चौंसठ रूसी कविताएँ : अलेक्सांद्र पूश्किन

अनुवाद : हरिवंश राय बच्चन

Chaunsath Rusi Kavitayen : Alexander Pushkin

पुस्तक 'चौंसठ रूसी कविताएँ' में से पूश्किन की रचनाएँ


पैगंबर

देवी दीप्ति प्राप्त करने की अमर तृषा लेकर मन में, पागल-सा मैं घूम रहा था मरुस्थलों में, निर्जन में, एक दूत स्वर्गीय विभा से सयुत सम्मुख प्रकट हुआ, मेरे सारे तप, श्रम, संयम, साधन का फल निकट हुआ। उसने अपनी कोमल उँगली से छू दी मेरी पुतरी, लगा कि जैसे निशागमन पर नींद पलक पर हो उतरी, और सामने मेरे चमकी भव्य भविष्यत् की रेखा, भीत गरुड़ की भाँति फाड़कर आस उसे मैंने देखा। उसने मेरे कान छुए तो ऐसा मुझको ज्ञात हुआ, अंबर से शत-शत वज्री का जैसे साथ निपात हुआ, और सुना मेरे कानों ने फिर नभ का कंपन थर-थर, सुना अधर में उड़ने वाले नभ दूतों के पर का स्वर, सुनी उदधि के उर की हलचल जिसमें चलते हैं जलचर, सुना रसा से खींच रहे हैं रस कैसे तृण दल-तरुवर। झुककर मेरी ओर, हाथ अपना फिर मेरे मुँह में डाल, उस नैसर्गिक दिव्य दूत ने ली वह मेरी जीभ निकाल, जिसमें लिपटे थे युग-युग के झूठ, दोष, निंदा के पाप, और बीच मेरे अधरों के, जो कि रहे थे भय से काँप, एक साँप की दुहरी-तीखी जिह्वा उसने दी बस डाल, दिव्य दूत के हाथ हो रहे थे मेरे लोहू से लाल। फिर उसने तलवार उठाकर मेरा सीना चाक किया औ' मदस्पंदित मेरा दिल दूर काटकर फेंक दिया, हुई इस तरह से जो ख़ाली मेरी छाती की कारा बंद कर दिया उसमें उसने एक दहकता अंगारा। ऐसा परिवर्तित, मृत-सा था विस्तृत मरु में पड़ा हुआ कि सुन गगन की गिरा गंभीरा सहसा उठकर खड़ा हुआ— “उठो, और मेरी वाणी से दिग्दिगंत को ध्वनित करो, उठो, प्रेरणा बल से मेरे जल-थल खड़ी पर विचरो। कहीं रुको मत, और जहाँ भी मानव का अंतर पाओ, मेरे संदेशो की ज्वाला उसके अंदर धधकाओ।

स्वर्ग दूत

एक नारकी, काला दानव, द्वेष बना मानो साकार, नरक लोक के अंधकार पर मंडराता था बारंबार, एक स्वर्ग के दिव्य दूत ने, जो था ममता का आगार, देव लोक का द्वार खोलकर नीचे देखा नयन उघार। उस शंका की मूर्ति और उस अविश्वास की प्रतिमा ने ज्यों ही उस दैविक विभूति की अद्भुत आभा को देखा, त्यों ही उसके हृदय-पटल पर पहली बार, बिना जाने, खिंची अचानक, विवश प्रेम की जाग्रत, ज्वालामय रेखा। और बोल वह उठा, विदा, हो गया मुझे तेरा दर्शन, तेरी छाया से कुछ पाया, मैंने, स्वर्गिक अभ्यागत, अब संपूर्ण स्वर्ग से करते घृणा नहीं मेरे लोचन, और न अब संपूर्ण धरा से ही वे करते हैं नफ़रत।

