अक्खर कुंड : पद्मा सचदेव

Akkhar Kund : Padma Sachdev


शाहनी

क़लम ये सरकंडे की टहनी से झूल रही टहनी से क़लम मांगी खीझकर बोली है वो अभी परसों ही तो तुम्हें दी थी नई क़लम वह कहां गई, कहो डरते-डरते कहा मैंने छीलकर हुई ख़त्म पूछा उसने क्या किसी बहीखाते पर हो नौकर हिसाब-किताब लिखते-लिखते हर दूसरे दिन क़लम चाहिए तुम्हें नई कौन है शाह जिसकी दुकान पर इतना अधिक काम है कौन है ? मैंने धैर्य से कहा, मैं शाह का नहीं शाहनी का काम करती हूं वो शाहनी बड़ी समृद्ध बड़ी बख्तावर है। बड़ी संपन्न है उसके घर में काम करने वाली अकेली मैं नहीं कितने ही चाकर हैं उसके द्वार पर खड़े हैं हाथ बांधे वो है मेरी मातृभाषा डोगरी निकालो क़लम ढूंढ़ती होगी मुझे वो जल्दी करो सरकंडे ने अपनी बांह काटी दी मुझे और फिर कहा, लेजा इसे मैं भी चाकर हूं उसी का ।

द्रौपदी

पत्तियों की ठोड़ियों पर चमकते पानी के मोती अंबरी झीलों के भीतर द्रौपदी कोई मुद्दबर बांटती है पूनियां भर रही रोटी की डलिया सभी का भरना है पेट जिनकी हिस्सेदारी है सदा बांटी जा रही बंटती रही जब भी निर्णय लिया फिर से जीने का उस समय मृत्यु ज़रूर आती है कंधे पर रस्सी धरीं कांटों भरी खाली लुढ़की गगरियां, भरनी भी हैं क्या पता प्यासा कहां से आ रहा पत्तियों की ठोड़ियों पर अटके हैं बरखा के मोती चुने बीने रख रही आंचल में सारे ये इकट्ठे होते ही ग़ायब हुए शेष भीगा रहा आंचल बूंद-बूंद पीने के बाद फिर कृष्ण को द्रौपदी ने की गुहार जन्म लूं फिर एक बार पुनः देखूंगी संसार पांच पांडव व्याहने को साफ़ मुंह पर सीधा-सीधा प्रभु मैं दूंगी नकार ।

काला मुंह

मुझे तो किसी ने भी न बताया था कि जीने की राह गेहूं के खेत में से होकर जाती है पर जैसे मां का दूध पीना मैंने अपने आप सीख लिया वैसे ही एक दिन मैं घुटनियों चलती गेहूं के खेत में जा पहुंची गेहूं के साथ-साथ चने भी उगे हुए थे मेरी मां ने हरे-हरे चने गर्म राख में भूनकर मुझे खाने को दिए मैंने मुंह में चुभला कर हंसते-हंसते फेंक दिए अभी मेरे दांत भी नहीं आए थे भुने हुए चनों से मेरा सारा मुंह काला हो गया काली लार टपकने लगी मां ने तो मुझे यह भी नहीं बताया था कि जब भी दो रोटियों की आशा में कोई आगे बढ़ता है उसका मुंह ज़रूर काला होता है ।

दुविधा

सच बोलने में कभी-कभी ये सोचकर दुविधा होती है कहीं यह सच ही न हो यदि सच हुआ तो वो झूठ मारा जाएगा जो सच के काग़ज़ में लिपटा हुआ था झूठ पर सच का काग़ज़ उतारकर मनुष्य झूठ में ही फंस जाता है और फिर झूठा कहलाता है उसकी व्याकुल सच्ची रूह कागज़ बनकर झूठ से लिपट जाती है सच झूठ में फ़र्क करने की तब कठिनाई आती है फिर मनुष्य सोचता है जहां भी जो है उसे वहीं रहने दो होता रहे सच का बोलबाला झूठ का भी अपना कोई स्थान होता है।

