हरियाणवी कविता : शंकरदास

Haryanvi Poetry : Shankardas


धन जोबन और काया नगर की

धन जोबन और काया नगर की, कोई मत करो रे मरोर ॥टेक॥ क्यूँ चले से आंगा पांगा, चिता बिच तने धर देंगे नंगा, एक अग्नि का लेके पतंगा, तेरे फिर जाएंगे चारो ओर, ॥ धन जोबन और काया..॥ सिराणे खड़ी तेरी माई रोवे, भुजा पकड़ तेरा भाई रोवे, पायाँ खड़ी रे तेरी ब्याहि रे रोवे, जिसने ल्याया बाँध के मोल, ॥ धन जोबन और काया..॥ पांच साथ तेरे चलेंगे साथ में, गोसा पुला लेके हाथ में, इक पिंजरी का ले बांस हाथ में , तेरे देंगे सर में फोड़, ॥ धन जोबन और काया..॥ शंकर दास ब्राम्हण गावे, सब गुणियों को शीश झुकावे, अपणा गाम जो खोली बतावे, वो तो गया रे मुलाजा तोड़, धन जोबन और काया नगर की, कोई मत करो रे मरोर ॥

लालों में लाल गोपाल हैं

लालों में लाल गोपाल हैं, और सब नकली लाली है ॥टेक॥ जिस पर दया सदगुरु करते हैं, जन्म मरण का दुख हरते हैं , गुरु पद जो चित्त में धरते हैं, सदा सेवक की प्रतिपाल है, और सब नकली प्रतिपाली है ॥१॥ हीरे लाल पन्ने नग मोती, नीलम हकीक पुखराज में ज्योति, पारसमणी जिनके पास होती, बेगम के ,नही कुछ ख्याल है, और सब नकली ख्याली है ॥२॥ रत्नों का है तुच्छ खजाना, सतगुरु करते आप समाना, यह मतलब जिसने पहचाना, बस वो ही मालामाल है, और सब नकली माली है ॥३॥ सदगुरु के गुण पाय सकूं ना, एक रसना से गाय सकूं ना, जहां सतगुरु वहां जाय सकूं ना, 'शंकर' गुरु बिन कंगाल है, और सब नकली खुशहाली है ॥४॥ मुक्ति प्रकाश भाग ४ से

रख सदाभाव भगवान में

रख सदाभाव भगवान में, ना बुरा किसी का चहिऐ ॥टेक॥ माल पराया मत ललचाओ। मेहनत करके खूब कमाओ। चोरी करके कुछ ना लाओ। लिखा है वेद पुराण में मेहनत की रोटी खईये ॥ दिल में वैर कदे ना पालो। प्रेम प्यार नै गलें लगा लो। अहंकार नै बाहर निकालो। दया धरम की जान है, ना कमतर नै कदै सतईये ॥ धन दौलत तो आना जाना। कष्ट देख के मत घबराना। नेक राह से ना डिग जाना। पाल धरम ईमान नै, सच्चे का साथ निबईये ॥ 'शंकरदास' हरिनाम सुमरले। सोहम भाव जिगर मे धर ले। चंचलता काबू में कर ले। इस असली इम्त्यान में, 'योगी' फस्ट डवीजन लईये ॥

हिन्दी दिवस है आज

हिन्दी दिवस है आज ॥ क्यूं आती नही लाज॥ श्रद्धा सुमन चढाये क्या? प्रशंसा गीत बधाये क्या? शुभ संदेश भिजवाए क्या? खुशी हुआ सकल समाज ॥ हिन्दी दिवस है आज ॥ एक दिन की बची हिन्दी! कहीं हलन्त कहीं बिन्दी! बेढंगी मात्राएं चिन्दी! घणे घने हिन्दी के साज॥ हिन्दी दिवस है आज ॥ जो नित्य हिन्दी दिवस मनाते! हाय हैलो कैसे गाते! लव यू लव यू में भी शर्माते ! बदले गये हैं सबके मिजाज ॥ हिन्दी दिवस है आज ॥ खोल रहें हैं सारें राज ! हिन्दी में ना बनते काज! बस एक दिन का लिहाज। वरना हो जाते नाराज ॥ हिन्दी दिवस है आज ॥ सेढूसिंह हापुड का वास। लक्ष्मण सिंह गांव मऊखास। गोपाल गुरु, सिख शंकरदास। "योगी" इन पर करता नाज ॥ हिन्दी दिवस है आज ॥ हिन्दी दिवस है आज ॥ क्यूं आती नही लाज॥

