अकाल में सारस : केदारनाथ सिंह

Akaal Mein Saaras : Kedarnath Singh


मातृभाषा

जैसे चींटियाँ लौटती हैं बिलों में कठफोड़वा लौटता है काठ के पास वायुयान लौटते हैं एक के बाद एक लाल आसमान में डैने पसारे हुए हवाई-अड्डे की ओर ओ मेरी भाषा मैं लौटता हूँ तुम में जब चुप रहते-रहते अकड़ जाती है मेरी जीभ दुखने लगती है मेरी आत्मा

अँगूठे का निशान

किसने बनाए वर्णमाला के अक्षर ये काले-काले अक्षर भूरे-भूरे अक्षर किसने बनाए खड़िया ने चिड़िया के पंख ने दीमकों ने ब्लैकबोर्ड ने किसने आख़िर किसने बनाए वर्णमाला के अक्षर 'मैंने...मैंने'- सारे हस्ताक्षरों को अँगूठा दिखातेहुए धीरे से बोला एक अँगूठे का निशान और एक सोख़्ते में ग़ायब हो गया

एक छोटा सा अनुरोध

आज की शाम जो बाज़ार जा रहे हैं उनसे मेरा अनुरोध है एक छोटा-सा अनुरोध क्यों न ऐसा हो कि आज शाम हम अपने थैले और डोलचियाँ रख दें एक तरफ़ और सीधे धान की मंजरियों तक चलें चावल ज़रूरी है ज़रूरी है आटा दाल नमक पुदीना पर क्यों न ऐसा हो कि आज शाम हम सीधे वहीं पहुँचें एकदम वहीं जहाँ चावल दाना बनने से पहले सुगन्ध की पीड़ा से छटपटा रहा हो उचित यही होगा कि हम शुरू में ही आमने-सामने बिना दुभाषिये के सीधे उस सुगन्ध से बातचीत करें यह रक्त के लिए अच्छा है अच्छा है भूख के लिए नींद के लिए कैसा रहे बाज़ार न आए बीच में और हम एक बार चुपके से मिल आएँ चावल से मिल आएँ नमक से पुदीने से कैसा रहे एक बार... सिर्फ़ एक बार...

फलों में स्वाद की तरह

जैसे आकाश में तारे जल में जलकुम्भी हवा में आक्सीजन पृथ्वी पर उसी तरह मैं तुम हवा मृत्यु सरसों के फूल जैसे दियासलाई में काठी घर में दरवाज़े पीठ में फोड़ा फलों में स्वाद उसी तरह... उसी तरह...

सूर्यास्त के बाद एक अँधेरी बस्ती से गुज़रते हुए

भर लो दूध की धार की धीमी-धीमी चोटें दिये की लौ की पहली कँपकँपी आत्मा में भर लो भर लो एक झुकी हुई बूढ़ी निग़ाह के सामने मानस की पहली चौपाई का खुलना और अन्तिम दोहे का सुलगना भर लो भर लो ताकती हुई आँखों का अथाह सन्नाटा सिवानों पर स्यारों के फेंकरने की आवाज़ें बिच्छुओं के उठे हुए डंकों की सारी बेचैनी आत्मा में भर लो और कवि जी सुनो इससे पहले कि भूख का हाँका पड़े और अँधेरा तुम्हें चींथ डाले भर लो इस पूरे ब्रह्माण्ड को एक छोटी-सी साँस की डिबिया में भर लो