अक्षर

शांतिप्रिय सफ़ेद कबूतर सारे के सारे बजुर्ग उड़ा गए अब हमारे पास सिर्फ़ काले कबूतर हैं जिनके बच्चे पैदा होते ही बिल्ली खा जाती है अपनी नस्ल ख़त्म होती देखकर कबूतर अब बच्चे पैदा नहीं करते बिल्ली के डर से वो धरती पर उतरते ही नहीं उड़ते रहते हैं आकाश में क्योंकि वो नहीं जानते आकाश में भी एक सुराख हो गया है जो किसी दिन बिल्ली बनकर धरती को निगल जाएगा कबूतरों के बचने की कोई आशा नहीं है हो सके तो अक्षर बचाकर रखो अक्षरों में ही संभली रहेगी आपकी जीते रहने के लिए की गई कोशिश अक्षर ही रखेंगे संभालकर संस्कृति आपकी पर ठहरो, सुनो क्या कहते हैं कबूतर क्या आकाश में उड़ते-उड़ते बच जाएंगे हम या आप अक्षरों को बचा ले जाएंगे और यदि अक्षर बच भी गए तो इन्हें बांचेगा कौन ?

टूटी हुई चूड़ी

रोज़ रात को आकाश के ऊपर सांझ घिर आती है यूं मैके के आंगन में ससुराल जाने से पहिले बेटी टहलती है ज्यूं रात से दिन को जुदा करती है यह चांद चढ़ने से पहले द्वार अपने बंद करके मापती है क्षणों को आषाढ़ में लू को ले लेती है आगोश में गाय कोई प्यासी जैसे झांकती है कुएं में दोनों ही प्यासी तो रहती हैं यहां घूंट भर सोती हैं दोनों बादलों की बाट में झुसमुसे की राख मलकर सो गया आकाश है मोतिया की पत्तियों में छुपके ज्यूं सुवास है पत्तों की आवाज़ होती है कहीं सतर्क होकर खिल उठी कोई कली सोती हुई सिर में डाले राख यह आकाश का क्या रंग है चांद चतुर्थी का है यह या किसी विधवा की टूटी चूड़ी है।

बरखा

फिर घिरी बरखा मुझे फिर यूं लगा देखा है तुमने मुझे फिर प्यार से बदली भरी फिर उसी चितवन के साथ फिर मेरी देह के ऊपर बरसने लगे हैं अंकुर फिर मेरी देह के रोम-रोम से निकल आए कई फूल कई खुशबुएं मेरी देह पर हाथ फिराकर निकल गई रोम-रोम उठकर खड़ा हो गया है यूं जैसे तेरे आने पर हो रही सलामी है हर सिपाही तेरी ही नज़रों की भरता हामी है चीड़ की सुइयों की तरह उठ खड़ा है रोम-रोम इन्हीं पर बरखा की बूंदें लटकती यूं कि जैसे अटके हों आंसू कई न बहा आंसू अकेला दो हुआ तो गिर गया सूई पर अब रह गई है एक बूंद बूंद वह आंखों में आकर गिर गई टकटकी-सी देखती वो नज़र पत्थर हो गई आकाश का भी मन बरसने को न रहा न ही तेरी नज़र में जीवन रहा आगे-आगे बढ़ता न वो क्षण रहा।

शिलुका*

देह जलाकर मैं अपनी लौ दूं अंधेरे को जलती - जलती हंस पड़ूँ जलती ही जीती हूं मैं जैसे बटोत के जंगल में जल रही शिलुका कोई देवदारों की घिया चीड़ों की मुझे आशीष अंधेरे की मैं रोशनी जंगल का हूं मोह मैं तू है वही हूं मैं फिर क्यूं छोटी हूं मैं अपनी मृत्यु पर रोई यह बस्ती टोह ली चक्की में डालकर बांह पीसती हूं मैं लोक पागल हो गया तुझे कहां ढूंढता रहा तू तो मेरे पास था तभी तो जीती हूं मैं मैं एक किताब हूं लिखा हुआ हिसाब हूं मैं पर्णकुटिया तेरी लाज तुम रखना मेरी रमिया रहीमन हूं मैं कुछ तो यक़ीनन हूं मैं ! * चीड़ की लकड़ी, जो मोमबत्ती की तरह पहाड़ों में लोग घरों में जलाते हैं।

