होते हैं
उधर हरगिज़ नहीं जाना उधर सय्याद रहता है
लिपट जाती है सारे रास्तों की याद बचपन में
जिधर से भी गुज़रता हूँ मैं रस्ता याद रहता है
हमें भी अपने अच्छे दिन अभी तक याद हैं 'राना'
हर इक इंसान को अपना ज़माना याद रहता है
मसर्रतों के ख़ज़ाने ही कम निकलते हैं
मसर्रतों के ख़ज़ाने ही कम निकलते हैं
किसी भी सीने को खोलो तो ग़म निकलते हैं
हमारे जिस्म के अंदर की झील सूख गई
इसी लिए तो अब आँसू भी कम निकलते हैं
ये कर्बला की ज़मीं है इसे सलाम करो
यहाँ ज़मीन से पत्थर भी नम निकलते हैं
यही है ज़िद तो हथेली पे अपनी जान लिए
अमीर-ए-शहर से कह दो कि हम निकलते हैं
कहाँ हर एक को मिलते हैं चाहने वाले
नसीब वालों के गेसू में ख़म निकलते हैं
जहाँ से हम को गुज़रने में शर्म आती है
उसी गली से कई मोहतरम निकलते हैं
तुम्ही बताओ कि मैं खिलखिला के कैसे हँसूँ
कि रोज़ ख़ाना-ए-दिल से अलम निकलते हैं
तुम्हारे अहद-ए-हुकूमत का सानेहा ये है
कि अब तो लोग घरों से भी कम निकलते हैं
महफ़िल में आज मर्सिया-ख़्वानी ही क्यूँ न हो
महफ़िल में आज मर्सिया-ख़्वानी ही क्यूँ न हो
आँखों से बहने दीजिए पानी ही क्यूँ न हो
नश्शे का एहतिमाम से रिश्ता नहीं कोई
पैग़ाम उस का आए ज़बानी ही क्यूँ न हो
ऐसे ये ग़म की रात गुज़रना मुहाल है
कुछ भी सुना मुझे वो कहानी ही क्यूँ न हो
कोई भी साथ देता नहीं उम्र-भर यहाँ
कुछ दिन रहेगी साथ जवानी ही क्यूँ न हो
इस तिश्नगी की क़ैद से जैसे भी हो निकाल
पीने को कुछ भी चाहिए पानी ही क्यूँ न हो
दुनिया भी जैसे ताश के पत्तों का खेल है
जोकर के साथ रहती है रानी ही क्यूँ न हो
तस्वीर उस की चाहिए हर हाल में मुझे
पागल हो सर-फिरी हो दिवानी ही क्यूँ न हो
सोना तो यार सोना है चाहे जहाँ रहे
बीवी है फिर भी बीवी पुरानी ही क्यूँ न हो
अब अपने घर में रहने न देंगे किसी को हम
दिल से निकाल देंगे निशानी ही क्यूँ न हो
मिट्टी में मिला दे कि जुदा हो नहीं सकता
मिट्टी में मिला दे कि जुदा हो नहीं सकता
अब इस से ज़ियादा मैं तिरा हो नहीं सकता
दहलीज़ पे रख दी हैं किसी शख़्स ने आँखें
रौशन कभी इतना तो दिया हो नहीं सकता
बस तू मिरी आवाज़ से आवाज़ मिला दे
फिर देख कि इस शहर में क्या हो नहीं सकता
ऐ मौत मुझे तू ने मुसीबत से निकाला
सय्याद समझता था रिहा हो नहीं सकता
इस ख़ाक-ए-बदन को कभी पहुँचा दे वहाँ भी
क्या इतना करम बाद-ए-सबा हो नहीं सकता
पेशानी को सज्दे भी अता कर मिरे मौला
आँखों से तो ये क़र्ज़ अदा हो नहीं सकता
दरबार में जाना मिरा दुश्वार बहुत है
जो शख़्स क़लंदर हो गदा हो नहीं सकता
मुख़्तसर होते हुए भी ज़िंदगी बढ़ जाएगी
मुख़्तसर होते हुए भी ज़िंदगी बढ़ जाएगी
माँ की आँखें चूम लीजे रौशनी बढ़ जाएगी
मौत का आना तो तय है मौत आएगी मगर
आप के आने से थोड़ी ज़िंदगी बढ़ जाएगी
इतनी चाहत से न देखा कीजिए महफ़िल में आप
शहर वालों से हमारी दुश्मनी बढ़ जाएगी
आप के हँसने से ख़तरा और भी बढ़ जाएगा
इस तरह तो और आँखों की नमी बढ़ जाएगी
बेवफ़ाई खेल का हिस्सा है जाने दे इसे
तज़्किरा उस से न कर शर्मिंदगी बढ़ जाएगी
