जीवन परिचय और रचनाएँ : संत मीरा बाई

Biography : Sant Meera Bai

मीराबाई (1498-1547) सोलहवीं शताब्दी की एक कृष्ण भक्त और कवयित्री थीं। मीरा बाई ने कृष्ण भक्ति के स्फुट पदों की रचना की है। संत रैदास या रविदास उनके गुरु थे।

मीराबाई का प्रारंभिक जीवन और विवाह

कृष्ण भक्त मीराबाई का जन्म सन 1498 में कुड़की में एक राजपूत परिवार में हुआ था जो कि अभी राजस्थान के पाली जिले में आता है।

मीराबाई के पिता का नाम राठौर रतन सिंह था। मीराबाई के पिता राठौर रतन सिंह मेड़ता के महाराजा के छोटे भाई थे। मीराबाई की माता जी का नाम कुसुम कुंवर था वह टांकनी राजपूत थी। मीरा बाई के नाना जी का नाम कैलन सिंह था।

मीराबाई अपने पिता की एकमात्र संतान थीं। मीराबाई को अपनी कृष्ण भक्ति के कारण जीवन भर बहुत से कष्टों और चुनौतियों का सामना करना पड़ा।

जब मीराबाई 3 वर्ष की थी तब इनके पिताजी का निधन हो गया था तथा जब ये 10 वर्ष की हुई तब इनकी माताजी का भी निधन हो गया था।

इनकी माता का निधन होने के बाद मीराबाई के दादा राव दूदा इन्हे मेड़ता ले आए और बहुत ही प्रेम पूर्वक मीराबाई का पालन पोषण किया।

राव दूदा भी मीराबाई की तरह एक भक्त-हृदय व्यक्ति थे इस कारण राव दूदा के यहां हमेशा ही धार्मिक व्यक्तियों और साधु संतों का आना जाना लगा रहता था। इसी वजह से मीराबाई बचपन से बहुत ही आध्यात्मिक व्यक्ति थी तथा संगीत में भी बहुत रूचि रखती थी।

जब मीराबाई छोटी थी तब मीराबाई के घर के पास एक बारात आई। बारात को देखने के लिए आसपास की सभी स्त्रियाँ छत पर खड़ी हो गई। मीराबाई भी बारात देखने के लिए छत पर मौजूद थीं।

बारात को देखने के बाद मीरा बाई ने अपनी दादी से पूछा कि "मेरा दूल्हा कौन है?" इस पर मीराबाई की दादी ने मज़ाक में भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति की तरफ़ इशारा करते हुए कहा कि "यही है, मीरा तेरा दूल्हा"।

यह बात मीराबाई के बचपन से उनके मन में गाँठ की तरह बैठ गई और वे कृष्ण को ही अपना सब कुछ समझने लगीं।

मीराबाई बचपन से ही संगीत में बहुत रुचि रखती थी तथा इसी कारण उन्हें बचपन में ही प्रसिद्धि मिलने लगी।

इस समय मेवाड़ के महाराजा राणा संग्राम सिंह या राणा सांगा थे।

राणा सांगा एक बहुत ही वीर राजपूत योद्धा थे राणा सांगा के शरीर पर 80 जख्मों के निशान थे तथा इन्होंने मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना एक हाथ, एक आंख,और एक पैर खो दिया था परंतु इसके बाद भी राणा सांगा शत्रुओं से घमासान युद्ध करते थे।

मीराबाई के गुणों तथा प्रतिभा की बात मेवाड़ के महाराजा राणा संग्राम सिंह तक भी पहुंची और राणा सांगा ने देर न करते हुए मीराबाई के लिए अपने बड़े बेटे भोजराज का विवाह का प्रस्ताव भेज दिया।

मीराबाई के परिवार ने तो यह रिश्ता तुरंत स्वीकार कर लिया पर इस विवाह के लिए मीराबाई बिल्कुल भी राजी नहीं थी, परन्तु परिवार वालों के अत्यधिक दबाव के कारण मीराबाई को तैयार होना पड़ा।

अपनी विदाई के समय मीराबाई फूट-फूट कर रोने लगी तथा अपने साथ भगवान कृष्ण की वही मूर्ति ले गई जिसे उनकी दादी ने उनका दूल्हा बताया था।

