अग्निगर्भ : सुभाष मुखोपाध्याय - अनुवादक : रणजीत साहा

Agnigarbha : Subhash Mukhopadhyay



मई का पहला दिन

हाँ प्रिये, अभी फूलों के साथ खेलने की घड़ी नहीं जबकि हमसब खड़े हैं अपनी तबाही के बिलकुल सामने हमारी आँखों में किसी सपने का नीला नशा नहीं हम सेंकते हैं ख़ाल अपनी चिलचिलाती धूप में। चिमनी के मुँह से सुनो सायरन का शंख हथौड़ी और निहाई गा रहे हैं गीत तिल-तिल बढ़ती मृत्यु में भी है अनगिनत जीवन जो जीवन को करना चाहता प्यार। प्रेम की तमाम सौगातों पर पहरा बिठाकर मौत का क़र्ज नखदन्त को सौंपकर सारे बन्धन टूट जाएँगे जागरण के छनद में मुस्करायेगा चमकीला दिन दिगन्त पर। सदियों से अपमानित ग़रीबों के रुदन से एक-एक साँस बोझिल है, शर्मिन्दा है मौत के डर से, कातर हो बैठ जाना नहीं, अब और नहीं, पहनो...पहनो लड़ाई का बाना। आज फूलों से खेलने का नहीं दिन प्रिये, आ चुकी हो जबकि तबाही की ख़बर, इस मुसीबत की घड़ी में चाहे राह जितनी भी कठिन हो यौवन का उत्साह पहचान लेगा अपनी डगर।

प्रस्ताव-1940

प्रभु अगर तुम कहो कि भिड़ना है अमुक राजा के साथ तो टाल-मटोल किये बिना, मैं तीर-धनुष उठा लूँगा। वैसे तो बेकार हूँ, फिर मौत से मुझको कैसा डर; पाँव आगे न बढ़ाऊँ तो खानी पड़ेगी तुम्हारी कोड़े की मार। हम वैसे ही बे-घर हैं; आसमान ही है घर और बाहर हे प्रभु, तुमने ही सिखलाया है-यह दुनिया केवल माया है इसीलिए तो संन्यासी का मन्त्र लिया है आज फल का लालच नहीं, हम धरते हैं सारी फ़सल तेरे कोठार में। ओ सौदागर, सारे सन्तरी और सिपाही तुम्हारे हैं इतनी दया करो, महामानव की बातों का करो प्रसार, फिर इसके बाद विधाता की करुणा है अपरम्पार जन-गण के मन विधि-निषेध की डाल दो जं़जीर। नहीं मिला हथियार इतने दिनों तक, तभी छोड़ी है तान बचपन में था तीर-धनुष चलाने का अभ्यास। अगर शत्रुपक्ष कभी दाग़ने लगे अचानक तोप यही कहूँगा, ‘बेटे, हर कीमत पर रक्षा करना सभ्यता की।’ आँखे बन्द कर, मोड़ लूँगा कान, किसी कोयल की तरफ।

निर्वाचन

फागुन या कि चैत में-बदलेंगी अपना रुख़ हवाएँ आपसी संवाद में हो उठेंगी मुग्ध, पास की दो सीढ़ियाँ ‘अब तो बनाना है ज़रूरी घोसला’ (मुर्दाघर-स्थानाभाव के चलते?) नख पर है नक्षत्रलोक, उँगलियों में फँसी आधी सुलगी बीड़ी है मांस का अकाल, वर्ना हावभाव से कोई ऋषि जान पड़ता वह। विकृत मस्तिष्क चाँद की ओर तनी उँगली में विदेही सपने। शाम का नाजुक़-सा सूरज रोज़ झील में डूब जाएगा। बदनसीब बार्सिलोना के रेस्तरां में यह कुछ बुरा नहीं लगेगा। साम्य है बड़ी उम्दा चीज़। वैसे अनुचित है राजद्रोह। ‘हे बदज़ायका ज़िन्दगी’, वगैरह कहकर इधर-उधर तक लेना। ऐसा है दोस्त कि अब की जाए आत्मा की अनदेखी। (अहो! फ़िलहाल माघ की मुठभेड़ में दक्खिन की सेना में मची है खलबली।) क्या बसन्त अब भी सदल-बल अपना त्यागपत्र नहीं भेजेगा?

यहाँ

वह नागरिक धूसर जीवन को पीछे छोड़, सबसे तेज़ ट्रेन पकड़कर आज यहाँ आ पहुँचा, -आसनसोल में। यहाँ का आकाश पहाड़ की देह पर पड़ा है औंधा पहाड़ की देह पर उगी हैं क़तार-दर-क़तार काली चिमनियाँ। आसपास सोये पड़े हैं धान के खेत चारों ओर- चौक़न्ने कान सुन रहे हैं हँसिये की धार तेज़ करने की आवाज़ लुहार-घरों में? ऊँची-नीची लहरदार चटियल ज़मीन दूर-दूर मैदानों तक पैदल निकल गयी है छोटी-छोटी घास, सिर पर जिनके शायद ओस झिलमिला रही है। दोनों ओर-दूर-दूर फेले रेतीले इलाके बीच में बहती नदी रुक-रुक लेती साँस पाँव में खींच-खींच जाती है चिकनी रेख। सुनसान मैदान अचानक दीख पड़ती है तार की बाड़; साँप-सी बलखाती रेल की पटरियाँ चली गयी हैं सुदूर अंचल में। दिन-भर पहरा देता सूरज शाम बीतते उतरता नज़र आता है अपने भारी-भरकम डेने फेलाये काले पहाड़ से -आँखों में थकान लिये। ताड़ीख़ाने खुल गये हैं अब; सड़कों पर लोगों का हुजूम जमा है। औरत और मर्द मिलते-बतियाते हैं आमने-सामने सिर्फ़ चुक्कड़ पर। किसी-किसी से यह गन्दी लत छीन लेती है, आखिरी कौड़ी तक। तब, बहुत-बहुत दिनों का भूला-बिसरा गाँव और पुराना ठीहा याद आता है। दूर खड़ा शीशम का पेड़; जिससे सटे हैं धान के खेत कुछ नहीं है, तो भी ये सब कैसे-कैसे सपने बुन देते हैं। किसी पराये घोंसले को छोड़ यहाँ आया मैं सोचता हूँ सिनेमाघरों से पटी राजधानी में ही मैं अच्छा भला था जिनका ख़ून कारख़ाने के धुएँ से मिलकर उड़ रहा आकाश में- मुट्ठी-भर ख़यालों से भरी यह दुनिया -उनकी भूलभुलैया है।

पर्ची

कोटि-कोटि प्रणाम के बाद हुजूर की सेवा में अरज है- माफ़ कीजिएगा, इस साल मालगुज़ारी चुकाने को रत्ती भर भी धान नहीं। खेत के खेत दरक गये हैं दूर-दूर तक जहाँ तलक जाती है नज़र रीत बये हैं नाले और नहर सूखे पड़े हैं जोहड़ आँखों में ठहरा है खारा समन्दर। कौन पसारे हाथ भला किसके आगे, खस्ता है सबकी हालत और बिसात तीन-तीन दिन रहकर भूखे-प्यासे, कई दिनों से पेट में झोंक रहे हैं जगली पात। चीथड़ों से ढँकी नहीं जा सकती देह की लाज। बर्तन-भाँड़े बेच दिये सब जो कहने को थे अपने पास। इस दुर्दिन में, देनदारी की उगाही रखें महाराज मुल्तवी ठीहे में ख़ामख़ाह न घुस पड़ें हथियारबन्द प्यारे और बन्दूकची इस मौजे में यही कोई हज़ार-एक रैयत होंगे जो मिल करके सोच रहे हैं कैसे जान बचाई जाए? सुलग रहा है पेट और झुलस रहा है खेत तो कौन चुकाएगा लगान? इस बार हमें बचाया नहीं गया हुजूर तो फिर जलकर रहेगी आग।

सीमान्त की चिट्ठी

मैं तुमको भूल न पाया तुम भूल न जाना मुझको तुम्हारी हज़ार-हज़ार आँखें देख रहीं तारों से मुझको। पर्वत मेरे पास खड़ा है अगिन रंग का हरा इलाका हाँ, यहाँ प्रस्तुत हूँ मैं ओर प्रतिश्रुत पौरुष मेरा। तुम सब हो अनथक साथी एक-एक खेत में, तुम्हारे हाथ की फ़सल भूखी मज्जा में समा जाती है- तभी तो बढ़ पाते हैं हमारे क़दम तुम्हारे ही हाथ का वज्र शत्रुशिविर में चलाते हैं हम। तोड़ दो ज़ंजीरें, हाँक लगी है चारों ओर मेरे मन में, इधर धधक उठती है निर्मम घृणा मैं देख रहा हूँ दुश्मन की जलती आँखों में- जीवन-दान की याचना।

इस आश्विन में

रास्ते के दोनों ओर के घरों में पिंजरों का ढेर सारा गाँ कर रहा है भाँय भाँय शोक में डूबी हैं शाँखा-चूड़ियाँ। खून चूसनेवाले दिग्विजय से लौटकर बन्दरगाहों में पिटवा रहे हैं डंके, उन्होंने फाँस रखा है सारे अग-जग को मृत्यु-पाश में। उसकी आँखों में ठहरा है बंजर अन्धकार उसकी देह से आ रही है लाशों की बू और पाँव तले है चिताभस्म। भूख टटाये हाड़ से सिहरकर चौकन्ना हो उठता है वज्र उन्मत्त ज्वार-स्तम्भ काँप-काँप् उठता है गु़स्से से बिफरे काले बादलों की टेढ़ी भौंह से छूटती बिजली के लिए तैयार है धरती। दिशा-दिशा में हो रही विजयोद्धत जीवन की घोषणा खुले हाथ उलीच रहा है सूरज ढेर का ढेर सोना, रोमांचित है हर खेत जहाँ फूट-फूट पड़ती है आश्विन की चटकीली सुबह। पुलकित जंगल का मन्त्रमुग्ध नीलाभ पंछी उड़ चला है निरुद्देश्य-शून्य के विस्तार में। सिर धुन रही है चंचल हवा में फँसी पेड़ों की शाखाएँ, फूट पड़ी हैं रक्तवर्णी फूल बन दबी हुई मन की इच्छाएँ। चटियल बालू-ढूहों पर चिड़ियों के कलरव से दौड़ा चला आता है चंचल ज्वार खुल जाता है हाथों की चोट से जीवन का रुँधा सिंहद्वार। सूरज के भाल पर आगामी दिनों के सपने दूर-दिगन्त तक जुते हुए खेतों में आगंतुक अंकुरित पैरों के निशान करता जाता अंकित। जंगल में पेड़ों की डाल-डाल पर बाजूबन्द बाँध दिया करते हैं पलाश और उतावला पंछी लगता है चहकने। दूसरों से सहमा हुआ है हमारा दुश्मन मुखौटे की आड़ में वह तेज़ कर रहा है अपने नाखून जीवन-यात्रा के पथ पर बिखेर देता है काँटे उसके पाँवों से बँधी हुई है मौत लोभ ही है उसकी राह। क्षमा नहीं- शोक में डूबा, सन्ध्या का आकाश दीख रहा है सुहागन के उजड़े सुहाग-सा। कन्धे से कन्धा जोड़कर खड़े रहो, हाथों में वज्र लेकर टूट पड़ो और देखो हिल रही है धरती गु़लामी का कलंक मिट सकेगा तभी।

स्वागत

सारा गाँव ही चला गया है शहर घर सूने, सूने चौपाल यूँ ही पड़ी है धान बोई ज़मीन। तुलसी के सूने चौरे पर, संझा-बाती नहीं तभी पसरकर बैठ गया है अन्धकार। घास-फूस और जंगली पौधों से अटा पड़ा है आँगन, सूरज कब का जा बैठा है पाटी पर। दीख नहीं पड़ता कहीं कोई चरवाहा ना ही गायों की गोठ से उड़ रही है धूल, और न ढेंकी के कूटे जाने की आवाज़ नहीं छलकती दीख रही किसी पनघट पर कलसी। खर पतवारों से पटी हुई पगडंडी बिना शंख -स्वर ढल जाती शाम सूरज बढ़ता जाता अस्ताचल की ओर। ताँती कपड़े नहीं बुनते तेली कोल्हू नहीं चलाते ताला झूल रहा है कुम्हार के चौखट पर, बन्द पड़े हैं टपपर ग़ायब हो गये हैं दुकानदार हाट में बेच-बाचकर हथौड़ियाँ राख बदन पर पोते ठलुए-सा पड़ा हुआ है भाँथी-भट्ठा। कौन जाने किन राहों पर निकल गया है बढ़ई? कँपने लगी है अब सर्द हवा; चंडी-मंडप के सामने जल नहीं रहा कोई अलाव एक से दूसरे हाथ तक घूम नहीं रहा हुक्का गाँव-जवार में कहीं नहीं सुलगता दीख रहा कोई चूल्हा। उनींदी रातों में- पैरों की आहट पाकर अब नहीं भूँकता कुत्ता, दूर खड़ी नंगी हरियाली हाथ हिलाकर चाह रही है, खेतों में धान की सुनहरी फ़सल लहलहाये। उसकी दोनों आँखों में इन्तज़ार है, उसकी पलकों पर देते हैं सपने दस्तक। शहर शहर पड़ती है हाँक। रास्ते में पड़नेवाले श्मशान से एक ठंडी भीड़ सुनती है वह पुकार और खेत की फ़सल पकने के दिन गिनने लगती है। ऐसा कठिन संकल्प मन में धारे एक-एक कर, सब-के-सब आँखों से शोक के आँसू पोछने के बाद सोच रहे हैं- घर-घर में भिजवायें कैसे नवान्न का सन्देश। जाग उठी पैरों की आहट बाट-बाट बातें करती नदी, पंछी गाते गान खेत का राजा मुग्ध नयन से देख रहा -धान और धान।

