डॉ. सत्यव्रत शास्त्री का व्यक्तित्व एवं कृतित्व : प्रणव पाण्डेय

डॉ. सत्यव्रत शास्त्री का जन्म 29 सितम्बर सन् 1930 ई. में 'होशियारपुर' जनपद' के अहियापुर नामक ग्राम में हुआ। संस्कृत के विश्वविश्रुत विद्वान 'अभिनव पाणिनि' डॉ. चारुदेव शास्त्री को डॉ. सत्यव्रत शास्त्री का पिता होने का गौरव प्राप्त है। डॉ. सत्यव्रत शास्त्री का अध्ययन संस्कृत की परम्परागत तथा आधुनिक इन दोनों पद्धतियों से हुआ। अपने पिताश्री से प्रारिम्भक शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् वे वाराणसी चले गये, जहाँ उन्हें बीसवीं शताब्दी की महान् विभूतियों से शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिला। पंजाब विश्वविद्यालय से उन्होंने बी. ए. ( आनर्स) की परीक्षा उत्तीर्ण की, जिसमें उन्होंने विशेष कीर्तिमान स्थापित किया। एम. ए. की परीक्षा भी उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से ही उत्तीर्ण की, जिसमें उन्हें प्रथम श्रेणी में प्रथम ( सर्वोच्च) स्थान प्राप्त हुआ । तत्पश्चात् उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से पी-एच. डी. की उपाधि प्राप्त की ।

आजीविका के रूप में अध्यापनवृत्ति का चयन करते हुये विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान, पंजाब विश्वविद्यालय, होशियारपुर में प्राध्यापन कार्य करने के बाद सन् 1959 ई. में दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापन कार्य करते हुये, उन्होंने संस्कृत - विभागाध्यक्ष तथा कला - संकायप्रमुख के महत्त्वपूर्ण पदों को सुशोभित किया। सन् 1983 से 1985 तक प्रो. सत्यव्रत शास्त्री जी उड़ीसा में पुरी के श्रीजगन्नाथ संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे। उन्हें थाईलैण्ड में बैंकाक के चुलालौंकौर्न तथा सिल्पाकौर्न विश्वविद्यालय तथा नोंखाई के उत्तर-पूर्वी बौद्ध विश्वद्यिालय, जर्मनी में टयूबिंगन के टयूबिंगन विश्वविद्यालय, बैल्जियम में ल्यूवेन के कैथोलिक विश्वविद्यालय तथा कनाडा में एडमण्टन के अल्बर्टा विश्वविद्यालय, इन चार महाद्वीपों के छः विश्वविद्यालयों में अभ्यागत प्रोफेसर के रूप में कार्य करने का गौरव प्राप्त है। सन् 1982-83 के लिये इन्हें यू.जी.सी. का नेशनल लेक्चरर (National Lecturer) भी नियुक्त किया गया ।

डॉ. सत्यव्रत शास्त्री का सम्बन्ध भारतवर्ष के एकमात्र ऐसे परिवार से है, जिसमें पिता और पुत्र दोनों ने राष्ट्रपति सम्मान, पंजाब सरकार का शिरोमणि संस्कृत साहित्यकार सम्मान तथा उत्तरप्रदेश संस्कृत अकादमी का विशिष्ट संस्कृत साहित्यकार पुरस्कार प्राप्त किया। संस्कृत वाङ्मय को अपनी मौलिक एवं समीक्षात्मक कृतियों से समृद्ध करने वाले डॉ. सत्यव्रत शास्त्री ने अपने अथक परिश्रम से भरपूर सफलता प्राप्त की है। उन्हें सत्ताइस राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त हुए हैं। राष्ट्रीय पुरस्कारों में कोलकाता से साहित्य पुरस्कार1, पुणे से इन्दिरा विहारी स्वर्णपदक पुरस्कार2, संस्कृत अकादमी दिल्ली से पण्डितराज जगन्नाथ पद्यरचना पुरस्कार3, मुम्बई से पण्डिता क्षमाराव पुरस्कार4, संस्कृत अकादमी लखनऊ से कालिदास पुरस्कार5, संस्कृत अकादमी, जयपुर से प्रथम अखिल भारतीय पुरस्कार6, के. के. बिड़ला फाउण्डेशन, नई दिल्ली से वाचस्पति पुरस्कार7, दिल्ली से दयावती मोदी विश्वसंस्कृत सम्मान9, पंजाब सरकार से शिरोमणि संस्कृत साहित्यकार सम्मान राष्ट्रपति सम्मानपत्र10 तथा उ.प्र. संस्कृत अकादमी लखनऊ से विशिष्ट संस्कृतसाहित्य पुरस्कार11, आदि प्रमुख पुरस्कारों से प्रो. सत्यव्रत शास्त्री जी को पुरस्कृत किया जा चुका है।