कुछ सूत्र जो एक किसान बाप ने बेटे को दिए

मेरे बेटे कुँए में कभी मत झाँकना जाना पर उस ओर कभी मत जाना जिधर उड़े जा रहे हों काले-काले कौए हरा पत्ता कभी मत तोड़ना और अगर तोड़ना तो ऐसे कि पेड़ को ज़रा भी न हो पीड़ा रात को रोटी जब भी तोड़ना तो पहले सिर झुकाकर गेहूँ के पौधे को याद कर लेना अगर कभी लाल चींटियाँ दिखाई पड़ें तो समझना आँधी आने वाली है अगर कई-कई रातों तक कभी सुनाई न पड़े स्यारों की आवाज़ तो जान लेना बुरे दिन आने वाले हैं मेरे बेटे बिजली की तरह कभी मत गिरना और कभी गिर भी पड़ो तो दूब की तरह उठ पड़ने के लिए हमेशा तैयार रहना कभी अँधेरे में अगर भूल जाना रास्ता तो ध्रुवतारे पर नहीं सिर्फ़ दूर से आनेवाली कुत्तों के भूँकने की आवाज़ पर भरोसा करना मेरे बेटे बुध को उत्तर कभी मत जाना न इतवार को पच्छिम और सबसे बड़ी बात मेरे बेटे कि लिख चुकने के बाद इन शब्दों को पोंछकर साफ़ कर देना ताकि कल जब सूर्योदय हो तो तुम्हारी पटिया रोज़ की तरह धुली हुई स्वच्छ चमकती रहे

अकाल में दूब

भयानक सूखा है पक्षी छोड़कर चले गए हैं पेड़ों को बिलों को छोड़कर चले गए हैं चींटे चींटियाँ देहरी और चौखट पता नहीं कहाँ-किधर चले गए हैं घरों को छोड़कर भयानक सूखा है मवेशी खड़े हैं एक-दूसरे का मुँह ताकते हुए कहते हैं पिता ऐसा अकाल कभी नहीं देखा ऐसा अकाल कि बस्ती में दूब तक झुलस जाए सुना नहीं कभी दूब मगर मरती नहीं- कहते हैं वे और हो जाते हैं चुप निकलता हूँ मैं दूब की तलाश में खोजता हूँ परती-पराठ झाँकता हूँ कुँओं में छान डालता हूँ गली-चौराहे मिलती नहीं दूब मुझे मिलते हैं मुँह बाए घड़े बाल्टियाँ लोटे परात झाँकता हूँ घड़ों में लोगों की आँखों की कटोरियों में झाँकता हूँ मैं मिलती नहीं मिलती नहीं दूब अन्त में सारी बस्ती छानकर लौटता हूँ निराश लाँघता हूँ कुँए के पास की सूखी नाली कि अचानक मुझे दिख जाती है शीशे के बिखरे हुए टुकड़ों के बीच एक हरी पत्ती दूब है हाँ-हाँ दूब है- पहचानता हूँ मैं लौटकर यह ख़बर देता हूँ पिता को अँधेरे में भी दमक उठता है उनका चेहरा 'है- अभी बहुत कुछ है अगर बची है दूब...' बुदबुदाते हैं वे फिर गहरे विचार में खो जाते हैं पिता

अकाल में सारस

तीन बजे दिन में आ गए वे जब वे आए किसी ने सोचा तक नहीं था कि ऐसे भी आ सकते हैं सारस एक के बाद एक वे झुंड के झुंड धीरे-धीरे आए धीरे-धीरे वे छा गए सारे आसमान में धीरे-धीरे उनके क्रेंकार से भर गया सारा का सारा शहर वे देर तक करते रहे शहर की परिक्रमा देर तक छतों और बारजों पर उनके डैनों से झरती रही धान की सूखी पत्तियों की गन्ध अचानक एक बुढ़िया ने उन्हें देखा ज़रूर-ज़रूर वे पानी की तलाश में आए हैं उसने सोचा वह रसोई में गई और आँगन के बीचोबीच लाकर रख दिया एक जल-भरा कटोरा लेकिन सारस उसी तरह करते रहे शहर की परिक्रमा न तो उन्होंने बुढ़िया को देखा न जल भर कटोरे को सारसों को तो पता तक नहीं था कि नीचे रहते हैं लोग जो उन्हें कहते हैं सारस पानी को खोजते दूर-देसावर से आए थे वे सो, उन्होंने गर्दन उठाई एकबार पीछे की ओर देखा न जाने क्या था उस निगाह में दया कि घृणा पर एक बार जाते-जाते उन्होंने शहर की ओर मुड़कर देखा ज़रूर फिर हवा में अपने डैने पीटते हुए दूरियों में धीरे-धीरे खो गए सारस