कवि

कवि को नहीं सुनाई पड़ता जब तक वाणी का आह्वान, नहीं जानता जब तक उससे प्रत्याशित है क्या बलिदान, जीवन के झंझट-झगड़ों में उलझा रहता उसका ध्यान, जग की लघु-लघु चिंताओं में डूबा रहता उसका प्राण। उसकी पावन वीणा रहती पड़ी शिथिल, निश्चल, चुपचाप, जड़, जड़तर, जड़तम तंद्रा में गड़ता जाता अपने आप। सभी ओर से धरे रहती है उसको दुनिया निस्सार, उसको अपना जीवन लगता एक निरर्थक, दुर्वह भार। लेकिन एक बार सुन लेते हैं जब उसके विस्मित कान, स्वर्गलोक से जो मिलता है उसको वाणी का वरदान, वह कल्पना गगन मंडल में उड़ने को अकुलाता है, सुप्त गरुड़ जैसे जाग्रत हो अपने पर फड़काता है। जीवन के सब खेल-खिलौनों से वह लेता आँखें मोड़, अपनी चाल चला जाता है दुनिया करती रहती शोर। दुनिया की पूजित प्रतिमाओ को देता वह ठोकर मार, किसी जगह पर शीश झुकाना उसको होता अस्वीकार। पर्वत की चोटी-सा होता उसका गर्वित उन्नत भाल, उसकी गति में विद्युत होती, होता पैरी में भूचाल। उसके स्वर के अंदर होता अबुधि का गर्जन गभीर, झंझा का आवेग, प्रवाहित होता जो घन कानन चीर।

साइबेरिया को संदेश

साइबेरिया के वर वीरों, तुम्हें दिलाता हूँ विश्वास, यदि तुम रक्खो ऊँची अपनी युग-युग अभिमानी गर्दन, जिनसे तुमने भूमि भिगोई, व्यर्थ नहीं होंगे श्रम-कण, व्यर्थ नहीं होंगे मंसूब जो हैं चूम रहे आकाश। आशा मत छोड़ो चाहे जितनी काली हो दुख की रात, क्योंकि यही आशा है जिसकी प्राणदायिनी मृदु मुसकान ज़िंदों में उत्साह भरेगी, फूकेगी मुर्दों में जान, और तुम्हारी आँखें देखेंगी नव युग का पुण्य प्रभात। सारी दुनिया देगी तुमको संवेदना, स्नेह, सम्मान, बंदीघर के लौह सींखचे नहीं सकेंगे उनको थाम, लक्ष्य न तिल भर भी डिग पाए, रुके न पल भर को भी काम, और सुनाई देगी तुमको मुक्तिदायिनी मेरी तान। टुकड़े-टुकड़े हो जाएगी टूट ज़ालिमों की ज़ंजीर, ढह जाएगी, बह जाएगी क़ैदीख़ानों की दीवाल, आज़ादी की देवी तुमको पहनाएगी स्वागत माल, और तुम्हारे हाथों में फिर चमकेगी विजयी शमशीर।

तीन धाराएँ

जगती के विस्तृत आँगन में जिसपर अक्ति है अवसाद, तीन छिपी धाराएँ बहतीं जिनका भेद नहीं खुलता, पहली है यौवन की धारा, जिसमें लहराता उन्माद, जिसमें कल्लोलित, हिल्लोलित चलती मन की व्याकुलता। और दूसरी धार कला की जिससे कवि प्रेरित होता, जिससे वह निजन के सूने- पन में भी भरता संगीत, अंतिम है जिसमें अंतर की चेतनता खाती गोता, सब सुध-बुध आमज्जित करता अपने में जिसका जल शीत।

बुलबुल

ओ गुलाब की कली कुमारी, मुस्कानों में क्या बन्धन ? लतिकाओं में अटका रखतीं यद्यपि तुम बुलबुल का मन । बन्दी बन, वह शरण तुम्हारी; कर लो तुम इस पर अभिमान, अन्धकार में दूर-दूर, पर, गूँजा करता उसका गान !

