"'तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव' के बहाने मनुष्यता की स्थापना" : विनय विश्वा

कोरोजयी कवियों में गोलेन्द्र पटेल का नाम कनिष्ठिकाधिष्ठित है। गोलेन्द्र पटेल जो वर्तमान में काशी हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी में परास्नातक के छात्र हैं, जिनमें काव्य प्रतिभा कूट कूट कर भरी है। उनकी चिन्तन की भावधारा भूत,भविष्य को देखती हुई वर्तमान के कलेवर में हिन्दी साहित्य के लिए नए रंग भर रही है। उम्र कम है जरूर लेकिन साहित्य के जैसे पुरनियाँ, पुरोधा लगते हैं। इन्हें वर्तमान में प्रथम सुब्रमण्यम भारती सम्मान और साथ ही रविशंकर उपाध्याय स्मृति सम्मान मिल चुका है और देश के अन्यान्य महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में अपनी रचनाओं से एक नया हिन्दी लोक गढ़ रहे हैं। इनकी कविता की भाषा शुद्ध गंवई है और उनकी कविताओं में किसान, मजदूर, जंगरैत स्त्रियां, खेत,पशु-पक्षी, घास-फूस, सूक्ष्म से सूक्ष्मतर तत्वों पर नजर पड़ती है जिस प्रकार नागार्जुन की कविताओं में है। ये अपनी परम्पराओं जड़ता और अपने ही इर्द -गिर्द से अपनी कविता के लिए खनिज लेते हैं । ' आपकी कविता शब्दों की प्रयोगशाला है' औऱ वस्तुतः जहां प्रयोग होगा वहां खनिज प्रचुर मात्रा में होगी ही अगर नहीं होगी तो हवा(ऑक्सीजन, हाइड्रोजन) का मिश्रण कर जिस तरह जलधारा बनाई जाती है वैसे ही कवि गोलेन्द्र की हर एक कविताओं में नित नए शब्दों का प्रयोग हुआ है और यह यूँ ही नहीं है एक विशेष अर्थ भी छोड़ता है जो हिन्दी साहित्य शब्दकोश में बढियाती सार्थक शब्द नजर आती है।

यहाँ हम गोलेन्द्र की हिन्दी साहित्य में अब तक की सबसे लम्बी कविता 'तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव' की समीक्षात्मक वर्णन करेंगे। उससे पहले हम हिन्दी की परम्पराओं में जाएंगे और बहुत दूर नहीं आधुनिक समय में छायावादी कवियों से शुरू करते हैं । छायावादी कवियों में सुमित्रानंदन पंत से शुरुआत करते हैं, इनकी 'परिवर्तन' कविता जो पल्लव में 1924 ई में छपी है में कवि प्रकृति को मानवीकरण बनाते हुए अपने तत्सम रूपी शब्दों से एक नया सौंदर्य शब्दचित्र गढ़ते हैं जैसे-

"आधि,व्याधि,बहु वृष्टि,वात,उत्पात,अमंगल,
वह्नि,बाढ़, भू-कम्प,-तुम्हारे विपुल सैन्य दल;
आहे निरंकुश! पदाघात से जिनके विह्वल
हिल- हिल उठता है टल-मल
पद-दलित धरा-तल!

'परिवर्तन' कविता निराशा की केंद्रीय मनोदशा को अनेक मुक्तक छंद में परोसती है। आगे जैसे बढ़ते हैं 'जयशंकर प्रसाद' की लम्बी कविता "प्रलय की छाया" (1933,लहर से) जिसमें नाटकीयता ,ऐतिहासिक इतिवृत्त पर आधारित है जो आख्यानपरक है,वही 'राम की शक्तिपूजा'(1937,अनामिका से) रामकथा के आख्यान से अपना उपजीव्य ग्रहण करती है।

शब्दों के समायोजन से भी हिन्दी की उत्तरोत्तर विकास को देखा जा सकता है -
"लौटे युग-दल। राक्षस -पतदल पृथ्वी टलमल"

- राम की शक्तिपूजा

यह शब्दांश 'परिवर्तन' में भी आई और उसके बाद की कविता 'राम की शक्तिपूजा ' में भी देखी जा सकती है वैसा ही शब्दों का मेल मुक्तिबोध की कविता 'अंधेरे में' और गोलेन्द्र पटेल की कविता 'तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव' में देखने को मिलेगी भले ही उसका अर्थ- विन्यास अलग हो पर उपजीव्यता ,परम्परा को जोड़ते हुए एक नया वितान रचना ही एक रचनाकार की सफलतम उपलब्धि है।

