वर्णिक छंदों की कविताएँ : बासुदेव अग्रवाल 'नमन' Varnik Chhand : Basudeo Agarwal Naman



1. देश की हालत

(पंक्तिका छंद) स्वार्थ में सनी राजनीति है। वोट नोट से आज प्रीति है। देश खा रहे हैं सभी यहाँ। दौर लूट का देखिये जहाँ।। त्रस्त आज आतंक से सभी। देश की न थी ये दशा कभी। देखिये जहाँ रक्त-धार है। लोकतंत्र भी शर्मसार है।। शील नारियाँ हैं लुटा रही। लाज से मरी जा रही मही। अर्थ पाँव पे जो टिकी हुई। न्याय की व्यवस्था बिकी हुई।। धूर्त चोर नेता यहाँ हुये। कीमतें सभी आसमाँ छुये।। देश की दशा है बड़ी बुरी। वृत्ति छा गयी आज आसुरी।। ============= *पंक्तिका छंद* विधान:- "रायजाग" ये वर्ण राख के। छंद 'पंक्तिका' धीर चाखते।। "रायजाग"=रगण यगण जगण गुरु (212 122 121 2) = 10 वर्ण। चार चरण दो दो समतुकांत।

2. देहाभिमान

(पंचचामर छंद) कभी न रूप, रंग को, महत्त्व आप दीजिये। अनित्य ही सदैव ये, विचार आप कीजिये।। समस्त लोग दास हैं, परन्तु देह तुष्टि के। नये उपाय ढूँढते, सभी शरीर पुष्टि के।। शरीर का निखार तो, टिके न चार रोज भी। मुखारविंद का रहे, न दीप्त नित्य ओज भी।। तनाभिमान त्याग दें, कभी न नित्य देह है। असार देह में बसा, परन्तु घोर नेह है।। समस्त कार्य ईश के, मनुष्य तो निमित्त है। अचेष्ट देह सर्वथा, चलायमान चित्त है।। अधीन चित्त प्राण के, अधीन प्राण शक्ति के। अरूप ब्रह्म-शक्ति ये, टिकी सदैव भक्ति के।। अतृप्त ही रहे सदा, मलीन देह वासना। तुरन्त आप त्याग दें, शरीर की उपासना।। स्वरूप 'बासुदेव' का, समस्त विश्व में लखें। प्रसार दिव्य भक्ति का, समग्र देह में चखें।। ================ *पंचचामर छंद* विधान:- लघु गुरु x 8 = 16 वर्ण, यति 8+8 पर। चार चरण दो दो समतुकांत।

3. माँ के आँसू

(पद्ममाला छंद) आँख में अश्रु लाती हो। बाद में तू छुपाती हो।। नैन से लो गिरे मोती। आज तू मात क्यों रोती।। पुत्र सारे हुए न्यारे। जो तुझे प्राण से प्यारे।। स्वार्थ के हैं सभी नाते। आँख में नीर क्यों माते।। रीत ये तो चली आई। हैं न बेटे सगे भाई।। व्यर्थ संसार में सारे। नैन से क्यों झरे तारे।। ईश की आस ही सच्ची। और सारी सदा कच्ची।। भक्त की टेक ले वे ही। धीर हो सोच तू ये ही।। ========== *पद्ममाला छंद* विधान:- "रारगागा" रखो वर्णा। 'पद्ममाला' रचो छंदा।। "रारगागा" = [रगण रगण गुरु गुरु] (212 212 2 2) 8 वर्ण/चरण,4 चरण, 2-2 चरण समतुकांत।

4. श्याम शरण

(पवन छंद) श्याम सलोने, हृदय बसत है। दर्श बिना ये, मन तरसत है।। भक्ति नाथ दें, कमल चरण की। शक्ति मुझे दें, अभय शरण की।। पातक मैं तो, जनम जनम का। मैं नहिं जानूँ, मरम धरम का।। मैं अब आया, विकल हृदय ले। श्याम बिहारी, हर भव भय ले।। मोहन घूमे, जिन गलियन में। वेणु बजाई, जिस जिस वन में।। चूम रहा वे, सब पथ ब्रज के। माथ धरूँ मैं, कण उस रज के।। हीन बना मैं, सब कुछ बिसरा। दीन बना मैं, दर पर पसरा।। भीख कृपा की, अब नटवर दे। वृष्टि दया की, सर पर कर दे।। ============== *पवन छंद* विधान:- "भातनसा" से, 'पवन' सजति है। पाँच व सप्ता, वरणन यति है।। "भातनसा" = भगण तगण नगण सगण 211 221 111 112 = 12 वर्ण, यति 5,7 चार चरण दो दो समतुकांत।

5. सावन छटा

(पावन छंद) सावन जब उमड़े, धरणी हरित है। वारिद बरसत है, उफने सरित है।। चातक नभ तकते, खग आस युत हैं। मेघ कृषक लख के, हरषे बहुत हैं।। घोर सकल तन में, घबराहट रचा। है विकल सजनिया, पिय की रट मचा।। देख हृदय जलता, जुगनू चमकते। तारक अब लगते, मुझको दहकते।। बारिस जब तन पे, टपकै सिहरती। अंबर लख छत पे, बस आह भरती।। बाग लगत उजड़े, चुपचाप खग हैं। आवन घर उन के, सुनसान मग हैं।। क्यों उमड़ घुमड़ के, घन व्याकुल करो। आ झटपट बरसो, विरहा सब हरो।। हे प्रियतम लख लो, तन का लरजना। आ कर तुम सुध लो, बन मेघ सजना।। ================= *पावन छंद* विधान:- "भानजुजस" वरणी, यति आठ सपते। 'पावन' यह मधुरा, सब छंद जपते।। "भानजुजस" = भगण नगण जगण जगण सगण यति आठ सपते = यति आठ और सात वर्ण पे। 211 111 121 121 112 = 15 वर्ण,यति 8,7 चार चरण दो दो समतुकांत।

6. रामनवमी

(पुट छंद) नवम तिथि सुहानी, चैत्र मासा। अवधपति करेंगे, ताप नासा।। सकल गुण निधाना, दुःख हारे। चरण सर नवाएँ, आज सारे।। मुदित मन अयोध्या, आज सारी। दशरथ नृप में भी, मोद भारी।। हरषित मन तीनों, माइयों का। जनम दिवस चारों, भाइयों का।। नवल नगर न्यारा, आज लागे। इस प्रभु-पुर के तो, भाग्य जागे।। घर घर ढ़प बाजे, ढोल गाजे। गलियन रँगरोली, खूब साजे।। प्रमुदित नर नारी, गीत गायें। जहँ तहँ मिल धूमें, वे मचायें।। हम सब मिल के ये, पर्व मानें। रघुवर-गुण प्यारे, ही बखानें।। ============= *पुट छंद* विधान:- "ननमय" यति राखें, आठ चारा। 'पुट' मधुर रचाएं, छंद प्यारा।। "ननमय" = नगण नगण मगण यगण 111 111 22,2 122 = 12वर्ण,यति 8,4 चार चरण दो दो समतुकांत।

