भूमिका : रसरंगिनी (मुकरी संग्रह) : तारकेश्वरी 'सुधि'

Bhoomika Rasrangini (Mukari Sangrah) : Tarkeshwari Sudhi

लोक साहित्य के मनमोहक चित्र (भूमिका) : रसरंगिनी (मुकरी संग्रह)

रसपूर्ण एवं मनोरंजक काव्य विधाओं में मुकरी का विशिष्ट स्थान है। यद्यपि 'मुकरी' हिंदी साहित्य का विरल काव्य रूप है किंतु हर्ष का विषय है कि इन दिनों मुकरी का दौर लौट आया है।

अधिकांश विद्वान मानते हैं कि मुकरी पहेलियों का ही एक प्रचलित रूप है। इसे इसका यह नाम 'मुकरना' क्रिया से मिला है। दो सखियों के द्विपक्षीय संवाद के कारण इसे मुकरी कहा गया है क्योंकि इसमें वक्ता सखी अपनी बात से मुकर जाती है। मुकरी का अर्थ होता है --कहकर नकार देना, मुकर जाना अथवा अपनी बात से पीछे हट जाना।

पहेलियों का मूल उद्देश्य बुद्धि विकास के साथ-साथ मनोरंजन करना है। मुकरी सृजन के पीछे भी यही भावना निहित है। मुकरी में निहित अर्थ एक रेखिक न होकर द्विरेखिक होता है। विद्वानों ने अमीर खुसरो को मुकरी विधा का प्रथम रचनाकार माना है। इस विधा.में बहुत कम सृजन होने के बावजूद यह लोक- कंठ में विराजती रही है। अमीर खुसरो के बाद भारतेंदु हरिश्चंद्र, नागार्जुन, विजेता मुद्गलपुरी, दिनेश बाबा, हीरा प्रसाद 'हरेंद्र',त्रिलोक सिंह ठकुरेला, डॉक्टर प्रदीप शुक्ल,कैलाश झा किंकर, सुधीर कुमार प्रोग्रामर जैसे अनेक रचनाकारों ने इस विधा को अपने सृजन का माध्यम बनाया।

इसमें मुकरने का भाव निहित होने के कारण इसे मुकरी,कह मुकरी अथवा कह मुकरनी कहा जाता है ।भारतीय अलंकार शास्त्र में इसे 'अपह्नुती' कहा गया है। मुकरी चार पदों का एक सम मात्रिक छंद है। इसके प्रत्येक पद या चरण में सौलह-सौलह मात्रा होती हैं। इस प्रकार एक आदर्श मुकरी में चौंसठ मात्राएं होती हैं। प्रत्येक चरण में आठवीं मात्रा पर यति होना उत्तम माना गया है, हालांकि कई मुकरीकारों ने इस विधान से इतर मुकरियां भी लिखी है किंतु इसका मानक एवं बहुचर्चित रूप यही है।

अपनी बात को रचनात्मक रूप से कहकर श्रोता के बुद्धि चातुर्य का परीक्षण मुकरी की अपनी विशेषता है। पुरानी मुकरियाँ देखने पर स्पष्ट होता है कि मुकरी दो अंतरंग सहेलियों का संवाद है। किंतु केवल इतना ही नहीं है, मुकरी में दो पुरुष मित्रों या स्त्री-पुरुष संवाद भी संभव है।

