आँखों भर आकाश : निदा फ़ाज़ली

Aankhon Bhar Akash : Nida Fazli

यह बात तो ग़लत है

कोई किसी से खुश हो और वो भी बारहा हो
यह बात तो ग़लत है
रिश्ता लिबास बन कर मैला नहीं हुआ हो
यह बात तो ग़लत है

वो चाँद रहगुज़र का, साथी जो था सफ़र का
था मोजिज़ा नज़र का
हर बार की नज़र से रोशन वह मोजिज़ हो
यह बात तो ग़लत है

है बात उसकी अच्छी, लगती है दिल को सच्ची
फिर भी है थोड़ी कच्ची
जो उसका हादसा है मेरा भी तजुर्बा हो
यह बात तो ग़लत है

दरिया है बहता पानी, हर मौज है रवानी
रुकती नहीं कहानी
जितना लिखा गया है उतना ही वाकया हो
यह बात तो ग़लत है

वे युग है कारोबारी, हर शय है इश्तहारी
राजा हो या भिखारी
शोहरत है जिसकी जितनी, उतना ही मर्तवा हो
यह बात तो ग़लत है

जब भी दिल ने दिल को सदा दी

जब भी दिल ने दिल को सदा दी
सन्नाटों में आग लगा दी...

मिट्टी तेरी, पानी तेरा
जैसी चाही शक्ल बना दी

छोटा लगता था अफ्साना
मैंने तेरी बात बढ़ा दी

सोचने बैठे जब भी उसको

सोचने बैठे जब भी उसको
अपनी ही तस्वीर बना दी

ढूँढ़ के तुझ में, तुझको हमने
दुनिया तेरी शान बढ़ा दी

ऐसा नहीं होता

जो हो इक बार, वह हर बार हो ऐसा नहीं होता
हमेशा एक ही से प्यार हो ऐसा नहीं होता

हरेक कश्ती का अपना तज्रिबा होता है दरिया में
सफर में रोज़ ही मंझदार हो ऐसा नहीं होता

कहानी में तो किरदारों को जो चाहे बना दीजे
हक़ीक़त भी कहानी कार हो ऐसा नहीं होता

सिखा देती है चलना

सिखा देती है चलना ठोकरें भी राहगीरों को
कोई रास्ता सदा दुशवार हो ऐसा नहीं होता

कहीं तो कोई होगा जिसको अपनी भी ज़रूरत हो
हरेक बाज़ी में दिल की हार हो ऐसा नहीं होता

मौत की नहर

प्यार, नफ़रत, दया, वफ़ा एहसान
क़ौम, भाषा, वतन, धरम, ईमान
उम्र गोया...
चट्टान है कोई
जिस पर इन्सान कोहकन की तरह
मौत की नहर...
खोदने के लिए,
सैकड़ों तेशे
आज़माता है
हाथ-पाँव चलाये जाता है

देखा गया हूँ

देखा गया हूँ मैं कभी सोचा गया हूँ मैं
अपनी नज़र में आप तमाशा रहा हूँ मैं

मुझसे मुझे निकाल के पत्थर बना दिया
जब मैं नहीं रहा हूँ तो पूजा गया हूँ मैं

मैं मौसमों के जाल में जकड़ा हुआ दरख़्त
उगने के साथ-साथ बिखरता रहा हूँ मैं

ऊपर के चेहरे-मोहरे से धोखा न खाइए
मेरी तलाश कीजिए, गुम हो गया हूँ मैं

बूढ़ा मलबा

हर माँ
अपनी कोख से
अपने शौहर को जन्मा करती है
मैं भी अब
अपने कन्धों से
बूढ़े मलवे को ढो-ढो कर
थक जाऊँगा
अपनी महबूबा के
कुँवारे गर्भ में
छुप कर सो जाऊँगा।

बैसाखियाँ

(एक वियतनामी जोड़े की तस्वीर देखकर)

आओ हम-तुम
इस सुलगती खामुशी में
रास्ते की
सहमी-सहमी तीरगी में
अपने बाजू, अपनी सीने, अपनी आँखें
फड़फड़ाते होंठ
चलती-फिरती टाँगें
चाँद के अन्धे गढ़े में छोड़ जाएँ

कल
इन्हीं बैसाखियों पर बोझ साधे
सैकड़ों जख़्मों से चकनाचूर सूरज
लड़खड़ाता,
टूटता
मजबूर सूरज
रात की घाटी से बाहर आ सकेगा
उजली किरणों से नई दुनिया रचेगा
आओ
हम !
तुम !

