स्मृति सत्ता भविष्यत् : विष्णु दे

Smriti Satta Bhavishyat : Vishnu Dey


स्मृति सत्ता भविष्यत

तुम लोग नये हो, यह उदास विषाद क्या तुम्हारा भी परिचित है ? आदि महीदास स्मृति से टकराते हैं, भूमिदासों की स्मृति की यन्त्रणा हमारे चैतन्य पर छाया आकाश है। तुम लोग नये हो, कालान्तर में आते-जाते क्या चेतना बाँध लेती है ? बीस-बाईस वर्षों के इतिहास ने क्या काल की गिनती की है ? तुम्हारे नये सुख में बाधा दी है ? तुम लोग नये हो, शायद इसी लिए प्रवास से जान-पहचान नहीं हुई ? अपने घर से नितान्त अनजान तुम आजन्म प्रवासी हो, इसी लिए स्वदेश की नाना स्मृतियाँ ही तुम्हारा विलास हैं ? दुनिया की हाटों में खरीदा हुआ अर्द्ध-परिचित प्रबल उच्छ्वास, अनात्मीय नव्य प्रतिभास- फिर भी जान लो, हमीं तुम्हारे परिचित हैं। वह देखो, अचानक सोलह मंजिली इमारत खड़ी हो गयी है, शायद पन्द्रह मंज़िलें हों या क्या पता सत्रह, धरती आसमान का तमाशा, मानो जिराफ़ ने या किसी महाकाय सरीसप ने गर्दन उठा ली हो, और चारों ओर जल हाथी, घड़ियाल, साँप, लकड़बग्घे, गीदड़ दफ़्तर गद्दी गुमाश्ते बढ़िया फ़र्श बिछा कर जमे हैं, बेढंगे, बेतरतीब, बदसूरत, कलकत्ते के माथे पर कलंक । इधर नकली गॉथिक उधर कोरिन्थियाई, आयोनाई, डोरियाई इमारतें के'लसन का विलायती खब्त । पर कुछ भी हो, काल की उर्वर मिट्टी में अहमक साहबी शौक़ के सहारे अभ्यास का थोड़ा सा प्रसाद ज़रूर पड़ा था, बंगाले का हाई कोर्ट, गँवारों का अजायबघर यहाँ तक कि लाटसाब का महल भी आँखों की आदत बन गया था, और चोरी के साम्राज्य की देशज सड़कों पर अलियों-गलियों में घिचपिच गन्दी बस्तियों की रौनक़ में चाहे मनोहर कुछ न हो पर आँखें टिक गयी थीं निकम्मे घर के लाडले उल्लुओं की, बूढ़े-बूढ़े शालिकों के झुण्डों की, पक्षी बाबुओं के कानून-कायदों के ढंग पर, खुशहाली और तंगी में । कलकत्ते की संकरी नीची धरती ने फिर भी शचीश को विनय को थोड़ा-सा रस दिया था, थोड़ी-सी धूप दी थी। फिर भी गोरा ने और अन्यान्य स्वदेशी लड़कों ने कलकत्ते को पहचाना था, स्वस्थ और सम्पूर्ण स्वाधीन होना चाहा था । आज तो बस एक तरफ़ है अधमरों का विकार और दूसरी तरफ़ है स्वांग भरा प्रलाप, निर्बोध निष्ठुर अमानुषिक अभद्र । कौन किसे धिक्कारे अठारहों मंजिलों पर? जब देश भर में चारों ओर निहायत फ़िजूल का उन्माद और विलास से भरा खेल चल रहा हो ! धूप की चोट करो, बाढ़ भेजो, हे सूर्य, हे चैतन्य आकाश यह रोज़-रोज़ का अपघात दूर करो, इस से तो अच्छा है, इस दग्ध दिन में सालानपुर के युगान्त का श्मशान भेज दो ! जी खोल कर उस से घृणा करें इस का कोई उपाय नहीं दीखता, प्राणों के मोहल्ले में उस की कोई जगह नहीं है, जब वह चोरगलियों में घूमता है तभी शायद वह दिखाई पड़ता है, घर या सभा का वह मुखिया नहीं है। शहरी जंगल में जब वे हैवानी आँखें दिखती हैं तब यह ठीक है मैं डर से चौंक उठता हूँ पर इसी कारण मैं उस से घृणा करूँ मुझ में इतना दम नहीं, वन्य पराजय में हार कहाँ है ? जानवर तो आखिर जानवर ठहरा, उस में कितना ही जोर क्यों न हो, मन की दुनिया में उस की जगह कहाँ है ? उस के नाखूनों में मौत ज़रूर है, अर्थहीनता में असह्य और आकस्मिक, इसी लिए तो हम जय चाहते हैं । इसी लिए तो मन में जय की तस्वीर है, इसी लिए तो जय का गीत गूंजता है, हम आकस्मिक का पाप मिटा देना चाहते हैं। पर क्या इसी लिए हम उस से घृणा करें, बराबरी के बिना ही ? पैरों के पास साँप घूमता हो सकता है, आसपास चौखट पर या कमरे के कोने में भी हो सकता है विच्छ हों या जोंक, प्राणों के लोक में चाहे उन की जगह न हो, यह भी ठीक है कि साँप को मारने पर घृणा से शरीर हहर उठता है, जूते का भरपूर दबाव भी डाला जा सकता है, पर क्या इसी लिए बिच्छू को बैठने के लिए घृणा का आसन दें, जोंक को आखिरकार सभा-भवन में बुला लें ? घृणा के पत्ते तो हवा में झर जाते है, पर घृणा की मिट्टी है प्रखर प्यार वही तो मूल है जिस से हम जीवन रोपते हैं, इसी लिए- जो आदमी तो दूर, शेर भी नहीं, हम उसे क्यों माने जिस के रीढ़ की हड्डी भी नहीं, उसे हम घृणा का भी अभिशाप नहीं देंगे। इस नरक में लगता है, आशा नहीं है, जीवन की भाषा नहीं है हम आज जहाँ पर हैं वह कोई गाँव भी नहीं है, शहर भी तो नहीं, न प्रान्तर है न पहाड़, न नदी, केवल दुःस्वप्न है, वहाँ न मजूर हैं, न