महाकवि प्रो. सत्यव्रत शास्त्री जी अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्वान के रूप में जाने जाते हैं। सन् 1979 ई. में रायल नेपाल अकादमी, काठमाण्डू द्वारा आपको सम्मानित किया जा चुका है। सन् 1985 ई. में कैथोलिक विश्वविद्यालय, ल्यूवेन, बैल्जियम ने आपको सम्मानित किया। जुलाई 1993 ई. में शिल्पकोर्न युनिवर्सिटी, बैंकाक (थाईलैण्ड) ने प्रो. सत्यव्रत शास्त्री जी को 'मानद डाक्टट्रेट' उपाधि से अलंकृत किया। सन् 1994 ई. में अन्तर्राष्ट्रीय भारतीय विद्या अध्ययन संस्थान, ओटवा, कानाडा द्वारा आपको 'कालिदास पुरस्कार' से पुरस्कृत किया गया। सन् 1995 ई. में सेन्ट्रो पीमोन्तेसे दी स्टडी सुल मीडियो एद् एस्ट्रीमो ओरियण्ट, टोरीनो, इटली ने तथा सन् 1995 ई. में गजमद विश्वविद्यालय, योग्यकर्ता, इण्डोनेशिया ने प्रो. सत्यव्रत शास्त्री जी को सम्मानित किया ।

डॉ. सत्यव्रत शास्त्री ने चालीस से अधिक राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की कॉन्फरेंसेज तथा सेमिनार आदि में भाग लिया। इनके महत्त्वपूर्ण भाषणों में से 26 भाषण भारत में हुये हैं तथा 54 भाषण विदेशों में हुए हैं। इन्होंने बैल्जियम, पोलैण्ड, हंगरी, स्विटजरलैण्ड, इंगलैण्ड, कनाडा, अमेरिका, जापान, जर्मनी, थाइलैण्ड, मलेशिया, नेपाल, मैक्सिको तथा इटली आदि देशों की यात्रा की तथा सभी स्थानों पर अपनी विद्वत्ता की छाप छोड़ कर भारत के गौरव को बढ़ाया है। डॉ. शास्त्री की मौलिक काव्यकृतियों में श्रीबोधिसत्त्वचरितम्, इन्दिरागाँधिचरितम्, श्रीरामकीर्तिकाव्यम् तथा अनेक खण्डकाव्यों एवम् लघुकाव्यों की गणना की जाती है ।

1. षड्ऋतुवर्णनम्— मात्र 12 वर्ष की आयु में अपने विद्यार्थी जीवन में सत्यव्रत शास्त्री जी ने 'षड्ऋतुवर्णनम्’ नामक अपनी संस्कृत कविता से तत्कालीन संस्कृत विद्वानों को चमत्कृत कर दिया। यह कविता जयपुर की संस्कृतपत्रिका12 में प्रकाशित हुई । इस कविता की कुछ पंक्तियाँ मूलरूप में यहाँ उद्धृत हैं-

कूजन्ति कोकिलकुलानि कलं वसन्ते, गुंजन्ति मंजुकुसुमेषु च षट्पदौघाः ।
वान्त्यद्य दक्षिणदिशः सुभगाः समीराश्चेतोहराः सकलिकाः सहकारशाखाः ॥
अनोकहानां स्तबकाचितानां, नवैः पलाशैरुपशोभितानाम् ।
वीनां विरावैः कृतकौतुकानां, विलासिवृत्तैश्चसनाथितानाम् ॥
आकृष्टरोलम्ब-कदंबकानां प्रतानिनीभिः समुपाश्रितानाम् ।
वातेन मंदेन च वेल्लितानां, हरन्त्यभिख्याः सुमनोमनांसि ॥