हस्ताक्षर

खुले आकाश में रक्त से लथपथ किसी युद्ध में अन्धकार भी तड़प-तड़प् कर दम तोड़ दे। अब तक नहीं उगा है सूरज, कौवे की कर्कश काँव-काँव नाच रही हैं रास्ते पर बिर्राती लहरें। यह अचेत काया जीवन की किसी हलचल से शान्त पड़ी रहती है। आँखों में लिये कोई गहरा अभियोग भिक्षा-पात्र पर टिके हैं दोनों हाथ; उसके होंठों पर फेला है, भूखी आत्मा का निर्मम दन्तुल अभिशाप। टपकते नहीं किसी की आँख से दुखः भरे आँसू सुन नहीं पड़ता विलाप का स्वर इर्द गिर्द गूँज रहा है तो सिर्फ अट्टहास और बदहवास लालची जानवरों की चढ़ी त्योरियाँ, जहाँ वात्सल्य है मृत, प्रेम पराजित और भरा है कूट-कूट कर दम्भ। सारा संसार बिखर कर हो गया तबाह पीड़ा से आहत जल रही विह्वल धरा। मैं उसे जानता हूँ शायद धान की चौकन्ना बालियों को सुन पड़ी थी उसके क़दमों की आहट। उसकी आँखों में थी किसी ख़ास दिन की-खुशियाँ और चमक। उसके हाथों में थी विश्व ऐश्वर्य की खन्ती हृदय में विपुल विश्वास उसके प्रति ऋणी है मेरी प्राणधमनी। ख़ाली पेट उतर आती हैं छाया में डूबी शातिर जं़जीरें, चेतना धीरे-धीरे कमज़ोर पड़ती जा रही; चमकीली रोशनी में देख रहा-मैं हमदर्दी का चोला पहने दुश्मन के दलालों ने रखा छुपाकर जिसने अँधेरे कोठार में लाखों मन चावल; और दूसरे हाथ में अग्निगर्भ प्रस्ताव। खुले आकाश में; वही तो आता है। असुरक्षित रथचक्र गिर रहे वज्र के नीचे सदियों का देशदर्प काँप् रहा है सर्वनाश में। हत्यारा हँसता है! काँपती उँगलियों से गिन रहा है दिन उसके पाँव तले है श्मशान, तो भी मैं जानता हूँ विजय की ओर बढ़ रही मुक्ति पताका, आन्दोलित जनसमूह प्रबल उत्साह से भींच लेना चाहता है नियति को अपनी मुट्ठी में। सम्मिलित हाथांे में बटोर लाता है खुली रोशनी में अँधेरे कोठारों की फ़सलें। दृढ़संकल्प प्रतिरोध से भूखे लोगों के सहायतार्थ, दौड़ी चली आती हैं सेवा को आतुर बाँहें। दूर-दूर तक खेतों में थकान का नहीं कोई निशान अनगिनत हल- कर रहे हैं नवान्न का आवाह्न। हालाँकि सामने खड़ा है तूफान, रास्ता काँटोंभरा, हम जानते हैं जीत होगी हमारी, अमर शपथ-पत्र पर कर जाएँगे हम उस दिन के हस्ताक्षर।

आह्वान

सीमान्त पर तनी हैं तलवारें निहत्थे देश के सीने में दहका कर आग प्रभुता के नशे में चूर हैं बूट। अहंकार से ऐंठे चेहरे का चुरुट समूहबद्ध जनता के हुंकार-ज्वार में पलक झपकते डूब जाएगा। हम लोगों के मुट्ठीबन्द हाथ के जवाब से मुक्ति की दीवार का करेगी ज़ोरदार विरोध काले कुहासे में नज़र पड़ गयी है धुँधली सदियों से सींची गयी नफ़रतभरी खाकी वर्दी और इस्पाती झिलम वाली देह कुलबुलाती है आस्तीन में। क़र्ज़ में डूबे किसानांे के घर-घर में कुंडली मारे बैठा है अकाल जलते गु़स्से के चलते हल जोत नहीं पाते ज़मीन, ढीली पड़ी है दोनों हाथों की मुट्ठियाँ। बस्ती के निचले हिस्से के होठों पर जम्हाई- तन गयी है, बेबस जर्जर घर में पैठी मृत्यु की भृकुटि। ख़ामोश हैं करोड़ों कंठ के गान, सुस्त और बीमार पड़ी है धमनी- थम गयी है ज़ोरदार खन्ती अब भी तुम काहिल बने बैठे हो? सोये दोस्तों को जगाओ, खून में उनके जले अब आग; बन्दी है सेनापति, और आज तरकस है ख़ाली।

चलो मैदान

हड़ताल!हड़ताल!! जहाँ रहें शामिल होंगे सभी मैदान में आज, हड़ताल!हड़ताल!! लाखों हाथ हों एक साथ आज हम सब देखेंगे पशु-राज। हड़ताल!हड़ताल!! करो दुकानें, दरवाजे़ बन्द, ट्राम बसों के चके कुन्द। हड़ताल!हड़ताल!! फोड़ दो, बिजली की आँखें, करो चौरंगी को अन्ध। हड़ताल!हड़ताल!! डाकतार भाई, दूरभाष बहनो, साथ बढ़ो, कैसा डर, पास खड़े हम! हड़ताल!हड़ताल!! हाड़-पंजर तोड़ दुःशासन के ख़ाल में भूस भरेंगे हम। हड़ताल!हड़ताल!! बातें छोड़ो बाक़ी सारी, बस एक पुकार रहेगी जारी। हड़ताल!हड़ताल!! आग के सम्मुख हम सबके अब, उत्तर देने की है बारी। हड़ताल!हड़ताल!! कोई एक क़दम पीछे न हटाये, भले करे कोई ख़ून-खराबा। हड़ताल!हड़ताल!! मोड़-मोड़ पर होगी टक्कर, देखें किसमें कितना ज़ोर। हड़ताल!हड़ताल!! गोरों को जब भेजेंगे कालासागर पार, होगी तभी युद्ध की शान्ति। हड़ताल!हड़ताल!! तोड़कर जं़जीरें, गिराकर दीवारें, सिर ऊँचा करेगी क्रान्ति।

घोषणा

यह देश मेरा गौरव यह माटी मेरे लिए सोना। मुक्ति का लक्ष्य पाने यहीं होती हैं पल्लवित और पुष्पित मेरी अनगिनत इच्छाएँ और आकांक्षाएँ। यहाँ मेरे पास हैं हिमाचल और कन्याकुमारी। अलंघ्य दीवारों की एकता संकल्प की साक्षी। अकाल से त्रस्त देश रक्तनेत्र बर्बर राजा का शासन जिसका विश्वस्त मित्र है शकुनि हाथों में जिसके खिसक चला है सिंहासन उसके अंग-अंग पर अंकित है मृत्यु आ रही जिससे, सड़ी लाश की बदबू। जाग उठा प्रजा पुंज घर-घर लगी है आग सूरज सिर पर उगल रहा अंगारे। गोदामों से ग़ायब है अनाज ख़ाली पेट के चलते ठपप है खेती-बारी कारख़ानों में जारी है तालाबन्दी। पहरे देती दुकानों पर लम्बी-चौड़ी फ़ौज पीछे इनके पीर झेलती गलियारों की करुण कहानी। बीहड़ जंगल का अँधेरा और आतंक लड़खड़ाते क़दमों में मसान की आहट। सब कुछ लुटता नज़र आ रहा ठहरी आँखों के आगे दिखती है बार-बार हाथों की बेड़ी- किसी भगोड़े के प्राणों का आधार। अभिशप्त जीवन में एक बार फिर कुरुक्षेत्र दे रहा दस्तक। जिससे निकल भागने को दीखता नहीं खिड़की का कोई पल्ला तक। सामने प्रतीक्षारत हैं हरियाली के एक सिरे पर औंधे पड़े, बल्लम-भाले, क़दमों तले कुचली जा रही बिजली की रफ्तार नींद से जग, भिंच जाती हैं सबकी मुट्ठियाँ हो जाती हैं टेढ़ी सुलगती आँखों की भृकुटियाँ पलभर में चूर हो जाते हैं दर्प और अहंकार। गंगा के ज्वार में जागता है स्पर्श वोल्गा की लहरों का आँखों में जगता है एक नया सूर्योदय मुक्ति ने फेला दी है अपनी मज़बूत बाँहें बेड़ियाँ मान चुकी हैं अपनी हार देख रहा मैं हैरतभरी आँखों से दिक्दिगन्त में होनेवाला विप्लव। एक विचित्र-सी लहर बढ़ती आती मुक्ति की तरफ वर्तमान के घोड़े पर सवार इतिहास में थामे देश-प्रेम की बागडोर। उसके पैरों की गति बड़ी चंचल है। गाँवों क़स्बों शहरों और बाज़ारों में मरजीवा संकल्प ले रहे हैं अनगिनत लोग मृत्युसंकुल पथ पर जमा हैं; डंका बजता नये युग का; एक नयी सिहरन से कंपित है धरती। यह देश मेरा गौरव यह माटी मेरी आँखों में सोना, मैं उसी के आविर्भाव की कर रहा हूँ घोषणा।

एक कविता के लिए

एक कविता लिखी जाएगी। उसके लिए ही आसमान आग की नीली शिखा की तरह क्रोध में बिफर रहा समन्दर अपने डेने फड़फड़ा रहा है तेज़ झंझावात, धुएँ-जैसी खुलती हैं बादलों की पिंगल जटाएँ बिजली की कड़क काँपनरे लगता है जंगल सिर धुन रही पेड़ों की फुनगियाँ गिरने के डर से सिर कूट मर रही हैं बार-बार कड़कती है बिजली और उसकी चौंध में ... एकबारगी झिलमिला उठता है सबकुछ ख़ून के सुर्ख़ आईने में देख रहा अपना चेहरा राख से पुता समन्दर। एक कविता लिखी जाती है, इसीलिए। एक कविता लिखी जाएगी, इसीलिए पता नहीं कौन हैं जो दीवारों पर किसी अनागत दिन के फ़तवे चिपका जाते हैं? मृत्यु के आतंक को फाँसी के फनदे से लटकाकर जुलूस आगे बढ़ जाता है, गान उसके गूँजते आसमान पर और हवा में उसके गर्जन में, उसके नखदर्पण पर अंकित होती है एक नई धरती- इसके अकूत सुख और असीम प्यार के लिए, लिखी जाती है-एक कविता।

राम राम

कुत्ते का मांस-कुत्ते नहीं खाते। पूँछ नीची कर वे तकते हैं-एक दूसरे की ओर हू-ब-हू एक जैसे कि वे एक दूसरे के आईने हैं। राम राम! तोप के पहिये में चाहिए थोड़ा-सा तेल। अभी तक तो बड़ी मौज-मस्ती से चलता रहा निज़ाम अब शैतानों को बाहर खदेड़ने की है ज़रूरत चाहिए एक ज़बरदस्त सरकार बन्दूक सरकार जिसके मन्त्री हों जल्लाद इसके बाद ही देखा जाएगा, कि ज़मीन का स्वाद भूल जाता है कि याद रखता है रोके से न रुकनेवाला, आज़ाद छोटा-सा तेलंगाना।