एक लुटी हुई बस्ती की कहानी

बजी घंटियाँ
ऊँचे मीनार गूँजे
सुनहरी सदाओं ने
उजली हवाओं की पेशानियों की

रहमत के
बरकत के
पैग़ाम लिक्खे—
वुजू करती तुम्हें
खुली कोहनियों तक
मुनव्वर हुईं—
झिलमिलाए अँधेरे
--भजन गाते आँचल ने
पूजा की थाली से
बाँटे सवेरे
खुले द्वार !
बच्चों ने बस्ता उठाया
बुजुर्गों ने—
पेड़ों को पानी पिलाया
--नये हादिसों की खबर ले के
बस्ती की गलियों में
अख़बार आया
खुदा की हिफाज़त की ख़ातिर
पुलिस ने
पुजारी के मन्दिर में
मुल्ला की मस्जिद में
पहरा लगाया।

खुद इन मकानों में लेकिन कहाँ था
सुलगते मुहल्लों के दीवारों दर में
वही जल रहा था जहाँ तक धुवाँ था

मन बैरागी

मन बैरागी, तन अनुरागी, कदम-कदम दुशवारी है
जीवन जीना सहल न जानो बहुत बड़ी फनकारी है

औरों जैसे होकर भी हम बा-इज़्ज़त हैं बस्ती में
कुछ लोगों का सीधापन है, कुछ अपनी अय्यारी है

जब-जब मौसम झूमा हम ने कपड़े फाड़े शोर किया
हर मौसम शाइस्ता रहना कोरी दुनियादारी है

ऐब नहीं है उसमें कोई, लाल परी न फूल गली
यह मत पूछो, वह अच्छा है या अच्छी नादारी

जो चेहरा देखा वह तोड़ा, नगर-नगर वीरान किए
पहले औरों से नाखुश थे अब खुद से बेज़ारी है।

फ़क़त चन्द लम्हे

बहुत देर है
बस के आने में
आओ
कहीं पास के लान पर बैठ जाएँ
चटखता है मेरी भी रग-रग में सूरज
बहुत देर से तुम भी चुप-चुप खड़ी हो
न मैं तुमसे वाक़िफ़
न तुम मूझसे वाक़िफ़
नई सारी बातें, नए सारे किस्से
चमकते हुए लफ़्ज, चमकीले लहज़े
फ़क़त चन्द लम्हे
न मैं अपने दु:ख-दर्द की बात छेड़ूँ
न तुम अपने घर की कहानी सुनाओ
मैं मौसम बनूँ
तुम फ़ज़ाएँ जगाओ

किताबघर की मौत

ये रस्ता है वही
तुम कह रहे हो
यहाँ तो पहले जैसा कुछ नहीं है!

दरख्तों पर न वो चालाक बन्दर
परेशाँ करते रहते थे
जो दिन भर

न ताक़ों में छुपे सूफी कबूतर
जो पढ़ते रहते थे
तस्बीह दिन भर

न कडवा नीम इमली के बराबर
जो घर-घर घूमता था
वैद बन कर

कई दिन बाद
तुम आए हो शायद?
ये सूरज चाँद वाला बूढ़ा अम्बर
बदल देता है
चेहरे हों या मंज़र

ये आलीशान होटल है
जहाँ पर
यहाँ पहले किताबों की
दुकां थी.....