2. बृहत्तरं भारतम् - प्रस्तुत संस्कृत काव्य कम्बोडिया के इतिहास-पुरुष यशोवर्मन् के शासनकाल से सम्बद्ध है। सन् 1957 ई. में यह कृति सम्पूर्णनन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'सरस्वती सुषमा' में प्रकाशित है। इस काव्यकृति की कुछ पंक्तियाँ यहाँ प्रस्तुत हैं-13

न केवलं तस्य रणेऽतिपाटवं जनाधिनाथस्य बभूव विश्रुतम् ।
कलासु दाक्ष्यं सकलासु तास्वपि, जहार चेतांसि भृशं मनस्विनाम् ॥ 5 ॥
चकार तां कम्बुपुरीतिनामिकां स कम्बुजानां विजयी नराधिपः ।
ततोऽतियाते समये कियत्यपि, यशोधरेति प्रथिता पुरी बभौ ॥ 12 ॥

3. श्रीगुरुगोविन्दसिंहचरितम् - चार सर्गों में विभक्त प्रस्तुत श्रीगुरुगोविन्दसिंहचरितम्14 खण्डकाव्य में श्रीगुरुगोविन्दसिंह के जन्म से लेकर मोक्षपर्यन्त, समस्त इतिवृत्त संक्षिप्त रूप में वर्णित है। महाकाव्यवत् इस खण्डकाव्य में पाँचों अर्थप्रकृतियाँ, पाँचों कार्यावस्थाएँ तथा मुखादि पाँचों सन्धियाँ विद्यमान हैं। स्वयं श्रीगुरुगोविन्दसिंह जी इस खण्डकाव्य के धीरोदात्त नायक के रूप में वर्णित हैं । त्याग एवं वलिदान की गौरवगाथा से युक्त यह काव्य वीररस - प्रधान काव्य के रूप में जाना जाता है। इस काव्य के कुछ पद्य यहाँ प्रस्तुत हैं -

कूले क्वचिद् भानुसुतापगायाः, क्रीडन्ति वृंदानि सुखं पशूनाम् ।
क्वचिल्लता-मण्डप – मण्डितानि नानामृगाध्यासितशाद्वलानि ॥

कूजद्विहंगानि मनोहराणि श्यामायमानानि च काननानि ।
पपावसौ दृश्यमिदं समग्रम्, उपोषिताभ्यामिव लोचनाभ्याम् ॥

क्रूरोऽति कोपात् सरहिन्दराजस्तयोर्हि सद्यो वधमादिदेश ।
आदेशमात्र प्रतिपालका, भृत्यास्तयोर्हा शिरसी अकृन्तन् ॥

ततः स पित्राऽनुमतः प्रतस्थे, योद्धुं कुमारोऽजितसिंहनामा ।
यथाऽभिमन्युः कुरुयुद्धमध्ये, तथैव सोऽयुध्यत वीरपुत्रः ॥

4. शर्मण्यदेशः सुतरां विभाति - शतश्लोकात्मक प्रस्तुत खण्डकाव्य15 की कथावस्तु जर्मनी - यात्रा के संस्मरणों पर आधारित है। इसमें फ्रैंकफर्ट, मार्बुर्ग, गांतिगन, राजधानी बॉन, स्तुतगर्त नगर, हाइडलबर्ग नगर, ट्यूबिंगन नगर, जर्मनी की ग्रामीण सभ्यता इत्यादि का अत्यन्त रोचक वर्णन किया गया है। इस खण्डकाव्य के कुछ पद्य यहाँ पर उद्धृत हैं-