अग्निकोण

अग्निकोण के अंचलों में हलचल मचाती ज़ोरदार आँधी से- मचल उठा है काला पानी नींद से जागकर, एकजुट ज्वार के तेज धारवाली तलवार से खून में नहा-नहा उठता है स़फेद फेन। वन में, जंगल में, फड़फड़ा उठते हैं प्रतिहिंसा के पंख। काँधे पर रखा जुआ उठाकर फेंक देते हैं कमान-जैसी झुकी पीठवाले लोग अब पीठ तानकर सीधे खड़े हुए हैं पेराक में, पेनांग में, टिन की खान में रबर के जंगलात में मसालों के द्वीप में इरावती के दोनों ओर सोना उपजाती घाटी में नीलकान्त मणि के झिलमिलाते देश जावाद्वीप में श्याम में, काम्बोज में और आनामी पहाड़ों में मेकांग नदी के ज्वारजल में नींद से जाग उठे अग्निकोण के लोग। रक्त कीच में दुश्मनों को गाड़कर अँधेरे के सीने पर घुटने गड़ाकर, दोनों हाथों से फाड़ डालेंगे, अब दुःशासन का वक्ष। बादलों को चक़मक़-सा टकराकर ढूँढ़ रहे पथ के निशान। बिजली की घनगरज से मिलाकर अपने स्वर पुकार रहे हैं- भाई रे, आ गया है दिन ख़ून से खू़न का क़र्ज़ अदा करने का। भाई रे, आ गया है दिन विदेशी राज के प्राणकीट को नाखू़नों से मसलकर मार डालने का आ गया है दिन हल की नोंक से खर-पतवार उखाड़ फेंकने का। आ रहा है दिन हँसिये की धार पर नयी फ़सल बटोर लाने का। एक सौदागर साहब की लाश नोंच-नोंच कर खा जाते हैं गिद्ध लुटेरे के पच्चीस युगों को साम्राज्य के नशे में डूबी आँखों से। उस दृश्य को देख- देश को प्यार करते हुए जिनके बाप-दादाओं ने फाँसी के फंदे पर गँवा दी अपनी जान। उस दृश्य को देख- गोरा बेटा कोख में रखकर जिसकी एक युवा बेटी ने गले में डाल लिया फनदा। उस दृश्य को देख- जिसके ख़ानदान का चिराग महामारी फेलाती हवा से बुझ गया। देश की माटी में ही मर-खप गये सुलतान, राजे-रजवाड़े, वज़ीर और शिखण्डियों के सिर। एक-एक बस्ती में, अत्याचारियों की त्राहि-त्राहि मची पुकार झुंड के झुंड राहत पहुँचाने वाले हवाई जहाज़ हवाओं में बारूद ठूँसते हुए तोप के दहानों से मौत की आँधी फूँकते हैं। दुधमुँहे शिशुओं को अपने सीने से चिमटाए- अग्निकोण के शहरों और गाँवों के हज़ारों हज़ार लोग मर जाते हैं। उस आग में अपनी राह पहचानता है आदिगन्त फैला वंचितांे का जुलूस। ख़ून से तर-बतर हो उठता है लाल निशान। जल में, जंगल में, पहाड़ों के तल में फड़फड़ा उठते हैं प्रतिहिंसा के पंख। मौत की आँधी को खदेड़ती अँधेरे की गर्दन दबाकर रक्त की नदी पीछे छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं भाटे में उतराते अग्निकोण के तमाम लोग। एक-एक बैरक में जाग रही विद्रोही सेना अस्त्रागारों के कपाट खोलकर वह जनता के पास खड़ी है। अनगिनत पाँवों के क़दम ताल से काँप-काँप उठती है धरा। छितरे-बिखरे डाकुआंे के गिरोह आगज़नी से राज्य को जला-झुलसाकर दुम दबाये भाग रहे हैं जहाज़ और वायुयान से। लाखों-लाख हाथ में अँधेरे के दो टुकड़े कर अग्निकोण के लोग लिये आये हैं तोड़कर-सूर्य। करोड़ों कंठ की हुंकार से पड़ गये हैं सुन्न वज्र के कान। एक-एक झुलसे खेतों में जाग उठा-बसन्त गान।

मैं आ रहा हूँ

मैंने देखा आकाश की ओर- मुझे दीख पड़ा, तुम्हारा चेहरा मैंने आँखें बन्द कीं मुझे दीख पड़ा, तुम्हारा चेहरा। बहरे हो जाएँ वज्र भी इतनी ऊँची आवाज़ में मुझे पुकार रही थी तुम। अपने नन्हें कोमल और भरे गले से रात के चीथड़े-चीथड़े कर वे कौन हैं, जो रो रहे हैं? मृत्यु के आतंक में जीवन को जकड़कर कौन हैं, जो रो रहे हैं! तभी तो तुम मुझे इतनी ऊँची आवाज़ में पुकार रही हो कि बहरे हो जाएँ वज्र भी। आ रहा हूँ मैं अपने दोनों हाथों से अन्धकार को ठेलता-हटाता। वे कौन हैं जो ताने हुए हैं संगीनें-इन्हें हटाओ! कौन हैं जो चिन रहे हैं दीवारें-इन्हें तोड़ो! सारी धरती को जोड़कर मैं साथ लिये आ रहा हूँ दुर्दम्य दुर्निवार शान्ति।

बायें चलो, बायें

कोटाल के ज्वार में, अपना सिर ऊँचा कर पथरीली ज़मीन पर, तोल-तोल कर पाँव बढ़ा रही है आगे दुर्दम्य आकांक्षा। प्रचंड क्रोध खींचकर चढ़ा रहा है धनुष के सिरे पर प्रत्यंचा। बायें चलो, भाई बायें- काली रात की छाती चीरकर चलते चलो हम अपने दोनों हाथों से उठा लाएँ अपने ही रक्त से रँगी रंगीन सुबह। बायें चलो, भाई बायें- टिड्डी-दल को खदेड़कर हमीं तो होंगे, इन खेतों के सम्राट्। पकी फ़सल के सोने से हम मढ़ देंगे दिग्-दिगन्त को। फाँसी के फनदे, जेल, गैस और गोलियों को झेलकर, अन्धकार को अपने दोनों पैरों से कुचल डालो फोड़ दो गिद्ध की आँखें- बढ़ते चलो चलो कि हम सुख-शान्ति से जी सकें। कोटाल के ज्वार में, सिर ऊँचा किये पथरीली ज़मीन को पाँवों से रौंदती ओजपूर्ण जुलूस के साथ बढ़ती चली आ रही है दुर्दम्य आकांक्षा। प्रचंड क्रोध खींचकर चढ़ा रहा है- धनुष के सिरे पर प्रत्यंचा।

अग्निगर्भ (कविता)

अभी घड़ी भर पहले जो आदमी गले में फनदा डाले मरने को तैयार बैठा था वह बीवी के गले से लिपटकर सोया है। अब सूना पड़ा है आँगन; बस्ती के लोग अब जिसके घर से लौट चुके हैं वे पलकों की कच्ची ड्योढ़ी पर रोक रहे हैं भूख से कुलबुलाती एक संगीन रात को। पूरे दिन भी नहीं- बस आधा दिन ही है यहाँ का जीवन। शाम होते ही अँधेरे में तहाये अछोर सागर में कूद पड़ो। आँखें बन्द करो, कर लो बन्द आँखें पेट की आग में रात का चेहरा मत देखो। कौन है, जो इतनी रात गये पोखर की पगडंडी पर घूम रहे हैं। -नहीं, यह अन्धकार टिकने वाला नहीं। क़दमों की आहट से टूट-टूट जाती है रात की खामोशी। -नहीं, इस तरह सिर झुकाकर मरना ठीक नहीं। कौन जा रहा है-इतनी रात गये? अरे भैया, हम राम हैं और हम रहीम।

आग के फूल

तूफ़ान सिर पर ढोये, आ रहे हैं हम। अपने बिबाई-फटे कीचड़सने पाँवों में और शान चढ़ानेवाले पत्थर में आग के फूल बटोर आ रहे हैं हम। पहले हमारी आँखों में थे आँसू अब है आग हाड़-पिंजर से दीखनेवाले लोग अब वज्र तैयार करनेवाले कारखाने हैं। जिनकी संगीनों में से चिलक रही है बिजली वे सामने से हट जाएँ। हमारे लम्बे-चौड़े कन्धे की ठोकरों से गिर रही हैं दीवारें टूट-टूटकर। दूर हटो! हम सारा गाँव ख़ाली कर आ रहे हैं ख़ाली हाथ नहीं लौटेंगे।

तोड़ना ही नहीं है सबकुछ

मत तोड़ो, तोड़ना ही नहीं है सबकुछ। खेती के लिए मिल जाय जितनी ज़मीन यहीं तक ठीक है रेत की चिक-चिक भाटा नहीं है। देखो देखो, इस छोटे-से हरे-भरे आँगन में ये बच्चे घुटनों के बल दौड़ रहे हैं चोट लगने पर रोते-बिसरते हैं फिर गिर-गिरकर उठ खड़े होते हें। अपनी नन्हीं-नन्हीं मुट्ठियों में कसकर थामे रखते हैं हमारी आशाओं और हमारी खुशियों को- हाथ खींच लेने पर वे थामकर दीवार एक एक .... पाँव चलकर भरते हैं डग। भूलकर भी उन्हें मिट्टी में दबा न देना। मत तोड़ो, तोड़ना ही नहीं है सबकुछ अब तक सूर्य के रंग से रँगा नहीं जा सका आकाश। यह रात, जिसके नाखून सड़-गल चुके हैं, सिरहाने खड़ी है अब भी पंजे नचाती क्या पता, अगर एक दो करती पंखुरियाँ ही खुलती जाएँ पास ही रहो- बाद में वे किसी पागल हाथी के पाँव-तले कुचलीं न जाएँ। गुस्से में आँखें तरेरते-तरेरते जो अब अन्धे हो चुके हैं उनकी नाक के आगे रख दो फूलों की थोड़ी-सी खुशबू। मत तोड़ो, तोड़ना ही नहीं है सबकुछ। मौत चाहे जितनी भी बड़ी जान पड़े- ज़िन्दगी के मुकाबले वह बड़ी और बेहतर नहीं होती। जिसे नहीं आती रास आदमी की बनायी यह दुनिया- जो यह कहते रहे हें कि इस दुनिया में सिर्फ़ एक ही रंग है और वह भी सिर्फ़ खून का भले ही उसे कई-कई नामों से पुकारा जाए ऐसे अन्ध-भक्तों की चाहे जितनी बड़ी क्यों न हो क़तार वह दम तोड़े कि न तोड़े किसी नामवर कविराज को बुलाकर जल्दी दिखाओ उसकी डूबती नाड़ी। मत तोड़ो, तोड़ना ही नहीं है सबकुछ। इसे और भी जी-जान लगाकर इससे भी कहीं ज़्यादा गाढ़े और ताजे़ रंग से उकेरो, सारी दुनिया को जोड़कर एक और बेहतर तस्वीर बनाओ टाँगने के योग्य। ऐसे एक समग्र जीवन को घर में ठौर मिले जो कहीं से टूटा-फूटा न हो, और पूरी तरह भरा-पूरा हो।

तमाशा देखो!

जब सारा आकाश राख से पुता हो सामने तोपें खखार रही हों हरीतिमा और नीलिमा कँप् रही हो-आतंक की छाया में। सिंहासन पर बैठा वह सुर्ख आँखों वाला- अपने नाख़ूनों को कर रहा है और भी पैना जबड़े भींचता, दाँत पीसता, जिह्वा लपलपाता। जब कल्ले में दबाये विष की पोटली नपुंसक रीढ़विहीन भयातुर सर्प फन काढ़ लेता है तो टेढ़ा हो जाता है इन्द्रधनुष सात रंगों में सजाने लगता है आकाश झुलाने लगता है अपनी तरंगों को समुद्र पेड़ों पर नाचने लगते हैं पत्ते। अपना घूँघट उठा देखता है प्यार जीवन का रूप। लोगों का तमाशा देखो! घड़ियाल ने इतने दिनों बाद अपनी आँखें, सचमुच रो-रोकर गीली कर ली हैं। उसे उसी नहर से पड़ा है लौटना जिससे चलकर एक दिन वह पहुँचा था स्वेज नहर तक।

हुमक-हुमक कर

एक पाँव पर खड़ा एक जटाधारी ऊर्ध्वबाहु पेड़ सामने झुककर जितना देखता है, उतना ही होता है हैरान- बग़ल में बच्चा दबाये इस घर से उस घर जा-जाकर माँजती हैं बर्तन और रात में पेड़-तले सो रहती है चटाई बिछाकर जो पति को फूटी आँखों नहीं सुहाती और जिसकी ओर से यमराज ने भी अपनी आँखें मूँद रखी हैं उस औरत के फिर होने वाला है बच्चा छि...छि...छि...! पानी के नलके पर उसी लाज को ढँकने पाँव-पाँव चलता एक बच्चा माँ की ओर बढ़ा देता है फटी हुई साड़ी लाज को माथे की बिन्दी बनानेवाला एक नन्हा जीवन- जो अभी कुछ दिन पहले घुटने के बल चल रहा था ज़मीन पर! यानी- कहने का मतलब है इस धरती पर और भी दो आँखें और एक प्राणी अपना सिर ऊँचा कर दोनों ओर चिड़िया के डेनों की तरह अपने दोनों हाथ हिलाता-डुलाता हुमक-हुमक कर बढ़ता आएगा-ज़मीन पर। एक पाँव पर आजीवन एक ही जगह खड़े रहकर जटाधारी ऊर्ध्वबाहु पेड़ सामने झुककर देखता है जितना, हैरान होता उतना।

फूल खिले न खिले

फूल खिले न खिले आज बसन्त है। पथरीले फ़र्शबन्द फुटपाथ पर पत्थर में अपने पाँव रोपकर उग आनेवाला जारुल का पौधा अपने नन्हें-नन्हें पत्तों के साथ हँस रहा है बुक्का फाड़कर, उठाकर। फूल खिले न खिले आज बसन्त है। रोशनी की आँखों में काला चश्मा डाल और फिर उसे निकाल- मनुष्य को मृत्यु की गोद में सुलाकर और फिर उठाकर जो दिन राहों से गुज़र चुके हैं वे तो अब न लौटें। देह पर पीली साँझ पोते एक-दो पैसे पाकर जो हरबोला बालभगत कोयल-सी कूक भरा करता था -उसे भी हाँकते हुए ले गये वे दिन। लाल स्याही से लिखी पीली चिट्ठी की तरह सारा आकाश सिर पर उठाये इसी गली की वह काली-कलूटी अधेड़-सी लड़की रेलिंग से अपना सीना टिकाए, पता नहीं, क्या कुछ उल्टा-सीधा सोच रही थी- और ठीक इसी घड़ी अचानक हैरानी में डालकर देह पर चढ़ बैठी यह मुँहजली तितली जा, कहीं डूब मर मुई! और इसके बाद धड़ाम से बन्द हो गया दरवाज़ा। अन्धकार में मुँह पर हाथ रखकर रस्सी-जैसा बटा वह पौधा तब भी, मुस्करा रहा था।

