जीवन परिचय : शंकरदास - सन्दीप कौशिक

Biography : Shankardas - Sandeep Kaushik

कविकुल गुरु पं शंकरदास को कविकुल गुरु इसलिए कहा जाता हैं, क्योंकि इनकी साहित्यिक वंशबेल इतनी फली-फूली है कि जिसके बिना सम्पूर्ण सांग विधा अर्थात हरियाणवीं साहित्य के ग्राफ को शून्य छूते देर न लगेगी या दूसरे शब्दों में यूँ कहे कि सांग विधा औचित्यहीन ही बनकर रह जायेगी। अगर पं शंकरदास कविकुल के साहित्यिक योगदान के दृष्टिकोण पर ध्यान केंद्रित करें तो आज उनके योगदान को शब्दों में बयां करना बड़ी टेढ़ी खीर होगी। फिर भी हमारा दायित्व हैं कि इस पर एक नजर अवश्य डाले जो युवा पीढ़ी व शोद्धकर्ताओं को भी प्रेरित करेगी।

महाकवि शंकरदास का जन्म यद्यपि आधुनिक काल के प्रारम्भिक दिनों में हुआ था, तथापि उनकी रचनाओं में भक्ति, ज्ञान और वैराग्य की अद्भुत त्रिवेणी का अभूतपूर्व समन्वय हुआ था। पश्चिमी भारत के हरियाणा, पंजाब और मेरठ मण्डल के अनेक क्षेत्रों तक इनकी काव्य प्रतिभा का प्रसार प्रचुरता से हुआ था। भक्ति काल में निर्गुण काव्य का जो उत्कर्ष कबीर और तुलसी की रचनाओं में दिखाई देता है, उसका उज्ज्वलतम रूप महाकवि शंकरदास की रचनाओं में पूर्णतः साकार हो उठा था। यद्यपि उनका काव्य-काल भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से लगभग २५ वर्ष पूर्व था, किन्तु उनकी रचनाएँ इस बात की साक्षी हैं कि खड़ी बोली हिन्दी के काव्य में लोक-संस्कृति कितने उदात्त रूप में मुखरित हो सकती है। उनकी रचनाओं में इस क्षेत्र के जन-जीवन में प्रयुक्त होने वाले अनेक मुहावरे और लोकोक्तियाँ इतनी सहजता के साथ प्रयुक्त हुई हैं कि उनमें यहां की संस्कृति का परिष्कृत रूप देखने को मिलता है। उनकी प्रायः सभी रचनाओं में आध्यात्मिकता, नैतिकता और सांस्कृतिक समन्वय की जो धारा प्रवाहित हुई है उससे इस क्षेत्र की अनेक परम्पराओं का परिचय भी हमें भली-भाँति हो जाता है।

पं शंकरदास की कृति के संदर्भ में इनका जन्म मेरठ से सात मील पूर्व में गढ़मुक्तेश्वर को जाने वाली सड़क पर बसे जिठौली नामक ग्राम के एक वशिष्ठ गोत्रीय ब्राह्मण परिवार में सन् १८२४ ईसवी को पण्डित कल्याणदत्त उर्फ कलुआ के यहाँ हुआ था। उनकी माता का नाम श्रीमती दानकौर था। अपने पारिवारिक परिवेश का परिचय शंकरदास ने एक पद में इस प्रकार दिया है।

मकरुत दुतियाने का निकास हुआ,
पिलखुवा में बसे बड़े अन्न जल प्रकाश का।
कल्याणदत्त नामदेह, पिता का विख्यात हुआ,
दानकौर माता, फन्दा टूटा यम-त्रास का।
आदि गौड़ विप्र और गोत्र तो वशिष्ठ म्हारा…?,
मेरठ का जिला, डाकखाना मऊ खास का।
गढ़ को सड़क जात, मौजे का जिठौली नाम…?, छोटा-सा स्थान, जिसमें बना शंकरदास का॥

