भूमिका - संत सिपाही (महाकाव्य) : उदयभानु हंस

Bhoomika - Sant Sipahi (Epic in Hindi) : Uday Bhanu Hans

गुरु गोविन्द सिंह केवल सिक्ख सम्प्रदाय के धर्मगुरु नहीं, वास्तव में भारत के महान लोकनायक और युगप्रवर्तक महापुरुष थे । उनका व्यक्तित्व असाधारण और बहुमुखी था । वे लोकप्रिय धार्मिक नेता भी थे और प्रगतिशील समाज- सुधारक भी । चतुर राजनीतिज्ञ भी थे और सच्चे देशभक्त भी । कुशल सेनानी भी थे और निर्भीक योद्धा भी । इसी प्रकार वे दार्शनिक विद्वान् भी थे और ओजस्वी कवि भी ।

इतिहास के पृष्ठ पलटने से प्रतीत होगा कि मानवसमाज की विविध और जटिल समस्याओं का निदान जानकर उनका समुचित समाधान करने के लिए राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और साहित्यिक क्षेत्रों में से किसी एक दो को चुनकर प्रयत्न करने वाले महापुरुष तो समय-समय पर अनेक हुए हैं; परन्तु उक्त सभी क्षेत्रों में सर्वांगीण रूप से जातीय उत्थान का बीड़ा उठाने वाला क्रान्तिकारी व्यक्तित्व कम-से-कम भारतवर्ष में गुरुगोविन्द सिंह को छोड़ कर अन्य कोई दृष्टिगोचर नहीं होता । वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अन्यायी शासन-सत्ता से टक्कर लेने के लिए केवल सैन्य-संघटन से सन्तुष्ट न होकर जनसाधारण के आत्मविश्वास और मनोबल को सुदृढ़ बनाने की ओर भी पूरा ध्यान दिया और लोक क्रान्ति के व्यापक आन्दोलन को लोकमानस में उतारने के उद्देश्य से साहित्य को एक आवश्यक माध्यम चुना। उन्होंने ही देवभाषा के सम्पन्न साहित्य को लोक भाषा में रूपान्तरित करने की अभूतपूर्व एवं विशाल योजना बनाई । दूसरे शब्दों में भक्ति और शक्ति की गंगा-यमुना में गुरु गोविन्द सिंह ने साहित्य की सरस्वती को भी मिला दिया ।

गुरु गोविन्द के सम्मुख समय की अत्यन्त भयानक चुनौती विद्यमान थी । औरंगज़ेब की संकीर्ण मनोवृत्ति, धर्मांधता की क्षुद्र भावना तथा अदूरदर्शिता के कारण भारतीय प्रजा, विशेषतः हिन्दुओं पर निरन्तर अमानुषिक अत्याचार हो रहे थे । मुग़ल साम्राज्य की अतुल सैन्यशक्ति और दमनचक्र की विभीषिका ने साधारणतया हिन्दू राजाओं को निःशक्त बना दिया था। 'कोउ नृप होइ हमें का हानि' की मनःस्थिति जनता में सर्वत्र व्याप्त थी । जातीय स्वाभिमान लुप्त हो चुका था । जातपात का रोग समाज की शक्ति को घुन की तरह खाता जा रहा था । साधु-महात्मा वातावरण से निर्लिप्त होकर आत्मलीन और वैरागी थे । यद्यपि मेवाड़, बुंदेलखण्ड और महाराष्ट्र में कुछ राजनीतिक हल- चल और विद्रोह की आग (सीमित क्षेत्र में ) अवश्य सुलग रही थी, तथापि सामूहिक रूप से विकार - ग्रस्त मानवजाति का भविष्य पूर्णतया अन्धकारमय दिखाई पड़ता था । ऐसी विषम परिस्थिति में गुरुगोविन्द सिंह ने अकेले ही युग की चुनौती को स्वीकार किया और अपने असीम साहस, दृढ़ संकल्प और आश्चर्यजनक प्रतिभा से समय की प्रबल धारा को मोड़ दिया ।' ("Govind saw what was yet vital and he relumed it with Promethean Fire."-History of the Sikhs, by Cunningham).

