व्यक्तिगत : भवानी प्रसाद मिश्र

Vyaktigat : Bhawani Prasad Mishra



व्यक्तिगत (कविता)

मैं कुछ दिनों से एक विचित्र सम्पन्नता में पड़ा हूँ संसार का सब कुछ जो बड़ा है और सुन्दर है व्यक्तिगत रूप से मेरा हो गया है सुबह सूरज आता है तो मित्र की तरह मुझे दस्तक देकर जगाता है और मैं उठकर घूमता हूँ उसके साथ लगभग डालकर हाथ में हाथ हरे मैदानों भरे वृक्षों ऊँचे पहा़ड़ों खिली अधखिली कलियों के बीच और इनमें से हरे मैदान वृक्ष पहाड़ गली और कली और फूल व्यक्तिगत रूप से जैसे मेरे होते हैं मैं सबसे मिलता हूँ सब मुझसे मिलते हैं रितुएँ लगता है मेरे लिए आती हैं हवाएँ जब जो कुछ गाती हैं जैसे मेरे लिए गाती हैं हिरन जो चौकड़ी भरकर निकल जाता है मेरे सामने से सो शायद इसलिए कि गुमसुम था मेरा मन थोड़ी देर से शायद देखकर क्षिप्रगति हिरन की हिले-डुले वह थोड़ा-सा खुले झूठे उन बन्धनों से बँधकर जिनमे वह गुम था आधी रात को बंसी की टेर से कभी बुलावा जो आता है व्यक्तिगत होता है मैं एक विचित्र सम्पन्नता में पड़ा हूँ कुछ दिनों से और यह सम्पन्नता न मुझे दबाती है न मुझे घेरती है हलका छोड़े है मुझे लगभग सूरज की किरन पेड़ के पत्ते पंछी के गीत की तरह रितुओं की व्यक्तिगत रीत की तरह सोने से सोने तक उठता-बैठता नहीं लगता मैं अपने आपको एक ऐश्वर्य से दूसरे ऐश्वर्य में पहुँचता हूँ जैसे कभी उनको तेज कभी सम कभी गहरी धाराओं में सम्पन्नता से ऐसा अवभृथ स्नान चलता है रातों-दिन लगता है एक नये ढंग का चक्रवर्ती बनाया जा रहा हूँ मैं एक व्यक्ति हर चीज़ के द्वारा व्यक्तिगत रूप से मनाया जा रहा हूँ !

कहीं नहीं बचे

कहीं नहीं बचे हरे वृक्ष न ठीक सागर बचे हैं न ठीक नदियाँ पहाड़ उदास हैं और झरने लगभग चुप आँखों में घिरता है अँधेरा घुप दिन दहाड़े यों जैसे बदल गई हो तलघर में दुनिया कहीं नहीं बचे ठीक हरे वृक्ष कहीं नहीं बचा ठीक चमकता सूरज चांदनी उछालता चांद स्निग्धता बखेरते तारे काहे के सहारे खड़े कभी की उत्साहवन्त सदियाँ इसीलिए चली जा रही हैं वे सिर झुकाये हरेपन से हीन सूखेपन की ओर पंछियों के आसमान में चक्कर काटते दल नजर नहीं आते क्योंकि बनाते थे वे जिन पर घोंसले वे वृक्ष कट चुके हैं क्या जाने अधूरे और बंजर हम अब और किस बात के लिए रुके हैं ऊबते क्यों नहीं हैं इस तरंगहीनता और सूखेपन से उठते क्यों नहीं हैं यों कि भर दें फिर से धरती को ठीक निर्झरों नदियों पहाड़ों वन से!

मैंने पूछा

मैंने पूछा तुम क्यों आ गई वह हँसी और बोली तुम्हें कुरूप से बचाने के लिए कुरूप है ज़रुरत से ज़्यादा धूप मैं छाया हूँ ज़रूरत से ज़्यादा धूप कुरूप है ना?

पूरे एक वर्ष

सो जाओ आशाओं सो जाओ संघर्ष पूरे एक वर्ष अगले पूरे वर्षभर मैं शून्य रहूँगा न प्रकृति से जूझूँगा न आदमी से देखूँगा क्या मिलता है प्राण को हर्ष की शोक की इस कमी से इनके प्राचुर्य से तो ज्वर मिले हैं जब-जब फूल खिले हैं या जब-जब उतरा है फसलों पर तुषार तो जो कुछ अनुभव है वह बहुत हुआ तो हवा है अगले बरस अनुभव ना चाहता हूँ मैं शुद्ध जीवन का परस बहना नहीं चाहता केवल उसकी हवा के झोंकों में सो जाओ आशाओं सो जाओ संघर्ष पूरे एक वर्ष !

