अभी बिल्कुल अभी : केदारनाथ सिंह

Abhi Bilkul Abhi : Kedarnath Singh


प्रक्रिया

मैं जब हवा की तरह दृश्यों के बीच से गुजरता हुआ अकेला होता हूँ; तो क्षण भर के लिए मुझे कहीं भी देखा जा सकता है, किसी भी दिशा में किसी भी मोड़ पर किसी भी भाषा के अज्ञात शब्द-कोश में! पर मैं जब कहीं नहीं होता; सिर्फ़ कहीं होने की लगातार कोशिश में, सामने की भीड़ को दूर से पहचानता हुआ हवा के आर-पार एक प्रश्न उछालता हूँ और हँसता हूँ! तो न जाने क्यों मुझे लगता है : कि गूंजहीन शब्दों के इस घने अंधकार में मैं — अर्थ परिवर्तन की एक अबूझ प्रक्रिया हूँ; जिसके भीतर ये लोग, झाड़ियाँ, बत्तखें और भविष्य हर चीज़ एक-दूसरे में घुली-मिली है! जड़ें रोशनी में हैं रोशनी गंध में, गन्ध विचारों में विचार स्मृतियों में, स्मृतियाँ रंगों में... और मैं चुपचाप इस संपूर्ण व्यतिक्रम को भीतर संभाले हुए; चलते-चलते झुककर रास्ते की धूल से एक शब्द उठाता हूँ और पाता हूँ कि अरे गुलाब! (1960)

अनागत

इस अनागत को करें क्या जो कि अक्सर बिना सोचे, बिना जाने सड़क पर चलते अचानक दीख जाता है किताबों में घूमता है रात की वीरान गलियों बीच गाता है। राह के हर मोड़ से होकर गुज़र जाता दिन ढले— सूने घरों में लौट आता है, बाँसुरी को छेड़ता है खिड़कियों के बंद शीशे तोड़ जाता है किवाड़ों पर लिखे नामों को मिटा देता बिस्तरों पर छाप अपनी छोड़ जाता है। इस अनागत को करें क्या जो न आता है, न जाता है! आजकल ठहरा नहीं जाता कहीं भी, हर घड़ी, हर वक़्त खटका लगा रहता है कौन जाने कब, कहाँ वह दीख जाए हर नवागंतुक उसी की तरह लगता है! फूल जैसे अँधेरे में दूर से ही चीख़ता हो इस तरह वह दरपनों में कौंध जाता है हाथ उसके हाथ में आकर बिछल जाते स्पर्श उसका धमनियों को रौंद जाता है। पंख उसकी सुनहली परछाइयों में खो गए हैं पाँव उसके कुहासे में छटपटाते हैं। इस अनागत को करें क्या हम कि जिसकी सीटियों की ओर बरबस खिंचे जाते हैं।

एक पारिवारिक प्रश्न

छोटे से आंगन में माँ ने लगाए हैं तुलसी के बिरवे दो पिता ने उगाया है बरगद छतनार मैं अपना नन्हा गुलाब कहाँ रोप दूँ! मुट्ठी में प्रश्न लिए दौड़ रहा हूं वन-वन, पर्वत-पर्वत, रेती-रेती... बेकार (1957)

नये दिन के साथ

नये दिन के साथ एक पन्ना खुल गया कोरा हमारे प्यार का सुबह, इस पर कहीं अपना नाम तो लिख दो! बहुत से मनहूस पन्नों में इसे भी कहीँ रख दूंगा और जब-जब हवा आकर उड़ा जायेगी अचानक बन्द पन्नों को कहीं भीतर मोरपंखी का तरह रक्खे हुए उस नाम को हर बार पढ़ लूंगा। (1958)

रचना की आधी रात

अन्धकार ! अन्धकार ! अन्धकार ! आती हैं कानों में फिर भी कुछ आवाजें दूर, बहुत दूर कहीं आहत सन्नाटे में रह-रहकर ईंटों पर ईंटों के रखने की.... फलों के पकने की... खबरों के छपने की... सोये शहतूतों पर रेशम के कीड़ों के जगने की बुनने की.... और मुझे लगता है जुड़ा हुआ इन सारी नींदहीन ध्वनियों से खोए इतिहासों के अनगिनत ध्रुवान्तों पर मैं भी रचनारत हूँ; झुका हुआ घंटों से इस कोरे कागज की भट्ठी पर लगातार ! अन्धकार! अन्धकार! अन्धकार!

बादल ओ!