जाना ही है

कौन जा रहा है? -हम लोग! हम गाँव के लोग हम शहर के लोग हाड़-जिंजरवाले लोग जा रहे जुलूस में। हाथ में क्या है? -झण्डा। कहाँ जा रहे? -दमनकारी राजा के दरबार। रुको -नहीं अगर ज़बर्दस्ती रोका गया -नहीं! संगीनों से बींधा गया -तो भी नहीं! मत रोको रास्ता हमें जाना ही है -जुलूस में।

हम जाएँगे

पानी के नलके की टिप् टिप्। अभी-अभी बर्तन धोये पानी में अपना चेहरा देखेगा धुएँ से धुँधलाया कोई एक और सवेरा। इस बीच पथराया अन्धकार दीवार पर पटक-पटककर सिर दम तोड़ जाए और हम पानी के नलके में सुन पाएँ भौंचक आसमान के नीचे पथरीली कंकड़ियों पर नाचती-फुदकती एक दिशाहीन, छोटी-सी चंचल नदिया की कलकल। इसके बाद दिन भर आदमी अपने पाँव में चक्के बाँधकर चलता रहे वहाँ जहाँ ‘वन्दे मातरम्’ कहते हुए लोगों ने अपने जीवन का बलिदान किया था कटे हाथ के साथ जहाँ काठ के पाँव चला करते हैं। पानी के नलके की टिप् टिप् टिप् टिप् हमने कहा था-जाएँगे समुद्र की ओर। नदी ने कहा था-वह जाएगी समुद्र की ओर। हम सबने कहा था-जाएँगे समुद्र की ओर। हाँ, हम जाएँगे।

पत्थर के फूल

(एक) इन फूलों को हटा लो ये तंग करते हैं मुझे मालाएँ जम-जम कर बन जाती हैं शिला और फूल जम-जम कर पत्थर। इन पत्थरों को हटा लो ये मुझे तंग करते हैं। और अब मैं वैसा बाँका जवान भी नहीं रहा। यह देह अब धूप, पानी और हवा ... कुछ भी .... झेल नहीं पाती। याद रखना अब मैं हूँ अपनी माँ का लाड़ला बेटा- थोड़े में ही मान जाऊँगा। ‘मैं जाऊँगा’, यह कहकर मैं तड़के ही घर से निकल पड़ा था यहाँ पहुँचते-पहुँचते हो गयी शाम अब रास्ते में- मुझसे क्यों इन्तज़ार करा रहे हो? काफ़ी देर तक थमे रहने के बाद- गाड़ी अब रुक-रुक चल रही है। मोड़ पर, फूलों की एक दुकान पर भीड़ लगी है, लोगों की। पता नहीं, आज किसका मुँह देखकर उठा था वह आदमी। (दो) मैंने सोचा था जैसा- मुझे मिल गया ठीक वैसा- वही धूप, वही धूनी, वही माला, वही जुलूस रात गहरा जाने पर शायद कोई सभा-वभा बैठेगी! (फूलों की छापवाले एक काग़ज़ पर लिखे नामों के बाद) सब कुछ हू-ब-हू मिलता चला गया। लोगों की बेचैनी भी कुछ कम हुई है- और समय भी ठीक वही है। हाथ आगे बढ़ाया नहीं कि घाट का खर्चा निकल आएगा। एक कोने में, फटे कपड़े पहने सूनी आँखों से तकता है और जबड़े भींचकर मेरा बेटा पोटली जमाकर बैठ जाता है। बड़ा ही बेवकूफ है वह दुर छी ... क्या यही है तू वह वीर पुरुष? अभी शुरू ही नहीं हुई सर्दियाँ और तू काँपने लगा! भला ऐसे कैसे चलेगा हम लोगों का? इन फूलों को हटा लो ये तंग करते हैं मुझे। ये मालाएँ पहाड़ जम-जमकर हो जाते हैं। और, फूल जम-जमकर पत्थर। इन पत्थरों को हटा लो ये मुझे तंग करते हैं। (तीन) फूलों के बारे में- लोगों के अनाप-शनाप बोलने के चलते ही, फूलों के लिए मेरे मन में कभी कोई रुझान नहीं रहा। इनके बरक्स मुझे पसन्द हैं आग की चिनगारियाँ जिनसे किसी दिन और किसी का तैयार नहीं किया जा सकता कोई मुखौटा। ऐसे में, क्या कुछ हो सकता है मुझे पता था। प्यार के झाग में उठेगा एक दिन ज़ोरदार उबाल यह मैं जानता था। जिस किसी सीने में और जिस किसी भी पात्र में क्यों न सहेज रखूँ- मेरा सारा-का-सारा प्यार मेरा ही बनकर रहेगा। रात-दर-रात, मैंने जग-जगकर देखा है- कि कितने क्षणों बाद और कैसे होता है सवेरा; न जाने मेरे कितने दिनमान बीत चुके हैं- अन्धकार के इस रहस्य-भेदन में। मैं एक दिन और एक पल-छिन के लिए भी नहीं रुका। मैंने अपने जीवन से सारा रस निचोड़कर, एक-एक के अन्तर घट में डाल रखा था- और वही रस छलक उठा है आज। नहीं, अब मैं केवल बातों से आश्वस्त नहीं जहाँ से सारी चीजें़ होती हैं शुरू और जहाँ होती है ख़त्म- बातों के उसी उद्गम में नाम के उसी परिणाम में, हवा, माटी और पानी में मैं चाहता हूँ स्वयं को कर देना विलीन। कन्धे बदल लो अबकी बार स्तूपाकार लकड़ियाँ मुझे लील जाएँ। आग की एक प्यारी-सी चिनगारी फूलों के लिए मेरी सारी पीड़ा पी जाए।

चाहे जितनी दूर जाऊँ

मैं चाहे जितनी भी दूर जाऊँ मेरे संग चला आता है लहरों की माला गुँथी एक नदी का नाम- मैं चाहे जितनी भी दूर जाऊँ। मेरी आँखों की पलकों के लिपे-पुते आँगन में चले आते हैं अनगिनत क़तारों में लक्ष्मी के पाँव। मैं चाहे जितनी भी दूर जाऊँ

कौन जाग रहा है

पता नहीं, कब मुँहअँधेरे, इस शहर ने अपनी लम्बी-चौड़ी मुट्ठी खोली और बिखरे दिया था हमें दूर....दूर इसके बाद उतरी शाम ने हम सबको अपनी उँगलियों से बीन-बीन कर- एक जगह समेट दिया और चली गयी। बाहर, तमाम रोशनी को सड़क पर खड़ा कर दरवाजे़ भिड़नेवाली आवाज़ के साथ एक-एक घर अँधेरे में पोत देगा, इसी घड़ी यह शहर। अभी, इसी क्षण खून की एक-एक बूँद में सुन पड़ेगी, महाकाल की घनगरज हाँक: कौन जाग रहा है? प्यार की देह से धूल झाड़ते-झाड़ते ऊँचे स्वर में गर्व से कहेंगे: ‘हम!’

गिनती

तुम मुझे किसी फूल का नाम तो बताओ- मैं बता दूँगा उसकी किस्मत में क्या कुछ लिखा है। ख़ून की तरह सुर्ख आग-सी बेचैन और निशान-सी फड़फड़ाती जिसकी भिंची मुट्ठियों की पंखुरियों में बन्द है एक बेहद खूबसूरत भूखी शपथ। मैं देख रहा हूँ- रास्ते में क़तार-दर-क़तार लाठियों की चाँचर दुनाली से छिटकती गोला-बारी मुखाग्नि; और फिर आँसू गैस की तरह धुआँ उगलती काली गाड़ी हो गयी है आसमान में ग़ायब। मैं देख रहा हूँ- एक हाथ से दूसरे हाथ में घूम रहा है एक काग़जी फर्रा- जिस पर नाम हैं- मृतकों के, घायलों के और लापता लोगों के। दिन के उजाले में ज़मीन पर पालथी मारे बैठे लोगों में पता नहीं कौन आ रहे हैं हाँकते और एक दूसरे से मिलाते जा रहे हैं लगातार अपने-अपने आँकड़े।

दूर से देखना

मैं अपनी भावनाओं को चम्मच से हिलाता-डुलाता रहूँगा इन्हें, तुम किसी दूसरी मेज़ से सुनना। सामने हमारे सीधी तनी रहेगी प्याली मेरी गोद से लगी दो उँगलियाँ सलाइयों से बुनती रहेगी यादों का जाल- तुम किसी दूसरी मेज़ से देखना। इसके बाद जब वक़्त हो जाएगा पानी की तरह एकदम ठंडा तब कुर्सी खींचने की आवाज़ के साथ मैं उठ खड़ा होऊँगा और चला जाऊँगा, एक बार भी पीछे तके बिना वहाँ, जहाँ घरों की देह पर बिजलियाँ बरसाती हैं कोड़े और पेड़ों का झोंटा मुट्ठियों में भींचकर ज़मीन पर पटक देना चाहती है हवा। और जहाँ की बन्द खिड़कियों को नाख़ूनों से खरोंच रही है चुड़ैल बारिश। तुम दूर खड़ी रहना और वहीं से देखती रहना।

पूर्वपक्ष

अरे, इन छोकरों को रोको तो ज़रा! आज तो सारा दिन परेशानी में ही बीता अब थोड़ी देर को सुस्ता तो लूँ! क्या, पत्थर की वह पुरानी मूर्ति टूट गयी? इस्स, सब तोड़ डाला, कुछ भी बाकी न रखा यह आजकल कैसी उल्टी हवा बह रही है? थोड़ी देर को सुस्ता लूँ! आज का सारा दिन बेचैनी में ही बीता। खेत में रोपा है धान पोखर में डाला है मच्छी का चारा पानी और हवा पाकर, ये तेज़ी से बढ़ेंगे- थोड़ा इन्तज़ार करो। फिर देख लेना पेशगी देकर बुला भेजूँगा नाचने-गानेवालों को। ओह...आज तो पूरा दिन...बीत गया चिल्लपों में ही... उनके हाथों में कोई खिलौने...पकड़ा दो इस शोर-शराबे से तो कान के पर्दे फट गये। अरे मेरे कलेजे के टुकड़ो, ज़रा शान्त होकर बैठ जाओ- उधर साँप् हैं, कनखजूरे हैं अँधेरे में बाहर मत निकलो। दोनों पलकें बन्द किये- अच्छी तरह समझ लेना होगा बेघर को सहारा देने के लिए क्या किया जाए! ओह, सारा दिन इसी तरह निकल गया अब थोड़ी देर आराम कर लूँ!

उत्तरपक्ष

(एक) पिताजी कहते हैं- जब कुछ होना होता है अपने आप होता है। सबसे बड़ी चीज़ है वक़्त। पिताजी कहते हैं-सबसे पहले यह जानना ज़रूरी है लहरों में कब जगता है ज्वार और कब लगता है भाटा। पिताजी कहते हैं- कुछ इस तरह सब्र रखना पड़ता है कि सारी रात चलता रहे कोई मुर्दे फलाँग-फलाँग कर। ये पिता-विता जो कुछ कहते हैं क्या वह ठीक भी है? बड़ी हैरानी होती है इन लोगों ने देह जुगाए रखने को एक नाम दे दिया-सब्र। इन पिताओं को धिक्कार पिताओं को धिक्कार! पिताओं को धिक्कार! (दो) हमारे प्राणों के भौरों को बड़ी-बड़ी पिटारियों में बन्द कर बारीक धागों से लटकाकर रखा गया है। हम इन्तज़ार में हैं कि हमारे सिर पर जलता आसमान कब टूटकर गिरे। अब चाहे सफ़ाई की जितनी भी दी जाए दुहाई हाथधुला गन्दा पानी हमारी आँखों पर से बहता चला जा रहा है। कभी किताब पर पाँव पड़ जाए कहीं ग़लती से तो हम अपने माथे से हाथ लगा लेते थे। अब किसी की देह से पाँव टकरा जाए तो हम नमस्कार तक नहीं करते। हमारी नज़रों के सामने ऐसा कोई आदमी नहीं कि उसके आगे हाथ जोड़कर खड़ा रह सकें। हमने तंग मोहरी की पैंट इसलिए पहन रखी है कि घुटने मोड़कर बैठने की ज़रूरत न पड़े, और हम सारी दुनिया को खूब अच्छी तरह दिखा सकें अपने पाँव। दुश्मन भी जिससे धोखा खा सकें इसलिए हमारी कमीज़ों पर फूल, पत्ते और लताओं के छापेवाली फ़ौजी तैयारी है। कोई हमें प्रेम के भुलावे में छलना भी चाहे तो हम कठपुतली की तरह चिहुँक उठते हैं। अब काने को काना और लँगड़े को लँगड़ा कहते हुए हमें किसी बात की झिझक नहीं होती। भले मानुष-सा दीख पड़नेवाला अपना मुखौटा उतारकर अन्धे कुएँ में फंेक दिया है हमने, अब हम नहीं चाहते करना किसी की नक़ल। हमें जो कहना होता है, हम ज़ोर-शोर से कहते हैं शब्द ही है हमारा ब्रह्म। तयशुदा राहों पर लाठी और बल्लम चमकाते-चमकाते हम लगाते रहते हैं हाँक- हमारी हाँक से हिल उठे यह धरा।