मीराबाई के पति भोजराज

मीराबाई के पति भोजराज बहुत ही समझदार व्यक्ति थे और वे मीराबाई का बहुत ध्यान रखते थे। भोजराज खुद भी एक शिव भक्त थे इसी कारण वह मीराबाई की भक्ति का भी बहुत सम्मान करते थे और मीराबाई की भक्ति के लिए अपना आदर बताने के लिए भोजराज ने चित्तौड़गढ़ में गिरधर गोपाल का मंदिर भी बनवाया था और आज भी यह मंदिर मौजूद है।

दुर्भाग्य से विवाह के सात वर्ष बाद ही मीराबाई के पति भोजराज का दुखद निधन हो गया और यही से मीराबाई का जीवन पूरी तरह बदल गया।

पति की मृत्यु के बाद ससुराल में मीराबाई को प्रताड़ित किया जाने लगा।

सन् 1527 ई. में बाबर और राणा सांगा के मध्य एक भीषण युद्ध हुआ जिसमें मीरा बाईं के पिता रत्नसिंह मारे गए और लगभग इसी समय ससुर राणा सांगा की भी मृत्यु हो गई।

राणा सांगा की मृत्यु के पश्चात मीरा बाई के पति भोजराज के छोटे भाई रत्नसिंह राजगद्दी पर विराजमान हुए। सन् 1531 ई. में राणा रत्नसिंह की भी मृत्यु हो गई और इनके सौतेले भाई विक्रमादित्य ने राज्य की बागडोर संभाली।

मीराबाई को मारने की कोशिश

राजगद्दी संभालने के बाद विक्रमादित्य ने मीराबाई को बहुत अधिक कष्ट दिए और प्रताड़ित किया।

विक्रमादित्य को मीराबाई का साधु संतों के साथ उठना बैठना बिल्कुल पसंद नहीं था इसके साथ साथ मीराबाई ने एक बार कुलदेवी की पूजा करने से मना कर दिया था क्योंकि उन्होंने तो भगवान कृष्ण को ही अपना सबकुछ मान लिया था।

इन सब कारणों से विक्रमादित्य मीराबाई से बहुत नाराज रहने लगे और और दो बार मीराबाई को मारने का प्रयास भी किया गया।

पहली बार में मीराबाई को मारने के लिए एक फूल की टोकरी के अंदर सर्प रखकर भेजा गया और दूसरे प्रयास में मीराबाई को विष का प्याला दिया गया पर दोनों ही प्रयासों में मीराबाई का बाल भी बांका नहीं हुआ।

चित्तौड़गढ़ के इस कृष्ण मंदिर में मीराबाई भगवान कृष्ण की इसी मूर्ति की पूजा किया करती थी तथा इसी मंदिर में मीराबाई को जहर दिया गया था

इस अत्याचार के बाद मीरा बाई अपने ससुराल चित्तौड़ को छोड़ अपने मायके मेड़ता आ गई। मीराबाई के मेड़ता आ जाने के बाद से चित्तौड़ में अकाल पड़ने लगा।

सन 1534 ई. में गुजरात के आक्रमणकारी बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया तथा विक्रमादित्य मारे गए तथा तेरह सहस्र महिलाओं ने जौहर किया।

इसके बाद महाराजा उदय सिंह राजगद्दी पर विराजमान हुए। चित्तौड़ पर एक के बाद एक समस्या आने के कारण उन्होंने एक ब्राह्मण देवता से सलाह ली।

तब वहां के एक ब्राह्मण देवता ने उदय सिंह से कहा कि मीराबाई को चित्तौड़ वापस बुलाना होगा तभी चित्तौड़ का कल्याण होगा।

चित्तौड़ के राजपरिवार ने इस पर मंथन किया और उन्हीं ब्राह्मण देवता से मीराबाई को वापस लाने का निवेदन किया।

मीराबाई की मृत्यु

महाराजा उदय सिंह के आदेश पर ब्राह्मण देवता मेड़ता पहुंचे परंतु ब्राह्मण देवता के मेड़ता पहुंचने के कुछ दिन पहले ही मीराबाई पुष्कर चली गई थी फिर उसके बाद मीराबाई वृंदावन होते हुए अंततः द्वारका पहुंची।