हम नए-नए धानों के बच्चे तुम्हें पुकार रहे हैं- बादल ओ! बादल ओ! बादल ओ! हम बच्चे हैं, (चिड़ियों की परछाई पकड़ रहे हैं उड़-उड़) हम बच्चे हैं, हमें याद आई है जाने किन जन्मों की- आज हो गया है जी उन्मन! तुम कि पिता हो- इन्द्रधनुष बरसो! कि फूल बरसो, कि नींद बरसो- बादल ओ! हम कि नदी को नहीं जानते, हम कि दूर सागर की लहरें नहीं माँगते। हमने सिर्फ तुम्हें जाना है, तम्हें माँगते हैं। आर्द्रा के पहले झोंके में तुम को सूँघा है- पहला पत्ता बढ़ा दिया है। लिए हाथ में हाथ हवा का- खेतों की मेड़ो पर घिरते तुम को देखा है, ओठों से विवश छू लिया है। ओ सुनो, अन्न-वर्षी बादल ओ सुनो, बीज-वर्षी बादल हम पंख माँगते हैं, हम नए फेन के उजले-उजले शंख माँगते हैं, हम बस कि माँगते हैं बादल! बादल! घर बादल, आँगन बादल, सारे दरवाज़े बादल! तन बादल, मन बादल, ये नन्हें हाथ-पाँव बादल- हम बस कि माँगते हैं बादल, बादल। तुम गरजो- पेड़ चुरा लेंगे गर्जन, तुम कड़को- चट्टानों में बिखर जाएगी वह कड़कन। तुम बरसो- फूट पड़ेगी प्राणों की उमड़न-कसकन! फिर हम अबाध भीजेंगे, झूमेंगे- ये हरी भुजाएं नील दिशाओं को छू आएँगी- फिर तुम्हें वनों में पाखी गाएंगे, फिर नए जुते खेतों से हवा-हवा बस जाएगी! फिर नयन तुम्हें जोहेंगे जूही के जादू-वन में, आमों के पार साँझ के सूने टीलों पर! फिर पवन उँगलियाँ तुम्हें चीन्ह लेंगी- पौधों में, पत्तों में, कत्थई कोंपलों में! तुम कि पिता हो- कहीं तुम्हारे संवेदन में भी तो वही कंप होगा- जो हमें हिलाता है! ओ सुनो रंग-वर्षी बादल, ओ सुनो गंध-वर्षी बादल, हम अधजनमे धानों के बच्चे तुम्हें माँगते हैं।

दीपदान

जाना, फिर जाना, उस तट पर भी जा कर दिया जला आना, पर पहले अपना यह आँगन कुछ कहता है, उस उड़ते आँचल से गुड़हल की डाल बार-बार उलझ जाती हैं, एक दिया वहाँ भी जलाना; जाना, फिर जाना, एक दिया वहाँ जहाँ नई-नई दूबों ने कल्ले फोड़े हैं, एक दिया वहाँ जहाँ उस नन्हें गेंदे ने अभी-अभी पहली ही पंखड़ी बस खोली है, एक दिया उस लौकी के नीचे जिसकी हर लतर तुम्हें छूने को आकुल है एक दिया वहाँ जहाँ गगरी रक्खी है, एक दिया वहाँ जहाँ बर्तन मँजने से गड्ढा-सा दिखता है, एक दिया वहाँ जहाँ अभी-अभी धुले नये चावल का गंधभरा पानी फैला है, एक दिया उस घर में - जहाँ नई फसलों की गंध छटपटाती हैं, एक दिया उस जंगले पर जिससे दूर नदी की नाव अक्सर दिख जाती हैं एक दिया वहाँ जहाँ झबरा बँधता है, एक दिया वहाँ जहाँ पियरी दुहती है, एक दिया वहाँ जहाँ अपना प्यारा झबरा दिन-दिन भर सोता है, एक दिया उस पगडंडी पर जो अनजाने कुहरों के पार डूब जाती है, एक दिया उस चौराहे पर जो मन की सारी राहें विवश छीन लेता है, एक दिया इस चौखट, एक दिया उस ताखे, एक दिया उस बरगद के तले जलाना, जाना, फिर जाना, उस तट पर भी जा कर दिया जला आना, पर पहले अपना यह आँगन कुछ कहता है, जाना, फिर जाना!

खोल दूं यह आज का दिन

खोल दूं यह आज का दिन जिसे- मेरी देहरी के पास कोई रख गया है, एक हल्दी-रंगे ताजे दूर देशी पत्र-सा। थरथराती रोशनी में, हर संदेशे की तरह यह एक भटका संदेश भी अनपढा ही रह न जाए- सोचता हूँ खोल दूं। इस सम्पुटित दिन के सुनहले पत्र-को जो द्वार पर गुमसुम पडा है, खोल दूं। पर, एक नन्हा-सा किलकता प्रश्न आकर हाथ मेरा थाम लेता है, कौन जाने क्या लिखा हो? (कौन जाने अंधेरे में- दूसरे का पत्र मेरे द्वारा कोई रख गया हो) कहीं तो लिखा नहीं है नाम मेरा, पता मेरा, आह! कैसे खोल दूं। हाथ, जिसने द्वार खोला, क्षितिज खोले दिशाएं खोलीं, न जाने क्यों इस महकते मूक, हल्दी-रंगे, ताजे, किरण-मुद्रित संदेशे को खोलने में कांपता है।

जीने के लिए कुछ शर्तें

जरूरी हम जहाँ हों, वहाँ से दिखता रहे वह झिलमिलाता क्षितिज जो केवल हमारा है! हम बढ़ाएँ हाथ तो खुल जाए बाहर रास्ते की ओर कोई द्वार सहसा ! झुकें तो बिल्कुल अयाचित सामने की मेज से, या बगल के आहट भरे आलोक-उत्सुक दराजों से एक उत्तर फूटकर हमको चकित कर जाए ! जरूरी है ! जरूरी है सोचते-से हम लगे हों काम में, पर अन्तरालों से कभी कोई कबूतर निकल जाए, कभी कनखी से अचानक दूर मन्दिर - कलश की कुछ लहरियाँ दिख जाएँ जरूरी है ! जरूरी है सरहदों पर कहीं हो अनुगूँज, जो अस्तित्व के हर तार से होकर गुजरती रहे; कहीं हों परछाइयाँ जिनसे हवा में खयालों के कोण बनते रहें; कहीं हो सम्भावना जो हर थकन के बाद हमको बोलने के लिए बातें, तोड़ने के लिए तिनके, बैठने के लिए थोड़ी-सी जगह दे जाए ! जरूरी है !

  • मुख्य पृष्ठ : केदारनाथ सिंह - हिंदी कविताएँ
  • मुख्य पृष्ठ : हिन्दी कविता वेबसाइट (hindi-kavita.com)