धूप-छांव : राजगोपाल

Dhoop-Chhaanv : Rajagopal


जीवन भर दो

आज इन आँखों मे जीवन भर दो तरु सा तृषित है तन सूखे अश्रु, फटी धरा सा है मन हे प्राण! इस दरकते हृदय पर हाथ धर दो आज इन आँखों मे जीवन भर दो क्षीण प्रणय की देख असमर्थता कुछ आभास करो दृगों की आतुरता पंथ वही, पथिक वही, तुम उस की पीड़ा हर दो आज इन आँखों मे जीवन भर दो छांव करो तो धूप चीर कर आऊँ मुड़ कर देखो, मैं इतिहास बांध कर लाऊं काल से पहले, संग हँस लें-रो लें, कुछ ऐसा कर दो आज इन आँखों मे जीवन भर दो

किसे सुनाऊँ

मैं अपनी व्यथा किसे सुनाऊँ कानों मे गूँजती प्रतिध्वनियाँ गहरी ‘नहीं’ शब्द से दीवारें भी हुयी बहरी प्रणय की परछाई से खेलता मन कैसे छल पाऊँ मैं अपनी व्यथा किसे सुनाऊँ जगती की माया छलती है पल-पल सह न पाती हैं आँखें विहंगों की कल-कल चरमराते सूखे पात लिये कैसे मैं प्रणय गीत गाऊँ मैं अपनी व्यथा किसे सुनाऊँ अलग नहीं है जगती मे मेरा जीवन कहीं विरह घिरा, कहीं है रस-राग का मंचन जीवन की विधा ऐसी, उसे कब तक पहेलियाँ बुझाऊँ मैं अपनी व्यथा किसे सुनाऊँ

एक दीप जलाओ

तिमिर भेद आज एक दीप जलाओ रात गयी बात गयी, ढूढ़ें कोई दिशा नयी एक पथ भूले, चलो हैं उधर और कई प्रणय बांध कर मन मे, थोड़ी चंचलता दिखलाओ तिमिर भेद आज एक दीप जलाओ कल मन मे नयी आभा होगी नवल निशा आँचल मे बिखरी होगी हाथ पकड़ समय का, फिर वही प्रणय जतलाओ तिमिर भेद आज एक दीप जलाओ आँखें मूँदे स्नेह की एक बूंद गिराना सो गया है उल्लास उसे उठाना तुम तक ही है जीवन उसे और न रुलाओ तिमिर भेद आज एक दीप जलाओ

अनुभव

यह दीप अभी न बुझाने देना दिन पीठ पर लिये युगों से थका हूँ रात की राह देखता इस छांव रुका हूँ जग रमा है अँधियारे, तुम मेरे अश्रु बटोर देना यह दीप अभी न बुझने देना दूर पड़ा है प्रणय बन कर शव किसने जिया है मुझ जैसा अनुभव कर्म-धर्म सब झोंक कर, उर पर पत्थर रख देना यह दीप अभी न बुझने देना देख रहा हूँ नभ मे तारों की चंचलता किस की प्रतीक्षा मे दिखलाऊँ व्याकुलता कल दूर नहीं है, तुम बिखरी स्मृतियाँ बटोर लेना यह दीप अभी न बुझने देना

प्रणय की पीड़ा

प्रणय की पीड़ा कितनी करुण है अपनी असमर्थता वह जानता है स्नेह-सगाई की सीमाएं पहचानता है फिर भी गिरता-उठता गाता एक ही धुन है प्रणय की पीड़ा कितनी करुण है उसे ही सृष्टि समझ होता है विकल स्वर्ग दिखा कर स्वप्न ही करता है छल आगे आँखें फाड़े निशांत तक ढूँढता अरुण है प्रणय की पीड़ा कितनी करुण है चाहूँ भूलना उसे तो बहते हैं नयन मेरे टूट गये सारे प्रणय-प्रतिज्ञा के घेरे आयु ले गयी काया पर मन आज भी तरुण है प्रणय की पीड़ा कितनी करुण है