किसान, हम आज जहाँ है वहाँ लगता है आशा नहीं है, जीने की आशा नहीं है, जिलाने की भाषा नहीं है, वहाँ लगातार महामारी है। वहाँ निर्जल अकाल में रोने की लगातार आवाज अब मर्म में नहीं पैठती, वहाँ क्रन्दन भी मृत है क्योंकि किसी को भी कोई आशा नहीं है या फिर वह इतनी कम है कि कोई निराशा भी नहीं है। चैतन्य की महामारी। यहाँ साँझ-सबेरे अभाव मृत्यु अनाहार अपघात लगे रहते हैं महीने पर महीने महामारी का चक्कर, यहाँ न जंगल है, न हिंस्र पशु, न आदिम मनुष्य, न वानप्रस्थवासी उदासी संन्यासी, यहाँ सभ्यता नहीं है, हृदय सूखा पोखर है, बुद्धि सड़ी नाली है, आँख-कान के बोध सब मानो चोरी के माल से भी बासी हैं, यहाँ शायद कोई सर्वग्रासी नरक भी नहीं है। कोई अगर हिन्दी का बौराया कुत्ता है तो कोई अँगरेजी का घड़ियाल, तरह-तरह के फ़ालतू, तरह-तरह के शिकारी शिकार फिर भी सब के सब गौण अचेतन या अर्धचेतन नरक के भी कार्टून, मृत्यु के भी विकार । नरक का दाह दो नरक की आत्मग्लानि दो हे यमरूपी जीवन आँसू दो बस्ती के घर-घर में, अवसाद भरी हड्डी-हड्डी में मर्म में यन्त्रणा की वाणी दो, फल में फल में शाखों में पत्तों में गीली जड़ दो, अभ्यस्त तिक्त क्षुब्ध के रूपान्तर में प्राण भरो, क्षिप्र प्रतिवाद में स्पष्ट वचन के चैतन्य की तीखी धार को वैशाख की तपती धूप और झपटते अन्धड़ के शोर में जीवन-मृत्यु की गोधूलि की निर्मलता प्राप्त हो । राजा की बेटी आज दफ्तर में जुटी है राजा का बेटा काम की तलाश में है, वे खूब जानते हैं कि आज के राजपाट में वे कुछ भी नहीं हैं। फिर भी वयस की उषा के संकट में लड़का सीढ़ियों पर बैठा सोचता है, लड़की तो सचमुच राजा की बेटी है पर वह तो राजा का बेटा नहीं है। पार्क की बेंच पर या फुटपाथ पर दोनों अक्सर बातें करते हैं, बहुतों के भाग्य आज खुले हैं बस उन्हीं के लिए उलटा है। इसी लिए तो बीच-बीच में राजा का बेटा जुलूस निकाल कर शोर मचाता है। राजा की बेटी इसी लिए तो जी खोल कर हड़ताल का गौरव ग्रहण करती है। वे प्यार करते हैं, इसी लिए तो घृणा से तन-मन में आग लग जाती है। उन के अभाव की अग्निवीणा में यौवन को जीवन मिला है। थकान में क्या डर है ? दिन ढलने पर हम थक जायेंगे कारखाने में ड्रिल, रन्दा या तकुए पर काम खत्म कर के पतले, मोटे हाथों का सन्तोष परिपूर्ण दिन की थकान । ध्यान और वास्तव के बीच नाव चलाते इस पार-उस पार किसी दल में सम्मिलित हो कर दिगन्त तक फैले खेत में ट्रैक्टर के दीर्घ अभिसार से मिट्टी की जो थकान आसन्न फ़सल में फलती है हम वैसी ही थकान चाहते हैं, श्रीमान् ! फिर उस के बाद सूर्य के सँगाती के रूप में सूरज की तरह घर को वापसी। बांध वाली सड़क के बायें से, अस्पताल के दायें रास्ते के पार, हर महीने भाँति-भांति के झरे फूलों झरे पत्तों को रौंदते हुए दिन ढले पहाड़ के आमने-सामने से चिड़ियों के संगीत से परितृप्त थकान में भर कर अपनी-अपनी गहस्थी की ओर, कोई गाने में कोई और आमोद-प्रमोद में, बिजली की बत्ती की पढ़ाई में या सिर्फ़ स्निग्ध अवकाश में रम जाने के लिए। या शायद बरामदे में बैठ कर या लेट कर, खाट पर, तख्तपोश पर दिशा-जाल से आकाश के सीने पर चाँद का विकास देखते रहना, किस तरह हर पखवारे प्रकृति के कौतुक से हँसिये सा चाँद अमावस्या या पूर्णिमा में ढलता है। थकान में क्या डर है ? श्रीमान् यह वह थकान थोड़े ही है, आवारा समाज के बेकुसूर ग्रामशहरों की थकान बड़ी थकन भरी होती है; ज्ञान और वास्तव में एक-से विन्यस्त जीवन के कर्म में थकान नहीं होती, भैया हम सभी वैसा थकान भरा अवकाश चाहते है । सभी जानते है रवीन्द्रनाथ की वह कहानी : सारी तैयारियां हो चुकी है, आँगन में मेहराबदार मण्डप तन गया है, भट्टी चेत रही है, ड्योढ़ी पर की शहनाई शुद्ध स्वरों से हवा में तैरती सर्वत्र व्याप्त है, भण्डार में पकवान चिने हैं, तरह-तरह के सरंजाम से भीतर का कोठा भर गया है, दहेज़ का अम्बार लगा है, पड़ोसिन सहेलियाँ उत्कण्ठा से शोर कर रही हैं, बच्चे मस्त खेल रहे हैं, निस्सन्देह कन्या की छाती भी आग्रह और आवेग से धक-धक कर रही है, शादी के लिए सभी कुछ तैयार है। यहाँ तक कि बारातो भी आ पहुँचे हैं, भीड़ लग गयी है, शंख बजने ही वाला है, सुहागिनों के पान रचे ओठों से गीत-लहरी उठने ही वाली है, सिर्फ़ वर नहीं है- यह रवीन्द्रनाथ की कहानी है, कवि ने गज़ब के रूपक