इसी लम्बी कविता की श्रृंखला में अज्ञेय की 'असाध्य वीणा'(1961 ई) जो आख्यान के रूप में हैं और प्रयोगवाद के प्रारंभिक दौर और कुछ समय पश्चात नई कविता का दौर आता है तो कविताएं अब यहां पूरी तरह धरातल पर हो जाती है और जनतंत्र की बातें कवि अपनी कविताओं में धड़ल्ले से करते हैं। साठोत्तरी के समय गजानन माधव मुक्तिबोध की लंबी कविता 'अंधेरे में ' एक नए कलेवर में हिन्दी कविता में आती है। जो आत्मचेतस, कविता में कविता ,फ्लैश बैक/फंतासी होते हुए देश, जनतंत्र, मनुष्य की बातें रखते हैं और उससे आगे धूमिल के यहाँ "पटकथा" में वो पूरी तरह से कविता खुल जाती है और यह लम्बी कविता की श्रृंखला राजकमल चौधरी(मुक्ति-प्रसंग), रघुवीर सहाय(आत्महत्या के विरुद्ध), लीलाधर जगूड़ी(बलदेव खटिक) से होते हुए गोलेन्द्र पटेल (तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव) तक आती है।

'तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव' अब तक की हिन्दी की सबसे लम्बी कविता है जिसकी रचना वर्ष 2020 है, उस वक्त गोलेन्द्र स्नातक के छात्र थे। जो कोरोजीवी की उपज है, जो अपनी परम्पराओं और सभ्यता को जोड़ते हुए चलती है। यह कविता एक यात्रा की तरह है जिसमें कई पात्र और पड़ाव है, जो मनुष्यता का बोध कराती हैं। एक व्यक्ति जो बुजुर्ग है वो अपनी सभ्यता-परम्परा को ढोने वाला है, वहीं आगे चलकर शोधार्थी के आरेखों में भी दिखाई देता है, जो कहीं न कहीं नए को अपनी पुरातनता को याद और उससे जुड़ने की बात करता है । इस कविता को पढ़ने के पश्चात ऐसा लगता है कि यह मुक्तिबोध की कविता'अंधेरे में' की अगली कड़ी है, वहां 'फंतासी' है यहां 'फ्लूअन्सि' है। समाज में जो घटनाएं घटित हो रही है देश, समाज, जनता ,जनतंत्र हर एक पर दृष्टि पड़ी है कवि की।भौतिकता, काम-वासना, प्रेम इत्यादि बिम्बों का वितान देखने को मिलता है । यह कविता संवाद रूप में चलती है और वह भी एक प्रौढ़ पढा-लिखा शोधार्थी के रूप में जो अपनी सभ्यता और संस्कृति की पड़ताल करने निकला है जो भारत देश में अब हम खुद उसे कहीं न कहीं छोड़ रहे हैं इस बाज़ारवाद में । उसी विरासत को सहेजने की एक सफल कोशिश कवि करते हैं इस उजाड़ होती सभ्यता ,संस्कृति, भयावह होता घर-परिवार, खतरनाक होती राजनीतिक मूल्यों को।

कविता की कुछ पंक्तियों को उधृत करते हुए देखेंगे पहली ही पंक्तियों में अपनी सभ्यता और संस्कृति को समन्वित करने की बात होती है, एक शोधार्थी के द्वारा जो नए जमाने का है ,और उस रास्ते में अब इतनी कँटीली झाड़ियां उग आई हैं कि उसे साफ करने में समय लगेगा पर विश्वास है। वह कँटीली झाड़ियां (जो प्रतीक है), असभ्य होता समाज,भाषा, मानवीय मूल्य सभी ओर इंगित करता है ,खासकर भाषा की बड़ी ही दुर्दशा हुई है जिसके कारण कँटीली झाड़ियाँ उग आई हैं जो राह चलते देह को छिल देती है पहली ही पंक्ति में कवि समस्या को खड़ा करते हैं और उसके निदान के लिए जो आत्मा,चेतना ठहर सी गई है उसे एक नई दृष्टिबोध के द्वारा जाग्रत होने की बात करते हैं इससे पता चलता है कि कवि कितना जाग्रत अवस्था में हैं।

