वन्दे भारत : अनिल मिश्र प्रहरी
Vande Bharat : Anil Mishra Prahari


वतन की वन्दना करो

सबल,   समृद्ध  भारती  प्रदीप्त  ज्योत,   आरती,  पखार मिल धवल-चरण  मिले जो धूल कर वरण।  जगा  प्रसुप्त  तेज हर -  बला     त्वरित     हरो।  वतन की वन्दना  करो।  शहादतों का मान कर  सहर्ष   राष्ट्रगान   कर,  स्वतंत्रता   नहीं   सरल  है  माँगती लहू -  तरल।   अथाह   देशप्रेम    से   करुण -  हृदय   भरो।   वतन की वन्दना करो। कलह तजो जो पीर दे दृगों  में  अश्रु, नीर  दे,  न हो विभक्त राग अब उनींद से तू जाग  अब।  वतन के मान के लिए  सदा    जियो -   मरो।  वतन की वन्दना करो। 

जन्मभूमि की सुनो पुकार है

बढ़ा तू खेल गोद में  गिरा-उठा प्रमोद में,  हरेक पल सँभालती तुझे निशंक पालती।  ममत्व की सरित अतल-अपार है  जन्मभूमि  की  सुनो   पुकार   है।  देश के खिलाफ  स्वर  फैलता  अमित  जहर,  विद्वेष की हवा  चली नीड़– नीड़ खलबली।  राष्ट्र-धर्म  देख  तार- तार   है  जन्मभूमि की सुनो पुकार है।  क्यों बहा  रहा  लहू?  बेटियाँ व्यथित, बहू, चल रहीं ये गोलियाँ  द्रोहपूर्ण  -  टोलियाँ।  देश के  वजूद  पर  प्रहार  है जन्मभूमि की सुनो पुकार है।  क्यों  बढ़ी  ये  दुश्मनी  वेदना  अगम,   घनी,  जल रहा निशात -बाग हर तरफ प्रचंड -आग।  वक्ष के  कटार आर- पार  है  जन्मभूमि की सुनो पुकार है। 

यौवन यूँ न बह जाए

यौवन   सरिता   तूफानी  जो धधके  वही  जवानी,  छा जाए अम्बर तक उड़  बन   चिनगारी  लहराए।  यौवन  यूँ  न  बह  जाए।  उत्सर्ग  राष्ट्र  पर   होना  भारत  है  देश   सलोना,  आबाद चमन रखने को पग, काँटे भी सह जाए।  यौवन यूँ  न  बह  जाए।  भारत-भू की नित  पूजा कब यौवन मिलता दूजा?  रण  में  हुंकार  भरे   तो पर्वत  उत्तुंग  ढह  जाए।  यौवन  यूँ  न  बह  जाए।  कब   रुकते   हैं   परवाने यौवन  तो  मिटना  जाने,  जगमग हो भारत अपना तम ही न कहीं रह जाए।  यौवन  यूँ  न  बह   जाए। 

देश आज पूछता सवाल है

कहाँ गयी चमक- दमक  प्रखर कुँअर-कटार की,  प्रवाह,   वो    रवानियाँ उछाल सिन्धु - धार की।  जाति, धर्म, नस्ल का बवाल है।  देश  आज  पूछता  सवाल   है।  गीत    वो    रवीन्द्र   के कहाँ गये भगत, तिलक?  सुभाष - सा न तप कहीं  नजर गयी  जहाँ  तलक।  स्वार्थ तज सके न हम मलाल है।  देश  आज   पूछता   सवाल   है।  कहाँ गये वो  पार्थ  जो शरों  से  काँपती   धरा,  भूगोल था  बदल  गया  अधर्म था विकल, डरा।  मानवों का हो रहा हलाल है।  देश आज पूछता  सवाल है।  कहाँ गयी वो  आग  है  जहाँ असीम  ताप  था,  झुलस गयीं  कुरीतियाँ जला जघन्य पाप  था।  खून में रहा न क्यों उबाल है?  देश आज पूछता  सवाल है। 

तेरे गौरव का गान करूँ

जिह्वा  से स्तुति,  वन्दन   हो रज-कण माथे का  चंदन हो कर जोड़ तेरा अभिनन्दन हो।           मैं पुलकित तेरा मान करूँ           तेरे गौरव का  गान   करूँ।  कंचन,  मनोज्ञ  तेरी   काया  मृदु,शीतल,सुखकर है छाया हो   संग   तेरे   उर   हर्षाया।           पा अंक तेरा अभिमान करूँ           तेरे  गौरव  का  गान   करूँ।  यह धरा बाँकुरों, वीरों  की  टंकार  धनुष व  तीरों  की  गूँजी  गाथा   रंधीरों    की।           पद-कंज तुम्हारे प्राण करूँ           तेरे  गौरव  का गान  करूँ।  उर्वर   तेरी   है    धरा,   भरी सतरंगी   चूनर    कोर    हरी मोती की उस पर दिव्य लड़ी।   तेरी छवि का अवधान करूँ       तेरे  गौरव  का  गान   करूँ।  क्रूर,   कुटिल  जो   भी आया तूने   प्रमुदित    है     अपनाया  जुल्मों का सह कलुषित साया।           संयम पर तेरे  शान  करूँ           तेरे गौरव का  गान  करूँ।  तेरी  आभा  जग में   बिखरे  गुण, ज्ञान, गर्व, गरिमा निखरे गुरुता की गूँज   नहीं   बिसरे।           मैं विपद सकल से त्राण करूँ           तेरे  गौरव   का    गान    करूँ। 

हमें अखण्ड - देश पर गुमान है

पंजाब , असम, आंध्र   अंग  तमिल , बिहार   और   बंग,     अनेक    खण्ड,    बोलियाँ बँटी न   पर   जुबान    है।  हमें अखण्ड - देश पर गुमान है।  अनेक     धर्म     पल रहे  भ्रमित  सहज   बदल   रहे,  अछूत,    जाति - भेद   की जमीन   अब    वीरान    है।  हमें अखण्ड - देश पर गुमान है।  गईं     दिलों    से    दूरियाँ  कटार      कुंद,      छुरियाँ,  नये  सृजन,   विकास  की  नई,   सफल    उड़ान    है।  हमें अखण्ड- देश पर गुमान है।  खिले  सुमन  चमन - चमन  विराजता     यहाँ     अमन,  पवित्र     मातृभूमि      शुभ्र  स्वर्ग      से     महान      है।  हमें अखण्ड - देश पर गुमान है। 

शोलों    का    त्योहार    चाहिए

शान्ति -सन्धि सब व्यर्थ हुए अब हर   दुश्मन   पर   वार    चाहिए,       रौंद  चलें  फन  हम  विषधर  के तलवारों     में      धार    चाहिए।            वृथा  दम्भ    जो    भरने    वाले  अरिदल    का   संहार    चाहिए,  बलशाली  ,     घहराती      सेना  अब  सरहद   के   पार   चाहिए।  बहुत   बहे   हैं   अश्रु,    बरसना  आँखों      से    अंगार     चाहिए,  ज्वालाएँ  ,   उड़तीं      चिनगारी  शोलों    का    त्योहार    चाहिए।    आतंकी ,  घर   के   भेदी    का   आज  हमें   बस  क्षार   चाहिए,    ह्रदय  और  हर  एक  शिरा   में       गरम   लहू   की   धार   चाहिए।  मातृभूमि    को     डसने   वाले  शत्रु  - सकल  की  हार   चाहिए,  बोस,  भगत,  सुखदेव,  राजगुरु  देशभक्त   फिर    चार     चाहिए। 

स्वच्छता अभियान है

हर शहर  व हर नगर में  गांव की  सारी डगर में,  गूँजता   सर्वत्र   हरदम  धौत पथ  का  गान  है।         स्वच्छता अभियान है।  राह दिखती आज मंजुल  पंक   सारे  हैं  गये   धुल,  चल पड़ी शीतल हवा लो धरा   स्वर्ग  समान   है।          स्वच्छता अभियान है।  गंध  गायब  हर  गली  से  त्राण पाया  इस  बली  से,  गंदगी    के    नाश    को नर कर  रहा  संधान   है।  स्वच्छता अभियान है।  दुर्गन्ध का यह काल आया  युद्ध अब बिकराल  आया, गन्दगी   पथ  में  न   होगी  प्रेरणा     ही    महान    है।   स्वच्छता अभियान है।  है  लगा  भारत   सँवरने  रत नया निज रूप धरने,  गंध  के   अवसान   हेतु  चला   भीषण- बाण  है।    स्वच्छता अभियान है।

कर    वतन    से    प्यार

द्रोह के तू  पंथ  मत  चल अनगिनत घर हैं गये जल,  खून    के     छींटे    पड़े  दिखते   अमन  के द्वार।  कर    वतन     से   प्यार।  साजिशों का  जाल  देखो इस धरा  का  हाल  देखो,  स्वर्ग की  इन  वादियों   में  हैं        बिछे        अंगार।  कर    वतन    से    प्यार।  चाहते  अरि साधना  हित भावना इनकी नहीं  सित,  कर    रहे    निष्ठुर     यहाँ  नित  मौत  का     व्यापार।  कर    वतन    से    प्यार।  कूद  मत  है   तेज    धारा  छोड़ मत सरि का किनारा,  है कठिन  उस  पार  होना  जो       फँसा     मँझधार । कर    वतन     से     प्यार।