मुझ को गहराई में मिट्टी की उतर जाना है
मुझ को गहराई में मिट्टी की उतर जाना है
ज़िंदगी बाँध ले सामान-ए-सफ़र जाना है
घर की दहलीज़ पे रौशन हैं वो बुझती आँखें
मुझ को मत रोक मुझे लौट के घर जाना है
मैं वो मेले में भटकता हुआ इक बच्चा हूँ
जिस के माँ बाप को रोते हुए मर जाना है
ज़िंदगी ताश के पत्तों की तरह है मेरी
और पत्तों को बहर-हाल बिखर जाना है
एक बे-नाम से रिश्ते की तमन्ना ले कर
इस कबूतर को किसी छत पे उतर जाना है
मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं
मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं
कहानी का ये हिस्सा आजतक सब से छुपाया है
कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं
नई दुनिया बसा लेने की इक कमज़ोर चाहत में
पुराने घर की दहलीज़ों को सूना छोड़ आए हैं
अक़ीदत से कलाई पर जो इक बच्ची ने बाँधी थी
वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं
किसी की आरज़ू के पाँवों में ज़ंजीर डाली थी
किसी की ऊन की तीली में फंदा छोड़ आए हैं
पकाकर रोटियाँ रखती थी माँ जिसमें सलीक़े से
निकलते वक़्त वो रोटी की डलिया छोड़ आए हैं
जो इक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है
वहीं हसरत के ख़्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं
यक़ीं आता नहीं, लगता है कच्ची नींद में शायद
हम अपना घर गली अपना मोहल्ला छोड़ आए हैं
हमारे लौट आने की दुआएँ करता रहता है
हम अपनी छत पे जो चिड़ियों का जत्था छोड़ आए हैं
हमें हिजरत की इस अन्धी गुफ़ा में याद आता है
अजन्ता छोड़ आए हैं एलोरा छोड़ आए हैं
सभी त्योहार मिलजुल कर मनाते थे वहाँ जब थे
दिवाली छोड़ आए हैं दशहरा छोड़ आए हैं
हमें सूरज की किरनें इस लिए तक़लीफ़ देती हैं
अवध की शाम काशी का सवेरा छोड़ आए हैं
गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब
इलाहाबाद में कैसा नज़ारा छोड़ आए हैं
हम अपने साथ तस्वीरें तो ले आए हैं शादी की
किसी शायर ने लिक्खा था जो सेहरा छोड़ आए हैं
मेरी ख़्वाहिश है कि फिर से मैं फ़रिश्ता हो जाऊँ
मेरी ख़्वाहिश है कि फिर से मैं फ़रिश्ता हो जाऊँ
माँ से इस तरह लिपट जाऊं कि बच्चा हो जाऊँ
कम-से कम बच्चों के होठों की हंसी की ख़ातिर
ऎसी मिट्टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊँ
सोचता हूँ तो छलक उठती हैं मेरी आँखें
तेरे बारे में न सॊचूं तो अकेला हो जाऊँ
चारागर तेरी महारथ पे यक़ीं है लेकिन
क्या ज़रूरी है कि हर बार मैं अच्छा हो जाऊँ
बेसबब इश्क़ में मरना मुझे मंज़ूर नहीं
शमा तो चाह रही है कि पतंगा हो जाऊँ
शायरी कुछ भी हो रुसवा नहीं होने देती
मैं सियासत में चला जाऊं तो नंगा हो जाऊँ
मैं इस से पहले कि बिखरूँ इधर उधर हो जाऊँ
मैं इस से पहले कि बिखरूँ इधर उधर हो जाऊँ
मुझे सँभाल ले मुमकिन है दर-ब-दर हो जाऊँ
ये आब-ओ-ताब जो मुझ में है सब उसी से है
अगर वो छोड़ दे मुझ को तो मैं खंडर हो जाऊँ
मिरी मदद से खुजूरों की फ़स्ल पकने लगे
मैं चाहता हूँ कि सहरा की दोपहर हो जाऊँ
मैं आस-पास के मौसम से हूँ तर-ओ-ताज़ा
