Teesa Kavita Varsha : Sitakant Mahapatra

तीस कविता वर्ष (कविता संग्रह) : सीताकांत महापात्र


कविता, फिर एक बार

किसी को कभी बचा नहीं पायी कविता बारूद से, विस्फोट से भाले की नोक से, बन्दूक से अग्नि से, असूया से पत्थर से, पश्चात्ताप से शेर के मुँह से या सामूहिक हिंसा से । जानता हूँ शब्दों में कोई जादू नहीं होता उसके हाथों नहीं गलती दाल तक। चिलचिलाती दुपहरी में कौवा बोलता है सहजन के पेड़ पर कविता उसी उत्क्षिप्त अपराह्न का चेहरा है उसी के कपट पाँसे का अंश विशेष । स्कूली बच्चों की किताब से अधमरे चातक-सी ताकती रहती है कविता उनके ऊँघते चेहरे परीक्षा के समय की अद्भुत थकान टिमटिमाते लालटेन की बगल में। ठण्डा खाना बनी पड़ी रहती है कविता खाने की गन्दी थाली में विद्वान आलोचकों के छुरी-काँटे पकड़े हाथों तले। कभी-कभी मन करता है समेटकर फेंक दूं इन सारे अर्थहीन, असमर्थ शब्दों को इतिहास के कूड़ेदान में वहीं खो जाएँ वे मोहनजोदड़ो, मुगल साम्राज्य दादा जी की छड़ी, टूटे खड़ाऊँ और दादी माँ की आँखों से एकाकार हो विराजती केवल शब्दहीनता। अग्नि-उत्सव में वे लोग जलती सनई लिये पूर्वजों को पुकारते थे : आओ, अँधेरे में आओ उजाले में लौट जाओ। तुम जो कभी यहीं थे इसी उजाड़ शहर में इसी जले गाँव में जली फसल की क्यारियों की मेंड़ पर होमकुण्ड की अक्षम मुँडेर पर यदि तुम्हारी आत्मा आज इस घने अँधेरे में लौट आये किसी की आतुर, पर निर्लज्ज पुकार से तो फिर आज ये चन्द शब्द ही सनई की आग बन तुम्हारे ही लौट आने की राह को किंचित् आलोकित करें।

मत पूछो मुझसे, प्रिय मित्र

मत पूछो मुझसे सदी तारीख और सन् की बात मत पूछो सूर्यास्त, मेघ, ओस दोस्त, परिजन, देश, इतिहास की बात । रास्ते भर कबन्ध सड़े-गले शव, खून से सने चाकू रक्त का झरना खो जाता है कीचड़ में टकराता है अन्धे इतिहास और चट्टानों से | पूरे रास्ते रक्त की होली, रक्त की लहरें। कल नहीं होता स्मृति बिना कल नहीं आशा, स्वप्न आकांक्षा और प्रतीक्षा के बिना। फिर भी मैं घर-घाट सो रही पत्नी और पुत्र को छोड़कर नहीं जा पाया हूँ घने अरण्य में मेरी तपस्या है खिड़की के निरंजन-तट पर खड़े हो चुपचाप आकाश की ओर देखना... कापुरुष अमृत-सन्तान मैं रोया हूँ युगों से युगों तक। बस इतने में हिलकर उलट जाती है रात फिर एक बार किस एकान्त अनजाने स्वर से फिर से डूब मरती है सत्ता मेरी नयी शब्दहीनता के अथाह जल में। मत पूछो मुझसे क्या है सुबह की प्रार्थना या साँझ की विदाई और स्तुति, मत पूछो वसन्त, आम्रमंजरी और कोयल फिर से आ पहुँचे या नहीं, हमारी निरन्तरता का उद्घोष फिर एक बार चैती हवा में होता है या नहीं। मत पूछो मुझसे, प्रिय मित्र दुःख का रंग कैसा है, लोहे का स्वर क्या है, कैसा है यन्त्रणा का स्थापत्य कितने युगों, कितने मन्वन्तरों से सो रहे हैं मेरी हड्डियों में सारे क्षोभ, सारे विषाद !

श्रुति

भगवान से बढ़कर हैं तेरे खयाल माँ से बढ़कर है तेरा स्नेह । तेरी प्रतीक्षा में है मेघमाला तुझे भिगोने को, सिहराने को, प्रतीक्षा में है चिलचिलाती दुपहरी का सूर्य तुझे चमकाने को ; प्रतीक्षा में हैं सारे शिखर तेरे पैर पड़ने की; प्रतीक्षा में है पूरा महोदाध मन्थित होने को। प्रतीक्षा में है माँ वसुधा नदी-नाले पशु-पक्षी कीट-पतंग... तरु-लता-गुल्म से भरपूर अपना घर तेरे ही लिए खोल रखा है; इतने सुन्दर, निष्पाप, निरपराध घर के सारे कमरे, सारे आँगन तेरे खेलने नाचने कूदने के लिए; प्रतीक्षा कर रहे हैं ग्रह नक्षत्रों को जानेवाले यान मेरे बचपन की बैलगाड़ी की तरह । अरगनी में प्रतीक्षारत हैं सूर्यास्त, सूर्योदय और ऋतुचक्र के सभी रंगों की साड़ियाँ और फ्रॉक तेरे ही अंगों का आवरण होने को; असंख्य बेला तेरे जूड़े में सजने को। बहुत दिनों का रिहर्सल समाप्त कर प्रतीक्षा में हैं जग की सारी चिड़ियाँ सिर्फ एक संकेत से तरह-तरह के नये सीखे ऑर्केस्ट्रा, राग-संगीत तुझे सुनाएँगे प्रतीक्षा में शरद्-शशि, नक्षत्रमाला तेरी आँखों से आँखें मिलायेंगे। सब को करनी होगी प्रतीक्षा अभी तो हैं तुझे तरह-तरह के काम थिरकते पैरों से अस्थिर अँगुलियों से सुनारी-फूल चुनना गेंदे की एक-एक पंखुड़ी नोचना उड़ती चिड़ियों को गर्दन घुमाकर देखते-देखते कचाड़ खाकर गिर पड़ना, बेचारी गुड़िया को अहेतुक ही करुणा से सहलाकर गोद में लिये जगह-जगह रखना और दूसरे ही पल किसी अनजान-सा फेंक देना। भगवान से बढ़कर तू निर्माया है भगवान से बढ़कर तेरी ही माया है।

शरद्

साफ कर रहा है शरद् युद्धक्षेत्र का मटमैला पानी समाप्त हो गया है युद्ध समाप्त हो गया है मन्त्रपाठ हो चुका है महिषासुर-वध देवी की मर्त्य देह, मिट्टी-पुआल का ढाँचा पड़ा है नदी-किनारे धूप में शान्ति-समझौते के स्वर मँडरा रहे हैं पवन में आकाश में काँस-फूल झूल रहे हैं आनन्द से, आवेग से। राह भूलना आसान है शरद् में सच है कि बादल नहीं आते अँधेरा करके सच है कि धूप दाँय-दाँय नहीं जलती किन्तु राह नहीं दिखती युद्धक्षेत्र की नयी शब्दहीनता में आत्मा के धुंधले प्रकाश में: शरद् में राह बदलकर नदी पार करते समय दूर गाँव जाते साँझ के राहगीर-सा राह पूछनी पड़ती है नील कोहरे की परतों से निर्लिप्त रूप से उड़कर जाती चिड़ियों के समूह से नदी की नन्हीं-नन्हीं असंख्य लहरों से सीने की अबूझ धड़कनों से अवर्तमान छायारूपिणी, भ्रान्तिरूपिणी देवी से