सुनाई पड़ते हैं

सुनाई पड़ते हैं सुनाई पड़ते हैं कभी कभी उनके स्वर जो नहीं रहे दादाजी और बाई और गिरिजा और सरस और नीता और प्रायः सुनता हूँ जो स्वर वे शिकायात के होते हैं की बेटा या भैया या मन्ना ऐसी-कुछ उम्मीद की थी तुमसे चुपचाप सुनता हूँ और ग़लतियाँ याद आती हैं दादाजी को अपने पास नहीं रख पाया उनके बुढ़ापे में निश्चय ही कर लेता तो ऐसा असंभव था क्या रखना उन्हें दिल्ली में पास नहीं था बाई के उनके अंतिम घड़ी में हो नहीं सकता था क्या जेल भी चला गया था उनसे पूछे बिना गिरिजा! और सरस और नीता तो बहुत कुछ कहते हैं जब कभी सुनाई पड़ जाती है इनमें से किसी की आवाज़ बहुत दिनों के लिए बेकाम हो जाता हूँ एक और आवाज़ सुनाई पड़ती है जीजाजी की वे शिकायत नहीं करते हंसी सुनता हूँ उनकी मगर हंसी में शिकायत का स्वर नहीं होता ऐसा नहीं है मैं विरोध करता हूँ इस रुख़ का प्यार क्यों नहीं देते चले जाकर अब दादाजी या बाई गिरिजा या सरस नीता और जीजाजी जैसा दिया करते थे तब जब मुझे उसकी उतनी ज़रुरत नहीं थी

कुछ सूखे फूलों के

कुछ सूखे फूलों के गुलदस्तों की तरह बासी शब्दों के बस्तों को फेंक नहीं पा रहा हूँ मैं गुलदस्ते जो सम्हालकर रख लिये हैं उनसे यादें जुड़ी हैं शब्दों में भी बसी हैं यादें बिना खोले इन बस्तों को बरसों से धरे हूँ फेंकता नहीं हूँ ना देता हूँ किसी शोधकर्ता को बासे हो गये हैं शब्द सूख गये हैं फूल मगर नक़ली नहीं हैं वे न झूठे हैं!

अपमान

अपमान का इतना असर मत होने दो अपने ऊपर सदा ही और सबके आगे कौन सम्मानित रहा है भू पर मन से ज्यादा तुम्हें कोई और नहीं जानता उसी से पूछकर जानते रहो उचित-अनुचित क्या-कुछ हो जाता है तुमसे हाथ का काम छोड़कर बैठ मत जाओ ऐसे गुम-सुम से !

तुम भीतर

तुम भीतर जो साधे हो और समेटे हों कविता नहीं बनेगी वह क्योंकि कविता तो बाहर है तुम्हारे अपने भीतर को बाहर से जोड़ोगे नहीं बाहर जिस-जिस तरफ़ जहाँ -जहाँ जा रहा है अपने भीतर को उस-उस तरफ़ वहाँ -वहां मोड़ोगे नहीं और पहचान नहीं होने दोगे अब तक के इन दो-दो अनजानों की तो तुम्हारी कविता की तुम्हारे गीत-गानों की गूँज-भर फैलेगी कभी और कहीं नहीं खिलेंगे अर्थ बहार के उन बंजरों में जहाँ खिले बिना कुछ नहीं होता गुलाब कुछ नहीं होता हिना कुछ नहीं जाता है ठीक गिना ऐसे में उससे जिसका नाम काल है बड़ा हिसाबी है काल वह तभी लिखेगा अपनी बही के किसी कोने में तुम्हें जब तूम भीतर और बाहर को कर लोगे परस्पर एक ऐसे जैसे जादू-टोने में खाली मुट्ठी से झरता है ज़र झऱ झऱ झऱ

मुझे अफ़सोस है

मुझे अफ़सोस है या कहिए मुझे वह है जिसे मैं अफ़सोस मानता रहा हूँ क्योंकि ज़्यादातर लोगों को ऐसे में नहीं होता वह जिसे मैं अफ़सोस मानता रहा हूँ मेरा मन आज शाम को शहर के बाहर जाकर और बैठकर किसी निर्जन टीले पर देर तक शाम होना देखते रहने का था कारण-वश और क्या कहूँ सभा में जाने की विवशता को मैं शाम को शहर के बाहर नहीं जा पाया न चढ़ पाया इसलिए किसी टीले पर देख नहीं सका होती हुई शाम और इसके कारण जैसा लग रहा है मन को उसे मैं अब तक अफ़सोस ही कहता रहा हूँ लोगों को एक तो ऐसी इच्छा ही नहीं होती होती है तो उसके पूरा न होने पर उन्हें कुछ लगता नहीं है या जो लगता है उसे वे अफ़सोस नहीं कहते मैं आज विजन में किसी टीले पर चढकर देर तक होती हुई शाम नहीं देख पाया जाना पड़ा एक सभा में इसका मुझे अफ़सोस है या कहिए मुझे वह है जिसे मैं अफ़सोस मानता रहा हूँ!

