Varsha Ki Subaha : Sitakant Mahapatra

वर्षा की सुबह (कविता संग्रह) : सीताकांत महापात्र


आकाश

पेड़-पौधों, गाँव-द्वार से बना है जो नील दिगंत सुदूर, उसी पर कभी एक थके-हारे पथिक-सा कभी उतावले प्रेमी-सा झुका होता है जो उसी का नाम है आकाश। गहरे खेत के एकाकी ताड़ वृक्ष को इतनी सुंदर शून्यता के प्रेम में बाँधे रखता है जो माँ यशोदा बन बाल कृष्ण को भींचकर अपनी गोद में उसी अनभूली स्नेहमयी विभूति का नाम है आकाश। सन्सन् शून्य छाती पर अकेले घर लौटते निर्जन कतार के कतार, झुंड के झुंड पक्षियों को उड़ा देता है, हँसाता है, रिझाता है, नचाता है रंग-बिरंगे बादलों को, पल में घुप्प काले बादलों की छाया में नचाता है मोरों को, रुलाता है प्रेमियों को सिंदूर के टीप-सा थाप देता है सारे सृष्टि के जनक सूर्यदेव को, ब्रह्मचारी के ललाट पर चंदन के टीक-सा पूनो के चाँद को, राह छोड़ देता है चौतरफा अधीर हवा के लिए उसी सज्जन जादूगर का नाम है आकाश । हर जगह होता है- सैकड़ों जलघटों में, गोष्पद सलिल में निर्जन सिंधु में, झिलमिल ओस की बूंदों में हालाँकि कब नहीं था-कहाँ नहीं होता उसी अंतिम अनुपस्थिति का नाम तो है आकाश। कार्य और कारण का, जनम और मरण का क्रीतदास, पग-पग पर हँसी-रुलाई, हानि-लाभ कर्मवश देखता हूँ मैं शून्यता को और पूछता हूँ, आत्माराम, शून्यमय ओ निरंजन बनूँगा नहीं क्या मैं कभी आकाश?

दिन

यह खिलखिलाकर हँसता मुखरित होता सबेरा, यह दिन अब धीरे-धीरे सुरझा जाएगा, झर जाएगा अँधेरे की गोद में जैसे हर दिन मुरझा जाता है, झर जाता है बह जाएगा, जहाँ बह जाता है हर दिन। उसके बाद रात में जागते पहरेदार, तारे और झींगुर संशय और अज्ञानता से मुक्ति चाहते जुगनू की व्यथित गुहारें। बीत जाता है दिन ले जाता है साथ सबको पिता, भाई, पति, पत्नी, घर, पेड़ खिलौने, गुस्सा, अभिमान, खीझ थकान और हताशा को ले जाता है सपने, दुःख, भूख, अप्राप्ति पाप, पुण्य, लाभ, लोभ, क्षोभ, घुटन को । जाता है, चला जाता है दिन डूबते सूर्य के साथ, खो जाता है घर लौटती चिड़ियों के पंखों में, चुप हो जाता, ठिठक जाता है हवा की बोझिल साँसों में, हाथ बढ़ाने पर फिर छुआ नहीं जाता उसको उसके धीमे प्रकाश और स्पष्ट शुभ्रता को। अँधेरा बढ़ने पर हम नहीं होते पूरे आकाश में लाखों तारे दीप जलाकर सोये होते हैं असहाय-से इधर-उधर एक दूसरी दुनिया में पशु-पक्षी, स्थावर, जंगम ईश्वर, मानव, द्रुम, कीट, विहंग। फिर होता है सबेरा लाल टहटह होंठ तुतला सबेरा दूसरी दुनिया से लौटते सभी को फिर से, सैकड़ों करोड़ों बार तलाश लेता है सभी अपनी-अपनी जगह होते हैं पूर्ववत् रास्ता किनारे पेड़, पेड़ की डाल पर चिड़िया का घोंसला चिड़िया के घोंसले में कलरव कलरव में दुःख-शोक भूलकर कृतज्ञता, प्रार्थनाएँ और मिन्नतें। तलाश लेता है उसी दूसरी दुनिया से लौट रहे तुम्हें तुम्हारी थकान, सपनों, सिसकियों और निर्जनता को खोयी हुई माया, खुल गई वेणी खोये हुए कनफूल, मौन पड़े शब्दों को। तलाश लेता है मुझे मेरा पिछला दिन, पिछले जन्म का शोक नए आनंद, नई पीड़ा के सा-रे गा-मा नए सपनों की शब्दलिपि को क्रमशः खुल रहे विस्मय की शुभ्र ज्योतिरेखा को।