योरूप-भूमण्डल-मध्यवर्ती, पारं समृद्धेः परमभ्युपेतः ।
नाना - नदी - प्रस्त्रवणैः सुरम्यः, शर्मण्यदेशः सुतरां विभाति ॥
अकृष्टपच्यं खलु यत्र सस्यं हृद्यास्तथा शाद्वलभूमिभागाः ।
दीर्घाश्चकासत्यथ दीर्घिकाः स, शर्मण्यदेशः सुतरां विभाति ॥
कार्यं प्रधानं खलु मन्यमानैः कार्येष्वतः स्वेषु भृशं प्रसक्तैः ।
स्त्रीभिश्च पुम्मिश्च भृतं पुरं तत्, कामप्यपूर्वां सुषमां बिभर्ति ॥

5. थाईदेशविलासम् – 121 पद्यों से युक्त प्रस्तुत खण्डकाव्य16 डॉ. सत्यव्रत शास्त्री ने अपनी थाईलैण्ड यात्रा के दौरान लिखा था, जब सन् 1977 ई. में चुलालौंकर्न विश्वविद्यालय, बैंकाक (थाईलैण्ड) में अभ्यागत आचार्य ( विजिटिंग प्रोफेसर) के रूप में आपकी नियुक्ति हुई थी। थाईलैण्ड की धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, प्राकृतिक, आर्थिक एवं राजनैतिक वर्णन की दृष्टि से यह ग्रन्थ अत्यन्त महत्वपूर्ण है । इस खण्डकाव्य के कुछ पद्य यहाँ प्रस्तुत हैं-

अस्त्येशिया-नामनि सुप्रसिद्धे, द्वीपे विशालेऽतिविशालकीर्तिः ।
आग्नेय–दिङ्मण्डल–मौलिभूतो, देशोऽतिरम्यो भुवि थाइलैण्डः ॥
श्यामेति नामातिपुराणमस्य ख्यातं पुराणादिषु यद्विहाय ।
थाईतिजात्यध्युषितत्व-हेतोर्यं थाइलैण्डं कथयन्ति लोकाः ॥
अकृष्टपच्यं बहु यत्र सस्यं रम्यास्तथा शाद्वलभूमिभागाः ।
मन्दं प्रवान्तश्च यदीयवाता, आगन्तुकानां रमयन्ति चेतः ॥

6. पत्रकाव्यम् - प्रस्तुत काव्य विभिन्न पद्यात्मक पत्रों का संग्रह है। 17 उदाहरणार्थ बैंकाक नगर (थाईलैण्ड) से दिनांक 24.04.1979 को डॉ. कृष्णलाल के पास थाईदेशीय उत्सव के सन्दर्भ में प्रेषित एक पद्य की कुछ पंक्तियाँ यहाँ उद्धृत हैं-

जलं तथाऽन्योन्यमिह क्षिपन्ति, दिनत्रयं यावदनारतं ते ।
असंस्तुतं वाऽप्यथ संस्तुतं वा, जलेन कामं स्नपयन्ति हृष्टाः ॥
स्त्रियः पुमांसश्च समं समेऽपि, क्रीडन्ति मोदात्सलिलेन कामम् ।
नारीति तेषां नर इत्ययं वा, विशेषलेशोऽपि न लक्ष्यतेऽत्र ॥
न शीलभंगो न च वृत्तभंगः, स्वप्नेऽपि तेषां परिकल्पनीयः ।
क्रीडेति सर्वे परिहासहेतोः, सामान्यभावेन जलं क्षिपन्ति ॥

7. इन्दिरागान्धिचरितम् - प्रस्तुत काव्यरत्न 25 सर्गों में निबद्ध, परिष्कृत शैली में रचित तथा विविध अलंकारों से अलंकृत एक महाकाव्य के रूप में जाना जाता है। इस महाकाव्य में भारत को परतन्त्रता की श्रृंखलाओं से मुक्त कराकर, समृद्ध एवं नवीन भारत के निर्माण रूपी कार्य को उपस्थापित किया गया है। डॉ. लक्ष्मीनारायण शर्मा ने इस महाकाव्य की कथावस्तु को 03 सोपानों में विभक्त किया है। प्रथम सोपान में प्राथमिक 16 सर्गों की कथा, द्वितीय सोपान में 17 वें सर्ग से 20 वें सर्ग तक की कथा तृतीय सोपान में 21 वें सर्ग से 25 वें सर्ग तक की कथा वर्णित है। डॉ. शर्मा के अनुसार प्रथम एवं द्वितीय सोपान में इस महाकाव्य की नायिका श्रीमती इन्दिरा गान्धी के चरित्र निर्माण की भूमिका प्रस्तुत की गयी है। इन दोनों सोपानों के घटनाचक्र के सूत्रधार पं. जवाहरलाल नेहरू, महात्मा गान्धी इत्यादि राष्ट्रीय नेता हैं, जिन्होंने इन्दिरा के चारित्रिक विकास में सर्वाधिक योगदान दिया है।