लेकिन वास्तविक रूप में इनका जन्म एक दूसरे गाँव रामपूर (रम्मपुर) के जंगली क्षेत्र में हुआ था जो पिलखुवा के पास है, उनके नाना का गाँव जिठौली था, उनकी माता का कोई भाई न था। इस कारण वे बचपन में ही माता के साथ नाना के पास आकर जिठौली बस गये थे और नाना के वर्चस्व हेतु जिठौली को ही हमेशा जन्मभूमि माना।

20-22 वर्ष की अवस्था में ही आपने कवित्व में पूर्ण प्रखरता प्राप्त कर ली थी और उनके निर्गुण भक्तिपरक गीतों का प्रचार इस क्षेत्र में इतना अधिक हो गया था कि गंगा तटवर्ती मेरठ अंचल से लेकर पश्चिम के सभी क्षेत्रों तक इनकी शिष्य परम्परा हो गई थी। वे बालब्रह्मचारी, सत्यशोधक और ब्रह्म-ज्ञानी के रूप में न केवल इस क्षेत्र में ही विख्यात हुए, बल्कि उनकी रचनाओं की ख्याति देश में दूर दूर तक फैल गई। पूर्वी पंजाब, हरियाणा और मेरठ मण्डल में तो उनकी रचनाओं ने इतनी जागृति उत्पन्न की कि सर्वत्र उनकी शिष्य-परम्परा स्थापित हो गई। उनकी प्रमुख रचनाएँ प्रकाशित रूप में उपलब्ध होती हैं उनमें–
१. ‘भक्ति मुक्ति प्रकाश, २. ‘भजन शब्द वेदान्त’, ३. ‘ब्रह्म ज्ञान प्रकाश’, ४. ‘बुद्धि प्रकाश’, ५. ‘धर्म सनातन’, ६. ‘बारह खड़ी’, ७. ‘रुक्मिणी मंगल’ ८ कृष्ण जन्म’, ६. ‘ध्रुव भगत’, १०. ‘प्रह्लाद भक्त’, ११. ‘हरिश्चन्द्र’ १२. ‘नरसी का भात’, १३. ‘श्रवणकुमार’, १४. ‘मोरध्वज’, १५. ‘सती सुलोचना’, और १६. महा भारत (भीष्म पर्व) आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

सन्त शंकरदास की इन रचनाओं में से ‘ब्रह्म ज्ञान प्रकाश’ लक्ष्मी वेंकटेश्वर प्रेस बम्बई से सन् १९२१ में प्रकाशित हुई थी। ‘महाभारत’ (भीष्म पर्व ) भी उन्हीं दिनों छपा था। ‘ब्रह्म ज्ञान प्रकाश’ में उनकी फुटकर रचनाएँ समाविष्ट हैं और ‘महाभारत’ प्रबन्ध-काव्य है। लगभग २५०० पदों के शंकरदास के समग्र काव्य-साहित्य पर दृष्टि डालने से हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उनमें ज्ञान, भक्ति, वैराग्य, अष्टांग योग, आयुर्वेद, कर्मयोग एवं समाधि-विषयक विविध विधाओं का विकास प्रमुखता से हुआ है। देशज शब्दों, मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रचुर प्रयोग के कारण उनकी भाषा अत्यन्त सहज तथा सरल बन पड़ी है। इसका उदाहरण उनके इस पद से मिलता है

नारी नहीं, नर चेत, कपट छल माया है।

दिल का भेद कहीं ना खोले, हँस-हँस वाणी मीठी बोले।
समझे है कोई अन्त, जगत् भरमाया है।
नारी नहीं, नर चेत, कपट छल माया है।

वे किसी विशेष सिद्धान्त, पन्थ और मान्यता में बंधकर नहीं चले। वास्तविक भक्ति ही उनकी साधना का मार्ग था बुरी बात का विरोध करना और अच्छी बात को ग्रहण करना ही उनका एक मात्र लक्ष्य था। अपने पंथ का वर्णन करते हुए वे कहते हैं

दादू पंथी नहीं गरीबदासी, चरणदामी नहीं निमले उदासी

नहीं कबीर, नहीं घीसा घासी, भैरव चक्र नहीं कूड़ा पन्थी
अब दई तोड़ भरम की ग्रन्थी, जो तुम बूझो सच-सच सारा।
कुफर तोड़ है पन्थ हमारा ॥