7. बसंत-छटा

(पुटभेद छंद) छा गये ऋतुराज बसंत बड़े मन-भावने। दृश्य आज लगे अति मोहक नैन सुहावने। आम्र-कुंज हरे चित, बौर लदी हर डाल है। कोयली मधु राग सुने मन होत रसाल है।। रक्त-पुष्प लदी टहनी सब आज पलास की। सूचना जिमि देवत आवन की मधुमास की।। चाव से परिपूर्ण छटा मनमोहक फाग की। चंग थाप कहीं पर, गूँज कहीं रस राग की।। ठंड से भरपूर अभी तक मोहक रात है। शीत से सित ये पुरवा सिहरावत गात है।। प्रेम-चाह जगा कर व्याकुल ये उसको करे। दूर प्रीतम से रह आह भयावह जो भरे।। काम के सर से लगते सब घायल आज हैं। देखिये जिस और वहाँ पर ये मधु साज हैं।। की प्रदान नवीन उमंग तरंग बसंत ने। दे दिये नव भाव उछाव सभी ऋतु-कंत ने।। ================== *पुटभेद छंद* विधान:- "राससाससुलाग" सुछंद रचें अति पावनी। वर्ण सप्त दशी 'पुटभेद' बड़ी मन भावनी।। "राससाससुलाग"=रगण सगण सगण सगण सगण लघु गुरु। (212 112 112 112 112 1 2) 17 वर्ण प्रति चरण, 4 चरण,2-2 चरण समतुकान्त।

8. राम-वंदन

(पुण्डरीक छंद) मेरे तो हैं बस राम एक स्वामी। अंतर्यामी करतार पूर्णकामी।। भक्तों के वत्सल राम चन्द्र न्यारे। दासों के हैं प्रभु एक ही सहारे।। माया से आप अतीत शोक हारी। हाथों में दिव्य प्रचंड चाप धारी। संधानो तो खलु घोर दैत्य मारो। बाढ़े भू पे जब पाप आप तारो।। पित्राज्ञा से वनवास में सिधाये। सीता सौमित्र तुम्हार संग आये।। किष्किन्धा में हनु सा सुवीर पाई। लंका पे सागर बाँध की चढ़ाई।। संहारे रावण को कुटुंब साथा। गाऊँ सारी महिमा नवाय माथा।। मेरे को तो प्रभु राम नित्य प्यारे। वे ऐसे जो भव-भार से उबारे।। सीता संगे रघुनाथ जी बिराजे। तीनों भाई, हनुमान साथ साजे।। शोभा कैसे दरबार की बताऊँ। या के आगे सुर-लोक तुच्छ पाऊँ।। ये ही शोभा मन को सदा लुभाये। ये सारे ही नित 'बासुदेव' ध्याये।। वो अज्ञानी चरणों पड़ा भिखारी। आशा ले के बस भक्ति की तिहारी।। =============== *पुण्डरीक छंद* विधान:- "माभाराया" गण से मिले दुलारी। ये प्यारी छंदस 'पुण्डरीक' न्यारी।। "माभाराया"=मगण भगण रगण यगण (222 211 212 122) 12 वर्ण प्रति चरण, 4 चरण,2-2 चरण समतुकान्त।

9. मधुर मिलन

(प्रतिमाक्षरा छंद) सजती सदा सजन से सजनी। शशि से यथा धवल हो रजनी।। यह भूमि आस धर के तरसे। कब मेघ आय इस पे बरसे।। लगता मयंक नभ पे उभरा। नव चाव रात्रि मन में पसरा।। जब शुभ्र आभ इसकी बिखरे। तब मुग्ध होय रजनी निखरे।। सजना सजे सजनियाँ सहमी। धड़के मुआ हृदय जो वहमी।। घिर बार बार असमंजस में। अब चैन है न इस अंतस में।। मन में मची मिलन आतुरता। अँखियाँ करे चपल चातुरता।। उर में खिली मदन मादकता। तन में बढ़ी प्रणय दाहकता।। ============= *प्रतिमाक्षरा छंद* विधान:- "सजसासु" वर्ण सज द्वादश ये। 'प्रतिमाक्षरा' मधुर छंदस दे।। "सजसासु" = सगण जगण सगण सगण 112 121 112 112 = 12 वर्ण। चार चरण, दो दो समतुकांत।

10. विकल मन

(प्रहरणकलिका छंद) मधुकर तुम क्यों गुनगुन करते। सुलगत हिय में छटपट भरते।। हृदय रहत आकुल अब नित है। इन कलियन में मधु-रस कित है।। पुहुप पुहुप पे भ्रमण करत हो। विरहण सम आतुर विचरत हो।। भ्रमर परखलो सब कुछ बदला। गिरधर बिन तो कण कण पगला।। नयन विकल मोहन-रस रत हैं। हरि-छवि चखने मग निरखत हैं।। यह तन मन नीरस पतझड़ सा। जगत लगत पाहन सम जड़ सा।। शुभ अवसर दो तव दरशन का। व्यथित रस चखूँ दउ चरणन का।। नटवर प्रकटो सुखकर वर दो। सरस अमिय जीवन यह कर दो।। =============== *प्रहरणकलिका छंद* विधान:- "ननभन लग" छंद रचत शुभदा। 'प्रहरणकलिका' रसमय वरदा।। "ननभन लग"=नगण नगण भगण नगण लघु गुरु 111 111 211 111+लघु गुरु =14 वर्ण चार चरण, दो दो समतुकांत उदाहरण:- गणपति-छवि अन्तरपट धर के। नित नव रस में मन सित कर के।। गजवदन विनायक जप कर ले। कलि-भव-भय से नर तुम तर ले।।

11. राम कृपा (बिंदु छंद)

सत्यसनातन, ये है ज्ञाना। भक्ति बिना नहिं, हो कल्याना।। राम-कृपा जब, होती प्राणी। हो तब जागृत, अन्तर्वाणी।। चक्षु खुले मन, हो आचारी। दूर हटे तब, माया सारी।। प्रीत बढ़े जब, सद्धर्मों में। जी रहता नित, सत्कर्मों में। राम समान न, कोई देवा। इष्ट धरो अरु, चाखो मेवा।। नित्य जपे नर, जो भी माला। दुःख हरे सब, वे तत्काला। पाप भरी यह, मेरी काया। मैं नतमस्तक, हो के आया।। राम दयामय, मोहे तारो। कष्ट सभी प्रभु, मेरे हारो।। ============ *बिंदु छंद* विधान:- "भाभमगा" यति, छै ओ' चारी। 'बिंदु' रचें सब, छंदा प्यारी।। "भाभमगा" = भगण भगण मगण गुरु (211 211, 222 2) 10 वर्ण,4 चरण,(यति 6-4) दो-दो चरण समतुकांत।

12. बसंत पंचमी (बुदबुद छंद)

सुखद बसंत पंचमी। पतझड़ शुष्कता थमी।। सब फिर से हरा-भरा। महक उठी वसुंधरा।। विटप नवीन पर्ण में। कुसुम अनेक वर्ण में।। खिल कर झूमने लगे। यह लख भाग्य ही जगे।। कुहुक सुनाय कोयली। गरजत मन्द बादली।। भ्रमर-गुँजार छा रही। सरगम धार सी बही।। शुभ ऋतुराज आ गया। अनुपम चाव छा गया।। कलरव दिग्दिगंत में। मुदित सभी बसंत में।। ========= *बुदबुद छंद* विधान:- "नजर" सु-वर्ण नौ रखें। 'बुदबुद' छंद को चखें।। "नजर" = नगण, जगण, रगण (111 121 212) 9 वर्ण,4 चरण दो-दो चरण समतुकांत