खेल

आओ
कहीं से थोड़ी सी मिट्टी भर लाएँ
मिट्टी को बादल में गूँथें
चाक चलाएँ
नए-नए आकार बनाएँ

किसी के सर पे चुटिया रख दें
माथे ऊपर तिलक सजाएँ
किसी के छोटे से चेहरे पर
मोटी सी दाढ़ी फैलाएँ

कुछ दिन इनसे जी बहलाएँ
और यह जब मैले हो जाएँ

दाढ़ी चोटी तिलक सभी को
तोड़-फोड़ के गड़-मड़ कर दें
मिली हुई यह मिट्टी फिर से
अलग-अलग साँचों में भर दें

- चाक चलाएँ
नए-नए आकार बनाएँ

दाढ़ी में चोटी लहराए
चोटी में दाढ़ी छुप जाए
किसमें कितना कौन छुपा है
कौन बताए

दो खिड़कियाँ

आमने-सामने दो नई खिड़कियाँ

जलती सिगरेट की लहराती आवाज में
सुई-डोरे के रंगीन अल्फाज़ में
मशवरा कर रहीं हैं कई रोज़ से

शायद अब
बूढ़े दरवाजे सिर जोड़कर
वक़्त की बात को वक़्त पर मान लें
बीच की टूटी-फूटी गली छोड़कर
खिड़कियों के इशारों को पहचान लें

एक तस्वीर

सुबह की धूप
खुली शाम का रूप
फ़ाख़्ताओं की तरह सोच में डूबे तालाब
अज़नबी शहर के आकाश
धुंधलकों की किताब
पाठशाला में
चहकते हुए मासूम गुलाब

घर के आँगन की महक
बहते पानी की खनक
सात रंगों की धनक

तुम को देखा तो नहीं है लेकिन
मेरी तन्हाई में
ये रंग-बिरंगे मंज़र
जो भी तस्वीर बनाते हैं
वह
तुम जैसी है

तुमसे मिली नहीं है दुनिया

जितनी बुरी कही जाती है
उतनी बुरी नहीं है दुनिया
बच्चों के स्कूल में शायद
तुमसे मिली नहीं है दुनिया

चार घरों के एक मुहल्ले
के बाहर भी है आबादी
जैसी तुम्हें दिखाई दी है
सबकी वही नहीं है दुनिया

घर में ही मत इसे सजाओ,
इधर-उधर भी ले के जाओ
यूँ लगता है जैसे तुमसे
अब तक खुली नहीं है दुनिया

भाग रही है गेंद के पीछे
जाग रही है चाँद के नीचे
शोर भरे काले नारों से
अब तक डरी नहीं है दुनिया

दो सोचें

सुबह जब अख़बार ने मुझसे कहा
ज़िन्दगी जीना
बहुत दुश्वार है

सरहदें फिर शोर-गुल करने लगीं
ज़ंग लड़ने के लिए
तैयार है

दरमियाँ जो था ख़ुदा अब वो कहाँ
आदमी से आदमी
बेज़ार है

पास आकर एक बच्चे ने कहा
आपके हाथों में जो
अख़बार है
इस में मेले का भी
बाज़ार है

हाथी, घोड़ा, भालू
सब होंगे वहाँ
हाफ डे है आज
कल इतवार है

वक़्त से पहले

यूँ तो
हर रिश्ते का अंज़ाम यही होता है
फूल खिलता है
महकता है
बिखर जाता है

तुमसे
वैसे तो नहीं कोई शिकायत
लेकिन-
शाख हो सब्ज़ तो
हस्सास फ़ज़ा होती है
हर कली ज़ख़्म की सूरत ही
ज़ुदा होती है

तुमने
बेकार ही मौसम को सताया
वर्ना-
फुल जब खिल के महक जाता है
ख़ुद-ब-ख़ुद
शाख से गिर जाता है

इतनी पी जाओ

इतनी पी जाओ
कि कमरे की सियह ख़ामोशी
इससे पहले कि कोई बात करे
तेज नोकीले सवालात करे
इतनी पी जाओ
कि दीवारों के बेरंग निशान
इससे पहले कि
कोई रूप भरें
माँ बहन भाई की तस्वीर करें
मुल्क तक़्सीम करें
इससे पहलें कि उठें दीवारें
खून से माँग भरें तलवारें
यूँ गिरो टूट के बिस्तर पे अँधेरा खो जाए
जब खुले आँख सवेरा हो जाए
इतनी पी जाओ!