मैं अपने झुण्ड से निकलूँ तो बे-समर हो जाऊँ
बड़ी अजीब सी हिद्दत है उस की यादों में
अगर मैं छू लूँ पसीने से तर-ब-तर हो जाऊँ
मैं कच्ची मिट्टी की सूरत हूँ तेरे हाथों में
मुझे तू ढाल दे ऐसे कि मो'तबर हो जाऊँ
बची-खुची हुई साँसों के साथ पहुँचाना
सुनो हवाओ अगर मैं शिकस्ता-पर हो जाऊँ
ये दरवेशों की बस्ती है यहाँ ऐसा नहीं होगा
ये दरवेशों की बस्ती है यहाँ ऐसा नहीं होगा
लिबास-ए-ज़िंदगी फट जाएगा मैला नहीं होगा
शेयर-बाज़ार में क़ीमत उछलती गिरती रहती है
मगर ये ख़ून-ए-मुफ़्लिस है कभी महँगा नहीं होगा
तिरे एहसास की ईंटें लगी हैं इस इमारत में
हमारा घर तिरे घर से कभी ऊँचा नहीं होगा
हमारी दोस्ती के बीच ख़ुद-ग़र्ज़ी भी शामिल है
ये बे-मौसम का फल है ये बहुत मीठा नहीं होगा
पुराने शहर के लोगों में इक रस्म-ए-मुरव्वत है
हमारे पास आ जाओ कभी धोका नहीं होगा
ये ऐसी चोट है जिस को हमेशा दुखते रहना है
ये ऐसा ज़ख़्म है जो उम्र भर अच्छा नहीं होगा
ये बुत जो हम ने दोबारा बना के रक्खा है
ये बुत जो हम ने दोबारा बना के रक्खा है
इसी ने हम को तमाशा बना के रक्खा है
वो किस तरह हमें इनआ'म से नवाज़ेगा
वो जिस ने हाथों को कासा बना के रक्खा है
यहाँ पे कोई बचाने तुम्हें न आएगा
समुंदरों ने जज़ीरा बना के रक्खा है
तमाम उम्र का हासिल है ये हुनर मेरा
कि मैं ने शीशे को हीरा बना के रक्खा है
किसे किसे अभी सज्दा-गुज़ार होना है
अमीर-ए-शहर ने खाता बना के रक्खा है
मैं बच गया तो यक़ीनन ये मो'जिज़ा होगा
सभी ने मुझ को निशाना बना के रक्खा है
कोई बता दे ये सूरज को जा के हम ने भी
शजर को धूप में छाता बना के रक्खा है
ये सर-बुलंद होते ही शाने से कट गया
ये सर-बुलंद होते ही शाने से कट गया
मैं मोहतरम हुआ तो ज़माने से कट गया
माँ आज मुझ को छोड़ के गाँव चली गई
मैं आज अपने आईना-ख़ाने से कट गया
जोड़े की शान बढ़ गई महफ़िल महक उठी
लेकिन ये फूल अपने घराने से कट गया
ऐ आँसुओ तुम्हारी ज़रूरत है अब मुझे
कुछ मैल तो बदन का नहाने से कट गया
उस पेड़ से किसी को शिकायत न थी मगर
ये पेड़ सिर्फ़ बीच में आने से कट गया
वर्ना वही उजाड़ हवेली सी ज़िंदगी
तुम आ गए तो वक़्त ठिकाने से कट गया
ये हिज्र का रस्ता है ढलानें नहीं होतीं
ये हिज्र का रस्ता है ढलानें नहीं होतीं
सहरा में चराग़ों की दुकानें नहीं होतीं
ख़ुश्बू का ये झोंका अभी आया है उधर से
किस ने कहा सहरा में अज़ानें नहीं होतीं
क्या मरते हुए लोग ये इंसान नहीं हैं
क्या हँसते हुए फूलों में जानें नहीं होतीं
अब कोई ग़ज़ल-चेहरा दिखाई नहीं देता
अब शहर में अबरू की कमानें नहीं होतीं
इन पर किसी मौसम का असर क्यूँ नहीं होता
रद्द क्यूँ तिरी यादों की उड़ानें नहीं होतीं
ये शेर है छुप कर कभी हमला नहीं करता
मैदानी इलाक़ों में मचानें नहीं होतीं
कुछ बात थी जो लब नहीं खुलते थे हमारे
तुम समझे थे गूँगों के ज़बानें नहीं होतीं
रोने में इक ख़तरा है, तालाब नदी हो जाते हैं
रोने में इक ख़तरा है, तालाब नदी हो जाते हैं
हंसना भी आसान नहीं है, लब ज़ख़्मी हो जाते हैं