13. कृष्ण-विनती (भक्ति छंद)

दो भक्ति मुझे कृष्णा। मेटो जग की तृष्णा।। मैं पातक संसारी। तू पापन का हारी।। मैं घोर अनाचारी। तू दिव्य मनोहारी।। चाहूँ करुणा तेरी। दे दो न करो देरी।। वृंदावन में जाऊँ। शोभा ब्रज की गाऊँ।। मैं वेणु सुनूँ प्यारी। छानूँ धरती न्यारी।। गोपाल चमत्कारी। तेरी महिमा भारी।। छायी अँधियारी है। तू तो अवतारी है।। आशा मन में धारे। आया प्रभु के द्वारे।। गाऊँ नित केदारी। आभा वरनूँ थारी।। ये 'बासु' रचे गाथा। टेके दर पे माथा।। दो दर्श उसे नाथा। राखो सर पे हाथा।। ========= *भक्ति छंद* विधान:- "तायाग" सजी क्या है। ये 'भक्ति' सुछंदा है।। "तायाग" = तगण यगण, गुरु 221 122 2 7 वर्ण 4 चरण दो-दो चरण समतुकांत या चारों चरण समतुकांत।

14. नोट बन्दी (भुजंग प्रयात छंद)

हुई नोट बन्दी ठगा सा जमाना। किसी को रुलाना किसी को हँसाना।। कहीं आँसुओं की झड़ी सी लगी है। कहीं पे खुशी की दिवाली जगी है।। इकट्ठा जिन्होंने किया वित्त काला। उन्हीं का पिटा आज देखो दिवाला।। बसी थी जहाँ अल्प ईमानदारी। खरे लोग देखो सभी हैं सुखारी।। कहीं नोट की लोग होली जलाते। कहीं बन्द बोरे नदी में बहाते।। किसी के जगे भाग खाते खुला के। कराए जमा नोट काले धुला के।। सभी बैंक में आ गई भीड़ सारी। लगी हैं कतारें मचा शोर भारी।। कमी नोट की सामने आ रही है। नहीं जानते क्या हुआ ये सही है।। =============== *भुजंग प्रयात छंद* विधान:- 4 यगण (122) यानि कुल 12 वर्ण प्रत्येक चरण में। चार चरण दो दो समतुकांत।

15. जीव-हिंसा (भूमिसुता छंद)

जीवों की हिंसा प्राणी क्यों, हो करते। तेरे कष्टों से ही आहें, ये भरते।। भारी अत्याचारों को ये, झेल रहे। इन्सां को मूकों की पीड़ा, कौन कहे।। कष्टों के मारे बेचारे, जीव सभी। पूरी जो ना हो राखे ना, चाह कभी।। जो भी दे दो वो ही खा के, मस्त रहें। इन्सां तेरे दुःखों को क्यों, मूक सहें।। जाँयें तो जाँयें कैसे ये, भाग कहीं। प्राणों के घाती ही पायें, जाँय वहीं।। इंसानों ने भी राखा है, बाँध इन्हें। थोड़ी भी आजादी है दी, नाँहि जिन्हें।। लाचारी में पीड़ा झेलें, नित्य महा। दुःखों में ऐसे हैं ये जो, जा न कहा।। हैं संसारी रिश्ते नाते, स्वार्थ सने। लागें हैं दूजों को सारे, ही डसने।। ================ *भूमिसुता छंद* विधान:- "मामामासा" तोड़ो आठा, चार सजा। सारे भाई चाखो छंदा, 'भूमिसुता'।। "मामामासा" = मगण मगण मगण सगण 222 222 22//2 112 = 12वर्ण, यति 8,4 चार चरण, दो दो समतुकांत।

16. विरह विकल कामिनी (भृंग छंद)

सँभल सँभल चरण धरत, चलत जिमि मराल। बरनउँ किस विध मधुरिम, रसमय मृदु चाल।। दमकत तन-द्युति लख कर, थिर दृग रह जात। तड़क तड़ित सम चमकत, बिच मधु बरसात।। शशि-मुख छवि अति अनुपम, निरख बढ़त प्यास। रसिक हृदय मँह यह लख, जगत मिलन आस।। विरह विकल अति अब यह, कनक वरण नार। दिन निशि कटत न समत न, तरुण-वयस भार।। अँखियन थकि निरखत मग, इत उत हर ओर। हलचल विकट हृदय मँह, उठत अब हिलोर। पुनि पुनि यह कथन कहत, सुध बिसरत मोर। लगत न जिय पिय बिन अब, बढ़त अगन जोर।। मन हर कर छिपत रहत, कित वह मन-चोर। दरसन बिन तड़पत दृग, कछु न चलत जोर।। विरह डसन हृदय चुभत, मिलत न कछु मन्त्र। जलत सकल तन रह रह, कछुक करहु तन्त्र।। =================== *भृंग छंद* विधान:- "ननुननुननु गल" पर यति, दश द्वय अरु अष्ट। रचत मधुर यह रसमय, सब कवि जन 'भृंग'।। "ननुननुननु गल" = नगण की 6 आवृत्ति फिर गुरु लघु। 111 111 111 111 // 111 111 21 20 वर्ण,यति 12,8 वर्ण, 4 चरण 2-2 तुकांत

17. शहीद दिवस (मंजुभाषिणी छंद)

इस देश की भगत सिंह शान है। सुखदेव राजगुरु आन बान है।। हम आह आज बलिदान पे भरें। उन वीर की चरण वन्दना करें।। अति घोर कष्ट कटु जेल के सहे। चढ़ फांस-तख्त पर भी हँसे रहे।। निज प्राण देश-हित में जिन्हें दिये। उनको लगा कर सदा रखें हिये।। तिथि मार्च तेइस शहीद की मने। उनके समान जन देश के बने।। प्रण आज ये हृदय धार लें सभी। नहिं देश का हनन गर्व हो कभी।। हम पुष्प अर्पित समाधि पे करें। इस देश की सब विपत्तियाँ हरें।। यह भाव-अंजलि सही तभी हुये। जब विश्व भी चरण देश के छुये।। (23 मार्च शहीद दिवस पर श्रद्धांजलि।) ================ *मंजुभाषिणी छंद* विधान:- "सजसाजगा" रचत 'मंजुभाषिणी'। यह छंद है अमिय-धार वर्षिणी।। "सजसाजगा" = सगण जगण सगण जगण गुरु 112 121 112 121+गुरु =13 वर्ण चार चरण, दो दो समतुकांत।

18. कन्हैया वंदना (मकरन्द छंद)