बेख़बरी

पड़ोसी के बच्चे को क्यों डाँटती हो
शरारत तो बच्चों का शेवा रहा है

बिचारी सुराही का क्या दोष इसमें
कभी ताजा पानी भी ठण्डा हुआ है

सहेली से बेकार नाराज़ हो तुम
दुपट्टे पे धब्बा तो कल का पड़ा है

रिसाले को झुँझला के क्यों फेंकती हो
बिना ध्यान के भी कोई पढ़ सका है

किसी जाने वाले को आख़िर ख़बर क्या
जहाँ लड़कियाँ होंठ कम खोलतीं हैं

परिन्दों की परवाज़ में डोलतीं हैं
महक बन के हर फूल में बोलतीं हैं

क़ौमी एकता

यह तवाइफ़
कई मर्दों को पहचानती है
शायद इसीलिए
दुनिया को ज़्यादा जानती है

-उसके कमरे में
हर मज़हब के भगवान की
एक-एक तस्वीर लटकी है
ये तस्वीरें
लीडरों की तक़रीरों की तरह नुमाइशी नहीं

उसका दरवाजा
रात गए तक
हिन्दू
मुस्लिम
सिख
इसाई
हर ज़ात के आदमी के लिए खुला रहता है।

ख़ुदा जाने
उसके कमरे की-सी कुशादगी
मस्ज़िद
और
मन्दिर के आँगनों में कब पैदा होगी!

एक ही ग़म

अगर कब्रिस्तान में
अलग-अलग
कत्बे न हों
तो हर कब्र में
एक ही ग़म सोया हुआ होता है

-किसी माँ का बेटा
किसी भाई की बहन
किसी आशिक की महबूबा

तुम-
किसी कब्र पर भी
फ़ातिहा पढ़ के चले आओ

एक बात

उसने
अपना पैर खुजाया
अँगूठी के नग को देखा
उठ कर
ख़ाली जग को देखा
चुटकी से एक तिनका तोड़ा
चारपाई का बान मरोड़ा

भरे-पुरे घर के आँगन
कभी-कभी वह बात!
जो लब तक
आते-आते खो जाती है
कितनी सुन्दर हो जाती है!

बस का सफ़र

मैं चाहता हूँ
यह चौकोर धूप का टुकड़ा
उलझ रहा है जो बालो में
इसको सुलझा दूँ
यह दाएँ बाजू पर
नन्ही-सी इक कली-सा निशान
जो अबकी बार दुपट्टा उड़े
तो सहला दूँ
खुली किताब को हाथों से छीनकर रख दूँ
ये फ़ाख़्ताओं से दो पाँव
गोद में भर लूँ

कभी-कभी तो सफ़र ऐसे रास आते हैं
ज़रा सी देर में दो घंटे बीत जाते हैं

एक मुलाकात

नीम तले दो जिस्म अजाने,
चम-चम बहता नदिया जल
उड़ी-उड़ी चेहरे की रंगत,
खुले-खुले ज़ुल्फ़ों के बल
दबी-दबी कुछ गीली साँसें,
झुके-झुके-से नयन-कँवल

नाम उसका? दो नीली आँखें
ज़ात उसकी? रस्ते की रात
मज़हब उसका? भीगा मौसिम
पता? बहारों की बरसात!

भोर

गूँज रही हैं
चंचल चकियाँ
नाच रहे हैं सूप
आँगन-आँगन
छम-छम छम-छम
घँघट काढ़े रूप

हौले-हौले
बछिया का मुँह चाट रही है गाय
धीमे-धीमे
जाग रही है
आड़ी-तिरछी धूप!