इसमें सन्देह नहीं कि 'खालसा' के रूप में गुरुगोविन्द ( १९६६ - १७०८ ई० ) ने जिस अद्भुत महान् क्रान्ति का सफल नेतृत्व किया, उसका बीजारोपण उनसे दो सौ वर्ष पूर्व ही गुरु नानक के काल (१४६६ - १५३९ ई० ) में हो चुका था । किन्तु क्रान्तदर्शी गुरु नानक ने स्पष्ट देख लिया था कि वह समय 'क्रान्ति' के लिए अनुकूल नहीं । विजयी मुगलसेना से टक्कर लेने के लिए अपेक्षित साहस का दुर्बल जाति में अभी अभाव था । अतः स्थिति की गम्भीरता और परिणाम की भयंकरता का अनुभव करते हुए गुरुनानक ने शान्तिमय साधनों को अपनाया । उन्होंने राजनीति के फेर में न पड़कर धर्मप्रचार और समाजसुधार द्वारा निराश हृदयों को 'आशा' की रागिनी सुनाई । 'संगत' (सह- चिन्तन ) तथा 'पंगत' ( सह - भोजन) की अनुपम रीति सिखाकर जनसाधारण को एकता का असाधारण गुरुमन्त्र प्रदान किया ।

भक्ति आन्दोलन के रूप में जन-जागरण का यह निराला प्रयोग लगभग एक सौ वर्ष तक शान्ति से चलता रहा । परन्तु १६०६ ई० में मुगल सम्राट जहाँगीर की अविवेकपूर्ण आज्ञा से जब पंचमगुरु अर्जुन देव लाहौर में शहीद हुए, तो परिस्थिति से विवश होकर उनके सुपुत्र छठे गुरु हरगोविन्द ( १५९५ - १६६४ ई०) को 'मीरी' और 'पीरी' की दो तलवारें बाँधनी पड़ीं। अन्याय-अधर्म का प्रत्याख्यान करने के लिए उन्होंने सिक्खों की सेना संघटित करने का ऐतिहासिक निर्णय लिया । फलस्वरूप मुगल शासन से कुछ देर सशस्त्र संघर्ष भी चला, परन्तु शीघ्र ही वातावरण में शान्ति स्थापित हो गई।

११ नवम्बर १६७५ ई० के दिन इतिहास की पुनरावृत्ति हुई, जब औरंगज़ेब की असहिष्णु नीति के कारण नवमगुरु तेगबहादुर का सिर ( दिल्ली के चाँदनी चौक में ) धड़ से अलग कर दिया गया । इस लोमहर्षक घटना का सारे भारत में युगांतरकारी प्रभाव पड़ा । सिक्खों में विशेष रूप से रोष और आक्रोश की लहर दौड़ गई । बाल गोविन्द ने पिता के मूक आत्मबलिदान की विफलता देखकर सशस्त्र 'क्रान्ति' की आवश्यकता अनुभव की । उन्हें अपने दादा हरगोविन्द से प्रेरणा मिली । नवयुग का अरुणोदय हुआ, जिसके परिणामस्वरूप ३० मार्च १६९९ ई० में वैशाखी के पुण्य अवसर पर ( आनन्द पुर में ) 'खालसा' की स्थापना हुई। दो सौ वर्षों तक निरन्तर भगीरथ प्रयत्न करने के पश्चात् क्रान्ति की गंगा को शिरोधार्य करने का अवसर अन्त में आ ही गया। गुरुगोविन्द सिंह ने भगवान् शंकर के समान युग का सारा विष स्वयं पीकर संसार को नवजीवन और नवशक्ति का नवीन 'अमृत' प्रदान किया ।

