तर्पण : राजगोपाल
Tarpan : Rajagopal

तर्पण
एक छिपा हुआ यथार्थ



तर्पण से पहले...

अंजलि भर शब्दों से सादर... अवसान सृष्टि है. इसके आगे सृजन है. लेकिन यथार्थ की स्वीकार करने की क्षमता कोई सामान्य बात नहीं है. कभी लगता है मोक्ष के बाद भी मनःस्थितियाँ जीवित रहती हैं. जीवन मे दुख का एक ऋण शेष ही रहता है. तर्पण, अवसान के बाद का अंश है. अवसान से पहले जीवन की स्मृतियाँ हैं. इस काव्य-संग्रह मे यह दोनों पहलू सम्मिलित हैं. राजगोपाल मेक्सिको सिटी वसंत पंचमी 2021

तर्पण: उसके अवसान के बाद

कल ही कर दिया उसका तर्पण रात देखा था स्मृतियों का दर्पण अब और नहीं हो सकता है समर्पण प्रणय मरा, सह न सका और तिरस्कार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार मत पूछो बरसों का आराध्य कैसा सारा जीवन दे दिया उसे बाध्य जैसा क्या मांगा था पर्वत सा असाध्य जैसा अंत मिला बांधे चालीस मन का भार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार सदा चित्रा पर प्रणय भाव उमड़ा झंझावात में भी रहा उसे लिये खड़ा अंजन सा रहा उसकी दृगों मे पड़ा पाषाण से भी गहरी थी ‘अब नही’की मार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार अब प्रणय के पिंड से कह दे प्रेत बन भटके या गंगा मे बह ले अंत यही है इस प्रसंग का, अब सह ले न गिरा मिट्टी पर व्यर्थ आंसुओं की धार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार जग की देख कर भी अनजान बन जा प्रणय नहीं किसी का, तू मिट्टी में सन जा चिता तो जल गई , अब न राख़ से छन जा किसे देखूँ , सब शून्य हुआ हृदय के उस पार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार पृथा मे आरती रख उसकी लौ से जला बीते दिन ऋचा सुनाते उसके आँचल मे पला अब शेष जीवन अकेला निर्वासित हो चला सुंदर सा तन-मन हो गया निष्ठुर और निराकार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार टूटा मन प्रणय की वंचना से छोड़ दिया मुझे मेरी ही सर्जना ने न देखी ऐसी मृत्यु कभी कल्पना में फोड़ दिया निर्दयी ने बरसों का मधु-सार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार प्रणय मांगता हुआ, पाया उसका ही उपहास आरंभ बना जीवन, पर अंत न आया रास तकियों पर सिसकते, आज बची न कोई सांस संवेदना मरी, आज भेद गया उर हुआ मौन प्रहार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार हम पहले तकियों से फिर कमरे से हुये पृथक आज निष्कासित प्रणय, मौन लेटा ही बना मृतक न कोई जग क्रंदन, न ही सिसकियाँ उठी दूर तक शव इतिहास बाँचता रहा, कैसे टूटे परिणय के हार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार ठूंठ हुआ मैं, अंजलि मे सहलाता प्रणय मीलों के प्रयाण के बाद कैसा है यह निर्णय पाषाण हृदय से कैसा है चित्रा का अभिनय भावनाएं भी मरी अब किस कंधे का ले उधार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार चित्रा छूटी, चला मैं ही प्रणय लिए उस पार निस्तब्ध आह दबाता अँधियारे कर रहा संस्कार जब प्रेयसी ही पाषाण हुयी किस से लूँ प्रतीकार हे ईश्वर आज देना मुझे तर्पण का अधिकार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार आह पुरानी, अश्रु पुराने, मैं आया उसके ही तट प्रेत बाँच रहा है मौन बीते अभिसार की तलछट सोच रहा था भाग्य भी सोया है आज किस करवट आज स्मृतियों ने भी मान लिया जीवन से हार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार सजे सुख-दुख के लड्डू और कुछ फूल छलके नयन,यौवन के चित्रों