से हम सभी के जीवन की तस्वीर आँक दी है, मर्मभेदी और बड़ी अद्भुत- शादी की सब तैयारियां हो चुकी हैं, यहाँ तक कि बाराती भी आ पहुँचे हैं, सिर्फ़ वर नहीं है- या शायद वे बाराती न हों, सब के सब बाराती न हों, उस भीड़ में चोर हैं, जुआचोर है, नामी-गिरामी या नगण्य, तरह-तरह के भिखारी भी हैं, कोई बाबू तो कोई साहब, आत्मा के द्वार पर, मन की सड़क पर समाज के घुरे की सफ़ाई-लौरी पर चढ़े सत्ता के भिखारी, बीमार, फिर भी गन्दी बस्तियों के वासी नहीं, आढ़त में दफ़्तर में गद्दियों पर डटे, तन-मन-प्राण से बीमार, पर शायद धन या क्षमता से नहीं- तरह-तरह के बाराती हैं, सिर्फ़ वर नहीं है। वर सत्ता खोजता फिर रहा है, अपना आत्म-परिचय खेतों में, गंजों में, बन्दरगाहों में वह अपनी सत्ता खोजता है, अपनी शनाख्त पांच जनों के दर्शन में, समाज के आतशी प्रतिबिम्ब में, उसे अपनी सत्ता नहीं मिलती, जो बस फूल की तरह धूप-वर्षा-छाया में मिट्टी से जड़ों शाखों पत्तों के प्राकृतिक आर्केस्ट्रा में फूट उठती है, उस फल की तरह जिस की सत्ता मिट्टी में धप-वर्षा में जडों-शाखों में निहित है, यहां तक कि फूलदान में सजे होने पर भी। तभी तो आज हमारी सत्ता नहीं है, घर में या सभा में, बैठक में या चायखाने में, फूलदान की बौद्धिकता में भी नहीं, लाख कोशिशों के बावजूद । यह उपमा बहुमुखी है, अनेक स्तरों पर इस का प्रयोग सरल है व्यक्ति के लिए, समाज के लिए, देश के लिए। देश, सोचो तो, सुजला सुफला यह मलय-शीतला माँ, यह देश छिन्न-भिन्न, फिर भी प्राचीन परिचय में सत्ता के चैतन्य का धनी प्रज्ञा में संहत, स्मृति के मूल से धन्य, काल के बगीचे में। पर फिर भी विच्छिन्न, चकनाचूर, हजारों दागों से घायल, विकल मानो देह में सब कुछ तो हो, सिर्फ स्नायु और स्नायु कोष अभुक्त, अस्वस्थ, कटे हों, शत-शत स्नायु-स्नायु कोष निकम्मे हो, तभी तो हमारे मन में, यथार्थ जीवन में कबन्ध बिखरे पड़े हैं, बंगाल में हजारों तरह के हजारों राक्षस, तरह-तरह की छल-क्षमता के कौशल वाले। तभी तो आत्मपरिचय नहीं है. व्यक्ति नहीं है सत्ता नहीं है, लाल-नीले कमलों के देश में आज वर नहीं है, विधवा के देश में चढ़ती उमर की सुन्दरी के लिए वर नहीं है, सत्ता नहीं है, जिस सत्ता का स्वप्न मानव-सभ्यता चिरकाल देखती आयी है आदिम कबीलों के युग से साम्राज्यों के युग तक। उसी की व्यथा असामान्य क्षमता के चरणों में ला कर डाल देती है मिथ्या लोभ, ग़लत आत्माभिमान, जिस तरह साम्राज्यलोलप जर्मनी ने रिल्के के निःसंग युग में नाजियों के दुःस्वप्न के चरणों में चढ़ा दिये थे वे लोग जिन्होंने अपनी यन्त्रणा से दुर्जय सुन्दर सिम्फनी क्वार्टेट लिखे थे, न जाने कितने यन्त्रणा-बधिर बेठोफ़ेन, सैकड़ों वाखनरों के आर्त नाट्यनाद से न जाने कितने नीत्शे कितने होयलडेरलिन उन्मत्त हो गये थे। उन दिनों के इतिहास में दिखाई देता है कि इसी के लोभ में आ कर विलायत में विश्वव्यापी साम्राज्य के कल्पतरु की छाया की एकता निर्मित हुई थी। कल्पतरु आज सूख गया है, तभी तो इंगलैण्ड के उत्तर में पश्चिम में स्वायत्त शासन की मांग है, तभी तो बहुतों को लगता है कि जनन मैथुन मृत्यु इन तीनों के बावजूद इंगलैण्ड में भी शान्ति नहीं है, वे सोचते हैं वे हरिजन हैं, स्थापित या विस्थापित, न तो उन का दाय है न दायित्व । दूसरी ओर, इसी लिए आज दिखाई देती है सत्ता की समस्या, सामूहिकता के सीमित सत्य के, साम्य के सख्य के महादेश में, इस देश में, उस देश में, देश-देश के व्यक्ति के मुकुल में। हम सम्राट नहीं हैं, विलायत की अभिजात दुर्गति स्वप्न में भी हमारे भाग्य में नहीं, यही नहीं, फ्रांस के मान्दारिनों का सा सुख भी जो मोटे तौर पर एक सेज से दूसरी सेज तक के विलास में सीमित है, अल्जीरियाई अवसाद में अस्तित्व की बीट की खोज, सो भी नितान्त असार इस पाप-पुण्य-हीन देश के जलते दिनों बुझी रातों में-वह भी हमारे भाग्य में नहीं। हम नरक में है, यद्यपि हमारे मन में इस की चेतना नहीं है तभी तो विवाह मण्डली के प्रच्छन्न नरक में आज वर नहीं है, फिर भी राजा की बेटी और राजा का बेटा नरक की ड्योढ़ी पर रास्ते में तैयार खड़े हैं अपने स्वागत की प्रतीक्षा में, सिर्फ स्वभाव के कारण वे प्रतिष्ठा चाहते हैं, प्रतिवाद में, प्राण चाहते हैं, मान चाहते हैं, अभयवर चाहते हैं, वे ही तो वर-वधू हैं ॥

