सुनो दीपशालिनी : रवीन्द्रनाथ ठाकुर मूल बांगला से अनुवाद प्रयाग शुक्ल

Suno Deepshalini : Rabindranath Tagore Translator Prayag Shukla


(रवीन्द्रनाथ ठाकुर के गीतों के वृहद् संकलन 'गीतवितान' से चुनकर इन गीतों का अनुवाद मूल बांग्ला से ही किया गया है।)

पहने हूँ हार विदा बेला का

पहने हूँ हार विदा बेला का । पल-पल वह वक्ष से मेरे टकराए ।। कुंज कुंज बहे हवा फागुन की, मीठी सुगन्ध वह उसकी जगाए ।। हर क्षण जगाए । शेष हुआ दिन और शेष हुआ पथ भी । मिली मिली छाया वन प्रान्तर में उसकी । मन में वह छाया और वन में वह छाया — रह-रह लहराए, दिग्-दिगन्त छाए — झलक झलक जाए ।

द्वार उसके मैं आया

द्वार उसके मैं आया, मैंने द्वार खटखटाया । मैंने साँकल बजाई, मैंने उसको पुकारा, अन्धकार में । बीते-बीते प्रहर, वो आया नहीं पर, अरे, द्वार में ।। भेंट हुई न हुई । भले जाऊँ मैं चला । लौट जाऊँ हार मैं, जाऊँ दूर-पार मैं । रहे, रहे ये लिखत, छोड़ जाऊँ इसे मैं — "अरे, आया था मैं तेरे द्वार में ।"

द्वार थपथपाया क्यों तुमने ओ मालिनी

द्वार थपथपाया क्यों तुमने ओ मालिनी पाने को उत्तर, ओ किसने क्‍या मालिनी फूल लिए चुन तुमने, गूँथी है माला मेरे घर अन्धकार, जड़ा हुआ ताला खोज नहीं पाया पथ, दीप नहीं बाला आई गोधूलि और पुँछती सी रोशनी डूब रही स्वर्णकिरण अन्धियारी में सनी होगा जब अन्धकार आना तब पास में दूर कहीं पर प्रकाश जब हो आकाश में पथ असीम, रात घनी, सुनो दीपशालिनी

चुप चुप रहना सखी, चुप चुप ही रहना

चुप चुप रहना सखी, चुप चुप ही रहना, काँटा वो प्रेम का— छाती में बींध उसे रखना । तुमको है मिली सुधा, मिटी नहीं अब तक उसकी क्षुधा, भर दोगी उसमें क्या विष ! जलन अरे, जिसकी सब बींधेगी मर्म, उसे खींच बाहर क्यों रखना !!

हे नवीना

हे नवीना, प्रतिदिन के पथ की ये धूल उसमें ही छिप जाती ना ! उठूँ अरे, जागूँ जब देखूँ ये बस, स्वर्णिम-से मेघ वहीं तुम भी हो ना ।। स्वप्नों में आती हो, कौतुक जगाती । किन अलका फूलों को केशों सजाती किस सुर में कैसी बजाती ये बीना ।।

किसका आघात हुआ फिर मेरे द्वार

किसका आघात हुआ फिर मेरे द्वार... किसका आघात हुआ फिर मेरे द्वार । कौन, कौन इस निशीथ खोज रहा है किसको — आज बार-बार ।। बीत गए कितने दिन, आया था वह अतिथि नवीन, दिन था वह वासन्ती — जीवन कर गया मगन पुलक भरी तन-मन में — फिर हुआ विलीन ।। झर-झर-झर झरती बरसात । छाया है तिमिर आज रात ।। अतिथि वह अजाना है लगते पर बड़े मधुर, उसके सब गीत-सुर ।। सोच रहा जाऊँगा मैं उसके साथ — अनजाने इस असीम अन्धकार ।।

फहरा दो, फहरा दो, पाल

फहरा दो, फहरा दो, पाल बन्धन सब खोल दो, खोल दो, खोल दो फहरा दो, फहरा दो, पाल उमड़ा है प्रेम-ज्वार उस पर होकर सवार जाएँगे कहीं अरे, पार मुड़ना क्या, हटना क्या फहरा दो, फहरा दो पाल प्रबल पवन, उठ रही तरंगें ले मन को कौन अब संभाल भूलो अब दिग्विदिक्, मतवालो ओ, नाविक फहरा दो, फहरा दो, पाल

सखी आए वो कौन

सखी आए वो कौन, लौट जाए हर दिन, दे दे उसको कुसुम, मेरे माथे से बिन पूछे वो अगर फूल किसने दिया नाम लेना नहीं तुमको मेरी क़सम रोज़ आए वो बैठे यहाँ धूल में एक आसान बना दे बकुल फूल में कितनी करुणा भरे हैं ये उनके नयन बोले वो कुछ नहीं कुछ तो कहने का मन

दिन पर दिन रहे बीत

देखूँ मैं राह दिन जाते बीत पवन बहे वासन्ती गाऊँ मैं गीत करता सुर-खेल, आया ना मीत बेला यह कठिन बड़ी करती बस छल स्वप्न सा दिखती है मुझको हर पल दिन पर दिन जा रहे रहे अरे बीत आते ना पास दे जाते मुझको तुम ये कैसी प्यास जानूँ मैं जानूँ मैं दुख वही पाता है जो करता प्रीत

क्यों आँखों में छलका जल

क्यों आँखों में छलका जल क्यों हो आया मन उन्मन सहसा मन में कुछ आया ना आकर भी कुछ आया चहुँओर मधुर नीरवता फिर भी ये प्राण कलपते फिर भी मेरा मन उन्मन यह व्यथा समाई कैसी कैसी यह एक कसक-सी किसका हुआ है अनादर लौटा कोई क्या आकर सहसा मन में कुछ आया ना आकर भी कुछ आया

खोलो तो द्वार

खोलो तो द्वार, फैलाओ बाँहें बाँहों में लो मुझको घेर आओ तो बाहर, बाहर तो आओ अब कैसी देर निबटे हैं कामकाज, चमका ये संध्या का तारा डूबा आलोक वहाँ सागर के पार अरे, डूबा है सारा-का-सारा भर भर के कलशी , छलकाई कैसी ओढ़ा है कैसा दुकूल देखूँ तो माला, गूँथी है कैसी, केशों में है कैसा फूल लौटी हैं गायें, पाखी भी लौटे लौटे हैं वे अपने नीड़ पथ जितने सारे, सारे जगत के, खोए, अन्धेरे में डूबे देना मुझे मत फेर

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