सर्दी

कुहरे की झीनी चादर में
यौवन रूप छिपाए
चौपालों पर
मुस्कानों की आग उड़ाती जाए

गाजर तोड़े
मूली नोचे
पके टमाटर खाए
गोदी में इक भेड़ का बच्चा
आँचल में कुछ सेब
धूप सखी की उँगली पकड़े
इधर-उधर मँडराए

पहला पानी

छन-छन करती टीन की चादर
सन-सन बजते पात
पिंजरे का तोता
दोहराता
रटी-रटाई बात

मुट्ठी में दो जामुन
मुँह में
एक चमकती सीटी
आँगन में चक्कर खाती है
छोटी-सी बरसात!

मोरनाच

देखते-देखते
उसके चारों तरफ
सात रंगों का रेशम बिखरने लगा

धीमे-धीमे कई खिड़कियाँ सी खुलीं
फड़फड़ाती हुई फ़ाख़्ताएँ उड़ीं
बदलियाँ छा गईं

बिजलियों की लकीरें चमकने लगीं
सारी बंजर ज़मीनें हरी हो गईं

नाचते-नाचते
मोर की आँख से
पहला आँसू गिरा
खूबसूरत सजीले परों की धनक
टूटकर टुकड़ा-टुकड़ा बिखरने लगी
फिर फ़ज़ाओं से जंगल बरसने लगा
देखते-देखते

एक दिन

सूरज एक नटखट बालक सा
दिन भर शोर मचाए
इधर उधर चिड़ियों को बिखेरे
किरणों को छितराये
कलम, दरांती, बुरुश, हथोड़ा
जगह जगह फैलाये
शाम
थकी हारी मां जैसी
एक दिया मलकाए
धीरे धीरे सारी
बिखरी चीजें चुनती जाये।

पैदाइश

बन्द कमरा
छटपटाता घुप अँधेरा
और
दीवारों से टकराता हुआ
मैं...!
मुन्तज़िर हूँ मुद्दतों से
अपनी पैदाइश के दिन का
अपनी माँ के पेट से
निकला हूँ जब से
मैं
खुद अपने पेट के अन्दर पड़ा हूँ!

फुरसत

मैं नहीं समझ पाया आज तक इस उलझन को
खून में हरारत थी, या तेरी मोहब्बत थी
क़ैस हो कि लैला हो, हीर हो कि राँझा हो
बात सिर्फ़ इतनी है, आदमी को फुरसत थी

सलीक़ा

देवता है कोई हम में
न फरिश्ता कोई
छू के मत देखना
हर रंग उतर जाता है
मिलने-जुलने का सलीक़ा है ज़रूरी वर्ना
आदमी चंद मुलाक़ातों में मर जाता है

सहर

सुनहरी धूप की कलियाँ खिलाती
घनी शाखों में चिड़ियों को जगाती
हवाओं के दुपट्टे को उड़ाती

ज़रा-सा चाँद माथे पर उगा के
रसीले नैन कागज से सजाके
चमेली की कली बालों में टाँके

सड़क पर नन्हे-नन्हे पाँव धरती
मज़ा ले-ले के बिस्कुट को कुतरती

सहर मक़तब में पढ़ने जा रही है
धुँदलकों से झगड़ने जा रही है

दोपहर

जिस्म लाग़र, थका-थका चेहरा
हर तबस्सुम पे दर्द का पहरा

हिप्स पर पूरी बेंत की जाली
जेब में गोल मेज़ की ताली
हाथ पर रोशनाई की लाली

उड़ती चीलों का झुण्ड तकती हुई
तपते सूरज से सर को ढँकती हुई
कुछ न कुछ मुँह ही मुँह में बकती हुई

खुश्क आँखों पर पानी छपका कर
पीले हाथी का ठूँठ सुलगा कर

दोपहर चाय पीने बैठी है
चाक दामन के सीने बैठी है

म्यूज़ियम

सलाखें ही सलाखें
अनगिनत छोटे-बड़े ख़ाने
हर इक ख़ाना नया चेहरा
हर इक चेहरा नई बोली
कबूतर
लोमड़ी
तितली
हिरण, पत्थर, किरण, नागिन