ब्राह्मण देवता भी मीराबाई को चित्तौड़ वापस लाने के लिए द्वारका पहुंच गए।

ब्राह्मण देवता ने मीराबाई को हर तरह से मनाने का प्रयास किया और उनसे चित्तौड़ वापस चलने का निवेदन किया।

ब्राह्मण देवता को विनम्रता पूर्वक उत्तर देते हुए मीराबाई ने कहा कि मैं ऐसे ही नहीं चल सकती इसके लिए मुझे अपने गिरधर गोपाल की आज्ञा लेनी होगी।

उस समय द्वारका मे 'कृष्ण जन्माष्टमी' के आयोजन की तैयारी चल रही थी तथा उस दिन भगवान कृष्ण का उत्सव चल रहा था। सभी भक्त गण भगवान कृष्ण के भजन मे मग्न थे।

इसी के बीच मीराबाई ने श्री रनछोड़राय जी के मन्दिर के गर्भग्रह में प्रवेश किया और मन्दिर के कपाट को उन्होंने अंदर से बन्द कर दिया। जब द्वार खोले गये तो देखा कि मीराबाईं वहाँ नहीं थी।

उनका चीर मूर्ति के चारों ओर लिपटा हुआ था और भगवान कृष्ण की मूर्ति अत्यन्त प्रकाशित हो रही थी। ऐसा माना जाता है कि मीराबाई मूर्ति में ही समा गयी थीं। मीराबाई का शरीर भी कहीं नहीं मिला।

मीरा बाई की मृत्यु के संबंध में एक ओर तथ्य प्रचलित है।

जिसके अनुसार जब मीराबाई ब्राह्मण देवता से आज्ञा लेकर द्वारकाधीश के गोमती घाट पर पहुंची तो वहां पहुंचने के बाद मीराबाई ने भगवान कृष्ण के मंदिर में दर्शन किए और दर्शन करने के बाद मीराबाई अपने दोनो हाथो को जोड़कर और भगवान कृष्ण का ध्यान करते हुए जलमग्न होने लगी।

कुछ लोगों ने मीराबाई के पल्लू को पकड़कर उन्हें खींचने की कोशिश की पर इतनी देर में मीराबाई जलमग्न हो गई।

मीराबाई की मृत्यु इन दोनों में से किसी भी प्रकार से हुई हो पर इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि भगवान कृष्ण के लिए उनके मन में कितना प्रेम था, भले ही इसके लिए उन्हें जीवन भर कितना ही कष्ट क्यों ना सहना पड़ा हो।

मीराबाई का वह पल्लू या चीर आज भी द्वारकाधीश की मूर्ति के पास रखा हुआ है।

मीराबाई को एक स्त्री होने के कारण, विधवा होने के कारण तथा चित्तौड़ के राजपरिवार की कुलवधू होने के कारण जितना अन्याय सहना पड़ा उतना शायद ही किसी अन्य भक्त को अपनी भक्ति के लिए सहना पड़ा हो।

मीराबाई और महाराणा प्रताप

महाराणा प्रताप के पिता महाराजा उदय सिंह थे और मीराबाई, उदय सिंह के बड़े भाई भोजराज की पत्नी थी इस प्रकार मीराबाई रिश्ते में महाराणा प्रताप की बड़ी मां या ताई लगती थी।

एक बार जब महाराणा प्रताप अपने प्रियजनों की मृत्यु के कारण युद्ध से विरक्त हो गए थे तो मीराबाई ने उन्हें अपने कर्तव्यपथ की ओर मोड़ा तथा उन्हें हौसला और मानसिक संबल प्रदान किया।

महाराणा प्रताप के पिता उदय सिंह का मानना था की मीराबाई के मेवाड़ छोड़ देने के बाद ही उनके राज्य पर एक के बाद एक संकट आते गए।

मीरा बाई के समय जो समाज था उस समाज ने मीराबाई को एक विद्रोहिणी माना क्योंकि समाज का ऐसा मानना था कि उनकी गतिविधियां एक राजपूत राजकुमारी और विधवा के लिए स्थापित नियमों के अनुसार नहीं थी।

मीरा बाई अपना अधिकांश समय कृष्ण को समर्पित कर देती थी और भक्ति पदों की रचना किया करती थीं।