होंठ

हर सुबह होंठों को चाहिए कोई एक नाम यानी एक ख़ूब लाल और गाढ़ा-सा शहद जो सिर्फ़ मनुष्य की देह से टपकता है कई बार देह से अलग जीना चाहते हैं होंठ वे थरथराना-छटपटाना चाहते हैं देह से अलग फिर यह जानकर कि यह संभव नहीं वे पी लेते हैं अपना सारा गुस्सा और गुनगुनाने लगते हैं अपनी जगह कई बार सलाखों के पीछे एक आवाज़ एक हथेली या सिर्फ़ एक देहरी के लिए तरसते हुए होंठ धीरे-धीरे हो जाते हैं पत्थर की तरह सख़्त और पत्थर के भी होंठ होते हैं बालू के भी राख के भी पृथ्वी तो यहाँ से वहाँ तक होंठ ही होंठ है चाहे जैसे भी हो होंठों को हर शाम चाहिए ही चाहिए एक जलता हुआ सच जिसमें हज़ारों-हज़ार झूठ जगमगा रहे हों होंठों को बहुत कुच चाहिए उन्हें चाहिए 'हाँ' का नमक और 'ना' का लोहा और कई बार दोनों एक ही समय पर असल में अपना हर बयान दे चुकने के बाद होंठों को चाहिए सिर्फ़ दो होंठ जलते हुए खुलते हुए बोलते हुए होंठ

ओ मेरी उदास पृथ्वी

घोड़े को चाहिए जई फुलसुँघनी को फूल टिटिहिरी को चमकता हुआ पानी बिच्छू को विष और मुझे ? गाय को चाहिए बछड़ा बछड़े को दूध दूध को कटोरा कटोरे को चाँद और मुझे ? मुखौटे को चेहरा चेहरे को छिपने की जगह आँखों को आँखें हाथों को हाथ और मुझे ? ओ मेरी घूमती हुई उदास पृथ्वी मुझे सिर्फ़ तुम... तुम...तुम...

एक मुकुट की तरह

पृथ्वी के ललाट पर एक मुकुट की तरह उड़े जा रहे थे पक्षी मैंने दूर से देखा और मैं वहीं से चिल्लाया बधाई हो पृथ्वी, बधाई हो !

काली मिट्टी

काली मिट्टी काले घर दिन भर बैठे-ठाले घर काली नदिया काला धन सूख रहे हैं सारे बन काला सूरज काले हाथ झुके हुए हैं सारे माथ काली बहसें काला न्याय ख़ाली मेज़ पी रही चाय काले अक्षर काली रात कौन करे अब किससे बात काली जनता काला क्रोध काला-काला है युगबोध

नदी

अगर धीरे चलो वह तुम्हे छू लेगी दौड़ो तो छूट जाएगी नदी अगर ले लो साथ वह चलती चली जाएगी कहीं भी यहाँ तक- कि कबाड़ी की दुकान तक भी छोड़ दो तो वही अंधेरे में करोड़ों तारों की आँख बचाकर वह चुपके से रच लेगी एक समूची दुनिया एक छोटे से घोंघे में सच्चाई यह है कि तुम कहीं भी रहो तुम्हें वर्ष के सबसे कठिन दिनों में भी प्यार करती है एक नदी नदी जो इस समय नहीं है इस घर में पर होगी ज़रूर कहीं न कहीं किसी चटाई या फूलदान के नीचे चुपचाप बहती हुई कभी सुनना जब सारा शहर सो जाए तो किवाड़ों पर कान लगा धीरे-धीरे सुनना कहीं आसपास एक मादा घड़ियाल की कराह की तरह सुनाई देगी नदी!