जाड़े की साँझ

ले बर्फ़ीले वात-बवंडर, बीहड़ बादल, विज्जु-वितान, काले-काले आसमान में चढ़ता आता है तूफ़ान, लगता कभी कि गर्जन करता कोई जंगल का हैवान और कभी ऐसा लगता है रोता कोई शिशु नादान। कभी इधर से, कभी उधर से झटका-झोंका आता है, टूटी-फूटी छत का छानी-छप्पर हिल-हिल जाता है, जैसे कोई पथ का बिलमा पथी जब घर आता है, आतुरता के साथ झपटकर दरवाज़ा खड़काता है। खड़ा झोपड़ा होगा मेरा दर-दर से ढीला-ढाला, दीप न उसमें जलता होगा, फैसा होगा अँधियाला, मेरी बुढ़िया दाई खिड़की के समीप बैठी होगी, वृद्धापन के आलस के बस, या हो संभवतः रोगी, भूल गई होगी वह बीते दिवसो की बातें सारी, गूँगी बनकर बैठी होगी सुन घन का गर्जन भारी। या वह बैठी कात रही होगी चर्खा घन-घनन-घनन, झुक-झुक पड़ती होगी उसकी पलकों पर निद्रा क्षण-क्षण। आओ आज पिएँ मधु जी भर बिना हुए मन में भयभीत, नौजवान के दुख-दर्दों की एक अकेली मदिरा मीत प्याला भर दो, आज वेदना माँग रही फिर मधु का दान, एक बार फिर से अधरों के ऊपकर छाएगी मुसकान आओ गाएँ गीत कि जिसमें एक अनोखा राजकुमार सदा लगाए रहता अपनी आँखें रत्नाकर के पार, या आओ, मिलकर यह गाएँ वह गीत, सुरा के प्याले ढाल, जिसमें एक छबीली जाती जल भरने को प्रात: काल। ले बर्फ़ीले वात-बवंडर, बीहड़ बादल, विज्जु वितान, काले-काले आसमान में चढ़ता आता है तूफ़ान, लगता कभी कि गर्जन करता कोई जंगल का हैवान, और कभी ऐसा लगता है रोता कोई शिशु नादान। आओ आज पिएँ मधु जी भर बिना हुए मन में भयभीत, नौजवान के दुख-दर्दों की एक अकेली मदिरा मीत प्याला भर दो, आज वेदना माँग रही फिर मधु का दान, एक बार फिर से अधरों के ऊपकर छाएगी मुसकान।

जाड़े की सुबह

अद्भुत प्रात: बिछा भी कुहरा, छाया भी रवि-रश्मि वितान। पर जीवन के सुखमय साथी, अब भी तुम निद्रा लयमान। यह वह बेला है सुंदरता जब लेती है अँगड़ाई, खोलो नयन, उघारो पलकें, जो निद्रा से गरुआई। युगल नयन तारक चमकाओ उत्तर से, मन की रानी। उत्तर के नभ में करने को अरुणोदय की अगवानी। रात भयंकर आधी ने था अंबर में डेरा डाला, और पड़ा था सारी पथ्वी के ऊपर गहरा पाला, मुक्त न था धूसर बादल से नभ-मंडल का कोई भाग, चंद्र दिखाई पड़ता था जैसे कोई पीला दाग़। ले गंभीर उदासी बैठी थी तुम सिर को नीचा कर, लेकिन अब तो उठकर देखो अपनी खिड़की के बाहर। निर्मल नील गगन के नीचे फैली है हिम की चादर, सूरज की चटकीली किरणें पड़ती उसपर आ आकर, धरती दिखलाई पड़ती है पहने मणिमय पाटबर। छिपे धवल-निर्मल परदों के पीछे हैं जंगल काले, पेड़ सनोबर के लगते हैं कुहरे में भी हरियाले, हिम की परतों के नीचे हैं बहते चमकीले नाले। हर कमरे के भीतर फैला पीठ सुनहला उजियाला, बुझी अँगीठी के अंदर से उठती, देखो, फिर ज्वाला, जल 'चट-चट' कर, हर्ष प्रकट कर, ताप सुहाना फैलाती, कितना सुंदर, बैठ यहाँ पर देखे सपनों की पाती, किंतु न क्या इससे यह अच्छा होगा मँगवाएँ जोड़ी, और जुताएँ उसमें बढ़िया बादामी रंग की घोड़ी। प्रातकाल की उजली-चिकनी बिछी बरफ़ पर से होकर, आओ जीवन के प्रिय साथी, दूर चलें हम तुम सत्वर, चंचल घोड़ों को बढ़ने दें सरपट, कर दें ढीली रास, चलो चलें उन सूने खेतों में जिनमें फैली है घास, जंगल में, जिनमें गरमी में भी न किसी ने पग धारे, और नदी-तट पर, जो मुझको है सब जगहों से प्यारे।