पर छायी धूल कस्तूरी से गंध उडी, चित्रा गयी दृगों मे झूल प्रणय के पिंड, उर तक छू गये सृष्टि का सार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार पिंड मे छिपे तिल लगते जैसे उसके नयन चंपई फूलों मे दिखता है चित्रा का ही गगन तर्पण के बूंदों से वही बरसती रही सघन लगता यह छल है, मन यूं ही डूब रहा मझधार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार प्रणय जीवंत था तुम्हारे अधरों सा कल तक फिर क्यों चादर ओढ़, मांगता मोक्ष गया बहक जली आँखें दावानल सी पर न गयी तुम्हारी महक आंसुओं का आचमन अब तोड़ रहा है तुमसे तार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार हाथ जोड़ कर तुम्हें ही देखता हूँ सुरवामिनी प्रणय मरा, या तुम कौंध गयी बन कर दामिनी मंत्र नहीं, कान सुनते हैं, लौट आओ मेरी नंदिनी पिंड का स्पर्श तुम्हें ही छू जाता है बार-बार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार मन कहता है यह तर्पण छल है घाट से उठती ऊष्मा कितनी विरल है उर मे तुम बसी हो, यह प्रणय सकल है झरते अश्रु अंजली मे समा मिटा गए अंधकार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार न ही तुम सिधारी न तुम्हारा प्रणय केवल सिमटा है दृगों मे गगन सा समय कर लेना आलिंगन, अब किसका है भय दशकों का सावन लगा बह गया तर्पण की धार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार तुम्हारे चित्र बसे हैं आँखों मे अंजन से झरती है कालिख मन मे घिरे प्रभंजन से सुधा मिली है रस-रूप विभा के मंथन से फिर कहाँ गयी चित्रा इन नयनों से होकर निराकार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार मंत्रों की ऋचा न रोक सकी जाने की घड़ियाँ शून्य है यहाँ, पर सूनेपन मे भी गूँथ रही कड़ियाँ फिसलती है मृदा, जाने कैसी हैं मोक्ष की गलियाँ प्रेत ही सही, मेरे लिये तुम्ही हो सत्य-साकार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार पिंड लिये तुम्हारा ही स्मरण कर रहा यह मन खोया नहीं है कहीं वह अनुराग, प्रणय का धन तुम ही अनंता, चित्तारुपा, यही है काल का दर्पण अंतर्द्वंद छोड़ यहीं, आ रहा हूँ आंच के उस पार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार यहाँ बिखरे पंखुड़ियों मे होता है तुम्हारा ही बोध यह है नभ का द्वार, नहीं कोई अधरों का अवरोध तर्पण पूर्ण हुआ शांतिमय, न कोई माया न ही क्रोध तुमने बहुत दिया जीवन मे, स्वीकार लो मेरा आभार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार गेंदे के फूलों मे तुम ही दिखती हो सुनहरी डाल से टूटे ये भी कोसते हैं वसंत हरी-भरी ‘अब नहीं’ सुन कर रात भी सिसकी डरी-डरी छोड़ गयी विजन मे, अब न सुनोगी मेरी पुकार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार रात तुम्हारे माथे का स्पर्श कहाँ विलीन हुआ क्या पिंड की तरह बिखर प्रणय भी क्षीण हुआ बरसों की तुम धनी, खो कर जग भी दीन हुआ शून्य मे सोचता हूँ क्यों रुक गया अंतिम अभिसार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार बड़ी आँखों वाली चन्द्रमा सी खिलती जिसके कृष्ण-कुञ्ज से कस्तूरी महकती स्पर्श धीरे-धीरे निशा से छिप कर सरकती मधु-लिप्त वचन दे कर, चली गयी विरह के पार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार तुम पद्मा, पृथा की भाग्य रेखा, आज मिट गयी तुम प्रकृति, प्रज्ञा मेरी, मुझसे से ही उचट गयी तुम संग अब मेरी भी काया प्रेतों से लिपट गयी तुम्हारी स्मृतियों मे, यह तर्पण जीवन गया