मीराबाई ने अपने जीवन काल में भगवान कृष्ण के लगभग एक हजार भजनों की रचना की । मीराबाई के सारे भजन व भक्ति गीत आज भी प्रासंगिक है ।

मीराबाई और अकबर

मीराबाई बचपन से ही भगवान कृष्ण को अपना सब कुछ मानती थी। मीराबाई के ससुराल वालों को मीराबाई का कृष्ण भक्ति में नाचना और गाना बिल्कुल पसंद नहीं था।

मीराबाई साधु संतों के साथ कीर्तन करती रहती थी और मंदिरों में जाकर भगवान कृष्ण की मूर्ति के सामने घंटों मगन रहती थी।

मीराबाई की इसी भक्ति ने अनगिनत कविताओं और गीतों को जन्म दिया जो मीराबाई द्वारा ही रचित की गई थी। मीराबाई की कविताएं धीरे-धीरे पूरे भारत में प्रसिद्ध होने लगी।

मीराबाई द्वारा रची गई कृष्ण भक्ति की कविताओं और मंदिर में भगवान कृष्ण की मूर्ति के सामने सुरीली आवाज में कीर्तन करने की प्रशंसा अकबर को सभी जगह से मिलने लगी।

यही कारण था कि अकबर, मीराबाई से मिलने का इच्छुक हुआ।

लेकिन अकबर का मीराबाई से मिलना इतना आसान नहीं था क्योंकि मीराबाई के पति भोजराज और मुगल सम्राट अकबर के बीच अच्छे संबंध नहीं थे दोनों एक दूसरे के शत्रु थे और अकबर के लिए शत्रु की पत्नी से मिलना असंभव था।

लेकिन फिर अकबर ने यह फैसला किया कि वह मीराबाई से एक शहंशाह के भेष में नहीं बल्कि एक आम इंसान के रूप में मिलेगा।

इसके बाद अकबर अपने शाही दरबार के नवरत्नों में से एक तानसेन के साथ भगवान कृष्ण के मंदिर में सन्यासी के भेष में जा पहुंचा जहां मीराबाई अक्सर भजन कीर्तन किया करती थी।

भगवान श्री कृष्ण के मंदिर में मीराबाई की सुरीली आवाज में भजन-कीर्तन सुनने के लिए बहुत बड़ी संख्या में श्रद्धालु मौजूद थे फिर मीराबाई ने जैसे ही अपनी मधुर आवाज में गाना शुरू किया सभी श्रद्धालु मंत्रमुग्ध हो गए और सुरीली आवाज का आनंद लेने लगे।

स्वयं तानसेन और अकबर भी खुद को रोक ना सके कुछ देर बाद अकबर अपने स्थान से उठा और उसने हीरे मोती से जड़ा हुआ एक हार मीराबाई के सामने रखी भगवान कृष्ण की मूर्ति को अर्पित कर दिया इसे देखकर सभी लोग आश्चर्यचकित रह गए।

लोगों की शक भरी नजरों से बचते हुए अकबर और तानसेन मंदिर से चले गए, बाद में छानबीन करने से मालूम हुआ कि वह दोनों सन्यासी नहीं थे बल्कि वह अकबर और तानसेन थे।

मीराबाई और तुलसीदास जी

मीराबाई का प्राकट्य उस दौर में हुआ था जब राजपूतों की स्त्रियां उघडा सिर नृत्य करना तो दूर , सूरज की किरणे भी उन्हें नहीं स्पर्श कर पाती थी । राजपूतों की स्त्रियो को बहुत मर्यादा और भारी नियम कानून के साथ रहना पड़ता था परंतु भक्ति की उन्मत्त अवस्था में मान मर्यादा का होश रहता ही कहा है ? कृष्ण भक्तो के संग मीरा कृष्ण मंदिर में नृत्य करती रहती ।

उसके परिवार को यह सब पसंद नहीं था ।मीरा महल से बाहर न जाए इसलिए राजा ने महल के भीतर ही कृष्णमंदिर बनवा दिया था परंतु वहाँ भी साधु संत मीरा का नृत्य देखने पहुँच जाते । मीरा के देवर जी को यह सब बिलकुल पसंद नहीं आता था ।कृष्णभक्ति में नाचना और गाना राज परिवार को भी अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कई बार मीराबाई को विष देकर मारने की कोशिश की। घर वालों के इस प्रकार के व्यवहार से परेशान होकर मीरा जी द्वारका और वृंदावन गईं। वह जहाँ जाती थीं, वहाँ लोगों का सम्मान मिलता था। लोग आपको देवियों के जैसा प्यार और सम्मान देते थे। इसी दौरान उन्होंने तुलसीदास को पत्र लिखा था :-