वर्षा की सुबह

आया है वर्षा-काल घन बरसता लगातार बज रही दुंदुभि बादलों की काँप उठी है सुबह। लग-लगकर कोमल अंगुलियाँ बारंबार वर्षा की मिट चुके हैं सफेद अक्षर कई फाटक की नीले नामपट्ट से। भीगा हुआ जाता है स्कूल बालक एकाकी, पर बंद हैं किवाड़ खिड़कियाँ सारी राह किनारे सभी घरों की मानो नहीं है कोई उस गाँव में अनंतकाल से हो गए हों तितर-बितर सभी भय से वर्षा के सुन पड़ता है प्रहार वज्र का घुप्प काले बादलों के लोहारखाने से। सोया है घर में कौन ? उदास माँ-बाप? निश्चिंत समय? गाढ़ी काली मृत्यु का भय ? देख घटा मोर की तरह हैं अधीर मृत्यु और बालक के मन। खत्म हुई छुट्टियाँ बालक की आ पहुँची घड़ी यह समझने की चुक जाते हैं सुख सारे कभी न कभी आई है वर्षा अब मृत्यु है लंबी छुट्टी पर दूर परदेस में, विरही जीवन चाहता है खो जाना चुपके से बादलों के शुभ्र मल्हार करुण राग में। आ जाता है खुद ही पकड़ में स्वप्न राह भूली तितली-सा, एकाकी बदरारी लग्न में कुछ सोच उठ खड़ी होती हो तुम करती हो इस्त्री पोशाक मेरी टाँग देती हो उसे (मानो अगले जन्म के लिए) वहाँ अरघनी पर लगती है जो किसी धुले-उजले कंकाल-सी।

बिना हमारी मदद के

कभी-कभी समय के द्वार और खिड़की सहसा खुल जाते हैं अप्रत्याशित न जाने किस अनुपस्थित अनजान हवा के झोंके से, अनजाने का हाथ बढ़ आता है परछाईं की तरह दूर दिगंत से छू जाता है मेरी स्थिति को बड़े स्नेह से। देखता हूँ उसके हाथ में लिपिबद्ध हैं कई वायदों के चिह्न स्नेह प्रेम करुणा के असंख्य विराम-चिह्न नई योजनाओं और नई भावनाओं की चित्रांकन की तमाम रूपरेखाएँ असंख्य मूर्तियाँ। जी कहता है करना होगा आविष्कार फिर एक बार, काँटे और झाड़ियाँ लाँघ, अनजाने और अद्भुत भूगोल का, आकाश, समुद्र, तारे, नदी, वन, फूल मृत्यु, सपने, यंत्रणाओं के तमाम रास्ते पार कर, खलिहान लाएँगे ढोकर स्मृति-फसल। दिगंत का पाट लाँघ आता है अपूर्व प्रकाश समय का शुभ्र दमकता चेहरा दिखता है सामने उस दिन के उज्ज्वल मुँह में जो खड़ा है मौनी बाबा-सा कमरे में मेरे सामने अपनी इच्छा का गुलाम है बिना किसी की मदद के। ऐसा तो हमेशा होता रहा है हर युग में समय ही सब कर जाता है बिना हमारी मदद के पेड़ों पर फूल खिलाकर, पत्ते गिराकर हँसाता है कलियों और चिड़ियों को फिर मार डालता है, नीरवता से, अँधेरे से भर देता है समग्र आकाश कभी, दौड़ जाता है चारों ओर- प्रस्थान और विदाई का संक्षिप्त आभास।