किशन कन्हैया, ब्रज रखवैया, भव-भय दुख हर, घट घट वासी। ब्रज वनचारी, गउ हितकारी, अजर अमर अज, सत अविनासी।। अतिसय मैला, अघ जब फैला, धरत कमलमुख, तब अवतारा। यदुकुल माँही, तव परछाँही, पड़त जनम तुम, धरतत कारा।। पय दधि पाना, मृदु मुसकाना, लख कर यशुमति, हरषित भारी। कछु बिखराना, कछु लिपटाना, तब यह लगतत, द्युति अति प्यारी।। मधुरिम शोभा, तन मन लोभा, निश दिन निरखत, ब्रज नर नारी। सुख अति पाके, गुण सब गाके, बरणत यह छवि, जग मँह न्यारी।। असुर सँहारे, बक अघ तारे, दनुज रहित महि, नटवर कीन्ही। सुर मुनि सारे, कर जयकारे, कहत विनय कर, सुध प्रभु लीन्ही।। अनल दुखारी, वन जब जारी, प्रसरित कर मुख, तुम सब पी ली। कर मुरली है, मन हर ली है, लखत सकल यह, छवि चटकीली।। सुरपति क्रोधा, धर गिरि रोधा, विकट विपद हर, ब्रज भय टारा। कर वध कंसा, गहत प्रशंसा, सकल जगत दुख, प्रभु तुम हारा।। हरि गिरिधारी, शरण तिहारी, तुम बिन नहिं अब, यह मन मोहे। छवि अति प्यारी, जन मन हारी, हृदय 'नमन' कवि, यह नित सोहे।। =============== *मकरन्द छंद* विधान:- "नयनयनाना, ननगग" पाना, यति षट षट अठ, अरु षट वर्णा। मधु 'मकरन्दा', ललित सुछंदा, रचत सकल कवि, यह मृदु कर्णा।। "नयनयनाना, ननगग"= नगण यगण नगण यगण नगण नगण नगण नगण गुरु गुरु (111 122, 111 122, 111 111 11,1 111 22) 26 वर्ण, 4 चरण, यति 6,6,8,6 वर्णों पर। दो-दो या चारों चरण समतुकांत

19. मधुवन महके (मधुमती छंद)

मधुवन महके। शुक पिक चहके।। जन-मन सरसे। मधु रस बरसे।। ब्रज-रज उजली। कलि कलि मचली।। गलि गलि सुर है। गिरधर उर है।। नयन सजल हैं। वयन विकल हैं।। हृदय उमड़ता। मति मँह जड़ता।। अति अघकर मैं। तव पग पर मैं।। प्रभु पसरत हूँ। 'नमन' करत हूँ। =========== *मधुमती छंद* विधान:- "ननग" गणन की। मधुर 'मधुमती'।। "ननग" :- 111 111 2 (नगण नगण गुरु) चार चरण, दो-दो चरण समतुकांत

20. माखन लीला (मनविश्राम छंद)

माखन श्याम चुरा नित ही, कछु खावत कछु लिपटावै। ग्वाल सखा सह धूम करे, यमुना तट गउन चरावै।। फोड़त माखन की मटकी, सब गोरस नित बिखराये। गोपिन भी लख हर्षित हैं, पर रोष बयन दिखलाये।। मात यशोमत नित्य मथे, दधि की जब लबलब झारी। मोहन आय तभी धमकै, अरु बाँह भरत महतारी।। मात बिलोवत जाय रहे, तब कान्ह करत बरजोरी। नन्द-तिया पुलकै मुलकै, सुत की लख नित नव त्योरी।। माधव संग सखा सब ले, जब ग्वालिन गृह मँह धाये। ऊधम खूब मचाय वहाँ, सब गोपिन हृदय लुभाये।। पीठ चढ़े इक दूजन की, तब छींकन पर चढ़ जावै। माखन लूटत भाजन से, दिखलाकर चख चख खावै।। मोहन की छवि ये उर में, मन उज्ज्वल पर तन कारा। रोज मचा हुड़दंग यही, हरता बृज-जन-मन सारा।। गोपिन को ललचा कर के, मनमोहक छवि दिखलावै। कृष्ण बसो उर में तुम आ, गुण 'बासु' नमन करि गावै।। ===================== *मनविश्राम छंद* विधान:- "भाभभुभाभनुया" यति दें, दश रुद्र वरण अभिरामा। छंद रचें कवि वृन्द सभी, मनभावन 'मनविशरामा'।। "भाभभुभाभनुया"=भगण की 5 आवृत्ति फिर नगण यगण। 211 211 211 2,11 211 111 122 कुल 21 वर्ण, यति 10,11, चार चरण 2-2 समतुकांत

21. मनोज्ञा छंद (होली)

भर सनेह रोली। बहुत आँख रो ली।। सजन आज होली। व्यथित खूब हो ली।। मधुर फाग आया। पर न अल्प भाया।। कछु न रंग खेलूँ। विरह पीड़ झेलूँ।। यह बसंत न्यारी। हरित आभ प्यारी।। प्रकृति भी सुहायी। नव उमंग छायी।। पर मुझे न चैना। कटत ये न रैना।। सजन याद आये। न कुछ और भाये।। विकट ये बिमारी। मन अधीर भारी।। सुख समस्त छीना। अति कठोर जीना।। अब तुरंत आ के। हृदय से लगा के।। सुध पिया तु लेवो। न दुख और देवो।। ============= मनोज्ञा छंद विधान:- "नरगु" वर्ण सप्ता। रचत है 'मनोज्ञा'।। "नरगु" = नगण रगण गुरु 111 212 + गुरु = 7-वर्ण चार चरण, दो दो समतुकांत।

22. मलयज छंद (प्रभु-गुण)

सुन मन-मधुकर। मत हिय मद भर।। करत कलुष डर। हरि गुण उर धर।। सरस अमिय सम। प्रभु गुण हरदम।। मन हरि मँह रम। हर सब भव तम।। मन बहुत विकल। हलचल प्रतिपल।। पड़त न कछु कल। हरि-दरशन हल।। प्रभु-शरण लखत। यह सर अब नत।। तव चरण पड़त। रख नटवर पत।। ============= मलयज छंद विधान:- "ननलल" लघु सब। 'मलयज' रच तब।। "ननलल" = नगण नगण लघु लघु। 8 लघु, 4चरण समतुकांत

23. मोटनक छन्द (भारत की सेना)

सेना अरि की हमला करती। हो व्याकुल माँ सिसकी भरती।। छाते जब बादल संकट के। आगे सब आवत जीवट के।। माँ को निज शीश नवा कर के। माथे रज भारत की धर के।। टीका तब मस्तक पे सजता। डंका रिपु मारण का बजता।। सेना करती जब कूच यहाँ। छाती अरि की धड़कात वहाँ।। डोले तब दिग्गज और धरा। काँपे नभ ज्यों घट नीर भरा।। ये देख छटा रस वीर जगे। सारी यह भू रणक्षेत्र लगे।। गावें महिमा सब ही जिनकी। माथे पद-धूलि धरूँ उनकी।। ================= मोटनक छन्द विधान:- "ताजाजलगा" सब वर्ण शुभं। राचें मधु छंदस 'मोटनकं'।। "ताजाजलगा"= तगण जगण जगण लघु गुरु। 221 121 121 12 = 11 वर्ण चार चरण, दो दो समतुकांत।

24. मौक्तिक दाम छंद (विनायक वंदन)