गर्व - से लेकर तिरंगा चल

है    तिरंगा   मान   अपना सौ-जनम कुरबान  अपना,  हम      सदा      फहराएँगे  पर्वत - शिखर, जल, थल।  गर्व - से लेकर तिरंगा चल।  तीन   रंगों   से    भरा     है  श्वेत,   केसरिया,   हरा    है,  शक्ति, साहस,  सत्य,  सुख  से     है     सजा     अंचल।  गर्व - से  लेकर तिरंगा चल।  मध्य  में   है   चक्र  अंकित  धर्म  विजयी, पाप  शंकित,  तिल्लियाँ  कहतीं  बढ़े  जा मृत्यु        जाना        ढ़ल।  गर्व - से लेकर तिरंगा  चल।  चढ़ विहँसता नील- अम्बर क्या   बिगाड़े  वैर ,  संगर ,  खाक  हम   करते   चलेंगे  जो     बढ़ा    अरि -   दल ।  गर्व - से लेकर तिरंगा चल। 

भारती! गाऊँ सुयश के गान

नव- प्रभा, नव-राग, नव- युग का    करूँ    अभियान   मैं,  कर सकूँ निःस्वार्थ, निज कर राष्ट्र     का     निर्माण    मैं।  भक्ति - श्रद्धा  के  सुमन   को चाहता    दर     पर    चढ़ाना,  इस   धरा   पर    ले     जनम मैं  चाहता   हर   बार   आना।  और जाऊँ दे तुझी  को  प्राण।  भारती! गाऊँ सुयश के   गान।  स्वर्ग  का   सुख   गोद   तेरी  प्यार     है     अंतर      भरा,  तू  विभा,  वैभव   विभासित  सुख   सकल,  सुन्दर -  धरा।  शान्त, शीतल, सित निशा में  देवगण    तुझको    निरखते,  चाहते  कि   स्वर्ग   में    एक भारती        इंद्रेश        रचते।  स्वर्ग भी झुकता तेरे दर आन।  भारती! गाऊँ सुयश के  गान।  युग  -  युगों   से   प्यार   की  गंगा  -  जमुन   बहती   यहाँ,  बाँटने   वाली   नहीं   दीवार  टिक        सकती       यहाँ।  मुस्लिमों   की   बस्तियों   में  हाँ,    यहाँ    बनते    शिवाले,  भेद  दिल  के,    वैर, कटुता  के     घरौंदे      तोड़    डाले।  नफरतों का है न  कोई  भान।  भारती! गाऊँ सुयश के गान।   

स्वर्ण-चिरैया    भारतवर्ष

भारत  की   मिट्टी है  सोना शस्य  भरा  है  कोना- कोना ,  आशाओं की किरण दृगों   में  कण-कण पर छाया   उत्कर्ष।  स्वर्ण-चिरैया    भारतवर्ष।  विभव,रत्न से सज्जित  काया  मोती,  माणिक   इसने   पाया,  दूर तिमिर, हर दिशा विभासित मुख -  मंडल  पर  तिरता  हर्ष।  स्वर्ण-चिरैया      भारतवर्ष।  सकल विश्व  की  एकल  वाणी  भारत - भूमि  जगत् -कल्याणी,  ज्ञान  और  गुर   से   आभूषित  दूर   ह्रदय   से    सदा    अमर्ष।  स्वर्ण-चिरैया       भारतवर्ष। 

पपीहा   धीरे-धीरे    बोल

शुभ्र,  सुवासित,  नीरव    रजनी  तंद्रिल  नयन  लिए   भू  - जननी,  शान्त,स्निग्ध,बोझिल पलकों को दे    स्वर     रे      मत      खोल।  पपीहा     धीरे-धीरे      बोल।  देख, न तारक – दल  में हलचल चंद्र-किरण शोभित  नभ निश्चल,  पी  - पी  के  रव कर   मतवाले  डाल-डाल      मत     डोल।  पपीहा     धीरे- धीरे      बोल।  मधुवन मौन, मंद्र  तरु, किसलय मधुर, मनोहर, मदिर मदन - लय,  चंचु  खोल  रस  बरसा   दे  खग विरह  -    राग      मत       घोल।  पपीहा     धीरे- धीरे      बोल।  है    निरभ्र   विस्तृत   कुल अम्बर  अतल सिन्धु निःशब्द, शान्त -सर,  मंथर  - धार,  सुप्त  -  सी    लहरें  जो      थीं      गतिमय,      लोल।  पपीहा   धीरे  -   धीरे       बोल। 

धूल  ही  चंदन  है

कण-कण  में  बिखरा  है  सुवास  लघु-जीवन की तू   दिव्य  - प्यास किरणें   छू  करतीं   नित्य   लास।  जन्मभूमि- जननी तेरा अभिनन्दन है।        धूल ही चंदन है।  तेरे अंचल  की   मृदुल-छाँव  ममता   ले    तेरी    बढ़े     पाँव  पाया   तुझसे   है   ठौर  -  ठाँव।  हरती जीवन-संताप, विश्व का क्रंदन है।        धूल ही चंदन है।  बहता  सुखमय  शीतल - समीर  संतप्त    दिशाएँ   चीर  -   चीर मन का उड़ता फिर मुदित कीर।  भर जाता हर्षोल्लास, चतुर्दिक रंजन है।        धूल ही चंदन है।  हारे   को   अंक   अभय   देती  बेसुध - जीवन  को   लय    देती रेतों    को    निर्झर   पय   देती।  संसृति के दृग का तू मंगल अंजन है।        धूल ही चंदन है। 

जननी! कैसे सम्मुख आऊँ?

फूल   नहीं   है   मेरे   कर    में  सरसिज नहीं खिले लघु-सर में,  ले  श्रद्धा   का   हार,   गले में  क्या         आकर      पहनाऊँ?  जननी!  कैसे   सम्मुख   आऊँ?  ह्रदय  भाव  से   शून्य   पड़ा है  मुझसे    मेरा   अहं   बड़ा  है,  शुष्क-ह्रदय को  प्लावित   करने  को     क्या      अश्रु   बहाऊँ?  जननी!   कैसे   सम्मुख   आऊँ?  कण-कण पर निशि की कटु स्याही  अपना   ही    पथ    भूला राही,  युग  -  युग   से   सोया    अंतर्मन  किस     विध     विश्व      जगाऊँ?  जननी  ! कैसे     सम्मुख     आऊँ?  जग   से    कोई   गिला  नहीं है  निज  उर- पंकज  खिला  नहीं  है,  उन्मीलित   करने     को   मधुवन  कितने सावन         लाऊँ?  जननी!   कैसे    सम्मुख    आऊँ?  खुद  से   ही   लड़ते आया    हूँ  अबतक   जीत   नहीं   पाया   हूँ,  एक   तिमिर   के    लिए   बता  क्या   सौ  - सौ दीप    जलाऊँ?  जननी!   कैसे   सम्मुख   आऊँ? 

सर झुकाऊँ आ तुम्हारे द्वार जननी

दुर्गुणों को तज सकूँ माँ  कर  सकूँ  बलिदान  मैं,  दे  तुझे  सर्वस्व  अपना  कर सकूँ  अभिमान  मैं।  दूर   हो  दर  से   तुम्हारे  जी  न   सकता  भारती,  दे मुझे  आशीष  जननी  कर सकूँ  नित   आरती।  बीच तूफा से तरी कर  पार  जननी  सर झुकाऊँ आ तुम्हारे द्वार जननी।   हैं नहीं शिशु, पर  हुआ  न    ज्ञान    कुछ    को,  घेरता      है       स्वार्थ- लालच   आन   उनको।  हो    कभी    निःस्वार्थ  उठ    पाते    नहीं    वे,  गान  तक निज राष्ट्र  का    गाते    नहीं  वे।  दिग्भ्रमित का भी करो उद्धार जननी  सर झुकाऊँ आ तुम्हारे  द्वार   जननी।  दो - टके पर बिक रहे कुछ          देशवासी,  स्वर्ग की इन  वादियों  में     क्यों     उदासी?  दुश्मनों     को    भेद  पल-पल मिल रहा है,  ताज     पर्वत     का  निहारो हिल  रहा  है।  द्रोह के पथ पर बिछा अंगार जननी।  सर झुकाऊँ आ तुम्हारे द्वार   जननी।  शब्द  कटु   लब    पर, भृकुटियाँ भी  तनी  हैं,  रक्त     में     अगणित  कटारें  क्यों  सनी हैं?  धुल रहा सिंदूर माँगों में  नहीं     लाली     बची,  देखने  को  दीर्घ  छाया  मौत  की  काली  बची।  हो बगावत का सदा प्रतिकार जननी सर झुकाऊँ आ तुम्हारे  द्वार   जननी। 