बहुत छोटी जगह

बहुत छोटी जगह है घर जिसमें इन दिनों इजाज़त है मुझे चलने फिरने की फिर भी बड़ी गुंजाइश है इसमें तूफानों के घिरने की कभी बच्चे लड़ पड़ते हैं कभी खड़क उठते हैं गुस्से से उठाये-धरे जाने वाले बर्तन घर में रहने वाले सात जनों के मन लगातार सात मिनिट भी निश्चिंत नहीं रहते कुछ-न-कुछ हो जाता है हर एक के मन को थोड़ी-थोड़ी ही देर में मगर तूफ़ानों के इस फेर में पड़कर भी छोटी यह जगह मेरे चलने फिरने लायक बराबर बनी रहती है यों झुकी रहती है किसी की आँख भृकुटी किसी की तानी रहती है मगर सदस्य सब रहते हैं मन-ही-मन एक-दूसरे के प्रति मेरे सुख की गति इसलिए अव्याहत है कुंठित नहीं होती इस छोटी जगह में जिसे घर कहते हैं और सिर्फ जहाँ इन दिनों चलने फिरने की इजाज़त है मुझे!

इदं न मम

बड़ी मुश्किल से उठ पाता है कोई मामूली-सा भी दर्द इसलिए जब यह बड़ा दर्द आया है तो मानता हूँ कुछ नहीं है इसमें मेरा !

सागर से मिलकर

सागर से मिलकर जैसे नदी खारी हो जाती है तबीयत वैसे ही भारी हो जाती है मेरी सम्पन्नों से मिलकर व्यक्ति से मिलने का अनुभव नहीं होता ऐसा नहीं लगता धारा से धारा जुड़ी है एक सुगंध दूसरी सुगंध की ओर मुड़ी है तो कहना चाहिए सम्पन्न वयक्ति वयक्ति नहीं है वह सच्ची कोई अभिव्यक्ति नहीं है कई बातों का जमाव है सही किसी भी अस्तित्व का आभाव है मैं उससे मिलकर अस्तित्वहीन हो जाता हूँ दीनता मेरी बनावट का कोई तत्व नहीं है फिर भी धनाड्य से मिलकर मैं दीन हो जाता हूँ अरति जनसंसदि का मैंने इतना ही अर्थ लगाया है अपने जीवन के समूचे अनुभव को इस तथ्य में समाया है कि साधारण जन ठीक जन है उससे मिलो जुलो उसे खोलो उसके सामने खुलो वह सूर्य है जल है फूल है फल है नदी है धारा है सुगंध है स्वर है ध्वनि है छंद है साधारण का ही जीवन में आनंद है!

अपने आपमें

अपने आप में एक ओछी चीज़ है समय चीजों को टोड़ने वाला मिटाने वाला बने- बनाये महलों मकानों देशों मौसमों और ख़यालों को मगर आज सुबह से पकड़ लिये हैं मैंने इस ओछे आदमी के कान और वह मुझे बेमन से ही सही मज़ा दे रहा है दस – पंद्रह मिनिट सुख से बैठकर अकेले में मैंने चाय भी पी है लगभग घंटे – भर नमिता को जी खोलकर पढाई है गीता लगभग इतनी ही देर तक गोड़ी हैं फूलों की क्यारियाँ बाँधा है फिर से ऊंचे पर गिरा हुआ चमेली का क्षुप और अब सोचता हूँ दोपहर होने पर बच्चों के साथ बहुत दिनों में बैठकर चौके में भोजन करूंगा हसूंगा बोलूंगा उनसे जो लगभग सह्मे- सह्मे से घुमते रहते हैं आजकल मेरी बीमारी के कारण और फिर सो जाऊंगा दो घंटे समय अपने बस -भर इस सबके बीच भी मिटाता रहा होगा चाय बनाने वाली मेरी पत्नी को गीता पढने वाली मेरी बेटी को चमेली के क्षुप को और मुझको भी मगर मैं इस सारे अंतराल में पकड़े रहा हूँ इस ओछे आदमी के कान और बेमन से ही सही देना पड़ा है उसे हम सबको मज़ा

