अधिवास : राजगोपाल
Adhivaas : Rajagopal


दिन मे श्रम संताप से भरी एक ही जगती है छाती पर छत लिये रात मे हर घर की अलग धरती है मुंह फाड़े सुख की आशा मे आँखें अथक प्रतीक्षा करती हैं मेरी काया रस-रंग छोड़, रात से दूसरे सुबह की बात करती है अब वह घर छूटा, नहीं है कोई आस-पास उन ईंट-पत्थरों की महक ढूंढती है हर सांस स्पर्श तो छूटा दूर, दृगों को भी नहीं होता आभास कुछ अंधेरा-कुछ उजाला यही बना मेरा अधिवास प्रणय-परिणय, निश्चय लगा यह पथ है अक्षय किन्तु नहीं, उदासीन हुआ जीवन, टूट गया परिचय निपटी स्नेह-सगाई चादर मे लिपटी झटक कर समय निर्वासित सा झेल रहा हूँ मैं निस्संग इस जीवन का तन्मय न सोचा था हारूँगा कभी प्रणय के साथ हाय! बाँचती बहती हैं स्मृतियाँ अश्रु की धारा असहाय कहती है परिणीता यह कौन सी बड़ी बात है निरुपाय बतलाओ प्रभु! इस गृहस्थ योग मे यह कैसा है अन्याय चढ़ती रात मे फैलती है शून्यता एकांत मन की झंझावात से पहले जैसे ठहरी हो हवा गगन की थकी साँसे ढूंढती हैं रात मे बिसुरी सुगंध तन की यह कोई दिनों की बात नहीं, है दुविधा क्षण-क्षण की जगती मे अकेले अब नहीं उतरता है निवाला जल गया है प्रणय अपने ही रसोई मे काला मग गयी है आज मन मे बसी मेरी मधुबाला हे सृष्टा! तुमने क्यों ऐसा विश्वरूप दिखा डाला निहंग हूँ अब न दोबारा बीता संसार मुझे दो पत्थर सा पड़ा हूँ फिर न वह परिवार मुझे दो शलभ सा जला हूँ ला कर घाट का अंगार मुझे दो अब स्नेह तो मरा, मरने का भी अधिकार मुझे दो यह रजवाड़ा नहीं, यहाँ कोई आसन पलंग नहीं मैं विक्षिप्त यहाँ, अब उसे मुझसे कोई रस-रंग नहीं अब अर्धांगिनी संगिनी कैसी काट डाले हैं सारे अंग यहीं मेरी पीड़ा पर वह भी हँसी, इस जगती मे जीने का ढंग यही तिरस्कृत सा कब से गिरता-उठता जीवन मे बहता हूँ, डूबता हूँ, दम लेता फिर जीता हूँ क्षण मे दृगों को छूती नहीं है किरणें तिमिर के इस घन मे मैं ठहरा पुरुष वस्तु, ऐसी है उसकी भावना मन मे अनेक विशेषण मेरे, जगती से दूर मरूँ तो हूँ पलयनवादी साथ ले घूमूँ उसे जगती मे, तो कहलाता मैं सामंतवादी गला फाड़ कर चिल्लाऊँ, तब मैं लगता कोई हिंसावादी आप जीऊँ जब जगती मे, कहते तू किसका हुआ हितवादी जी रहा हूँ यत्न से इस जीवन का अधिवास पढ़ा नहीं पुराण किन्तु समझ गया हूँ कैसा था वनवास मेरे ही कंचन लूट कर प्रभु! कैसा दिया यह कारावास क्या मेरे ही कर्म छोड़ गये हैं यह चील-कौव्वे आस-पास उस पर मिट्टी डाल अकाल काल की कैसी यह निर्ममता अपने प्रणय पर गिराता हूँ आँसू है नहीं और कोई मेरी क्षमता कैसी मधुशाला, किसकी मधुबाला, अधरों पर अब कुछ नहीं जमता उठा है बवंडर जीवन को उछालता जो कभी नहीं है थमता न चाह कर भी उसकी ओर देखता हूँ जब अधिवास छोड़ कर उसकी ओर दौड़ता हूँ तब आशाएँ बांधे क्षण भर सोचता हूँ अधरों पर मधु धरेगी कब क्या करूँ! जब, तब, कब के जाल मे उलझा रहता है यह जीवन अब साथ चले थे पार कर कुश-कंटक तरुवर-तरुवर मन रोता है चुभते देख उसके पावों मे कंकड़-पत्थर वही पृथा है, भाग्य वही है फिर क्यों डोलता है हृदय चरमर कुछ भी हो जगती मे जीवन का अंत यही है हर-हर हर-हर तुम ही हो मेरी इकलौती वल्लरी सुकुमारी तुम्हारी क्षण भर पीड़ा भी लगती है मन भर भारी कभी लगता है दौड़ कर दे आऊँ तुम्हें मेरी आयु सारी कहो! क्या अब मैं नहीं रहा तुम्हारे स्पर्श का अधिकारी भावना मिट्टी है चाक पर बनती-बिगड़ती रोती है किसने समझा इसकी पीड़ा, दुर्दशा मन की होती है हँस कर झूठा ही उर पर प्रणय का भार ढोती है यहाँ रात रिसती है आँखों मे, वह दूर जग बांधे सोती है कुछ तुमने लिया, कुछ मैंने लिया, प्रभु को नतशीश यहीं तुन धनी स्वाभिमानी, किन्तु मेरा ऋण अब तक चुका नहीं बार-बार तन तृषित कह कर उर पर मारती हो चोट सही मिट्टी सा मरता-बिसुरता, आज मैंने भी अपनी यह बात कही तंग हुआ नीड़ से, जब दूर दूसरा नीड़ बनाया दुखों की गठरी बांधे उसे अपने ही उर मे जलाया पर भी न चहका मैं, भगोड़ा किस के मन भाया अपना सुख दिया उसे किन्तु वह जीवन फिर न पाया लुटा दिया उस पर यश-धन स्नेह अगाध टूटे छत से रजवाड़े तक स्नेह चला कोसों निर्बाध जगती की माया मे कभी होती है छोटी भूल एकाध किन्तु मांगना पुरुष का आज सिद्ध हुआ चरम अपराध आकाशवाणी हुई! क्या तुम स्वामी से सखा बन सकते हो परिणय की अवधि पूरी हुई अब यहाँ व्यर्थ क्यों थकते हो संबंध बदलते हैं, फिर क्यों लाचार निहंग मलंग भटकते हो न मांगना फिर कभी, पुरुष हो, क्यों श्वान सा तन लपकते हो

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