व्यर्थ है स्मृति का पहरा

व्यर्थ है स्मृति का पहरा, व्यर्थ ही द्वार बन्द करता हूँ, अगर एक बार खिड़की खोल दूं तो दिनरात भाग जायें अंधेरे काल के पहाड़ पर। यौवन की निःसंगता आज बुड्ढी हड्डियों में टीसती है, हृदय का चेरापूंजी नये तर्क से विस्तृत सहारा बन गया है । मैं तो एकान्त शून्य में हूँ, तुम स्वदेश में कब थीं यह भी याद नहीं । फिर भी अगर तुम आयीं तो बकूल का यही पौधा बढ़ता देखूँगा; अगर आयीं तो तुम्हारे ही बाग की टहल करूंगा, रोज़ फूल चुनूंगा। सूर्य अस्त होता है, प्रतिदिन आकाश में गोधूलि आती है, उस के माथे पर विवाह के रंग में रंगा एक लाल तारा दमक उठता है। ३१/८/५६

न जाने कब

न जाने कब मैं ने गाये थे तुम्हारे कीर्तन में कृतार्थ दोहे। अनगिनत सावनों में वह पदावली धुल चुकी है, उस की याद बची है। धूप-पानी से वह याद मरती नहीं, उम्र आखिर कठिन लोहे की ठहरी। सिर्फ़ मन के भीतर दर्द की रगों में छायी है मोरचे की बहार ॥ १९५६