पुनर्जन्म

कल रात बारिश हो रही थी कमरे की खिड़की खुली रख वह आदमी एकाकी अँधेरे में बारिश देख रहा था। सामने बगीचे के पेड़-पौधे घनघोर बारिश में भीगे खड़े काँप रहे थे रह-रहकर बेसब्र बिजली की चमक में दिख जाता था आकाश का थुलथुला काला मुखड़ा । घोर बारिश हो रही थी, उसने अपने बचपन के गाँव किनारे नदी पार करके स्कूल जाने के लिए अकेले ही प्रचण्ड प्रवाह में नाव खोल दी बचपन की तरह; हाथ से उसके छूट गयी पतवार प्रवाह के साथ बह चली नाव उसकी। नाव के इस छोर पर वह स्वयं, और दूसरे छोर पर देवी-प्रतिमा नारी मुस्कराती हुई निहार रही थी उसकी ओर उसी मृदु मुस्कान में बहा चला जा रहा था वह जन्म-मृत्यु के अथाह सागर में; अपने प्रथम यौवन के कदम्ब, केतकी, बेला और हिना की महक एक साथ पहचान रहा था वह । बारिश हो रही थी। अँधेरे के अथाह जल में एक नाव बही चली जा रही थी निस्संग जीवन बन। शेष हुई आरती बुझे दीये की गन्ध ने घेर रखा था उसे चारों ओर से किन्तु उठ बैठने के लिए उसके बुढ़ापे का नहीं था अब भरोसा। सहसा नींद खुलने पर अब भी हो रही थी बारिश प्रलय-सी काँप रहे थे पेड़ पहले की तरह भीगे खड़े पर वह आदमी एकान्त कमरे में नहा चुका था पसीने से खुली थी खिड़की पहले-सी अगले जन्म के लिए।

समय

वर्ष माह दिन पहर पल ग्रीष्म वर्षा शरत् हेमन्त ऋतु चक्र के हैं ये सब खेल, कहाँ चला जाता है समय किस अँधेरे में, किस शून्य में ? समय नहीं जाता कहीं सवार रहता है उस पर हमेशा एक अद्भुत भय, डरते-मरते वह उन सारी चीज़ों और विचारों में ढूँढ़ता है आश्रय पत्थर में, नक्षत्र में, पत्ते में, बीज में -हर जगह । समा जाता है समय पेड़ में बन जाता है उसका अन्तःस्वर वर्ष प्रतिवर्ष की एक-एक लकीर; समा जाता है समय कोमल पत्ते में पड़ जाता है पत्ता पीला, झड़ जाता है ; समा जाता है बीज में फिर बीज बनता है द्रुम। समा जाता है समय खुले जूड़े के काले बादलों में बन जाता है श्वेत चँवर या घुस जाता चिकनी चमड़ी में चमड़ी हो जाती है करुण श्लथ; आश्रय ढूँढ़ता है समय टिमटिमाते नक्षत्र में नक्षत्र घुल जाता है महाशून्य के अँधेरे में। क्षणों के घास-फूस भर-भर चोंच लाकर बनाता है घोंसला समय हमारे ही भीतर बन जाता है स्मृति कराल नख-दन्त से छिन्न-भिन्न कर समा जाता है समय स्मृति के घोंसले में बन जाता है विस्मृति।

माँ

बुलाते-बुलाते जरूर थक जाती होगी वह लेकिन शरत्-शशि एक बार भी मेरे हाथ में, उसके कान्हा के हाथ में नहीं गिर पड़ता। बल्कि हमेशा दिन प्रतिदिन के धूमिल अँधेरे ने सब कुछ ढंक रखा है चारों ओर रास्ता-घाट नहीं सूझते एक-एक डग बढ़ाना पड़ा है टटोल-टटोल कर । अब जब आसन्न साँझ की धुंधली रोशनी में मैं देखता हूँ दीखती हैं उसी की प्राचीन सूनी कलाई पतले-पतले हाथ, मलिन चाँद-सा चेहरा-सूख चुकी झील-सा, ढेर-सा लाड़ करने वाले फटे होंठ, मन्दिर की पताका -सा है अभयदायी आँचल | बूढ़ी उम्र में भी हूँ मैं उसका कान्हा उठा लूँ क्या गोद में उसी चाँद को परोस दूँ सहेज कर रखा सारा स्नेह, सारा आदर !

जाड़े की साँझ

शंख, तरह-तरह की सीपियाँ बेचते बच्चे, सब को अपने अथाह भण्डार की थाती बखानता चनाचूर वाला, स्मृतियों में डूबते-उतराते पके आम-से कई बूढ़े, एक-दूसरे में खोये नव-दम्पती हँसते-खेलते झुण्ड के झुण्ड कॉलेज-छात्र सभी जा चुके हैं जिसे जहाँ था जाना खाली कर, सौंप कर प्रशस्त समुद्र किनारा : शाम को टहलने निकले हल्के बादलों को शून्य में पैंतरे भरती अस्थिर चिड़ियों को और हमेशा चतुर खेल में मस्त लाखों नन्हे केंकड़ों को।

कृष्ण-लीला

अधउड़ी फूस की मड़ैया से टिमटिमाती ढिबरी की रोशनी से पखाल के बासन, साग की भुज्जी और निरानन्द साँझ से पैर खिंचे चले जाते हैं यमुना किनारे कदम्ब के नीचे चाँदनी का ज्वार, झीने वस्त्र पट-पीताम्बरी, पीत वसन दूध मलाई मक्खन मोर पंख की ओर । दिन-सी बीतती है हर रात गाँव किनारे अमराई में पेट्रोमैक्स बुझता है दिन के निर्दयी प्रकाश में भी नदी की रेत पर चाँदनी-फूल का चाँद होता है नदी के घाट पर गाँव की बालाओं की पानी भरते समय की ध्वनि में सुनाई देता है बाँसुरी का स्वर। सारे सहजन के पेड़, नारियल के पेड़ बन जाते हैं कदम्ब के पेड़ टँगे होते हैं उन पर गोपिकाओं के अंग-आवरण। रतजगे के कारण ग्वाल-बाल सो रहे हैं नदी की रेत पर आकाश की ओर मुँह कि ये, निर्जन नदी किनारे करता रहता है गुटरगूं एक कबूतर। (पखाल=पानी मिला भात)