दाने

नहीं हम मण्डी नहीं जाएंगे खलिहान से उठते हुए कहते हैं दाने॔ जाएंगे तो फिर लौटकर नहीं आएंगे जाते- जाते कहते जाते हैं दाने अगर लौट कर आये भी तो तुम हमे पहचान नहीं पाओगे अपनी अन्तिम चिट्ठी में लिख भेजते हैं दाने इसके बाद महीनों तक बस्ती में कोई चिट्ठी नहीं आती। रचनाकाल : 1984

जूते

सभा उठ गई रह गए जूते सूने हाल में दो चकित उदास धूल भरे जूते मुँहबाए जूते जिनका वारिस कोई नहीं था चौकीदार आया उसने देखा जूतों को फिर वह देर तक खड़ा रहा मुँहबाए जूतों के सामने सोचता रहा-- कितना अजीब है कि वक्ता चले गए और सारी बहस के अंत में रह गए जूते उस सूने हाल में जहाँ कहने को अब कुछ नहीं था कितना कुछ कितना कुछ कह गए जूते

छोटे शहर की एक दोपहर

हज़ारों घर, हज़ारों चेहरों-भरा सुनसान - बोलता है, बोलती है जिस तरह चट्टान सलाखों से छन रही है दोपहर की धूप धूप में रखा हुआ है एक काला सूप तमतमाए हुए चेहरे, खुले खाली हाथ देख लो वे जा रहे हैं उठे जर्जर माथ शब्द सारे धूल हैं, व्याकरण सारे ढोंग किस क़दर खामोश हैं चलते हुए वे लोग पियाली टूटी पड़ी है, गिर पड़ी है चाय साइकिल की छांह में सिमटी खड़ी है गाय पूछता है एक चेहरा दूसरे से मौन बचा हो साबूत -- ऎसा कहां है वह-- कौन? सिर्फ़ कौआ एक मडराता हुआ - सा व्यर्थ समूचे माहौल को कुछ दे रहा है अर्थ

वह

इतने दिनों के बाद वह इस समय ठीक मेरे सामने है न कुछ कहना न सुनना न पाना न खोना सिर्फ़ आँखों के आगे एक परिचित चेहरे का होना होना- इतना ही काफ़ी है बस इतने से हल हो जाते हैं बहुत-से सवाल बहुत-से शब्दों में बस इसी से भर आया है लबालब अर्थ कि वह है वह है है और चकित हूँ मैं कि इतने बरस बाद और इस कठिन समय में भी वह बिल्कुल उसी तरह हँस रही है और बस इतना ही काफ़ी है

एक दिन हँसी-हँसी में

एक दिन हँसी-हँसी में उसने पृथ्वी पर खींच दी एक गोल-सी लकीर और कहा- 'यह तुम्हारा घर है' मैंने कहा- 'ठीक, अब मैं यहीं रहूंगा' वर्षा शीत और घाम से बचकर कुछ दिन मैं रहा उसी घर में इस बात को बहुत दिन हुए लेकिन तब से वह घर मेरे साथ-साथ है मैंने आनेवाली ठण्ड के विरुद्ध उसे एक हल्के रंगीन स्वेटर की तरह पहन रखा है

आना

आना जब समय मिले जब समय न मिले तब भी आना आना जैसे हाथों में आता है जांगर जैसे धमनियों में आता है रक्त जैसे चूल्हों में धीरे-धीरे आती है आँच आना आना जैसे बारिश के बाद बबूल में आ जाते हैं नए-नए काँटे दिनों को चीरते-फाड़ते और वादों की धज्जियाँ उड़ाते हुए आना आना जैसे मंगल के बाद चला आता है बुध आना

दूसरे शहर में

यही हुआ था पिछ्ली बार यही होगा अगली बार भी हम फिर मिलेंगे किसी दूसरे शहर में और ताकते रह जाएंगे एक-दूसरे का मुँह