कोणार्क की देहरी पर

यहाँ शून्य का बोझ है मानो महाक्षय के कारण धरती से समुद्र तक अंधेरा हो विश्व भर के हृदय में रंगहीन ग्लानि ने सत्ता को ही दबोच लिया हो मानो मानव की वाणी गळा घुट जाने से मर गयी हो। यहाँ सभी कुछ शून्य है अन्धकार बेछोर आनन्द का आत्मदान प्रेम, मैत्री, प्रीति शिल्प का निर्माण अथवा कर्म की आरती जीवन में जो कुछ भी पवित्र है विश्वस्त है वास्तव है सब कुछ क्षय से नष्ट हो कर शून्य के गर्भ में न-कुछ हो गया है। कहाँ है आरती, स्तुति ? डरावना अकेलापन ! सारे निर्माण के अन्त में ऐसा स्तब्ध नृत्यगान । जीवन के आखिरी छोर पर विपुल वैभव भंगुर गलित शव है पुरातत्त्व का निर्वाण है। तथापि बाहर सूर्य है बादल है बिजली है वर्षा है पूर्णिमा और अमावस्या है चंचल पवन है बाहर हजारों मूर्तियाँ प्राणों के रंग से सुसज्जित हैं बाँसुरी, करताल, तूर्य खोल और पखावज लिये। बाहर जीवन प्रस्तर की सत्ता में सांसें ले रहा है कर्म की स्फूर्ति में प्राणों का प्रत्यय मांग रहा है । लेकिन भीतर कुछ भी नहीं है मृत्यु भी बिला गयी है। जीर्ण-शीर्ण देहरी की इस असूर्यम्पश्या वेदी के निर्जीव गर्भ में मन प्राण स्तब्ध हैं। लगता है जीवन बाहर है जन्म मृत्यु कर्म में आनन्द में आघात में स्वधर्म में मैं जीवन खोजता हूँ। इस का मृत जीवन अपनी प्रतिष्ठा से धीरे-धीरे शून्य के बोझ को कल बाहर से मिला देगा। जानता हूँ कल शून्य का यह गर्त कट जायेगा फिर से चैतन्य का प्रत्यक्ष प्रसाद मिलेगा। आज यह अन्धकार मर्म में डेरा डाले पड़ा है शून्य का ऐसा भार ! शिल्प को धिक्कार है, प्रेम नहीं मृत्यु नहीं शून्य का यह उद्भ्रान्त देशव्यापी अन्धकार किस का प्रतिवाद है ?

अपने हाथों बजाओगे

सच जानो, बहुत देर हो गयी है । वापसी का समय बहुत पहले बीत चुका है, सौदागरों की फेरी घर लौट गयी है, अब गीदड़ सोचते हैं वे भेड़ियों के दल में हैं । सच जानो, वापसी का समय हो गया है, मिट्टी में लौटने का क्षण आ गया- जड़ों में लिपट कर बँध जाने का, मिट्टी के लोंदों में हड्डियाँ बिखेर कर अपनी सत्ता को प्राणदान देने का । कीचड़ को हृदय सौंप कर सोचो, चैतन्य के खेत से धान मांगो, लोभ छोड़ो, भय को दूर भगाओ। सोचो तुम गाँव हो, तुम देश हो, ग्रामीण महादेश, लक्ष ग्राम । मान लो कि स्वदेश विस्थापित है भूखा है, खण्डित है, अक्षय अमर इन कोटिजनों की वाणी पर कान लगाओ, सुनो, कहो : मैं तुम्हें प्यार करता हूँ। तुम अँगरेज या फ्रांसीसी नहीं हो, पश्चिम में तुम्हें नाम-धाम नहीं मिलेगा। सच जानो, बहुत देर हो गयी है, आज आँसुओं को वर्षा में मिला दो, धूप में झुलस कर रात-रात जाग कर मिट्टी और हवा से एकाकार दग्ध हो कर बरसात में भीग कर बीज के आवेग से स्वयं काँप कर पृथिवी के छहों राग सुनते रहो प्रतिदिन इस मिट्टी के जीवन में । तब एक दिन किसी शुभ मुहूर्त में- वैसे तुम ने देर तो बहुत कर दी है, नवान्न के से समारोह में तुम घर में विश्व का मिलन करा सकोगे। तुम व्यर्थ ही छिन्न-भिन्न मन से काल के पीछे दौड़ रहे हो, घर लौटो, स्वयं त्रिकाल तुम्हें बोल देंगे तुम अपने हाथों भेरी बजाओगे।

नींद नहीं, नींद के किनारे

नींद नहीं, नींद के किनारे जहाँ बाल का नीलाचल महानीलिमा में बिखर जाता है लगभग शरीर के कगार पर- मानो लगभग मानस की मुक्त सीमा पर, या आकाशभेदी, यद्यपि आकाश नहीं, चोटियों पर, शरीर की चेतना से सटे-सटे कगारों पर लक्षहीन घूमना, घूमना या उड़ना, जैसे चील, जैसे बाज गगनभेड़ या मानो सुनहरा ईगल, शिकार की खोज में नहीं, सहज तृप्ति से तैरना दोनों पंख फैला देना, मानो शुद्ध पीलू हो या खम्माच, मानो जीवन के सारे बन्धन, सारे विकार सब कुछ छोड़ देना, आशाओं और हताशाओं की भरपाई हो जाने पर, मन के आकाश में मुक्त, कहिए लक्ष्यहीन, रोजी की चिन्ता से नहीं, मुनाफ़े के फेर में नहीं, थीसिस की मांग से नहीं, ख्याति के अरमान में नहीं, खाली मन के मैदान में, लगभग शरीर के कगार पर, जहाँ फ्यूग के विस्तार में ऑर्गन की अनन्त आवाज शान्ति और विपाद की गुनगुनाहट में अक्लान्त निपाद के स्वर उठाती हो, नींद नहीं, नींद के किनारे मुक्ति का आवेश, स्मृति के स्तम्भित नीलाचल पर जहाँ सचल स्वप्न में मनन की प्रबल हिल्लोल से, मानो परज के आलाप में गमक में तान में अतल की ताल-ताल पर तरल हिन्दोल में फ़ैयाजखाँ के मैनाक मन्थित अगाध ऊमिल स्वरों में अनिर्वचनीय बात उठती हो, छूटती हो, डूबती हो, उस के बाद नींद, शान्ति, नीलमनील, उस के बाद बस हरि ओ३म्, समुद्र के तानपूरे पर आकाश की झंकार ।।