कई खण्ड पर एक देश का नारा है

मिलजुल   रहते   भारतवासी  सूरत, मथुरा,  दिल्ली, काशी,  कोल्लम, पणजी,चिकमगलूर प्यार    सभी   में   है  भरपूर।  गौहाटी, शिमला, पटना भी न्यारा है  कई खण्ड पर एक देश का नारा  है।  मगही,   उर्दू ,   बोडो     भाषा  हिन्दी तो जन-जन की आशा,  पंजाबी,    उड़िया,     संथाली तिरती    होठों    पर   बंगाली।  शत् भाषाओं की बहती इक धारा है  कई खण्ड पर एक देश का नारा  है।  गंगा-यमुना  बहतीं   मिलजुल  रंग - बिरंगे  गुलशन  के   गुल,  परिमल भरता मलयानिल बह  नफरत का हर दुर्ग  गया  ढह।  जन-जन की आँखों का भारत तारा है  कई खण्ड पर एक देश  का  नारा   है।  

भारत  विश्व-पटल  पर  छाये

जग  बोले   तेरी    ही भाषा  प्राणों की  उत्कट  अभिलाषा,   तेरी  ही  छवि   विश्व    निहारे अंचल  में   चंद्रिका,    सितारे,  दिव्य,   मनोहर   तेरी    धरती  ताप सकल तन-मन का हरती,  कलकल  नदियाँ  हैं  प्रवाहमय धवल  शैल-माला करतीं  जय।          शीतल,सुन्दर,सुखमय तेरे साये         भारत   विश्व- पटल  पर   छाये।  जग  में   जब   छाये   अँधियार निर्भय    हो    तू    करे    प्रहार,  तू  बढ़   करना   कष्ट निवारण  पूरी   वसुधा   का   कर   तारण,  संकट    में    जग  आये   द्वार  माणिक,  मोती    का    ले  हार,  आशा  की  किरणें  प्रकीर्ण  कर- पशुता की हर  शक्ति  जीर्ण  कर-        धरम-भरम का कंटक सकल मिटाये        भारत   विश्व-   पटल    पर     छाये।  विश्व    देखकर    हो  ललचाता  दूजा   भारत    रचा    न   दाता,  सबकी   आलिंगन   की   चाहत  मिले  जगत्  को  तुझसे   राहत,  ज्ञान-विभा से  जग  को भर  दे  इतना - ही बस भू  पर   कर  दे- शोणित  की  मिट   जाए  प्यास जीवन  का  हर  पल   उल्लास।    गुण तेरे हर्षित होकर जग गाये  भारत  विश्व - पटल  पर   छाये। 

भारती!  कैसा   दूँ   उपहार?

कहो पेश कर दूँ शशि  प्यारा  दिनकर से  लेकर  उजियारा,  और  सितारे   गूँथ   डोर   में  अनुपम    रच      दूँ      हार! भारती!  कैसा   दूँ    उपहार?  बागों  से  चुन  स्मित -  पाटल  मंद्र सुवासित कलियों का दल,  किसलय की ले चारु- चपलता तेरा          करूँ         सिंगार!   भारती!  कैसा     दूँ    उपहार?  भाता   तुझको   हरित  रंग  है  केसरिया  भी   सदा   संग   है,  श्वेत - रंग   की   चुनरिया पर  चमचम      स्वर्णिम      तार! भारती!   कैसा     दूँ  उपहार?  धवल - शैल  का  नीरव-  गान  या  नभ  छूने   का   अभियान,  या  कलकल   बहती   पावन -  सरिता    की    उर्मिल  - धार?  भारती!   कैसा   दूँ     उपहार?  आया भावों   से   भरकर   उर  श्रद्धा-सुमन,स्नेह, सुकृत- सुर,  न्योछावर   सर्वस्व   करूँ   मैं  सह     पथ      के      अंगार!   भारती!  कैसा    दूँ  उपहार? 

मुग्ध है संसार

कौन गाता मधुर गान?  छेड़ता  उन्मुक्त   तान  दिवा,संध्या या बिहान।          मधुप का गुंजार          मुग्ध  है   संसार।  विटप मरमर  बोलता  पुष्प पंखुड़ी खोलता  मग्न,विह्वल हर लता।        मृदुल - रस संचार       मुग्ध   है   संसार।  मुदित सरिता का किनारा  नृत्य  करती  लोल  धारा  नील  अम्बर  से  फुहारा।   नाव नद के पार   मुग्ध  है   संसार।  खिल उठे नभ के सितारे  सूर्य,  शशि, नक्षत्र   सारे एक स्वर में मिल पुकारे -        स्वतंत्रता -त्योहार        मुग्ध   है   संसार।  शान्त, निश्चल गहन - अंतर नृत्य  आँखों   में   निरंतर,  शुष्क- मन की भावना तर।     ज्योति का विस्तार     मुग्ध    है   संसार। 

देश हो खुशहाल

'समृद्ध- भारत' चाह  मेरी  मंजिलें   व    राह    मेरी,  फँस तिमिर  के  पाश  में  न   हो    कभी    बेहाल।           देश हो खुशहाल।  व्याधि, पीड़ा अब न जकड़े सठ कुपोषण आ न   पकड़े,  हो न  किल्लत  औषधि  की  मिले         रोटी    -     दाल।       देश हो खुशहाल।  नित्य  बेकारी   घटे   भी  दीनता  पथ से  हटे   भी,  चाँद – तारों पर कदम हो कटे    कंटक- जाल।           देश हो खुशहाल।  हो  नहीं  पथ   में  अँधेरा  झूमता    आये      सवेरा,  रात्रि के पट पर दिवाकर  विभा      जाए      डाल।        देश हो खुशहाल।  नृत्य  करता  मन -  मयूरा  स्वप्न  हो  हर   एक   पूरा,  दिन-महीने शान्ति-सुख दें विभव     दे    हर    साल।    देश हो खुशहाल।  शक्तियों के सबल रथ पर बढ़ें सब निर्विघ्न  पथ पर,  भव्य, दृढ़, सौभाग्यशाली   देश    का     हो    भाल।  देश हो खुशहाल। 

बनके शलभ प्रिय जल जाऊँ

तेरा    दीप    जले   अविराम  निशि-दिन जले, जले हर शाम तिमिर - तोम पर  लगे  विराम।  मैं जलकर  शीतल  ज्वाला  में  जीवन       सफल     बनाऊँ।  बनके शलभ प्रिय  जल  जाऊँ।  लेकर  पंख  न   करूँ   उड़ान बस  तेरी   लौ   में   दूँ    जान  इसमें    पंखों    की   पहचान।  जलने  के  ही  लिए   दीप   में  नूतन     पर     फिर       पाऊँ।  बनके शलभ प्रिय   जल  जाऊँ। जलकर  ही  तो  ज्वाल  बनूँगा  नई कटारें  ,  ढाल    बनूँगा  शत्रु  सकल  का  काल  बनूँगा।  जागृत    रखने    को    ज्वाला  नित  पंख  -  पंख     सुलगाऊँ।  बनके शलभ प्रिय  जल   जाऊँ।  जीवन  की  वह   कैसी शान- मिला  न   मिटने  का   वरदान  हुआ नहीं  तन-  मन कुरबान।  तेरी    दीपशिखा    पाने   को मैं    उड़  -    उड़कर   आऊँ।  बनके शलभ प्रिय  जल   जाऊँ। 

प्राणों  में  मृदुरस  आज  घोल

नित सजल,करुण तेरी चितवन  तेरे  पद  -  पंकज   धोता   घन  परिमल  भरता   स्मित    चंदन।        देता अमृत  पिक  मृदुल  बोल।         प्राणों में  मृदुरस  आज  घोल।  अंचल  में  रंग   सुनहरा   भर तारों के  अगणित  मोती   धर दे    इंद्रधनुष  नीला - अम्बर।          विस्मित हो देखे फिर खगोल          प्राणों में  मृदुरस आज  घोल।  दे-दे  हिमांशु  निज  शीतलता  वो प्रभा-पुंज मुख पर तिरता विस्तृत नभ की सब नीरवता।          भर अंक सुखद वैभव  अमोल         प्राणों में  मृदुरस  आज  घोल।  गाये खग –कुल होके विभोर शीतल मलयानिल की झकोर बहती सरिता भर कोर - कोर।         तरु-पल्लव नर्तन डोल- डोल         प्राणों में मृदुरस  आज  घोल।  जुगनू  उड़ता  हो  तिमिर  चीर रौशन  जग  करने  को  अधीर हरता निशि की वह व्यथा,पीर।        पंखों से तम को  रहा  तोल       प्राणों में मृदुरस आज घोल।  मन   रहे   नहीं    कोई    संशय  बल, बुद्धि, शान्ति, साधन संचय हर  दिशा  मातृ - भू  तेरी   जय।        हो बन्धु - बन्धु में  मेलजोल        प्राणों में मृदुरस आज  घोल। 

माँ! कोटि-कोटि सर तेरे हैं

तू  चाहे  जब  जिसे   पुकारे  दिवा-रात्रि फिर या भिनसारे,  दौड़ पड़ें  हम सुन  ललकार बिखरें   पथ   चाहे     अंगार।        प्रमुदित प्राण निसर्ग किये बहुतेरे हैं        माँ!   कोटि  - कोटि   सर   तेरे   हैं।  किसमें बल जो हमें हिला  दे रौंद मृदा  में  कभी  मिला  दे,  चट्टानों - सी  अपनी    छाती  क्या कर सकता दुर्जन ,घाती!           डर के मारे सिमटे घने अँधेरे हैं           माँ! कोटि - कोटि  सर  तेरे  हैं।  कर्ज चुकाने का  अवसर  दे काम  तुम्हारे  आऊँ   वर  दे,  मौत मिले तो  ले लूँ  हँस  के  जकड़ूँ निज बाहों में कस के।           मृत्यु संग ही लिए सात हम फेरे हैं           माँ!  कोटि  - कोटि  सर   तेरे है।  दुश्मन का सह लूँ  प्रहार  मैं  सह लूँ हँस तीखी कटार  मैं,  तुझ पर आँच न  आने  दूँगा  आँसू   नहीं    बहाने    दूँगा।           लाख चतुर्दिक फैले अरि के घेरे हैं          माँ!  कोटि-  कोटि  सर   तेरे    हैं। 