धीरे-धीरे हम

धीरे-धीरे पत्ती धीरे-धीरे फूल धीरे-धीरे ईश्वर धीरे-धीरे धूल धीरे-धीरे लोग धीरे-धीरे बाग धीरे-धीरे भूसी धीरे-धीरे आग धीरे-धीरे मैं धीरे-धीरे तुम धीरे-धीरे वे धीरे-धीरे हम

अड़ियल साँस

पृथ्वी बुखार में जल रही थी और इस महान पृथ्वी के एक छोटे-से सिरे पर एक छोटी-सी कोठरी में लेटी थी वह और उसकी साँस अब भी चल रही थी और साँस जब तक चलती है झूठ सच पृथ्वी तारे--सब चलते रहते हैं डाक्टर वापस जा चुका था और हालांकि वह वापस जा चुका था पर अभी सब को उम्मीद थी कि कहीं कुछ है जो बचा रह गया है नष्ट होने से जो बचा रह जाता है लोग उसी को कहते हैं जीवन कई बार उसी को काई घास या पत्थर भी कह देते हैं लोग लोग जो भी कहते हैं उसमें कुछ न कुछ जीवन हमेशा होता है तो यह वही चीज़ थी यानी कि जीवन जिसे तड़पता हुआ छोड़कर चला गया था डाक्टर और वह अब भी थी और साँस ले रही थी उसी तरह उसकी हर साँस हथौड़े की तरह गिर रही थी सारे सन्नाटे पर ठक-ठक बज रहा था सन्नाटा जिससे हिल उठता था दिया जो रखा था उसके सिरहाने किसी ने उसकी देह छुई कहा-- 'अभी गर्म है' लेकिन असल में देह याकि दिया कहाँ से आ रही थी जीने की आँच यह जाँचने का कोई उपाय नहीं था क्योंकि डाक्टर जा चुका था और अब खाली चारपाई पर सिर्फ़ एक लम्बी और अकेली साँस थी जो उठ रही थी गिर रही थी गिर रही थी उठ रही थी... इस तरह अड़ियल साँस को मैंने पहली बार देखा मृत्यु से खेलते और पंजा लड़ाते हुए तुच्छ असह्य गरिमामय साँस को मैंने पहली बार देखा इतने पास से

न होने की गंध

अब कुछ नहीं था सिर्फ़ हम लौट रहे थे इतने सारे लोग सिर झुकाए हुए चुपचाप लौट रहे थे उसे नदी को सौंपकर और नदी अंधेरे में भी लग रही थी पहले से ज्यादा उदार और अपरम्पार उसके लिए बहना उतना ही सरल था उतना ही साँवला और परेशान था उसका पानी और अब हम लौट रहे थे क्योंकि अब हम खाली थे सबसे अधिक खाली थे हमारे कन्धे क्योंकि अब हमने नदी का कर्ज़ उतार दिया था न जाने किसके हाथ में एक लालटेन थी धुंधली-सी जो चल रही थी आगे-आगे यों हमें दिख गई बस्ती यों हम दाखिल हुए फिर से बस्ती में उस घर के किवाड़ अब भी खुले थे कुछ नहीं था सिर्फ़ रस्म के मुताबिक चौखट के पास धीमे-धीमे जल रही थी थोड़ी-सी आग और उससे कुछ हटकर रखा था लोहा हम बारी-बारी आग के पास गए और लोहे के पास गए हमने बारी-बारी झुककर दोनों को छुआ यों हम हो गए शुद्ध यों हम लौट आए जीवितों की लम्बी उदास बिरादरी में कुछ नहीं था सिर्फ़ कच्ची दीवारों और भीगी खपरैलों से किसी एक के न होने की गंध आ रही थी