मुकरी का प्रणयन संस्कृत,हिंदी ,अंगिका,बज्जिका, अवधि एवं ब्रजभाषा जैसी अनेक भाषाओं में हुआ। अमीर खुसरो, भारतेंदु हरिश्चंद्र, नागार्जुन,त्रिलोक सिंह ठकुरेला एवं प्रदीप कुमार शुक्ल ने खड़ी बोली में मुकरी विद्या को स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई है। डॉ बहादुर मिश्र ने 'मुकरियाँ' (लोक काव्य रूप) का संपादन करके इस विधा के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया है। इस संकलन में 26 रचनाकारों की हिंदी,अंगिका एवं बज्जिका भाषा में लिखी गई मुकरियाँ संकलित हैं। अब तक मुकरी विधा की बहुत कम पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। इनमें अमीर खुसरो की 'मुकरी', भारतेंदु हरिश्चंद्र की 'हरिश्चंद्र चंद्रिका' जिसमे उनकी चौदह मुकरियाँ प्रकाशित हैं, त्रिलोक सिंह ठकुरेला की 'आनन्द मंजरी', 'नागार्जुन रत्नावली' जिसमे नागार्जुन की आठ मुकरियाँ संकलित हैं, उल्लेखनीय हैं। यद्यपि विशुद्ध मुकरी संग्रहों की बात की जाए तो अमीर खुसरो का 'मुकरी' और त्रिलोक सिंह ठकुरेला का 'आनंद मंजरी' ही इस पंक्ति में खड़े नजर आते हैं। अंगिका भाषा मे दिनेश बाबा का 'का सखि साजन? प्रकाशित हुआ है।

यदि महिला साहित्यकारों की बात की जाए तो मुकरीकार के रूप में शशि गोयल, तारकेश्वरी 'सुधि', अंजलि सिफ़र जैसे बहुत कम नाम सामने आते हैं।मेरे संज्ञान में तारकेश्वरी 'सुधि' एकमात्र महिला साहित्यकार हैं जिन्होंने मुकरी संग्रह की रचना की है। इस दृष्टिकोण से इनका मुकरी संग्रह 'रसरंगिनी' एक अनूठी कृति है।

तारकेश्वरी 'सुधि 'एक उभरती साहित्यकार हैं। प्राचीन काव्य विधाओं में अभिरुचि के साथ-साथ वे छंदों को महत्व देने वाली कवयित्री हैं। 'सुधियों की देहरी पर' उनका उत्कृष्ट दोहा संग्रह है।उन्होंने गीत, दोहा, कुंडलिया एवं मुकरी जैसी विधाओं को अपने सृजन का माध्यम बनाया है।

उनकी काव्य कृति 'रसरंगिनी' का अवलोकन करने पर सिद्ध होता है कि वह मुकरी विधा की अद्वितीय महिला हस्ताक्षर हैं। 'रसरंगिनी' में उनकी 120 मुकरियाँ हैं जो रहस्य और रोमांच से रूबरू कराती हैं। इन्होंने पारंपरिक मुकरियों के अतिरिक्त नव मुकरियों का भी सृजन किया है। विषयों के आधार पर उनकी मुकरियों को कई श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है।

प्राकृतिक विषयों को आधार बनाकर लिखी गई उनकी मुकरियों की बात की जाए तो इन्होंने बसंत, मधुकर, चिड़िया, तरुवर, दिनकर,तितली,मोर, सरिता,हिमकर, छिपकली, तोता, बुलबुल, गाय,धतूरा, गधा जैसे अनेक विषयों को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है।
आध्यात्मिक एवं धार्मिक विषयों की बात की जाए तो उन्होंने कन्हैया, शंकर और पुजारी आदि विषयों का सहारा लिया है।
व्यवसायिक विषयों को आधार बनाकर लिखी गई मुकरियों में डाकिया,डॉक्टर,मनिहार, मालिन, चौकीदार और महरी आदि उल्लेखनीय है।

तारकेश्वरी 'सुधि' ने चंदा ,आँगन, कुंतल, सपना, पायल, दर्पण,सागर, काजल ,साया और पैसा जैसे पारंपरिक विषयों के अलावा गूगल, मोबाइल,ट्रैक्टर, टाई, कैलेंडर,टेलीविजन, डायरी, चाय,हलवा जैसे अनेक विषयों का प्रयोग किया है।