मैं भी तो

मैं भी तो, सिर्फ आँखों से नहीं, पूरे मन-प्राण से बादलों का भिखारी हूँ। झुलसी हुई मिट्टी के हाहाकार से मेरे स्नायुओं में भी मुमूर्षु अकाल भर जाता है, मेरी चेतना में भी हजारों सपिल दरारें पड़ जाती है, सूर्य के ईर्ष्या भरे आघात से मेरा आल-वाल भी चूर-चूर हो गया है। मैं ने देखा है मनुष्य को टकटकी लगाये, देखा है धरती लगातार फीके आसमान पर टकटकी लगाये रहती है। क्योंकि जीवन में आज भी धरती और सहस्राक्ष आकाश प्रबल हैं। मैं भी दिनरात जलधार को ताकता रहा हूँ ! तभी तो आज मैं दूर्वादलश्याम अभिराम वृष्टि सुन रहा हूँ, वृष्टि देख रहा हूँ, बौछारों में गन्धों से घ्राण भर लेता हूँ, मन ही मन मैं भी सत्ता का झुलसा खेत निराता हूँ, बोता है; फ़सल की थरथराती बालो बन जाता हूँ। मेरे स्नायुओं की गांठों में भी आज धरती का आषाढ़ वर्षा का उत्सव बन गया है; हृदय बह उठा है, कगार टूट रहे हैं, मुक्ताबिन्दु गूँथ-गूँथ कर लावण्य से चैतन्य भर लेता हूँ, और उस के गले में पहना देता हूँ जिस के बाह मेरे गले में हैं। शरीर का अन्धकार बादल भरा गीत बन जाता है, सूर्योदय और सूर्यास्त की तीव्र छटा वन्दना । तभी तो आज अंकुर-अंकुर में । मेरी कविता भी प्रसन्न हवा में लहराती है और आसन्न आश्विन में आहा ! धान की मंजरी ॥ ७/२/५८

सूर्यास्त वेला में

गरमी का झुलसा दिन, जा कर भी नहीं जाता। जारुल के फूलों के बीच बच्चों का खेल थमने में ही नहीं आता, मैं कहता हूँ : धुन ही तो है अभी तो मैं मौजूद हूँ; फूल और ढेले- यही तो खिलौने हैं, और सूर्यास्त का उजाला- और कुछ पके बाल मेरे सिर के । खेलते हैं तो खेलें, माता-पिता स्वयं निश्चिन्त हो कर प्यार कर लें, घर के अहाते में मैं जो मौजूद हूँ, मन लगा कर आँखें गड़ाये देख रहा हूँ। देख रहा हूँ दोनों बच्चे पेड़ की पत्तियों, फूलों और घास से मिल कर एकाकार हो गये है। सूर्यास्त-वेला में शायद यही मनुष्य का जीवन्त आईना है ? १४/२/५८