चूल्हे की आग

न जाने किस अनन्तकाल से जलाये बैठे हैं अपना चूल्हा सूर्यदेव बेसुध घने ठिठुरन भरे अँधेरे में वहीं से इत्ती-सी आग ले माँ वसुधा ने उपजाये हैं कितने स्नेह से, चाह से पहाड़, नदी, पहला जीवन-स्पन्दन महाद्रुम, पशु-पक्षी, गुल्म, लताएँ। माँ वसुधा से रत्ती भर आग माँग ली है ऋत्विक् ने यज्ञकुण्ड में किया है आह्वान अपरूप सुन्दर स्वयं अग्निदेव का; उन्हीं के आशीर्वाद से मेघ ने दिये हैं श्यामल शस्य । अन्न में सनसना उठी है रक्त-माँस के शरीर की तोतली बोली जड़ पसारे है आत्मा की अस्फुट, गोपनीय भाषा । छप्पर-उड़े, टूटे-फूटे घर में माताओं ने जलाये हैं चूल्हे अग्नि-संगीत से उसी के पास सो गयी है पुस्सी बिल्ली भूख दुगुनी करते खदबदाकर खौल उठे हैं चावल, उसी चूल्हे किनारे संस्कृति ने तापी है आग कठोर हुई है, कोमल हुई है; मनु-सन्तानों ने हाथ बढ़ाकर छुए हैं तारे, छुए हैं चाँद । अब तुम लेकर आग उसी चूल्हे से मत फैलाओ दावानल, ऊँची-ऊँची लपटों में धधकाकर मत जलाओ पल झपकते गाँव, कस्बे, मन्दिर और मस्जिद विश्वास की विरासत आकाश और पाताल।

रास्ता

सुनसान रास्ता देखने से लगता है मानों वह मेले में खोया बच्चा है, ढूँढ़ रहा है किसी को लगता है उत्पत्ति-स्थल है जो खो गया है कहीं पीछे लगता है लक्ष्य स्थल है जो शायद कहीं आगे है लगता है ढूँढ़ रहा है खुद को, अपनी लक्ष्यहीनता को । रास्ता ज़रूरी है कभी मुक्ति की तलाश में दुःखदायी संसार से, अनगिनत पीड़ाओं से और कभी नन्ही चुहिया की तरह भागने को मृत्यु के कलूटे-बिलाव के खुले मुँह से भय का चाबुक खाकर, भूख की ताड़ना सहकर हाड़-माँस के पिंजरे के दुर्जेय दुःख से । सभी तलाशते हैं रास्ता अपने-अपने ढंग से : मिट्टी तले केंचुआ, समुद्र में कोलम्बस जिददी शब्दों के घेरे में कवि चक्रव्यूह में अभिमन्यु तरह-तरह की यातनाओं में बुधिया नाई बोजि-तले बुद्धदेव नीले अँधेरे के शून्य में एकाकी नक्षत्र । साँझ के आकाश में घर लौटती चिड़िया रास्ता, रास्ते के मील के पत्थरों के निर्देश नहीं ढूँढ़ती चलती ; आनेवाले कल की यात्रा के लिए संकेत नहीं छोड़ती : बल्कि बनाती चलती है रास्ता डैनों के कम्पन से मिटाती चलती है रास्ता शून्य-नीले सिलेट पर । लगता है रास्ता हर जगह निरन्तर विद्यमान है पर रास्ता कहीं भी नहीं हर स्थान शून्य स्थान है, रास्ता कहीं नहीं। और कभी लगता है पंख झाड़ते ही रास्ता है डग बढ़ाते ही रास्ता है मन का चौखट लाँघते ही रास्ता है कोई शब्द कहते ही रास्ता है। रास्ता तो बस समय की परछाई है पल भर में शून्यता में ही घुल जाता है ओस की तरह रास्ता जो स्वयं ही एक अशरीरी राहगीर है। रास्ता महाशून्य को, बूँद का साष्टांग प्रणाम, विनम्र निवेदन है रास्ता महाकाल को क्षणों की अंजलिबद्ध पुष्पांजलि है।

पहली छुअन

पहला अहसास विकल्प नहीं उसका। वह अहसास प्रेम हो, प्राप्ति हो वैराग हो, विरह हो यन्त्रणा हो, अनभूला स्वर्ग हो पश्चात्ताप हो, सघन पुलक हो । कहाँ है उस अंगुली की पहली छुअन की पहली महक ? बारिश से मिट्टी भीग गयी थी उतने में ; सारे तारे, चाँद, सूर्य भरकर गोद में उतर आया था आसमान नीचे उतने में; समुद्र लाँघने को तट आतुर था उतने में अमृत-कण छितरा गये थे, उतने में। अब तो सुदीर्घ मास वर्ष तक आसपास, आँखों में आँखें, चेहरों में चेहरा हाथ थामे टुटहा पुल दुर्गम रास्ता संसार खुद को संसार को समझने की कोशिश में निर्जन, शब्दहीन असंख्य हैं प्रहर । अभ्यास की धूल है अब चारों ओर कभी स्मृतियों की आरामकुर्सी में तीस कविता वर्ष :21 कभी सपनों के हिंडोले में कभी झंझटों के पिंजड़े में तो कभी थकान के बिस्तर पर दो प्राणी। कैलेण्डर के निर्जन भोंथरे पहाड़ की तलहटी में सूर्यास्त, घर लौटती चिड़ियाँ समय बीत जाता है बीत जाता है समय उस पहले अहसास की यादें कुरेदकर। कभी अपरिचित राज्य की राही ये अँगुलियाँ अब निस्तब्ध, खामोश हैं मन मसोसकर।

पिता, स्वर्ग

सारे कर्मों से जुड़ी थी बस वही एक चाह : स्वर्ग। दुर्गामाधव बोले बिना घर से बाहर पैर नहीं धरते दरवाजे से खाली हाथ भिखारी नहीं लौटेगा ब्राह्म मुहूर्त में स्नान तर्पण गीता-पाठ ध्यान उगते सूर्यदेव को भर अंजुलि पानी, प्रणाम ; मेरे बचपन के भोर की मीठी नींद में मिल जाता था उन्हीं के घरघराते गले का प्रार्थना-स्वर । बरसात के कीचड़ भरे गाँव के रास्ते में सौदा का थैला लिये दु कान से लौटते व्यक्ति ने याद किया होगा देवता का चेहरा नन्हे बच्चे की मुस्कान-सा अँधेरे आकाश में तारे-सा छप्पर-उड़ी पाठशाला में सामने छड़ी रख बच्चों को सबक सिखाते समय ब्रह्मा विष्णु महेश ही पूरी पाटी में दिखे होंगे घर के तमाम जंजालों की चोट कपटी संसार-जाल; इन सबको लाँघ वही अनन्त मायावी सपना शून्य में पसरा होगा बादलों तक, बैकुण्ठ तक और हाथ के इशारे से 'चले आओ, चले आओ' कहकर कितना बुलाया होगा ! स्वर्ग का स्वरूप क्या था उनके मन में ? शायद कोमल एक नदी बारिश की आशीष धारा कनेर मधुमालती केतकी घने जंगल में एक मन्दिर और आरती का स्वर रोग यन्त्रणा रहित एक सरल पृथ्वी। और देवतागण ?... दीर्घ, शुभ्र देह, लम्बी नाक, हाथी-कान फक्क सफेद धोती और कुर्ता मस्तक पर चन्दन और आँखों में सपने । पुरी स्वर्गद्वार की गीली रेत पर अग्निदेव के काँपते हाथों में उन्हें सौंप देने के बाद न जाने वे कहाँ गये मालूम होगा तो स्वर्ग में रहनेवाले उन कपटी देवताओं को ही होगा।