तेरी  ममता  अपरम्पार

जो  भी   आया   तेरे   द्वारे विश्व विजेता या  रण- हारे,  तूने दी  है  छाँव  कृपा  की  दिए सभी को ठौर - सहारे।           जीने  का  देती  आधार           तेरी  ममता   अपरम्पार।  वो अपने  जो  वैर निभाते  जुल्म निरंतर तुझ पर  ढाते,  तेरी  ममता  के  आँचल में  वह्नि  प्रचुर अविरत बरसाते।           उनको भी  कर  देती  पार          तेरी     ममता   अपरम्पार।  मातृभूमि   तू   भेद   न  जाने  सजल,  करुण   तेरे    पैमाने,  प्यासे की तू प्यास शमित कर क्षुधित  जनों  को  देती  दाने।        भरे हुए हैं शस्यागार        तेरी ममता अपरम्पार।  दया - धर्म  की  नित्य  फुहार  सत्य- अहिंसा   की   सतधार,  त्याग और तप की धरती  यह  व्यर्थ  किंकिणी, हीरक-  हार।        कुंदन हो जाता निस्सार        तेरी  ममता  अपरम्पार।   अश्रु - बिन्दु से  हम  उर  धोते  करुण - भाव  के  बहते  सोते,  निकली कोमल-धार काव्य की  पलकों  के  जब   मोती  खोते।        अंतर्मन  होता   निर्भार        तेरी ममता  अपरम्पार। 

कौन छुपके तारकों में गीत गाता!

आ   गई    प्रमुदित    निशा चिर-ज्योत्सना के पट लपेटे, तारकों    के   मोतियों को पीत    अंचल    में    समेटे। शुभ्र यह परिधान अग-जग को लुभाता कौन  छुपके  तारकों   में   गीत   गाता! चंद्रिका लुक-छुप विटप में है  उतरती  शान्त   भू  पर, है   बहुत   उद्विग्न मिलने को  धरा  से  आज  अम्बर। दामिनी तिरती गगन जब मुस्कराता कौन छुपके तारकों  में  गीत  गाता! तारिकाओं  के उठे   घूँघट अधर    पर    हर्ष    छाया, तोड़   सारे   बन्ध    यौवन मत्त   अंगों    में समाया। एक  तारा  मस्त  चलता   लड़खड़ाता कौन  छुपके  तारकों   में   गीत   गाता! हर    लचीली     डाल  पर हैं  पंक्तियाँ सुन्दर  सुमन की, गुनगुनाता कह  रहा   उन्मत्त मधुकर    पीर    मन     की। खोल पंखुड़ी पुष्प हर रज-कण लुटाता कौन  छुपके  तारकों   में   गीत   गाता! आज   धरती,   नील   नभ संपृक्त  होंगे  संग   मिलके, एक   होंगे    राग     इनके एक   होंगे   अंग    मिलके। हो क्षितिज अनुरक्त, रत सौरभ उड़ाता कौन  छुपके   तारकों  में   गीत   गाता! सज  सहज  सृष्टि, रिझाना चाहती   दृढ़   भारती   को, अनगिनत  ये  दीप नभ के ही  जले  हैं   आरती   को। भर ह्रदय श्रद्धा जगत् मस्तक झुकाता कौन  छुपके  तारकों  में  गीत   गाता!

परम प्रतापी देश

यह   परम   प्रतापी   भारतवर्ष    हमारा बहती  जिसमें  गंगा-  यमुना  की   धारा,  सदियों से इसमें पाप सकल  धुल  जाता पावन-जल में संताप सकल  घुल  जाता।  युग -युग से रक्षित  करता  इसे  हिमालय  उत्तुंग शिखर पर स्थित  दिव्य- शिवालय,  तन पर हिम की सित चादर डाल खड़ा है बाधक दुश्मन के पथ का  बहुत   बड़ा है।  है पूर्व दिशा विस्तृत, निर्भय एक  खाड़ी  तन का मंजुल परिधान, नीलिमा साड़ी,         सेवा  करने  को  अपने   भुज    फैलाये  प्राची  की  ले  अरुणाई   नित्य   जगाये।  दक्षिण   में   सागर   हहराता,   लहराता  गौरव- गरिमा के  गान अथक   है   गाता,  जलधार लिए  पद - पंकज   धोने   वाला  गूँथे  अजस्र  चंचल   लहरों   की   माला।  नर्मदा लिए निज  अंक प्रमुदित प्रतीची  मृदु सांध्य-लालिमा सूर्ख अधर है  खींची,  धन - वैभव, बसते  जहाँ   द्वारकानन्दन  सागर करता पुलकित जिनका अभिनन्दन। हैं रंग - बिरंगे फूल यहाँ  पर पर खिलते  हिन्दू- मुस्लिम  के  वैर  नहीं   हैं   मिलते,  मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरिजाघर   है  नफरत  फैलाने  वाली   बन्द   डगर    है।  हम न्याय, धर्म की चौखट पर झुक जाते पावक  अन्यायी  के  तन   पर   बरसाते,  सत, अमन - चैन के  युग से  रहे  पुजारी  मानवी - मूल्य के  लिए  सतत्  बलिहारी।  सर अन्यायी के  आगे  कभी  न  झुकता  रोके   तूफानी  वेग  न   अपना    रुकता,  सठ,  हठी, भ्रमित संदेश  नहीं  जो  मानें  जलते   जैसे  धू -  धू    करके    परवाने।  भूले  से  भी   हमसे  जो  आ   टकराता  बनके   रोड़े  राहों  में  जो   भी    आता,  वह  सर्वनाश   को  आमंत्रित  करता   है  सच, एक नहीं वह सात जनम डरता  है। 

माँ  कब  आएँगे  अपने  दिन?

सदियों  तक  हम  पराधीन  थे अपना     तंत्र      न     चलता,  काली -  काली  रात, मौत   के  साये     में      दिन      ढलता।   जीने   का   आधार  लिया   छिन   माँ   कब  आएँगे   अपने    दिन?  रुधिर ,  प्राण  दे  मुक्त  हुए  थे थी   जन     की अभिलाषा,  मुक्ति  मिलेगी क्षुधा - ज्वार से  देश      न     होगा      प्यासा।      स्वप्न  अभी   साकार   न  लेकिन      माँ  कब   आएँगे    अपने   दिन?  रुग्ण  जनों   को   दवा   मिलेगी  सर    पर    छत    की     छाया,  निर्धनता    से    मुक्ति   मिलेगी  सुन्दर ,      सुखकर      काया।      सोते  कुछ  अब  भी   खाये  बिन      माँ  कब   आएँगे   अपने    दिन।  अब    भी    बच्चे    हाथों में  ले     फिरते     भग्न     कटोरे,  दो  -  दाने   की  आस  लगाये  पत्तल        क्षुधित        बटोरे।     रामराज्य   कब   होगा   मुमकिन?     माँ  कब   आएँगे    अपने  दिन?  निर्बलता ,   लाचारी    अब   भी  घर       में        पैर        पसारे।  व्याधि  और पीड़ा   मिल   दोनों  निर्धन      को       नित      मारे।  दिन  जीवन  के   रहा  काल  गिन     माँ   कब    आएँगे    अपने   दिन?  संवृद्धि     की     चकाचौंध     से  सूने अगणित        द्वार,  रुज  , बीमारी   में   फँस   जीवन  अक्सर          जाता हार।      जरा   रेंगती   है   औषधि   बिन      माँ   कब  आएँगे    अपने   दिन?  मिट्टी  का  यह  गेह  कि  जिसका  छप्पर     निशि-  दिन     चूता,  बुढ़िया    जगके    रैन     बिताये  कबतक          जगे          प्रसूता?     थर्र  - थर्र   काँपे   बेटी   कमसिन     माँ    कब   आएँगे  अपने    दिन? 