गजानन विघ्न करो सब दूर। करो प्रभु आस सदा मम पूर।। नवा कर माथ करूँ नित जाप। कृपा कर के हर लो भव-ताप।। प्रियंकर रूप सजे गज-भाल। छटा अति मोहक तुण्ड विशाल।। गले उपवीत रखो नित धार। भुजा अति पावन सोहत चार।। धरें कर में शुभ अंकुश, पाश। करें उनसे रिपु, दैत्य विनाश।। बिराजत हैं कमलासन नाथ। रखें सर पे शुभदायक हाथ।। दयामय विघ्न विनाशक आप। हरो प्रभु जन्मन के सब पाप।। बसो हिय पूर्ण करो सब काज। रखो प्रभु भक्तन की पत आज।। ============= मौक्तिक दाम छंद विधान:- पयोधर चार मिलें क्रमवार। भुजा तुक में कुल पाद ह चार।। रचें सब छंद महा अभिराम। कहावत है यह मौक्तिक दाम।। पयोधर = जगन ।ऽ। के लिए प्रयुक्त होता है। भुजा= दो का संख्यावाचक शब्द 121 121 121 121 = 12वर्ण

25. यशोदा छंद (सवेरा)

हुआ सवेरा। मिटा अँधेरा।। सुषुप्त जागो। खुमार त्यागो।। सराहना की। बड़प्पना की।। न आस राखो। सुशान्ति चाखो।। करो भलाई। यही कमाई।। सदैव संगी। कभी न तंगी।। कुपंथ चालो। विपत्ति पालो।। सुपंथ धारो। कभी न हारो।। ======== यशोदा छंद विधान:- रखो "जगोगा" । रचो 'यशोदा'।। "जगोगा" = जगण, गुरु - गुरु (121, 2 - 2), 5 वर्ण, 4 चरण, 2-2 चरण समतुकांत

26. रक्ता छंद (शारदा वंदन)

ब्रह्म लोक वासिनी। दिव्य आभ भासिनी।। वेद वीण धारिणी। हंस पे विहारिणी।। शुभ्र वस्त्र आवृता। पद्म पे विराजिता।। दीप्त माँ सरस्वती। नित्य तू प्रभावती।। छंद ताल हीन मैं। भ्रांति के अधीन मैं।। मन्द बुद्धि को हरो। काव्य की प्रभा भरो।। छंद-बद्ध साधना। काव्य की उपासना। मैं सदैव ही करूँ। भाव से इसे भरूँ।। मात ये विचार हो। देश का सुधार हो।। ज्ञान का प्रसार हो। नष्ट अंधकार हो।। शारदे दया करो। ज्ञान से मुझे भरो।। काव्य-शक्ति दे मुझे। दिव्य भक्ति दे मुझे।। =========== रक्ता छंद विधान:- [रगण जगण गुरु] ( 212 121 2 ) = 7 वर्ण, 4 चरण [दो-दो या चारों चरण समतुकांत]

27. रति छंद (प्यासा मन-भ्रमर)

मन मोहा, तन कुसुम सम तेरा। हर लीन्हा, यह भ्रमर मन मेरा।। अब तो ये, रह रह छटपटाये। कब तृष्णा, परिमल चख बुझाये।। मृदु हाँसी, जिमि कलियन खिली है। घुँघराली, लट-छवि झिलमिली है।। मधु श्वासें, मलय-महक लिये है। कटि बांकी, अनल-दहक लिये है।। मतवाली, शशि वदन यह गोरी। मृगनैनी, चपल चकित चकोरी।। चलती तो, लख हरिण शरमाये। यह न्यारी, छवि न वरणत जाये।। लगते हैं, अधर पुहुप लुभाये। अब सारे, मिल यह मन जलाये।। मन भौंरा, निरखत डगर तेरी। मिल ने को, बिलखत कर न देरी।। =============== रति छंद विधान:- 'रति' छंदा', रख गण "सभनसागे"। यति चारा, अरु नव वरण साजे।। "सभनसागे" = सगण भगण नगण सगण गुरु ( 112 2,11 111 112 2) 13वर्ण, यति 4-9 वर्णों पर, 4 चरण,दो-दो चरण समतुकांत

28. रतिलेखा छंद (विरह विदग्धा)

मन तो ठहर ठहर अब, सकपकाये। पिय की डगर निरख दृग, झकपकाये।। तुम क्यों अगन सजन यह, तन लगाई। यह चाह हृदय मँह प्रिय, तुम जगाई।। तुम आ कर नित किस विध, गुदगुदाते। सब याद सजन फिर हम, बुदबुदाते।। अब चाहत पुनि चित-चक, चहचहाना। नित दूर न रह प्रियवर, कर बहाना।। दहके विरह अगन सह, हृदय भारी। मन ही मन बिलखत यह, दुखित नारी।। सजना किन गलियन मँह, रह रहे हो। सरिता नद किन किन सह, बह रहे हो।। तुम तो नव कलियन रस, नित चखो रे। इस और कबहु मधुकर, नहिं लखो रे।। किस कारण विरहण सब, दुख सहेगी। दुखिया यह पिय सँग अब, कब रहेगी।। ============== रतिलेखा छंद विधान:- "सननानसग" षट दशम, वरण छंदा। यति एक दश अरु पँचम, सु'रतिलेखा'।। "सननानसग"= सगण नगण नगण नगण सगण गुरु ( 112 111 111 11,1 112 2 ) 16वर्ण, यति {11-5} वर्णों पर, 4 चरण, दो-दो चरण समतुकांत

29. रत्नकरा छंद (अतृप्त प्रीत)

चंदा चित्त चुरावत है। नैना नीर बहावत है।। प्यासी प्रीत अतृप्त दहे। प्यारा प्रीतम दूर रहे।। ये भृंगी मन गूँजत है। रो रो पीड़ सुनावत है।। माला नित्य जपूँ पिय की। भूली मैं सुध ही जिय की।। रातें काट न मैं सकती। तारों को नभ में तकती।। बारंबार फटे छतिया। है ये व्याकुल बावरिया।। आँसू धार लिखी पतिया। भेजूँ साजन लो सुधिया।। चीखों की कुछ तो धुन ले। निर्मोही सजना सुन ले।। =========== रत्नकरा छंद विधान:- "मासासा" नव अक्षर लें। प्यारी 'रत्नकरा' रस लें।। "मासासा" = मगण सगण सगण ( 222 112 112 ) 9वर्ण, 4 चरण, दो-दो चरण समतुकांत।

30. रथपद छंद (मधुर स्मृति)

जब तुम प्रियतम में खोती। हलचल तब मन में होती।। तुम अतिसय दुख की मारी। विरह अगन सहती सारी।। बरसत अँसुवन की धारा। तन दहकत बन अंगारा।। मरम रहित जग से हारी । गुजर करत सह लाचारी।। निश-दिन तब कितने प्यारे। जब पिय प्रणय-सुधा डारे।। तन मन हरषित था भारी। सरस प्रकृति नित थी न्यारी।। मधुरिम स्मृति गठरी ढ़ोती। स्मर स्मर कर उनको रोती।। लहु कटु अनुभव का पीती। बस दुख सह कर ही जीती।। ============ रथपद छंद विधान:- "ननुसगग" वरण की छंदा। 'रथपद' रचत सभी बंदा।। "ननुसगग" = नगण नगण सगण गुरु गुरु ( 111 111 112 2 2 ) 11वर्ण,4 चरण, दो-दो चरण समतुकांत