ना थारा कोई रूप रंग सै

ना थारा कोई रूप रंग सै, ना थारा सै आकार प्रभो। निराकार निर्गुण होकै बी, लेते हो औतार प्रभो॥टेक॥ चौदह भुवन खगोल रचे, सूरज चन्दा परकाश रचे। तारे विस्तारे तीन लोक, धरती पत्ताल अकाश रचे ॥ नदी तलाव झील समंदर भरे अथाह जलराश रचे। जीवजंतु औषध बानस्पत सबमें गुण कुछ खास रचे॥ रचने वाले रचते हो तुम ब्रह्मा बनकै संसार प्रभो॥ निराकार निर्गुण होकै बी लेते हो औतार प्रभो ॥ के खाकै जीवै वा कीडा जो पत्थर के बीच पडा। कहीं बर्फ पडा, कहीं रेत पडा, कहीं धांसण ढेरो कींच पडा॥ कोई पेड पै, कोई पहाड पै, कोई समंदर बीच खडा। बच्चा पाच्छै पैदा पावै, पहले मां छाती छीर पडा॥ सबनै पाल्लै वा विष्णु रूप में दे सबको आहार प्रभो॥ निराकार निर्गुण होकै बी लेते हो औतार प्रभो ॥ नेम बणाऐ, प्रेम बणाऐ, बणा करम धरम की रीत देई। आजादी पाबन्दी मरजादा की पक्की खींच लकीर देई॥ हर प्राणी का लेक्खा जोखा, सबका खाता लिखै बही। जो आया सै, जाना पडैगा, सदा सदा ना बसै कोई ॥ शिव उद्धारक महाकाल बनकै करते संहार प्रभो ॥ निराकार निर्गुण होकै बी लेते हो औतार प्रभो ॥ भगत वही जो नेम धरम पै कैडा पड कै अडा रहे। करम मिला जो उसे करे जा, हरि सेवा मे खडा रहे॥ चाहे मुसीबत भारी हो,ना डिगे एकजू पडा रहे। "शंकरदास" भगत की खातिर राम का पहरा कडा रहे॥ राम राम रटता"योगी", बस एक आप सरकार प्रभो ॥ निराकार निर्गुण होकै बी लेते हो औतार प्रभो ॥

अष्टांग योग साधन कठि

अष्टांग योग साधन कठिन, जान सके ना कोय। योगी योगी सब कहैं, योगी मुश्किल होय॥ ॥टेक॥ योगी मुश्किल होय प्रथम यह, शिवजी ने किया पूरण ध्यान। कुम्भक रेचक खेचरी मुद्रा, सातों क्रियाओं की थी उन्हें जान॥ नेति धोती गणेश ब्रह्म दांतवन की थी पहचान। प्राण अपान व्यान समान, खींच मिलावे तब उद्यान ॥ शुन्य शिखर में लगे समाधि, मृत्यु हो उनसे भयमान। अचल रहे चाहे देह त्याग दे, तीन काल के है उनको ज्ञान॥ पंच कोष के वह ज्ञाता हैं, अजपा मंत्र सब में प्रधान। 'शंकर' कहै कौन है योगी, कलयुग के मुंडिया शैतान ॥

राम गुण गाणै आला

राम गुण गाणै आला, रामबोला हुलसी लाल॥ रामचरितमानस आला, भाषा के म्हं लिक्खै हाल॥ राम खजाना खोलकै ताळा, भग्तां खात्तर देगया माल ॥ भव बंधण का तोड निकाला,सुगम बनाया दुर्गम जाल ॥ राम भजन तैं होज्या चाल्या, राम भजे तै सुधरैं हाल॥ कठिन रास्ता "शंकर"आला, "योगी" चल तू सीधी चाल॥ राम लेख ना मिटने आला, राम जानता सारे हाल ॥

राम भजेजा, भजन करेजा

राम भजेजा, भजन करेजा, के बेरा के होजा पल मैं ॥टेक॥ मुरदें फूक्कै था सतवादी, रानी भी गिरवी रखवा दी, राजकंवर नै नागिन डस गी, कर के बदले फाड लगा दी, रानी के आंचल मैं॥ के बेरा के हो जा पल मैं॥ घर घर बज रहा गाज्या बाज्या, खुशी मना रह्या बुढ्ढा राजा, दीप जले, मनगी दीवाली, रामतिलक की बातें चाली, जाना पडग्या था जंगल मैं॥ के बेरा के होजा पल मैं ॥ भीमबलीं अर्जुन पै नाज था, सब राजों पै उसका राज था, पछतावैं वो धरमराज था, होत्ती नंगी नार झांकता, दिख्खा अगल बगल मैं॥ के बेरा के होजा पल मैं ॥ "शंकर" कदम संभल कै धर लें, जो है बस में आज ही कर लें, "योगी" प्रभु का नाम सुमरलें, बखत हाथ से निकलाजा रह्या, कल आज और कल मैं॥ के बेरा के होजा पल मैं ॥

जग्दम्नि के परशुराम हुऐ

जग्दम्नि के परशुराम हुऐ, दुष्टों पै फरसा तान दिया। साधौं पुरूषों की खात्तर, श्रीहरि ने छठवां औतार लिया ॥टेक॥ हिंसक, मद से भरे हुऐ, लोभी, कामी, अत्याचारी मारे। राजा होकै प्रजा पै जिस जिसने भी अत्याचार किया। हजार भुजा वाला एक पापी कार्तवीर्य अर्जुन भारी। ठूंठ बचा क्यूं कर, जब पेड का, एक एक डाला काट दिया। अधर्म मेट कै, राज धर्म का, लाने की, जब औतारी नै ठानी। इक्कीस बेर धरती जीती, हर बेर राज का दान किया॥ शिव धनुष खंड का शोर हुआ, तपलोक दियें संशय टाला। श्रीराम रूप में विष्णुजी ने जब रघुकुल में औतार लिया॥ "शंकरदास" जिठौली वाले,मां शारद जिनपै जमकै बरसी। "योगी" ने यूं जयगाथा लिखकै, प्रभु परशराम प्रणाम किया॥