हैवानियत की हार

गुलामी की निठुर उन बेड़ियों से मुक्त हैं लेकिन  निडर बढ़ती हुई हैवानियत की  हार  बाकी है।  अभय होके निरंतर घूमते दिन  के  उजाले  में  लगा होता किरच में खून,खंजर और भाले  में,  गुनाहों और दहशत का हमेशा दौर  है  चलता  लुटेरों के बढ़े आतंक का पर  क्षार  बाकी   है।  निडर बढ़ती हुई हैवानियत की हार  बाकी  है।  अनय बढ़ता हुआ इनका, हुए निर्बन्ध  मंसूबे  अनेकों ही तरह के  पाप  में  आकंठ  हैं डूबे,  नहीं घर-बार रक्षित  है, नहीं है  शील, मर्यादा  दशानन की भुजाओं का अभी संहार बाकी है।  निडर बढ़ती हुई हैवानियत की हार बाकी  है।  चमन लूटा,सुमन के साथ नाजुक तोड़ दी डाली  विरह में सूखते किसलय, बची न चंद हरियाली, न मिलती बौर की खुशबू,नहीं सौरभ गुलाबों का अकेले में खड़ा  बस  एक  हरसिंगार  बाकी  है। निडर बढ़ती हुई हैवानियत  की  हार  बाकी  है। किरण की एक तन्वी काँपती-सी डोर ही दिखती गहन अँधियार में डूबी निशा की कोर ही दिखती नहीं वो बात चंदा में लुटी  अनमोल  हैं   निधियाँ अभी घनघोर तम के पाश से  उद्धार  बाकी है।  निडर बढ़ती हुई हैवानियत की  हार  बाकी है।  जतन से बाँधना होगा, अबल, टूटे  कगारों  को डुबोने के लिए उन्मत्त, बहकी  तीव्र  धारों  को,  हजारों  उग्र  लहरों  ने  तरी  को आन  घेरा   है  पकड़ पतवार हाथों में अभी मँझधार बाकी  है।  निडर बढ़ती हुई हैवानियत की  हार  बाकी है। 

जागो

देखो  विघ्नों  के  बीच  खड़ी  है   माता जागो - जागो, अब जाग वीर  हे  भ्राता,  दुश्मन सीमा  पर  वह्नि  प्रखर  बरसाते  उठती  लपटों  में  जलते   और  जलाते।  है ध्येय  एक  गुलशन  में  आग  लगाना  सो रही मृत्यु को आकर त्वरित  जगाना,  निर्दोषों  के  शोणित  से  रंगा  वसन है  लोहित सरिता की  धार, धरा  व  घन  है।  इनमें  न  कहीं  है  दया - धर्म  की  धारा  मानस    में अंतर्द्वन्द्व , नयन अंगारा,  मारे   फिरते   दुनिया  के  कलुष समेटे  बन सके  न  दायी  बाप, किसी  के  बेटे।  शोलों के इनके  शब्द ,अनल  की  भाषा  घातक   आतंकों   ने   है   इन्हें   तराशा,  मानवता  के  तट  पर  से  दूर   खड़े  हैं  आकण्ठ  भरे  पातक  के   पूर्ण  घड़े हैं।  जीते बनकर  आकाओं   की  कठपुतली  चेहरे पर अपने स्याह  कालिमा  पुत  ली,  आतंकों  के   नित  नये   रंग   में   ढलके  मिलते कितने  ही रूप यहाँ पर  खल  के।  आकर  सीमा  में   विषधर  है  फुफकारा  लेकर  जहरीले   दंत ,  गरल   की   धारा,  जागो - जागो   हे  वीर   दंत   को   तोड़ो विष  की  धाराओं  को  पौरुष  से  मोड़ो।  निपटो  उनसे  जो  करें  पृष्ठ   में   खंजर  भारत  में   रहकर  करें   देश   से   संगर,  उन देशद्रोहियों को  भी  सबक  सिखाना  बाहर के  पहले   घर  की  आग   बुझाना।  कर दे  धरती  को  लाल, रक्त  से   भर  दे  माता  के  चरणों  में  अरि  के  सर  धर दे,  गोले    बरसाते    हस्त    हजारों     काटो  नर - मुंडों   से   सारी   धरती   को  पाटो।  दुश्मन गिरके जब तक निज  हार न माने  तेरी  आँखों  का  बहता  ज्वार न   जाने,  फन को चरणों  से  होगा  तुझे  कुचलना  शोलों - अंगारों  पर  होगा  नित चलना।  हिन्दू - मुस्लिम  का  भेद  न  यारों   मानो  तू    शूरवीर   अपनी    सत्ता    पहचानो,  राणा  प्रताप  का  रक्त  तुम्हारी   रग में  है  कौन  सहे  तेरा  प्रहार इस   जग में!  हर  द्वन्द्व  छोड़  आपस  के   बनो  सहारे  इस  मातृभूमि   के   ही   वंशज  हैं  सारे,  मंदिर - मस्जिद  का  वृथा  तर्क, बँटवारा  है एक शक्ति  जिसकी  बहती  शत - धारा।  कलह -  फूट  से   देश  नहीं   चलता    है  प्रतिशोधों का जब अनल जिगर जलता है,  अपने जब तक अपनों  की  कुटिया  जारें  नित्य   नई   बनतीं   दिल     में    दीवारें।  जब तक मानव अन्यायी  के  दर  झुकता  दानव  का  बढ़ता  क्रूर  कदम  न  रुकता,  आलस्य बीच  घिरके  जब  नर  सोता   है  सम्मान, धर्म,  धन  और  धरा   खोता है।  नत  होने  से  सागर  पथ  कभी  न   देता  कलयुग,  द्वापर,  हो  रामराज्य  या त्रेता,  हे  वीर  उठा  ले  धनुष,  दहकता  शर है  बहती जिसकी  रग आग बली वह नर  है।  काँटों पर चल अरिजन से  लड़ना   होगा  धधके   अंगारों   से   उर   भरना    होगा,  नयनों   में   उबले   लहू,  बहे    चिनगारी  मरना   ही   है   तो  आज   करो   तैयारी।  निष्कंटक  करना   है  भारत   को   जागो  विचलित  करने  वाले  दुर्गुण  सब  त्यागो,  कह  दो दुश्मन  को  वीर, बली  हम आते  अस्त्रों - शस्त्रों  के  साथ  ध्वजा  फहराते। 

है तरुण-देश भारत-विशाल

कलियों  पर  मादक  लाली  है  कानन,  उपवन   हरियाली   है,  कोयल की  तान मधुर  बिखरी  धरती   लगती   नूतन , निखरी।    मंजर    महके,  झूमे    रसाल    है तरुण- देश भारत - विशाल।  फूलों   पर   मधुकर   बौराता  रस की  हाला  जब पी आता,  सावन  के  मस्त  झकोरों  में  नाचे  यौवन  वन -  मोरों   में।    खिलता  इंदीवर   ताल  - ताल    है तरुण - देश भारत - विशाल।  बहती  तन  छू  शीतल   बयार मकरंद -  गंध  अनुपम,  अपार,  अंचल  उड़ता  लहरा  सर   से  बहकी  घाटी  भर   केसर   से।    धानी     चूनर    है    बेमिसाल     है तरुण - देश भारत - विशाल।  पावस  रिमझिम झनकार  हुई  सूखी   नदियों   में   धार   हुई,  पुलकित कूलों में  स्वर- लहरी  उल्लसित, मग्न  सरिता गहरी।   चमका  सागर  का  प्रखर-भाल  है  तरुण- देश  भारत - विशाल।  नभ  में  तारों  के  खिले  सुमन  गिरते  शबनम  की   बूँदें   बन,  सजती भारत  की  दिव्य -धरा  मोती  से  अंचल   भरा  - भरा।    प्राची   बिखरा   देती    उजाल    है  तरुण- देश भारत - विशाल। 

कश्मीर

धुआँ-धुआँ  कश्मीर, नहीं  घाटी  सुलगाओ  है दुष्कर जो पंथ, मिलो खुद ही  सुलझाओ,  खून - खराबा,  हिंसा  पर जय  पाना  होगा  भूले  हुए पथिक को फिर घर  आना  होगा।  करे शत्रु का  पोषण, सत्  आचार  नहीं  है  दुश्मन के  संग रहे, वतन का यार  नहीं  है,  हो अपनों पर घात जहाँ  पर, हर्ष  न  होता  कलुष,कपट के बीच कभी उत्कर्ष न होता।  मातृभूमि  से  द्रोह  पुरुष  जो  करके   जीते  सहते  हैं   अपमान,  निरंतर   आँसू    पीते,  जीने का  उद्देश्य  वतन  पर  हो  मर  जाना  एक बार जो गया  नहीं  फिर  वापस आना।  है न प्रश्न  कोई  जिसका  हल  नहीं  मिलेगा  खोद लगन से धरा  तुझे  जल  वहीं  मिलेगा,  जो  तुझसे  न  सधे  बना  हथियार  नहीं  है  है न कहीं  मँझधार कि जिसका पार नहीं है।  भ्रमित हुए जन को फिर से समझाना  होगा  डिगा हुआ  विश्वास  सभी  का  पाना  होगा,  दुश्मन  पचा  न  पाते   हैं   तेरी    खुशहाली  घृणा,  द्वेष के  विष  से  भरते   तेरी प्याली।  नहीं  तुझे  रक्षित  करते  तलवार  दिलाकर तुझे  बगावत  सिखलाते  अंगार   दिलाकर,  जो  निर्धन , बदहाल  तुझे  क्या  देने   वाले  देंगे क्या उजियार कि जिनके हैं दिन  काले?  खुद  तम   में   रहने   वाले  अँधियारा   देंगे  तोड़  नहीं  तुझको  अम्बर  का   तारा  देंगे,  फैलाना  आतंक   शत्रु   की   चाल  पुरानी  रोक ,रसद ,व्यापार, सरित का बहता  पानी।  बच्चा - बच्चा बने शिवा, हर   बेटी लक्ष्मीबाई  राखी के बदले आ बहना,बाँधे  कफन कलाई,  बदला भारत देख सहज दुश्मन पग नीचे होगा  ऊपर अपना देश प्रखर,बाकी  जग नीचे होगा। 