बादल

ओ अन्तिम बादल झंझा के, टूट चुका है जिसका बल, धुले हुए नीले अम्बर पर घूम रहे क्यों तुम केवल, क्यों विषाद की छाया बनकर अब भी हो तुम अड़े हुए, क्यों दिन के ज्योतिर्मय आनन पर कलंक बन पड़े हुए ? प्रलय मचा रक्खी थी तुमने अभी-अभी गगनांगन में, भयप्रद विद्युत माला तुमने लिपटा रक्खी थी तन में, दिग्दिगन्त प्रतिध्वनित वज्र का व्यग्र गान तुम गाते थे, ग्रीष्म प्रतापित पृथ्वी तल पर झर-झर जल बरसाते थे । अलम् और अलविदा तुम्हें, अब नहीं तुम्हारे बल का काम, बरस चुका जल, सरस धरातल शीतल करता है विश्राम, और समीरण जो चलता है सहलाता तरुवर के पात, तुम्हें उड़ाकर ले जाएगा नभ से, जो अब निर्मल-शान्त ।

भावों की चिंगारी

जारजियन गिरि पर है रजनी अपनी चादर फैलाती, मेरे मन को बहलाने को मन्द-मधुर सरिता गाती; औ’ मेरी पलकों के ऊपर दुख की बदली घिर आती, आँखों में तुम, इससे उनकी ज्योति नहीं घटने पाती । आँखों में तुम, अन्तर में तुम, पीड़ा तो अवगुण्ठन है, शान्त बना रखा इस पीड़ा ने जगती का क्रन्दन है । दिल के अन्दर जब तक उठती है भावों की चिंगारी, प्यार करेगा, क्षार बनेगा ! देखो उसकी लाचारी ! जारजियन गिरि = कोहकाफ़ पहाड़ी प्रदेश में जार्ज़िया नामक इलाका