शुभ मुहूर्त

जब तुम छोटे से थे हाथ मेरा ढूंढकर पकड़कर अनामिका मुंह में डालते थे तुम देखते थे टकटकी लगाकर आंखों में मेरी फिर तुम मेरा हाथ थामे चलने लगे धरती पर लोहा-से तुम हो गए तुम्हारे क़दमों के नीचे आकर धरती अंबर पिस गए जब हुए बांके जवान मेरी ही बेटी कोई तुम्हारे संग परनाई गई हाथों में भर चूड़ियां, माथे पर भरकर सिंदूर गीत-सा गाई गई जब तुम्हें अहंकार हुआ तुमने मेरी बेटी को सुख से न जीने दिया हथेली पर संसार धरकर इस बेटी की गोद भरकर ख़ाली उसके आंचल के चारों कोने किए तुमने ख़्वाहिशों, उम्मीदों, हंसी पर कोड़ों के निशान दिए तुमने बूढ़ी होकर मां भिखारिन हो गई तेरी इक नज़र की आस में दुनिया में लगी हज़ारों पंक्तियों में एक पंक्ति हो गई तू बेटा भी तू ख़सम पुरुष महान तू जुल्म करो तो हो जाबिर दया, दयावान तू जान कहां छूटेगी तुमसे मेरी आज फिर शुभ मुहूर्त में मेरी कोई बेटी ब्याही जा रही ।

मोमबत्ती

मोमबत्ती जल रही है मोमबत्ती घुल रही है मोमबत्ती सहेज रही है रोम-रोम देह का मोमबत्ती बन गई है इक कटोरी मन के आंगन में पिघलती एक गोरी पिघली हुई देह को संभालकर रखती है यह अपना ही गला हुआ मांस ज्यूं चखती है यह ज्योति डगमगाई है पर बुझी नहीं उड़ रहे हैं बाल इसके अंग-अंग घायल इसके बह रही मोमी यह धारा रखी थी सहेजकर ढेर लगा मांस का क़दमों में इसके तो भी देती रोशनी अपने ही मुर्दे पर नाचती है यह देह अपनी ही जलाकर जीती है मोमबत्ती एक स्त्री का रूप है कई करोड़ों मंदिरों में जल रही यह धूप है

गांव अपना

जब कभी घिरती है सांझ वैसी ही तभी स्मृतियों में कौंधता है गांव अपना टूटकर घिरती है सांझ गांव की चौपाल में टूटकर कोई बुलाता लाड़ वाले नाम से तब मेरे खयालों में शाम को भूनी जाती मक्का की सुगंध बौराने लगती है रस्सा फांदती कन्याएं पैरों में से उठाती है ताल तेरह ताल जानने वाली इन कन्याओं की कस कर की गई चोटियां कपड़े धोने वाले डंडे की तरह उछलती हैं आकाश में उलझ उलझ जाती हैं टापने वाली रस्सी से खट्टे कचालुओं के पत्ते चाटता कोई मिर्ची का मारा सी-सी करता चढ़ जाता है कंधे पर दोनों तरफ़ से भींचकर कहता है शाम को ऐ दीदी, चलो घर चलें !