श्री गोकुल चन्द नारंग के मतानुसार भी 'गुरुगोविन्द और उनका कार्यकलाप उस प्रक्रिया का ही स्वाभाविक परिणाम था, जो सिक्ख धर्म की स्थापना के समय से ही आरम्भ हुई थी । गुरु गोविन्दसिंह के जीवनकाल में जो फ़सल पककर तैयार हुई, उसका बीज- वपन गुरुनानक ने ही कर दिया था और जिसे उनके उत्तराधिकारियों ने ही सींचा था । निःसन्देह 'खालसा' को गौरव के शिखर तक पहुँचाने वाली तलवार तो गुरु गोविन्दसिंह की थी, परन्तु उसके लिए इस्पात गुरु नानक ने ही तैयार किया था1 ।

(1. Govind himself, in fact, as well as his work, was the natural product of evolution that had been going on ever since the foundation of Sikhism. The harvest which ripened in the time of Guru Gobind Singh, had been sown by Nanak and watered by his successors. The sword which carved the Khalsa's way to glory was, undoubtedly, forged by Govind, but the steel had been provided by Nanak.-The Transformation of Sikhism).

वास्तव में गुरु गोविन्द सिंह के उदात्त जीवन-दर्शन, विलक्षण व्यक्तित्व और सम्पूर्ण कृतित्व को सूचित करने के लिए यदि कोई एक सार्थक विशेषण चुना जा सकता है तो वह है- 'सन्त - सिपाही' । मूलतः गुरु गोविन्दसिंह 'सन्त' ही थे, परन्तु परिस्थितियों ने उन्हें 'सिपाही' बनने पर विवश कर दिया था। अपनी इसी विवशता का उल्लेख उन्होंने १७०५ ई० में औरंगज़ेब को फ़ारसी भाषा में लिखे अपने पद्यबद्ध ऐतिहासिक पत्र 'ज़फ़र नामा' में भी किया है ।

दक्षिण में संघर्ष व्यस्त मुगलसम्राट् को उसके विश्वासघाती सूबेदारों की काली करतूतों का भण्डाफोड़ करते हुए दशमगुरु अपनी स्थिति स्पष्ट कर देते हैं-

ब- लाचारगी दरमियां आमदम ।
ब- तदबीर तीरो-कमां आमदम ॥२१॥

चूँ कार अज हमा हीलते दरगुजश्त ।
हलाल अस्त बुर्दन ब - शमशीर दस्त ॥ २२॥

अर्थात् 'युद्धक्षेत्र में मुझे लाचार होकर ही आना पड़ा है । मैं आक्रमणकारियों के विरुद्ध (आत्मरक्षा के लिए) शस्त्रों का प्रयोग करने को बाध्य हो गया हूँ । क्योंकि जब सभी अन्य (शान्तिमय ) उपाय समाप्त हो जाएँ, तब हाथ में तलवार उठा लेना न्याय संगत ही है ।'

इतिहास साक्षी है कि गुरुगोविन्दसिंह ने युद्ध छेड़ने में कभी पहल नहीं की । 'भंगाणी' के प्रथम युद्ध को ही लीजिए नाहन- नरेश मेदिनीप्रकाश के शान्त पर्वतीय वातावरण में निमन्त्रण पर नवयुवक गुरु गोविन्द 'पांवटा' के विपद्ग्रस्त जाति के उद्धार के लिए एकान्त चिन्तन और मनन में लीन थे । यमुना के किनारे बावन प्रमुख कवियों के सहयोग से साहित्य - साधना हो रही थी । गुरु-गद्दी के पुराने दावेदार 'रामराय' से मधुर सम्बन्ध स्थापित हो गया था । गढ़वाली राजा फतहशाह के साथ नाहन राज्य का सीमा विवाद भी गुरु की कुशल मध्यस्थता द्वारा हल हो चुका था, किन्तु हा दुर्दैव ! गुरु पर 'अकारण' चढ़ाई करने वाला भी कोई और नहीं, वही कृतघ्न राजा फतहशाह ही था', जिसने अपने समधी कहलूर ( विलासपुर राज्य) के राजा भीमचन्द के व्यक्तिगत गुरुद्वेष से प्रतारित होकर ऐसा नीचतापूर्ण कुकृत्य किया था ।