गुत्थी

स्मृतियों मे उलझे इस प्रणय को कस लो न ही उन्माद उतरा, न प्यार भूला, वही चाँद, फिर तुम्हारे आँचल मे झूला न देखो गगन, धरा पर चढ़ती इस रात को लस लो स्मृतियों मे उलझे इस प्रणय को कस लो तुम हो मेरे पुण्य का वरदान बांध दो काल, अकाल न जाये यह प्राण स्वर्ग है यहीं, उर मे भर कर उसे तुम हँस लो स्मृतियों मे उलझे इस प्रणय को कस लो किसी ने सुनी नहीं जगती मे क्रंदन लौट आया है जीवन मे बिसुरा स्पंदन एक श्वास है, एक प्राण है, आओ इस मे बस लो स्मृतियों मे उलझे इस प्रणय को कस लो

समेट लो

समेट लो सारे बिखरे क्षणों को तुम विक्षिप्त हुआ मन भागा दिशाहीन प्रणय भरी कल्पनायें भी हुयी क्षीण खो गया वसंत, बिखेर दो स्नेह तुम बन ज्येष्ठ की कुसुम समेट लो सारे बिखरे क्षणों को तुम तुमसे दूर नहीं गया कोई पल व्यर्थ मन समझ सका है झरते बूंद-बूंद का अर्थ किन्तु लौटते तुम तक कुछ आयाम हुये हैं गुम समेट लो सारे बिखरे क्षणों को तुम मन मूढ़, छोड़ कटुता, मधु से कलह किया अस्मिता से जूझता न सोचा तुमने क्या दिया कितना जोड़ें, किसे घटायें, प्रणय का गगन हो तुम समेट लो सारे बिखरे क्षणों को तुम

निर्वात

हे प्रभु! आज एक अंतिम वर देना ढूंढ सकूँ मैं मेरे जीवन का प्रिय धन वही प्रणय दोबारा, नहीं कोई मणि-कंचन लौटा कर मेरी मधुबाला उर का निर्वात भर देना हे प्रभु! आज एक अंतिम वर देना मन का अँधियारा रुला गया मधु मे चुपके से विष मिला गया मौन हुआ है जीवन, उसमे थोड़ा सा जग भर देना हे प्रभु! आज एक अंतिम वर देना मिटे इतिहास पर बहुत अश्रु बहे रात स्मृतियों मे जलते घाव सहे अब इस अधमरे जीवन पर कोई अंगार धर देना हे प्रभु! आज एक अंतिम वर देना

ऋण

चुका दूंगा ऋण प्रणय के उन क्षणों का मन की बेड़ियों से छूट कर ढूंढ लूँगा नया चाँद गगन पर किन्तु स्मृतियों पर अधिकार है चिर-बंधनों का चुका दूंगा ऋण प्रणय के उन क्षणों का बरसों स्नेह-सगाई की माया छायी जैसे चाँद की धरा पर छाया बाँचता रहा मैं मूल्य जीवन के रतिमय क्षणों का चुका दूंगा ऋण प्रणय के उन क्षणों का दूर से उसे नयन निहारते स्पर्श करने से हाथ भी सिहरते न जाने कहाँ खो गया है सुख उन मधुकणों का चुका दूंगा ऋण प्रणय के उन क्षणों का

दामिनी

वह नयनों से प्रणय लुटाती है उस संध्या पूर्णिमा सी सुंदर उन्माद भरी लजाती नभ पर वह रमणी आज भी मन उन्मत्त कर जाती है वह नयनों से प्रणय लुटाती है आनन की आभा से खुलती आँखें जिसके कुंतल से तन-मन झाँकें सुख ढूंढती जो रिसती आंसुओं को चमकाती है वह नयनों से प्रणय लुटाती है उस से ही हर पल खिलता है जीवन का मर्म पिघलता है अनछुये ही कभी स्मृतियाँ दामिनी सी छू जाती है वह नयनों से प्रणय लुटाती है