काव्यशास्त्रीय दृष्टि से प्राथमिक चार सर्गों में इन्दिरा के बालहृदय में देश को स्वतन्त्र कराने की उत्कट अभिलाषा ही ‘स्वतन्त्रताप्राप्ति' रूपी कार्य ही 'आरम्भ' नामक अवस्था (मुखसन्धि) है। पंचम सर्ग से नवम सर्ग तक की कथावस्तु 'यत्न' नामक अवस्था (प्रतिमुखसन्धि ) है । इन्दिरा के जेलगमन आदि उपाय तथा अपाय की आशंकाओं से युक्त दशम सर्ग से लेकर अट्ठारहवें सर्ग तक की कथा, कार्य की 'प्राप्त्याशा' नामक अवस्था (गर्भसन्धि ) है। उन्नीसवें सर्ग से इक्कीसवें सर्ग पर्यंत अंग्रेजों द्वारा डाली गयी फूट के परिणाम स्वरूप मुसलमानों द्वारा देश के विभाजन की माँग, कथावस्तु की 'नियताप्ति' की अवस्था है। यहाँ साम्प्रदायिक वैमनस्य तथा देशविभाजन की माँग रूपी अन्तराय से युक्त होने के कारण यह 'विमर्शसन्धि' है। बाईसवें सर्ग से पच्चीसवें सर्ग पर्यन्त स्वतन्त्रता - प्राप्ति तथा श्रीमती इन्दिरा गान्धी के आर्थिक कार्यक्रमों एवं संजय गान्धी के सामाजिक कार्यक्रमों द्वारा लायी गयी दृढ़ता ही 'फलागम' नामक अवस्था तथा (निर्वहणसन्धि ) है ।

प्रस्तुत महाकाव्य के प्रथम सर्ग में इन्दिरा के परिवार का परिचय, द्वितीय सर्ग में इन्दिरा के जन्म की कथा, तृतीय से चतुर्दश सर्गपर्यन्त इन्दिरा की बाल्यावस्था, शिक्षा तथा फिरोजगान्धी विषयिणी प्रेमकथा वर्णित है । पन्द्रहवें सर्ग में इन्दिरा जी अपने पिता के तथा तत्कालीन समाज के घोर विरोध के बाद भी फिरोजगान्धी से विवाह विषयक अपने दृढ़ निश्चय पर अड़ी रहीं । सोलहवें सर्ग से बीसवें सर्ग पर्यन्त वर्णित समस्त घटनाक्रम श्रीमती इन्दिरा की विकासशील जीवनगाथा है । इक्कीसवें सर्ग में सन् 1966 के बाद की घटनायें वर्णित हैं। बाईसवें सर्ग में राजीव और संजय का विवाह, राहुल और प्रियंका का जन्म फिरोजगांधी के मृत्यु की करुणकथा वर्णित है। तेईसवें सर्ग में पाकिस्तान-विभाजन तथा चौबीसवें सर्ग में भारत - पाकिस्तान - युद्ध, शिमला - समझौता, सिक्किम का भारत में विलय, आर्यभट्ट नामक उपग्रह - निर्माण, बैंकों का राष्ट्रीयकरण, रूस - मैत्री तथा अपातकाल की घोषणा इत्यादि घटनाएँ वर्णित हैं । ग्रन्थ के अन्त में पच्चीसवें सर्ग में श्रीमती इन्दिरागांधी के बीससूत्रीय कार्यक्रम तथा संजयगांधी के पंचसूत्रीय कार्यक्रमों का वर्णन किया गया है।