मृत्यु

आना हो तो आओ क्या मालूम नहीं तुम्हें तुम्हारे उस आकाश की ओर उन्मुख हूँ मैं हमेशा से आओ, आकर बैठो मेरे पास । धूल में धूसर आत्मा सिर्फ रोती है रोती है दिन-रात वही विमुग्धा पुतली आनंद से, आँसुओं से, है राधा-सी सदा वह पगली। पहाड़ के मचान पर, सुदूर उपत्यका में बेमौसम बरसात में करुण साँझ की किस उदास बाँसुरी की पुकार से अप्रतिभ पवन में, बावली सुबह में उड़ा है चिड़िया बन यह हृदय है आकाश तो बहुत दूर। घास बन, धूल-अंगार को नए सपनों की हरियाली से ढाँप फूल खिलने से पहले धूप का गुस्सा सह हुआ है यह हृदय चिरकाल दग्ध घोर तूसानल से चर्म-घिरे चौरासी अन्नमय पिंड लिए हाट-बाजार की क्षुधा तमाम अंगार राख पीठ पर लादे कछुआ-सा नीरवता-वामन के तृतीय डग से हाय घुसी है पाताल में चिरकाल। आना हो तो आओ मोतियाबिंद से घिरी आँखों से पोंछकर सारी धूल और अंगार मेरी आत्मा से क्या तुम्हें नहीं मालूम मैं हूँ तुम्हारी ही प्रतीक्षा में आँखें खुली हैं जिस दिन से ? दबे पाँव चले आओ, पास बैठो ज़रा।

नारी

अक्सर लगती है दूर जैसे किसी की नहीं, पर है सबकी बादल-सी, चाँद-सी और आकाश-सी। उसके कदमों की धीमी-धीमी आहट से, अलता के किनारे-किनारे नूपुर की रुनझुन में कौन आता है ? मृत्यु या फागुन ? पलक झपकते कौन खड़ा हो जाता है आकर इहलोक, अपार दुःख और यादों का अंबार? परलोक, सुनसान क्षणों में अनभूले, अधभूले पक्षियों की पुकार ? कभी सुन पड़ती है, कभी नहीं कूक निर्मम कोयल की, पलाश में रक्त का क्रंदन। एक तारा सिर्फ एक तारा न जाने किस जन्म से, न जाने किस शून्य से किसलिए किस लोभ से धीरे-धीरे भारी होता चला जाता है, गिर पड़ता है आसमान से अभिशप्त, अर्धदग्ध किसी की मुट्ठी में, इतने में पुनः सुनाई देती है खोये चाँद की आतुर पुकार बुझे दीये की महक रक्त-माँस के शहर में, हड्डियों की गली में, मंदिर की घंटियों की ध्वनि ज़रा-सी ओस में साँझ की गीली हवा में जन्म जन्मांतर फलाँग दुःख शोक रोग और यंत्रणा उलाँघ क्षीण दीपशिखा-सी किलबिल अँधेरे में है तैरती। न जाने कितनी स्मृतियों के शव, कितनी आशाओं, कामनाओं के फूल ढो लाती है वह कछुए-सी। रक्त पुते आकाश-सा है रंग उसका आँखें हैं उसकी घनी नीली समुद्र-लहरें। एक हाथ में है उसके निद्रादायी हलाहल दूसरे में उज्जीवन, नील-स्वप्न का भ्रूण वह है सारा इहलोक, परलोक मृत्यु और फागुन। परछाइयों से घिरा नाभिपद्म है स्तब्ध उस काव्य-इलाके में, फागुन का, कामना के पलाश का, और मृत्यु का करते हैं आवाहन शब्द मेरे चिरकाल।