"सभ्यता और संस्कृति की समन्वित सड़क पर
निकल पड़ा हूँ शोध के लिए
झाड़ियों से छिल गई हैं देंह
थक गए हैं पाँव कुछ पहाड़ों को पारकर
सफर में ठहरी है आत्मा
बोध के लिए"

यहां मुक्तिबोध की कविता 'अंधेरे में' का एक अंश देखते हैं -

"वह रहस्यमय व्यक्ति
अब तक न पाई गई मेरी अभिव्यक्ति है
पूर्ण अवस्था वह
निज- सम्भावनाओं,निहित प्रभावों ,प्रतिमाओं की
मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव
हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह
आत्मा की प्रतिमा"।

यहाँ ज्ञान का तनाव हृदय में रिस रहा है और आत्मा प्रतिमा में स्थापित हुई है ,जबकि 2020 में गोलेन्द्र की कविता में अब वह बुद्धि को लिए हुए लिखे का शोध करने जा रही है नए दृष्टिकोण से जो परिपक्वता की निशानी होगी,जहां सहेजना ,समेटना,कुछ खुरदुरे को चिकना करना होगा।

मुक्तिबोध के यहाँ बरगद का पेड़ है और गोलेन्द्र के यहाँ भी जो बरगद एक प्रतीक है वट- वृक्ष पूरा राष्ट्र भारत है ,जहां मुक्तिबोध के यहाँ व्यक्ति खड़ा है ,नौजवान है पर यहाँ अब वहीं बरगद (विशाल वृक्ष) है लेकिन वह व्यक्ति अब बूढा हो गया है बैठा है जंग लग गया है उसे एक सहारे की जरूरत है जहाँ गोलेन्द्र की कविता में एक शोधार्थी के रूप में मौजूद है।

"मैं इस बरगद के पास खड़ा हूँ
कंधे पर बैठ गया बरगद पात एक
बरगद-आत्मा का पत्र है वह क्या?
कौन सा इंगित"?

- मुक्तिबोध

"बरगद के नीचे बैठा कोई बूढा पूछता है
अजनबी कौन है?
जी, मैं एक शोधार्थी हूँ"।

- गोलेन्द्र

'शोधार्थी' जिसके कन्धों पर बड़ी जिम्मेदारी है। वह उस प्रथम प्रेम का साक्ष्य ढूंढ रहा है जो कबीर के ढाई आखर प्रेम में था जो इस आधुनिकता/भौतिकतावादी/बाजारी दुनियां में कहीं खो गई है उसे वह बेचैनी से ढूंढ रहा है क्योंकि नए पीढ़ी पर बड़ी जवाबदेही है इसलिए उसे अब सजग रहना होगा। कवि की जड़े इतनी गहरे होते जा रही हैं जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि बिना अपने अतीत अपनी जड़ों में गए वर्तमान को सुदृढ़ नहीं कि जा सकती जो दस्तावेज रूप में है उसे उलट-पुलट कर देखनी होगी क्योंकि अतीत की ही प्रतिकृति वर्तमान है।

"सोच के आकाश में
देख रहा है
अस्थियों के औज़ार
पत्थरों के बने हुए औज़ारों से मजबूत है।"

कवि की चेतना इस कविता में हर उस पहलू को स्पर्श करते चलती है जो एक स्वस्थ राष्ट्र समाज के निर्माण में महत्ती भूमिका होती है जिसमें (समाज, वातावरण, पर्यावरण, जनतंत्र, हासिए के लोग,नैतिक मूल्य, राष्ट्र) और भविष्य की ओर निगाहें हैं।

एक पंक्ति देख सकते हैं आज की भयावहता को लेकर जो सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है जलवायु परिवर्तन जो पुरी दुनिया में असर डाले हुए हैं अभी ताजा उदाहरण पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में भीषण बाढ़ के रूप में देखी जा सकती है और वही ग्लेशियर का पिघलना ,मौसम का बदलना,सूखा पड़ना ये सारी समस्याओं को अपनी कविता में दर्ज करते हैं जो मानव विकास की अंधी दौड़ में इतना सरीक हो गया है कि वह अपने घर को ही भूल गया है जो एक कवि चिंता कर रहा है पर्यावरण को बचाने की कोशिश-