(फतहशाह कोपा तब राजा ।
लोह पर हम सों बिन काजा ॥-विचित्र नाटक )

'बिना काज' युद्ध छेड़ने वाले इन पर्वतीय राजाओं ने गुरु को कभी चैन से नहीं बैठने दिया । भारत माता को परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़ने वाले अत्याचारी मुगलों के विरुद्ध तो इन कायरों की तलवारें कभी नहीं उठ सकीं, परन्तु हिन्दूधर्म और भारतीय संस्कृति के गौरव की रक्षा करने वाले निष्काम और निर्वैर धर्मगुरु को अपदस्थ करने के लिए वे झट कटिबद्ध हो गए। क्योंकि स्वार्थ ने उन्हें अन्धा कर दिया था । देशभक्ति, स्वातन्त्र्य - प्रेम और जातिहित की कल्पना उनसे कोसों दूर थी । जर्जर धार्मिक रूढ़ियाँ उनका कवच बनी हुई थीं, अतः जात-पात के बन्धनों पर गुरु प्रहार उनके लिए असह्य था । दशम गुरु की लोकतन्त्री जीवन-पद्धति में भी उन्हें अपने सामन्तवाद का अन्त दिखाई दे रहा था । कदाचित् यही उनके वैमनस्य का विशेष कारण भी था ।

किन्तु गुरु गोविन्द के सामने प्रश्न था - सिद्धान्त और आदर्श का, जिसकी रक्षा के लिए आजीवन उन्होंने संघर्ष किया । घर छोड़ा, परिवार छोड़ा । भूखे-प्यासे थके-हारे कंटकाकीर्ण पथ पर चलना स्वीकार किया, पर हार नहीं मानी। धर्म की बलिवेदी पर अपने पिता और माता ही नहीं, अपने चारों पुत्रों एवं अन्त में अपने प्राणों तक की भी पूर्णाहुति दे दी । क्योंकि उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य था—

धर्म चलावन सन्त उबारन ।
दुष्ट सबन का मूल उपारन ॥ - वि० ना० )

इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए गुरु गोविन्द ने 'सन्त - सिपाही' का व्रत लिया था । वास्तव में युगस्थिति का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करने के पश्चात् गुरु गोविन्द को विश्वास हो गया था कि अब समय आ गया है, जब ईंट का जवाब पत्थर से देना पड़ेगा । अब निरीह मूक बलिदानों से नहीं, अपितु मृत्युंजयी नरसिंहों की कृपाणों से ही धर्म की रक्षा, सन्तों का उद्धार और दुष्टों का संहार हो सकेगा । धर्म युद्ध के लिए भक्ति के उपासकों को अब शक्ति की पूजा भी करनी होगी। तभी तो गुरु गोविन्द ने खड्ग को नमस्कार किया (नमस्कार श्री खडग को करौं सुहित चित लाय ।-वि० ना०) और 'धर्मयुद्ध' में जूझ मरने का वर माँगा -

देहु शिवा, वर मोंहि इहै शुभ कर्मन तौं कबहूँ न टरौं ।
न डरौं अरि सों जब जाइ लरौं, निस्चै करि अपनी जीत करौं ॥
अरु सिक्ख हौं आपने ही मन को, इह लालच हउ गुन तौ उचरौं ।
जब आयु की अवधि निदान बने अति ही रण मैं तब जूझ मरौं ॥

गुरु गोविन्द ने समय की माँग के अनुसार 'खालसा' के रूप में जाति का पुनर्गठन कर दलितवर्ग के स्वाभिमान को जगाया और अपने चमत्कारी व्यक्तित्व के प्रभाव से चिर-शोषित और चिर- उपेक्षित जन साधारण को राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन का दुर्जेय योद्धा बनाकर दिखला दिया । (Prior to the time of Sikh Gurus no General ever concieved the idea of raising an army from men, who were believed to be unclean and poluted from their birth.-Metcalfe). चमकौर और मुक्तसर की लड़ाइयों में प्रशिक्षित असंख्य शत्रु सेना के सम्मुख मुट्ठी भर बलिदानी सिक्खों का डट जाना विश्व के युद्ध - इतिहास की अभूतपूर्व घटना कही जा सकती है । निराशा और भय के शब्द तो कलगीधर कोष में थे ही नहीं । उनके लिए आदर्श थी गुरु तेगबहादुर की शिक्षा-