निथार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार मंत्र दोहराता हुआ करता तुम्हारा ही आव्हान जीवन भर का संकल्प क्यों छोड़ गया यह प्राण एक और आलिंगन का न होता जीवन मे अपमान संवेदनहीन हुये हम, तब न रिसे तुम पर अश्रु के धार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार प्रणय संग कुछ दिन और ठहर जाती अधरों से उर मे कुछ श्वास और भर जाती तुम अमृता, अड़ती तो मृत्यु भी डर जाती अश्रु सूखे, यह जीवन तो बना मरुथल अपार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार प्रक्रिया पूरी हुयी, मैं अंतिम पिंड लिए खड़ा रहा निर्निमेष निशब्द छल-यथार्थ के मध्य अड़ा रहा पागल हुआ जजमान, पंडित भी यहाँ बड़बड़ा रहा तुम गयी, इधर स्मृतियों की डोली भी ले गए कहार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार बंद आँखों में तुम्हारे बाद संसार मिला है स्मृतियों मे नवनीत भरा उपहार मिला है पर उसे छूने का नहीं अधिकार मिला है सूखे अश्रु भी सारे, फिर क्यों उलझे हैं मन के तार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार तुम्हारे बिना ठहरा सा लगता है जीवन लगता है बह जाऊं सरिता के साथ निर्जन तर्पण करता हुआ तुम्हें देखता हूँ क्षण-क्षण अकेला देख मुझे धड़कन भी करते हैं प्रहार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार दृगों मे छाते हैं तुम्हारे ही प्रणय-भाव धूप मे नहीं होती अब तुम्हारे कुंतलों की छांव जीवन पड़ा है पीठ पर, हार कर सम्बन्धों के दांव माया ऐसी, पल-पल लगता है फिर कोई गया पुकार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार मेरी आँखों मे यह शांति का अंतिम चरण था वर्तमान तो जला, अब शेष इतिहास मे शरण था अधरों की लालिमा पर आज पड़ा श्वेत आवरण था प्रणय छूटा, संबंध टूटे, पर मन्मथ न मार सका प्यार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार बार-बार वह प्रणय हाथों तक आता है, तुम्हारा अंतिम सत्य ह्रदय भेद जाता है स्पर्श निर्लज्ज सा रात-जगा रुलाता है अब तो शून्य भी निशस्त्र पर करता है प्रहार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार सारे पिंड-पुष्प अब टोकनी मे सजे मंत्र नहीं, चित्रा तुम्हारे ही सौ नाम बजे अंतिम स्पर्श था, अब प्रणय पर कौन रिझे तुम्हें देखता रहूँगा, मन थामे जीवन भर इस पार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार छू गई गंगा तुम्हें पर कह गयी बातें सभी प्रणय पुकारता रहेगा, लौट कर आना कभी उड़ती रहेगी तुम्हारी कस्तूरी बन कर सुरभि तुम्हारे बिना खाई है आज मैंने समय की मार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार साथ रह कर भी अंत मे हम क्यों अलग ही रहे नीड़ बनाए साथ ही पर अंत समय अश्रु ही बहे जल गया जीवन, पर कुछ शब्द रह गए अनकहे कंठ की निस्तब्धता रौंद गई दूर के बजते सितार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार हर दिशा मे मचा है छलते जग का क्रंदन पर तुम सा नहीं है कोई दूसरा अटूट बंधन तुम स्वधा, अंबुजा, तुम्हें मेरा शत-शत नमन सूर्य देख अर्ध्य करता हूँ नित, यही शेष है आधार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार इस दीवार पर झूल रही तुम्हारे यौवन की माला अँधियारे से लड़ता हूँ, मैं पी कर शब्दों की हाला तुम दूर हो कर भी उर मे बसी हो मेरी मधुबाला चित्रा, इतने बरसों में दे गयी तुम जीवन का सार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार तुम यथार्थ हो, इतिहास हो, सत्य हो, जीवन हो श्वास हो, बहती रुधिर हो , स्नेह का सृजन हो अमेय हो, अमृता हो, नियति का दर्पण हो कैसे हो सकूँगा उऋण, यह तर्पण भी आज रहा उधार अब क्यों रोये मन, वह तो कब से गयी सिधार