अभिन्न स्वस्ति में

स्वर्णचम्पा की कान्ति अंग-अंग में झलकती है, शिरीष के मर्मर स्वरों में यही बात बताता हूँ, प्राकृतिक मन से प्रिया को कृष्णचूड़ा के रंग में रंगाता हूँ। नखमूलों में क्या पलाश ने अपनी पंखुरियां बिखरा दी हैं ? ओष्ठाधरों में प्रवाल फूलों का परस लग गया है। अभी और रंग चाहिए ? चैती में सेमलतले का अबीर चुन कर क्या होगा? आकाशनीम के तारों भरी राह पर मेह पड़ रहा है, कैथ के फूलों से फलों का बाग़ मतिया रहा है, रथ के मेले की राह की आँधी से कदम्ब सिहर रहा है । धान की गन्ध मलता मैं शरद् की छुट्टियाँ बिता रहा हूँ, रास के आनन्द में हरियाली और सुनील से दृष्टि आंजता हुआ, गुलाब के काँटों में अंगुली से धरती का दुःख चखता । उस आनन्द में कोई स्वाद नहीं जो विषाद से तीव्र और तीक्ष्ण न हो, तभी तो आनन्द के तले अभिन्न स्वदेश घनीभूत रहता है। शहर की स्वस्ति और सुख में गांव के सैकड़ों विघ्नभय मिले रहते हैं; राजधानी कबन्ध क्यों है ? सारा प्रदेश अपाहिज और बीमार है। यह अद्भुत जीवन देखो, हमारी कई-कई पीढ़ियाँ अपने बसने की जगह खोजती मर जाती हैं, हालांकि हम अपने ही देश में है। मन निर्मम और निर्बोध है, हक़ है तो सिर्फ नौकरी के जल्वे का, तनिक सा भी प्यार किये बिना सोचते हैं कि देश हमारा ही है। गांव शहर की भीड़ में आता है तो सोचता है असहाय हाथों को सहारा दे कर बुद्धिमन्त अंगरेजी-नवीस हिम्मत बंधायेंगे। गाँव क्या आज भी नहीं समझ पाता कि तन-मन-प्राणों को कुचल कर अंगरेजी घोड़ा भाग गया है, अपने पीछे हजारों सईस छोड़ कर ! गांव-देहात की यह पिकनिक बताओ कब खत्म होगी, साम्राज्य की अस्वस्थ बस्ती में प्रकृति को कब जगह मिलेगी, स्वदेश और स्वजाति के बीच गठबन्धन कब होगा, गांव और शहर की अभिन्न स्वस्ति का आनन्द कब मिलेगा? पैरों तले जब जमीन नहीं तो बेकार है सिर पर आसमान ढोना ! खान धंसती है, बांध टूटता है, इमारतें और रेल लाइनें खिसकती है- असीम धैर्य से सब कुछ सहती है इस देश की जनता-वसुन्धरा । हल की फाल से चेतना को उर्वर करो, तभी तो ज्ञान-विज्ञान में मन की फ़सल फलेगी, तभी तो हाथ के दर्द से सचल यन्त्र तैयार होगा। देर हो गयी है ? हो जाय । देह गम्भार है, मन दृढ़ है, पत्ते झर चुके हैं, चार मटियाई पंखुड़ियों के बीच प्रेम का एक वासन्ती सम्भार है। पराये मन को गंजों गांवों में बिला दो सच जानो प्रकृति का प्रतिशोध इसी शताब्दी में पूरा हो जायेगा, मरे शहर में ही आम-कटहल-जामुन के रूप में अभिन्न मन छा जायेगा ॥ २५।२।५८

ये और वे

ये फाल्गुन में महुआ की ज्यामितीय बहार से मुग्ध हो जाते हैं । अजेय विन्यास से डालों पर पत्रहीन फूल खिल उठते हैं, मानो किसी मजूर या किसान के देशी प्रतीक हों, तनिक भी मेद नहीं, सिर्फ़ पेशियाँ, झुलसे भीगे हाड़ों में गांठ-गांठ में कठोर मिट्टी की शक्ति फूल उठी हो। इसी लिए ये मुग्ध हो जाते हैं, वासन्ती मैदान में विचरने वाले । और वे कितने उत्साह से फूल फल बीज कोठों में जमा करते हैं, सब कुछ बीन लेते हैं, महआ की कृपा से कुछ महीने कट जायेंगे । इसी प्रकार एक ही क्रिया की भिन्न-भिन्न प्रतिक्रियाएं देखी हैं हम विह्वल दृष्टि से शरद् के नवाबी आसमान में डूबता सूरज देख कर अवाक् मुग्ध हो जाते हैं, और वे चिन्ता से विकल कि कहीं नवान्न की हरियाली लाल बादलों के स्वर्णप्रवाह में न बह जाये; हम जिस बात से मगन हो जाते हैं वे उसी से अन्धे या बहरे । फिर भी सब एक हैं, दोनों को एक ही प्रकृति है, सिर्फ हमारा शिल्प मूल्य निश्चित करने में मूल को भूल गया है- महुआनिर्भर और मेघजीवी इस देश की स्मृति है, सिर्फ़ आज ग्रन्थि छिन्न हो गयी है, तभी तो दफ़्तर और प्रान्तर में भेद है। वे किसान नर-नारी हैं, और ये भव्य किरानी ॥ २६।२।५८

आदिम-अन्तिम

उस के चरणों में है अशोक पलाश, मैं ढोता हैं विवर्ण शिशिर । उस की आँखों में होली की रात है, मैं माघी भोर का आकाश हूँ। उस की देह में आदिम गौरव है, मैं ढोता हूँ अन्तिम तुषार, उस की हंसी अलका का सम्भार है और मैं स्मृति का रौरव हूँ। क्या वह आश्विन को लांघ कर आयेगी, मैं क्या फिर फाल्गुन में लौट जाऊंगा? क्या काल को गिन कर काल जीत लूंगा, एक रात क्या दूसरा दिन पा जायेगी? १२/३/५८