'भय काहू को देत नहिं, नहिं भय मानत आन'

'धर्म -युद्ध' में भाग लेते हुए भी गुरु गोविन्दसिंह स्वभाव से शान्तिप्रिय ही थे । उनका चरमलक्ष्य युद्ध नहीं, युद्ध का अन्त था (पंथ चलावैं जगत मैं युद्ध करहिं सब शान्त)। अनावश्यक रक्तपात से उन्हें सदैव घृणा थी । उदाहरणार्थ 'भंगाणी' के युद्ध में विजय प्राप्त करके यदि वे चाहते तो सिक्ख सैनिकों की इच्छानुसार पराजित राजा फतहशाह की राजधानी पर सहज अधिकार प्राप्त कर सकते थे; किन्तु राज्यलिप्सा - विहीन गुरु ने ऐसा नहीं किया । उनका सन्त-हृदय स्वार्थी और कुटिल कूटनीतिज्ञों के दांव-पेंचों से अनभिज्ञ था । यही कारण है कि दशमगुरु पुराना वैर-विरोध भुलाकर संकट पड़ने पर अपने कट्टर शत्रुओं और घोर विरोधियों की सहायता करने को भी तत्पर हो जाते थे । राजा भीमचन्द का सतत गुरुद्वेष सर्वविदित था । अपने प्रदेश में गुरु का आवास ( आनन्दपुर ) उसकी आँखों में सदैव खटकता रहता था । 'भंगाणी' का युद्ध भी उसी के गुप्त षड्यन्त्र का परिणाम था । किन्तु यह सब जानते हुए भी कुछ समय पश्चात् जब राजा भीमचन्द पर अलिफ खाँ की शाही सेना का आक्रमण हुआ और निर्लज्ज राजा ने सहायता का अनुरोध किया, तो कृपालु गुरु गोविन्द ने 'नादौन' के युद्ध में स्वयं भाग लेकर अपने चिरशत्रु को बचा लिया । परन्तु हाय री, कायरता और स्वार्थ की हीन भावना ! ज्यों ही गुरु अपने दल के साथ वापिस लौटे, राजा भीमचन्द आदि भीरु नृपतियों ने भावी आक्रमण के भय से मुगल सेनापति के साथ चुपके से सन्धि कर ली ।

(इत हम होइ विदा घर आये ।
सुलह निमित ते उतहि सिधाये ।। (वि० ना० )

कितना विचित्र व्यवहार ! कैसी कुटिल चाल ! परंतु सरल सौम्य गुरुगोविन्द की नीति और मर्यादा में कोई अन्तर न आया । पुनः मुग़ल सम्राट् औरंगज़ेब की मृत्यु (१७०४ ई०) पर जब उसके ज्येष्ठ पुत्र मुअज्ज़म ( बहादुर-शाह) ने राजगद्दी पर अधिकार करने के लिए गुरुजी से सहायता माँगी और अपनी सद्भावना का आश्वासन दिया तो उन्होंने मुगलसाम्राज्य के साथ अपने चिरंतन संघर्षों को भुलाकर उसे तुरंत सैनिक सहायता प्रदान की। ऐसे अवसर पर कोई भी चतुर राजनीतिज्ञ स्थिति का अनुचित लाभ उठा सकता था । परंतु 'संत - सिपाही' के अपने कुछ आदर्श थे । उनका विरोध व्यक्तियों से नहीं, केवल उनकी अन्यायपूर्ण नीतियों से था, भले ही वे मुसलमान सूबेदारों की हों या हिंदू पहाड़ी राजाओं की । अन्यथा उनकी दृष्टि में सारी मनुष्य जाति एक समान थी ।1 सबसे प्रेम करना ही उनके लिए प्रभु की प्राप्ति का साधन था ।2 उनका विश्वास था-