अनामिका

घनघोर अँधेरे में स्तब्ध, मूक पर्वत की कमर में एक आर्त स्वर "ले गया", "ले गया" गूंज उठा और पसर गया समुद्र की लहर बन आदिगंत चौदह भुवन को पाट गया, व्याप्त हो गया पछाड़ खाकर रोया, उजड़ा, उजाड़ा शून्य में उड़ गया उसके बाद आकाश, तारे सुनसान ससागरा धरा गहन कानन वन फिर शांत हो गए विराज गई घनघोर रात्रि। व्यथित मंथित वह शब्द सारी यंत्रणाओं का वह शेष श्लोक परम सत्व असहाय प्राणियों की आर्त पुकार कौन जाने देवताओं को सुनाई दी या नहीं। शेर के पंजे से पूर्वाशा में रक्त छिटे आकाश में इतना बड़ा छेद दम दम दमकता उगता सूर्य समय का परदा भी छिन्न भिन्न बावजूद इन सबके चारों ओर पृथ्वी के परिचित रंग और खेल। . झरना-किनारे, महुआ की छाया में आजन्म मातृहीन सुबह पितृहीन अभागा बच्चा असमय ही मुरझाया एक फूल अहा आकाश को सारी सृष्टि के उसी आदिमूल उगते सूर्यदेव को ताक रहा था। कुछ पूछने-सा भाव उसके चेहरे पर अँधेरे में ज्योति-सा अशब्द शब्द-सा पसर गया चुपचाप। एक गाँव, एक बच्चा होता है वहाँ उसी मूक और निर्वाक् पर्वत की कमर में महुए की छाया में, झरना-किनारे इतिहास, देवता या मनुष्य भला कौन जानता है ? कौन पूछता है ?