समर्पण: उसके अवसान से पहले

उस संध्या जब तुम्हें भरी आशा से देखा पढ़ लिया था ललाट पर चित्रगुप्त की लेखा खिंची जीवन मे भाग्य की धुंधली रजत-रेखा तुम्हे सामने पाकर लगा कैसी तृष्णा में फंसा मौन रात न जाने अपने सपनों पर कितना हंसा तुम शचि सी उतरी सुन्दर सुरवामिनी घन-सघन प्रभंजन मे चमकती दामिनी सत्य हो या मेरी कल्पना की कामिनी कैसी विधा है, सपनों में देखा जो आनन वह उतर आई है आज स्वर्ग से घर-आँगन इतना खिला चेहरा जैसे धवल कमल लजाती निशा से बिखरते उसके कुंतल चढ़ती दुपहरी मे भी लहराते गुलाबी पल अंधेरे कस्तूरी लिए उभरती यौवन भंगिमा स्वप्न चीर फिर निखरती सुबह की लालिमा खिली रात रजनीगंधा लिये मदिर कौमुदी निस्तब्ध गहरी सांसें भी कर गयी गुदगुदी समय लांघ गया सारे सपने, आँखें रही मुँदी छोटी चादर मे छिप कर ही उन्मत्त सो जाएँ अधरों की हाला पी कर सृष्टि में खो जाएँ   तुम्हारे होंठों से उठता पुलकित यौवन सजीव कर गया जो घर था निर्जन भुला गया सारे बीते एकाकी क्रंदन धीरे कसमसाती साँसों को और तेज कर गया कुछ ढूँढ लिया स्पर्श तुममे ही छुपा कुछ नया बरसों बीते तुम्हें निर्निमेष निहारते चांदनी भी ढली अधूरी प्रणय पुचकारते किन्तु थका नहीं यह कंठ तुम्हें पुकारते रात पार कर गयीहै जीवन-मृत्यु की दूरी समय लांघ आज भी उड़ती है तुमसे वही कस्तूरी सृष्टि सा सजीव है तुम्हारा यह श्रृंगार सावन बीते पर न बुझा आँगन मे अंगार मन देहरी पर मांग रहा प्रणय का अधिकार तुम्हारे मुस्कान से आज हुआ है जग गुलाबी तुम्हारे आँचल में यह रात भी नहीं है अजनबी तुम सुरमयी यौवन की मधुशाला कितनी मदिर है इन अधरों की हाला जीवन रस के डूबा है प्रणय का प्याला जब झांक रहा हो यह विस्तृत अनंग कैसे न होगी मन की चंचल ईप्सा भंग लगता है सारा समय बटोर कर तुममे ही समा जाऊं जीवन भर जी लूँगा तुम्हारी ही साँसों में सन कर छिपा लो मुझको इन नर्म शिखाओं में न ध्वनित करना ‘अब नहीं’इन दिशाओं में तुम हो सुरमयी यौवन की कस्तूरी क्यों खड़ा प्रणय लिए हाथ की दूरी मुट्ठी भर जीवन छोड़ न दे आशाएँ अधूरी तुम्हारे आँखों में श्रृंगार छलकता है नीर सा समय रोक बाँट लें सुख इस उफनते क्षीर का वह शाम आँखों में कभी नहीं ढली आज तक न मरीचिका न तृष्णा जली छिपी रहेगी उर मे प्रणय की रात पहली रंग गयी हो तुम मन मे सांध्य-लालिमा सी उस दिन से छाई हो मेरी आँखों में सुषमा सी नित संध्या की शांति वही होती है सुख पा कर भी जिजीविषा रोती है भाग्य बाँचती, रात आंखे नहीं सोती हैं लगता है जैसे समय नभ लांघ गया हो आगे न जाने जीवन मे कब क्या नया हो लगा मुझे जैसे लौट आया है इतिहास ज्येष्ठ मे भी खिले हैं पलाश तले मधुमास तुम संग नहीं होता है पीड़ा का आभास जब भी हम साथ चले हाथ पकड़ कर मन करता रख लेते यह पल भी जकड़ कर चढ़ती रात तुम्हें देखता हूँ मैं हर करवट जागती है फिर आशा लांघ कर मरघट कनखियों से झाँकता है जीवन झटपट आँख खुलते ही कहीं अँधेरा न हो जाये डर लगता है कभी ये सांसें न सो जाये तुम मनभावन फूलों से झरती मकरंद समीर सी छूती मन की मृदा मंद-मंद सावन में धरा से उठती प्रणय की सुगंध पारिजात सी रजनी में महकती कामुक रति तुम ही हो सुन्दर सी मेरी छोटी सी प्रकृति इन बड़ी आँखों में अपार विश्वास भरी आषाढ़ मे बरसते यौवन की चपल निर्झरी