देहरा मसीत सोई, पूजा औ नमाज ओई
मानस सबै एक पै अनेक को भ्रमाओ है ।
अल्लाह अभेख सोई, पुरान और कुरान ओई
एक ही स्वरूप सबै एक ही बनाओ है ॥

(1. मानस की जात सबै एक ही पहिचानवो-अकाल स्तुति)

2. साच कहूं सुनि लेहु सबै
जिन प्रेम कियो तिन ही प्रभु पायो - वही)

कहते हैं, उनका एक सेवक 'कन्हैया' युद्धक्षेत्र में हिंदू-मुसलमान सभी घायल सैनिकों की सेवा किया करता और उन्हें पानी पिलाया करता था । अनेक प्रतिष्ठित मुसलमान भी गुरु के अनन्य भक्त बन गए थे, जिनमें पीर बुधुशाह के अतिरिक्त नबी खान और ग़नी खान दो पठान भाइयों के नाम भी उल्लेखनीय हैं, जिन्होंने चमकौर - गढ़ी से निकलने पर पीछा करती हुई मुगल- सेना से गुरुजी को बचाकर बड़ी चतुरता से उन्हें सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दिया था । अतः गुरुगोविन्दसिंह को मुस्लिम विरोधी समझना अपने अज्ञान का ही परिचय देना है ।

गुरुगोविन्दसिंह पीड़ित मानवता के महान् मुक्तिदाता थे । सामाजिक न्याय, मानवी समानता तथा लोकतंत्री जीवन-पद्धति में उनकी अटूट आस्था थी । अपने पिता के मस्तक को उठाकर लाने वाले एक निम्न वर्ण के साहसी व्यक्ति को 'रंगरेटे गुरु के बेटे' कहकर गले लगाना तथा 'खालसा' की स्थापना के अवसर पर 'पांच प्यारों' को पहले स्वयं दीक्षा देकर फिर उन्हीं के हाथों से स्वयं 'अमृतपान करना' और गुरुशिष्य की समानता का अद्वितीय आदर्श उपस्थित करना3 उनके विराट् व्यक्तित्व का ही परिचायक है । गुरु गोविन्द को 'व्यक्तिपूजा' से भी घृणा थी । वे उन्हें परमेश्वर मानकर पूजा करने वालों के अत्यंत विरोधी थे4 । गुरु गद्दी के लोलुप व्यक्तियों के नीचता-पूर्ण व्यवहार से भी वे खिन्न हो चुके तभी तो उन्होंने गुरुपरंपरा का ही अंत करने का विवेकपूर्ण निश्चय किया था और 'आदिग्रंथ' को ही, 'गुरु' पदवी देकर 'गुरुमत' के निर्णयानुसार जाति को अनुशासन में रहने का आदेश दिया था ।5

(3. वह प्रगट्यो मर्द अगम्मड़ा वरियाम अकेला ।
वाहु वाहु गोविंदसिंह आपे गुरु चेला ।।-गुरु विलास

4. जो हम को परमेश्वर उचरि हैं ।
ते सब नरक कुंड में परि हैं ।। -वि० ना०)

5. आज्ञा भई अकाल की तभी चलायो पंथ ।
सब सिक्खन को हुक्म है गुरु मानियो ग्रंथ ॥
गुरु ग्रंथ जी मानियो प्रगट गुरां की देह ।
जो प्रभु को मिलिवो चहै खोज सबद में लेह ॥

निष्कर्ष रूप में यही कहा जा सकता है कि भले ही समय ने गुरुगोविन्द- सिंह को 'सिपाही' बना दिया था, परंतु प्रकृति से वे 'संत' ही थे । 'पांवटा' हो या 'आनंदपुर,' 'दमदमा' हो या 'नान्देड़', उनका नित्यकर्म (हरिस्मरण) अबाध गति से चलता रहा । कदाचित् गुरुगोविन्द को पाँच हजार वर्ष पहले के गोविन्द का कथन याद था— 'मामनुस्मर युद्ध य च ' अर्थात् 'हे अर्जुन तू मेरा स्मरण कर और युद्ध में भाग ले ।' यही वाक्य 'खालसा' का भी गुरुमंत्र बन गया -