चिड़िया की आँख

मैं अपना सिर लटकाये बैठा था लेकिन अब अपनी गर्दन सीधी कर उठ खड़ा हुआ हूँ। मेरा हाथ नहीं उठ रहा था- लेकिन अब मैं अपने गांडीव की प्रत्यंचा खींचकर चढ़ा रहा हूँ। मेरे सामने इधर-उधर लुढ़के हुए हैं मेरे अपने सगे-सम्बन्धियों के सिर; और इन पीछे पड़े हैं हमारे ही आततायी भाई। सारथी, रथ को यहीं रोक दो और मेरे इस विषाद को थोड़ा विराम दो। अब आकाश नहीं, पेड़ नहीं मैं और कुछ भी देखना नहीं चाहता सिवा चिड़िया की आँख के।

नाटक

सुयोग और सुविधा दस भाइयों को मिले एक समान क्यों किले किसी को बहुत ज़्यादा और किसी को बहुत ही कम। जिन्होंने इस बारे में सोचा था- उनके पास सिर्फ़ हाथ ही नहीं क़लमें भी थीं। तभी तो सारी धरती को गढ़ने और सजान के लिए उन्होंने हाथ और क़लम, दोनों को साक्षी बनाया- फिर भी उनकी नहीं हो पायी रक्षा। राजा के दालान में मच गया घनघोर शोर चला गया साज-ताज चारों ओर छूटने लगे लठैत और तीरन्दाज। हाथ में परवाना लेकर आ पहुँचा वह कुंडी खड़खड़ाते ही दरवाजे़ पर दीख पड़ सब-के-सब बाप-भाई-भैया-चाचा किसके हाथों में डालीे वह हथकड़ी और किसे हवालात की हवा खिलाए अब? लो शुरू हुआ एक और नाटक!

होना ही है ऐसा

नाव में बार-बार पानी भर आता और हम उस पानी को बार-बार उलीचते आगे बढ़ते रहे। अँधेरे में सूझ नहीं रहा था कि किस ओर है किनारा। सूई की नोक-सी तेज़ बारिश में हमारे कलेजे छलनी हो रहे थे मारे ठंड के हमारे हाथ-पाँव सुन्न पड़ गये तो भी हम रुके नहीं। इसके बाद! इसके बाद- आसमान में धूप खिल उठी और हम किनारे आ लगे। ऐसा ही तो होता है होना ही था ऐसा। अगर ऐसा न हो तो यह जीवन क्या है और मनुष्य का जीवन ही क्यों?

दीवारों के लिए

दफ़्तर में काम किये बिन शहर में मिल जाता है वेतन गाँव में हाड़-मांस गल जाता फिर भी पेट सुलगता रहता। दायाँ हाथ रोक देता है। बायाँ हाथ झोंक देता है। जो की ना तुमने ‘हाँ जी’... तो कहाओगे चोट्टे पाजी। जब बिधना ही हो विपरीत। तब काम काज की उल्टी रीत। छत के बदले छाता। भात के बदले भत्ता। वोट के पहले सारे सज्जन। बाद वोट के गर्जन तर्जन। इधर बने सर्वहारा के दलाल। उधर किराये हड़प भये मालामाल।

लील रहा है अन्धकार

सिर के ऊपर लटका बेजार पंखा लगता है अब गिरा...तब गिरा। उसकी नरम उसाँसें बन्द होने को हैं धुनी हुई रूई के फ़ाहों-सी उड़ती हैं टूटी-फूटी...कविताएँ मूर्तियाँ तस्वीरें। भौंहों के बीच रह-रहकर चिलकने लगते हैं सहारा और गोबी के रेगिस्तान। जब कभी बाहर तकता हूँ तो पाता हूँ फुटपाथ पर बैसाखी से टिका हुआ वक़्त। और इधर मेरे इर्द-गिर्द कमरों में पसरा अँधेरा सबकुछ निगलता जा रहा है- मेज़ कुर्सी आईना किताबों की आलमारी जूते, कपड़े और दूसरी तमाम परेशानियाँ हलकी और भारी- देखो तो सही अँधेरा लील रहा है हमारा सबकुछ हमारा भूत और भविष्य साथ ही, देश को चाहने का गौरव।

यही तो

जी, मैं यहाँ हूँ जी हाँ, हें...हें...हें- एक मक्खी तक उड़ा सकता नहीं क्योंकि जुड़े हुए हैं मेरे दोनों हाथ। मैं पुकारता जा रहा हूँ लगातार लेकिन कोई भी नहीं रुकता सभी मुँह फेर फेर जाते हैं- अपने-अपने ठिकानों की ओर। कानों में केवल सुन पड़ता घेंउ-घेंउ-केंउ-केंउ का स्वर पता नहीं किस कोने में भाड़ झोंकने चली गयी वह शुभ रात्रि कहाँ चले गये सारे सुप्रभात! ज़रा देखिए तो तमाशा! कोई एक बार नज़र उठाकर देखे तो सही! यह तो पूछे: भई, कौन हो तुम! क्यों बैठे हो? लेकिन नहीं। मैं अकेला उसे बुलाता चला जा रहा हूँ हाथ हिलाकर, इशारे से अपने गले की नसें तान-तानकर। साँड की तरह खदेड़ रहा मुझे मेरे पीछे पड़ा वक़्त। हर घड़ी दौड़े चले जा रहे हैं लोग किसी को किसी की परवाह नहीं बला से कोई किसी को पुकारे न पुकारे। रास्ते से गुज़रनेवाले हर राहगीर को मैं सिर से पाँव तक इस तरह देखता हूँ मानों वह गोंद से चिपकाया गया कोई लिफ़ाफ़ा हो जिस पर लिखा हो, किसी दूसरे का नाम-मुकाम। ऐसा भी हो सकता है कि आदतन वह सब मेरी ही ग़लती हो। बड़े होने पर लोग जिसे फेंककर चले जाते हैं मैं भी ठीक वैसे ही खेलघर में पड़ा हुआ- बच्चों का एक कठपुतला भर।

लाल गुलाब के लिए

मेरा भी प्रिय रंग है लाल मेरा भी प्रिय फूल है गुलाब। मैं लाल गुलाब के लिए ही लड़ता रहा हूँ। ज़रा आँखें उठाकर तो देखो सागर से हिमालय तक हमारा शोकाकुल प्रेम तक रहा है अपनी ही माटी की ओर। आज तलक गुलामी की ज़ंजीरों के घाव रिस रहे हैं, सूख नहीं पाए साँसों के ताने-बाने किसी सरगम में बँध नहीं पाए अब भी; सर्वनाश की कगार से यह पृथ्वी हमेशा की तरह आज भी पीछे नहीं हट पायी। खेलों की ऊबड़-खाबड़ ज़मीन की तरह औंधा पड़ा है यह समय इस पर चलते हुए- तकलीफ़ होने पर भी मुझे पता है कि इसके गर्भ में डाले गए हैं बीज। हमारे वर्तमान के समस्त अभिमान जो निराश, आहत और अशान्त हैं अपनी आँखों से आँसू पोंछकर मनाएँगे, नवान्न का त्यौहार। लाल गुलाब को- अब अपनी आँखों में नहीं अपने सीने में सँजोकर रखना होगा। सीने में सहेजकर ही की जा सकेगी उसकी रक्षा। मेरा प्रिय रंग है लाल मेरा प्रिय फूल है गुलाब। अपने हृदय में साहस बटोकर, उस लाल गुलाब के लिए ही ठाने हुए हैं हम अपनी लड़ाई।

सुबह की चिन्ता

दूध की गाड़ी के मोड़ पर चक्कर काटने के साथ ही, पासवाले मकान की छत पर सुन पड़ी मुर्गे की कुकडूँ...कूँ... अन्धकार को ज़बरन पीछे घसीटते हुए सुबह की पहली ट्राम बस अब छूटने को ही है। इसके बाद साइकिलें दौड़ती फिरेंगी दोनों ओर घरों की बालकनी पर, छजजों पर रेलिंग से लगे फूलों की टबों पर घर के बरामदे पर गाल पर तमाचे जड़ने की आवाज की तरह गिरते रहेंगे ठस-ठस्स... सुबह के अख़बार। पिछली रात, कमरे की खिड़की बन्द करते हुए मैं सोच रहा था खेतों में तैयार खड़ी है धान की फ़सल बड़ा अनर्थ होगा अगर बारिश हुई। कैसा बीता कल का दिन थोड़ी देर बाद छपी सुर्खियों से गुज़रकर ही जान पाऊँगा। लेकिन आज का दिन जो सामने खड़ा है उसके मन में क्या है? मैं अब तक जान नहीं पाया। मैं, कसकर बाँध लेता हूँ मुट्ठी और छोड़ देता हूँ ढीली फिर कस लेता हूँ और खोल देता हूँ। मैं चाहता हूँ जैसा दिन वह कैसे भी नहीं मिलता।

घाट-पार के चित्र

इस पार निगलकर उस पार उगलेगी। इस तरह फेरी लंच पर उगता है दिन और ढलती है शाम। अपने दोनों हाथ उठाकर दोनों किनारे मन की मौज में नीचे ऊपर, ऊपर नीचे लगातार खेला करते हैं। मिट्टी काटनेवाला जहाज़ बीच नदी में पानी गँदला कर रहा है बीच-बीच में गेरुआ रंग की लहरें मन को चंचल कर जाती हैं। धान का भाव क्या है! भज गोविन्द! आइए बाबू, बहुत ही बढ़िया होटल है भज गोविन्द! आइए जनाब! चाय...पान...बीड़ी... मर्तबानी केला... आम-कटहल-मुर्गी-मच्छी फेरीघाट के बाज़ार में कैसी रौनक है! काँधे से झूलते झोले, पोटले...पोटलियाँ टिन के बक्से पढ़ने की किताबें सिन्दूर की डिबिया मेले में खींची जा रही तस्वीरें माला और कंठे पुराने ताश की गड्डियाँ कथरी कम्बल और अदालती काग़ज़ात। आ रहा है नाचता-नाचता...फेरीवाला लंच और नाचता-नाचता ही चला जाएगा। इस पार निगली सारी तस्वीरें उगल देगा, उस पार।

जननी जन्मभूमि

मैं अपनी माँ को बहुत अधिक चाहता था -लेकिन ऐसा मैं कभी नहीं कह पाया। कभी-कभार, मैं टिफ़िन के पैसे बचाकर ख़रीद लाता था सन्तरे चारपाई पर बीमार पड़ी माँ की आँखें छलछला उठती थीं, -लेकिन मैं अपनी प्यार-भरी बातें माँ को अपनी जु़बान से कभी कह नहीं पाया। हे देशभूमि, ओ मेरी जननी- मैं तुम्हें कैसे बताऊँ...! मैं जिस माटी पर घुटनों के बल खड़ा हुआ मेरे दोनों हाथों और दसों उँगलियों में- उसी की स्मृतियाँ सँजोयी हुई हैं। मैं जहाँ कहीं भी करता हूँ स्पर्श वहाँ..., हाँ माँ, वहीं रहती हो तुम तुम्हारे हाथों में बजती है मेरे हृदय वीणा। सच माँ! तुम्हारे रहते कभी डर नहीं लगा हमें। जिन्होंने भी तुम्हारी माटी की तरफ अपने निष्ठुर पंजे बढ़ाये हैं हम उनकी गर्दन मरोड़कर...सीमा के बाहर तक खदेड़कर दम लेंगे। हम जीवन को कुछ अपने ही ढंग से सजा रहे थे- और वैसा ही सजाते रहेंगे। हाँ माँ, हम कभी भयभीत नहीं हुए। लेकिन यज्ञ में घटित हो रहे विघ्न से हम परेशान हैं। मुँह बन्द रख्कर भी कभी न थकनेवाले हाथों से- ओ माँ, हम अपनी प्रेमभरी बातें दोहराते रहेंगे।