उर मे उर्वशी सी उतरती स्वर्ग की परी समय से लड़ती विजय सिद्ध बनी नंदिनी तुम हो श्रृंगार भरी इस जीवन की कामायनी मंजुल मधुर स्वप्नों की उन्मत्त निशा बस्ती बयार सी पर है नहीं कोई दिशा अधरों की हाला, आज लांघ गयी तृषा चाँद भी कहा गया यही है प्रणय का प्रमाद प्रिये, तुम ही हो मेरे प्यार का सुन्दर शंखनाद मेरे मन का यह कलरव संसार थक गया जोहता प्रणय-अभिसार तुम उधर हो, मैं जीवन लिए खड़ा इस पार कहाँ छिपी हो भाग्य बनी दुर्गा सी सुनयना तुम्हें शत-शत नमन है जीवन की सुलक्षणा दृगों मे खींची यह कितनी लम्बी प्रतीक्षा थी प्रणय-दीप पर शलभ की यह कैसी परीक्षा थी दुख मे लिपटे इस जीवन की वही समीक्षा थी आँखों से अधरों तक कितनी लंबी रात की चादर रात खो गयी अब तुमसे उठती अरुणिमा को सादर छोटे से घर की खिड़की से झाँकती रात कभी न सुन पायी लंबी हमारे मन की बात गूँथी उँगलियों मे अंधेरे ही निभा गयी साथ स्वर्ग लिए खड़ी थी वहां छोटी सी सुन्दर तुम सिमट आयी वहाँ खुशियाँ जो ढूंढ रहे थे हम हम तो नहीं थे इस जगह से अनजान हमने किया था यहीं प्रणय का सम्मान तुमसे जीवन मे मिला था यहीं अभिमान तुम्हे गोद में लिटा कर सहलाया था यहीं अपलक निहारता तुम्हे मन भटका था कहीं कैसा अदभुत अनुभव था वह स्पर्श गुंथी हथेलियों से छूते गालों का हर्ष प्रणय चीर उर मे उठता उल्का सा उत्कर्ष आज मिल गए स्वछंद उसी छत के तले संवार लेंगे कल, जहाँ क्षितिज सा प्यार मिले झांक लो दृगों मे मन के आवरण हटा बह जाने दो यौवन जो सावन सा है फटा तुम अक्षया हो न मापो सुख कितना घटा आज फूलों पर बिछी है तुम्हारी सुन्दरता बह जाने दो मधु और अधरों की मादकता   कुछ बातों ने जो तुम पर बिखेरा गुलाल चादर की सलवटें, कुंतलों से ढंके गाल बिखरती चाँदनी मे प्रणय से सजी थाल निस्तब्ध रात में मधु बरसा गया श्रृंगार सुबह पारिजात सा बटोर लिया फिर प्यार तुम नित खिली जैसे उषा की प्रथम कली स्पर्श की सारी संवेदना रात मचलते पली तन पर दामिनी उतरी, अँधियारे होलिका जली रजनी का आँचल उतार आँखों में प्यार लिये खुल कर जी लें आज सपनों को साकार किये फुहारें भिगो गई तुम्हारी सुन्दरता लौट आई है फिर अधरों की मधुरता लुढ़की हाला, बह गयी तम संग नीरवता घन-सावन मे और न भीगो मधुबाला, पास ही खुली है जीवन की मधुशाला रिमझिम सावन शतदलों पर सरकता मन प्रभंजन मे विहग सा बहकता यौवन निस्तब्ध निशा मे दहकता इठलाता कृष्ण-कुंड में कहीं खो गया तुमसे ही होता है जीवन का हर पल नया उनींदी कर गई रात तुम्हे आँखों में बसा जड़ हुआ मैं छल और यथार्थ मे कसा कभी अकेले ही रचा जीवन का जलसा निशांत तक स्मृतियों में तुम्हे ही ढूंढ़ता रहा मरीचिका में दौड़ता, मन चंचल भागता रहा दूर से तुम्हे देखने का सुख तुम्हे पाने का क्रंदन, वह भूला दुख दिन की थकान से परे वह हँसता मुख जैसे हर सुबह तुम्हे करीब से देखता हूँ वह स्मृतियाँ आज भी शब्दों में संजोता हूँ सब कुछ बदल गया जो कल था अधरों में यौवन का गीला पल था आज अश्रु नहीं आँखों मे छाया छल था वह घर, मुट्ठी भर तुम्हे देखने की कसक सब कुछ आँखों में मदिर सा जाता है बहक समय कल ही क्षितिज लांघ गया प्रणय हर सुबह नियम से बांग गया पर न जीवन मे रचा र कोई स्वांग नया वह पहला प्यार न जाने कहाँ खो गया इन माथे की लकीरों में सच कहीं सो गया अब बची उम्र भी कम होने लगी है डरी-डरी रात भी अब कम सोने लगी है उतरते उमंग मे अब सुबह भी रोने लगी है हम हैं तो सोचो न किसी और की बातें आओ बाँट ले ये सुबह, दोपहरी और रातें