हम

मिट्टी के गर्भ में, सीने के हाड़ तले तमाम अँधेरा लबालब भर जाने पर तमाम काली रातें, तमाम दुःख और संताप की आँच उफन पड़ने पर एक धान अँकुराता है, एक शब्द से अर्थ फूटता है हरा पत्ता बोल उठता है, अर्थ गुनगुनाता है हम जानते हैं भाई, हम जानते हैं। सूने खेत में, सन्नाटा भरे शून्य में काम है हमारा सिर्फ रोपते चले जाना अर्थ के बोझ से झुकते जा रहें आँसुओं से लथपथ, मुस्कान से सराबोर जादुई शब्द पास-पास गर्दन झुकाए, कमर तोड़े, झुककर जलाते जाना अँधेरी रात में, काले बादलों तले एक-एक कर नन्हे-नन्हे शब्दों की बाती मच्छर डाँस, जंगली घास ऊसर मन की अनबुझ प्यास अबूझ उदासीनता के चाबुक की मार हवा, बतास, पीड़ा, जाड़ा भाई रे हम जानते हैं, हम जानते हैं। नीचे सर्वसहा पुराण अक्षर माटी ऊपर तारों-भरा मोर-नील आकाश वही है वह खुला पड़ा कविता का मुक्त आँगन हरित हृदय-प्रदेश दीवार या खाई, फाटक या घेरा नहीं स्वर्ग-नरक, शत्रु-मित्र, हँसी-रुलाई, धूप-छाँव सारे दुःख, सारे शोक, सारी हँसी अनभूली सबको दिल खोलकर, हँसते हुए खिल-खिल, हाथ उठाए चिरकाल भाई रे हमने पुकारा है, हमने पुकारा है। हमारी पुकार सुन झुक आते चारों मेघ, पूरे आकाश को ढक सूखी जड़ों में पानी डालते ब्रह्मा मंत्र पढ़ते शब्द लगते हैं सिहरने, लहराते हैं हवा बहती है सिलसिल लुकाछिपी खेल-खेलकर सूर्य नीचे कूदकर, झूलता है झूला चाँद तारे सो जाते हैं ओस की ढुलमुल बूंदों-से सहज शब्दों की गोद में गूढ अर्थों में। कितने जन्म कितनी मृत्यु लग जाती है कितने युग बीत जाते हैं नहीं होता खेल ख़त्म कितना खून कितने अश्रु कितनी खुशियाँ कितनी सिसकियाँ बीत जाती हैं मन तो नहीं मरता सूर्य, चंद्र, मिट्टी, पानी, हवा की महक से गुनगुनाते हैं शब्द व्यंजना लिए अर्थ की इस देह के पेड़ की डाल पर पत्ते, फूल और फल लगते हैं पेड़ तो नहीं मरता कैसा जादू कैसा अद्भुत आनंद और वेदना का अभिषेक ! भाई रे हम पहचानते हैं, हम पहचानते हैं। यदि कभी अकाल पड़ता है, ज़मीन फटती है हृदय मर जाता है, शब्द का अर्थ चुक जाता है सुनसान खेत में पौधा मुरझा जाता है, मन उदास हो उठता है एक अधमरी चिड़िया चोंच खोलती है हम सिर पर हाथ धरकर बैठे तो नहीं यदि हवा बारिश गरजती हुई आए काली जीभ से हरा रस, शब्द-हँसी चाट जाए, हम किसी पर दोष मढ़कर बैठे तो नहीं रहे उदास आकाश तले, मृत्यु शोक वेदना की भीड़ में हमारा भाग्य हम खुद ही हैं भाई जानते हैं, हम जानते हैं। तोराणि1 पर पड़ रही है परछाईं सुदूर पहाड़ के साम्राज्य की मुकुट और राजदंड, धर्मग्रंथ नामावली विक्षोभ और रक्तपात, नारे और तालियाँ अंतहीन अर्थहीन भाषण की शेषहीन विद्वेष की नन्हे शिशु शब्दों ने आँख खोल देखी है लगाकर कान सुनी है खनक तलवार की देखे-सुने हैं बिगुल और मार्चिंग गीत रुलाई और संकीर्तन न जाने कितने गायत्रीमंत्र पकड़ो-पकड़ो, मारो-मारो की चीत्कार और रिरियाहट "मैं आया, मैं आया" की आवाज़ नवजातक की खाली पड़े खेत की सूखी छाती में, हमारा काम है सिर्फ रोपते चले जाना सुकुमार पौधे, हँसी के फव्वारे पास-पास वेदना मृत्यु ऊसर जमीन में, हमारा काम है केवल जोड़ते चले जाना सांत्वना भरे सरल शब्द एक-एक कर पास-पास भाई रे हम जानते हैं, हम जानते हैं। 1. बासी भात का पानी (पखाल)

प्रांतर

चिरकाल मेरी आँख निकाल लेता है सूर्य कुछ लोग तो पट्टी बाँध आँखों में अस्वीकारते हैं सूर्य को, पर मैं तो हूँ देखने की शक्ति से वंचित चुरा लिये हैं सूर्य ने प्रकाश के सारे स्वप्न-गीत। फर्क नहीं पड़ता मुझे कोई जय पराजय से सत्य असत्य धर्म अधर्म के संघर्ष से वे द्वैत की सीमा रेखाएँ अस्पष्ट दिखती हैं सदा मुझे प्रकाश और अंधकार मिलकर रहते हैं एकाकार मेरे लिए। रात होने पर, आकाश में असंख्य तारा-फूल खिलने पर सुनाई देते हैं मुझे अंतहीन सिसकियों और रुलाई के स्वर तुम्हारे ही लिए बरसते थे वे अभिशाप, एक आदमी के ख्याल से यह सारी विभीषिका है, नर्क और रक्त का ज्वार । तुम्हारा भी कुछ नहीं जाता हानि-लाभ, जय-पराजय, हँसी-रुलाई से कामना-वर्जित तुम्हारी सत्ता नहीं समझती सुख-दुःख आसक्ति बिना मारती है सबको, मरवाती है रोती है, रुलाती है दिन शेष होने पर युद्ध शेष होने पर बैकुंठ लौटता रथ तैयार रहता है हरदम । अपनी ही तरह, कुरुक्षेत्र की तरह मुझे भी बनाओ एक निरपराधी निरीह प्रांतर अग्नि-लपट रुलाई और यंत्रणा का अंधे सूर्य की हताशा और मोह मुक्ति का एक उन्मुक्त पृष्ठभूमि शून्यता को शब्दों की सस्नेह श्रद्धांजलि।