यहाँ, इस तरफ

बड़ी भारी बहस छिड़ी हुई है उधर -‘सही है यह’ या कि ‘वह सही है’। थर्मामीटर का पारा तेज़ी से उठता-गिरता है। लेकिन ताल के जानकार लोग अच्छी तरह जानते हैं कब कितने ताल में बज रहा होता है ‘श्रीमृदंग’ ‘और ज़ोर से’... ‘और ज़ोर से’ घोर नाद उठता है: नारद...नारद! इधर रास्ते का पानी तिरता-रिसता पाताल चला जा रहा है। बहते चले जा रहे हैं, हिचकोले खाते डगमगाते असमंजस में फँसे लेकिन भँवर-चक्र की ओर कागज़ के नाव। हा हतोस्मि! दायें या बायें! छितर-बितर कर रहे कीड़े-मकोड़ों की तरह ज्योतिषी, पुरोहित और पादरी और फिर सहगान समाप्त। ‘‘मेरी इस कहानी का नायक कुमारटोली में रहता था। वह ढेर ससारी प्रतिमाएँ बनाया करता था, लेकिन लोग इन्हें जल में विसर्जित कर आते थे। बारहों महीने यही ढर्रा चलता रहा।’’ एक दिन उसने ‘धत्तेरे की’ कहा और फतुही डाल पासवाली गली में निकल गया जहाँ कोई सुशीला-फुसीला नाम की लड़की खड़ी रहती थी। उसने उसे अच्छी तरह ठोक-बजाकर देखा, अरे यह ईश्वर की सृष्टि तो बड़ी ही खूबसूरत है! वह वापस लौट आया। और उसने एक रंगीन पुतला खड़ाकिया। बड़ी ही प्यारी-सी चीज़ बनी थी। लेकिन इसके बाद, जान-बूझकर घर में ही पड़ा रहा। पता है, फिर क्या हुआ? हरे राम...राम राम! आखि़र बात वही हुई! अरे सब के सब बैठ जाओ! कुछ समझे? इन्हीं ग़लतियों की आदी आँखों में पड़ गया मोतियाबिन्द- क्योंकि समस्याएँ, उसके मुकाबले बहुत...बहुत बड़ी थीं; पृथ्वी के मानचित्र में कुमारटोली का नाम तक नहीं। दरअसल, जिस पात्र को लेकर इतना हंगामा हुआ इतनी चिल्ल पों मची -वह सारी बात समझ चुका था, और अब तो वह बाज़ार भी जाता है हाथ में थैली थामे। इस धरती को बेहतर ढंग से सजाने-सँवारने को है वह पूरी तरह तैयार, सुबह होने वाली है। तभी तो यह अन्धकार पीड़ा में इतना तड़प रहा है।

तिलक

मेरा भाई भले ही मुझे चाहे जितना डाँटे फटकारे- जम के द्वार चढ़ाकर कुंडी, मैं भाई के माथे पर लगाऊँगा टीका। भाई के साथ रहा है मेरा दुराव और भाई के साथ ही लगाव- उसके नाप किया करता मैं, शाही किमख़ाब तैयार। जंगल से चुनी मैंने लकड़ियाँ भाई गया है लड़ाई के मैदान उसकी कमर में अपने हाथों बाँधी मैंने तलवार। भाई के हाथ लपलपा उठती है रह-रहकर तलवार, देख रहा मैं, काँप उठा है अन्धकार का सिंहासन। विगत स्मृतियाँ सहेज रखीं मैंने सीने में, आँखों के कोटर में सपने सँजो रखे- पता नहीं, कब लौटे भाई नींद से बोझिल हैं अब आँखें मैंने जंगल से चबीने फूल, देख रखी है कन्या हाथ जलाकर पकाया खाना कि भाई को खिलाऊँगा। कहीं टूट रही हैं ज़ंजीरें आवाज़ आ रही झन-झन, उड़ रहे पताके और घूम रहे रथ के चक्के बन्न...बन्न। भाई लाया धन की पेटी उसने खोल दिया ताला देख रे भाई तेरी ख़ातिर मैंने गूँथ रखी माला। भले न देखे भाई मुझको मारे झाडू या कि लात, जमके द्वारे चढ़ाके कुंडी, तिलक किया भाई के माथ।

नहीं भूल सकता

चाय की दुकान ज़ोरदार झड़प। दरक रही है मेज़। अचानक सुन पड़ी चीख- ज़मीन पर पाँव और आसमान में हाथ। जुलूस। बदल गया दृश्य। हाथ से गुँथा हाथ। ऋणी बना डाला भूला नहीं भूल सकता भी नहीं यह जीवन में किसी दिन। टूट रहे किनारे राख के अन्दर चिलक रही आग। हवा। सुबह का वक़्त किनारे पर पहुँचते ही घाट की चाय सुड़कना। सुर में सुर मिलाकर हमने गाया है गान- ‘हमारी माँ बन्दिनी है।’ मैं भूला नहीं और न भूलूँगा जीवन में कभी। इस ओर घर दूसरी ओर घर बीच में पुख्ता दीवार। दावत की पत्तल बिछाकर खुश है मक्कार सियार। रूखे-सूखे चेहरेवाली पूछ रही है माँ, ‘क्या नहीं दिया जो पाया?’ मैं भूला नहीं और कभी नहीं भूलूँगा जीवन में किसी दिन।

खड़िये के निशान में

ऊपर आकाश प्राणान्तक पीड़ा में तड़प रहा है रास्ते के मोड़ पर ट्रैफ़िक पुलिसमैन खड़ा, इसे, उसे...और किसी को दिखा रहा है हाथ। इस्स! लो, उसने फूँक दिया सिंगा डोलती रहती है, दिन-दोपहर-चौपहर उसकी भारी-भरकम फतुही लोहे की रेलिंग के पीछे मोतियाबिन्द वाली आँखों पर चश्मा चढ़ाये अब इस चौथेपन में हैरान और बदहवास हथेलियाँ बाँचनेवाला वह बूढ़ा ज्योतिषी। फुटपाथ से अभी भी खड़िये का निशान मिटा नहीं उसी जगह आसन जमा बैठ जाता है वह और घिसता रहता है खड़िया जो कुछ है पुराना-उसे नया बनाता रहता है पता नहीं कहाँ का एक पंचांग बिछाकर। फुटपाथ पर पड़े खड़िये के निशान बड़े ही अजीब दिखते हैं। जन्म मृत्यु प्रेम बुढ़ापा बचपन और जवानी भूत और भविष्य सबकुछ। धत् तेरे की! मन को क्या समझाऊँ ख़ाक! जूते की कील से तकलीफ़ तो ज़रूर हो रही है देख-सुनकर एक-एक कर, पाँव आगे बढ़ाता हूँ बस अब थोड़ा-सा रास्ता पार कर लेने पर ही, पूरा हो जाएगा अभ्यास। घूम-फिरकर ही पता चलेगा कौन-सा नया खिलौना आ गया है। अरे, ज़रा देखूँ तो सही! इसे थपकते ही निकलती है मीठी आवाज़ यह बज भी रही है...रुन झुन... अरे वाह...वाह...वाह, शाब्बाश! इस बार अपने कर्ता-धर्ता के जन्मदिन पर उपहार में यही खिलौना दूँगा दूर से ही सुन रहा मैं भाग्य-चक्र की घर्र...घर्र... भीड़ चाहे जितनी भी हो, पास आने पर लटक जाऊँगा सड़क की थोथी ज़ुबान न जाने क्या बुदबुदा रही है पता नहीं, लेकिन कोई जाप रहा है कोई मन्तर।

यह ज़मीन

मुझे किसी की कोरी बातों पर अब रहा नहीं यक़ीन। मुझे चाहिए ठोस सबूत कोई दूसरा भी मेरी बातों पर भरोसा कर ले -मैं नहीं चाहता आग में ख़ून में और टकराव में सब-के-सब मुझे ठोक-बजाकर देख लें। इस अँधेरे में भी मैं देख रहा हूँ वे तमाम घिनौने चेहरे एक दिन जिन्होंने मुझसे वादा किया था लेकिन धोखे में रखा। प्रतिशोध को वे भले ही कोई नाम दें लड़ाई को भले ही कोई जामा पहना दें, मौत को कोई लुभावना नाम देने के बावजूद मैं अब धोखा खा नहीं सकता। सागर से हिमालय तक फेली है मेरे विश्वास की यह ज़मीन। मुझे बातों में बहला-बहकाकर कोई भी नहीं छीन सकता यह ज़मीन।

धूप में

हम बड़े बुजुर्ग भला क्यों बार-बार इस कमरे में आकर अपने आँसू पोंछ लेते हैं? मेरी बिटिया रह जाती है हैरान और सोचती है- हम लोग रो रहे हैं, सचमुच! और अगर ऐसा नहीं तो आँखों में क्यों हैं आँसू? पगली, तुझे कैसे समझाऊँ? कभी-कभी आँखों के कुएँ से निकले जल में आँसू नहीं होते -होती है ज्वाला! अरी पगली! गीली लकड़ी में चाहे जितनी फूँक मारूँ- कभी वह आँच नहीं पकड़ेगी बल्कि इसके धुएँ से आँखे ही सुलग उठेंगी; जिस तरफ भी आँखें उठाकर देखता हूँ सबकुछ धुएँ में अटा नज़र आता है। आँखों में ज्वाला लिये हम बाहर आ जाते हैं और पोंछने लगते हैं आँखें, हमारी आँखों में वही जल है। कुछ ऐसा ही है जीवन लेकिन पूरे साल भर नहीं- बस, बरसात के कुछ-एक महीने ही। सूखी लकड़ियाँ कभी लपलपाती आग में होंगी तब्दील देखते-देखते पक जाएगा भात- तब एक बार फिर जो कुछ जहाँ है सबकुछ देख पाऊँगा साफ-साफ। बरसात बीत जाए तो भीगी पड़ी लकड़ियाँ और कंडे-लक्कड़ सबको धूप दिखाऊँगा यहाँ तक कि हृदय को भी।

खुले दरवाज़े से

मेज़ पर पड़े पत्थर में पड़ गयी है दरार तीलियों भरी डिबिया ढेर सारी राख और लम्बी-चौड़ी धुआँधार बातें इसी तरह बिखेरकर तीनों छोकरे उठ खड़े हुए और बाहर निकल गये। उनकी ओट छँट जाते ही सामने खुले दरवाजे़ के फ्रेम से एक तस्वीर उभरी- ज़रा-सी हिलती, ज़रा-सी ठहरी- चोंच में तिनका दबाये एक बूढ़ी मैना बैठी है मुँडेर पर गर्दन के रोयें फुलाकर, देख रही आँखें नचा-नचाकर लैम्पपोस्ट की सूली पर देखो, लैम्पपोस्ट को जहाँ फाँसी पर लटकी है पुराने इश्तिहार वाली कटी-फटी टाट उसके नीचे गद्दी पर बैठा है पग्गड़ बाँधे सदाबहार तबीयत वाला एक आदमी रास्ते पर ग़श्त लगानेवाला एक जमादार गाड़ी पर उठा ले गया एक ज़ोरदार माल सिर के ऊपर एक लम्बी-सी लाठी उचकाये गोद और काँख में बच्चों का हुजूम लिये गुज़र गयी एक ट्राम उसका पीछा तेज़ी से करती चली गयी-काफ़ी देर तक टेढ़ी-बोकची तार की देह से झूलती छी... छी... करती चलती रही एक रिरियाती आवाज़ बैरे के मेज़ साफ़ करते-करते उस दियासलाई के हिलाते ही अन्दर की तीलियाँ एकबारगी झनझना उठीं- आजकल के लड़कों में एक बड़ा भारी ऐब यह भी है कि वे बहुत जल्दी भूल जाते हैं एक दोमंज़िली बस घड़ी भर रुककर गुज़र गयी खिड़की से टुक झाँकता एक प्यारा-सा चेहरा दिखा। अब मुँडेर पर वह मैना भी रही नहीं लैम्पपोस्ट पर अब भी सबके सामने फाँसी पर चढ़ी है पुराने इश्तिहार वाली कटी-फटी टाट उसके नीचे काफ़ी देर से खड़ा है एक आदमी इतनी देर तक देखते रहने के बाद भी मैं तय नहीं कर पाया, सादी वर्दी में वह कोई पुलिस का बन्दा है या कोई जेबकतरा- तभी सीटी बजी...हुँश...! और तीन अधेड़ आदमी लैम्पपोस्ट की ओर पीठ किये सामने की मेज़ पर आ बैठे मेज़ पर फिर एक माचिस पड़ी है और दूर खड़ा है लैम्पपोस्ट... अब यह देखने के लिए कि ये अधेड़ लोग चीज़ों को भूल जाते हैं या नहीं- मैंने चाय का दूसरा प्याला मँगा लिया।

ज़्यादा नहीं कुछ चाहिए

उसे चाहिए एक दोस्त और एक दुश्मन एक अकेले आदमी को चाहिए बहुत दूर निकल जाने के लिए- एक पैदल राह। उसे चाहिए एक माँ, एक लम्बी उम्रवाली ममतामयी माँ। एक आदमी को चाहिए सुबह सवेरे कोई एक अख़बार उसे चाहिए कोई ग्रह कोई पृथ्वी महाशून्य तक यात्रा का कोई पथ और तेज़ गतिवाला कोई स्वप्न। यह सब ऐसा कुछ ज़्यादा भी नहीं बल्कि कहना चाहिए कुछ भी नहीं। एक अकेले आदमी को ज़्यादा कुछ नहीं चाहिए उसे चाहिए सिर्फ़ यह वरदान कि कोई करता रहेगा उसका इन्तज़ार।