तातियाना का पत्र

अब जब मैं यह पत्र तुम्हें लिखने बैठी हूँ सब कह दूँगी, और तुम्हें अब आज़ादी है। मुझे करो तुम घृणा, मुझे दंडित करने को, नहीं जानती, इससे बढ़कर क्या हो सकता। पर यदि मेरे लिए तुम्हारे अंदर करुणा का कोई कण कहीं शेष है, तो तुम मुझको नि:सहाय, एकाकी छोड़ नहीं जाओगे। तुम मेरा विश्वास करोगे? —पहले मैंने यह सोचा था, एक शब्द भी नहीं कहूँगी। यदि में ऐसा कर सकती तो मेरी लाज ढकी रह जाती, कौन मुझे अपराधी कहता देख तुम्हें यदि क्षण भर लेती, या सुन लेती तुमको औरों से बतियाते, या दो बातें ख़ुद कर लेती हफ़्ते में जब एक बार तुम आते मेरे गाँव, तुम्हीं में ध्यान रमाए रात काटती, दिवस बिताती, बाट जोहती, जब तक तुम अगले हफ़्ते फिर गाँव न आते। मिलनसार तुम नहीं, यहाँ पर कुछ कहते हैं, गाँवों का एकांत नहीं तुमको भाता है। हमें दिखावा करना आता नहीं, तुम्हें, पर, यहाँ देखकर सदा ख़ुशी हमको होती थी। तुम क्यों आए? और हमारे पास किसलिए? इस अनजानी, भूली-बिसरी-सी कुटिया में पड़ी अकेली मैं न जानती तुम्हें कभी भी, नहीं कभी भी विरह-वेदना, जो तुमने दी। मृदुल भावनाएँ सब मेरी सोती रहतीं, मन मेरा भोलेपन का धन सेता रहता, —इस प्रकार से दिवस बिताते शायद ऐसा दिन भी आता, कोई पति मुझको मिल जाता मेरे मन का, और उसी की मैं बन जाती प्रिय परिणीता, और किसी दिन बड़े मान से, बड़े गाँव से माता बनती कोमल-पावन। और उसी की— नहीं कभी भी, नहीं किसी भी अन्य पुरुष को मैं अपने को अर्पित करती। परम पिता परमेश्वर की ऐसी इच्छा थी, मेरा भाग्य पूर्व-निश्चित था —मैं तेरी हूँ। मेरे जीवन का सारा अतीत आश्वासन- सा देता था कि हम मिलेंगे, साथ बँधेंगे, परमेश्वर ने इसीलिए तुझको भेजा था, तू मुझको देखे, अपनाए, और मरण की अंतिम शय्या तक तू मेरा संरक्षक हो। तू अक्सर मेरे सपनों मे भी आता था, प्रिय लगता था, गो जानती थी मैं तुझको, बहुत दिनों से तेरे स्वर से मेरे तन की शिरा-शिरा झंकृत होती थी, तेरी आँखें मुझे लुभाती, मंत्रमुग्ध मुझको करती थी, लेकिन यह न समझ मैं सपना देख रही थी। जब तू आता था सपना सच हो जाता था, मैं पहचान तुझे लेती थी, मेरे तन में बिजली कौंध उठा करती थी, और ठिठककर जहाँ की तहाँ खड़ी रहा करती थी सकुचा, मेरा दिल मुझसे कहता था, वह आ पहुँचा।” इसमें कुछ भी झूठ नहीं, जैसे पहले के विश्वासी सूने में आवाज़ें सुनते थे, वैसे ही मैं तेरे शब्द सुना करती थी— तुझे सुना करती थी उन नीरव घड़ियों में जबकि गाँव के दीनों, दुखियों की परिचर्या में रहती थी, या जब अपने भारी मन को हल्का करने को प्रार्थना किया करती थी। और आज क्या वही नहीं तू, जो आता था चमक चीर घन अंधकार मेरी रातों का, औ' मेरे तकिए के ऊपर झुक जाता था? ठीक स्वप्न की मधुर मूर्ति फिर आगे आई। देवदूत-सा क्या तू मेरा संरक्षक है? या तू मुझको धोखा देने वाली छलना? मेरे भ्रम को संदेहो को दूर हटा दे, हो सकता है इसमें कोई सार नहीं है, यह केवल नादान हृदय का सन्निपात है, और भाग्य ने कुछ विपरीत विरच रक्खा है, लेकिन यदि ऐसा भी हो तो, इस क्षण से मैं अपने को, अपनी किस्मत को, तेरे हाथों सौंप रही हूँ, रोती हूँ आ तेरे आगे, विनती करती हूँ तू ही मेरी रक्षा कर। ज़रा ध्यान दे, यहाँ अकेली पड़ी हुई हूँ, कोई नहीं समझता मुझको, काम न देता है दिमाग़ मेरा, कमज़ोरी, बेचैनी है। अगर न खोलूँ मुँह खोई-खोई रहती हूँ। मुझको एक प्रतीक्षा तेरी, तेरी चितवन एक जगा देगी मेरी उन आशाओं को जो मेरे अंतर में सोई, मृतप्राय है, या तेरी भर्त्सना एक उस स्वप्न-जाल को खंड-खंड कर देगी जो मुझको घेरे है। मेरे प्रति ऐसा व्यवहार उचित ही होगा। और नहीं अब कुछ कहना है, जो लिख डाला उसको पढ़ते हुए मुझे ख़ुद डर लगता है, ग्लानि और लज्जा में मैं डूबी जाती हूँ, मुझे बचा सकती है तो बस तेरी करुणा, मुझे भरोसा उसका ही है, अरी लेखनी, लिख दे मेरा नाम अगर साहस रखती है, कुछ न छिपाया जिससे उनसे कैसा डरना।

सुंदरता की शक्ति

मैंने सोचा था मेरा दिल शांत हुआ ऐसा बुझकर मधुर प्रणय की ज्वाला इसमें कभी नहीं जल पाएगी, मैंने कहा कि बीती घड़ियाँ, अंत हुआ जिनका सत्वर, नहीं पलटकर आएँगी, फिर नहीं पलटकर आएँगी। दूर गए उल्लास पुराने, दूर गईं अभिलाषाएँ, दूर गए मनमोहक सपने जो थे आभा के आगार। किंतु सोचता था मैं जब यह लौट सभी तो वे आए, उन्हें लिया था सुंदरता ने अपने बल से पुनः पुकार।