स्वस्ति श्रीतुलसी गुण भूषण ,दूषण हरण गुसाई ।
बारहि बार प्रणाम करहुँ , हरे शोक समुदाई ।।
घरके स्वजन हमारे जेते , सबहि उपाधि बढ़ाई ।
साधु संग अरु भजन करत मोंहि देत कलेस महाई ।।
बालपने ते मीरा कीन्ही गिरिधर लाल मिताई ।
सो तो अब छूटै नहिं क्यों हूँ लगी लगन बरियाई ।।
मेरे मात पिता सम हौ हरि भक्तन समुदाई ।
हम कूँ कहा उचित करिबो है सो लिखिए समुझाई ।।

मीराबाई के पत्र का जबाव तुलसी दास ने इस प्रकार दिया:-

जाके प्रिय न राम बैदेही ।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जदपि प्रेम सनेही ।।
तज्यो पिता प्रहलाद, विभीषण बंधु , भरत महतारी ।
बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनित्नहिं , भए मुद-मंगलकारी।।
नाते नेह रामके मनियत सुह्र्द सुसेब्य जहां लौं ।
अंजन कहा आंखि जेहि फूटै ,बहुतक कहौं कहाँ लौं ।।
तुलसी सो सब भांति परम हित पूज्य प्रानते प्यारे ।
जासों होय सनेह राम –पद , एतो मतो हमारो ।

मीराबाई के गुरु संत रविदास

मीराबाई तथा उनके गुरु रविदास जी की कोई ज्यादा मुलाकात हुई हो इस बारे में कोई साक्ष्य प्रमाण नहीं मिलता है।

ऐसा कहा जाता है कि मीराबाई अपने आदरणीय गुरु रविदास जी से मिलने बनारस जाया करती थी।

संत रविदास जी से मीराबाई की मुलाकात बचपन में किसी धार्मिक कार्यक्रम में हुई थी।

इसके साथ ही कुछ किताबों और विद्वानों के मुताबिक संत रविदास जी मीराबाई के अध्यात्मिक गुरु थे। मीराबाई जी ने अपनी की गई रचनाओं में संत रविदास जी को अपना गुरु बताया है।

मीराबाई के गुण

मीराबाई एक अच्छी गायक होने के साथ-साथ बहुत से वाद्य यंत्रों पर भी अपनी पकड़ रखती थी। मीराबाई जब भी अपनी सुरीली आवाज में भजन गाती थी तो सभी लोग मंत्रमुग्ध हो जाते थे।

मीराबाई बहुत ही कोमल ह्रदय थी और अपने मन में गरीबों के प्रति बहुत दया भाव रखती थी। मीराबाई को जब भी किसी मंदिर के बाहर कोई गरीब दिख जाता था तो उसे कुछ ना कुछ दान या भोजन सामग्री अवश्य दिया करती थी तथा इसके साथ साथ अगर कोई बीमार निसहाय व्यक्ति दिख जाता था तो मीराबाई उसकी सेवा करने का हर संभव प्रयास करती थी।

मीराबाई बुद्धिमान और साहसी थी। एक बार जब मीरा बाई वृंदावन में थी तो वहां मीराबाई के सामने एक ब्रह्मचारी आ गया और मीराबाई को देखते हुए ब्रह्मचारी बोला कि मैं स्त्री का मुंह देखना पसंद नहीं करता तब मीराबाई ने कहां "वाह महाराज अभी तक आप स्त्री पुरुष में ही उलझे हैं अर्थात समदृष्टि नहीं हुए हैं तो फिर आप स्वयं को कैसे ब्रह्मचारी बोल सकते हैं?"