शब्द अब शब्द नहीं

उस वक़्त कितनी रात थी? सहसा नींद से जगकर तुम्हें बिस्तर पर न देख समझ गया बरामदे में बैठी पुनः खो गई होगी तुम नभ मंडल के उसी नक्षत्र मेले में नीरवता-बाँसुरी के सुमधुर गूंजते स्वर में। रसोई घर की आग, नमक तेल के तमाम झमेलों में बच्चों के कपड़े लत्तों, खाता-बही, लाखों दावाभरी जिदों में रोग-शोक यातनाओं की सीढ़ी दर सीढ़ी गुस्से रोष के मुरझाए लग्न में जानता हूँ काफी दिनों से तुम सुनने लगी हो वह भिन्न स्वर जो गुनगुनाते हुए गूंज रहा है दिन-रात चारों ओर। नदी की बाढ़ ज्यों डुबोए रखती है मेढ़-घेरा, गड्ढे-खेत, तमाम बाड़। शब्द अब शब्द नहीं दुःख नहीं अब महज दुःख किस जादुई स्पर्श से उतर जाती है अब शब्द से, दुःख से, मुरझायी केंचुली बच्चों के सुलेख में तारे टिमटिमाते हैं मैली कमीज़ में देता है सुनाई तारे का स्पंदन क्या इसीलिए थी तपस्या, प्रतीक्षा सारी तो क्या यही है असली जीवन। क्या घटित होता है जीवन में ऐसा कि बदल जाते हैं सहसा जीवन के तमाम परिचित रूप रंग सुन पड़ता है बाँसुरी का वही अनभूला स्वर पानी के मटके में समुद्र नाचता है और टकराता है टूट जाती है रट्-राट् सारी पुरानी गाँठे और डोर बंधन की। प्रियतमा, तुम खो गई थीं आकाश में पश्चिमी आकाश के तारे की रोशनी में लगा तुम हो एक छायामूर्ति और इस तरह मैं मिला तुमसे कितने जन्म जन्मांतरों के बाद। अब तुम्हें सौंपता हूँ फिर एक बार तारे की रोशनी और मेघहीन रात्रि आकाश रात्रि तट पर घोंघे हैं हम दो, सुन रही है विमोहित हो स्मृति-संगीत शून्यता में नभचारी नक्षत्र से, रोशनी की आँच।

साँझ

"देखो ना, कितना सुंदर और सुहावना है यह सूर्यास्त इस दुनिया की यह अनभूली छवि क्यों है आँखों में आँसू देखो नजरें उठाकर चारों ओर है स्वप्न और संभावनाओं की प्रीति और प्रतीति की असंख्य आरक्त करबी।" “यह दुनिया, यह सूर्यास्त संभव नहीं भूलना लगता है देखा है इन्हें पहले भी शायद पिछले जन्म में भुलाई जा सकती है भला यह अद्भुत छवि ? इसीलिए तो छलक आए हैं आँसू अकारण ही आँखों में। सुन रहे हो ना अनभूली शोभा तले अति सूक्ष्म, अति क्षीण अनजानी वेदना और बिदाई की करुण पूरबी ?"