लोककथा

जब राजा मरा सोने की एक बहुत बड़ी अर्थी बनाई गई जिस पर रखा गया उस का शव शानदार शव जिसे देखकर कोई कह नहीं सकता कि वह राजा नहीं है सबसे पहले मन्त्री आया और शव के सामने झुककर खड़ा हो गया फिर पुरोहित आया और न जाने क्या कुछ देर तक होठों में बुदबुदाता रहा फिर हाथी आया और उसने सूँड उठाकर शव के प्रति सम्मान प्रकट किया फिर घोड़े आये नीले-पीले जो माहौल की गम्भीरता को देखकर तय नहीं कर पाए कि उन्हें हिनहिनाना चाहिए या नहीं फिर धीरे-धीरे बढ़ई धोबी नाई कुम्हार-- सब आए और सब खड़े हो गए विशाल चमचमाती हुई अर्थी को घेरकर अर्थी के आसपास एक अजब-सा दुख था जिसमें सब दुखी थे मन्त्री दुखी था क्योंकि हाथी दुखी था हाथी दुखी था क्योंकि घोड़े दुखी थे घोड़े दुखी थे क्योंकि घास दुखी थी घास दुखी थी क्योंकि बढ़ई दुखी था...

घुलते हुए गलते हुए

देखता हूँ बूँदें टप‍-टप गिरती हुईं भैंस की पीठ पर भैंस मगर पानी में खड़ी संतुष्ट । उसके थन दूध से भारी । पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण पूरी ताक़त से थनों को खींचता हुआ अपनी ओर । बूढ़े दालान में बैठे हुक्का पीते-- बारिश देखते हुए । हुक्के के धुँए को बाहर निकलते और बारिश से हाथ मिलाते हुए। सहसा बौछारों की ओट में दिख जाती है एक स्त्री उपले बटोरती हुई । बूँदों की मार से जल्दी-जल्दी उपलों को बचाने की कोशिश में भीगती है वह बचाती है उपले। कहीं से आती है उपलों से छनती हुई फूल की ख़ुशबू । उपलों की गंध मगर फूल की गंध से अधिक भारी अधिक उदार स्त्री को बौछारों में धीरे-धीरे घुलते हुए गलते हुए देखता हूँ मैं।

निराला को याद करते हुए

उठता हाहाकार जिधर है उसी तरफ़ अपना भी घर है ख़ुश हूँ -- आती है रह-रहकर जीने की सुगन्ध बह-बहकर उसी ओर कुछ झुका-झुका-सा सोच रहा हूँ रुका -रुका-सा गोली दंगे न हाथापाई अपनी है यह अजब लड़ाई रोज़ उसी दर्ज़ी के घर तक एक प्रश्न से सौ उत्तर तक रोज़ कहीं टाँके पड़ते हैं रोज़ उधड़ जाती है सीवन 'दुखता रहता है अब जीवन'

नए शहर में बरगद

जैसे मुझे जानता हो बरसों से देखो, उस दढ़ियल बरगद को देखो मुझे देखा तो कैसे लपका चला आ रहा है मेरी तरफ़ पर अफ़सोस कि चाय के लिये मैं उसे घर नहीं ले जा सकता

पूंजी

सारा शहर छान डालने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि इस इतने बड़े शहर में मेरी सबसे बड़ी पूंजी है मेरी चलती हुई साँस मेरी छाती में बन्द मेरी छोटी-सी पूंजी जिसे रोज़ मैं थोड़ा-थोड़ा ख़र्च कर देता हूँ क्यों न ऎसा हो कि एक दिन उठूँ और वह जो भूरा-भूरा-सा एक जनबैंक है-- इस शहर के आख़िरी छोर पर-- वहाँ जमा कर आऊँ सोचता हूँ वहाँ से जो मिलेगा ब्याज उस पर जी लूंगा ठाट से कई-कई जीवन

रक्त में खिला हुआ कमल

मेरी हड्डियाँ मेरी देह में छिपी बिजलियाँ हैं मेरी देह मेरे रक्त में खिला हुआ कमल क्या आप विश्वास करेंगे यह एक दिन अचानक मुझे पता चला जब मैं तुलसीदास को पढ़ रहा था