31. रमणीयक छंद (कृष्ण महिमा)

मोर पंख सर पे कर में मधु बाँसुरी। पीत वस्त्र कटि में कछनी अति माधुरी।। ग्वाल बाल सँग धेनु चरावत मोहना। कौन नित्य नहिं चाहत ये छवि जोहना।। दिव्य रूप मनमोहन का नर चाख ले। नाम-जाप रस को मन में तुम राख ले।। कृष्ण श्याम मुरलीधर मोहन साँवरा। एक नाम कछु भी जपले मन बावरा।। मैं गँवार मति पाप-लिप्त अति दीन हूँ। भोग और धन-संचय में बस लीन हूँ।। धर्म आचरण का प्रभु मैं नहिं विज्ञ हूँ। भाव भक्ति अरु अर्चन से अनभिज्ञ हूँ।। मैं दरिद्र शरणागत हो प्रभु आ गया। हाथ थाम कर हे ब्रजनाथ करो दया।। भीर कोउ पड़ती तुम्हरा तब आसरा। कष्टपूर्ण भव-ताप हरो इस दास रा।। ================= रमणीयक छंद विधान - वर्ण राख कर पंच दशं "रनभाभरा"। छंद राच 'रमणीयक' हो मन बावरा।। "रनभाभरा" = रगण नगण भगण भगण रगण 212 111 211 211 212 =15 वर्ण चार चरण, दो दो या चारों समतुकांत।

32. रमेश छंद (नन्ही गौरैया)

फुदक रही हो तरुवर डाल। सुन चिड़िया दे कह निज हाल।। उड़ उड़ छानो हर घर रोज। तुम करती क्या नित नव खोज।। चितकबरी रंगत लघु काय। गगन परी सी हृदय लुभाय।। दरखत पे तो कबहु मुँडेर। फुर फुर जाती करत न देर।। मधुर सुना के तुम सब गीत। वश कर लेती हर घर जीत।। छत पर दाना जल रख लोग। कर इसका ले रस उपभोग।। चहक बजाती मधुरिम साज। इस चिड़िया का सब पर राज।। नटखट नन्ही मन बहलाय। अब इसको ले जगत बचाय।। ============= रमे छंद विधान - "नयनज" का दे गण परिवेश। रचहु सुछंदा मृदुल 'रमेश'।। "नयनज" = [ नगण यगण नगण जगण] ( 111 122 111 121 ) 12 वर्ण, 4 चरण, दो-दो चरण समतुकांत।

33. रसना छंद (पथिक आह्वाहन)

डगर कहे चीख, जरा ठहर पथिक सुनो। कठिन सभी मार्ग, सदैव कर मनन चुनो। जगत भरा कंट, परन्तु तुम सँभल चलो। तमस भरी रात, प्रदीप बन स्वयम जलो।। दुखमय संसार, अभाव अधिकतर सहे। सुखमय तो मात्र, कुछेक सबल जन रहे।। रह उनके साथ, विनष्ट यह जग जिनका। कुछ करके काज, बसा घर नवल उनका।। तुम कर के पान, समस्त दुख विपद बढ़ो। गिरि सम ये राह, बना सरल सुगम चढ़ो।। तुम रख सौहार्द्र, सुकार्य अबल-हित करो। इस जग में धीर, सुवीर बन कर उभरो।। विकृत हुआ देश, हवा बहत अब पछुआ। सब चकनाचूर, यहाँ ऋषि-अभिमत हुआ।। तुम बन आदर्श, कदाचरण सकल हरो। यह फिर से देश, समृद्ध पथिक तुम करो।। ================ रसना छंद विधान - "नयसननालाग", रखें सत अरु दश यतिं। मधु 'रसना' छंद, रचें ललित मृदुल गतिं। "नयसननालाग" = नगण यगण सगण नगण नगण लघु गुरु। ( 111 122 1,12 111 111 12 ) 17वर्ण, यति{7-10} वर्णों पर, 4 चरण दो-दो चरण समतुकांत।

34. रसाल छंद (यौवन)

यौवन जब तक द्वार, रूप रस गंध सुहावत। बीतत दिन जब चार, नाँहि मन को कछु भावत।। वैभव यह अनमोल, व्यर्थ मत खर्च इसे कर। वापस कबहु न आय, खो अगर दे इसको नर।। यौवन सरित समान, वेगमय चंचल है अति। धीर हृदय मँह धार, साध नर ले इसकी गति।। हो कर इस पर चूर, जो बढ़त कार्य बिगारत। जो पर चलत सधैर्य, वो सकल काज सँवारत।। यौवन सब सुख सार, स्वाद तन का यह पावन। ये नित रस परिपूर्ण, ज्यों बरसता मधु सावन।। दे जब तक यह साथ, सृष्टि लगती मनभावन। जर्जर जब तन होय, घोर तब दे झुलसावन।। कांति चमक अरु वीर्य, पूर्ण जब देह रहे यह। मानव कर तु उपाय, पार भव हो जिनसे यह।। रे नर जनम सुधार, यत्न करके जग से तर। जीवन यह उपहार, व्यर्थ इसको मत तू कर।। ================= रसाल छंद विधान - "भानजभजुजल" वर्ण, और यति नौ दश पे रख। पावन मधुर 'रसाल', छंद-रस रे नर तू चख।। "भानजभजुजल" = भगण नगण जगण भगण जगण जगण लघु। 211 111 121 // 211 121 121 1 19 वर्ण, यति 9,10 वर्ण पर, दो दो या चारों चरण समतुकांत। (इसका मात्राविन्यास रोला छंद से मिलता है। रसाल गणाश्रित छंद है अतः हर वर्ण की मात्रा नियत है जबकि रोला मात्रिक छंद है और ऐसा बन्धन नहीं है।)

35. रुचि छंद (कालिका स्तवन)

माँ कालिका, लपलप जीभ को लपा। दुर्दान्तिका, रिपु-दल की तु रक्तपा।। माहेश्वरी, खड़ग धरे हुँकारती। कापालिका, नर-मुँड माल धारती।। तू मुक्त की, यह महि चंड मुंड से। विच्छेद के, असुरन माथ रुंड से।। गूँजाय दी, फिर नभ अट्टहास से। थर्रा गये, तब त्रयलोक त्रास से।। तू हस्त में, रुधिर कपाल राखती। आह्लादिका,असुर-लहू चाखती।। माते कृपा, कर अवरुद्ध है गिरा पापों भरे, जगत-समुद्र से तिरा।। हो सिंह पे, अब असवार अम्बिका। संसार का, सब हर भार चण्डिका।। मातेश्वरी, वरद कृपा अपार दे। निस्तारिणी, जगजननी तु तार दे।। ================ रुचि छंद विधान - "ताभासजा, व ग" यति चार और नौ। ओजस्विनी, यह 'रुचि' छंद राच लौ।। "ताभासजा, व ग" = तगण भगण सगण जगण गुरु (221 211 112 121 2) 13 वर्ण, 4 चरण, (यति 4-9) [दो-दो चरण समतुकांत]

36. रोचक छंद (फागुन मास)