नीर युगों का

चल बसा आज वह प्यार मन से आँसू की हर बूंद इतनी गहरी जिसमे सागर सी स्मृतियाँ ठहरी बह गया जीवन आज तक जिसे थामा था लगन से चल बसा आज वह प्यार मन से कभी उठा मन मे झंझावत सहसा गरल माया मे तरल कोप बरसा तृष्णा मे गिरता-उठता वह अधम टूट गया जीवन से चल बसा आज वह प्यार मन से इतिहास ने वर्तमान से अनुभव ने आशाओं से कहा, न रोको, बहने दो नीर युगों का प्रत्येक नयन से चल बसा आज वह प्यार मन से

प्रीति रंगीली

तुम से ही निखरी है यह प्रीति रंगीली तुम्हारे भाग्य का एक हिस्सा गढ़ गया मेरी जगती का किस्सा तुम्हारी आँखों ने देखा इस जड़ मे भी निधि चमकीली तुम से ही निखरी है यह प्रीति रंगीली घन सघन छाये थे जीवन मे मेरे ऊपर छोटे से गगन मे जब दामिनी सी तुम चमकी, लगी हर गर्जना सुरीली तुम से ही निखरी है यह प्रीति रंगीली मन उलझता इन कुंतलों मे सुंदर लगता जैसे कुछ सृजित हुआ हो अंदर आज भी तुम्हारी आभा कर जाती है आँखें गीली तुम से ही निखरी है यह प्रीति रंगीली

इतिहास

तुम इतिहास क्या समझ पाओगे मधु-लिप्त अधर, तृषित मन स्नेह-सगाई और यौवन सघन बरसों बाद उस स्वर्ग का रास क्या समझ पाओगे तुम इतिहास क्या समझ पाओगे सारा दिन जल कर उतरती रात करती थी अँधियारे मन की बात बीते युग, आज उस स्वप्न मे तुम क्या उलझ पाओगे तुम इतिहास क्या समझ पाओगे वर्तमान पर जमे हैं रजकण भूलते नहीं हैं वे बीते क्षण अतीत से गुंथ कर जगती मे तुम कितना सुलझ पाओगे तुम इतिहास क्या समझ पाओगे

चाँदनी

आज दोबारा उर मे बस जाओ आँखों से वह साँझ नहीं भूलती स्वप्नों मे वह धूमकेतु सी झूलती समय को रोक कर थोड़ा इतिहास बाँच आओ आज दोबारा उर मे बस जाओ तुम्हें लिये बरसों मेरी पृथा मे कितनी बार खोया इस कथा मे रौंद कर प्राण जगती मे अब और दूर न जाओ आज दोबारा उर मे बस जाओ रिसती स्मृतियों को चकित कर दो भीगी आँखों को पुलकित कर दो घन बरस गये सावन, अब इन आंसुओं के मन भाओ आज दोबारा उर मे बस जाओ मौन कंठ मे फिर स्वर भरेगा न अँधियारे यह मन कभी डरेगा कभी इन रोती रातों मे चढ़ती चाँदनी सी चमक लाओ आज दोबारा उर मे बस जाओ

भाव-प्रश्न

धूप तले तुम्हारी छांव मे छिप जाऊँ स्वर्ग ढूँढता नापता रहा गगन चाँदनी मे बिसुरता रहा यह मन स्वप्न भी झरे आंसुओं से, अब नयन किस से मिलाऊँ धूप तले तुम्हारी छांव मे छिप जाऊँ जिसे उर मे समाने था मन बावला वह शलभ आज है दीप से जला आकुल पूछता रहा युगों से, जी लूँ या जल जाऊँ धूप तले तुम्हारी छांव मे छिप जाऊँ मैंने अपने भीतर ही छिप कर रोया स्मृतियों मे पड़ा न सदियों सोया अकेले अधिवास मे अब कैसे नया संसार रचाऊँ धूप तले तुम्हारी छांव मे छिप जाऊँ