बच्चे चुरानेवाला

हमारे मोहल्ले में उस दिन बड़ी अफ़रा-तफरी थी, बड़ा हंगामा मचा। शोरगुल के बीच जैसे ही यह सुना गया: ‘बच्चे चुरानेवाला...उठाईगीर...पकड़ो...’ कि हम सब लाठी-सोंटा लिये और आस्तीन चढ़ाये तुरत फुरत बाहर रास्ते पर निकल आये। अलीपुर जानेवाली ट्राम पर लपककर चढ़ने के पहले काले कोट में, कुछ अजीब-से दीखनेवाले एक सज्जन ने आँखों पर चढ़ा चश्मा माथे के ऊपर खिसकाया, और कहा, ‘विश्वास न हो तो देखिए यह अखबार इसमें सबकुछ छपा है।’ तब मेरे-जैसे ही कुछ लोग अख़बार पर एक साथ झपटते हुए होंठों को थूक से गीला करते हुए और हिज्जे लगाते हुए- उस ख़ास खबर का एक-एक हरफ़ पढ़ने लगे हाँ, ठीक ही तो लिखा है एकदम सही लिखा है छापे के मोटे-मोटे अक्षरों में एकदम साफ़-साफ़ अरे तुम्हें दीख नहीं रहा। लो देखो यह रहा...यहाँ। छपा है...? सचमुच लिख दिया गया है? फिर जाएगा कहाँ? हम सब तो डण्डा उठाये उसके पीछे टूट पड़े थे। उसके बालों को मुट्ठी में कसते ही हमारी हथेली में सन से बुनी जटा आ गयी और उसके लम्बे चोगे के नीचे से निकली बच्चों को धर पकड़कर ले जानेवाली वह झोली भी। अरे सर्वनाश! पता है? उसकी झोली में से और क्या-क्या निकला? देखे बिना शायद आपको विश्वास नहीं होगा। उनमें से निकला एक मृतक का खप्पर, छोटे बच्चों के जूतों की जोड़ियाँ, घुँघरू जड़ी कमरधनी, रबर की गेंद, औरतों के इस्तेमाल की दो एक चीजें, और पं. ईश्वरचन्द्र विद्यासागर लिखित वर्ण परिचय की प्रति। उस गंजे आदमी को पीट-पीटकर बेदम किये जाने के बाद फ़ौरी तौर पर और बिना किसी का पक्ष लिये छान-बीन करने पर जिस बात का पता चला, वह कुछ इस प्रकार था: वह आदमी बच्चे तो नहीं चुराया करता था लेकिन परले दर्जे का ठग ज़रूर था। भले ही वह साधु का स्वांग रचाये था लेकिन था एक लड़की का बाप। उसके एक बेटा भी था। लेकिन हाट-बाजार में ख़ून-पसीने वाली कमाई के डर से, इस गुखौके का बेटा मार खाता रहा, पर दो अक्षर पढ़ नहीं पाया। उस दिन हम लोगों में से, जिन्होंने उसकी लात-घूँसे-जूते-चप्पल-डंडे-सोटे से भरपूर पूजा की थी, और बड़े खुश भी हुए थे। कुछेक शोहदों को छोड़ दें तो बाकी लोगों के लिए मामले को समझे बिना यह इतना दुःखदायी ही नहीं, बल्कि आतंक की वजह भी बना- बात यह थी कि जो लोग बातों को समझे बिना आये दिन अख़बार भर देते हैं-वे भले ही अपने-अपने कार्यक्षेत्र में बड़े तीसमार ख़ाँ हों-धर्मावतार युधिष्ठिर तो नहीं!

एक संवाद

क्या तुम मेरा प्यार चाहते हो? -हाँ, चाहता हूँ। लेकिन कीच से लिथड़ी पड़ी उसकी देह? -जैसी भी है, मुझे प्रिय है। मेरा आखि़री वक़्त कैसा होगा, बताओगे? -ठीक है, पूछो। मैं कुछ और भी पूछना चाहती हूँ- -पूछो। मान लो मैंने कुंडी खटखटाई। -मैं हाथ पकड़कर अन्दर लीे जाऊँगा। मान लो मैंने तुम्हें याद किया। -मैं खि़दमत में हाजिर हो जाऊँगा। और इसमें कोई मुसीबत आन पड़े। -मैं उस मुसीबत में कूद पडूँगा। अगर मैंने तुम्हारे साथ कोई धोखा किया। -मैं माफ़ कर दूँगा। अगर तर्जनी उठाकर तुमसे कहूँ, गाना गाओ- -मैं गाना गाऊँगा। मैं कहूँ कि किसी घर आए दोस्त के मुँह पर किवाड़ दे मारो। -तो मैं किवाड़ भिड़ दूँगा। मैं कहूँ, उसे ख़तम कर दो। -मैं कर दूँगा। अगर कहूँ, अपनी जान दो। -दे दूँगा। अगर मैं डूब रही होऊँ -मैं बाहर खींच लाऊँगा। और अगर इसमें परेशानी हो? -मैं झेल लूँगा। और अगर इसमें कोई दीवार आड़े आए? -उसे ढहा दूँगा। अगर कोई फनदा डला हो? -काट डालूँगा। और अगर इसमें सौ-सौ गाँठें पड़ी हों? -तो भी तुम तो मेरा प्यार चाहते हो न! -हाँ, तुम्हारा प्यार। यह तुम्हें कभी नहीं मिलेगा -लेकिन क्यों? वजह यह कि जो होते हैं बिके हुए गुलाम मैं उन्हें कभी प्यार नहीं करती।

देशनिकाला

हाँ भाई, विनय बादल और दीनेश देखो, कलकत्ता को देखो जो अपनी आँखों के आँसू पोंछता चला जा रहा है तुम सबको पीछे छोड़, देखो... किसी ठेले पर चित लिटाकर रस्सी से हाथ-पाँव बाँधकर इस शहर से बेदख़ल कर देश निकाला टूटे पाँववाले तख़्तपोश की गोद से, देखो- डाली पर खिले गुलाबांे की पंखुरियों पर लिखा है, ‘सुखी रहो।’ टूटी कील कब्ज़े वाला बदरंग जं़ग-खाया पता नहीं किस ज़माने का शादी में मिला बक्सा लाल चीकट सालुक में बँधी दीमक खायी पिछली तीन पीढ़ियों की धरोहर एक पंजिका टूटे-फूटे कन्धेवाले मिट्टी के चूल्हे के पास ही औंधा पड़ा, कोयला-सना ताड़ का टूटा पंखा सिरहाने खड़े हैं प्रियजन और पड़े हैं गुलदस्ते आँखों पर तुलसी का पत्ता छाती पर रखी गीता ‘फस...’ की आवाज़ के साथ श्मशान में खींची गयी माँ-बाप की आँखों के तारे की एक अदद तस्वीर पीली पड़ चुकी है तेल और सिन्दूर मिलाकर उतारी गयी गुरुदेव के श्रीचरणों की छाप फटी नामावली में जड़ी लक्ष्मी मैया की स्तुति एक सौ आठ नाम और उधड़ी जिल्दवाली रेड बुक। मोतियाबिन्द वाली आँखों पर चढ़ा मोटे काँच वाला चश्मा बग़ैर चश्मबन्द वाला झटके के साथ उस पर आ गिरी लोहे की कजरौटी और सुन पड़ी हमानदस्ते की ठुड्....ठाड्. ठुड्. ठाड्. लाल बाज़ार में बने तिलचट्टे से भरे टूटे पटरेवाले हारमोनियम पर शीशे के फ्रेम में जड़े रामकृष्ण परमहंस, घोड़े पर सवार नेताजी हथेली पर गाल टिकाये सुकान्त और मछली के खोसे टाँककर बना राजहंस का जोड़ा चिथड़े से लिपटा मछली काटनेवाला हँसुआ पास ही रखा सिलबट्टा टाट पर लाल-नीले धागे से फूल-कड़े आसन पर दूधिया शंख और झक सफेद पत्थरवाली नलखड़िया- सूने, जं़ग लगे, तोते के पिंजरे के पास सूखी तुलसी के गमले में लोहे की टूटी बालटी के बीच पुराने शीशी-बोतल की भीड़ में सबसे मुँह चुराती...सहमी-सी कविताओं की एक कापी के पन्ने में फफकती और फड़फड़ाती हुई उसाँसें भर रही है हवा... बात यह है कि पतंगों को हटाकर आकाश में सिर उठाने लगी हैं ज़मीन फोड़कर उग आनेवाली बड़ी-बड़ी इमारतें। फुटपाथों के कान उमेठकर, दुनिया के पैरों में देश को गिरवी रख दोनों तरफ हाथ-पाँव पसार रहे तेज़ गाड़ियोंवाले रास्ते मम्मी और डैडी परे हटा रहे हैं माता-पिता को दीवारों से आशासूचक शब्दों को मिटाकर नियोन की चौंधभरी रोशनी में लिखा जा रहा है ‘शुभ लाभ।’

तो फिर

रास्ते होते जा रहे लँगड़े रास्ते बना रहे लँगड़े क्योंकि रास्ते बड़े होते जा रहे हैं रास्ते चौड़े होते जा रहे हैं और होंगे क्यों नहीं भला? आखि़र वह कितने दिनों तक बना रहेगा लल्ला? पहिये से हड्डियाँ कुचलकर तेज़ गाड़ियाँ भड़भड़ाकर भागेंगी है कि नहीं? तो बजाइए ताली ओ मेरी जान... वाह बहुत अच्छे क्या कहना! ऊँची...और ऊँची इमारतें खड़ी क्यों नहीं होंगी आखि़र! हम लोगों के भी ऊपर चढ़ने की अब आयी बारी आगे बढ़ो जल्दी कर लो सारी तैयारी अब जिसके पास नहीं है चावल और नहीं है चूल्हा उन्हें ये इमारतें कैसे आएँगी रास भला फूटी आँखों नहीं सुहाएँगी! असली चीज़ है प्रतिभा- दूसरों की तकलीफ़ से ही उनका ही भला करते हैं भगवान इसलिए तकलीफ़ उठाने से क्या हो जाएगा! जितनी ज़्यादा सुविधा उतना ज़्यादा किराया दिन दूना रात चौगुना बढ़ता चला जाएगा। दिन-पर-दिन टैक्स की जो मार है इससे रईसों की नब्ज़ ढीली तो होगी! और तभी तो मैं यह बता रहा था- (वक्ता आपका शुभचिन्तक है) एक-एक पाँव आगे बढ़ाते चलते चले जाइए अभी कोई अफ़रा-तफ़री नहीं। दिन के उजाले में ही आराम और इतमीनान से यह शहर छोड़ जाइए। जिन्हें पूरे ताम-झाम और धूम-धाम से तमाम कुनबे के साथ रहना है जो फल-फूल और फेल रहे हैं जिनकी ख़ातिर फूल-फूल में भरा है मधु वे ही आज उड़-उड़कर सारे शहर को जोड़े-जकड़े बैठे हैं। वे निचले तबके के लोगों को पाताल में मूँद-तोपकर हाँ जी, ज़रूर रखेंगे। लीजिए, तैयार किये जा रहे हैं मस्ती बिखेरने के लिए फ़व्वारे नदी के किनारे हर एक पार्क में चुप बंगाली...बदजात तुम लोग कोलकाता के कौन हो भला?

अब

मैंने अपनी क़लम उठाकर रख दी है ज़मीन पर अब तुम सब अपनी-अपनी आँखें हटा सकते हो। मुझे अब घेर लिया है सिर पर आकाश से टूटे अँधेरे ने मेरी आस्तीन की ओट में अब सिमटी पड़ी है बिजली आँधी की तेज़ रफ़्तार में बहता जा रहा ओ माँ, ओ माँ...कहकर, भूख से बिलखती एक सिरकटी चीख। मैं देख रहा हूँ मेरा अपना ही एक बेजार पड़ा हाथ चारों तरफ मुँह बाये सर्वनाश की ओर फंेक दिया गया है मैं चाह रहा हूँ कैसे भी हो, अपना वह हाथ उठा लाऊँ लेकिन मैं लाचार हूँ। मैं चाहकर भी ऐसा नहीं कर पा रहा।

रेगिस्तानी हवा में

मैं कभी नहीं भूल सकता किस तरह तुमने मुझे उबार लिया था शोक में डूबी एक रात से। आकाश की आँखों में झोंक रही थी धूल बाहर चल रही रेगिस्तानी हवा। अँधेरे में रिन टिन-रिन टिन...करता बढ़ता जा रहा ऊँटों का एक कारवाँ अपनी नाक आसमान तक ऊँची किये शहर पीठ-पीछे छोड़, गाँव की ओर। रास्ते के उस पार, वह कौन-सा पेड़ है मैं नहीं जानता। बगीचे में खिला वह कौन-सा फूल है मैं नहीं जानता। मैं परदेसी हूँ इस शहर के लिए नया। थोड़ी दूर पर ज़मीन से थोड़ी ऊँचाई पर हर घड़ी, दम साधे आपस में ही काट-पीट का, खेल रही हैं खेल गाड़ी की रोशनियाँ। जान पड़ती हैं किसी कोढ़ फूटे आदमी के माथे पर खिंची लकीरों-सी। अचानक मेरी आँखों के आँसू पथरा गए- लगा, कोई अदीठ चाँचर मेरे कन्धे पर रख दी गयी है और मेरे कन्धे एकबारगी भारी हो उठे हैं। मैं उस दिन समझ पाया था कि ज़िन्दगी का बोझ मौत के मुक़ाबले हलक़ा होता है। मेरे मन में तभी आयी थी एक विफल जीवन की बात। अपने देश और अपने काल की बात। मेरा मन हो उठा था बेचैन मैं सँजोये हुए था अपनी कलाई घड़ी में अपने देश का समय। मैं परदेसी इस शहर के लिए नया। मेरी ओर बहती चली आ रही थीं दिलासा भरी बातें और आगे बढ़े हाथ लेकिन इनमें से एक भी हाथ थाम नहीं पाया। अचानक न जाने तुम कहाँ से आ गयी और मेरा हाथ थाम लिया चुपचाप। कुछ कहे बिना तुमने किस तरह शोक में डूबी मेरी उस रात को सहारा दिया तुम भले ही भूल जाओ मैं कभी नहीं भूल पाऊँगा।

