अनुरोध : राजगोपाल

Anurodh : Rajagopal


धरा छोड़ तुम कहाँ चाँद सी टंगी हो जला मन यहाँ धूप मे, तुम चाँदनी मे रंगी हो मौन आँखों से रिसती मेरी हर रात अलग है दिन पीठ पर लिये लेकिन थका सा वही जग है हर रात सन्नाटे से लड़ता, जागता है मन आँखें फाड़े हाय! स्वप्नों मे जीता है तन-मन आशाएँ धरा मे गाड़े दूर कहीं उर बांधे सुख बेचारा साधे है अपनी समाधि किस से कहें अनकही यहाँ है हर रात आधी, बात आधी मूक बैठा झींगुरों सा सुन रहा हूँ यहाँ शांति इतनी रुक-रुक कर टपकती है न जाने आँखों से बूंदे कितनी कालिख लगा चाँदनी मध्य निशा गगन मे खो गयी है अकेला मैं, सामने रात अकेली दूरियाँ नापती सो गयी है कौन विकल यहाँ साथ चलने इस जगती के राह-राह मे जो दिशा दिखाता दौड़ कर प्रणय की इस मधुर चाह मे दिग्भ्रमित हुये तो क्या होगा, बस आँसू की दो धार बहेगी तपेगा तन-मन, तरल साँसों को भरने दोबारा आँधी उड़ेगी गाते-खेलते हैं फाग सभी, रंग कर तन-मन की रोली झूमते हैं बाहें डाले पर किसने सुनी है प्रणय की बोली इतने दूर आकर अब कैसी है प्रणय की आँख मिचौनी साथ हो लो आज जगती मे कल अंत तो निश्चित है होनी पास होती तुम तब क्यों व्यर्थ आँसू की धार बहाते थोड़ी सी पीड़ा चख कर खारे बूंदों को भी मधुर बनाते जीवन बाहुपाशों मे भरकर हम भी अपने भाग्य सिहाते जी लेते ऐसे ही दिन, ‘अब नहीं’ कह कर न दूरियाँ बढ़ाते यहाँ नित प्रणय मथ कर उर से कंठ तक आता है थोड़े आँसू दे कर शांत कहीं उर मे ही छिप जाता है भटकता रहता है आँखों मे टूटी आशाओं का बादल रात भर बरस कर भिगो जाता है वह एक-एक जीवंत पल जग बदला, तुम बदली, किन्तु न बदला मेरा जीवन क्यों यह पाँव अड़ा बरसों पीछे कौन करे इसका मंथन एक बार कर दो आज अधरों की सीमायें उर मे अंकित लौट आएगा तन-मन तुम तक, है यह बात शत-निश्चित बरस बीत गये क्षण मे, क्यों मुझसे प्यार किया था क्यों अधरों पर अधरों का मधुर संकल्प लिया था आज मैंने उसी अनुराग का अधिकार है कहीं खोया न समझा कोई, जड़ तकिये पर यह मन क्यों इतना रोया जब हम थे उँगलियाँ गूँथे, साथ एक ही जीवन था तुम मे ही विश्व था, आज वही जग यहाँ निर्जन था प्रणय गुंथा है साँसों मे, काल उसे अब कैसे बिसुरायेगी लौट आना उर मे दोबारा, तू प्राण से परे कहाँ जायेगी कल समय नहीं, मन डूबता था आलिंगन मे आज शेष प्रणय टूट रहा है उल्का सा गगन मे प्यार भरे सिंधु का मैंने बूंदों मे परिवर्तन देखा है विश्व की भीड़ मे मैंने भी यह शून्य जीवन देखा है प्रिये! मैं सब कुछ दे कर, सब कुछ खो कर जीता हूँ हर दिन बढ़ती दूरियों से फटती आँखों को सीता हूँ तुम्हारे प्रणय पर हो जो भारी, मैंने ऐसा क्या मांगा था तृषित था, पर न प्रणय से, न ही जीवन से भागा था न सूखी है बूंद मधु की जिसे कभी था अधरों से पिलाया महकती है कस्तूरी आज भी जिसने था इस तृष्णा को जगाया पूछता हूँ स्वयं से कहाँ गये वे मधु-मंजित स्नेह के क्षण-क्षण बटोरता है मन आज भी, उर से टूटी आशाओं के कण-कण मिटा इतिहास, टूट गयी श्रृंखला प्रणय-पाश की हाय! विधि, तुम एक हाथ की दूरी भी न लांघ सकी यह तो मन है मर कर भी कब तक उस से लिपटा रहता उसने तो कह दिया, पर उसे प्रणय कैसे अब नहीं कहता लौट आओ मधु लिये, नहीं सूखेगा जीवन का अथाह खोल दो बाँहें, बहने दो उसे, जब तक है जीवन मे प्रवाह मन कहता है गलने से पहले फिर संवार लें कंचन सी काया उस मोड तक चलते, तुम छा जाना धूप मे बन कर घनी छाया

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