प्रस्तुत महाकाव्य में परम्परा से हटकर, नायक के स्थान पर एक नायिका के चरित्र को उपस्थापित किया गया है । 'वीररस' इस काव्य का अंगीरस है। मंगलाचरण के रूप में आरम्भ में आशीर्वाद तथा वर्ण्यवस्तु का वर्णन किया गया है। अधिकांश सर्गों में मुख्यतः एक ही छन्द का प्रयोग किया गया है । सर्गों के अन्तिम पद्य सर्गों में प्रयुक्त मुख्य छनद से भिन्न हैं। इस प्रकार 'इन्दिरागाँधिचरितम्' नामक प्रस्तुत महाकाव्य सर्वथा एक श्रेष्ठ महाकाव्य के रूप में जाना जाता है।

8. श्रीरामकीर्तिमहाकाव्यम् - 25 सर्गों में निबद्ध प्रस्तुत महाकाव्य डॉ. सत्यव्रत शास्त्री प्रणीत एक लब्धप्रतिष्ठ महाकाव्य के रूप में विख्यात है। इस महाकाव्य के सर्गों में सर्गांत के छन्दों को छोड़कर प्रायः एक ही छन्द का प्रयोग किया गया है, किन्तु कुछ सर्गों में एकाधिक छन्दों का भी प्रयोग हुआ है । प्रायः सर्गान्त में भावी कथावस्तु का संकेत कर दिया गया है। डॉ. सत्यव्रत शास्त्री जी की काव्यशैली परिमार्जित एवम् अलंकृत है। ध्यातव्य है कि इस काव्य के नायक श्रीराम के चरित्र को थाईलैण्ड में प्रचलित धारणाओं के अनुसार प्रस्तुत किया गया है। जीवन के विविध पक्षों से समन्वित इस काव्य में मुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श तथा निर्वहण संज्ञक पाँचों शैलियों का प्रयोग हुआ है । अन्तिम सर्ग में कथानायक श्रीराम के अभ्युदय के साथ ग्रन्थ का समापन किया गया है।

प्रस्तुत महाकाव्य का नामकरण कथानायक श्रीराम के नाम पर किया गया है। इसके नायक श्रीराम उच्च कुलोत्पन्न धीरोदात्त क्षत्रिय होने के साथ-साथ नारायण के अवतार भी हैं। इसका अंगीरस 'वीररस' है, जबकि अंगभूत शृंगार एवं करुणरसों का भी समुचित परिपाक हुआ है। धर्मविरोधी शक्तियों के संहार पूर्वक धार्मिक आदर्शों की स्थापना ही महाकवि का लक्ष्य है। चारों पुरुषार्थों के समुचित वर्णन के बाद धर्म नामक पुरुषार्थ का पोषण इस महाकाव्य का मुख्य प्रयोजन है ।

9. श्रीबोधिसत्वचरितम् - महाकावि डॉ. सत्यव्रत शास्त्री प्रणीत 'श्रीबोधिसत्वचरितम् 18 चौदह सर्गों में निबद्ध एक महाकाव्य के रूप में जाना जाता है। इसकी उपजीव्यता का श्रेय पालिसाहित्य की जातक कथाओं को प्राप्त है । काव्यशास्त्रीय दृष्टि से प्रस्तुत महाकाव्य में अनुप्रास, यमक, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, तुल्योगिता, विभावना, विशेषोक्ति, परिसंख्या, अर्थान्तरन्यास, अतिशयोक्ति तथा दीपक अलंकारों का बहुत सुन्दर प्रयोग हुआ है । छन्दों में अनुष्टुप, गीति, उपगीति, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उपजाति, वंशस्थ, तोटक, शालिनी, रथोद्धता, स्वागता, मन्दाक्रान्ता, वसन्ततिलका, मालिनी, द्रुतविलम्बित, भुजंगप्रयात, प्रहर्षिणी, पंचचामर, पुष्पिताग्रा, स्रग्धरा, वियोगिनी, शार्दूलविक्रीडित इत्यादि पारम्परिक छन्दों तथा इन्दिरा आदि स्वकीय नवीन छन्दों का अत्यन्त रमणीय प्रयोग किया है।