तारकेश्वरी 'सुधि' ने बेलन,मच्छर, रसना ,निंदिया,आँधी,पुस्तक, तकिया, चावल,अंधेरा,भूत, पाती, चिलम, टायर, ईंधन, रंग,छिपकली, इतवार,कोषागार,बर्तन, गुड़िया और बक्सा जैसे विषयों पर मुकरियाँ लिखी हैं।
तारकेश्वरी 'सुधि' की अधिकांश मुकरियाँ मानक है किंतु कुछ मुकरियाँ अपवाद हैं। यद्यपि ये मुकरियाँ विषयों के अनुरूप शास्त्रीय हैं एवं पुराने मुकरीकारों का अनुसरण करती हैं।

तारकेश्वरी 'सुधि' की 'रसरंगिनी' मुकरी विधा की महत्वपूर्ण कृति है एवं मुकरी काव्य यात्रा में एक मील के पत्थर के समान सिद्ध होगी। रसरंगिनी में लोक साहित्य मुकरी के मनमोहक चित्र हैं।मुझे विश्वास है कि 'रसरंगिनी' पाठकों को रससिक्त कर साहित्य जगत में अपना अहम स्थान बनाएगी।
इस कृति के प्रकाशन पर तारकेश्वरी 'सुधि' को मेरी ओर से अनंत शुभकामनाएँ।

त्रिलोक सिंह ठकुरेला

मेरी बात

अपनी प्रथम पुस्तक 'सुधियों की देहरी पर' (दोहा संग्रह) के बाद मेरी हार्दिक इच्छा थी कि मैं कुंडलिया संग्रह पाठकों के समक्ष लाऊँ। इस संग्रह पर अधिकांश काम पूरा भी हो चुका था कि त्रिलोक सिंह ठकुरेला का मुकरी संग्रह ' आनन्द मंजरी ' प्रकाश में आया । इस पुस्तक से उत्साहित होकर मैंने भी दो-तीन मुकरियाँ लिखी। तुरंत ही यह महसूस हो गया कि मैं इस विधा के लिए उपयुक्त व्यक्ति नहीं हूं ।

एक दिन अचानक ठकुरेला जी ने कहा कि यदि बीस-पच्चीस मुकरियाँ लिख सको तो एक संग्रह में जगह मिल सकती है। मैं दोबारा कोशिश करने लगी और इस बार दहाई तक पहुँच पाने में सफल हुई। ठकुरेला जी उत्साह बढ़ाने के साथ-साथ गिनती भी बढ़ाते रहे और मैं गिनती पूरी करने के चक्कर मे लिखती रही।
अन्ततः पचास मुकरियाँ लिख कर उनको दे ही दी।इसके बाद कुछ मुकरियाँ और लिखकर 'रसरंगिनी' के लिए एक सौ इक्कीस का आंकड़ा पूरा किया।

कई बार हम करना कुछ चाहते हैं और होता कुछ और है। मैं गद्य लिखना चाहती थी मगर पद्य लिखने लगी। कुंडलियाँ लिख रही थी मगर मुकरियाँ पहले लिखी गईं। ईश्वर जाने अगला पड़ाव कहाँ है? खैर! होना तो वही है जो ऊपरवाले को मंजूर है । इस मुकरी संग्रह का संपूर्ण श्रेय मैं श्री त्रिलोक सिंह ठकुरेला जी को देना चाहूंगी क्योंकि उन्होंने मुझसे ऐसी विधा पर लिखवाया जिसके लेखक ही नाम मात्र के हैं।साथ ही जिस विधा को मैंने ढंग से कभी पढ़ा ही नही था, उसे लिखना तो बहुत दूर की बात थी साथ ही मैं उनके मार्गदर्शन के लिए उनका शुक्रिया अदा करती हूँ और 'रसरंगिनी' को पाठकों के हवाले करती हूँ। अब ये पाठक ही तय करेंगे कि मैं इस विधा के साथ कितना न्याय कर पाई हूँ ।मुझे पाठकीय सुझाव और प्रतिक्रियाओ की अपेक्षा रहेगी।
धन्यवाद।

तारकेश्वरी 'सुधि'

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