तीसरा मोर्चा

बच्चा पैदा करने की असह्य पीड़ा मैका छोड़ने का मलाल बेघरी भोगने की त्रासदी अपनी बेटी को यह संपत्ति देकर कोई भी मां ख़ुश नहीं होती रोते-रोते दूसरी स्त्री को चुप कराती स्त्री ने मैके की दहलीज़ भुलाने को कहा मैके को भुलाए बगैर तुम ससुराल के आंगन की तुलसी के साथ नहीं उग सकती मां का पति अफ़सर था अफ़सर से बड़ा उसके लिए कोई न था उसने अपने पोरों की कमाई से बेटी को अफ़सर बनाया फिर निश्चित हो गई बेटी ने सोचा क्या बताऊं मां को अफ़सरी तीसरा मोर्चा है बाक़ी सब वैसा ही है जैसा कि था पहले स्त्री एक मोर्चे पर लड़ती थी अब दो पर लड़ रही है यह लड़ाई तीसरे मोर्चे के लिए है।

बुलबुले

बुलबुले ही बुलबुले थी ज़िंदगी बुलबुले फटते रहे ज़िंदगी घटती रही लड़की होकर जन्मी तो हंसी होकर रो गई गुड़िया के संग तान देकर सो गई जब जगी प्रतीक्षा में थी दहलीज़ कोई अपरिचित क़दम कुछ भीतर तो कुछ बाहर रहे भर गई जब गोद बंधन कस गया फटने को इक बुलबुला था रह गया सांस भीतर ही घुमड़ती रह गई बच्चा मेरी गोद भरकर टकटकी मुझ पर लगाए सो गया हाकिमों के थे सरोवर, कुएं, गहरी बावड़ीं बहती नदियों के किनारे उग रहे थे बुलबुले फट गए ज्यूं ही लगे किनारे से सामने मंज़िल भी थी कोई तो खड़ा भी था बुलबुला रहा होगा देखते ही फट गया बुलबुले ही बुलबुले थी ज़िंदगी ।

सूर्योदय

आकाश की आंख में सूरज मोतिए की तरह उतर रहा था बरखा ने आकाश को बौछारों से नहला दिया था आंखों में गिर आए पानी ने आकाश को बेचैन कर दिया था आकाश क्रोध में उबल रहा था सूरज ने मौक़ा ताड़कर बादलों को परे किया और निकल आया एक क्रोधी मास्टर से बचने के लिए जैसे क्लास में देर से आने वाला छात्र पीछे जा दुबकता है धीरे-धीरे सूरज पीला होने लगा पीलापन चमका तो उसकी लौ आसपास बिखर गई लौ में झांककर मास्टर ने पूछा, बच्चू जी, कहां थे इतनी देर तख़्ती साफ़ नहीं थी या खाने को न मिला था यह क्या सूरज के निकलने का समय है ? सूरज अब जलाल में आकर चमकने लगा था उसने अकड़कर कहा, मास्टर जी, क्यूं नाहक गर्मी खा रहे हो सूरज के निकलने का समय नहीं होता जब वो निकले वही समय है।

देह

देह एक उजाला है। देह एक शिवाला है पूजकर जर्जर हुआ सांसों का चौताला है झर रही है देह ये झर रही है देह ये छीलकर रखी है सांस घिस रही है देह ये सांप की सपकंज जैसे छोड़ती है देह ये जोड़-जोड़ टूटता खुल रही है देह ये ममता इसकी बड़ी सांसों के संग जूझती सांस भी रुकती नहीं लड़ी संग चलती लड़ी सफ़र उतराई का है बिना सोचे बिना समझे चल रहा है आदमी न दिखे अंगार चाहे जल रहा है आदमी सांसों से बुहारता उम्र का यह लेखा-जोखा सहेजता है आदमी।