पदचिह्न

कहीं किसी के नहीं रहते पदचिह्न। न समुद्र की रेत पर ढुलमुल पैर नन्हें बच्चे के न इतिहास के पन्ने पर महाप्रतापी महामहिम सम्राट के ; न जीवन के असंख्य हताश दिनों में अशान्त आर्त हृदय के न मृत्यु के संक्षिप्त क्षणों में अचल सहमे तड़पते प्राण के। न हँसी के फव्वारे में रूँआसे रंग-बिरंगी पोशाक पहने जोकर के न रुलाई के ज्वार में डूबते-उतराते हँसमुख चेहरे दुःसाहसी जीवन के। पदचिह्न तो हैं सिर्फ़ आविष्कार के लिए अपरिचित, अनजान और विस्मयों के ; पदचिह्न तो हैं उद्घाटन के लिए नयी अबोधता, नये अँधेरे के ; पदचिह्न सिर्फ समाप्ति के लिए पुरातन यन्त्रणा और पुरानी स्मृति की ।

स्नोइ और टगर-फूल

तेरी अप्रत्याशित सारी सेवाओं प्रार्थनाओं और मिन्नतों के बावजूद स्वाधीनता दिवस पर ही खून रिसा-रिसाकर मूंद लीं आँखें प्यारी कुतिया ने। आयी थी घर में वह तेरे पिता की तमाम अनिच्छाओं के बावजूद खासकर तेरी ही ज़िद्द से। धीरे-धीरे उसकी अद्भुत माया ने कर लिया वशीभूत सब को बाँध लिया मजबूत डोरी से पालतू मनुष्य को, आखिरी दिन की असंख्य शरारतें उसकी खेल-कूद-भरा स्वभाव, अपूर्ण मातृत्व सब कुछ उन्हीं निर्लिप्त बुझती जा रही दोनों आँखों में इकट्ठे थे | बेइन्तिहा इतिहास बन । दफ्तियों से बने जापा-घर में आँख न खोले अपने दोनों बच्चों को पहचान लिया था उसने ऊष्म भात की महक की तरह। उसके अगले दिन एक के मर जाने पर वह कुछ ढूँढ़ती रही काफ़ी देर तक पूरे जापा-घर में, विस्तृत कमरे की दुनिया में चारों ओर सूंघती रही, फिर शान्त पड़ गयी शायद सोचा हो उसने जना था एक ही बच्चा । ठीक हमारी ही तरह उसकी भ्रान्ति सुबह के कुहासे में मानो मृत्यु की परछाई; विस्मृति। सिर-चटकाते भादों की धूप में कब्रों से भरी दिल्ली की मिट्टी में हम बाप-बेटे ने कब्र बनायी थी उसकी टगर का पौधा रोप दिया था उस पर। उस पौधे की जड़ें निश्चित ही उसके हृतपिण्ड, उसके खेलकूद-भरे स्वभाव और निर्लिप्त आँखों की खुली पुतलियाँ भेदती भीतर गयी होंगीं वरना ठीक उसकी आँखों-जैसे वे टगर-फूल मेरी ओर क्यों ताकते रहते एकटक स्नेही लोभ से !

आधी रात

आधी रात होते ही किसकी दबी-दबी-सी रुलाई सुनाई देती है मुझे ज़रा ध्यान से सुनने पर ! किसका रुआँसा चेहरा उभरने लगता है अँधेरे के परदे पर जिधर भी देखो ! फूल की पंखुड़ियों में, पत्तों के हिलने में सुनाई देता है मुग्ध स्वर उसका सुनाई देता है स्वर तारों और चाँद में सुनाई देता है मेरी अँधेरी कोठरी के हरेक कोने में सुनाई देता है बादलों तले खोये सुदूर क्षितिज में वे स्वर हैं मेरे जाने-पहचाने और अनजान अनेक लोगों के जो बिला गये हैं कब के तारों की तरह सुबह के आकाश में। असंख्य नक्षत्र और आकाश-गंगा ग्रह नीहारिकाएँ सब उलाँघ कुआँ कुआँ रोने का रुद्ध स्वर फैल जाता है धीरे-धीरे समस्त आकाश पवन में मानों और कोई सत्ता ही न हो सिवाय उस स्वर के समग्र आकाश, सारी धरती और नभ-मण्डल पशु-पक्षी, नर-नारी और कीट-पतंग डूब जाते हैं सभी बारी-बारी से उस रुलाई के ज्वार में एक-एक कर। वह स्वर है क्या नभचारी तारों नक्षत्रों का ? आँसुओं से धुली निरंजन काँटों भरी, आमोदित मेरी ही आत्मा का ? कानन से लौटते कान्हा की बाँसुरी सुनने को व्याकुल माता यशोदा-सी सदा कान लगाये रहती है वह स्वर सुनने को तृषित आत्मा मेरी।

हरसिंगार का स्वप्न

न होती है चिन्ता न परवाह हाथ की पहुँच वाली टहनी पर मुस्कराता है खिलखिलाकर चाँद-सा खेलता रहता है हवा, भौरे, चिड़िया सब के साथ । खेलता तो रहता है पर ध्यान से देखें तो लगेगा खोया हुआ है वह किसी और दुनिया में किसी अज्ञात स्वप्न की मादकता जैसे छायी हो उस पर। क्या है वह स्वप्न ? नक्षत्र ? निर्वाण ? काली रात, काला भौंरा, काला चाँद ? रात बीत जाने पर पूरी रात पकड़कर लाये नन्ही चिड़िया की तरह रोते-रोते सुबह मुक्त हो जाता है वह टहनी के आश्रय से। रात बीत जाने पर उसके स्वप्न का, उसकी अन्यमनस्कता का इतिवृत्त समझ में आ जाता है नक्षत्र नहीं निर्वाण, क्यों ताकता रहता है वह धूल की सेज की ओर खिलता है जिस दिन से। स्वप्न नहीं उसका सुदूर आकाश स्वप्न नहीं ज़िद्दी चिड़िया या पागल भौरे की प्रीत अधीर हवा की पुकार, अन्तहीन रास; स्वप्न है उसका सारा प्रेम, सारी हँसी-खुशी पीछे छोड़ टहनी से विदा ले धूल की सेज पर झड़ जाना बिन बोले एक शब्द तक।