"जंगल के विकास में
इतिहास हँस रहा है
पेड़-पौधे कट रहे हैं
पहाड़-पठार टूट रहे हैं
नदी-झील सूख रही है
सड़कें उलट रही है
सागर सहारा का रेगिस्तान हो रहा है"।

कहीं ऐसा प्रकृति का प्रकोपभाजन न हो जाय की दूसरा 'मृतकों का टीला' बन जाए,इस पर गम्भीरता से पूरी मानव जाति को विचार करनी होगी तभी एक स्वस्थ समाज और राष्ट्र का निर्माण हो सकता है, क्योंकि प्रकृति बची रहेगी तो मानव जाति बनी रहेगी।

कवि का चिंतन व्यापकत्व के कैनवास पर अपने शब्दों से एक वृत्तचित्र बनाते नज़र आती है जो सभ्यता और संस्कृति के समन्वित सड़क पर चलते हुए मनुष्य को मनुष्य बनाने की जो पहल है उन सारे दृश्यों को अपनी लेखनी से उकेरने की एक सफल कोशिश की गई है।

"प्रकृति से होते हुए नारी/पुरुष तक,आदिवासी समाज(हासिए के लोग) से होते हुए शिष्ट समाज तक,गुरु से होते हुए शिष्य और सच्चे मित्र तक" आते हैं जो मनुष्य को मनुष्य होने के लिए पर्याप्त है।

कवि संदिग्ध इतिहास में न जाते हुए सीधे वर्तमान में उतरते हैं जो आवश्यक है जिस 'आदिवासी-विमर्श', जल-जंगल-जमीन की बात होती है वहाँ से शुरुआत करते हैं आजादी के इतने साल बीत जाने के बाद भी उनकी स्थिति वैसी ही है यह सोचने का विषय है।

कवि उनके बारे में बताने की सफल कोशिश करते हैं कि आदिवासी समाज कितना सच है जो हम अपने आपको शिष्ट समझते हैं उनकी भाषा रहन-सहन पर हँसते हैं जबकि हम खुद को देवता कहते हैं जो कि सत्य नहीं है हम कितने असभ्य हैं ये हम खुद ही जानते हैं (हमे सुधरना होगा ) यहां एक प्रकार से व्यंग करते हैं-

"ये वनजाति
(अर्थात आदिवासियों के पूर्वज)
हम देखने में देवता हैं
ये राक्षस
लेवता हैं
खैर,ये सच्चे इंसान हैं।"

हमें इन आदिवासी, पिछड़े समाज को लेकर चलने की बात करते हैं उनपे हँसने की बजाय।

वर्तमान समय में पितृसत्तात्मक(पुरूष वर्चस्ववादी) समाज में जिस तरह 'नारी-विमर्श'की बातें हो रही है आए दिन,उस नारी समाज को पकड़ने की कोशिश अपनी कविताओं में करते हैं,आज एक बड़ा प्रश्न-चिन्ह खड़ा होता है कि लड़कियां अपनी संस्कृति को भूलकर सात्विक प्रेम को भुलाकर दैहिक(मांसलवाद) सुख की ओर प्रवृत्त हो रही हैं और ऐसा पुरुष समाज भी कर रहा है जो एक सभ्य समाज के लिए ठीक नहीं है। उसे स्वस्थ (सुधार की जरूरत)होने की बातें कहते हैं ।

" माँ से
क्या आप मुझे जीने देंगी
अपनी तरह
क्या मैं स्वतंत्र हूँ?
अपना जीवनसाथी चुनने के लिए
आपकी तरह।
मुहब्बत के मुहूर्त में मिलना है पिछवाड़े
प्रियतम से
आड़े- आड़े......

कवि गोलेन्द्र उस नारी-शक्ति की बात करते हैं जो आए दिन घरों में,तलाक को लेकर कचहरियों में ,पुरुष समाज से प्रताड़ित होते देखी जाती है जो स्वस्थ समाज के लिए जघन्य है, जिसे प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों, कहानियों, में स्थापित करने की कोशिश की औऱ उसी विषय को उत्तर छायावादी रचनाकार राष्ट्रकवि दिनकर अपने निबन्ध 'अर्धनारीश्वर'में उठाते हैं और आधुनिक महिला साहित्यकार भी इस मुद्दे पर जोर दी हैं ,उसी समस्या को एक बार फिर अपनी कविता के माध्यम से 'कोरोजीवी',किसान कवि गोलेन्द्र पटेल उठाते हैं और सभ्य कहने मानने वाले पुरुष पर चोट करते हैं और मनुष्य को मनुष्य होने की बात करते हैं।