संशय

कभी तुम स्वप्न कभी यथार्थ हो मुँदी आँखों मे जैसे जगती की माया उजाले मे तुमसे अलग कोई और न भाया जानता हूँ, जीवन के इस रण मे तुम ही पार्थ हो कभी तुम स्वप्न कभी यथार्थ हो रात सुनाती है स्मृतियों की व्यथा दिन बार-बार कहता है तुम्हारी कथा ढूंढा धरा-गगन विकृत सा, तुम ही मेरा स्वार्थ हो कभी तुम स्वप्न कभी यथार्थ हो चंचल मन तुम तक ही रुक जाता है ध्यान-ध्येय मे कुछ और नहीं समाता है तुम ही सागर और अपार क्षितिज, तुम ही परमार्थ हो कभी तुम स्वप्न कभी यथार्थ हो

रात का प्रहर

जा रहा है रात का यह प्रहर भी क्यों मुझे पल भर वक्ष से लगाया प्रणय भर कर क्यों हँसाया-रुलाया आज अकेला, मुझसे अनजान हुआ यह शहर भी जा रहा है रात का यह प्रहर भी छिप गयी वह क्यों प्रणय जगाकर कर गयी पागल तृष्णा मे तपा कर जाते हुये दिखा जाती, कल लौटने का डहर भी जा रहा है रात का यह प्रहर भी अँधियारे टिमटिमा रही है स्नेह-सगाई संबंध हुये जर्जर अब जाने की बारी आयी कहाँ डूबता जीवन, लौट गयी आशा की लहर भी जा रहा है रात का यह प्रहर भी

प्रायश्चित

न जाओ, बसा लो इस उर मे प्राण झेल गया जगती मे सारा तपन जलता-बुझता अब संभल सका है मन तुम्हारे कुंतल की छांव पर है मुझे अभिमान न जाओ, बसा लो इस उर मे प्राण धवल चाँदनी मे रति सा मुख तुम्हारा आज जीवन से फिर है अभिसार मेरा अधिकार मांग कर तुमसे करता हूँ नवयुग का आव्हान न जाओ, बसा लो इस उर मे प्राण रुका प्रभंजन धो लें मन से शब्दों की कटुता संवार लें दोबारा जीवन मे स्नेह की ऋजुता कस लें प्रणय बाहुपाशों मे छोड़ जगती का ध्यान न जाओ, बसा लो इस उर मे प्राण

बज उठा हृदय

बरसों बाद बज उठा यह हृदय भी लौटा मन वसंत का इतिहास लिये प्रेयसी के फूलों का मधुमास लिये मन्मथ के जयकार मे लिपटा है आज प्रणय भी बरसों बाद बज उठा यह हृदय भी समर्पण लिये फैली है युगबाहें कंठ मे भर लो सारी बिसुरी आहें मिल गया मन, आ गया है पास दूर से समय भी बरसों बाद बज उठा यह हृदय भी जी उठा है जीवन शवों के ढेर से सामने खड़ी है रति कितनी देर से सुधामय रागिनी मे छोड़ आया है परछाई भय भी बरसों बाद बज उठा यह हृदय भी

पुनः

नव-प्रात का उन्माद लिये मन खिला नीम-करेले से उतरे, मिटी मन की जड़ता कल तक था वह पात सा झरता-बिखरता तितलियों सा चंचल प्रणय आज फिर सुमन से मिला नव-प्रात का उन्माद लिये मन खिला झुलसे थे कभी मन के भाव फूट रहे थे पीड़ा से उस के घाव रिसते आंसुओं की नमी से आज पाषाण भी हिला नव-प्रात का उन्माद लिये मन खिला छू लिया मन तुम ने नयनों से बाँच लेंगे हम स्नेह-सौरभ तृणों से अभिनंदन करें जीवन का देहरी पर सुधा पिला नव-प्रात का उन्माद लिये मन खिला

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