हाँ!  मातृभूमि  से  प्यार  मुझे

मैं  ह्रदय  खोल के  कहता हूँ  भारत - भू पर  नित  मरता  हूँ,  धरती शय्या, सित  आसन   है  भूतल  अनुपम   सिंहासन है,  इसकी  ममता  का  पार   नहीं  बिन   इसके   है   उद्धार   नहीं।  यह देश दिया  जीने का  दृढ़ आधार मुझे        हाँ! मातृभूमि  से  प्यार मुझे।  कण-कण में  सौरभ  बिखरा है  आनन   माँ   तेरा    निखरा    है,  फूलों   की   अनुपम   घाटी    में  केसर   विहँसे    इस   माटी    में,  पावन , शीतल , मृदु   नीर   यहाँ  मिटती  जनमों   की   पीर   यहाँ।  तू मिली,धरा पर मिला स्वर्ग का  सार  मुझे          हाँ! मातृभूमि  से  प्यार  मुझे।  भाता    तेरा     दुकूल      मुझे  संगम,  सरिता  का  कूल मुझे,  तालों में  खिलता  नील- कमल  चादर  तुषार  की  मंजु , धवल,  मलयानिल  बहता  ले    सुगंध  उड़ता   पराग   होके   अबन्ध।  धरती लगती  वनफूलों   का  आगार   मुझे        हाँ! मातृभूमि   से   प्यार  मुझे।  कंठों  से  मुखरित  गीत   मधुर  कोमल  भावों  से  सिंचित  उर,  पंछी   को   मिलता   दाना   है  बेघर   का  यही   ठिकाना   है,  पापों   का   होता   नाश   यहाँ  हारों  को  मिलती  आस   यहाँ।  तेरे  बिन  जीवन  लगता  है  निस्सार मुझे  हाँ! मातृभूमि  से  प्यार  मुझे। 

भारत - माता  की  जय  बोल

हरित  रंग  में  रंगी   धरित्री  रंगों  की   बिखरी   बरसात,  गेंदा, अड़हुल, मस्त- चमेली  पवन  संग   झूमे पारिजात।   वल्लरियाँ  गातीं  नित   डोल  भारत - माता की  जय  बोल।  मेघ  सलिल  भर  लाते  गगरी सावन    देशप्रेम    में    झूमा,  पावन इस  धरती  को  विह्वल  कोमल निज अधरों से   चूमा।      राग  रसिक  छेड़े   अनमोल      भारत - माता की जय  बोल।  कुमकुम, चंदन, उड़ता  परिमल  कलियों  की   मादक   अंगड़ाई,  भ्रमर   करे    गुंजार  बीन - सी  मधुर- मधुर स्वर - लहरी आई।     कोयल  कूक  रही  मुँह  खोल।     भारत - माता  की  जय   बोल। 

चाहत

भारती    तेरे    चरण     की   धूल    बनना    चाहता    हूँ,  चढ़    सकूँ     तेरे     कदम  वो  फूल  बनना  चाहता  हूँ।  चाहता      बनना      सरित  तेरे    चरण   नित  धो  सकूँ,  हर   सकूँ   मैं   प्यास   तेरी  बह   तुम्हीं   में   खो    सकूँ।  एक   सुर   में    बाँध   पाऊँ  एकता   की    डोर    बनना,  दिव्य ,निर्मल पीत - पट  की  चाहता  सित   कोर   बनना।  द्रोह  के   हर   स्वर    दबाऊँ  मैं     वतन       के      वास्ते,  जो करें यश - धन  कलंकित  बन्द      हों      वो      रास्ते।  मैं   जवानों   की   शिरा   में  खून   बन    अविरत     बहूँ,  'भारती की  जय'  चिता  की  मैं    लपट    बनकर     कहूँ।  शौर्य ,  गौरव  ,  वीरता    की मैं     बनूँ     ऐसी      कहानी,  राष्ट्र    की    बलिवेदी    पर  चढ़ जाऊँ बन अल्हड़ जवानी।  देश     के    बलिदानियों    में  शीर्ष     मेरा     नाम      आये,  मैं     करूँ    उत्सर्ग     जीवन  अस्थि    मेरी    काम   आये।  चाहता   हूँ    देव    मिट्टी  में  मिलूँ      मैं      क्षार      बनके,  भारती     के    मैं    गले     में  झूल     जाऊँ    हार     बनके। 

मिटे जड़ों से भ्रष्टाचार

दीमक बनकर चाट रहा है,  पथ बढ़ने का काट रहा  है,  निर्धन- जनता की रोटी ले चंद -जनों  में बाँट  रहा  है।   बाल, वृद्ध के हाहाकार  मिटे जड़ों से भ्रष्टाचार।  काले  धन  का बहुत शोर  है,  इसमें बल -छल और जोर  है,  हर  दफ्तर  में  चारण इसके  दिवा  इसी  के  और  भोर है।  यही  बना  है  खेवनहार    मिटे जड़ों से भ्रष्टाचार।  छुप-छुपके नोटों का गिनना,  दीन-हीन  की  रोटी  छिनना,     राष्ट्र हितों  की अनदेखी  कर पातक  है  नोटों  का मिलना।      पथ में रोड़ों के अम्बार      मिटे जड़ों से भ्रष्टाचार।  कमर  देश की  इसने  तोड़ी,  अर्थव्यवस्था जर्जर   छोड़ी,  चलें  विदेशी-बैंक    खँगालें,  कितनी माया किसने जोड़ी।      सुधरें भ्रष्ट नियम, आचार      मिटे  जड़ों  से  भ्रष्टाचार।  सम्पत्ति   बेनाम    पड़ी   है,  मणि अकूत  भूगर्भ  गड़ी है,  ज्ञात करेंगे मिलजुलकर  हम सेज कहाँ पर रत्न जड़ी है।       बेनामी धन पर हो मार      मिटे जड़ों से भ्रष्टाचार।  कर- चोरी   पर  वार  करेंगे,  भ्रष्टों   का   परिहार   करेंगे,  अर्थव्यवस्था की कश्ती को भँवर, लहर  के  पार करेंगे।        भ्रष्ट जनों की होगी हार       मिटे जड़ों से भ्रष्टाचार।  चलो जगायें शासन, जन को,  पावन करना  है हर  मन  को,  राष्ट्र  सुरक्षा  की खातिर  हम होम  करेंगे  काले   धन को।         हिन्द  पुकारे   बारम्बार         मिटे जड़ों से  भ्रष्टाचार। 

तुझ पर  जीवन  निस्सार  करूँ

दीर्घ   उम्र   की   चाह   नहीं  मिट  जाऊँ  तो  परवाह  नहीं,  कर  सकूँ  अगर  कुर्बानी   मैं  दूँ  अपनी  सकल  जवानी  मैं,  मैं   पहले चिता  जला   जाऊँ  ज्वाला के बीच  चला  जाऊँ।  मर -मिटने का जीवन में एक त्योहार  करूँ।  तुझ पर  जीवन निस्सार  करूँ। पथ  सजे  अगर  अंगारों   से  दुश्मन  की  तीव्र  कटारों   से,  फुफकारे पथ में  जो  विषधर  फट  जाने  को  उद्धत  अम्बर,  पग  मेरा  कभी  नहीं   रुकता           सर  व्यर्थ  नहीं  मेरा  झुकता।  हर तूफा से लड़  नौका  सागर  पार  करूँ      तुझ पर  जीवन  निस्सार  करूँ।  पाषाण बदन  को   बनने   दे काँटों   का  ताज   पहनने  दे,  इस  मिट्टी को  तन  दान करूँ तू  कहे  अगर  विषपान  करूँ,  मैं जलूँ  तिमिर जल  जाने  को  दुस्सह निशीथ  ढ़ल  जाने  को।  भर ज्ञान, विभव, आलोक तेरा उद्धार  करूँ         तुझ पर  जीवन निस्सार  करूँ।  जीवन  का  अंत   मरण    होता  यह   पंचतंत्र   का   तन   होता,  पावक,क्षिति,जल का मेल हुआ  अम्बर , वायु   का   खेल   हुआ,  इनमें   ही  पुनः   बिखर   जाना दो - पल जीकर फिर मर जाना।  मैं तरल-ज्वाल का  दरिया  डूबूँ , पार  करूँ।    तुझ पर  जीवन  निस्सार  करूँ। 

बलिदान का  संदेश

हम   रहें   या     न   रहें यह  देश  रहना   चाहिए,  कीर्ति  के  इतिहास   का अवशेष   रहना   चाहिए।  कृष्ण   की  पावन -  धरा है    देश  राजाराम   का,  संकल्प गीता का  ध्वनित  संदेश   है  निष्काम   का।  सत्य,शिव के हम  पुजारी  बुद्ध   की    वाणी   यहाँ,  अन्न , धन, जीवन लुटाते  हैं    बली ,   दानी    यहाँ।  भीष्म  का   प्रण   गूँजता  गांडीव   की   टंकार   भी,  त्याग ,  तप   के     सामने  ऐश्वर्य - सुख निस्सार  भी।  जो   अहिंसा   ने    किया  करती  नहीं   तलवार   है,  कर दिया  गाँधी,  विनोबा  ने    तरी   उस   पार    है।  देश    के    सम्मान     को  हम मृत्यु  का  करते  वरण,  ठान  लें   तो  दुश्मनों   को रौंद    ही    जाते     चरण।       वीरता ,    बलिदान      का   संदेश      रहना      चाहिए,  ज्ञान, गुर ,गौरव  वतन  का  शेष      रहना        चाहिए। 