इस्टेसन से वापस आकर बूढ़ी आँखें सोचती हैं
पत्ते देहाती रहते हैं, फल शहरी हो जाते हैं
बोझ उठाना शौक कहाँ है, मजबूरी का सौदा है
रहते-रहते इस्टेशन पर लोग कुली हो जाते हैं
सबसे हंसकर मिलिये-जुलिये, लेकिन इतना ध्यान रहे
सबसे हंसकर मिलने वाले, रुसवा भी हो जाते हैं
अपनी अना को बेच के अक्सर लुक़्म-ए-तर की चाहत में
कैसे-कैसे सच्चे शाइर दरबारी हो जाते हैं
वो बिछड़ कर भी कहाँ मुझ से जुदा होता है
वो बिछड़ कर भी कहाँ मुझ से जुदा होता है
रेत पर ओस से इक नाम लिखा होता है
ख़ाक आँखों से लगाई तो ये एहसास हुआ
अपनी मिट्टी से हर इक शख़्स जुड़ा होता है
सारी दुनिया का सफ़र ख़्वाब में कर डाला है
कोई मंज़र हो मिरा देखा हुआ होता है
मैं भुलाना भी नहीं चाहता इस को लेकिन
मुस्तक़िल ज़ख़्म का रहना भी बुरा होता है
ख़ौफ़ में डूबे हुए शहर की क़िस्मत है यही
मुंतज़िर रहता है हर शख़्स कि क्या होता है
सहरा-पसंद हो के सिमटने लगा हूँ मैं
सहरा-पसंद हो के सिमटने लगा हूँ मैं
अँदर से लग रहा हूँ कि बँटने लगा हूँ मैं
क्या फिर किसी सफ़र पे निकलना है अब मुझे
दीवारो-दर से क्यों ये लिपटने लगा हूँ मैं
आते हैं जैसे- जैसे बिछड़ने के दिन करीब
लगता है जैसे रेल से कटने लगा हूँ मैं
क्या मुझमें एहतेजाज की ताक़त नहीं रही
पीछे की सिम्त किस लिए हटने लगा हूँ मैं
फिर सारी उम्र चाँद ने रक्खा मेरा ख़याल
एक रोज़ कह दिया था कि घटने लगा हूँ मैं
उसने भी ऐतबार की चादर समेट ली
शायद ज़बान दे के पलटने लगा हूँ मैं
सहरा पे बुरा वक़्त मिरे यार पड़ा है
सहरा पे बुरा वक़्त मिरे यार पड़ा है
दीवाना कई रोज़ से बीमार पड़ा है
सब रौनक़-ए-सहरा थी इसी पगले के दम से
उजड़ा हुआ दीवाने का दरबार पड़ा है
आँखों से टपकती है वही वहशत-ए-सहरा
काँधे भी बताते हैं बड़ा बार पड़ा है
दिल में जो लहू-झील थी वो सूख चुकी है
आँखों का दो-आबा है सो बे-कार पड़ा है
तुम कहते थे दिन हो गए देखा नहीं उस को
लो देख लो ये आज का अख़बार पड़ा है
ओढ़े हुए उम्मीद की इक मैली सी चादर
दरवाज़ा-ए-बख़्शिश पे गुनहगार पड़ा है
ऐ ख़ाक-ए-वतन तुझ से मैं शर्मिंदा बहुत हूँ
महँगाई के मौसम में ये त्यौहार पड़ा है
सारी दौलत तिरे क़दमों में पड़ी लगती है
सारी दौलत तिरे क़दमों में पड़ी लगती है
तू जहाँ होता है क़िस्मत भी गड़ी लगती है
ऐसे रोया था बिछड़ते हुए वो शख़्स कभी
जैसे सावन के महीने में झड़ी लगती है
हम भी अपने को बदल डालेंगे रफ़्ता रफ़्ता
अभी दुनिया हमें जन्नत से बड़ी लगती है
ख़ुशनुमा लगते हैं दिल पर तिरे ज़ख़्मों के निशाँ
बीच दीवार में जिस तरह घड़ी लगती है
तू मिरे साथ अगर है तो अंधेरा कैसा
रात ख़ुद चाँद सितारों से जड़ी लगती है
मैं रहूँ या न रहूँ नाम रहेगा मेरा
ज़िंदगी उम्र में कुछ मुझ से बड़ी लगती है
हम कुछ ऐसे तिरे दीदार में खो जाते हैं
हम कुछ ऐसे तिरे दीदार में खो जाते हैं
जैसे बच्चे भरे बाज़ार में खो जाते हैं
मुस्तक़िल जूझना यादों से बहुत मुश्किल है
रफ़्ता रफ़्ता सभी घर-बार में खो जाते हैं
इतना साँसों की रिफ़ाक़त पे भरोसा न करो