साध

दो दीवारों पर आमने-सामने दो तस्वीरें कीलों से झूल रही हैं। एक ओर हैं सूली पर टँगे ईसा मसीह। और दूसरी ओर सबकुछ तय जानकर रथ के पहिये पर हाथ रख मृत्यु का वरण कर रहे कर्ण। दोनों ही जीवन-प्राणवान। दोनों ही विधि से विलग अमर गौरव-मंडित। इनके नीचे जहाँ कहीं भी रहो- एक बार पीछे मुड़कर देखो तो सही, कुँवारी माँ। बाहर थमने का नाम नहीं ले रही ज़ोरदार बारिश रह-रहकर चमक उठती है बिजली छाया है जन्माष्टमी-जैसा घुप अँधेरा इस बत्तीगुल शहर में। देखो, घर में दीया जलाकर, जनम से दुखिया मेरी माँ सुख के सपने में खोई है एक हाथ टोढ़ी पर रख और दूसरे हाथ से थाम खिड़की के सींखचे गर्भधारण के गर्व से। यह जानकर तुम खुश हो जाओ- कल पूरेगी उसकी साध।

सबका गान

(एक) देखो, देखो कैसे दिन बदल रहे हैं- ओ मेरे देश के भाइयो! पूरब के आसमान पर छायी है लाली होता है प्रकाश तो छँटता है अँधेरा। खोलो आँखें, देखो ओ शहीदों की माँ, नन्हें बच्चों, ओ प्रियतमा! हत्यारों को अब नहीं मिलेगी क्षमा जग गयी है ख़ून की धारा लाखों हाथ आज नाखूनों पर धार चढ़ा रहे हैं। देखो, देखो कैसे दिन बदल रहे हैं। आज़ादी का सपना था गानों में, गल्पों में, गाथाओं में खिले हैं आज अनोखे रंग के फूल-फूल में पात-पात में। जागो, जागो, देखो तो माँ कारख़ाने के मज़दूर और खेत के किसान तोड़कर बेड़ियाँ, उड़ा रहे निशान सारी दुनिया में है, अब नया विधान कोटि-कोटि कंठ आज गान गा रहे हैं। देखो, देखो, कैसे दिन बदल रहे हैं। (दो) कथनी और करनी एक जैसी हो भाई- हाँक पड़ी है ऊँचे स्वर में गुरु...गुरु...। लम्बी-चौड़ी बातें छोड़ो शीघ्र करो अब यज्ञ शुरू। जो हैं गरजते-नहीं बरसते कभी किसी काम न आते नाटक में भी भीम तभी जँचता है जब तोड़े दुर्योधन की उरु हाँक पड़ी है ऊँचे स्वर में गुरु...गुरु। मुक्त धारा बाँधोगे तो बिजली पाओगे छोड़ दो वल्गा, अश्वमेध का अश्व बढ़ेगा। जहाँ पे सब एक समान सबके लिए सबका रुझान जहाँ सभी खुद हाथ बढ़ाएँ अल्ला हरि मारांबुरु! हाँक पड़ी है ऊँचे स्वर में गुरु...गुरु।

बदल रहे हैं दिन

दुनिया कल थी जहाँ आज अभी- नहीं है वहाँ। बँधी धार में जागा ज्वार डूब गये हैं किनारे बाढ़ में। सामने ही तिर रही है रक्त में सनी निष्ठुरता में डूबी भयानक स्मृतियाँ खुल रहे हैं दरवाजे़ और खिड़कियाँ- बन्द द्वार अब सबके लिए हैं शुभकामनाएँ और प्यार। धरती काँप रही है पैरों तले मची हड़कम्प। मुँह फाड़े रसातल से- अगर बच गये तो समझ पड़ेगा, सबसे बड़ा सच है मनुष्यत्व। खुद को सबसे चालाक समझकर अपनी संगीन उठाये अविश्वसनीय हँसी हँस रहा है बेवकूफ़ बदल रहे हैं दिन उसे पता नहीं है कि एक ही नदी में डुबकी नहीं लगा सकते दो-दो बार।

धर्म-यन्त्र

समय सचमुच बहुत विपरीत है वे बिना कुछ किये धरे जितना हो सके हथिया रहे हैं खुले मंच पर खड़े ये बहुरुपिये पलक तक नहीं झपकते और घड़ी-घड़ी अपने रंग बदल रहे हैं। किसी के चेहरे से पता नहीं चलता कि किसका हाथ है और किसकी ताली और किस बात की हो रही है जय-जयकार अफ़वाह है कि वह रोज़ आधी रात हर दरवाजे़ की साँकल खटखटाता है बेहद काला-कलूटा एक घुटमुंड कालपुरुष। मैंने अभी-अभी देखी हैं शवगृह में चीर-फाड़ के लिए पड़ी क़तारों में रखी लाशें। आधी रात गये गृहस्थों के घर में सेंध लगाकर मुस्टण्डे चूहों का झुंड कुतर जाता है सोये हुए लोगों के बाल और नाखू़न। अब शेर की दहाड़ भी लगती है गीदड़भभकी और बकरियों ने सीख ली है लकड़बग्घों-सी हँसी। अब घोड़े जनने लगे हैं गधे भिखमंगों की झोली से निकलता है यक्ष का धन और नामावली के अन्दर से कटार ‘रामनाम’ की जगह मची है अब ‘रामनाम सत्य है’ की धूम। खींची जा रही हैं माँ-बहनों के लिए लक्ष्मण-रेखाएँ कि इसके बाहर निकलते ही दबोच ले जाएगा राक्षस। ओ नगरवासी द्वारिका में अब आने ही वाले होंगे अर्जुन अब डरने की कोई बात नहीं है मा भय...मा भय...! कौन आएगा...तीसरा पांडव! छोड़ो भी अब उनमें नहीं रही गांडीव उठाने की शक्ति। क्योंकि अब गड्ड-मड्ड हो गया है सब जंगल घर में और घर जंगल में बदल गया है। एक खाते-पीते गृहस्थ की छत पर अपनी गर्दन तिरछी किए हुई है धर्म की तलवार याद रखो भाई मेरे लाठी उठा लो तो वह बन जाता है झंडा और उलट दो इसे तो बन जाता है डंडा। जब केतु का कोई ज़ोर नहीं चलता तो राहु पड़ा है लील जाने को। फुटपाथ पर बैठा ज्योतिषी बाँच रहा है उनका भाग्यफल जो हाथ से काम लेते डरते हैं उनका भाग्यफल उगल रहा है बड़ी फुर्ती से, पिंजरे से निकल आनेवाला एक परिन्दा। वे ही भाषण झाड़ रहे हैं जिन्हें बात तक नहीं करना आता वही लोग सुन रहे हैं जो न जाने कब से बहरे बने हुए हैं और जो अन्धे हैं वे दीवारों पर लिख रहे हैं। जिन्हंे मेहनत से है गुरेज वही दबा रहे हैं मशीनों के बटन जब हाथ उठाने की आती है बारी तो हाजिरी बजानेवाले खर्रे पर लूले भी अँगूठा टीप जाते हैं ओ वनवास झेलती, बिखरे बालों वाली दुखिया माँ, मैं आ रहा हूँ, ज़हरीली हवा के खिलाफ़ अपना सीना ताने एक-एक क़दम बड़ी सावधानी से आगे बढ़ाता। पेड़-पौधों की कँटीली डालियाँ कितनी ज़्यादा झुक आयी हैं- शायद बहुत दिनों से इस राह से कोई गुजरा नहीं। मधुर प्रेम की खोज में निकले थे जो बाउल अभी तक नहीं लौटे उनकी ‘बनबीवी’ की सारी पुजौती अभी भी बिखरी है ज़मीन पर ऐसे किसी पूजा-पाठ पर मुझे नहीं है यक़ीन मैं बढ़ाता जा रहा हूँ ऐसी तमाम हवा के खि़लाफ़ ज़मीन पर एक-एक क़दम सावधानी के साथ इसलिए कि मेरी आदमगन्ध किसी भी तरह मेरे पीछे पड़े मक्कार बाघ के नथुनोंतक न पहुँचे।

जाता हूँ

ओ बादल ओ हवा ओ धूप ओ छाया जाता हूँ, ओ फूलसाजी ओ नदी, ओ माझी ओ जुगनू ओ नीड़ ओ पाखी जाता हूँ, ओ सुई ओ धागा ओ छींटदार कुर्ते ओ फीते बँधे जूते जाता हूँ, ओ छवि ओ पान ओ ममता ओ प्राण जाता हूँ, ओ दृष्टि ओ छत, ओ सीढ़ी ओ काठ की पीढ़ी ओ कच्ची ड्योढ़ी जाता हूँ, ओ स्मृति, ओ आशा ओ झींगुर, ओ झाऊ ओ धुआँ, ओ कोहरा ओ बोहनी, ओ फाव जाता हूँ, ओ हंस, ओ अंडा ओ चूल्हे की माटी ओ गर्मी, ओ सर्दी ओ शीतलपाटी जाता हूँ, ओ लाल ओ पन्ना ओ हँसी-खुशी ओ रोना-धोना जाता हूँ, ओ गाय, ओ भैंस ओ धान की बाली ओ जँगले-दरवाजे़ ओ साँझ, ओ भोर जाता हूँ, ओ बारिश, ओ अन्धड़ ओ ईंट, ओ पत्थर ओ मेंढक, ओ साँप ओ पुण्य, ओ पाप जाता हूँ, ओ काजल लता ओ पुराकथा ओ पर्दा, ओ पापोश ओ फ़साद, ओ अफ़सोस जाता हूँ, ओ ऊँची, ओ नीची ओ आम, ओ लीची ओ चुम्बन ओ बाहुबन्धन जाता हूँ, ओ ओला-वृष्टि ओ तीती, ओ मीठी ओ यात्रा-बाधा ओ भय, ओ लज्जा जाता हूँ, ओ कच्ची मिर्ची ओ तौल, ओ गिनती ओ बम-बन्दूक ओ बिछुड़ गये मुख जाता हूँ, ओ बाइला भाषा ओ रवि ठाकुर ओ प्यास ओ पास, ओ दूर जाता हूँ, ओ हेमन्त ओ बसन्त ओ आदि ओ अन्त जाता हूँ, ओ दिन ओ दोपहर ओ पुण्य पोखर जाता हूँ, ओ घास ओ फूस ओ सच ओ झूठ जाता हूँ, ओ कथरी ओ लिहाफ़ ओ बही ओ किताब जाता हूँ, ओ कूची ओ क़लम ओ कूक ओ हूक जाता हूँ, ओ सीमान्त ओ गोमुखी ओ जलचौकी जाता हूँ, ओ शीशा ओ कंघा ओ चीता ओ लकड़बग्घा जाता हूँ, ओ गल्प ओ अधिक ओ अल्प जाता हूँ, ओ आषाढ़ ओ सावन ओ गतयौवन जाता हूँ, ओ नकफूल ओ दुःख ओ शूल जाता हूँ, ओ मूँगफली ओ लिफ़ाफे ओ पोस्टकार्ड जाता हूँ, ओ काम, ओ छुट्टी ओ भात ओ रोटी जाता हूँ, ओ तुक, ओ छन्द ओ मुक्त ओ बन्द जाता हूँ, ओ भले, ओ बुरे ओ पोथी ओ पत्रे जाता हूँ, ओ बेर, ओ बबूल ओ सही ओ भूल जाता हूँ, ओ आरम्भ ओ शेष ओ समकाल ओ देश जाता हूँ, ओ मटर फली ओ गुमी लुटिया जाता हूँ, ओ चश्मे के खोल ओ पाँव की छाप जाता हूँ, ओ बौर ओ पूजा ओ होली जाता हूँ, ओ नाम, ओ पते ओ जलकुम्भी जाता हूँ, ओ ईद के चाँद ओ आनन्द ओ आह्लाद जाता हूँ, ओ गाड़ी के चक्के ओजुलूस ओ पताका जाता हूँ, ओ पान के बीड़े ओ भीड़ ओ एकान्त जाता हूँ, ओ जल्दी, ओ हड़बड़ी ओ निहाई, ओ हथौड़ी जाता हूँ, ओ मक्खी, ओ मच्छर जाता हूँ, ओ मलाई, ओ खुरचन जाता हूँ, ओ देह, ओ प्राण जाता हूँ, ओ ध्यान, ओ ज्ञान जाता हूँ, ओ दोस्ती, ओ दुश्मनी जाता हूँ, ओ प्रणाम, ओ सलाम जाता हूँ, ओ फूल जाता हूँ, ओ पथ जाता हूँ, ओ गुड़िया जाता हूँ, ओ शपथ, ओ छाया जाता हूँ, ओ माया जाता हूँ, (ओ मिऊ...(कवि की पोती का गृहनाम))

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