प्रार्थना

जग के संकट-संघर्षों में मन को सुदृढ़ बनाने को, और हृदय को स्वर्गपुरी की ड्योढ़ी तक पहुँचाने को, भक्तों ने भक्तिनियों ने भी, जिनके काम चरित्र पुनीत लिख-लिख गाए और सुनाए हैं कितने ही पावन गीत। लेकिन उन अगणित गीतों में, भजन-पदों में केवल एक है ऐसा जिससे होता है मुझमें भावों का उद्रेक। उपवासों की, पश्चातापों की, तिथियाँ जब आती हैं, वही प्रार्थना तब हर गिरजे में दुहराई जाती है। वही प्रार्थना उठा करेगी मेरे उर से बारंबार, वही करेगी मेरे निबल मानस में बल का संचार— ओ मेरी श्वासों के स्वामी! दो मुझको ऐसा वरदान, मेरे निकट न फटके आलस और निराशा का शैतान। मन से कटकर जीभ न रटती जाए घटवासी का नाम, करे नहीं विषयों का विषधर मेरे मन को अपना धाम। अपने भाई की भूलों की ओर न जाए मेरा ध्यान, किंतु न अपने अपराधों को कभी करूँ मैं क्षमा प्रदान। जाग्रत हो मेरे अंतर में भाव समर्पण का, भगवान! प्रेम, तपस्या, पावनता में देखूँ मैं अपना कल्याण।

बुद्धि

मुझसे मेरी बुद्धि न छीनो, विनती करता हूँ, भगवान, जी सकता श्रम सहकर, भूखा रहकर, लेकर भिक्षा-दान, बुद्धि बिना पर कब कल्याण? मेरी बुद्धि नहीं, गो, ऐसी जिसपर हो मुझको अभिमान, कोई मान सके तो होगा इससे मुझको हर्ष महान, यदि मैं इससे पाऊँ त्राण। दुनिया अपने प्रतिबधों से यदि कर दे मुझको आज़ाद, करने दे मुझको जो चाहूँ तो भर अंतर में आह्लाद, मैं भागूँगा वन की ओर। और वहाँ डालूँगा अपने सपनों का तूफ़ानी दोल, और अग्नि गीतों को गाता अपने कंठ अकुंठित खोल, हो जाऊँगा आत्म-विभोर। वहाँ बैठकर सुना करूँगा निर्मल झरनों का गाना, हर्ष-प्रफुल्लित, पुलकित मन से जब चाहूँगा मनमाना, ताकूँगा नव नील गगन। लेंगी होड़ प्रबल झंझा में तब मेरी साँसें स्वच्छंद, जो हरहर मरमर कर बहती हैं मैदानों पर निर्द्वंद्व, और झुमा देती कानन। बुद्धि विकृति यदि हो जाए तो, यह दुनिया है ऐसी क्रूर, तुमको रक्खेगी अपने से संक्रामक रोगी-सा दूर, तुमको जकड़ेंगे बंधन। दुनिया वाले जंज़ीरों से हाथ-पाँव दोनों कसकर, ठेल तुम्हें देंगे ले जाकर पागलख़ाने के अंदर, पशुओं-सा होगा जीवन। पागल साथी वहाँ रहेंगे करते हरदम चीख़-पुकार, और सुनाई देगी रातों को रखवारों की फटकार, और बेड़ियों की झन-झन। कभी नहीं फिर सुन पाओगे तुम बुलबुल का मंजुल राग जिससे रजनी की छाया में गुंजित होता हर वन-बाग़, वन्य विहगों का गायन।

जीवन

मुझको यह मालूम नहीं है क्यों यह जीवन का वरदान मुझे अचानक दिया गया है, जो इसके गुण से अनजान । मुझको यह मालूम नहीं है क्यों करके इसका निर्माण, अन्ध नियति ने मृत्यु-लक्ष्य की ओर किया इसको गतिमान । किस निर्दय, किस मनमानी ने सूनेपन का पर्दा फाड़ आदिहीन तन्द्रा-निद्रा से मुझको सहसा लिया पुकार । किसने मेरे मन के अन्दर भर दी भावों की ज्वाला, किसने ले मस्तिष्क उसे शत शंकाओं से मथ डाला । नहीं दिखाई देता मुझको नयनों के आगे कुछ ध्येय, मन को प्रेय नहीं मिलता है, बुद्धि नहीं पाती है श्रेय, गर्जन करता है जीवन का मेरे पीछे नित्य अभाव, बने हुए हैं मेरे मन के ऊपर उसके शत-शत घाव ।