चाँदनी में गाँव का श्मशान

नदी की गूंगी रेत पर लहरा रही है चाँदनी निःशब्द सब-कुछ चुपचाप सुनसान निर्जन यहाँ तक कि बावले पवन ने भी साध ली है चुप्पी सहसा । मानो चाँद, आकाश और गूंगी रेत की तरह उसने भी डेर रखे हों कान सुनने को बाँसुरी का स्वर किसी के क़दमों की आहट आवाजाही के। लगेगा अभी ही तो थे सभी क्षण भर पहले यहाँ कहाँ ओझल हो गये परछाइयों की तरह; फिर क्षण में, किसी भी क्षण परछाई-सा, अशरीरी पवन-सा कोई आयेगा कुछ बातें करेंगे रेत और पवन । लगेगा तुम हो युधिष्ठिर न जाने कितने पीछे रह गये हैं पतली धुन्ध तले हस्तिना, मथुरा, द्वारिका नदी किनारा, किसी सपने-सा गाँव और सोया हुआ घर बूढ़ा, बूढ़ी, बीमार पत्नी, बाल-बच्चे, रोग, क्रोध, यन्त्रणा वही सूक्ष्म मायाजाल हमेशा-सा । आधे रास्ते गहरे खेत में, बालू पानी किनारे सो गये सहसा अपने भाईबन्धु, प्रिय पत्नी सामने चाँदी से भी शुभ्र हिमालय अपना एकमात्र सत्य है अब सामने एक ही दिगन्त । फिर लगेगा सचमुच यही है कुरुक्षेत्र अनगिनत स्वप्न और असंख्य आशाएँ लाखों क्षोभ, सन्ताप, ढेरों हताशाएँ मँडरा रही हैं उन सब की विदेही आत्माएँ झीने कोहरे में खामोश है वह चाँदनी-सा विलाप के सूक्ष्मतम स्वर हैं हाँफते, संतापित कई वैधव्य के। फिर छिन में देखते-देखते लगेगा यही तो है वैकुण्ठ देव, देवी, अप्सरा, रम्भा, मेनका, उर्वशी और ब्रह्मा, शिव, इन्द्र, चन्द्र, स्वयं विष्णु स्वरचित माया, सुरभित चाँदनी में समा गये सहसा लगेगा कि वैकुण्ठ का दूसरा नाम है निर्जनता जिसे अगोरे हुए बहती है स्मृति और समय की नदी।

बरसात की सुबह

आया है बरसात का मौसम घनघोर बरसाती मौसम बज रही बादलों की दुन्दुभी काँप रहा है सवेरा। फाटक की नीली नामपट्टिका से मिट चुके हैं सफ़ेद अक्षर कई छुलकर बारिश की मुलायम अँगुलियाँ बारम्बार है मौसम बरसात का। भीगकर जाता है स्कूल बच्चा एकाकी, बन्द हैं किवाड़, खिड़कियाँ सारी, जबकि राह किनारे के सभी घरों की जैसे कहीं नहीं कोई अनन्त काल से मानों बारिश के खौफ से हो गये तितर-बितर सभी सुन पड़ती है कौंध बिजली की घटाटोप बादलों के लोहारखाने से। हैं कौन घर में सोये हुए उदास माँ-बाप ? निश्चिन्त समय ? गाढ़ी काली मौत का खौफ ? निरख घने बादल मौत के समान बरसात का मौसम देख बच्चे का मन और मौत हैं दोनों बेचैन । छुट्टियाँ खत्म हुई हैं बच्चे की आ गया है वक़्त समझने का होते हैं सारे सुख खत्म एक दिन अब आयी है बरसात है मृत्यु लम्बी छुट्टी पर सुदूर परदेश में चाहता है विरही जीवन खो जाना चुपचाप बादलों के शुभ्र मल्हार करुण राग में। सपना अपने आप आकर पकड़ जाता है राह भूली तितली बन इस एकाकी बदरारी लग्न में क्या सोच उठते हो तुम इस्तरी करते हो पोशाक मेरी और टाँग देते हो (मानो वाकई दूसरे जन्म के लिए) साफ़-सुथरे कंकाल की अरगनी पर।

आकाश

पेड़-पौधे, गाँव-द्वार मिलकर सुदूर है जो नील दिगन्त उसी पर कभी एक थके हारे पथिक-सा कभी उतावले प्रेमी-सा झुका होता है जो उसी का नाम है आकाश। गहरे खेत के एकाकी ताड़ वृक्ष को इतनी सुन्दर शून्यता के फ्रेम में बाँधे रखता है जो माँ यशोदा बन बाल कृष्ण को भींचकर अपनी गोद में उसी अनभूली स्नेहमयी विभूति का नाम है आकाश । सन्सन् शून्य छाती पर अ केले घर लौटते निर्जन कतार के कतार, झुण्ड के झुण्ड पक्षियों को उड़ा देता है, हँसाता है, रिझाता है, नचाता है रंग-बिरंगे बादलों को, पल में घुप्प काले बादलों की छाया में नचाता है मोरों को, रुलाता है प्रेमियों को सिन्दूर के टीप-सा धाप देता है सारे सृष्टि के जनक सूर्यदेव को, ब्रह्मचारी के ललाट पर चन्दन के टीके-सा पूनो के चाँद को, राह छोड़ देता है चौतरफा अधीर हवा के लिए उसी सज्जन जादूगर का नाम है आकाश । हर जगह होता है सैकड़ों जलघट में, गोष्पद सलिल में निर्जन सिन्धु में, छलछल ओस की बूँदों में हालाँकि कब नहीं था-कहाँ नहीं होता उसी अन्तिम अनुपस्थिति का नाम तो है आकाश । कार्य और कारण का, जन्म और मरण का क्रीतदास पग-पग पर हँसी-रुलाई, हानि-लाभ कर्मवश देखता हूँ मैं शून्यता को और पूछता हूँ आत्माराम, शून्यमय ओ निरंजन बनूँगा नहीं क्या मैं कभी आकाश ?

