घर-आँगन : राजगोपाल

Ghar-Aangan : Rajagopal


कुछ अनकही कहने यह मन कितना है आतुर हँसता-रोता कितने दिनों से बावला हुआ है उर छू जाता है मन बिसुरा प्रणय नित हवा मे हुआ सवार सुबह मुस्कुराती तुम लौट आना घर-आँगन इस बार बरसों पहले स्वप्नों ने मुझको जी भर कर लूटा तुम्हें पा कर भी बार-बार प्रणय का मोह न छूटा छल गया सुख मुझे हाय! मेरे ही नीड़ के उस पार प्रणय लिये तुम लौट आना घर-आँगन इस बार अधिवास की शून्यता मे लगता है पल-पल नीरव बंद आँखों मे स्पर्श भी देती है जड़ता का अनुभव स्मृतियाँ बांधे पड़ा है जीवन किसी कोने भाग्य पसार मृदुभाव लिये तुम लौट आना घर-आँगन इस बार आँखों मे गीले बादल लिये स्मृतियों के रजकण बरसते हैं अँधियारे, भिगो कर जीवन के बीते क्षण क्या समझ सकेगा निर्मोही इस प्रणय-प्रभंजन का विस्तार दामिनी सी तुम लौट आना घर-आँगन इस बार जीवन की नंगी डालियों पर हमने बनाया है नीड़ सघन धूप लिये पीठ पर छांव मे भी बहुत सहा है तेज तपन किसने समझा जी कर जगती मे, क्या है सुख का सार रात की चाँदनी बन तुम लौट आना घर-आँगन इस बार चढ़े बरस जब जीवन मे, क्या सारे रतिबंध टूट गये? न ढंको प्रणय ऐसे, फिर न मिलेंगे क्षण जो छूट गये खो गया है मन का संसर्ग, हो सके तो देना कुछ उधार कामिनी सी रमणी तुम लौट आना घर-आँगन इस बार आज सन्नाटे मे उभरे उर के छाले, कल घाव बनेंगे अब सुख कैसा है, जिस देहरी पर विकृत पाँव धरेंगे स्त्रावित होती है जब पीड़ा, सुख का कैसा है मनुहार संजीवनी बन तुम लौट आना घर-आँगन इस बार पग बिछुड़े उजियाले, इन आँखों मे अब विश्व कैसा मन मरा यहाँ, तन जिया निहंग जगती मे विक्षुब्ध जैसा भस्म छान कर प्रणय का हाय! अब किसे रहा है पुकार यक्षिणी बन तुम लौट आना घर-आँगन इस बार रातों मे कभी यह निर्लज्ज पलक नहीं लग पायी स्वप्नों मे जीवंत पल-पल पास आती है वह परछायी उसका अनछुआ आभास नित भिगो जाता है अंधकार ज्योति जगाती तुम लौट आना घर-आँगन इस बार दिन जैसा भी हो जग प्रणय पसारे हर रात सोया है यहाँ अकेले ही स्मृतियाँ बांधे छोटा सा उर खोया है सिसकता है कोने मे कोई अपनी पृथा पर लिये अंगार हिमकण बिखराती तुम लौट आना घर-आँगन इस बार नहीं थके हैं नयन अभी दीप कुछ और देर जलने दो सच तो इतिहास ले गया आज वर्तमान को छलने दो बँटी जब सीमायें देहरी लांघ अब किस से है प्रतिकार बीती बिसार तुम लौट आना घर-आँगन इस बार बूढ़ा बरगद भी पत्ते खो कर आज हुआ है शिशिर मे शव हँसता सुमन भी आज करता है जग मे जड़ता का अनुभव मुरब्बा नहीं, डलता है जीवन मे टूटी आशाओं का आचार मधु सी मिठास लिये तुम लौट आना घर-आँगन इस बार यदि होता तो समय लांघ उसके आँचल मे छिप जाता फिर आंखे मूँदे ही प्रणय बाँचता कभी न जाग पाता मर कर तो गगन मिलता