क्भी कुछ रंग सा झमके
कभी शोले-सा बल खाये
कभी जंगल, कभी बस्ती, कभी दरिया सा लहराए
सिमटते, फैलते, फुँकारते, उड़ते हुए साए

न जाने कौन है वह
चलता-फिरता म्यूज़ियम जैसा
शबाहत से तो कोई आदमी मालूम होता है

नक़ाबें

नीली, पीली, हरी, गुलाबी
मैंने सब रंगीन नक़ाबें
अपनी ज़ेबों में भर ली हैं
अब मेरा चेहरा नंगा है
बिल्कुल नंगा
अब!
मेरे साथी ही
पग-पग
मुझ पर
पत्थर फेंक रहे हैं
शायद वह
मेरे चेहरे में अपने चेहरे देख रहे हैं

संसार

फैलती धरती
खुला आकाश था
मैं...
चाँद, सूरज, कहकशाँ, कोह्सार, बादल
लहलहाती वादियाँ, सुनसान जंगल
मैं ही मैं
फैला हुआ था हर दिशा में
जैसे-जैसे
आगे बढ़ता जा रहा हूँ
टूटता, मुड़ता, सिकुड़ता जा रहा हूँ
कल
ज़मीं से आस्माँ तक
मैं ही मैं था
आज
इक छोटा-सा कमरा बन गया हूँ

जंग

सरहदों पर फ़तह का ऐलान हो जाने के बाद
जंग!
बे-घर बे-सहारा
सर्द ख़ामोशी की आँधी में बिखर के
ज़र्रा-ज़र्रा फैलती है
तेल
घी
आटा
खनकती चूड़ियों का रूप भर के
बस्ती-बस्ती डोलती है

दिन-दहाड़े
हर गली-कूचे में घुसकर
बंद दरवाजों की साँकल खोलती है
मुद्दतों तक
जंग!
घर-घर बोलती है
सरहदों पर फ़तह का ऐलान हो जाने के बाद

कितने दिन बाद

कितने दिन बाद मिले हो
चलो इस शहर से दूर
किसी जंगल के किनारे
किसी झरने के क़रीब
टूटते पानी को पीकर देखें
भागते-दौड़ते लम्हों से चुरा कर कुछ वक़्त
सिर्फ़ अपने लिए जी कर देखें
कोई देखे न हमें
कोई न सुनने पाए
तुम जो भी चाहे कहो
मैं भी बिला ख़ौफ़ो-ख़तर
उन सभी लोगों की तनक़ीद करूँ
जिन से मिलकर मुझे हर रोज़ खुशी होती है

रुख़्सत होते वक़्त

रुख़्सत होते वक़्त
उसने कुछ नहीं कहा
लेकिन एयरपोर्ट पर
अटैची खोलते हुए
मैंने देखा
मेरे कपड़ों के नीचे
उसने
अपने दोनों बच्चों की तस्वीर छुपा दी है
तअज्जुब है
छोटी बहन होकर भी
उसने मुझे माँ की तरह दुआ दी है।

जब भी घर से बाहर जाओ

जब भी घर से बाहर जाओ
तो कोशिश करो...जल्दी लौट आओ
जो कई दिन घर से ग़ायब रहकर
वापस आता है
वह ज़िन्दगी भर पछताता है
घर... अपनी जगह छोड़ कर चला जाता है।

आत्मकथा

किसी को टूट के चाहा, किसी से खिंच के रहे
दुखों की राहतें झेलीं, खुशी के दर्द सहे
कभी बगूला से भटके
कभी नदीं से बहे
कहीं अँधेरा, कहीं रोशनी, कहीं साया
तरह-तरह के फ़रेबों का जाल फैलाया
पहाड़ सख्त था, वर्षों में रेत हो पाया।