वन की होली

ऐसा लगा मानो धू-धू कर के आग जल रही हो, टोलों पर शेरों की जोड़ी छलाँग लगाती निकली हो; किंशुक के प्राचीन रक्त से फागुन लाल हो गया है, प्रकृति की यह कैसी आकांक्षा ! सुन्दर को मृत्यु से यह कैसा अनुराग है ! शाल और सागौन शीशम और गम्भार के बीच सरकारी वन में यह किन की चेतना जागती है, कौन अंगड़ाई ले रहे है ! चाँद के इस तीव्र रूप के सम्भार से निष्ठुर करुण गोखुरे और चन्द्रबोड़ा साँप । फिर भी पेड़ों पर मृदुल फूलों की गन्ध है, झाड़-झाड़ियों में चुपचाप घ्राण भर जाता है, हरेक पक्षी से आँख-कानों में चकाचौंध हो जाती है, हिरन की पुकार की प्रकट पुलक में मृत्यु का सम्मान है। यह मानो देश के लोगों की प्रकृत उपमा है जो स्मति की मार से आशा-आनन्द में भी खिन्न रहते हैं, मानो अपने प्रेम के कारण ही वे एक-दूसरे को घृणित मानने को बाध्य हों,- क्या सचमुच समाज में ही प्रकृति की मृत तुलना मिलती है ? ऐसा लगा मानो रात में पहाड़ों पर अग्निमालाएँ नाच रही हों, न जाने कितने जलती आँखों वाले पैरों की चाप सुनाई दी, इधर दूर की उस बस्ती में फागुन मतवाला हो उठा है, नगाड़े और बाँसुरी के स्वरों से पूर्णिमा सारी रात प्रेम में मिटाती-बनाती है ॥ १९५८

पहला कदम्ब फूल

तुम्हें अपने जीवन की सन्ध्या में श्रावण मास का पहला कदम्ब फूल दे सकूँगा इस की कोई आशा नहीं थी, फिर भी रंग की बहार छा गयी है, फिर भी अपराल के आकाश में घटा घिरी है। सुनने में आया है कि शायद आजकल हमारे बंगाल की वर्षा फरक्का या ऐसे ही किसी सुदूर नाम की ओट में बिला गयी है, सुनने में आया है कि आजकल शिवजी की जटा छिन्न हो गयी है, बस महामारी अनाहार अनाचार ही छाये हैं; कपिल मुनि की गुफा का अन्धकार हमारे इस राढ़ देश पर फिर छा गया है, सुनने में आया है कि गंगा में करोड़ों आँखों के आँसू हैं, आँखें जिन की मन ही मन गिनती करना भी दुश्वार है। तभी तो आज शायद बरसों की परिचित वर्षा सुनने में आया है दिल्ली चली गयी है ! शिव-दुर्गा के मिलन के बिना घटा कैसी ? आज कल तो किसी भी मामले में आशा करना कठिन है। कोई आशा नहीं थी, दिन भर कुण्ठित रहता था। फिर भी अपराल्लु के आकाश में घटा घिर आयी, लगभग वर्षा ही की तरह, चाहे वैशाख का आंधी-तूफान हो, या शरद्, आकाश में रंगों की बहार है मानो कैलास छोड़ कर आयी उमा के नेत्र हों। वर्षा उतरी, कलकत्ते ने मुक्ति की सांस ली, और घाट-मैदानों में, नदियों और वनों में फैल गयी। नव जीवन के ऐक्य से सब एकाकार हो गया, गाँवों और शहरों का रेगिस्तानी शाप मानो मिट गया, दुर्गम पर्वत दुस्तर मरुस्थल लाँघ कर मानो नटराज ने प्रेम और सख्य से नीलम-धवल बाहपाश में गौरी के वर अंगों को समेट लिया। इस दृश्य की कहीं कोई बराबरी नहीं । इस नृत्य के विगलित सुख में डूब कर बेला और जुही के फूल सजल हवा में झर रहे हैं- लगता है मानो सारी भूलें धुल गयी हों, बस आँगन का कदम्ब आप ही आप सिहर रहा है। पहला कदम्ब फूल मैं तुम्हीं को दूंगा ।। १२।७।५८

किराये का घर

किराये का घर रूखी ज़मीन की तरह है, जड़ें जमाने में बहुतेरी गर्मियाँ, बरसातें और जाड़े लग जाते हैं सोच रहा हूँ कविता के हिस्से में कौन-सा कमरा आएगा, मन को किधर बिखेरूँगा, पूरब में या पश्चिम में यहाँ उत्तर की तरफ़ खुला है, फिर भी फाल्गुन की रिमझिम में मन और हवा गन्ध की बहार से डोल उठते हैं, झरझराता नीम टुनटुन चिड़िया का महीन गला खोल देता है, घुग्घू और बुलबुल झुण्डों में 'दाना चुगने आते हैं' तोते परम सुख से तीती निबौरियाँ ओठों में धरकर खाते हैं और चुपचाप सोचते रहते हैं इनके अलावा शालिक हैं, कौए हैं, कितने ही दुलार से और पक्षियों को देखो, ये बराबर चीख़ते रहेंगे किराये का घर है रूखी ज़मीन, ऊसर, भूदान की तरह, भोगने बसने के योग्य नहीं, पर उसे पाने में भी झंझट, दलाली सलामी वग़ैरह की माँगों से परेशान मैं फ़िलहाल उत्तर के कमरे में आ जाता हूँ, निर्विकार नीम फूलों से लदा है.. (२४/४/५९)