अपनी ‘भक्ति मुक्ति प्रकाश’ नामक काव्य-कृति में उन्होंने मुक्ति-साधना और आध्यात्मिकता का जो अद्भुत समन्वय प्रस्तुत किया है वह उनकी काव्य प्रतिभा का ज्वलन्त प्रमाण है। वे कहते हैं कि

जन्म लिया फिर सुख नहीं पाया, विषय-भोग ने मुझे फंसाया,
अब तक नहीं समझ में आया, ये मेरा सकल कसूर है,
दिल उड़ता फिरै सतानी।

घेर-पार बुद्धि को लाता, मन तुरंग बाजी बन जाता,
फिर अनंग मध आन सताता, एक तृष्णा उर-बिच हूर है,
बनी बैठी वो इन्द्राणी।

इसके उत्तर में उन्होंने अपने शिष्यों को विषय भोगों को छोड़कर मन को वश में करके साधना करने का जो उपदेश दिया है वह भी उनकी काव्य प्रतिभा और भक्ति-चेतना का परिचायक है। वे कहते हैं-

सैरा करले दसों द्वार का, दिल रोक अटल बंगले में।।

तू न किसी का, ना कोई तेरा, सुपन समान समझ ये डेरा
चिड़िया कैसा रैन बसेरा, ये जीवन दिन चार का
जैसे रोशनाई बंगले में ।

मन स्थिर कर शोध पीव को, जद सुख उपजै तरे जीव को
जैसे पैर से मथे घीव को, तज दे छाछ विकार का
क्यों भरमै तू बंगले में ।

मन को स्थिर करके पिया की खोज करने का जो उपदेश शंकरदास जी ने अपने शिष्यों को दिया है, वास्तव में उसी के मार्ग पर चलकर उन्होंने विकारों की छाछ छोड़कर वास्तविक तत्व को प्राप्त किया था।

वे साम्प्रदायिक भावनाओं के भी अत्यन्त विरोधी थे। उनकी दृष्टि में मानव मात्र सभी समान थे। परमात्मा, अल्ला और गुरु आदि के नामों की समानता पर जोर देते हुए उन्होंने इसके लिए झगड़ने वाले व्यक्तियों को किस प्रकार फटकारा था, यह उनके इस पद से प्रकट होता है।

होती बेसमझों में तकरार, वो ही ईशु, राम, खुदा है।

मक्के, मदीना, गिरजा अन्दर, मस्जिद, ठाकुरद्वारे, मन्दर
कस्बे, ग्राम, सहर और बन्दर, ये सब हैं इकसार
समझो फिर कौन जुदा है।

धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में अनेक मतों, पन्थों और पाखण्डों पर चोट करते हुए वे कहते हैं-

क्यों अजब तरह के लोग हैं, ऐसे अब पन्थ चलें जी |

कलजुग प्रबल पाप प्रचण्डा जी, अनेक मतों के चले पखण्डा जी
किसी पे तुम्बा, माला डंडा जी, सिर पे रखते बहुत जटा जी,

कोई जोगी है कनफटा जी, वैरागी भी खेलें पटाजी
कोई सिर मूंडत, मूंछ कटा जी, कोई ताप का सार्धं योग है। क्या अजब तरह के लोग हैं।

रहस्यवाद की दृष्टि से भी शंकरदास का काव्य कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। साधनागत रहस्यवाद और पट्चक्रों के वर्णन-सम्बन्धी उनके अनेक पद इसके प्रमाण हैं। राम नाम की खेती वे किस प्रकार करते हैं, इसका वर्णन भी उन्होंने अपने एक पद में इस प्रकार किया है।

श्री राम नाम की खेती, हमने अभी के बोई है।

हिम्मत का हल बँधवाया है, प्रीत का पाथा चढ़वाया है??