"एक असुर का कहना है
कि पत्नी का क़ातिल होना
असल में आदमी की आदमियत की मृत्यु होना है
कम से कम इस संदर्भ में
हमारी जाति
अभी कलंकित नहीं हुई है
यानी हमें देवत्व का दम्भ त्याग कर
असुरों की अच्छाई अपनाना चाहिए
तभी
हम सही अर्थ में मनुष्य हो पाएंगे।"

मनुष्यता का अब न होना चिंता सता रही है, और मनुष्य वही है जो दूसरों के लिए समर्पित हो लेकिन कवि को विश्वास है कि जो शेष बचे हैं वही इस धरा-धाम पर मनुष्यता को गढ़ सकते हैं, इसमें कवि का अपना जीवन संघर्ष भी है और सुपथमार्गी मित्र का होना भी जीवन में जरूरी बताते हैं।

"सपनों का मरना
जीते जी जिंदा लाश हो जाना है"

कवि की जड़ता की यह पहचान है कि वे अपने लोक/परम्परा को मजबूती से पकड़े हैं वे प्रेमचंद, निराला, मुक्तिबोध, धूमिल तक जाते हैं और भक्ति काल में जायसी,तुलसी,कबीर तक जाते हैं-"नाव में नदी को लेकर"।

प्रेम के सहारे पाप-पुण्य तक जाना जो जीवन की अंतिम परिणति है वहाँ तक कवि जाते हैं अपने वेद उपनिषद में जहां से दर्शन लेते हैं -

"वासना के वृक्ष पर बैठे
दो पंक्षी
देखते हैं कि
वे अपनी बेचैनी को बाँध कर
बहा दिए हैं
नदी में।"

यहाँ प्रतीक के माध्यम से एक दर्शन है , वासना रूपी शरीर जो एक वृक्ष है जिसपर दो पंक्षी बैठा है एक शीर्ष पर और एक नीचे,शीर्ष पर वाला साक्षी है वह सिर्फ देखता है जबकि नीचे वाला वह कर्ता है वह बेचैन है कि क्या कमा लूं, क्या बना लूं, क्या बचा लूं आदि इस भौतिक सुख के लिए उसे तृप्ति नहीं है।

धर्म का एक नैतिक रूप है जो नीचे की पंक्षी को बदलने की कोशिश करता है, और धर्म का परम रूप आध्यात्मिक होगा।

"धर्म का जो अध्यात्म है वह कहता है कि तुम्हारे भीतर एक साक्षी (देखने वाला)है क्योंकि साक्षी का जन्म नहीं होता,यह तो कर्ता है जो जन्म में भटकता है, क्योंकि मरते वक्त तुम्हारी वासना तृप्त नहीं होती।

'वासना की डोर तुम्हें नये जन्म में ले जाती है उसी नदी की तरह'।

प्रेम की पराकाष्ठा जहां सूफी दर्शन है और साथ ही जो ज्ञान में परिवर्तित होता है जो कबीर के यहाँ दिखता है।

कवि बार-बार अपनी जड़ों से खनिज लेकर नए प्रयोग नए साहित्य को गढ़ रहे हैं।

इक्कीसवीं सदी का सबसे भयावह समय कोरोना महामारी का समय लॉकडाउन की स्थिति और नदियों में जो लाशें बह रही थी। जिसकी चीत्कार हर घर में दहाड़ मार रही थी, जो इस भयावह समय की याद दिलाती रहेगी, इसी समय बहुत से मजदूर लौट रहे हैं

यहां चलना क्रिया और लौटना क्रिया की अच्छी पड़ताल की गई हैं, वहाँ लौटना इतिहास में लौटना था जिसका इतिहास मनुष्यता की लहू से लिखा जा रहा है और एक तरफ चलना क्रिया जीवन की सार्थक क्रिया है जब चलेंगे नहीं तो इतिहास कैसे बनाएंगे।

'मनुष्यता की लहू से इतिहास का लिखना'