इसी प्रकार एक दूसरी घटना में मीराबाई के ससुर राणा सांगा को किसी व्यक्ति ने एक खत भेजा था उसमें एक जगह "सा" शब्द हींगलू में लिखा था जिसका मतलब किसी को समझ में नहीं आया बड़े-बड़े ज्ञानवान लोगों से भी उसका मतलब पूछा पर कोई मतलब नहीं बता पाया। जब राणा सांगा ने यह पत्र मीराबाई के पास भेजा तो उस पत्र को देखते ही मीराबाई ने कह दिया इस "सा" को लालसा पढ़ना चाहिए, जिस भी व्यक्ति ने इस शब्द का प्रयोग किया है वह अपनी इच्छा जाहिर करना चाहता है। राणा सांगा मीराबाई की विलक्षणता से बहुत खुश हुए और तुरंत उस व्यक्ति को लिख दिया कि जैसे आपको मुझसे मिलने की लालसा है वैसे ही हमको भी आपसे मिलने की लालसा है।

मीराबाई द्वारा रचित ग्रंथ

1. ‘नरसी का मायरा’ 2. ‘गीत गोविंद टीका’ 3. ‘राग गोविंद’ 4. ‘राग सोरठ’

इसके अतिरिक्त उनके गीतों का संकलन “मीराबाई की पदावली” नामक ग्रन्थ में किया गया है, जिसमें निम्नलिखित खंड प्रमुख हैं-

1.नरसी जी का मायरा , 2.मीराबाई का मलार या मलार राग , 3.गर्बा गीता या मीराँ की गरबी , 4.फुटकर पद 5.सतभामानु रूसण या सत्यभामा जी नुं रूसणं , 6.रुक्मणी मंगल , 7.नरसिंह मेहता की हुंडी , 8.चरित

भाव पक्ष

मीरा ने गोपियों की तरह कृष्ण को अपना पति माना और उनकी उपासना माधुर्य भाव की भक्ति पद्धति है । मीरा का जीवन कृष्णमय था और सदैव कृष्ण भक्ति में लीन रहती थी ।

मीरा ने – मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरों न कोई, जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई । कहकर पूरे समर्पण के साथ भक्ति की ।

मीरा के काव्य में विरह की तीव्र मार्मिकता पाई जाती है । विनय एवं भक्ति संबंधी पद भी पाएँ जाते है । मीरा के काव्य में श्रंगार तथा शांत रस की धारा प्रवाहित होती है ।

कला पक्ष

मीरा कृष्ण भक्त थी । काव्य रचना उनका लक्ष्य नहीं था । इसलिए मीरा का कला पक्ष अनगढ़ है साहित्यिक ब्रजभाषा होते हुए भी उस पर राजस्थानी, गुजराती भाषा का विशेष प्रभाव है ।

मीरा ने गीतकाव्य की रचना की और पद शैली को अपनाया शैली माधुर्य गुण होता है । सभी पद गेय और राग में बंधा हुआ है । संगीतात्मक प्रधान है । श्रंगार के दोनों पक्षों का चित्रण हुआ है ।

रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का प्रयोग मिलता है । सरलता और सहजता ही मीरा के काव्य के विशेष गुण है ।

भाषा शैली

भाषा को लेकर भी विभिन्न विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं। मारवाड़ी भाषा में स्थान की अन्य भाषा-छवियाँ भी विद्यामान हैं। फिर मीराबाई की भाषा में गुजराती, ब्रज और पंजाबी भाषा के प्रयोग भी मिलते भी हैं। मीराबाई अन्य संतों नामदेव, कबीर, रैदास आदि की भाँति मिली-जुली भाषा में अपने भावों को व्यक्त करती हैं। उनके पदों की संख्या भी अभी तक सुनिश्चित नहीं की जा सकी है। खोज एवं शोध अभी तक जारी है। उनकी भाषा का कोई रूप नहीं है । कई स्थानों का भ्रमण करने के कारण उनकी भाषा में कई स्थानों का प्रभाव दिखाई पड़ता है । लिखित रूप में न होने के कारण इनकी भाषा कई स्थानों मे बदलती रही है। आज जिस रूप में मीरा के पद प्राप्त होते है । उनकी उनकी भाषा बहुत सरल और सुबोध है ।

मीरा की शैली प्रसाद गुण युक्त है । उनकी कविता का अर्थ सुनते ही समझ समझ में आ जाता है । उनकी भाषा में सरलता है । इसी कारण मीरा का काव्य इतना लोकप्रिय है ।