कविता का जन्म

जीव की अल्प शक्ति शत युवती एक पति (उड़िया भागवत) एक: इतने सपनों के लिए रातें कहाँ दिन कहाँ इतने दृश्यों के लिए ? खड़ा रहता है पेड़ अपनी जगह लक्ष्मण रेखा लाँघ जाता नहीं कहीं नये पत्तों, फूलों में सुनाई देती है हँसी उसकी पतझड़ में रोता है धाड़ें मार-मार । जड़ें उसकी अँधेरे में सगरपुत्रों-सी ढूँढ़ती रहती हैं कुछ काली मिट्टी कुरेदती सुनसान हवा और आकाश में अँगुलियाँ ढूँढ़ती रहती हैं कुछ टोह टोहकर । कितनी सुन्दर चिड़िया न जाने किस देश से उड़कर आती है गीत सुनाई देता है उसका दिन भर कोमल सुबह और करुण साँझ को फिर क्या होता अहा, वह कहाँ उड़ जाती है ! पेड़ रटता रह जाता है गीत उसका काश ! एक बार लौट आती वह बातूनी उसकी राह तकते-तकते पत्ते झड़ते चले जाते हैं छाल भी मोटी होती चली जाती है दिन बीतते चले जाते हैं। मैं तो उस पेड़ का साथी हूँ बचपन का उसकी जड़ के अँधेरे अतल का अभिशप्त साहसी जीवनचर्या मेरी शिराओं के रक्त-प्रवाह में आकाश के मौन में व्याकुल हताश उसाँसें उसकी बजने लगती हैं मेरे प्राणों के प्रत्येक परदे में। जी करता, सब छोड़ छाड़ कन्धे पर लादकर ले जाता उसे जैसे शिव की गोद में सती, सब-कुछ दिखाता उसे। पहाड़ समुद्र नदी गाँव रोग शोक जरा व्याधि जन्म मरण रंग-बिरंगी चिड़ियाँ तरह-तरह के उन्माद-भरे सपने दृश्य के बाद दृश्य कई दिन के बाद रात और रात के बाद दिन, फिर दिन | दो: गौरेया से मिला अचानक कैस्पियन सागर किनारे फुर्र से उड़कर आती है, मेरी अर्थहीन बातों में घोंसला बनाती है किचिर-पिचिर करती है। मेरे सूखे शब्द उसी में आषाढ़ के बादलों की तरह झुक जाते हैं रस और अर्थ के बोझ से मेरे दुःख का बोझ उठाकर अपने नन्हें डैनों पर रखती है लगता अगले ही क्षण दुलरायेगी वह मुझे शायद मुग्ध हो देखती मेरी आँखों की ओर और सहसा पूछती- "निश्चित ही नहीं पहचानते ; मैं हूँ परनतनी उस गौरैया की जो तुम्हारी सहेली थी तुम्हारे गाँव की फूस की कोठरी में, ऊपर से तिनके और फूस जान-बूझकर गिराकर और तरह-तरह से नृत्य करके तुम्हें अन्यमनस्क करती थी यहाँ तक कि परीक्षा के दिनों में भी।" मेरा प्राण-पाखी समझ जाता उसकी भाषा तुच्छ समझता अणिमादि अष्टवर्ग सिद्धियों को उसकी आँखों में देख, मेरे अन्दर सूर्य जब पश्चिम आकाश में ढलता विदाई का आयोजन दिख जाता अस्ताचल में मन और हृदय जलता सन्ताप और मनस्ताप के तुषानल में वह तो कहती-नहीं, नहीं स्वप्न है, दृश्य है अन्त नहीं, शोक नहीं, दुःख नहीं, मृत्यु भी नहीं। तीन : जो जला जाता है पल भर भी रुकता नहीं जो रुक जाता है कितनी ही मिन्नत करने पर भी एक शब्द तक कहता नहीं उसके लिए तो शब्द चाहिए आकारहीन अशब्द शब्द शब्द जो यन्त्रणा के विष के लिए उपचार है। अपराह्न लटका रहता है आकाश से थकान और विषाद जम जाते हैं छाती तले आँखें लाल किये निकलता है सूर्य छतरी-छड़ी लिये नील नदी भीगी-भीगी आँखों से सहसा बुलाती है अल्हड़ किशोरी और मुझे लगता अप्रैल का काहिरा और नील नदी यह नहीं फागुनी पूर्णिमा की चाँदनी में हमारे गाँव की चित्रोत्पला बुला रही है आँखों के इशारे से। मैं तो डूबता रहता मछली-सा द्वापर त्रेता और कलि कितने युग बह जाते हैं कई जन्म, कई मरण खत्म हो जाते हैं मेरे अन्दर कौन-सी नदी उमड़ती है दूर से लगती है आत्मा मरुभूमि का पिरामिड सरल शब्दों की लोरी नदी किनारे गाँव के छोर पर नारियल और आम के पेड़ स्वप्न, दृश्य हँसी, रुलाई मिली न जाने कितनी लहरें। चार : कभी-कभी आँखें खोल देखते ही प्रशान्त शून्य आकाश चूमता है और कभी अचानक खुभो देता है आग मेरे ऊपर उदार तपस्वी-सा मुँह दिखता है आकाश का बादल दिखता है भादों के धान-खेत की गाभिन लहर पैर तले लोटते रहते हैं युद्धक्षेत्र, कबन्ध और आर्तनाद वक़्त लगता है अवरुद्ध, अभिशप्त पृथ्वी को पहचानने में इतना दुःख, इतना धैर्य, पाप-पुण्य चाहिए पाने को अन्त में विनाशकारी भाग्य । देह मेरी उड़ जाती है हवा में सूखा पत्ता हूँ मैं भर दुपहरी झेलता हूँ उदास हवा के साथ और रास्ते में मिलता हूँ उसी खोयी-खोयी-सी चिरैया से अब वह लौट रही थी न जाने क्यों रोती हुई मन मारकर ! शोक इतना उग्रतपा है यह कहा भी नहीं जाता दिन बीत जाने पर खरी-खोटी उसकी सही भी नहीं जाती। पाँच : कभी-कभी पूरा आकाश थके-हारे शिशु-सा आकर सो जाता है चौरे के पास उसकी आँखों में बहने लगता है मेरा सारा अतीत माँ के सो जाने के बाद बुझ जाने के बाद संझाबाती। वह तो महज एक चिट्ठी है ग़लत पते की कभी न पहुँचेगी मेरे मन के उजाड़ गाँव में सूर्योदय ही तो गढ़ता है उस गाँव में अद्भुत सप्तम स्वर्ग और मुक्ति-मण्डप सूर्यास्त जो नाना करतब दिखाकर सब कुछ संहारता है। उस गाँव के मेरे जर्जर काया-घर में बहता है निरन्तर नवद्वार अस्थि पंजर पर ढंके हैं रोएँ और चर्म बँधी हैं रुधिर-शिराएँ कौन-सा गुरु-वाक्य है वह मैं क्या जानूँ अपात्र फिर भी तो आँखें बन्द कर करता हूँ पालन उसके अनुशासन का स्वप्न देखता हूँ पूरी रात कर्म की जकड़ में देखता हूँ दृश्य दिन भर उनींदे क्रोध में बस जलती है आत्मा ईर्ष्या-द्वेष के दावानल में। वह तो सिर्फ पालन है गुरु-वाक्य का उस जर्जर घर में हूँ मैं दुराचारिणी। छह : आकाश शब्द का तनु शब्द मँडराता है स्वप्न में, दृश्य में शब्द गढ़ा जाता है या गढ़ जाता है प्रेम में, मृत्यु में, चराचर संसार जनमता है उसके आनन्द से दुर्जय दुःख से। उच्चरता है कौन सुनता है कौन हैं किसके ये शब्द ? अपात्र पात्र नहीं जानता, अनर्थ अर्थ नहीं गिनता कपास से वस्त्र की तरह इन्द्रियों के सप्त छन्दों में शब्दों से बुनता है पृथ्वी कौन है वह अद्भुत सामर्थ्य का बुनकर ? शब्द के दो नयनों में उगता है रवि उसके मुख में अनल का प्रकाश शब्द के ललाट पर जलती है अनबुझ क्रोधशिखा मेरे मन की सिर पर अभिषिक्त समग्र आकाश मेघपुंज केश-राशि कण्ठ में सारी कविताएँ नदी बहती है शिरा-उपशिरा से होकर मृत्यु-सी स्नेह-सी स्वप्न-सी दृश्य-सी खींचती है उसकी शुभ्र ममता। शब्द पैदा करता है मेरे अन्दर आनन्द की अबूझ सिसकियाँ शब्द जला डालता है मेरे सीने के शोक और सन्ताप तमाम अनजान आँसुओं को शब्द गढ़ता है मेरे हृदय के टूटे मन्दिर में हाथ-पैर हीन और अधगढ़ा वही प्रेमदेवता शब्द तोड़ डालता है सारे देहाभिमान, लीलाएँ, बालकेलि, स्वप्न दृश्य । शब्द वामन जो है एक डग में ही आ जाते मि और गगन दूसरे डग में समूचा शून्य और जगह है ही कहां उस मायावी के तीसरे डग के लिए ? मैं तो सिर झुका लेता हूँ चुपचाप उस ब्राह्मण के पाँव में। सात : कौन-सी आस लिये दिन-दिन-भर, रात-रात भर बस राह देखता रहता हूँ सब की कीचड़ और फूलों की आँखों से जन्म-जन्मान्तर मेरा दीखता है साफ़ । मैं जन्म लेता हूँ प्रति क्षण मैं होता हूँ हर्ष-शोक-विमोहित समस्त भुवन में मैं दाई हूँ चींटी के जापाघर में मैं मन मसोसे बैठता हूँ गेंदे की रोग-शय्या किनारे मैं शववाहक हूँ उस चिड़िया की अन्तिम यात्रा में रक्ताक्त होता हूँ मैं जब कोई तोड़ता है उस पेड़ के डाल-पत्ते, मेरे मित्र- मैं रोता हूँ अधमरी दूब की उसाँसों में मेरे चेहरे पर हँसी फूटती है आकाश को बादल और चातक को बारिश मिलने पर। मैं तो चिरकाल जड़ा रहता हूँ, डूबा रहता हूँ नया रूप धरता हूँ रंगीन तितली के अमाप लोभ से नन्हीं मकड़ी की अतृप्त प्यास से : खिलते फूल के उन्माद में, पहाड़ के उस पार डूबते चाँद के शोक में, भोर में हवा की अन्तिम हताशा में, संन्यासी के प्रणव ओंकार में मैं नया जन्म लेता हूँ मैं तो नित्य करता हूँ मृत्यु-वरण रूपजीवी गणिका के पश्चात्ताप और क्लान्ति में घिसट घिसटकर चलते केंचुए की लक्ष्यहीनता में चटख चाँदनी से धुले कोढ़ी के मादलनुमा देह के रिसते घाव में। अक्षर-अक्षर में मेरा पुनर्जन्म मृत्यु मेरी प्रत्येक शब्द के कोण में ध्वनित मेरा जीवन क्षण क्षण, उच्चारण में स्वप्न और दृश्यों के सम्मोहित सातवें आँगन में। इतने सपनों के लिए भला रातें कहाँ दिन कहाँ इतने दृश्यों के लिए !!