जिसने कुछ अमल किया ना

जिसने कुछ अमल किया ना, सब पढी पढाई धूल है ॥टेक॥ रावण हुआ सभी से बढके, ४ वेद ६ शास्त्र पढ के। फिर भी ले गया सीता हडके, करनी सभी फिजूल है॥ जली लंका रही सिया ना॥ १॥ पढ लिखकर भी चले बदी पै, मानो दफ्तर लधा गधी पै। दफ्तर भूली गयी नदी पै, यह क्या कीन्ही भूल है॥ बडी, नदी में नीर पिया ना॥ २॥ पढते बहुत अमल नही करते, बिन विचार सिर पातक धरते। कुकर्म करें जरा नही डरते, समझो यही असूल है॥ विष अमृत छान पिया ना॥ ३॥ रतन असल के झलके जौती, जैसे धूप तिमिर को खोती। शंकर का मन निर्मल मोती, बिन अमल ढाक का फूल है॥ सूंघन को करे जिया ना॥ ४॥

गांठ लगा कसकै पल्ले मै

गांठ लगा कसकै पल्ले मै। बखत निकलजा फेर पछतावै, पडा हुवा उलझन मै ॥टेक॥ बुरा मैल जब मन म आवै। देर भली है समय बितादै जाकै सत संगत मै॥ राम भजेजा भजन करेजा । बुरे कर्म म टालमटौला सहारा देजा, अच्छे फल मै। शुभकरमों म लगन लगावै। 'शंकर' कर काब्बू बुद्धि मन, लछ्छ साधना रखो अक्ल मै॥

मंगल की हे मां मूल भवानी

मंगल की हे मां मूल भवानी, शरण तिहारी आया है॥टेक॥ मैय्या है तु बिरमा की पुतरी ले कै ज्ञान सुरग से उतरी, तेरी कथा कहूं मां सुथरी,परथम मनाया है। हार गूँथ ले आया माली मन में दीपक जौत जलाली जय काली कलकत्ते वाली हौं ध्यान लगाया है। हाथ लिए खांडहा दुधारा मैय्या ने दुष्टों को मारा धरती का सब भार उतारा,मां तेरी छत्तरछाया है। कहै शंकर जिठौली वाला हरदम रटे गुरां की माला हौं खोल मेरे हिरदय का ताला, विद्या वर पाया है।

मनै भर लिया भेष फकीर का

मनै भर लिया भेष फकीर का, क्या आभूषण धारूंगा॥टेक॥ विधि लिखी सब सत्य हो जाती, अब भैया नहि पार बसाती मेरी एही समझ में आती, लिया भोगूंगा तकदीर का, अब क्या भगवे तारूँगा। बांधी भगवा आज लंगोटी, सिर मुंडवाय कटा ली चोटी घर-घर होय मांगनी रोटी, पूजन करूं कृष्ण तस्वीर का, इस मनुवा को मारूंगा। मुझको मत भैया समझाना, अब धारा सन्तों का बाना ‘शंकर’ कहे अब लगा निशाना, ब्रह्म ज्ञान के तीर का, अब सब दुविधा बारूँगा। मनै भर लिया भेष फकीर का, क्या आभूषण धारूंगा॥

श्री राम नाम की खेती

श्री राम नाम की खेती, हमने अभी के बोई है। हिम्मत का हल बँधवाया है, प्रीत का पाथा चढ़वाया है॥टेक॥ कान्ति की कात दई जड़वाय, करतब का दिया करवा गढ़वाय, क्षमा की फाली दई बनाय, नेह की नाड़ी लई मँगवाय रहम की रस्सी दुजोई है, सब मत के बैल दो सेती, श्री राम नाम की खेती । मोक्ष फल लगे अमर हरियाली, जिसमें बीज मूल न डाली समता रहे जहाँ रखवाली, कथना शंकरदास निराली इसका तो महरम कोई है, सुमति-निवृत्ति चेती । श्री राम नाम की खेती हमने अभी के बोई है।

सैरा करले दसों द्वार का

सैरा करले दसों द्वार का, दिल रोक अटल बंगले में॥टेक॥ तू न किसी का, ना कोई तेरा, सुपन समान समझ ये डेरा चिड़िया कैसा रैन बसेरा, ये जीवन दिन चार का जैसे रोशनाई बंगले में । मन स्थिर कर शोध पीव को, जद सुख उपजै तरे जीव को जैसे पैर से मथे घीव को, तज दे छाछ विकार का क्यों भरमै तू बंगले में ।

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