काव्य की विशेषता

मीरा के पद मुक्तक काव्य में मिलते है अर्थात इन पदों का एक दूसरे के साथ कोई सबंध नहीं है । सभी पद एक दूसरे से पूरी तरह स्वतंत्र है । इनमें कथा का भी कोई प्रभाव नहीं है ।

परंतु मुक्तक काव्य की जो विशेषता मानी जाती है वे सब मीरा के पदों में पाया जाता है । मुक्तक काव्य के लिए गहरी अनुभूति का होना आवश्यक समझा जाता है । मीरा के पदों में अनुभूति बहुत गहरी है प्रेम के जैसा पीड़ा और विरह की व्यथा मीरा के पदों में मिलता है । वैसे हिन्दी साहित्य में और कहीं नहीं मिलता है ।

कृष्ण के प्रति उनका प्रेम इतना तीव्र था, की वो संसार की सभी वस्तुओं को भूल गई थी । हँसते, गाते, रोते, नाचते सदा ही कृष्ण की धुन रहती थी । मीरा अपने आपको ललिता नाम की एक गोपी का अवतार कहा करती थी ।

मीराबाई द्वारा प्रयुक्त संगीतिक पद्धति

संगीत की दृष्टि से मीराबाई मध्य काल में प्रचलित संगीत की राग-रागिनी पद्धति से भली प्रकार से परिचत थीं तथा वाणी का उच्चारण रागों में करना इसका सबसे बड़ा प्रमाण है, जो कि वर्तमान में शोध का विषय बन कर सामने आया है। गुरु प्यारी साध संगत जी, ऐसा सर्वविदित है कि समस्त जगत नाद के अधीन है तथा संगीत नाद का सबसे बड़ा रूप है, जिसे मीराबाई ने 45 रागों के रूप में अपनाते हुए अपनी वाणी को रागों में बद्धित किया और ईश्वर की प्राप्ति में दोनों नादों का प्रयोग किया।

मीराबाई की वाणी लगभग 45 रागों में उपलब्ध होती है-

1.राग झिंझोटी 2.राग काहन्ड़ा 3.राग केदार 4.राग कल्याण 5.राग खट 6.राग गुजरी 7.राग गोंड 8.राग छायानट 9.राग ललित 10.राग त्रिबेणी 11.राग सूहा 12.राग सारंग 13.राग तोड़ी 14.राग धनासरी 15.राग आसा 16.राग बसंत 17.राग बिलाबल 18.राग बिहागड़ो 19.राग भैरों 20.राग मल्हार 21.राग मारु 22.राग रामकली 23.राग पीलु 24.राग सिरी 25.राग कामोद 26.राग सोरठि 27.राग प्रभाती 28.राग भैरवी 29.राग जोगिया 30.राग देष 31.राग कलिंगडा़ 32.राग देव गंधार 33.राग पट मंजरी 34.राग काफी 35.राग मालकौंस 36.राग जौनपुरी 37.राग पीलु 38.राग श्याम कल्याण 39.राग परज 40.राग असावरी 41.राग बागेश्री 42.राग भीमपलासी 43.राग पूरिया कल्याण 44.राग हमीर 45.राग सोहनी

अतः इस प्रकार वाणी का अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है कि मीराबाई ने अपनी वाणी में छन्द, अलंकार, रस और संगीत का पूर्णतया प्रयोग किया और इसे आध्यात्म का मार्ग बनाया, जो कि वर्तमान के लिए प्रेरणा है। ?मीराबाई ने ‘भारतीय शास्त्रीय संगीत’ को संजोए रखने में एक अनोखी कड़ी जोड़ दी, जिसका प्रमाण तथा पुष्टि विभिन्न ग्रन्थों के अवलोकन करने पर स्पष्ट होती है। अतः इस पद्धति को मीराबाई ने अपनाया और अपनी वाणी को संगीत के साथ जोड़कर आध्यात्म के साथ-साथ संगीत का भी प्रचार-प्रसार किया, साथ ही संगीत को जीवित रखने में भी अपनी सहमति तथा हिस्सेदारी पाई।

मीराबाई का साहित्य में स्थान

मीरा बाई भक्ति काल की कृष्ण भक्ति धारा की श्रेष्ठ कवियत्री है । गीता काव्य एवं विरहकाव्य की दृष्टि से मीरा का साहित्य में उच्च स्थान है ।

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