सब के सब मिट्टी के अम्बार में खो जाते हैं
मेरी ख़ुद्दारी ने एहसान किया है मुझ पर
वर्ना जो जाते हैं दरबार में खो जाते हैं
ढूँढने रोज़ निकलते हैं मसाइल हम को
रोज़ हम सुर्ख़ी-ए-अख़बार में खो जाते हैं
क्या क़यामत है कि सहराओं के रहने वाले
अपने घर के दर-ओ-दीवार में खो जाते हैं
कौन फिर ऐसे में तन्क़ीद करेगा तुझ पर
सब तिरे जुब्बा-ओ-दस्तार में खो जाते हैं
हर एक आवाज़ अब उर्दू को फ़रियादी बताती है
हर एक आवाज़ अब उर्दू को फ़रियादी बताती है
यह पगली फिर भी अब तक ख़ुद को शहज़ादी बताती है
कई बातें मुहब्बत सबको बुनियादी बताती है
जो परदादी बताती थी वही दादी बताती है
जहाँ पिछले कई बरसों से काले नाग रहते हैं
वहाँ एक घोंसला चिड़ियों का था दादी बताती है
अभी तक यह इलाक़ा है रवादारी के क़ब्ज़े में
अभी फ़िरक़ापरस्ती कम है आबादी बताती है
यहाँ वीरानियों की एक मुद्दत से हुकूमत है
यहाँ से नफ़रतें गुज़री है बरबादी बताती है
लहू कैसे बहाया जाय यह लीडर बताते हैं
लहू का ज़ायक़ा कैसा है यह खादी बताती है
ग़ुलामी ने अभी तक मुल्क का पीछा नहीं छोड़ा
हमें फिर क़ैद होना है ये आज़ादी बताती है
ग़रीबी क्यों हमारे शहर से बाहर नहीं जाती
अमीर-ए-शहर के घर की हर इक शादी बताती है
मैं उन आँखों के मयख़ाने में थोड़ी देर बैठा था
मुझे दुनिया नशे का आज तक आदी बताती है
हर एक चेहरा यहाँ पर गुलाल होता है
हर एक चेहरा यहाँ पर गुलाल होता है
हमारे शहर मैं पत्थर भी लाल होता है
मैं शोहरतों की बुलंदी पर जा नहीं सकता
जहाँ उरूज पर पहुँचो ज़वाल होता है
मैं अपने बच्चों को कुछ भी तो दे नहीं पाया
कभी-कभी मुझे ख़ुद भी मलाल होता है
यहीं से अमन की तबलीग रोज़ होती है
यहीं पे रोज़ कबूतर हलाल होता है
मैं अपने आप को सय्यद तो लिख नहीं सकता
अजान देने से कोई बिलाल होता है
पड़ोसियों की दुकानें तक नहीं खुलतीं
किसी का गाँव में जब इन्तिकाल होता है
हँसते हुए माँ-बाप की गाली नहीं खाते
हँसते हुए माँ-बाप की गाली नहीं खाते
बच्चे हैं तो क्यूँ शौक़ से मिट्टी नहीं खाते
तुम से नहीं मिलने का इरादा तो है लेकिन
तुम से न मिलेंगे ये क़सम भी नहीं खाते
सो जाते हैं फ़ुटपाथ पे अख़बार बिछा कर
मज़दूर कभी नींद की गोली नहीं खाते
बच्चे भी ग़रीबी को समझने लगे शायद
अब जाग भी जाते हैं तो सहरी नहीं खाते
दावत तो बड़ी चीज़ है हम जैसे क़लंदर
हर एक के पैसों की दवा भी नहीं खाते
अल्लाह ग़रीबों का मदद-गार है 'राना'
हम लोगों के बच्चे कभी सर्दी नहीं खाते
हाँ इजाज़त है अगर कोई कहानी और है
हाँ इजाज़त है अगर कोई कहानी और है
इन कटोरों में अभी थोड़ा सा पानी और है
मज़हबी मज़दूर सब बैठे हैं इन को काम दो
एक इमारत शहर में काफ़ी पुरानी और है
ख़ामुशी कब चीख़ बन जाए किसे मालूम है
ज़ुल्म कर लो जब तलक ये बे-ज़बानी और है
ख़ुश्क पत्ते आँख में चुभते हैं काँटों की तरह
दश्त में फिरना अलग है बाग़बानी और है
फिर वही उक्ताहटें होंगी बदन चौपाल में
उम्र के क़िस्से में थोड़ी सी जवानी और है
बस इसी एहसास की शिद्दत ने बूढ़ा कर दिया
टूटे-फूटे घर में इक लड़की सियानी और है