सड़क पर दिख गए कवि त्रिलोचन

सवेरे-सवेरे एक बच्चा रो रहा था उसके हाथ से गिरकर अचानक टूट गया था उसका मिट्टी का बाघ एक छोटा-सा सुन्दर बाघ जो तारों से लड़ चुका था लड़ चुका था चाँद और सूरज और समुद्री डाकुओं से ठीक उसकी आँखों मे आगे उसके हाथ से गिरा और खन्न से टूट गया और अब वह रो रहा था

आँकुसपुर

आँकुसपुर रुकी नहीं ट्रेन हमेशा की तरह धड़धड़ाती हुई आई और चली गई छोड़कर आँकुसपुर सिर्फ़ दसबजिया यहाँ रुकती है कहा एक यात्री ने दूसरे यात्री से । क्यों ? आख़िर क्यों ? फिर पृथ्वी पर क्यों है आँकुसपुर- जब रहा नहीं गया तो तार पर बैठी एक चिड़िया ने पूछा दूसरी चिड़िया से

रास्ता

बगुले उड़े जा रहे थे नीचे चल रहे थे हम तीन जन तीन जन शहर से आए हुए क्वार की तँबियाई धूप में नहाए हुए तीन जन चले जा रहे थे फैले कछार में डूबते हुए दिन की पगडंडी पकड़कर तीन जन ख़ुश एक अजब विश्वास से भरे हुए तीन जन कि हम जा रहे हैं ठीक कि ज़रूर-ज़रूर हम पहुँच ही जाएँगे बगुलों की तरह अपने ठीक मुक़ाम पर दिन डूबने से पहले हम चले जा रहे थे चुप किन्हीं बातों में खोए हुए चले जा रहे थे हम कि अचानक हमारे पाँव ज़रा ठिठके कि अचानक हमने पाया रास्ता ख़त्म! अब हमारे सामने दूर तक फैले पके हुए ज्वार के सिर्फ़ खेत ही खेत थे और रास्ता नहीं था क्या हुआ किधर गया रास्ता? हम तीन जन सोचते रहे खड़े परेशान कि हमें दूर दिखाई पड़ा डूबते हुए सूरज के आस-पास एक बूढ़ा किसान हम तीन जन उसके पास गए पूछा—‘दादा, रास्ता किधर है?’ बूढ़ा कुछ नहीं बोला वह कुछ देर हमें यों ही देखता रहा फिर नीचे से उसने एक ढेला उठाया और उस तरफ़ फेंका जिधर झुकी हुई चर रही थी एक काली गाय अब गाय चलने लगी पत्ते बजने लगे और हमने देखा जिधर खेत के बीचोंबीच ज्वार की लटकी हुई थैलियों को चीरती चली जा रही थी गाय उधर रास्ता था उधर घास में धँसे हुए खुर-सा चमक रहा था रास्ता अब दृश्य बिल्कुल साफ़ था अब हमारे सामने गाय थी किसान था रास्ता था सिर्फ़ हमीं भूल गए थे जाना किधर है! बगुले अब दूर बहुत दूर निकल गए थे!

उम्मीद नहीं छोड़तीं कविताएं

ज़रा हवा चलती है कहीं एक पत्ता पट् से गिरता है ज़मीन पर और एक छपती हुई कविता अपने टाइप और फ़र्मे से छिटककर हो जाती है अलग एक अच्छी कविता तरस खाने लगती है अपने अच्छे होने पर एक महान कविता ऊबने लगती है अपनी स्फ़टिक गरिमा के अंदर और जब सारा शहर सो जाता है तो इन सारी कविताओं में भरा अपसाद दुनिया पर बरसता है सारी-सारी रात पर मौसम चहे जितनी ख़राब हो उम्मीद नहीं छोड़तीं कविताएं वे किसी अदृश्य खिड़की से चुपचाप देखती रहती हैं हर आते-जाते को और बुदबुदाती हैं धन्यवाद! धन्यवाद!

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