चौथा आदमी

बैठे-बैठे यूँ ही क़लम लेकर
मैंने काग़ज़ के एक कोने पर
अपनी माँ
अपने बाप... के दो नाम
एक घेरा बना के काट दिए
और
उस गोल दायरे के क़रीब
अपना छोटा नाम टाँक दिया
मेरे उठते ही मेरे बच्चे ने
पूरे काग़ज़ को ले के फाड़ दिया।

मुहब्बत

पहले वह रंग थी
फिर रूप बनी
रूप से ज़िस्म में तबदील हुई
और फिर ज़िस्म से बिस्तर बन कर
घर के कोने में लगी रहती है
जिसको...
कमरे में घुटा सन्नाटा
वक़्त-बेवक़्त उठा लेता है
खोल लेता है, बिछा लेता है।

हैरत है

घास पर खेलता है इक बच्चा
पास माँ बैठी मुस्कुराती है
मुझ को हैरत है जाने क्यों दुनिया
काब-ओ-सोमनाथ जाती है।

खुदा ख़ामोश है

बहुत से काम हैं
लिपटी हुई धरती को फैला दें
दरख़्तों को उगाएँ, डालियों पर फूल महका दें
पहाड़ों को क़रीने से लगाएँ
चाँद लटकाएँ
ख़लाओं के सरों पे नीलगूँ आकाश फैलाएँ
सितारों को करें रौशन
हवाओं को गति दे दें
फुदकते पत्थरों को पंख देकर नग़्मगी दे दें
लबों को मुस्कुराहट
अँखड़ियों को रोशनी दे दें
सड़क पे डोलती परछाइयों को ज़िन्दगी दे दें
खुदा ख़ामोश है,
तुम आओ तो तख़लीक़ हो दुनिया
मैं इतने सारे कामों को अकेले कर नहीं सकता

लफ्ज़ों का पुल

मस्ज़िद का गुम्बद सूना है
मन्दिर की घण्टी ख़ामोश
जुज़दानों में लिपटे सारे आदर्शों को
दीमक कब की चाट चुकी है
रंग गुलाबी
नीले
पीले
कहीं नहीं हैं
तुम उस जानिब
मैं इस जानिब
बीच में मीलों गहरा ग़ार
लफ्ज़ों का पुल टूट चुका है
तुम भी तन्हा
मैं भी तन्हा।

जो हुआ वो हुआ किसलिए

जो हुआ वो हुआ किसलिए
हो गया तो गिला किसलिए

काम तो हैं ज़मीं पर बहुत
आसमाँ पर खुदा किसलिए

एक ही थी सुकूँ की जगह
घर में ये आइना किसलिए

दर्द पुराना है

मेरे तेरे नाम नये हैं, दर्द पुराना है
यह दर्द पुराना है

आँसू हर युग का अपराधी
हर आँगन का चोर
कोई न थामे दामन इसका
घूमे चारों ओर
गुम-सुम हैं संसार-कचहरी, चुप-चुप थाना है
यह दर्द पुराना है

जो जी चाहे वह हो जाए
कब ऐसा होता है
हर जीवन जीवन जीने का
समझौता होता है
जैसे-तैसे दिन करना है, रात बिताना है
यह दर्द पुराना है

जब वह आते हैं

सुन रे पीपल! तेरे पत्ते शोर मचाते हैं
जब वह आते हैं
पहला-पहला प्यार हमारा, हम डर जाते हैं

तेरी बाँहों में झूमी पुरवाई
मैं कब बोली
जब जब बरखा आई तूने खेली
आँख-मिचौली
ऐसी-वैसी बातों को कब मुख पर लाते हैं
सुन रे पीपल! तेरे पत्ते शोर मचाते हैं
जब वह आते हैं

निर्धन के घर में पैदा होना है
जीवन खोना
सूनी माँग सजाने वाले माँगें
चाँदी-सोना
हमसाए ही हमसायों के राज़ छिपाते हैं
सुन रे पीपल! तेरे पत्ते शोर मचाते हैं
जब वह आते हैं