कान्ति की कात दई जड़वाय, करतब का दिया करवा गढ़वाय,
क्षमा की फाली दई बनाय, नेह की नाड़ी लई मँगवाय
रहम की रस्सी दुजोई है, सब मत के बैल दो सेती,
श्री राम नाम की खेती ।

मोक्ष फल लगे अमर हरियाली, जिसमें बीज मूल न डाली
समता रहे जहाँ रखवाली, कथना शंकरदास निराली
इसका तो महरम कोई है, सुमति-निवृत्ति चेती ।
श्री राम नाम की खेती हमने अभी के बोई है।

एक बार शंकरदास को अचलानन्द ब्रह्मचारी नाम के सन्त का उपदेश सुनकर जब वैराग्य हो गया और उन्होंने पूर्णतः संन्यासियों के वेश को अपना लिया, तब उन्होंने अपने नाते-रिश्तेदारों को समझाते हुए जिन भावनाओं को प्रकट किया था उनसे उनकी सांसारिक विरक्ति का प्रकटीकरण होता है। उन्होंने कहा था कि

मनै भर लिया भेष फकीर का, क्या आभूषण धारूंगा।।

विधि लिखी सब सत्य हो जाती, अब भैया नहि पार बसाती
मेरी एही समझ में आती, लिया भोगूंगा तकदीर का,
अब क्या भगवे तारूँगा।

बांधी भगवा आज लंगोटी, सिर मुंडवाय कटा ली चोटी
घर-घर होय मांगनी रोटी, पूजन करूं कृष्ण तस्वीर का,
इस मनुवा को मारूंगा।

मुझको मत भैया समझाना, अब धारा सन्तों का बाना
‘शंकर’ कहे अब लगा निशाना, ब्रह्म ज्ञान के तीर का,
अब सब दुविधा बारूँगा।

मनै भर लिया भेष फकीर का, क्या आभूषण धारूंगा।।

शंकरदास की रचनाओं में हमें जहाँ ज्ञान, भक्ति और वैराग्य का सुन्दर परिपाक देखने को मिलता है, वहाँ सांसारिक क्रिया-कलापों, लोक-व्यवहारों और उत्सव पर्वो का वर्णन भी उन्होंने पूर्ण तन्मयता से किया है। अपनी ‘नरसी का भात’ नामक कृति में नरसी के विवाह की धूमधाम और घुड़चढ़ी के अवसर पर बजने वाले गाजों-बाजों तथा दूल्हे के सिर पर सजे मौड़ का वर्णन उन्होंने जिस स्पष्टता से किया है वह देखते ही बनता है। वे कहते हैं

नक्कारे, नफीरी, खेल, तुरी तासे रहे बाज,
घुड़चढ़ी करने लगे, सिर पर मौड़ रहा साज
छत्र की तो छाया किन्हीं, धान बोए लेके छाज जी ।

भेर वाला शब्द करता, मंगल सारी गाव नार
सती, शक्ति, देव पूजे, करते सब जै जै कार
नरसी की माता तब, देत है निछावर तार
नहि फूली समाती गात में, सब मिल-मिल करते हाँसी।।

एक बार शंकरदास की अपने समकालीन सन्त कवि गंगादास से नोक-झोंक हो गई। गंगादास की मान्यता थी कि साधना का पन्थ अत्यन्त कठिन है। साधक को भगवान् की प्राप्ति के लिए कभी-कभी अनेक बलिदान करने पड़ते हैं और उसे अपना सिर तक भी भेंट चढ़ाना पड़ता है। गंगादास ने जब इसकी अभिव्यक्ति अपने एक पद में इस प्रकार की-

सतगुरु तुझे पार लगावे, सिर तार दे उतराई में

तब शंकरदास ने इसका उत्तर इस प्रकार दिया था-

सतगुरु वे इच्छा है भाई, नहीं चाहता सिर उतराई।।
सिर तो चाहते करद कसाई, तुमने बे-समझे क्यों गाई।।

ऐसे अनेक प्रसंग उनके काव्य में देखने को मिलते हैं जिनमें उन्होंने भक्ति और वराग्य के क्षेत्र में उठने वाली अनेक समस्याओं का समाधान सहज और सुबोध शैली में प्रस्तुत किया है। शंकरदास के पदों की भाषा में ठेठ खड़ी बोली की शब्दावली और मेरठ तथा हरियाणा-अंचल में प्रचलित साधुजन भाषा का व्यावहारिक रूप अत्यन्त परिष्कृत एवं परिनिष्ठित रूप में दिखाई देता है। उनका यह पद इसका उत्कृष्ट उदाहरण है।