स्मृतियाँ

जबकि नगर के लेन-देन का, दौड़-धूप का सारा शोर पड़ जाता है मंद और सड़कों औ' बाग़ों के ऊपर, गिर जाता है निशि की पलकों का पर्दा हो नींद-विभोर— नींद, छुड़ाती जो मानव को जग चिंताओं से भू पर। किंतु रात में मुझको आती नींद न मिलता है विश्राम, एक भीड़ दुखद घड़ियों की विस्मृति से सहसा उठकर धीरे-धीरे घुसती जाती मेरी छाती में अविराम, और निगलने लगती उसको, जैसे विषदंती अजगर। मूर्तिमान मेरा भय होता, और वेदनाओं की धार थके हुए मेरे दिमाग़ पर उठ-उठ करती है आघात, और खोलकर सुधि फिर अपना बीती बातों का भंडार, मुझे सुनाती कथा कि जिसका मुझको अक्षर-अक्षर ज्ञात। सुन अतीत की गाथा अपनी मैं होता शंकित, लज्जित, और भीत कपित हो देता अपने को अभिशाप अनेक, पश्चात्ताप भरे आँसू से होते मेरे नेत्र स्रवित, किंतु समर्थ न होते धोने में वे उसका अक्षर एक।

एक रात

नींद नहीं मुझको आती है, दीप नहीं कोई जलता, चारों ओर घिरा जो मेरे अन्धियाला मुझको खलता, ख़ुट-खुट की आवाज़ें कितनी आतीं कानों में मेरे, रात नापने को बैठी हैं घड़ियाँ जो मुझको घेरे । भाग्य देवियो, छेड़ पुराना बैठी हो पचड़ा-परपँच, नींद-नशीली, झोंकोंवाली होती यह रस-रात, वरँच; चूहे जैसे काट-कुतर की करते रातों में आवाज़, वैसी ही ध्वनियों से जीवन करता है मुझको नासाज़ । बतलाओ, मतलब है क्या इन धीमी-धीमी बातों का, ईश्वर जाने क्या शिकवा है इन दुखियारी रातों का । क्या न बताओगी यह मुझसे तुम किस चिन्तन में रहतीं, मुझको आमन्त्रित करतीं या बात भविष्यत् की कहतीं । हाय, बताए कोई आकर मुझको शब्दों के माने, जो कानों में कहती रहती रात अन्धेरी अनजाने !

दुर्दिन

स्वप्न मिले मिट्टी में कब के, और हौसले बैठे हार, आग बची है केवल अब तो फूँक हृदय जो करती क्षार । भाग्य कुटिल के तूफ़ानों में उजड़ा मेरा मधुर बसन्त, हूँ बिसूरता बैठ अकेले आ पहुँचा क्या मेरा अन्त । शीत वायु के अन्तिम झोंके का सहकर मानो अभिशाप, एक अकेली नग्न डाल पर पत्ता एक रहा हो काँप ।

शोकगीत

उतर चली यौवन की मदिरा अब तो शेष खुमारी है, पागल घड़ियों की रँगरलियों की सुधि मन पर भारी है, सुरा पुरानी जितनी होती उतनी ही मादक होती, याद पुरानी जितनी होती उतनी ही पातक होती । अन्धकारमय मेरा पथ है और भविष्यत् का सागर, गर्जन करता मेरे आगे बन विपदाओं का आकर; लेकिन, भाई, मुझे नहीं है फिर भी मरने की अभिलाष, घटी नहीं मेरी जीवन की, सपनों की, पीड़ा की प्यास । मैं चिन्ताओं और व्यथाओं और वेदनाओं के बीच, सुख के अश्रु-कणों से अपना मुर्झाया मुख लूँगा सींच, एक बार फिर पागल होकर गाऊँगा मैं स्वर्गिक गान, एक बार फिर स्वप्न करेंगे मेरे दृग स्रोतों से स्नान । औ’ जीवन की अन्तिम बेला आएगी जब पास, उदास, प्रथम विदा की मुस्कानों से रंजित कर देगा आकाश ।