फागुन मास सुहावना आया। मौसम रंग गुलाल का छाया।। पुष्प लता सब फूल के सोहे। आज बसन्त लुभावना मोहे।। ये ऋतुराज बड़ा मनोहारी। दग्ध करे मन काम-संचारी।। यौवन भार लदी सभी नारी। फागुन के रस भीग के न्यारी।। आज छटा ब्रज में नई राचे। खेलत फाग सभी यहाँ नाचे।। गोकुल ग्राम उछाह में झूमा। श्याम यहाँ हर राह में घूमा।। कोयल बागन बीच में कूँजे। श्यामल भंवर बौर पे गूँजे।। शीत विदा अब माँगके जाए। ग्रीष्म पसारत पाँव को आए।। ============= रोचक छंद - "भाभरगाग" रचें सभी भाई। 'रोचक' छंद सजे तभी आई।। "भाभरगाग" = भगण भगण रगण गुरु गुरु 211 211 212 22 = 11 वर्ण चार चरण। दो दो समतुकांत।

37. वरूथिनी छंद (प्रदीप हो)

प्रचंड रह, सदैव बह, कभी न तुम, अधीर हो। महान बन, सदा वतन, सुरक्ष रख, सुवीर हो।। प्रयत्न कर, बना अमर, अटूट रख, अखंडता। कभी न डर, सदैव धर, रखो अतुल, प्रचंडता।। निशा प्रबल, सभी विकल, मिटा तमस, प्रदीप हो। दरिद्र जन , न वस्त्र तन, करो सुखद, समीप हो।। सुकाज कर, गरीब पर, सदैव तुम, दया रखो। मिटा विपद, उन्हें सुखद, बना सरस, सुधा चखो।। हुँकार भर, दहाड़ कर, जवान तुम, बढ़े चलो। त्यजो अलस, न हो विवस, मशाल बन, सदा जलो।। अराति गर, उठाय सर, दबोच तुम, उसे वहीं। धरो पकड़, रखो जकड़, उसे भगन, न दो कहीं। प्रशस्त नभ, करो सुलभ, सभी डगर, बिना रुके। रहो सघन, डिगा न मन, बढ़ो युवक, बिना झुके।। हरेक थल, रहो अटल, विचार नित, नवीन हो। बढ़ा वतन, छुवा गगन, सभी जगह, प्रवीन हो।। ===================== वरूथिनी छंद विधान - "जनाभसन,जगा" वरण, सुछंद रच, प्रमोदिनी। विराम सर,-त्रयी सजत, व चार पर, 'वरूथिनी'।। "जनाभसन,जगा" = जगण+नगण+भगण+सगण+नगण+जगण+गुरु 121 11,1 211 1,12 111, 121 2 सर,-त्रयी सजत = सर यानि बाण जो पाँच की संख्या का भी द्योतक है। सर-त्रयी यानि 5,5,5। (१९ वर्ण, ४ चरण, क्रमश: ५,५,५,४ वर्ण पर यति, दो-दो चरण समतुकान्त)

38. वर्ष छंद (बाल कविता)

बिल्ली रानी आवत जान। चूहा भागा ले कर प्रान।। आगे पाया साँप विशाल। चूहे का जो काल कराल।। नन्हा चूहा हिम्मत राख। जल्दी कूदा ऊपर शाख।। बेचारे का दारुण भाग। शाखा पे बैठा इक काग।। पत्तों का डाली पर झुण्ड। जा बैठा ले भीतर मुण्ड।। कौव्वा बोले काँव कठोर। चूँ चूँ से दे उत्तर जोर।। ये है गाथा केवल एक। देती शिक्षा पावन नेक।। बच्चों हारो हिम्मत नाय। लाखों चाहे संकट आय।। ============ वर्ष छंद विधान - "माताजा" नौ वर्ण सजाय। प्यारी छंदा 'वर्ष' लुभाय।। "माताजा" = मगण तगण जगण 222 221 121 = 9 वर्ण चार चरण दो दो समतुकांत।

39. विमलजला छंद (राम शरण)

जग पेट भरण में। रत पाप करण में।। जग में यदि अटका। फिर तो नर भटका।। मन ये विचलित है। प्रभु-भक्ति रहित है।। अति दीन दुखित है।। हरि-नाम विहित है।। तन पावन कर के। मन शोधन कर के।। लग राम चरण में। गति ईश शरण में।। कर निर्मल मति को। भज ले रघुपति को।। नित राम सुमरना। भवसागर तरना।। ========== विमलजला छंद विधान - "सनलाग" वरण ला। रचलें 'विमलजला'।। "सनलाग" = सगण नगण लघु गुरु 112 111 12 = 8 वर्ण चार चरण। दो दो समतुकांत।

40. विमला छंद (सच्चा सुख)

मन का मारो रावण सब ही। लगते सारे पावन तब ही।। सब बाधाओं की मन जड़ है। बस में ये तो वैभव-झड़ है।। त्यज दो तृष्णा मत्सर मन से। जग की सेवा लो कर तन से।। सब का सोचो नित्य तुम भला। यह जीने की उच्चतम कला।। जग-ज्वाला से प्राण सिहरते। पर-पीड़ा से लोचन भरते।। लखता जो संसार बिलखता। दुखियों का वो दर्द समझता।। जग की पीड़ा जो नर हरता। अबलों की रक्षा नित करता।। सबके प्यासे नैन निरखता। नर वो ही सच्चा सुख चखता।। ============== विमला छंद विधान - "समनालागा" वर्ण सब रखो। 'विमला' प्यारी छंद रस चखो।। "समनालागा"= सगण मगण नगण लघु गुरु 112 222 111 12 = 11 वर्ण चार चरण। दो दो समतुकांत।

41. शारदी छंद (चले चलो पथिक)

चले चलो पथिक। बिना थके रथिक।। थमे नहीं चरण। भले हुवे मरण।। सुहावना सफर। लुभावनी डगर।। बढ़ा मिलाप चल। सदैव हो अटल।। रहो सदा सजग। उठा विचार पग।। तुझे लगे न डर। रहो न मौन धर।। प्रसस्त है गगन। उड़ो महान बन।। समृद्ध हो वतन। रखो यही लगन।। ========= शारदी छंद विधान - "जभाल" वर्ण धर। सु'शारदी' मुखर।। "जभाल" = जगण भगण लघु (121 211 1) 7 वर्ण प्रति चरण का वर्णिक छंद, 4 चरण दो दो सम तुकान्त।

42. शीर्षा छंद (शैतानी धारा)

शैतानी जो थी धारा। जैसे कोई थी कारा।। दाढों में घाटी सारी। भारी दुःखों की मारी।। लूटों का बाजे डंका। लोगों में थी आशंका।। हत्याएँ मारामारी। सांसों पे वे थी भारी।। भोले बाबा की मर्जी। वैष्णोदेवी माँ गर्जी।। घाटी की होनी जागी। आतंकी धारा भागी।। कश्मीरी की आज़ादी। उन्मादी की बर्बादी। रोयेंगे पाकिस्तानी। गायेंगे हिंदुस्तानी।। ======== शीर्षा छंद विधान - "मामागा" कोई राखे। 'शीर्षा' छंदस् वो चाखे।। "मामागा" = मगण मगण गुरु (222 222 2) 7 वर्ण प्रति चरण का वर्णिक छंद, 4 चरण दो दो सम तुकान्त।