ज्ञातव्य है कि अब तक महाकवि प्रो. सत्यव्रत शास्त्री को आधार बनाकर कई शोधच्छात्र पी-एच. डी. करके अपना शोधप्रबन्ध प्रस्तुत कर चुके हैं। इनमें से कुछ शोधप्रबन्ध निम्नलिखित हैं-

1. डॉ. सत्यव्रत शास्त्री के महाकाव्य 'श्रीगुरुगोविन्दसिंहचरितम् पर इन्दिरा शर्मा द्वारा सन् 1975 ई. में पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला से एम. फिल. शोधप्रबन्ध पूर्ण गया ।
2. डॉ. सत्यव्रत शास्त्री के महाकाव्य 'इन्दिरागान्धिचरितम्' पर इन्दिराकान्त पाठक द्वारा सन् 1989 ई. में भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर (बिहार) से 'इन्रािगान्धिचरितम् : एक समीक्षात्मक अध्ययन' इस विषय पर पी-एच. डी. उपाधि हेतु शोधप्रबन्ध प्रस्तुत किया जा चुका है।
3. 'डॉ. सत्यव्रत शास्त्री : कवि तथा समालोचक' इस शीर्षक पर डॉ. विनीता सिंह को सन् 1991 ई. में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र द्वारा पी-एच. डी. उपाधि प्रदान की जा चुकी है।
4. डॉ. सत्यव्रत शास्त्री के महाकाव्य श्रीरामकीर्तिमहाकाव्यम् पर आधारित 'श्रीरामकीर्तिमहाकाव्यम् में सीता का स्वरूप' इस विषय पर सावित्री शुक्ला को सन् 1992 ई. में रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर (मध्यप्रदेश) द्वारा एम्. फिल्. की उपाधि प्रदान की गई।
5. सत्यव्रत वर्मा द्वारा प्रस्तुत 'डॉ. सत्यव्रत शास्त्री की मौलिक कृतियों का विवेचनात्मक मूल्यांकन' इस शीर्षक पर प्रस्तुत किये गये शोधप्रबन्ध पर कुमायूँ विश्वविद्यालय, नैनीताल द्वारा डी. लिट्. की उपाधि प्रदान की जा चुकी है।
6. डॉ. सत्यव्रत शास्त्री के महाकाव्य श्रीरामकीर्तिमहाकाव्यम् पर आधारित 'श्रीरामकीर्तिमहाकाव्यम् एक अध्ययन' इस विषय पर डॉ. पूनम शर्मा को सन् 1995 ई. में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र द्वारा पी-एच. डी. उपाधि प्रदान की जा चुकी है।
7. डॉ. सत्यव्रत शास्त्री के महाकाव्य श्रीबोधिसत्त्वचरितम् पर आधारित 'श्रीबोधिसत्त्वचरितम् महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन' इस विषय पर डॉ. श्यामसुन्दर को मेरठ विश्वविद्यालय, मेरठ द्वारा पी-एच. डी. उपाधि प्रदान की जा चुकी है।
8. डॉ. सत्यव्रत शास्त्री के महाकाव्य श्रीरामकीर्तिमहाकाव्यम् पर आधारित 'श्रीरामकीर्तिमहाकाव्यम् का भाषावैज्ञानिक अध्ययन इस विषय पर डॉ. जयकृष्ण शर्मा को महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक द्वारा पी-एच. डी. की उपाधि प्रदान की जा चुकी है।
9. डॉ. सत्यव्रत शास्त्री के महाकाव्य श्रीरामकीर्तिमहाकाव्यम् पर आधारित 'श्रीरामकीर्तिमहाकाव्यम् का साहित्यिक अनुशीलन' इस विषय पर डॉ. सविता देवी को दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली द्वारा पी-एच. डी. की उपाधि प्रदान की जा चुकी है।
10. डॉ. सत्यव्रत शास्त्री के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर आधारित 'डॉ. सत्यव्रत एक मूल्यांकन' इस विषय पर डॉ. कमल आनन्द को पंजाबी विश्वविद्यालय, चण्डीगढ़ द्वारा डी. लिट. की उपाधि प्रदान की जा चुकी है। महाकवि प्रो. सत्यव्रत शास्त्री की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि उन्होंने समालोचनात्मक वैदुष्य एवं मौलिक लेखन जैसे विभिन्न क्षेत्रों में समान रूप से ख्याति अर्जित की है। उनमें कवि, समालोचक, नाटककार, व्याख्याता, अनुवादक एवम् मौलिक चिन्तक के गुणों के समन्वित व्यक्तित्व ने उन्हें समसामयिक आधुनिक संस्कृत साहित्य में एक विलक्षण स्थान प्रदान किया है।