अंतिम चाह

चाहे चलता हूँ सड़कों पर जिनपर नागरिकों का शोर, चाहे चलता हूँ राहों पर जो जाते गिरजे की ओर, चाहे बैठूँ वहाँ जहाँ पर यौवन करता है अभिसार, मेरे मन के अंदर उठने लगते हैं इस भाँति विचार— देखो, कितनी जल्दी बीते जाते है सालों पर साल, डाल चुका है, देखो, कितनों को अपने गालों में काल, चली जा रही है सब दुनिया यम के पुर को आँखे मूँद, देखो, कितनों के पाँवों के नीचे है मंज़िल मकसूद। देख रहा हूँ एक पेड़ जो खड़ा सामने तना घना, और सोचता हूँ यह युग-युग तक रहने के हेतु बना, मैं मृत-विस्मृत हूँगा, इसमें पत्र लगेंगे नए-नए, पिता पितामह भी तो मेरे होंगे योंही सोच गए। फैला हाथ उठा लेता हूँ गोदी में शिशु ललित, ललाम, और कहा करता हूँ उससे, तुमको मेरा विदा-प्रणाम, ध्वनित करोगे तुम घर जिसको मैं कर जाऊँगा सुनसान, सिलते जाते दिवस तुम्हारे, मेरे होते जाते म्लान। प्रति पल, प्रति दिन और प्रति निशा, प्रति सप्ताह और प्रति मास, मुझे ध्यान रहता है इसका मौत चली आती है पास, औ' पूछा करता अपने में कब आ पहुँचेगा यह काल जबकि गले मेरे डालेगी वह अपनी बाँहों का जाल। मेरा अंत कहाँ आ मुझको बाँधेगा भुज-बंधन में, दूर देश में, वन-विदेश में, सागर या समरांगण में, या समीप की घाटी कोई मुझको पकड़ बुलाएगी, और हरण कर प्राण बदन पर हिम या कफ़न उढ़ाएगी। इसकी कुछ परवाह नहीं है, कहाँ छूटता मेरा प्राण, कहाँ उसे मिलता है विजड़ित काया के बंधन से त्राण लेकिन किसे नहीं होता है अपनी ड्योढ़ी से अनुराग, मौत मिलेगी मुझे वही, यदि होगा मेरा ऐसा भाग। यही चाहना केवल, मेरी क़ब्रगाह के चारों ओर, खेल रहे हों, कूद रहे हों हँसमुख बच्चे हर्ष विभोर, और प्रकृति निज आँगन साजे ऐसी छवि से अतुल, अनंत, एक बार जिसमें आकर फिर जाना जाए भूल बसंत।

यादगार

मैंने अपनी यादगार ली बना, नहीं पर हाथों से, होगी इसकी पूजा दुनिया भर के झुकते माथों से, देखो यह नभ में गर्वोन्नत अपना शीश उठाती है, इसके नीचे खड़ी सिकंदर की मीनार लजाती है। मूक बना दे मौत मुझे पर वीणा तो होगी वाचाल, मुझे वहाँ पर पहुँचाएगी जहाँ नहीं जा सकता काल, एक सुकवि का भी वसुधा पर जब तक शेष रहेगा धाम, बजा करेगी मेरी वीणा, जगा करेगा मेरा नाम। रूस देश की विस्तृत पृथिवों मेरी कीर्ति गुँजाएगी, हर सजीव भाषा मानव की मेरी कविता गाएगी, स्लाव और फिन, कलमुक, तुगुस की मैं अभिमानी संतान, जिनके गौरव की गाथा से परिचित है रूसी मैदान। युग-युग तक सब राष्ट्र जातियाँ देंगी मुझको आदर मान, क्योंकि विशद भावों की प्रेरक है मेरी वीणा की तान, ज़ालिम घड़ियों में गाया है मैंने आज़ादी का राग, और सताए लोगों के प्रति न्याय दया की रक्खी माँग। अंबर के अनुशासन पर चल, वाणी, सुन उसकी आवाज़, बंदगोई से सीख न डरना, नामवरी का माँग न ताज, निंदा और सुयश से अपने कान मूद ले, मुँह मत खोल, मुख के अंदर ही मुखरित हो मिट जाते मूढ़ों के बोल!

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