उत्सवा : नरेश मेहता

Utsava : Naresh Mehta


प्रार्थना-धेनुएँ

विश्वास करो तुम्हारे लिए कोई अहोरात्र प्रार्थना कर रहा है। स्मरण करो कोई सा भी उपाधिहीन सादा सा दिन जब तुम्हें अनायास अपने स्वत्त्व में किसी कृष्णगन्ध की प्रतीति हुई हो, अथवा किसी ऐसे राग की असमाप्तता जो तुम्हारी देह-बाँशी को गो-वत्स की भाँति विह्वल कर गयी हो, विश्वास करो स्मरण के उस गोचारण में कहीं तुम्हारे लिए कोई प्रार्थना-धेनुएँ दुह रहा होता है। व्यक्तित्व की यह वृन्दावनता ही प्रार्थना है। प्रार्थना की कोई भाषा नहीं होती। जिस उदार भाव से वनस्पतियाँ धरा को वस्त्रित किये रहती हैं, कीर्तन-पंक्तियों सी दूर्वा जिस निष्ठा से भूमा को उत्सव किये रहती है– क्या ये सब अनुष्टुप नहीं हैं? यदि धूप की ब्राह्मणी उपनिषद् नहीं है तो फिर और कौन है? अपने फूलों को देता हुआ पादप प्रार्थना ही तो करता है, मेघों की लिखित गायत्रियाँ ही तो नदियाँ हैं। कोई इन परंतपा रँभाती प्रार्थना-धेनुओं को आरात्रिक दुह रहा है, विश्वास करो तुम्हारे लिए कोई अहोरात्र प्रार्थना कर रहा है– वह वैष्णव है।

धूप-कृष्णा

इस कोमल गान्धार धूप को कभी अपने अंगों पर धारा है? प्रतिदिन पीताम्बरा यह वैष्णवी किसके अनुग्रह सी आकाशों में देववस्त्रों सी अकलंक बनी रहती है? सम्पूर्ण वानस्पतिकता पीत चन्दन लेपित उदात्त माधवी वैष्णवता लगती है। मेरा यह कैसा अकेलापन जो इस वैश्विक उत्सवता से वंचित है। इस गौरा, साध्वी-धूप को कभी अपने पर कण्ठी सा धारा है? इस कोमल गान्धार धूप को कभी अपने अंगों पर धारा है? पत्र लिखी रम्या यह धूप स्वयं वृक्ष हो जाती है, वाचाली हवाएँ तब वृक्ष नहीं, पात नहीं धूप ही हिलाती हैं। नदियों पहाड़ों वनखण्डियों में धूप की तुलसी उन्मत्त किये देती है, कैसी केवड़े की गन्ध ही अकेली धूप-कृष्णा का नाम ले मन को वृन्दा किये देती है। इस प्रभुरूपा राधा-धूपा को कभी ठाकुर कह बाँशी में पुकारा है? इस कोमल गान्धार धूप को कभी अपने अंगों पर धारा है?

वृक्ष-बोध

आज का दिन एक वृक्ष की भाँति जिया और प्रथम बार वैष्णवी सम्पूर्णता लगी। अपने में से फूल को जन्म देना कितना उदात्त होता है यह केवल वृक्ष जानता है, और फल– वह तो जन्म-जन्मान्तरों के पुण्यों का फल है। स्तवक के लिए जब एक शिशु ने फूल नोंचे मुझे उन शिशु-हाथों में देवत्व का स्पर्श लगा। कितना अपार सुख मिला जब किसी ने मेरे पुण्यों को फल समझ ढेले से तोड़ लिया। किसी के हाथों में पुण्य सौंप देना ही तो फल-प्राप्ति है, सिन्धु को नदी अपने को सौंपती ही तो है सच, आज का दिन एक वृक्ष की भाँति जिया और प्रथम बार वानस्पतिक समर्पणता जगी।