नहीं मेरी बेटी

नहीं मेरी बेटी, नहीं मेरी बेटी तेरी आंखों में जो हैं आशा के दीपक उन्हें तुम न बुझ जाने देना कभी भी इबारत जो पोरों पै है उंगलियों की उसे तुम न मिट जाने देना कभी भी यह मेरा हुक्म है यह आदेश मेरा सुनो मेरी बेटी, यहां चाहे सब कुछ नहीं बहुत सुंदर यहां पर भरोसा किसी का नहीं है बिकाऊ है हर सांस चाहे यहां पर है गिरवी पड़ा यहां पै एक-एक लम्हा-लम्हा मगर फिर भी दुनिया न उतनी बुरी है कहीं कुछ है, जो तेरी राहों में अटका कहीं कुछ है, जो तेरा तकता है रस्ता वही होगा सुंदर बहुत खूबसूरत वही मेरी आशा का इक मोड़ पक्का न आंखों को भरना, न मायूस होना नहीं मेरी बेटी नहीं मेरी बेटी मेरी आंखों के ये समंदर न देखो जो भी तेरे हिस्से में आएगा बच्ची वो मेरा भी होगा मैं तब पार कर लूंगी आंखों के दरिया न मैली करो अपनी तितली सी आंखें न बुझने दो बेटी ये आंखों के दीपक नहीं मेरी बेटी नहीं मेरी बेटी!

दर्द का दिन

फिर उग आया दर्द का दिन टूट के बिखरा है हर क्षण सहज घिरी जो कोई रात उसने छेड़ी मेरी बात कुशा के ऊपर ओस गिरी सूर्यमुखी आहट सी हुई चाटे सूरज ओस और तृण रात के बदल गए पलछिन धीरे-धीरे किरण मुड़ी जैसे हो मेरी बेटी नाचे मेरी नाड़ी में कश्ती जैसे खाड़ी में नाड़ी से तलियों में ढली पोर - पोर कांपी मेरी मुट्ठी मैंने बंद कर ली चरखे में पूनी भर ली काती पूनी पीड़ा की टूटी टहनी चीड़ों की ।

अक्षरों की उम्र

मेरे अक्षरों की उम्र इतनी हो कि अगले जन्म में जब दुनिया में आऊं तो उन्हें पढ़ पाऊं लिखूं उनके बारे में याद करूं पिछला जन्म कैसी थी मैं उस जन्म में और कैसी आज हूं, बार-बार डुग्गर में पैदा होने का चाव सिर्फ मनुष्य बनकर पैदा होना नहीं है यदि किसी पहाड़ी पर मैं कपास का फूल बनकर उगूं उसकी देह ढापूं जो नंगा था पिछले जन्म बटोत में उगे सफेद चावलों की एक मंजरी बनकर डोलूं थाली भरकर खाए बच्चा, भूखा-सा फिर खिलखिलाकर हंसे जैसे पहाड़ी पर हंसती है कपास आने वाले जन्म में मैं हो सकती हूं गायिका भी गा सकती हूं पिछले जन्म में लिखे अपने ही गीत खूब ऊंचे पहाड़ी सुर में कानों पर हाथ रखे दूसरी गायिकाओं के साथ ।

तू था

तू था रोम-रोम में, जगत जैसे ओम में, धागा एक मोम में, नशा एक सोम में, आग थी भीतर मेरे दीया था मंदिर मेरे तेज इक हथियार जैसा छुपा कंदरा में था आग ने पिघला दिया तुम्हें भी गला दिया गल के पसीना हुआ मरण ही जीना हुआ रोम-रोम से बहे बुझी हुई सांस जगे देह सारी घुल गई पसीना-पसीना हो गई एक हुए मैं व तू उठ के बैठे रोम-रोम पसीना पोंछ के झाड़ दिया तुम्हें उलीच के फेंक दिया।

बुलबुले न फटना यहां

बुलबुले न फटना यहां बच्चे पैदा होते इस गांव हाथ हिलाएं ज़ोर के साथ ठुमक के चलते रौब के साथ पीड़ा मैंने बंद है की ज़ोर से भींच के है रक्खी चुनकर दर्द के सब दाने शाम को बोरी में रखने दीपक लेकर सांझ ढली खोल गई पीड़ा की गली चमकने लगे सितारे सब ये हैं ताप के मारे सब रात चुने पीड़ा मेरी जैसे कहो आंख तेरी पीर मुई अपनी है यह निकल चलो तुम भिनसारे ।

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