तेरे  चरणों   की   धूल   बनूँ

पूर्ण  करो  तू   साध   विधाता  गले      माल      बन      झूलूँ,  भारत - माता की  चौखट  पर  चढूँ  ,     रेणुका     छू       लूँ।          मधुवन का खिलता  फूल  बनूँ          तेरे   चरणों   की    धूल    बनूँ।  बनूँ  नीर, अपनी   ही  धुन  में  कलकल      बहता     जाऊँ,  धोऊँ  पद   निर्मल धारा   से गंगा          बन        लहराऊँ।          सरिता  का  शीतल - कूल   बनूँ।          तेरे  चरणों    की    धूल     बनूँ।  प्रखर , प्रबल   अपनी  सत्ता  से  दुश्मन          को         दहलाऊँ,  वक्त   पड़े   तो   ओढ़  शैल  पर मृगछाला          सो         जाऊँ।  भोले  का  अजर  त्रिशूल   बनूँ    तेरे   चरणों   की    धूल    बनूँ।  फैलाऊँ   जब   भुजा  शत्रु - दल देख     विकल  ,    डर      जाए,  रुक  जाए  अभियान  युद्ध   का  बिन      मारे       मर        जाए।    मैं   विकट  , उग्र   वनशूल   बनूँ    तेरे    चरणों     की    धूल   बनूँ।  साँसों   में   हो   ज्वार   निरंतर  चाल        चपल    ,    तूफानी,  बरसाये       अंगार        नयन   हो      लोहू     सनी    जवानी।  तम   में   प्रकान्ति  का  मूल  बनूँ    तेरे   चरणों    की    धूल      बनूँ। 

आओ  बैठो, स्वप्न  नये   कुछ   बुनते   हैं

खेतों  में  धन - धान, भरी   हरियाली हो  डाली - डाली   कली जवाँ   मतवाली  हो,  दिग-दिगन्त हो ध्वनित  कृषक के  रागों से  कोयल  काली  कूक   रही   हो बागों   से।  पलकों   से   शबनम  की   बूँदें   चुनते हैं  आओ   बैठो,  स्वप्न  नये   कुछ   बुनते हैं।  हो   धरती   धानी   नूतन    परिधान    लिए  आँखों  में  कल  के  सपने  अनजान लिए,  दूर क्षितिज पर सुखद मेल धरती-अम्बर का  लहराता अंचल  फूलों  का,  हो   केसर का।  मलयानिल लुक- छुप  गाता, चल  सुनते  हैं  आओ  बैठो,  स्वप्न   नये   कुछ   बुनते   हैं।  मत्त , मनोहर  मेघ   धरा  को  चूम   रहे   हों  मस्त, मगन ये श्याम - सलोने  झूम  रहे   हों,  मरुद्यानों में नव-किसलय से  सजी डाल हो नवरत्नों  से  मातृभूमि  का  पूर्ण भाल हो।  हो   कैसे   परित्राण  व्यसन  से  गुनते हैं  आओ  बैठो,  स्वप्न   नये   कुछ   बुनते   हैं।  वैर  नहीं  हो  कहीं,  न  अब  तलवार  मिले ह्रदय - ह्रदय  में  स्नेह, उमड़ता  प्यार   मिले,  भेद - शत्रुता  की न  धरा  पर चिनगारी  हो  हो  सबमें  बंधुत्व,  मधुर - बंधन, यारी   हो।  घृणा , द्वेष  की  सकल  धरा  को   धुनते  हैं  आओ   बैठो,  स्वप्न   नये   कुछ   बुनते   हैं। 

वीर  सैनिक

वीर   तेरे   जज्बे   को   सलाम  करते   हैं।  तेरे  पराक्रम  से  धरती - सागर हिल जाते हैं  सितारे  टूटकर  खाक   में   मिल जाते  हैं,  प्रबल  हुंकार  से  उत्तुंग   शिखर   ढ़हता   है  सधे कदमों  को  छू उन्मत्त  पवन  बहता   है।  तेरे  इशारे  पर  चाँद - सूरज  काम   करते  हैं  वीर   तेरे   जज्बे   को   सलाम    करते    हैं।  मौत   के  साये   में   जीना    आसान     नहीं     सीने में धड़कता हुआ दिल  है, पाषाण  नहीं,  जज्बातों  से  रहे  तब  भी   काफी   दूर    हैं शहादतों    के    लिए    सदा    मशहूर     हैं।  कफन बाँधे  सर,  सुबह  से  शाम   करते  हैं  वीर , तेरे   जज्बे   को   सलाम   करते     हैं।  आतप , अंधड़, बिजली या    ज्वाल  रहे  डसने   को  उद्विग्न   हर   दिश   काल   रहे,  कुंद   करते   रहे  अरि   की   तलवारों   को  अपना प्रहरी ललकारता दुश्मन हजारों   को।  पल-भर  में  उनका  काम   तमाम   करते   हैं  वीर,  तेरे   जज्बे   को   सलाम    करते    हैं।

प्रहरी

जलाकर राख कर देंगे        ये  प्रहरी हिन्द के  ठहरे,  तेरी बर्बादियों की राह यह         न   चल    हठी,   बहरे।  भयंकर आग की लपटें         जलोगे शत्रु पल – भर में,  सुलगती जा रहीं चिनगारियाँ            भी  आज  घर - घर   में।  तपन का शौक है दिल में           बढ़ो   आगे   बता  देंगे,  झुलसना और बनना  राख           होता  क्या  जता   देंगे।  बुरा होता हमेशा खेल           धधकी आग, पानी से,  उलझता  ही  रहा  जो          तू अगर हिन्दोस्तानी से।  सँभलना या बहकना राह में  निर्णय    तुम्हारा      है,  सरित का तल बहुत गहरा  उमड़ती   और   धारा    है।  नहीं  कोई  तुम्हारा  साथ देगा   जंग    में    वैरी, प्रलय के बीच में कोई नहीं  ताकत  कभी    ठहरी।    

देश से  है प्यार  तो फिर

देश से  है प्यार  तो फिर       देश  का  सम्मान कर।  है अगर श्रद्धा ह्रदय में तू सहज निज सर झुकाना,  त्याग के सब स्वार्थ अपने राष्ट्र के  हित  काम  आना। हर किसी में देश के उत्थान का सुविचार  आये,  त्याग, तप, श्रम, वीरता का ले  ह्रदय  गुण  चार आये। मिल करो कुछ काम ऐसे हर   जगह  सुख- चैन   हो, कालिमा लेकर   अमा   की  न   धरा   पर    रैन     हो।     हाथ में   लेके   तिरंगा     मचल   सीना  तानकर,        देश से है प्यार तो फिर     देश  का  सम्मान  कर।      लाख     बाधाएँ     मगर न पंथ अब  अवरुद्ध  हो,   नित्य पग आगे  बढ़ें जब सत्य  के  हित  युद्ध   हो। आँख  से  अंगार   दुश्मन  पर     बरसना     चाहिए,  खून  में  सबके   उमड़ता  ज्वार     बसना    चाहिए। दुश्मनों  के   कारवाँ   पर आग -बिजली  बन  गिरो,  हर   दिशा   में    वेगमय  तू उग्र  तूफा   बन   घिरो।           सरहदों पर  दुश्मनों  की           है  नजर  अवधान   कर,           देश से  है प्यार तो  फिर           देश  का   सम्मान   कर।  अब  अमन की  राह  पर  चलता  हुआ  कश्मीर  है,  जख्म  सूखा   है   पुराना  शमित   सबकी  पीर   है।  दुश्मनों  की  नाड़ियों   में  आग विष  की  जल  रही,  युक्तियाँ   अवघात    की  भी कापुरुष की चल  रहीं। काटना     होगा      अभी  संघातियों  के  जाल   को,  देश    के    अंदर      छुपे  कुछ द्रोहियों की चाल को।  वक्त  जो  माँगे  समर्पित  तू  वतन  को  जान  कर,  देश से है प्यार  तो  फिर  देश  का   सम्मान    कर। 

खोल दे अपनी तिजोरी

लूटने वाले सजग हो जा नहीं अब खैर तेरी कर समर्पण, राह में देखो विकट छायी घनेरी, लूट में मजबूर जन के खून की लाली छिपी है देश की मजबूरियाँ,विकराल बदहाली छिपी है। सख्त शासन-तंत्र, जो भी गैरकानूनी बता दे विश्व के जिस बैंक में तेरी तिजोरी का पता दे, कौन-से दुष्कर्म का इतना बड़ा साम्राज्य धन का कष्टकर, दारुण हमेशा हश्र होता है गबन का। है अगर बेनाम धन तो भी उसे कर दे उजागर देश की खातिर लुटा दे रत्नपूरित दिव्य गागर, भूख,बीमारी,अशिक्षा के लिए कुछ काम होगा दीनता, बेरोजगारी से विकट संग्राम होगा। आज भी बच्चे कई फुटपाथ पर सोते यहाँ, भूख, पीडा से ग्रसित तकदीर पर रोते यहाँ। देखनी है जिन्दगी तो देख झुग्गी- झोपडी में, हड्डियाँ हैं झाँकती व हीनता है खोपडी में। है न उनका आज कोई और न भविष्य है, घूमते नंगे बदन देखो करुण यह दृश्य है। राष्ट्र के कल्याण हित तू खोल दे अपनी तिजोरी, कर चुकाके हो नआकुल,हो नहीं अब और चोरी।