आज जनतंत्र का राजा जिन्न बन के खड़ा है जो सभी को अपनी माया से जला रहा है।

यहां मनुष्य की उत्कट जिजीविषा ही है जिससे कोरोजीवी सार्थक है । इस महामारी में पूरी कायनात बदल रही है जिसमें भाषा ,शब्द,अर्थ,मुहावरे इत्यादि के बदलते स्वरूप दिखाई दे रहे हैं और नए-नए विमर्श खोले जा रहे हैं। गोलेन्द्र पटेल की कोरोजीवी कविता में नई सम्वेदना,रागानुरागी प्रवृत्ति, जनपक्षधरता,मुक्ति मार्ग,मन-मस्तिष्क में नई ऊर्जा संचार भरते हुए चलती है एक बेचैनी है बदलाव की "कोरोजीवी से कोरोजयिता तक"।

कवि जिस गुरु से सीख रहे हैं उस परम्परा को बरकरार रखना चाहते हैं न की शिक्षक दिवस मना कर भूलने जैसी बात। कवि सृजनात्मक साधना अर्थात कर्म पर ध्यान देने की बात करते हैं क्योंकि सार्थक कर्म ही जीवन की सार्थक उपलब्धि है। श्रद्धा,भक्ति बाद में पहला कर्तव्य कर्मरत/श्रमशील शिष्य होना । अगर शिष्य गुरु मानता है तो उनके सच्चे और अच्छे विचारों को लेकर चलना ही जीवन की सार्थकता है। जैसे स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस उस गुरु शिष्य परम्परा का होना जीवन की सर्वोत्तम शिष्य परम्परा है अपने और राष्ट्र के लिए।

"शिष्य सर्जक की भूमिका में/गुरु की रचना से गुजरते हुए केवल और केवल सृजनात्मक साधना पर ध्यान दे
न कि साधन और साधक पर
न कि श्रद्धा और भक्ति पर
न कि शिष्य के प्रति उनकी सहजता पर।"

इस संसार का सबसे अनमोल रिश्ता 'मित्रता'है कवि चलते-चलते उस रिश्ते को अपनी कविता में रेखांकित करते हैं। हम मनुष्य अपनी अंतरतम की बातें, यादें एक सच्चे मित्र से ही कहते हैं चाहे वह घोर

निराशा वाली बातें हो या खुशी की बातें। मित्रता को 'तिमिर में ज्योति ' की उपमा दे रहे हैं और एकाकार हो जाने की बातें करते हैं।

"तुम्हारा होना
असल में मेरा होना है"

कोई भेद रह ही नहीं जाता है कितना विराट हृदय है कवि का।

'मित्रता और मुहब्बत' इस संसार में मानव के लिए अनमोल ख़जाने की तरह है जिसे मिल जाए तो दुनियां सच में जन्नत हो जाए। उस मित्रता और मुहब्बत में 'विश्वास' रूपी एक डोर है जो पूरी सृष्टि को बाँधे रखती है।

हिंदी साहित्य के इतिहास में लम्बी कविताओं का जब भी जिक्र किया जाएगा तब इक्कीसवीं सदी के कोरोजयी कवि 'गोलेन्द्र पटेल' का नाम जरूर लिया जाएगा। यह कविता कवि के चिंतन की सर्वश्रेष्ठ उपज है जो दूषित होती मनुष्यता,पर्यावरण, परिवेश, लोक,जनतंत्र, समाज आदि मूलभूत चीजों को ध्यान में रखते हुए एक सम्पूर्ण जन्नत भरी लोक रचते हैं जहाँ सिर्फ मनुष्य ही नहीं पर्यावरण, पशु-पक्षी,प्रकृति, रिश्ते हर जगह साम्य, सौम्यता, प्रेम हो।

जिस प्रकार रैदास 'बेगमपुरा' की कल्पना करते हैं, कबीर तोड़-फोड़ कर सुधार करने की कोशिश करते हैं ,सुदामा पांडेय धूमिल एक नए 'प्रजातंत्र' की बात करते हैं ठीक उसी प्रकार कवि गोलेन्द्र पटेल एक नए समाज, राष्ट्र,लोक की बात करते हैं अपनी कविता 'तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव' में। यह मात्र एक रचना कृतिकार को स्थापित करने में काफी है, जैसे बिहारी 'बिहारी के दोहे' लिखकर अमर हो गए। फिर भी रचनाकार बैठता कहां है। उसकी चिंतन तो नए-नए आयामों को छूते रहती है।

'तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव' यह शीर्षक ही अपने आप में कुछ कह जा रही है, जो हमारे भारतीय परम्परा संस्कारों में निहित है जब हम किसी (आत्मीय) को आशीर्वाद देते हैं तो अपनत्व की भाव जन्म लेती है ।