राज मिला राजा क्यों रोया, जोग मिला रोया क्यों जोगी
भोग भजे भोगी क्यों रोया, रोग भजे रोया क्यों रोगी ।।
एक जगह यह कुछ अलग तरह लिखा है-

राज मिले राजा क्यूँ रोया,रोग कटे रोया क्यूँ रोगी ।पुत्तर जन्मत क्यू रोयी त्रिया, भोग करें क्यूँ भाज्या भोगी॥

इस विषय मे पं राजेराम संगीताचार्य (पं मांगेराम) ने बताया कि-

राज मिलने से भरत रोया था,
रोग कटने से दशरथ रोया था,
पुत्र जन्मने से देवकी रोई थी,

संसार के अनेक कष्टों को वर्णित करने की जो विद्या उन्होंने अपनाई, वह उनकी सर्वथा अनूठी प्रतिभा की द्योतक है। ‘भोग’ के साथ ‘भजे’ शब्द का प्रयोग भोगने के अर्थ में और ‘रोग’ के साथ उसका प्रयोग भागने अर्थात् दूर होने के अर्थ में किया गया है। शंकरदास के ऐसे अनेक पद इस प्रदेश के ग्रामीण अंचलों में आज भी श्रुति परम्परा से चले आ रहे हैं और उन्होंने लोकप्रियता के चरम शिखर को छू लिया है। इनकी प्राय: सभी रचनाओं में कहीं-कहीं जायसी जैसा रहस्यवाद कबीर जैसी साधना और तुलसी जैसी भक्ति के दर्शन सहज भाव से हो जाते हैं। खेद है कि ऐसे समर्थ कवि की हमारे इतिहासकारों ने सर्वथा उपेक्षा की है और उन्हें मात्र लोककवि समझकर ही उनकी साहित्यिक गरिमा के महत्त्व को नकार दिया है। आज जब हरियाणा और मेरठ के विश्वविद्यालयों में हिन्दी की विविध आयामी शोध हो रही है, तब ऐसे समर्थ कवि के व्यक्तित्व और कृतित्व पर विशद शोध करने की महती आवश्यकता है।

पं शंकरदास से संबंधित एक चमत्कारिक प्रसंग:-

दादा शंकरदास जी की एक पुत्री थी जिसका नाम था चमेली। चमेली का विवाह मेरठ उ.प्र. के गांव भूडबराल के पाराशर गोत्रीय ब्राह्मण सागरमल से हुआ था। विवाह के कई वर्षों के बाद भी चमेली को कोई सन्तान न हुई तो चमेली काफी चिन्तित हो गयी। शंकरदास जी सन्यासी हो चुके थे, सन्यासी पिता की उस पुत्री की जब पिता से भेट होती थी, तो सन्यासी आशीर्वाद देता था कि फलो-फूलो।
खूब दवाई गोली चलने के बाद भी चमेली को कोई संतान हुई, अन्त में उसने पति सागरमल को दूसरी शादी करने की सलाह दी। सागरमल ने मना कर दिया, खूब जोर डाला गया परन्तु सागरमल ने साफ इंकार कर दिया।

कुछ समय बाद चमेली बीमार हो गयी और अपने पति से जिद करदी कि संतान उत्पति हेतु दूसरा विवाह करले मगर उनके पति सागरमल ने साफ बता दिया कि वह चमेली के साथ ही खुश और संतुष्ट है, वे चमेली के लिए सौतन लेकर नहीं आयेंगे।