क्या हर्ज़ है

क्या हर्ज़ है अगर अब विदा ले लें हम एक सपने से जो तुमने भी देखा था और मैंने भी दोनों के सपने में कोई भी फ़र्क नहीं था ऐसा तो नहीं कहूँगा फ़र्क था मगर तफ़सील -भर का मूलतः सपना एक ही था शुरू हुआ था वह एक ही समय एक ही जगह एक ही कारण से मगर उसे देखा था दो आमने – सामने खड़े व्यक्तियों ने इसलिए एक ने ज्यादातर भाग इस तरफ़ का देखा दुसरे ने उस तरफ का एक ने देखा जिस पर डूबते सूरज की किरणें पर रहीं थीं ऐसा एक निहायत ख़ूबसूरत चेहरा लगभग असंभव रूप से सही और सुन्दर नाक घनी भौहें पतले ओंठ घनी और बिखरी केश राशि सरो जैसा क़द और आखें मदभरी न कहो मद भरने वाली तो कह ही सकते हैं और दूसरों ने देखा डूबते सूरज की तरफ़ पीठ थी जिसकी ऐसा एक व्याक्ति लगभग बंधा हुआ- सा अपने ही रूप की डोर से सपने लम्बे लगते हैं मगर वे सचमुच लम्बे नहीं होते हमारे लम्बे लगने वाले सपने में बड़ी- बड़ी घटनाएँ हुईं डूबे बहे उतराये हम सुख – दुख में और फिर जब सपना टूट गया तो हमने आदमी की तमाम जिदों की तरह इस बात की जिद की कि सपना हम देखते रहेंगे मगर बहुत दिनों से सोच रहा हूँ मैं और अब पूछ रहा हूँ तुमसे क्या हर्ज़ है अगर अब विदा ले लें हम उस सपने से जो हमने सच पूछो तो थोड़ी देर एक साथ देखा और जाग जाने पर भी जिसे बरसों से पूरी ज़िद के साथ पकड़े हैं बल्कि पकड़े रहने का बहाना किये हैं!

काफ़ी दिन हो गये

काफ़ी दिन हो गये लगभग छै साल कहो तब से एक कोशिश कर रहा हूँ मगर होता कुछ नहीं है काम शायद कठिन है मौत का चित्र खींचना मैंने उसे सख्त ठण्ड की एक रात में देखा था नंग–धडंग नायलान के उजाले में खड़े न बड़े दाँत न रूखे केश न भयानक चेहरा ख़ूबसूरती का पहरा अंग अंग पर कि कोई हिम्मत न कर सके हाथ लगाने की आसपास दूर तक कोई नहीं था उसके सिवा मेरे मैं तो ख़ूबसूरत अंगों पर हाथ लगाने के लिए वैसे भी प्रसिद्ध नहीं हूँ उसने मेरी तरफ़ देखा नहीं मगर पीठ फेरकर इस तरह खड़ी हो गयी जैसे उसने मुझे देख लिया हो और देर तक खड़ी रही बँध–सा गया था मैं जब तक वह गयी नहीं देखता रहा मैं उसके पीठ पर पड़े बाल नितम्ब पिंडली त्वचा का रंग और प्रकाश देखता रहा पूरे जीवन को भूलकर और फिर बेहोश हो गया होश जब आया तब मैं अस्पताल में पड़ा था बेशक मौत नहीं थी वहां वह मुझे बेहोश होते देखकर चली गई थी तब से मैं कोशिश कर रहा हूँ उसे देखने की लेकिन हर बार क़लम की नोंक पर बन देता है कोई मकड़ी का जाला या बाँध देता है कोई चीथड़-सा या कभी नोक टूट जाती है कभी एकाध ठीक रेखा खींच कर हाथ से छूट जाती है लगभग छै साल से कोशिश कर रहा हूँ मैं मौत का चित्र खींचने की मगर होता कुछ नहीं है!

शून्य होकर

शून्य होकर बैठ जाता है जैसे उदास बच्चा उस दिन उतना अकेला और असहाय बैठा दिखा शाम का पहला तारा काफ़ी देर तक नहीं आये दूसरे तारे और जब आये तब भी ऐसा नहीं लगा पहले ने उन्हें महसूस किया है या दूसरों ने पहले को!

अधूरे ही

अधूरे मन से ही सही मगर उसने तुझसे मन की बात कही पुराने दिनों के अपने अधूरे सपने तेरे क़दमों में ला रखे उसने तो तू भी सींच दे उसके तप्त शिर को अपने आंसुओं से डाल दे उस पर अपने आँचल की छाया क्योंकि उसके थके – मांदे दिनों में भी उसे चाहिए एक मोह माया मगर याद रखना पहले-जैसा उद्दाम मोह पहले -जैसी ममत्व भरी माया उसके वश की नहीं है ज़्यादा जतन नहीं है ज़रूरी बस उसे इतना लगता रहे कि उसके सुख-दुःख को समझने वाला यहीं -कहीं है!

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