लौट आने का समय

लौट आते हैं घर धूप चुभने पर, रात को चाँदनी-फूल खिलने पर मूसलाधार बारिश होने पर, ठण्ड पड़ने पर सभी लौटा देते हैं हमें घर कितनी सहज सरल मुद्रा में ! लौट आने की राह पर पैरों के निशान बने होते हैं न जाने किस-किस के जो लौट गये हैं कहीं और नहीं लौटे हैं घर इन्तज़ार करते-करते बीवी-बच्चे उनके ऊँघ रहे हैं नींद में। फिर भी आँसू नहीं झरते देख-देख अनहोनी इन्तज़ार रहता है दिन बीतने पर, रात होने पर लौट जाऊँगा घर, चिड़िया के घोंसले में निर्जन राह में चिड़िया गीत गाती है क्या वह जानती है उसी रास्ते से एकाकी लौट रहा है एक आदमी मन मारकर ? ऐसे में कितना आत्म-विश्वास भरती है चिड़िया ! सचमुच ! खोये हुए लोगों की यादें छिपी हैं आकाश, मेघ, चिड़िया, मलिन पृथ्वी में। हाथ बढ़ा देता हूँ आकाश की ओर क्षण में बन जाता हूँ मैं आकाश हाथ बढ़ा देता हूँ हवा की ओर बन जाता हूँ हवा की प्यास हाथ बढ़ा देता हूँ शून्यता की ओर बन जाता हूँ शून्य हाथ बढ़ा देता हूँ निर्जन घर की ओर बन जाता हूँ वीरान जंगल की राह । आओ, आओ कहकर मैं तुम्हें बुलाता हूँ उत्तेजित आवेग से, अस्थिर स्नेह से आओ-ज़रा और पास आओ यह देखो मैं लौट रहा हूँ अकेला स्मृति की रेत सहलाता अक्षय मुद्रा में। अभी ही हुआ है पूरा काम मेरा, बस दिन ढलने ही को है सूर्य लौट जाएगा घर पर बैठी इन्तज़ार करती माँ की गोद में क्या तुम मुझे चूमकर, मेरा सिर सहलाकर 'कितने बुद्धू हो सच' कहकर टिका नहीं लोगे अपनी शून्यता में ?

अनजान आदमी

आँखें फाड़-फाड़कर देखते हैं वे लोग मुझे कभी डबडबायी आँखों से कभी निरीह और प्रश्नभरी आँखों से तो कभी विस्मय और सन्देह से तटस्थ, उत्ताल आँखों से। क्या हूँ परिचय उन्हें अपना ? नाम गाँव बाप दादा, इतिहास जाति गोत्र नहीं चाहते वे लोग यह सब जानना फूलों के पौधे, चिड़ियाँ और साँझ के खामोश सितारे जिद्दी हवा और मुलायम धूप अपलक ताकते रहते हैं मेरा मुँह मानो मैं किसी और दुनिया की किसी दुःस्वप्न रात्रि की कहानी का नायक हूँ इतिहास जिसे कब का भूल चुका है। अन्दर आँसू दबाये रहता हूँ ; एक अपरिचित सत्ता रोती है कुछ याद करके कबूतरी-सी गुटरगूं करती हुई अन्दर सहसा बजती है बाँसुरी हवा की धूप की लहरें टूटती हैं लहू तट पर माँस के पौधों में तारों की तरह खिल उठते हैं फूल असंख्य रंग-बिरंगे फूलों और शब्दों की चिड़ियाँ गाती हैं अनभूले शोक-गीत शंकाकुल, व्यथातुर अनचीन्ही सुबह । जाने-पहचाने से अनजान और अनजान से जाना-पहचाना बन जाता है एक आदमी हवा, धूप, तारों में बह जाता है सुदूर आकाश में स्मृति बन जाता है, बन जाता है शुभ्र उदार गीत का स्वर चिड़िया और फूल की आँखों में परछाई उसकी झलकती है अनमनी परिचय पुनः मिलता है लौट आता है वह आदमी निर्जन अरण्य पार कर राह भूले बिना।

नदी को देख क्या याद आता है ?

नदी को देख या क्या याद आता है पहाड़ समुद्र के अलावा ? याद आते हैं स्वर और समय स्वर में बहता है समय समय के बहुविध स्वर कोणों अनुकोणों में उसकी प्रतिध्वनियाँ गढ़ती हैं शब्दराजि मन के एकान्त में, धूल पोंछकर अनुभव, सुख-दुःख, यन्त्रणा और आशा-आलोक से सुनाई देता है स्वर उसका रिक्त समय से। क्या नदी अपने ही स्वर की महोदधि है ? उगते सूर्य की आशा आसावरी मध्य रात्रि झिलमिल तारों का सिहरता विहाग आवेग से रक्त-क्षरा स्वप्न-भरा गोधूलि की आहत पूरबी उसका तीव्र अनुराग है ? क्या नदी सत्ता है जो रच जाती है असंख्य सपने ? क्या नदी व्रत-उद्यापन है अँधेरे का ? क्या नदी समय की परछाई है जो बहती है पहाड़ों से शान्त मूक मौन पत्थरों से होकर वाचाल सागर तक ? अनादरित पत्थर के आलिंगन से मुक्ति चाहकर निमग्न सत्ता का विवर महोदधि असीम समय का स्वर काल कालान्तर; मृत्यु और अनन्तकाल का सूर्य अस्तमित आदि मध्यान्तर अन्त में चिर उपगत। समझ गया समझ गया नदी समय का अन्तहीन स्वर है शिरा और धमनियों में उसकी अथक अविराम कल-कल कभी शुभ्र वस्त्रान्विता तो कभी रक्त वस्त्रान्विता कभी अल्हड़ किशोरी वैकुण्ठ की और कभी पके आम-सी मुरझायी पलकें बुढ़िया की कभी समय का उत्तरण कल-कल बहता स्वर कभी चमकती तलवार और कभी आनन्द की उत्ताल लहरें। नदी को देखने पर पहाड़ समुद्र के सिवा और क्या याद आते हैं ? याद आते हैं जन्म-मरण, बचपन, प्रेम, स्वप्न यन्त्रणा आनन्द और जन्म जन्मान्तर तमाम आरती-अर्चनाएँ, सारे दुःख रक्त माँस कीचड़ से लबालब याद आती है चाँदनी रात में प्रकाश की रेत-शय्या सप्तम वैकुण्ठ और स्वप्न लहरें।