है पर टूटती नहीं है दरकी दीवार नव-प्राण लिये तुम लौट आना घर-आँगन इस बार तुमसे आती बयार रख जाती है गालों पर स्नेह-चुंबन कभी पोंछ जाती है आँखों मे किरकिराते गीले रजकण परित्यक्त प्रणय की आँधी मे घिरा है मेरा यह संसार स्वीकारती संबंध तुम लौट आना घर-आँगन इस बार कहने को जगती मे आतुर यह मन गाथा जीवन की किन्तु कौन विकल यहाँ सुनने इस विकृत मन की अपनी पीड़ा-अपनी बात, बधिर हुआ जगती मे गुहार सुन-समझ कर तुम लौट आना घर-आँगन इस बार न गूँजते कटु शब्द न ही मन मे उल्टे भाव आते न ही पग भटकते, न बाँट जोहते नित अश्रु बहाते मन तो जड़ हुआ सन्नाटे मे अब किस का है अभिसार उषा-किरण सी तुम लौट आना घर-आँगन इस बार मन बोले निर्भीक जब सारा जग है तुम से आँखें मींचे रोता-चीखता है टपकती आंसुओं से अपना भाग्य खींचे भुला कर उसकी माया किसी चोटी पर कर ले काल-विचार उसे देखने प्रज्ञा से पूरित तुम लौट आना घर-आँगन इस बार प्रायः हँसता मन आंसुओं से यह कहा करता है हँस ले बीते बरसों का रंगमहल तो ढहा करता है क्यों प्रणय पुकारता उसी द्वार भटकता है बार-बार इतिहास संग तुम लौट आना घर-आँगन इस बार इतना चिल्लाया दुख मे हाय! नभ से भी नीर बहा है किसे पता है इस एकाकी मन ने क्या कुछ नहीं सहा है हर रात जली अंगीठी आशाओं की, उड़ा धुआँ सा प्यार पुनर्नवा बन कर तुम लौट आना घर-आँगन इस बार डरता है मन न जाने कब लुप्त हो जायेगा प्रणय बेचारा मांग लो थोड़ा जीवन उधार, देखो कहीं टूट रहा है तारा छल ही सही मुस्कुरा लो आज तोड़ कर सारे अहंकार स्नेह लिये उर मे तुम लौट आना घर-आँगन इस बार लगता है कभी हर लेगा हलाहल जीवन का कारा मिट जाएगा कल प्रणय-परिणय का अंतर्द्वंद सारा संग रह लें आज बंधे, सुख नहीं है खड़ा किसी कतार रतिमय रूप लिये तुम लौट आना घर-आँगन इस बार एक प्राण है एक प्रणय है, उस मे डूबा है विश्व सारा दो नहीं चार नयनों से जी लेंगे जीवन का शेष हमारा धन-वैभव देकर प्रबु तुमने क्यों छीन लिया अधिकार जब मन कहे तो तुम लौट आना घर-आँगन इस बार बंजर तृष्णा को कब तक इन आंसुओं से सींचे जगती की भीड़ मे कब तक बैठें झूठे आँखें मींचे नहीं मिली कोई मुस्कान जो भेद जाती इस उर के पार कभी कामायनी सी तुम लौट आना घर-आँगन इस बार आज क्यों भटक गया है मन सारी स्मृतियाँ भर कर उधार लिये उजियाला किसे ढूँढता है बाहर पथ पर अंधी हुई दीवाली पर उधर विश्व किसे रहा है निहार दीप जलाती तुम लौट आना घर-आँगन इस बार अंतिम विनती है प्रभु! देना शेष पलों मे थोड़ा सा सुख आँखों मे दिखला देना कभी प्रणय मे लिपटा निज मुख कर देना अवसान से पहले इस जीवन मे यह उपकार मेरी नंदिनी भाग्य लिये तुम लौट आना घर-आँगन इस बार

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