चमेली कुछ अधिक बीमार पड़ गयी, फिर जब एक दिन शंकरदास जी साधुरूप मे भ्रमण करते हुए अपनी पुत्री का हालचाल पूछने हेतु उनके ससुराल पुत्री के घर पहुंचे, तब उनकी पुत्री चमेली ने अपने पिता शंकरदास से कहा, आज अगर आप घर आये हो तो मुझ आशीर्वाद रूप में कुछ देकर जाओ। उन्होंने कहा “बोलो क्या चाहती हो? तब उनकी पुत्री चमेली ने कहा ” मैं काफी बीमार हूँ और मेरा स्वर्गवास नजदीक हैं ” ऐसा कहकर चमेली ने अपने पति सागरमल का हाथ शंकरदास जी को पकडा दिया और कहा,”मुझे वंशवृद्धि चाहिए, मेरे कुल में मुझे कोई पानी देने वाला पैदा होना चाहिए।”
सागरमल का हाथ शंकरदास जी के हाथों में देकर चमेली ने हिदायत दी, “हे पिता! मेरे पति को मेरी मृत्यु के बाद साधू मत बना देना, उसे ग्रहस्थ बनाना, किसी भी प्रकार से चमेली को पानी देने वाला जन्मना ही चाहिए और वो चमेली के पति की ही सन्तान होगी” इतना कहकर पुत्री चमेली ने पति व पिता के हाथों में ही पैर पसार दिए, शरीर त्याग दिया। कुछ दिन बाद शंकरदास जी बुलंदशहर के सामई गांव में गये जहां उनके एक घनिष्ठ प्रेमी ब्राह्मण थे जिसके सात पुत्र थे और एक पुत्री थी, शिवदेई। शंकरदास जी ने गोद रूप में मांग लिया, और पुत्री के रूप मे ग्रहण किया, अपने दामाद सागरमल के साथ शिवदेई की शादी करवादी।
फिर कुछ समय बाद तक शिवदेई को भी संतान न हुई। सागरमल बीमार पड़ गये और एक दिन शाम 4 या 4 बजे के आसपास निःसंतान ही निष्प्राण होकर प्राणरहित हो गए। शंकरदास जी वचनहारी हो रहे थे क्योंकि उन्होंने अपनी बेटी चमेली व दामाद को पुत्ररत्न का आशीर्वाद दे रखा था।
जब गांव वाले उनके दामाद को दाह संस्कार के लिए तैयारी करने लगे तो उनकी दत्तक पुत्री शिवदेवी ने ये कहते हुए मना कर दिया कि जब तक मेरे धर्मपिता पं शंकरदास जी नही आएंगे, तब तक मैं दाह संस्कार नही करने दूंगी। गांव वालों ने शंकरदास जी को ढूंढना शुरू किया, जिठौली पहुंचे, परन्तु मगर वे नही मिले।
फिर सुबह चार बजे ब्रह्ममुहूर्त में शंकरदास जी वहां पहुंचे, जहां शिवदेई मृत पति के शव को सम्भाले बैठी थी। शंकरदास जी को देखते ही शिवदेई अधीर होकर उनसे लिपट पडी, “पिताजी महाराज” चमेली रोकर कह रही थी, “अब तो यू भी गया, तेरा दामाद भी गया, अब क्या होगा?”
“मैं देख तो लूं, बेटी” शंकरदास जी अपने मृतक दामाद सागरमल के मृतक शव के पास गये, सिर पर हाथ फेरा और चमत्कार हो गया, मृतक बैठा हो गया अर्थात पुनर्जीवित!
जिससे पं शंकरदास का आशीर्वाद रूपी वचन पूरा हुआ। कुछ और समय बीतने के पश्चात उनके दामाद सागरमल व उनकी दत्तक पुत्री शिवदेवी को पुत्ररूप में संतान प्राप्ति हुई, बाद में एक पुत्री भी हुई, सागरमल-चमेल-शिवदेई की वंशबेल आज भी भली प्रकार फल फूल रही हैं।
इस प्रकार शंकरदास जी ने अपनी आत्मजा चमेली की वंशबेल फलने फूलने का जो वचन दिया था, वह पूरा किया।

(साभार : सांग / स्वांग विधा का स्वरूप, परम्परा एवं उसकी देंन : सन्दीप कौशिक)

  • मुख्य पृष्ठ : काव्य रचनाएँ : शंकरदास
  • मुख्य पृष्ठ : हिन्दी कविता वेबसाइट (hindi-kavita.com)