सन्दर्भ (REFERENCE)

1. सन् 1992 ई. में भारतीय भाषा परिषद् कोलकाता से साहित्य पुरस्कार से पुरस्कृत ।
2. सन् 1992 ई. में तिलक महाराष्ट्र विद्यापीठ, पुणे से इन्दिरा विहारी स्वर्णपदक पुरस्कार से पुरस्कृत ।
3. सन् 1993 ई. में संस्कृत अकादमी, दिल्ली से पण्डितराज जगन्नाथ पद्यरचना पुरस्कार से पुरस्कृत।
4. सन् 1994 ई. में राव दयाल ट्रष्ट, मुम्बई से पण्डिता क्षमाराव पुरस्कार से पुरस्कृत।
5. सन् 1994 ई. में उ.प्र. संस्कृत अकादमी, लखनऊ द्वारा कालिदास पुरस्कार से पुरस्कृत ।
6. सन् 1995 ई में राजस्थान संस्कृत अकादमी जयपुर से प्रथम अखिल भारतीय पुरस्कार से पुरस्कृत |
7. सन् 1995 ई. में के.के. बिड़ला फाउण्डेशन, नई दिल्ली द्वारा वाचस्पति पुरस्कार से पुरस्कृत ।
8. सन् 1995 ई में मोदी कला भारती, नई दिल्ली से दयावती मोदी विश्वसंस्कृत सम्मान से सम्मानित ।
9. सन् 1985 ई. में पंजाब सरकार से शिरोमणि संस्कृत साहित्यकार सम्मान से सम्मानित ।
10. सन् 1985 ई. में भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय सम्मानपत्र से सम्मानित किया गया ।
11. सन् 1988 ई. में उ.प्र. संस्कृत अकादमी लखनऊ से विशिष्ट संस्कृत साहित्य पुरस्कार से पुरस्कृत ।
12. संस्कृतरत्नाकरः ॥ नवम्बर 1942 ॥ जयपुर ॥
13. बृहत्तरं भारतम् ॥ 5 1211 (संस्कृतसुषमा सन् 1957 सम्पूर्णनन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी)
14. ‘श्रीगुरुगोविन्दसिंहचरितम्' नामक प्रस्तुत खण्डकाव्य सन् 1967 ई. में गुरुगोविन्दसिंह फाउण्डेशन, पटियाला से प्रकाशित है।
15. 'शर्मण्यदेशः सुतरां विभाति' नामक प्रस्तुत खण्डकाव्य सन् 1976 ई. में अखिल भारतीय संस्कृत परिषद, लखनऊ से यह खण्डकाव्य प्रकाशित है ।
16. 'थाईदेशविलासम् नामक प्रस्तुत खण्डकाव्य, ईस्टर्न बुक लिंकर्स, नई दिल्ली द्वारा सन् 1979 ई. में प्रकाशित हो चुका है।
17. 'पत्रकाव्यम्' नामक प्रस्तुत मुक्तककाव्य, ईस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली द्वारा सन् 1994 ई. में प्रकाशित हो चुका है।
18. 'श्रीबोधिसत्वचरितम् सन् 1973 ई. में मेहरचन्द लक्ष्मणदास, दरियागंज, दई दिल्ली द्वारा प्रकाशित हो चुका है ।

प्रणव पाण्डेय

(एम.ए.संस्कृतविभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय)
नेट (यू.जी.सी. नई दिल्ली)
मो. 7017458783

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