नदी में अनेक भय

नदी में जड़े रहते हैं अनेक भय मैं असहाय समतल भूमि उसकी आकांक्षा और प्रेम का तट लाँघ बाढ़ में डूबता हूँ बार-बार अमूर्त स्वर में नदी गीत गाती है पहाड़ और जंगल का निर्जन सुनसान स्वर थपेड़े खाता स्वर समुद्र का उस गीत में सुनाई देता है मेरा बचपन और कैशोर्य उस गीत में सुनाई देता है मेरा समस्त अतीत । नदी में चिपके रहते हैं अनेक भय देवी के अपरूप लावण्य के पआल का ढाँचा चिपका रहता है कीच-पाँक में उसके पानी के स्वच्छ आईने में मेरा कंकाल झलकता है गोधूलि के धुंधले प्रकाश में। साँप का सिर कटने-जैसी, भीषण प्रवाह में मेरी चेतना, स्थिति मेरी बह जाती है तिनके की तरह डूबता-उतराता मँडराता रहता हूँ मैं नदी के सपने के भयावह बवण्डर में चित्रपट की तरह कहीं से आती हैं असंख्य भरी नावें पल में गुज़र जाती हैं छोड़कर गीत के दो बोल गीत हो जाता है आँखों में बूंद भर आँसू आँसू हो जाता है उसके स्नेह का असीम आस्वाद । नदी में छिपे रहते हैं अनेक भय चोंचदार मगरमच्छ-सा एकान्त स्नेह से मेरे शब्द और भंगिमाओं की नववधुओं को लील अपलक निर्लिप्त आँखों से बुद्धू-सा खड़ा रहता है उसके सामने सिर झुकाये और कभी आज्ञाकारी बालक-सा लौट आता है उसकी गोद में सूर्य डूबने के बाद मुँहछिपे अँधेरे में। नदी में लेटे रहते हैं अनेक भय रेत के टीले पर फटी-मैली कथरी पर सोयी रहती है अँधेरे में लाचार नीरवता, स्नेह सिर्फ शून्यता और पोली रेत है नदी तो बस यन्त्रणा का अन्तिम नाम अन्तिम, सादगी है उसकी धारा उसकी लहरों में जन्म मृत्यु प्रेम काम, मुक्ति की अनिर्वाण गाथा साथ-साथ रहती है। तुम नदी हो मैं तुम्हारा असहाय तट स्नेह की वेदी पर हैं समस्त कविताएँ मेरी यन्त्रणा और आस्वाद की शुभ अष्टपदी।

रोग-शय्या

सुबह हो चुकी है। चित्रित तितली के पंखों के कम्पन में सुनाई पड़ रहा है सूर्यदेव का मन्त्र-गायन । पूरी ताकत इकट्ठी करके डेलिया-फूल की हरी डाल, हरे पत्तों ने रक्त-से लाल जिस फूल को जन्म दिया था आज वह काला पड़ चुका है झड़ जाएगा अब ; माटी का बुलावा प्रतिध्वनित होने लगा है उसकी शिरा-प्रशिराओं में। मानों सचमुच अँधेरे के गहरे पानी में पनकौआ-सा डुबकी लगाता अभी-अभी आया हूँ मैं किनारे आह ! कितनी तृप्ति, कितना आनन्द, कितनी क्लान्ति है आज मुझे कुछ ठीक लग रहा है नीले आकाश में किसी असीम दूरी पर हुत्-हुत् जलते आत्मघाती सूर्य का रुदन सुनाई दे रहा है। क्यों ? क्यों है यह अभिलाषा चिरकाल जीवित रहने की ? क्या इसीलिए-दूसरे कमरे में है चूड़ियों की खनक नारी की अनभूली वीणा-झंकार ? यमुना, शिप्रा, या चित्रोत्पला सत्, त्रेता या द्वापर ?..... मुँह के सामने ही तो है शान्त नीला आकाश किस तरह निर्लिप्त वैराग्य से जल उठता है हलाहल-सा नीला मानों मेरी सत्ता का शुभ्र दावानल !

धाँगड़ा का प्रेम-गीत

पहाड़ की ढलान पर तुझसे स्नेह माँगा, स्वप्न माँगा स्पर्श माँगा, तमाखू-पत्ता माँगा ; तूने कहा, यहाँ नहीं, यहाँ खेत-खलिहान में बहुत से लोग हैं। साँझ के अँधेरे में महुवा फूल की महक से विह्वल गाँव के बाहर तुझसे स्नेह माँगा, देह माँगी या फिर वादा करने को कहा; तूने कहा, जुगनू और अकेले तारे से मुझे हमेशा डर लगता है इस वीरान जगह से भाग चलना ही बेहतर है। घने जंगल में अपनी छाती की धुकधुकी खुद को सुनाई दे रही थी तुझसे स्नेह माँगा, स्पर्श माँगा तूने कहा, छिः यहाँ यह मलिन धूसर माटी है फूल-सी यह देह, सोना-जैसी आत्मा मुरझा नहीं जाएगी, धूल-धूसरित नहीं हो जाएगी ! यहाँ नहीं, यहाँ नहीं। झरना किनारे कोई न था अकेली चिड़िया ही गीत गा रही थी तुझसे स्पर्श माँगा, अँधेरा माँगा, तूने कहा, झरने के स्वच्छ आईने में सब-कुछ दिख रहा है यहाँ नहीं, यहाँ नहीं। सारी पृथ्वी सो रही थी यहाँ तक कि चाँद-तारे भी तुझसे स्पर्श माँगा, प्राण माँगे अपनी थुरथुर आत्मा के लिए तेरे शरीर के घोंसले में इत्ती-सी जगह माँगी तूने कहा, अँधेरे में भी मेरी आँखों के आईने में सारा कुछ साफ़-साफ़ दीखता है। अभी नहीं, अभी नहीं। तो फिर लो दोनों आँखें, निकालकर तुम्हें भेंट करता हूँ अब स्पर्श दो, स्नेह दो, अँधेरा दो एकाकी आत्मा को आसरा दो। (धाँगड़ा=क्वाँरा आदिवासी युवक)