जैसे बड़े बुजुर्ग(पुरखें) आशीर्वाद देते हैं- बनल रहअ।

यह लम्बी कविता आख्यानों,काव्य खण्ड की तरह न होकर वर्तमान परिस्थितियों घटनाओं को लेकर रूपक की तरह चलती है कविता में कविता गढ़ते हुए जिसमें भावों की अभिव्यक्ति, अभिव्यंजना है जहाँ भाषा ,शब्द,अर्थ सबका रूप बदलता हुआ जान पड़ता है। कविता नदी की धारा की तरह प्रवाहित होती चली जा रही है। कहीं ठहराव नहीं है। जिसका उत्स सभ्यता, संस्कृति, परम्पराओं में निहित है, जिसका उत्स और उत्कर्ष यति में नहीं, गति में है। यह कविता हमारे समय का प्रत्याख्यान और हमारी चेतना का मानचित्र बन चुकी है । दूसरे शब्दों में, "गोलेन्द्र पटेल की काव्यभाषा उनकी विचार-संवेदना की सच्ची अनुगामिनी है। वे भाषा का नया मुहावरा गढ़ने वाले कवि हैं। कोरोजीवी कविता में उनकी संवेना और सोच जनपक्षधरता और उसकी मुक्ति की आकांक्षा है। उनकी कविताओं से गुज़रने के बाद हम अपने मन-मस्तिष्क में नवीन ऊर्जा को महसूस करते हैं। अतः 'तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव' गोलेन्द्र पटेल की कविता हमारे समय के स्वभाव और स्वरूप का केंद्रीय रूपक या प्रतिनिधि पाठ है।"

सभ्यता और संस्कृति का समन्वय अपनी जड़ों की ओर जाना वहां से खनिज लेते हुए प्रकृति का सानिध्य प्राप्त करना जहां लोग प्रकृति से कटते जा रहे हैं। इस वर्तमान समय में आजादी के पचहत्तर सालों बाद भी आदिवासी ,हासिए के समाज पर ध्यान न देना उन्हें असभ्य समझना ,जिसको लेकर कवि सभ्य औऱ असभ्य(आदिवासी) समाज को स्थापित करना चाहते हैं। इस संसार का सबसे अनमोल व्यक्ति(नर-नारी) में मेल कराना जो 'अर्धनारीश्वर' बन जाए इसकी स्थापना, गुरु-शिष्य की स्थापना(मूल रूप से कर्तव्य) और सच्ची मित्रता स्थापित करना यह कवि का अपना कैनवास है ।

कवि की भाषा सहज और सरल है अपने गंवई (देशज) परम्पराओं से ली हुई शब्दों को स्थापित करने की कोशिश है, अनुप्रास अलंकार ,बदलता मुहावरा, और नए शब्दों का निर्माण बखूबी देखी जा सकती है। जैसे- लोचन की लय में लेह,आह रे माई,प्रेम की पईना, घास,आड़े-आड़े,नेह, मेह ,भँवर के भाव में व ताव में, रेह,गेह,बेना, सेना,सरसराहट, हम देखने में देवता हैं ये राक्षस लेवता हैं, नाउन, मेहरारू, इतवार,लीख, बलम,होलापात,गठरियाँ, चपलवा,खटिया,बाधी,पाटी, भरकुंडी, ढीठ,छाँह,रहिया,हमार हिरवा,जैसे अनगिनत शब्दों का प्रयोग हुआ है यह कवि का खनिज है जहाँ से लेते हैं।

यहां कवि, रैदास की तरह सहज और सरल भाषाई अर्थों में अपनी बातें कहते हैं कबीर व धूमिल की तरह प्रतिरोधी नहीं।

'तुम्हारी संतानें सुखी रहें सदैव' हिंदी साहित्य की एक मुकम्मल लम्बी कविता है जो सही अर्थ देती है जिसमें मानवीय मूल्यों की सजग अभिव्यक्ति हुई है, मनुष्य होने की सर्वश्रेष्ठ रचना है।

© विनय विश्वा
शिक्षक सह शोधार्थी
07/09/22
पूर्व छात्र- काशी हिंदू विश्वविद्यालय (हिंदी विभाग)

  • मुख्य पृष्ठ : गोलेन्द्र पटेल
  • मुख्य पृष्ठ : हिन्दी कविता वेबसाइट (hindi-kavita.com)