हिन्दी     बोले      हिन्दुस्तान

हिन्दी अब जन-जन की भाषा  पूर्ण  हुई  सदियों  की   आशा,  मिला हमें परित्राण  तिमिर  से देखो,   आया    नया   बिहान।  हिन्दी      बोले    हिन्दुस्तान।  हिन्दी  पग  पर  खड़ी  हुई   है  अंगरेजी  से    बड़ी    हुई    है,  संसद  बोले,  कोर्ट -   कचहरी  "जय-भारत"कह  लड़े   जवान।  हिन्दी      बोले    हिन्दुस्तान।  है प्रसार  हिन्दी  का   जग   में  मानस  में   बहती  रग- रग में,  उड़िया,  गुजराती,    मलयाली कौन   यहाँ   इससे   अनजान!  हिन्दी      बोले    हिन्दुस्तान।  देवनागरी      है      कल्याणी  सरस,सहज,लगती मृदु -वाणी,  विश्व-पटल पर सुन-सुन हिन्दी  बोल  उठा  है  सकल - जहान।  हिन्दी      बोले     हिन्दुस्तान।  कसर नहीं  अब  रही  शेष  है  एक  सूत्र   में   बँधा देश    है,  दिग-दिगन्त हिन्दी स्वर-लहरी  बनी   हिन्द   की   है पहचान।  हिन्दी    बोले   ओ  हिन्दुस्तान।  हर भाषा से चलती मिल- जुल  हर बोली  मृदु, कोमल, मंजुल,  कन्नड़,    तेलुगु  या   पंजाबी  रहती   सबसे    एक   समान।  हिन्दी     बोले     हिन्दुस्तान।  अंगरेजी   पर    लगती   भारी बनती   है  जब   ठेठ - बिहारी,  भोजपुरी , मगही  की  लय  में  अनपढ़ बोले   और   सुजान।  हिन्दी     बोले      हिन्दुस्तान। 

आह्वान

माँगता  न    देश    तुझसे          स्वर्ण -  भूषण  दान     में,  त्याग दे  तू  लोभ - लालच           दर्प    इसकी   शान    में।  देख  माँ  का  धवल- अंचल          रक्त -  रंजित    है     पड़ा,  लूटने   को     देश      तेरा क्रूर   दुश्मन    है    खड़ा।  हम  न  रुकते  और    झुकते  कह  उन्हें   इस   बार   तू,   साहसी   तू    वीर    योद्धा   थाम  अब   हथियार  तू।  है   न  रिपु   में  शक्ति   कि    कश्मीर   हमसे   तोड़   दे,  काँच  की  मूरत   नहीं  यह         पत्थरों    से    फोड़     दे। 

हमें   खून  का  कतरा-कतरा  देना  है

जीते  हैं  तो  मर  भी   सकते तन पावक पर धर भी  सकते,  दुश्मन के  दामन  में   धधकी ज्वालाएँ  हम भर  भी  सकते।  नयन - नीर  से  अंतर  नहीं   भिगोना है  हमें  खून  का   कतरा - कतरा   देना   है।  पर्वत  - सागर  छान  लिया   है  अरि-बल कितना जान लिया है,  बैठे   हैं    जो    घात     लगाये  हमने  अब  पहचान  लिया   है।  चप्पे -  चप्पे   पर   हहराती    सेना   है  हमें  खून  का  कतरा  - कतरा  देना  है।  बच्चे - युवक   सब   हैं प्रहरी  मारक - क्षमता  इनकी   गहरी,  मातृभूमि पर अर्पित  तन - मन गूँज रही कण-कण स्वर -लहरी।  विदित  हमें  नौका  तूफा  में  खेना   है  हमें  खून का  कतरा  - कतरा  देना  है। 

यह हवा रुकके कहे  कुछ  सुन

मुक्त  आती  जग   भ्रमण   कर  भूमि - पर्वत   पर   चरण    धर,  भारती    पर     रज    लुटाती  सन -सनासन की  सुनाती  धुन।  यह हवा रुकके कहे कुछ  सुन।  बाँटता  यह  देश  जग   में   प्यार  विश्व  का  तम   से   करे   उद्धार,  अंक में भरती तभी  तो  मातृ  के गंध  फूलों  की, मलय  की   चुन।  यह हवा रुकके  कहे  कुछ  सुन।  यह वतन के  वास्ते  बनती  बहारें  क्षाम करती ताप जब लाती फुहारें,  वायु जड़ में प्राण बन विचरे  मगर  बीज  तू  पहले   अमन  के    बुन।  यह हवा  रुकके  कहे  कुछ   सुन। 

तू      चंदन      मैं       धूल

तू  सुषमा  चाँदनी  रात  की अनुपम        तेरा        रूप,  तू    शीतल,   चंचल   बयार है  खिली  सुबह    की   धूप।  हर    विपद    करे     निर्मूल   तू      चंदन      मैं       धूल।  तू  बहती एक चंचल- सरिता  कलकल      करती      धारा,  मौज  तुम्हीं , साहिल भी  तू तू   माँझी,   निपुण  सहारा।          तू      नीरव      दो       कूल।          तू       चंदन      मैं      धूल।  तू  सुगन्ध कलियों  पर  बिखरी  उड़ता          हुआ         पराग,  तू  मधुकर  की    तान   सुरीली  नव-कंठों      का        राग।    सस्मित      तू       वनफूल  तू      चंदन      मैं      धूल।  तू   जन  की  कल्याणी  जननी  सबल,    समर्थ     भवानी,  ज्ञान - विभा से  आलोकित  तू  गीता    ,    गौतम    -    वाणी।    तुझे   रक्षित   करे   त्रिशूल     तू       चंदन     मैं     धूल। 

भारती  तेरे  लिए  नित  प्यार  आये

निज ह्रदय की   भावना  के  फूल  अर्पित  लोचनों  की  रश्मियाँ   तुझको   समर्पित,  हर   सहज  उद्गार    में    गुणगान  तेरा आचरण में  मान  प्रतिपल   ध्यान   तेरा।          धो  सकूँ  पद  आँसुओं  की  धार  आये          भारती   तेरे   लिए   नित   प्यार आये।  प्रेम - पथ पर हम बढ़ें   निर्विघ्न   जननी  शत्रुता ,  विद्वेष    से     निर्मुक्त   धरणी,  त्याग , ममता  का  वरण, सद्भाव,  समता  हो  नहीं   कोई   क्षुधित , जाए   विपन्नता।  पा  विजय , अवरोध  के  तू  पार  आये भारती  तेरे   लिए   नित   प्यार   आये। जाति - भाषा  का  न  तम   उद्दाम   छाये आदमी   ही   आदमी   के    काम  आये,  हिन्दू  - मुस्लिम की  दिशा  विभक्त  न हो नस्ल  पर  उबले  शिरा  में   रक्त    न   हो।  पाशविक - दृग  में  नहीं  अंगार  आये  भारती  तेरे   लिए  बस  प्यार    आये।  तू  जो  रक्षित  मृत्यु   की   परवाह  कैसी लुट  गये  तेरे   लिए   तो   आह     कैसी?  बेखबर  जो   सो   रहे  उनको   जगा   दूँ देशहित   की   आग  सीने   में   लगा   दूँ।  ले  अमित सौरभ  सुमन्द  बहार  आये भारती  तेरे   लिए   बस  प्यार   आये।  

नफरत की आग

नफरतों  की  आग  तुम  बोने  चले    हो जग  जलेगा, खाक  तुम  होने   चले   हो,  रोक  लो  उड़ती  हुईं   चिनगारियों  को क्यों  धधकती  आग  में  सोने   चले हो?  आग  नफरत  की   सदा  ही  ताप   देगी चैन    झुलसेगा ,  सघन    संताप    देगी,  व्यर्थ    होंगे    टूट    मोती    प्यार   के  हर  ह्रदय   में  भर  घृणा  चुपचाप  देगी।  फिर  न  कोई   हिन्दू  न  मुस्लिम   रहेगा  मानवों    की    क्रूरता   मानव   सहेगा,  खून की  पहचानना  तब  जाति मुश्किल  राह  में  जब   वेगमय   अविरत बहेगा।  हो सजग, लख, कौन  तुझको बाँटता  है  हिन्दू तुम, मुस्लिम, सिखों को छाँटता है,  कौन  है  जो  भर  रहा  उर   में हलाहल  शान्ति , सुखमय डोर को  नित काटता  है।  बाँट की इन नीतियों पर न अमल हो हो अमन , हर ताल में  खिलता कमल  हो,   प्रेम  की   गंगा,  दया   का   हो   पयोनिधि हो  करुण उर और  दृग थोड़ा   सजल हो।