43. शुभमाल छंद (दीन पुकार)

सभी हम दीन। निहायत हीन।। हुए असहाय। नहीं कुछ भाय।। गरीब अमीर। नदी द्वय तीर।। न आपस प्रीत। यही जग रीत।। नहीं सरकार। रही भरतार।। अतीव हताश। दिखे न प्रकाश।। झुकाय निगाह। भरें बस आह।। सहें सब मौन। सुने वह कौन।। सभी दिलदार। हरें कुछ भार।। कृपा कर आज। दिला कछु काज।। मिला कर हाथ। चलें सब साथ।। सही यह मन्त्र। तभी गणतन्त्र।। ========== शुभमाल छंद विधान - "जजा" गण डाल। रचें 'शुभमाल'।। "जजा" = जगण जगण ( 121 121 ) 6 वर्ण प्रति चरण का वर्णिक छंद, 4 चरण दो दो सम तुकान्त।

44. शोभावती छंद (हिन्दी भाषा)

देवों की भाषा से जन्मी हिन्दी। हिन्दुस्तां के माथे की है बिन्दी।। दोहों, छंदों, चौपाई की माता। मीरा, सूरा के गीतों की दाता।। हिंदुस्तानी साँसों में है छाई। पाटे सारे भेदों की ये खाई।। अंग्रेजी में सारे ऐसे पैठे। हिन्दी से नाता ही तोड़े बैठे।। भावों को भाषा देती लोनाई। भाषा से प्राणों की भी ऊँचाई।। हिन्दी की भू पे आभा फैलाएँ। सारे हिन्दी के गीतों को गाएँ।। हिन्दी का लोहा माने भू सारी। भाषा के शब्दों की शोभा न्यारी।। ओजस्वी सारे हिन्दी भाषाई। हिन्दी जो भी बोलें वे हैं भाई।। =============== शोभावती छंद विधान - मगण मगण मगण गुरु (222 222 222 2) 10 वर्ण प्रति चरण का वर्णिक छंद, 4 चरण दो दो सम तुकान्त।

45. संयुत छंद (फाग रस)

सब झूम लो रस राग में। मिल मस्त हो कर फाग में।। खुशियों भरा यह पर्व है। इसपे हमें अति गर्व है।। यह मास फागुन चाव का। ऋतुराज के मधु भाव का।। हर और दृश्य सुहावने। सब कूँज वृक्ष लुभावने ।। मन से मिटा हर क्लेश को। उर में रखो मत द्वेष को।। क्षण आज है न विलाप का। यह पर्व मेल-मिलाप का।। मन से जला मद-होलिका। धर प्रेम की कर-तूलिका।। हम मग्न हों रस रंग में। सब झूम फाग उमंग में।। ============= संयुत छंद विधान - "सजजाग" ये दश वर्ण दो। तब छंद 'संयुत' स्वाद लो।। "सजजाग" = सगण जगण जगण गुरु (112 121 121 2) 10 वर्ण प्रति चरण का वर्णिक छंद, 4 चरण दो दो सम तुकान्त।

46. सारवती छंद (विरह वेदना)

वो मनभावन प्रीत लगा। छोड़ चला मन भाव जगा।। आवन की सजना धुन में। धीर रखी अबलौं मन में।। खावन दौड़त रात महा। आग जले नहिं जाय सहा।। पावन सावन बीत रहा। अंतस हे सखि जाय दहा।। मोर चकोर मचावत है। शोर अकारण खावत है।। बाग-छटा नहिं भावत है। जी अब और जलावत है।। ये बरखा भड़कावत है। जो विरहाग्नि बढ़ावत है।। गीत नहीं मन गावत है। सावन भी न सुहावत है।। =========== सारवती छंद विधान - "भाभभगा" जब वर्ण सजे। 'सारवती' तब छंद लजे।। "भाभभगा" = भगण भगण भगण + गुरु (211 211 211 2) 10 वर्ण प्रति चरण का वर्णिक छंद, 4 चरण दो दो सम तुकान्त।

47. सिंहनाद छंद (विनती)

हरि विष्णु केशव मुरारी। तुम शंख चक्र कर धारी।। मणि वक्ष कौस्तुभ सुहाये। कमला तुम्हें नित लुभाये।। प्रभु ग्राह से गज उबारा। दस शीश कंस तुम मारा।। गुण से अतीत अविकारी। करुणा-निधान भयहारी।। पृथु मत्स्य कूर्म अवतारी। तुम रामचन्द्र बनवारी।। प्रभु कल्कि बुद्ध गुणवाना। नरसिंह वामन महाना।। अवतार नाथ अब धारो। तुम भूमि-भार सब हारो।। हम दीन हीन दुखियारे। प्रभु कष्ट दूर कर सारे।। ============ सिंहनाद छंद विधान - "सजसाग" वर्ण दश राखो। तब 'सिंहनाद' मधु चाखो।। "सजसाग" = सगण जगण सगण गुरु (112 121 112 2) 10 वर्ण प्रति चरण का वर्णिक छंद, 4 चरण दो दो सम तुकान्त।

48. सुमति छंद (भारत देश)

प्रखर भाल पे हिमगिरि न्यारा। बहत वक्ष पे सुरसरि धारा।। पद पखारता जलनिधि खारा। अनुपमेय भारत यह प्यारा।। यह अनेकता बहुत दिखाये। पर समानता सकल बसाये।। विषम रीत हैं अरु पहनावा। सकल एक हों जब सु-उछावा।। विविध धर्म हैं, अगणित भाषा। पर समस्त की यक अभिलाषा।। प्रगति देश ये कर दिखलाए। सकल विश्व का गुरु बन छाए।। हम विकास के पथ-अनुगामी। सघन राष्ट्र के नित हित-कामी।। 'नमन' देश को शत शत देते। प्रगति-वाद के परम चहेते।। ============= सुमति छंद विधान - गण "नरानया" जब सज जाते। 'सुमति' छंद की लय बिखराते।। "नरानया" = नगण रगण नगण यगण (111 212 111 122) 12 वर्ण प्रति चरण का वर्णिक छंद, 4 चरण दो दो सम तुकान्त।

49. कामदा छंद (देश की हालत)

स्वार्थ में सनी राजनीति है। वोट नोट से आज प्रीति है। देश खा रहे हैं सभी यहाँ। दौर लूट का देखिये जहाँ।। त्रस्त आज आतंक से सभी। देश की न थी ये दशा कभी। देखिये जहाँ रक्त-धार है। लोकतंत्र भी शर्मसार है।। शील नारियाँ हैं लुटा रही। लाज से मरी जा रही मही। अर्थ पाँव पे जो टिकी हुई। न्याय की व्यवस्था बिकी हुई।। धूर्त चोर नेता यहाँ हुये। कीमतें सभी आसमाँ छुये।। देश की दशा है बड़ी बुरी। वृत्ति छा गयी आज आसुरी।। ============== कामदा छंद विधान - "रायजाग" ये वर्ण राखते। छंद 'कामदा' धीर चाखते।। "रायजाग" = रगण यगण जगण गुरु (212 122 121 2) 10 वर्ण प्रति चरण का वर्णिक छंद, 4 चरण दो दो सम तुकान्त। "पंक्तिका छंद" के नाम से भी यह छंद जानी जाती है।