धन्न जियो तिह को जग में
मुख ते हरि चित्त में युद्ध विचारे ॥ ( कृष्णावतार )

ऐसा प्रतीत होता है कि गुरुगोविन्दसिंह ने राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा साहित्यिक क्षेत्रों में जो अद्भुत उपलब्धियां प्राप्त की हैं, उनका पूर्ण तथा उचित मूल्यांकन अभी नहीं हो पाया। यही कारण है कि इस विश्वविभूति को प्राय: एक समुदायविशेष का धर्मगुरु मानकर संतोष कर लिया गया है । मैंने गुरुगोविन्दसिंह के महाकाव्योचित बहुमुखी व्यक्तित्व के रूप में मानवसमाज के कुछ महत्त्वपूर्ण और चिरंतन प्रश्नों के उत्तर खोजने का प्रयत्न किया है । मेरा लक्ष्य इतिहास लिखना नहीं, इतिहास के माध्यम से एक ऐसे आदर्श काव्यपुरुष का सृजन करना है, जिसके चरित्र में 'सत्यं शिवं सुंदरं ' का समन्वय हो । 'संत सिपाही' की रचना करते समय मेरी दृष्टि केवल अतीत पर नहीं, वर्तमान और भविष्य पर भी रही है । कला को केवल कलाकार की आत्याभिव्यक्ति न मानकर मैं उसे सामाजिक जीवन के संस्कार का भी एक प्रभावशाली साधन मानता हूँ ।

संस्कृत और हिन्दी के प्रतिष्ठित महाकाव्यों की परंपरा ही नहीं, आधुनिक साहित्य के मानदण्ड भी मेरे सम्मुख रहे हैं । ऐतिहासिक प्रबंधकाव्य होने के कारण मैंने कविकल्पना का सहारा लेते हुए भी देशकाल तथा घटना क्रम की प्रामाणिकता का पूरा ध्यान रखा । परंपरा और इतिहास के विवाद में मेरा दृष्टिकोण सदैव समन्वयवादी रहा । वस्तुवर्णन को यथार्थरूप देने के लिए मैंने मूल गुरुवाणी का भी यथास्थान पर्याप्त आश्रय लिया है । भंगानी- युद्ध का प्राय: सारा विवरण दशमगुरु की अपूर्ण आत्मकथा 'विचित्र नाटक' पर ही आधारित है । 'ज़फ़रनामा' के मूल पाठ से भी यथेष्ट लाभ उठाया है और युद्ध वर्णन में तो कहीं कहीं 'विचित्र नाटक' तथा 'चण्डी चरित्र' आदि रचनाओं की अनेक सुन्दर उपमाएँ भी प्रयुक्त कर ली हैं । इसी प्रकार ईश्वर- स्तुति में प्रायः मूल 'वाणी' के पर्यायवाची शब्दों का ही व्यवहार किया गया है। गुरु गोविन्द सिंह के विचित्र नाटकीय जीवन को मैंने चरितकाव्य की शैली में प्रस्तुत किया है और इस बात का ध्यान रखा है कि प्रत्येक सर्ग कथा - प्रवाह का अभिन्न अंग होते हुए भी स्वतः पूर्ण रहे । घटनाओं की बहुलता और जटिलता में चयन के अतिरिक्त मेरे सम्मुख अनेक बार गुरुगोविन्द के चरित-लेखकों के मतभेद की भी गम्भीर समस्या विद्यमान थी । इस विषय में शोध करते समय कई आश्चर्यजनक तथ्य प्रकट हुए। उदाहरणार्थ समकालीन गुरुभक्त कवि सेनापति ने ('गुरु शोभा' में) 'खालसा' की स्थापना के अवसर पर 'पाँच प्यारों' की प्रसिद्ध परम्परागत घटना का कहीं वर्णन ही नहीं किया । फिर 'गुरुप्रताप सूर्य' जैसे महत्त्वपूर्ण गौरवग्रन्थ के लेखक महाकवि संतोख सिंह तथा सेनापति दोनों ने ही चमकौर - युद्ध में शहीद गुरुपुत्रों के नाम अजीतसिंह व जोरावर सिंह दिए हैं तथा सरहिन्द में बलिदान होने वालों के नाम जुझारसिंह व फ़तहसिंह लिखे हैं,1 जो सिक्ख - इतिहास और परम्परा में मान्य नहीं हैं ।