तुझ बिन मुझको

तुझ बिन मुझको
कैसे-कैसे छेडे काली रात

कुटिया पीछे चूड़ी खनकी
दो आवाज़ें साथ
जामुन पर
छम से आ बैठी
कोई पुरानी बात
सूने आँगन “कौन बताओ”
रेशम-रेशम हाथ

नील गगन
बादल के टुकड़े
क्या-क्या रूप बनाएँ
उड़ता आँचल
खुलता जूड़ा
लोरी गाती बाँहें
जलता चूल्हा, भरी कढ़ाई
कनी सजी बरसात

कोई नहीं है आने वाला

कोई नहीं है आने वाला
फिर भी कोई आने को है
आते-जाते रात और दिन में
कुछ तो जी बहलाने को है

चलो यहाँ से, अपनी-अपनी
शाखों पर लौट आए परिन्दे
भूली-बिसरी यादों को फिर
ख़ामोशी दोहराने को है

दो दरवाजे, एक हवेली
आमद, रुख़सत एक पहेली
कोई जाकर आने को है
कोई आकर जाने को है

दिन भर का हंगामा सारा
शाम ढले फिर बिस्तर प्यारा
मेरा रस्ता हो या तेरा
हर रस्ता घर जाने को है

आबादी का शोर शराबा
छोड़ के ढूँढो कोई ख़राबा
तन्हाई फिर शम्मा जला कर
कोई लफ़्जा सुनाने को है

बहुत मैला है ये सूरज

बहुत मैला है ये सूरज
किसी दरिया के पानी में
उसे धोकर सजाएँ फिर

गगन में चाँद भी
कुछ धुँधला-धुँधला है
मिटा के इस के सारे दाग-धब्बे
जगमगाएँ फिर

हवाएं सो रहीं हैं पर्वतों पर
पाँव फैलाए
जगा के इन को नीचे लाएँ
पेड़ों में बसाएँ फिर

धमाके कच्ची नींदों में
उड़ा देते हैं बच्चों को
धमाके खत्म कर के
लोरियों को गुनगुनाएँ फिर

वो जबसे आई है
यूँ लग रहा है
अपनी ये दुनिया
जो सदियों की अमानत है
जो हम सब की विरासत है
पुरानी हो चुकी है
इसमें अब
थोड़ी मरम्मत की ज़रूरत है

(अपनी बेटी तहरीर के जन्म-दिन पर)

रस्ते में नोकीली घाम

झुके हुए कन्धों पे साँसों की गठरी
रस्ते में नोकीली घाम

चाय के प्यालों में माथे की शिकनें
सिमटी हुई कुर्सियाँ
सरहद, सिपाही, गेंहूँ, कबूतर
अख़बार की सुर्खियाँ
सिगरेट की डिबिया में बन्दी सवेरा
लोकल के डिब्बों में शाम

लड़ता-झगड़ता कोई किसी से
बेबात कोई हँसे
सागर किनारे लहरों पर कोई
कंकर से हमला करे
लम्बी सी रस्सी पे कपड़े ही कपड़े
कपड़ों के कोनों में नाम

झुके हुए कन्धों पे साँसों की गठरी
रस्ते में नोकीली घाम

जीवन शोर भरा सन्नाटा

जीवन शोर भरा सन्नाटा
ज़ंजीरों की लंबाई तक सारा सैर-सपाटा
जीवन शोर भरा सन्नाटा

हर मुट्ठी में उलझा रेशम
डोरे भीतर डोरा
बाहर सौ गाँठों के ताले
अंदर कागज़ कोरा
कागज़, शीशा, परचम, तारा
हर सौदे में घाटा
जीवन शोर भरा सन्नाटा

चारों ओर चटानें घायल
बीच में काली रात
रात के मुँह में सूरज
सूरज में कैदी सब हाथ
नंगे पैर अक़ीदे सारे
पग-पग लागे काँटा
जीवन शोर भरा सन्नाटा

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