(1. (क) अधम तबै तलवार चलाई। सिर जुझार सिंह दयो गिराई ।
बहुर दूसरो बार प्रहारा । फतहसिंह को सीस उतारा ॥ ( गु० प्र० सू० )

(ख) फतेसिंह जुझारसिंह इह विधि तजे परान- (गुरुशोभा)

इसी प्रकार भाई संतोख सिंह द्वारा गुरुहत्या का प्रसंग भी — जिसमें दशमेशगुरु गुलखान पठान ( डॉ० गण्डासिंह के अनुसार जमशेद खान ) के हाथ में तलवार देकर उसे घातक वार करने को स्वयं प्रोत्साहित करते हैं 1– सर्वथा अस्वाभाविक लगता है । इस विषय में 'गुरुशोभा' में दिए गए तर्कसंगत और बहुस्वीकृत विवरण को ही मैंने ग्रहण किया है ।

(1. कर के नगन दई तिस हाथ ।
पुन प्रेरन लागे कह नाथ ।। ( गुरु प्रताप सूर्य )

घायल होने के कारण गुरुगोविन्दसिंह का स्वयं पंजाब न जाकर अपने अधूरे कार्य को पूरा करने के निमित्त बन्दा बैरागी को भेजने सम्बन्धी डा० गण्डासिंह का मत1 भी मुझे अधिक युक्तियुक्त प्रतीत हुआ है । परन्तु 'गुरु प्रताप सूर्य' में बन्दा बहादुर द्वारा सरहिन्द - विजय के पश्चात् सूबेदार वज़ीरखान की हत्या का समाचार गुरुजी को सुनाने का प्रसंग इतिहास द्वारा प्रमाणित नहीं होता, क्योकि सरहिन्द - विजय का समय सभी इतिहास - लेखक गुरु गोविन्द सिंह के देहान्त से दो वर्ष पश्चात् १७१० ई० ही मानते हैं । गुरुजी के प्राचीन तथा अनेक आधुनिक जीवनी-लेखकों की (केवल ३०० वर्ष पूर्व) इतिहास के प्रति उदासीनता तथा गवेषणात्मक रुचि का अभाव बहुत खटकता है । इस दिशा में भाई वीर सिंह जैसे कुछ शोधकर्ताओं की वैज्ञानिक दृष्टि और खोज निश्चय ही प्रशंसनीय है, जो मेरे लिए भी सर्वथा सहायक सिद्ध हुई है ।

(1. It will not be out of place to mention here that, but for his physical disability, due to assasin's blow, Guru Gobind Singh would most probably have returned to the Punjab.-Banda Singh Bahadur )

'संत - सिपाही' की रचना नितान्त आकस्मिक और सम्भवतः चिर- संचित मेरी अन्त:प्रेरणा का ही सहज परिणाम है । इतिहास के मन्दिर में कविता का दीप जलाकर मैंने जिस 'आदर्श जीवन' का दर्शन किया है, वह अतीत की पुण्य धरोहर ही नहीं, वर्तमान की उज्ज्वल आशा एवं भविष्य का सुन्दर स्वप्न भी है । इसलिए मूलतः 'स्वान्तः सुखाय' होते हुए भी मेरी कृति 'लोक - हिताय' सिद्ध हो, यही मेरी कामना है ।

'हंस'

१८ जनवरी, १९६७
गुरु गोविन्दसिंह जन्म त्रिशताब्दी

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